19.08.2023 को प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 से सम्मानित कथाकार नवीन कुमार नैैैैैैैथानी द्वारा सम्मान समारोह के अवसर पर दिया गया वक्तव्य |
आदरणीय मंच तथा इस सभागार में उपस्थित विद्वानों एवम मित्रों को मेरा विनम्र अभिवादन.
सबसे पहले तो मैं ‘प्रोफ़ेसर ओ.पी. मालवीय एवं भारती मालवीय स्मृति सम्मान 2023 ’ की आयोजन समिति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे आयोजन में सम्मिलित होने का अवसर प्रदान किया.` मैं निर्णायक मण्डल का आभारी हूँ जिन्होंने मुझ जैसे अल्प-ज्ञात रचनाकार को खोज कर आपके सामने प्रस्तुत किया है.इस सम्मान को पाकर मुझे जो खुशी हुई है उसका वर्णन करना संभव नहीं.फिर भी मैं कुछ कहने की कोशिश करूँगा.
मित्रों ,
यहाँ खड़े होकर मैं अपने आपको थोड़ा गर्वित महसूस कर रहा हूँ और यह भी सच है कि मुझे किंचित संकोच का भी अनुभव हो रहा है.गर्व होने का कारण है कि यह सम्मान इलाहाबाद की धरती पर मिल रहा है जहाँ साहित्य तथा संस्कृति की गंगा-यमुना एकाकार होकर सदियों से इस महादेश को एकता का सन्देश देती आयी हैं.साहित्य के विराट व्यक्तित्वों की इस कर्म-भूमि में खड़े होते हुए स्वाभाविक ही है कि आप उनके सामने नतमस्तक होकर संकोच का अनुभव करें कि आप इस योग्य हैं भी या नहीं.
लेकिन जब अपने ही बीच के लेखक आप पर भरोसा जताते हैं तो अपने लिखने की सार्थकता का अनुभव होता है.मेरे लिये यह भी गर्व करने का क्षण है कि निर्णायक मण्डल में मेरे अत्यन्त प्रिय कथाकार सम्मिलित हैं. मैं इस सम्मान को इस तरह से भी देख रहा हूँ कि यह अपनों के द्वारा दिया जा रहा है और यह मेरे लिये बड़ी बात है क्योंकि अपनों के बीच सम्मान पाना आपको बाहर और भीतर दोनों तरह से देर तक भिगोता है.
मार्खेज़ के जादू की गिरफ्त में होते हुए भी आप कभी नहीं भूल सकते कि किसी भी कथाकार की अन्तिम कसौटी तो बोर्हेस ही है.शब्दों से खेलने और विषयों के अनूठेपन के लिये मनोहरश्याम जोशी की गिरफ्त में बहुत दिनों तक रहा. किनका नाम लूं और किनको छोड़ूं ? यह इस यात्रा के दौरान कहना संभव नहीं.हाँ, मगर एक बात को लेकर मुझे कतई संशय नहीं है कि मैंने मोहन राकेश को पढ़कर कहानियाँ लिखना सीखा है.वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे. उनकी ‘मिस पाल’ जैसी कहानी इस बात की तस्दीक करती है.
