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Thursday, January 10, 2013

कभी यहां बहुत सारे रास्ते थे!



(यहां - यमुना किनारे सुबह के कोहरे में जब बाहर निकलना बहुत मुश्किल हुआ जाता है तो घर के भीतर बैठे पुराने कागजों को खंगाल ही लेना चाहिये.कम्प्यूटर के वाइरस की चिन्ता करने वाली नयी पीढी को दीमकों के भय का शायद अन्दाजा हो. कुछ जगहें तो दीमकों के लिये बहुत ही सुरक्षित हुई जाती हैं. 1988 या 89 में लिखी कुछ रचनायें मिलीं. शायद हर कहानी लिखने वाला शुरूआत कविताओं से करता है.उन्हीं में से एक यहां किंचित संकोच के साथ प्रस्तुत है. –नवीन कुमार नैथानी)
रास्ते


कौन गया होगा इन रास्तों से होकर

जब आगे कुछ नहीं रहा होगा

जीवन में वनस्पति के सिवा.



मृत अवशेषों के साथ किसने बिताये होंगे

खत्म होने वाले दिन?



कौन जाता होगा इन रास्तों से होकर

जब समय में उतना शेष नहीं है जीवन

जितना हम जी लिये.

वनस्पति के दरकने से बनी पगडंडी पर कौन चलता होगा?



कौन जायेगा इन रास्तों से होकर

जब आगे कुछ नहीं रहेगा

हवा

वनस्पति

प्राणि.



जब फिर से शुरू होगा जीवन तो

कौन बतायेगा

कि कभी यहां बहुत सारे रास्ते थे!


Wednesday, April 11, 2012

सुषमा नैथानी की कवितायें

बारिश के बाद बडी सुकूनदेह है ये गीली धूप
ये घुले-घुले और धुले-से सन्नाटे में ठहरे पल
आसमान पर धूप के अक्षरों से कविता लिखने की हिमाकत कर सकने वाली सुषमा नैथानी से मेरा परिचय लगभग दस वर्ष पूर्व इंटरनेट में नैथानी वंश नाम ढूंढने की सहज उत्कंठा के परिणाम-स्वरूप हुआ…बाद में ब्लाग की दुनिया में विचरते हुए सुषमा के कवि रूप से मुलाकात हुई!अमेरिकाअ में जीव-विग्यान में शोध और अध्यापन से जुडी सुषमा का कविता संग्रह “उडते हैं अबाबील” हाल ही में अन्तिका प्रकाशन से आया है. सुषमा की कविताओं में संवेदना की कताई बरबस ध्यान खींचती आई.इस संग्रह से कुछ कवितायें प्रस्तुत हें
(नवीन कुमार नैथानी)
आगंतुक
एक दिन अचानक
चला आया प्रेम दबे पांव
समूचे चौकन्नेपन के बावजूद
सहूलियत नहीं छोडी उसने
एक सिरे से खारिज होने की
नहीं बैठता किसी ठौर
किसी औने-कोने ठीक
शब्द
शब्द तुम
मेरे पास आना तो कौतुक छोडे आना
न आना बुझव्वल की तरह
आना कभी मेरी गली तो
आजमाए जुमलों की शक्ल में न आना
न गुजरना नारों की तरह
आओ तो अपने पूरे अर्थ में आना
काले पनियल बादल-सा आना
बिसार देना शब्दकोश और कुंजियां
व्यंजना व्याकरण नदी के तीर बहा आना
अटरम-पटरम,साज-सामान सब
बेस कैम्प पर ही छोडे आना
पामीर की ऊंचाई तक न भी बने
तब भी कुछ ऊंचाई तक चले आना
सपनों की रंगत में
उदासी और उल्लास बन
अपने अंतर का संगीत लिये आना
किसी राग की तरह आना
मनभावन गीत बन आना
शब्द अपने पूरे अर्थ में आना तुम…
बंटवार
किसी अबाबील की तरह
दिन उडते हैं
पंजों में दबाये जीवन
हर रोज कुछ शब्द बचे रहते
कुछ प्यार बचा रहता
सत्रह इच्छायें सर उठाती हैं
उसी का बंटवार है
उसी में कुछ बचे रहते हम…