यह मेरी दूसरी इलाहाबाद यात्रा है. पहली बार सन 2003 में इलाहाबाद आया था , अभिविन्यास कार्य-क्रम था- इलाहाबाद विश्व-विद्यालय में.लेकिन इलाहाबाद बहुत पहले से मेरे भीतर बसा हुआ था. दरअसल, लेखन के शुरुआती दौर में मुझे गिरिराज किशोर जी के संपर्क में आने का अवसर मिला.वे पिछली सदी में नौवे दशक के ढलते हुए साल थे. कुछ दिनों के लिये मैं आई आई टी कानपुर की रमन रिसर्च लैब में काम के सिलसिले में गया हुआ था. उस वक्त गिरिराज जी वहाँ रचनात्मक लेखन केन्द्र स्थापित कर उसकी गतिविधियां चला रहे थे. वहीं मेरा उनसे परिचय हुआ परिचय हुआ. वे इलाहाबाद का जिक्र करते हुए कहते थे कि लेखक को उपेक्षा सहने का अभ्यास होना चाहिए. और इस बात का उदाहरण देते हुए वे अपने इलाहाबाद के दिनों को याद करते हुए कहते थे , “ वहाँ लोगों ने मुझे तब तक लेखक नहीं माना जब तक कि मेरा उपन्यास ‘ लोग ’ नहीं छप गया”
मैं आज गिरिराज जी को याद कर रहा हूं तो उसका एक दूसरा कारण भी है.जैसा कि मैंने अभी कहा है वे मेरे लिखने के शुरुआती दिन थे.गिरिराज जी से संपर्क लेकिन निरन्तर बना रहा.वे मेरी कहानियां पढ़ते और अपनी राय देते. उसी वक्त एक बार मुझे लगा कि मेरे लिये अब लिखना संभव नहीं रह जायेगा.हुआ यूँ था कि मैं काफ़्का की कहानी मेटामार्फोसिस पढ़कर उसके सम्मोहन में जकड़ा हुआ था.मुझे लगने लगा था कि मेरे लिये लिखना अब संभव नहीं होगा. अपना लिखा हर शब्द व्यर्थ लगने लगा था. तब मैंने इस बारे में गिरिराज जी को पत्र लिखा था.उनका जवाब मिला था- साहित्य तो एक समुद्र है,जो भी पत्थर उठाओगे, उसके नीचे एक अनमोल रत्न मिल जायेगा. उस पत्र ने मुझे न लिख पाने की स्थिति से उबार लिया था और आज मैं आपके बीच एक लेखक की हैसियत से मौजूद हूँ.यह बहुत सही अवसर है कि मैं गिरिराज जी के इस ॠण को विनम्रतापूर्वक याद करूं.
किसी भी लेखक के होने के पीछे उसके पूर्ववर्ती और समकालीन लेखकों का योगदान होता है. लेखकों की इस बिरादरी में भाषा, राष्ट्र, भूगोल और संस्कृतियों की तमाम सरहदें मिट जाती हैं. यहाँ यह कहना भी बहुत मुश्किल होता है कि ठीक- ठीक कौन सी चीज किस लेखक के यहाँ से हमने सीखी. और कभी कभी तो यह सीखना एक छलावे की तरह होता है- जैसे बहुत सारी छायाएं एक दूसरे में घुली मिली हमारे सपनों के भीतर दाखिल हो गयी हों. शायद यह हर लेखक के साथ होता है. मेरे साथ भी हुआ है.लेखकों की इस बिरादरी में कुछ लेखकों को पढ़कर ऐसा लगा जैसे वे मेरे दिल के बहुत नज़दीक कहीं बसे हुए हैं. इस बसाहट में प्रिय लेखकों का आना जाना निरन्तर बना रहा है. जैसे कोई लेखक बहुत दिनों तक वहां बने रहे, फिर कोई दूसरे लेखक न जाने कौन सी सरहद लाँघ कर चले आये. कुछ ऐसे भी लेखक रहे जो बार- बार यहां लौट आये. लेकिन फिर भी चेखव के असर से कोई भी कहानीकार कहाँ बच सका है. मार्खेज़ के जादू की गिरफ्त में होते हुए भी आप कभी नहीं भूल सकते कि किसी भी कथाकार की अन्तिम कसौटी तो बोर्हेस ही है.शब्दों से खेलने और विषयों के अनूठेपन के लिये मनोहरश्याम जोशी की गिरफ्त में बहुत दिनों तक रहा. किनका नाम लूं और किनको छोड़ूं ? यह इस यात्रा के दौरान कहना संभव नहीं.हाँ, मगर एक बात को लेकर मुझे कतई संशय नहीं है कि मैंने मोहन राकेश को पढ़कर कहानियाँ लिखना सीखा है.वे अपने समय से बहुत आगे के कहानीकार थे. उनकी ‘मिस पाल’ जैसी कहानी इस बात की तस्दीक करती है.
कहानी की बात करते हुए आप मुझे इजाजत दें कि मैं अपने बचपन की कुछ बातें आपके साथ साझा करूं क्योंकि इन बातों के भीतर जो शहर है वह बाहर से शायद काफी बदल चुका है लेकिन मेरे भीतर वह अभी भी वैसा ही है जैसा सन 1969 से 1971 के दरम्यान था.वह शहर है नैनीताल ! मेरे बचपन के लगभग ढाई साल नैनीताल में गुजरे हैं ! उन दिनों हम जिस इमारत में रहा करते थे उसका नाम ईटन हाउस था. वह इमारत शायद अब भी वहीं है. उसका वह नाम बचा रह गया है या बदल गया है यह मैं नहीं जानता. उम्मीद करता हूं कि शहरों के नाम बदलने की रवायतें अभी इमारतों तक नहीं पहुँची होंगी. और अगर बदल भी गया हो तो भी मेरी स्मृतियों में उस जगह की जो खुश्बुएं बसी हुई हैं वे ईटन हाउस नाम के साथ ही जागती हैं. और बरसात के दिनों की वे बारिश में नहायी गीली गन्ध- बिच्छू घास की झाड़ियों के पास उठती हुईं. वहाँ बच्चे एक खेल खेला करते थे- वह छुपम-छुपाई का खेल होता था. बादल जब भी इजाजत देते ,बच्चे घरों से बाहर निकल जाते और खेल शुरू हो जाता.इस खेल के लिए किसी गेंद की भी जरूरत न पड़ती. सड़क में पड़े किसी खाली डिब्बे से काम चल जाता. उस खाली डिब्बे को बीच में रख देते थे. कोई बलिष्ठ लड़का उस डब्बे को जितनी दूर तक संभव होता , लात मारकर पहुंचा देता .अब जिस लड़के की बारी होती , उसका काम होता कि वह उस डब्बे को ढूंढ कर लाये और तय स्थान पर रख दे.जितना समय उसे डिब्बे को खोज कर लाने में लगता उतनी देर में दूसरे सब बच्चे इधर-उधर छिप जाते.छिपने के इस खेल में सबसे अधिक मेरी नज़रों के बीच वह लड़का होता जो उस डिब्बे को खोज कर बाकी लोगों को ढूंढ रहा है. आज भी वह दृश्य मेरी आँखों के सामने है. ज्यादातर यह होता कि वह डिब्बा आसानी से हाथ नहीं आता. दिखायी तो देता , लेकिन थोड़ा छुपा- छुपा सा. कई बार तो वह बिच्छू घास के बीच दुबक जाता ! कई बार तो यह भी होता कि जब डब्बा हाथ में आता तो हाथ लहू-लुहान हो चुके होते. बिच्छू घास ही नहीं , वह डब्बा कई बार कंटीली झाड़ियों के बीच पाया जाता.बाद के वर्षों में जब भी मैं उस दृश्य को याद करता हूँ तो मुझे लगता है कि अभी तक वह लड़का मेरे भीतर है . बल्कि वह लड़का मैं ही हूं . मुझे लगता है कि मेरे लिये कहानी भी उस डिब्बे की तरह है . दिखती हुई लेकिन छुपी हुई पहुँच से बाहर- पकड़ से बची हुई.किसी गह्वर में अटकी हुई.
उस कहानी को पकड़ने के लिए कई बार – बल्कि ज्यादातर –आप अपने भीतर भी उतर जाते हैं .अक्सर लगता है कि जिसे आप बाहर ढूँढ रहे थे वह कहीं भीतर तो नहीं है ?बाहर से भीतर की यह यात्रा कई बार कष्टप्रद हो उठती है. कई बार तो यह भी नहीं मालूम होता कि आप किसकी तलाश में निकले थे!मेरे लिये कहानी लिखना उस यात्रा में निकलने की तरह है जहाँ मौसम साफ नहीं है, रास्ते बने हुए नहीं हैं और गन्तव्य अनिश्चित है..
यह सवाल अक्सर लेखकों से पूछा जाता है कि वे क्यों लिखते हैं या उनके लिखने के क्या मायने हैं? मेरे लिये इस तरह के सवालों का जवाब देना मुश्किल है. एक बात यह समझ में आती है कि लिखना एक तरह से चीजों और स्मृतियों को दर्ज करना है.बल्गारियन लेखक जिओर्गी गोस्पोदिनोव ने बूढ़े होने के साथ विस्मृतियों को केन्द्र में रखकर एक उपन्यास लिखा है जिसका अंग्रेजी अनुवाद ‘टाइम शेल्टर’ नाम से छपा है. इसमें एक जगह वे कहते हैं, ‘अगर आप किसी की स्मृतियों में नहीं हैं तो आपका अस्तित्व नहीं है.’