Sunday, February 12, 2012

विद्यासागर नौटियाल का जाना

विद्यासागर नौटियाल के निधन से हिन्दी ने एक समर्थ भाषा-शिल्पी और अप्रतिम गद्य लेखक को खो दिया है.29 सितंबर 1933 में जन्मे नौटियालजी का जीवन साहित्य और राजनीति का अनूठा संगम रहा. वे प्रगतिशील लेखकों की उस विरल पीढी से ताल्लुक रखते थे जिसने वैचारिक प्रतिबद्धता के लिये कला से कभी समझौता नहीं किया.हेमिंग्वे को अपना कथा गुरू मानने वाले नौटियाल जी 1950 के आस-पास कहानी के क्षेत्र में आये और शुरूआत में ही भैंस का कट्या जैसी कहानी लिखकर हिन्दी कहानी को एक नयी जमीन दी.शुरआती दौर की कहानियां लिखने के साथ ही वे भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी से जुड़ गये और फिर एक लम्बे समय तक साहित्य की दुनिया में अलक्षित रहे. उनकी शुरूआअती कहानियां लगभग तीस वर्षों बाद 1984 में टिहरी की कहानियां नाम से संकलित होकर पाठकों के सामने आयीं.नौटियालजी की साहित्यिक यात्रा इस मायने में भी विलक्षण है कि लगभग चार दशकों के लम्बे hibernation के बाद वे साहित्य में फिर से सक्रिय हुए! इस बीच वे तत्कालीन उत्तर-प्रदेश विधान-सभा में विधायक भी रहे. विधायक रह्ते हुए उन्होंने जिस तरह से अपने क्षेत्र को जाना उसका विवरण एक अद्भुत आख्यान भीम अकेला के रूप में दर्ज किया जिसे विधागत युक्तियों का अतिक्रमण करने वाली अनूठी रचना के रूप में याद किया जायेगा.लेखन की दूसरी पारी की शुरूआत में दिये गये एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था ,“ मुझे लिखने की हडबडी नहीं है".आश्चर्य होता है कि जीवन के आखिरी दो दशकों में उनकी दस से अधिक किताबें प्रकाशित हुईं जिसमें कहानी संग्रह ,उपन्यास,संस्मरण,निबन्ध और समीक्षाएं शामिल हैं.यह सब लिखते हुए वे निरन्तर सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय रहे.देहरादून के किसी भी साहित्यिक -सामाजिक कार्य-क्रम में उनकी मौजूदगी हमेशा सुख देती थी-वे वक्त पर पहुंचने वाले दुर्लभ व्यक्तियों में थे-प्राय: वे सबसे पहले पहुंचने वालों में होते.उनकी विनम्रता और वैचारिक असहमतियों को दर्ज करने की कठोरता का सामंजस्य चकित करता था.
वे एक प्रयोगशील कथाकार थे. सूरज सबका है जैसा उपन्यास अपने अद्भुत शिल्प -विन्यास और पारदर्शी भाषा के लिये हमेशा याद किया जायेगा.उनकी कहानियों में पहाड़ की औरत के दु:ख, तकलीफें,इच्छायें और एकाकीपन की जितनी तस्वीरें मिलती हैं वे अन्यत्र दुर्लभ हैं. उनके यहां फट जा पंचधार,नथ, समय की चोरी,जैसी मार्मिक कहानियों की लम्बी सूची है.उनके समग्र-साहित्य का मूल्यांकन करने में अभी समय लगेगा किन्तु एक बात बहुत बहुत स्पष्ट रूप से कही जा सकतीहै कि यदि पहाड़ के जीवन को समझने के लिये साहित्य में जाना हो तो विद्यासागर नैटियाल के साहित्य को पढ लेना पर्याप्त होगा.