मैं कहानी लिखता हूँ तो जाहिर है कि मुझे जो भी कुछ कहना होगा वह मैं कहानी लिखकर ही कहूँगा.मुझसे कई बार पूछा गया है कि तुम इस कहानी में क्या कहना चाहते हो? मेरा जवाब होता है- मैं नहीं जानता . अगर मैं जानता होता तो कोई लेख लिखता, कहानी नहीं लिखता. लेकिन फिर भी मैं अपने को सौभाग्यशाली समझता हूँ कि मुझे ऐसे संपादक मिले जिन्होंने जोखिम लेते हुए मेरी कहानियों पर भरोसा जताया.राजेन्द्र यादव तो नये लेखकों को उत्साहित करते ही थे .नये लेखकों पर भरोसा जताते हुए अप्रतिम कथाकार सत्येन कुमार ने ‘ कहानियाँ-मासिक चयन’ का प्रकाशन शुरू किया था. यहाँ मैं हरिनारायण जी की कथादेश का जिक्र विशेष सन्दर्भ में करना चाहूँगा. यह देखना आपके लिये भी दिलचस्प होगा कि एक संपादक और आलोचक किस तरह किसी लेखक की रचनात्मकता में सहायक हो सकते हैं.कथादेश में मेरी पहली कहानी छपी थी, ‘चोर-घटड़ा’. इसे छापते हुए पत्रिका ने एक स्तंभ शुरु किया था – गहरे पैठ. इसके साथ संपादकीय टिप्पणी इस तरह जाती थी कि कुछ कहानियाँ होती हैं जो सर के ऊपर से निकल जाती हैं. किसी कहानी लेखक के लिये यह कोई बहुत उत्साह- वर्धक स्थिति नहीं है कि उसकी कहानियाँ पाठक की समझ में नहीं आतीं. उस वक्त मैं मानता था – और आज भी मानता हूँ कि अगर कोई चीज मेरे भीतर है तो वह किसी दूसरे मनुष्य के भीतर भी होगी. खैर, उस स्तंभ की विशेषता थी कि अगले अंक में उस कहानी पर दो जिम्मेदार लेखकों की टिप्पणियां छपा करती थी. तो, ‘चोर-घटड़ा ’ कहानी पर सुरेश उनियाल और अर्चना वर्मा की टिप्पणियाँ छपीं. तब तक मैं सौरी को केन्द्र बनाकर चार-पाँच कहानियाँ लिख चुका था. अर्चना जी ने अपनी टिप्पणी में ध्यान दिलाया कि सौरी का एक अर्थ प्रसूति-गृह भी होता है.तब तक सौरी की परिकल्पना पूरी तरह से आकार नहीं ले सकी थी. अर्चना जी की टिप्पणी के बाद ‘पारस’ कहानी में सौरी अपने सही अर्थ को पा सकी. कई बार इस तरह से आलोचना भी रचना को मांझती है. लेकिन इसके लिये अर्चना वर्मा जैसे संवेदनशील आलोचक की जरूरत पड़ती है. अर्चना जी अब हमारे बीच नहीं हैं. मैं इस अवसर पर उनके योगदान को कृतज्ञतापूर्वक याद करता हूँ.
यह मेरे लिये एक तरह का अपराध ही होगा अगर मैं अपने शहर देहरादून का जिक्र न करूँ जिसने मेरे भीतर के लेखक को गढ़ा.इस शहर में कही हरजीत और अवधेश भी रहते थे जिनके साथ अनगिन शामें साहित्य और कलाओं की चर्चा करते हुए अगली सुबह में बदल जाती थीं. देहरादून की एक विशेषता है- व्यक्तिगत स्तर पर पारस्परिक स्नेह और प्रेम का व्यवहार किया जाता है लेकिन मित्रों की रचनाओं की प्रशंसा से भरसक बचने की कोशिश की जाती है.विशेष रूप से सम्मुख – प्रशंसा. इसे हम चिरायता प्रेम कहा करते हैं. यह खाने में कड़वा होता है लेकिन स्वास्थ्य के लिये लाभदायक ही सिद्ध होता है. इस शहर के अनौपचारिक महौल में मैंने अपनी बहुत सी कहानियों का पहला पाठ किया और मित्रों की प्रतिक्रिया के बाद उनको फिर फिर लिखा. मैं देहरादून के अपने मित्रों को याद करते हुए यह सम्मान विनम्रतापूर्वक स्वीकार करता हूँ.
एक बार पुनः आप सबका आभार.
2 comments:
एक शानदार, घनीभूत, सार्थक संबोधन, लिखो यहाँ वहाँ और विजय गौड़ को हार्दिक साधुवाद, नवीन नैथानी जी का संबोधन उनकी कहानियों की तरह सधा हुआ,
शानदार संबोधन
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