नवीन कुमार नैथानी

Sunday, February 5, 2012

अन्छुए किनारों को देखने का सुयोग



 




Tuesday, May 31, 2011

उजड़ते गाँवों की व्यथा-कथा


कभी देहरादून तो कभी बंगलौर और कभी नोएडा, पिछले कुछ वर्षों से कथाकार विद्यासागर नौटियाल के तीन-तीन घर हुए हैं। घर परिवार के लोगों का संग साथ और स्वास्थय के लिहाज से उनकी देखभाल का यह सफर उनकी रचनात्मकता को किस तरह से प्रभावित कर रहा होगा, यह एक अध्ययन का विषय है। देश दुनिया के बीच यात्राओं की अनंत आवाजाही (बनारस से लेकर सोवियत संघ और अमेरिका की भूमि तक) के बावजूद रचनाओं में वे अपने बचपन, जवानी और संघर्ष की यादों की टिहरी को ही क्यों जिन्दा रखते हैं, क्या यह जानना अपने आप में दिलचस्प नहीं क्या ? उनकी कथा यात्रा में ऐसे सूत्रों का खोजना और उन कारणों तक पहुंचना जहां उनकी रचनात्मकता का कोई मुहाना दिखायी दे, दिलचस्प शोध हो सकता है। गत 19 मई को देहरादून से बंगलौर निकलते हुए भाई नवीन नैथानी को उन्होंने एक पत्र मेल किया। पत्र , नवीन नैथानी के कथा संग्रह सौरी की कहानियों पर प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी है।  उनकी यह टिप्पणी न सिर्फ़ नवीन की कहानियों को समझने में मद्दगार हो सकती है अपितु स्वंय उनकी रचनात्मकता के मुहाने तक भी शायद इस रास्ते पहुँचा जा सकता  है।


   विद्यासागर नौटियाल
डी-8, नेहरू कॉलानी, देहरादून
   19-5-2011
प्रिय नवीन,
   मेरे कागजों में कहीं दर्ज है कि तुम्हारी पुस्तक ''सौरी की कहानियाँ " मेरे पास मार्च 2010 में भेजी गई थी । मुझे याद नहीं आ सकता कि मैने इसे कितनी बार पढ़ा । मेरा मानना है कि इन कहानियों के बारे में जल्दबाजी में कुछ  कहना ताती खीर खाना है, जो उतना स्वाद नहीं बताती जितना मुँह को जला बैठती है । इस पर तो अगली सदी में व्यवस्थित तौर पर विमर्श होना चाहिए । अपनी जड़ों को तलाशते, सदियों के फासलों को लाँघते आ रहे लोग, जो अपनी उम्र भी ठीक-ठीक नहीं बता सकते  । सदियों की चौकीदारी करने वाले पुरूष पुरातन रामप्रसाद ने छयानवे के बाद की गिनती करना छोड़ दिया है।  सालोंसाल अपने पास आने वालों को वह यही उम्र बताता रहता है । छयानवे से आगे वह कभी बढ़ता ही नहीं । यह बता पाना भी एक समस्या है कि यह उपन्यास है कि कहानियों का संग्रह । क्योंकि यह सौरी बे बाहर नहीं    निकलता । 'किस्से के शुरू में सौरी की सम्पन्नता का जिक्र होता था, जिसमें सौरी से बाहर निकलने के एक रास्ते का वर्णन होता था , जो एक तंग ढलान से होकर गुजरता था । ढलान के ऊपर खड़े होकर बाहर की दुनिया बड़ी लुभावनी, मोहक और मायावी लगा करती  । शुरू में जो लोग उस रास्ते से होकर गये, वे वापस नहीं लौटे । बादमें जो लोग वापस लौटे उनकी बाहर की स्मृति गायब हो गई, सौरी के लोगों को वे अजनबी लगा करते । वे सौरी के लोगों को पकड़कर अपनी पहचान बताते ।बाद में लोगां ने उस रास्ते से उतरना बन्द कर दिया । "  सौरी के बाद  और उससे अभिन्न रूप से नत्थी एक और महत्वपूर्ण नाम चोर घटड़ा । सौरी के लोग अपनी दुनिया में बन्द रहते थे ।  वे चाहते ही नहीं थे कि कोई  वहाँ से बाहर निकले । लोगों ने यह बात फैला रखी थी कि जो चोर धटडे से बाहर निकलेगा चोर घटड़ा उसमें  घुसते ही वहाँ  की उसकी याददाश्त चुरा लेगी ।  कलाधर वैद्य की तरह  जो अपने बड़े-से थैले में याददाश्त की जड़ी बूटियाँ भर कर बाहर गया, फिर लौटने  पर   उसे बड़  का पेड़ ही नहीं मिला । वह उसी पेड़ को ढ़ूढ़ने आसपास भटकता रहा । उसकी लाश की पहचान उसके हाथ में फंसे थैले से हुई।  यह किस्सा सुना लेने के बाद पिता  को बच्चा ही नहीं मिला । बदहवास पिता को कहीं दूर से उसकी आवाज़ सुनाई दी -मैं यहाँ हूं, चोर घटड़े में। बच्चे की आवाज़ अब और ज़्यादा दूर '' मैं यहाँ हूँ  चोर घटड़े में । " 
खोजराम के होने से पहले पूरना दाई पर यही अपयश लगाया जाता रहता था कि  उसके हाथ से सौरी में आजतक सिर्फ लड़के जन्म लेते रहे हैं ।  सौरी वासी  प्रसूति गृह से लड़की के जन्म लेने का शुभ समाचार कभी नहीं सुन पाए। बहुत बाद में एक खोजा ने जन्म लिया, जिसका एक पैर मुड़ा हआ था और एक कान बहरा। चार बरस की उम्र में वह सोना खोजने जंगल की ओर निकल पड़ा। फिर लोगों से सुनने के बाद पारस की ।
     सौरी में अपनी जड़ों को खोजते फिर रहे लोगों को  रात्रि निवास की शरण पाने की आस में मुंदरी बुढ़िया अपने घर की तीसरी मंजिल में भेज देती है । बहुत सारे लोग। उनके सामने वहाँ एक पीपल की जड़ उभरती दिखाई देती है । यह सौरी की मूल ज़ड़ है जो पूरी तरह उलटी हो चुकीहै । वही सौरी जो पहले तीस पैंतीस घरों का गाँव था और अब  पाँच छह घर बाकी रह गए हैं। सम्पन्नता प्रदान करने वाले उसके जंगल मर चुके हैं । अब ग्राम का इतिहास किसी गर्त में लुप्त होने लगा है । मुंदरी बुढिया के घर का निर्माण करने वाले गोकुल मिस्त्री को अब एक घर की टीन की छत के उड़ जाने के बाद उसकी फिर से छवाँईं करने लायक जिन्दा दीवारें नहीं मिल पा रही हैं । मुश्किल है बाबूजी, अब इनमें बल्लियाँ भी नहीं टिकेंगी राफ्टर कहाँ  लगेंगे ? उसने हाथ झाड़ लिए । मुंदरी बुढ़िया और रामप्रसाद चौकदार की पहचान मिट चुकी है , सौरी की तरह जिसके खोजा लाटा को जंगल में एक सुनयना मिल जाने और उसके सौरी में एक लडकी को जन्म देकर उस बारे में लोगों का अंधविश्वास मिटा देने के बावजूद । खुद सौरी वाले ही अपने अतीत और इतिहास को पूरी तरह बिसार चुके हैं ।
इस पुस्तक को मैं एक और मायने में भी ऐतिहासिक मानता हूँ। मैने दस साल पहले प्रकशित सुभाष पन्त के उपन्यास '' पहाड़ चोर " को  सदी का पहला धमाका की संज्ञा दी थी । वह एक मामले में ऐतिहासिक था । हिन्दी में पहली बार पहाड़ के साल वन को भी स्थान मिला था, जो सदियों से उपेक्षित रहते आए हैं । अब तुम्हारी पुस्तक में भी उन्हें स्थान मिला है । दोनों की एक ही भूमि है, और दोनों में  एक  ही जैसे लोगों की जीवन गाथाएँ उभरती हैं पूरी शिद्दत के साथ ।



Tuesday, May 3, 2011

ये तेरा कलाम गालिब

हुए हम जो मर के रुस्वा, हुए क्यों गर्के दरिया
कहीं मजार होता कभी जनाजा उठता