कभी देहरादून तो कभी बंगलौर और कभी नोएडा, पिछले कुछ वर्षों से कथाकार विद्यासागर नौटियाल के तीन-तीन घर हुए हैं। घर परिवार के लोगों का संग साथ और स्वास्थय के लिहाज से उनकी देखभाल का यह सफर उनकी रचनात्मकता को किस तरह से प्रभावित कर रहा होगा, यह एक अध्ययन का विषय है। देश दुनिया के बीच यात्राओं की अनंत आवाजाही (बनारस से लेकर सोवियत संघ और अमेरिका की भूमि तक) के बावजूद रचनाओं में वे अपने बचपन, जवानी और संघर्ष की यादों की टिहरी को ही क्यों जिन्दा रखते हैं, क्या यह जानना अपने आप में दिलचस्प नहीं क्या ? उनकी कथा यात्रा में ऐसे सूत्रों का खोजना और उन कारणों तक पहुंचना जहां उनकी रचनात्मकता का कोई मुहाना दिखायी दे, दिलचस्प शोध हो सकता है। गत 19 मई को देहरादून से बंगलौर निकलते हुए भाई नवीन नैथानी को उन्होंने एक पत्र मेल किया। पत्र , नवीन नैथानी के कथा संग्रह सौरी की कहानियों पर प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी है। उनकी यह टिप्पणी न सिर्फ़ नवीन की कहानियों को समझने में मद्दगार हो सकती है अपितु स्वंय उनकी रचनात्मकता के मुहाने तक भी शायद इस रास्ते पहुँचा जा सकता है। |
विद्यासागर नौटियाल
डी-8, नेहरू कॉलानी, देहरादून
19-5-2011
प्रिय नवीन,
मेरे कागजों में कहीं दर्ज है कि तुम्हारी पुस्तक ''सौरी की कहानियाँ " मेरे पास मार्च 2010 में भेजी गई थी । मुझे याद नहीं आ सकता कि मैने इसे कितनी बार पढ़ा । मेरा मानना है कि इन कहानियों के बारे में जल्दबाजी में कुछ कहना ताती खीर खाना है, जो उतना स्वाद नहीं बताती जितना मुँह को जला बैठती है । इस पर तो अगली सदी में व्यवस्थित तौर पर विमर्श होना चाहिए । अपनी जड़ों को तलाशते, सदियों के फासलों को लाँघते आ रहे लोग, जो अपनी उम्र भी ठीक-ठीक नहीं बता सकते । सदियों की चौकीदारी करने वाले पुरूष पुरातन रामप्रसाद ने छयानवे के बाद की गिनती करना छोड़ दिया है। सालोंसाल अपने पास आने वालों को वह यही उम्र बताता रहता है । छयानवे से आगे वह कभी बढ़ता ही नहीं । यह बता पाना भी एक समस्या है कि यह उपन्यास है कि कहानियों का संग्रह । क्योंकि यह सौरी बे बाहर नहीं निकलता । 'किस्से के शुरू में सौरी की सम्पन्नता का जिक्र होता था, जिसमें सौरी से बाहर निकलने के एक रास्ते का वर्णन होता था , जो एक तंग ढलान से होकर गुजरता था । ढलान के ऊपर खड़े होकर बाहर की दुनिया बड़ी लुभावनी, मोहक और मायावी लगा करती । शुरू में जो लोग उस रास्ते से होकर गये, वे वापस नहीं लौटे । बादमें जो लोग वापस लौटे उनकी बाहर की स्मृति गायब हो गई, सौरी के लोगों को वे अजनबी लगा करते । वे सौरी के लोगों को पकड़कर अपनी पहचान बताते ।बाद में लोगां ने उस रास्ते से उतरना बन्द कर दिया । " सौरी के बाद और उससे अभिन्न रूप से नत्थी एक और महत्वपूर्ण नाम चोर घटड़ा । सौरी के लोग अपनी दुनिया में बन्द रहते थे । वे चाहते ही नहीं थे कि कोई वहाँ से बाहर निकले । लोगों ने यह बात फैला रखी थी कि जो चोर धटडे से बाहर निकलेगा चोर घटड़ा उसमें घुसते ही वहाँ की उसकी याददाश्त चुरा लेगी । कलाधर वैद्य की तरह जो अपने बड़े-से थैले में याददाश्त की जड़ी बूटियाँ भर कर बाहर गया, फिर लौटने पर उसे बड़ का पेड़ ही नहीं मिला । वह उसी पेड़ को ढ़ूढ़ने आसपास भटकता रहा । उसकी लाश की पहचान उसके हाथ में फंसे थैले से हुई। यह किस्सा सुना लेने के बाद पिता को बच्चा ही नहीं मिला । बदहवास पिता को कहीं दूर से उसकी आवाज़ सुनाई दी -मैं यहाँ हूं, चोर घटड़े में। बच्चे की आवाज़ अब और ज़्यादा दूर '' मैं यहाँ हूँ चोर घटड़े में । "
खोजराम के होने से पहले पूरना दाई पर यही अपयश लगाया जाता रहता था कि उसके हाथ से सौरी में आजतक सिर्फ लड़के जन्म लेते रहे हैं । सौरी वासी प्रसूति गृह से लड़की के जन्म लेने का शुभ समाचार कभी नहीं सुन पाए। बहुत बाद में एक खोजा ने जन्म लिया, जिसका एक पैर मुड़ा हआ था और एक कान बहरा। चार बरस की उम्र में वह सोना खोजने जंगल की ओर निकल पड़ा। फिर लोगों से सुनने के बाद पारस की ।
सौरी में अपनी जड़ों को खोजते फिर रहे लोगों को रात्रि निवास की शरण पाने की आस में मुंदरी बुढ़िया अपने घर की तीसरी मंजिल में भेज देती है । बहुत सारे लोग। उनके सामने वहाँ एक पीपल की जड़ उभरती दिखाई देती है । यह सौरी की मूल ज़ड़ है जो पूरी तरह उलटी हो चुकीहै । वही सौरी जो पहले तीस पैंतीस घरों का गाँव था और अब पाँच छह घर बाकी रह गए हैं। सम्पन्नता प्रदान करने वाले उसके जंगल मर चुके हैं । अब ग्राम का इतिहास किसी गर्त में लुप्त होने लगा है । मुंदरी बुढिया के घर का निर्माण करने वाले गोकुल मिस्त्री को अब एक घर की टीन की छत के उड़ जाने के बाद उसकी फिर से छवाँईं करने लायक जिन्दा दीवारें नहीं मिल पा रही हैं । मुश्किल है बाबूजी, अब इनमें बल्लियाँ भी नहीं टिकेंगी राफ्टर कहाँ लगेंगे ? उसने हाथ झाड़ लिए । मुंदरी बुढ़िया और रामप्रसाद चौकदार की पहचान मिट चुकी है , सौरी की तरह जिसके खोजा लाटा को जंगल में एक सुनयना मिल जाने और उसके सौरी में एक लडकी को जन्म देकर उस बारे में लोगों का अंधविश्वास मिटा देने के बावजूद । खुद सौरी वाले ही अपने अतीत और इतिहास को पूरी तरह बिसार चुके हैं ।
इस पुस्तक को मैं एक और मायने में भी ऐतिहासिक मानता हूँ। मैने दस साल पहले प्रकशित सुभाष पन्त के उपन्यास '' पहाड़ चोर " को सदी का पहला धमाका की संज्ञा दी थी । वह एक मामले में ऐतिहासिक था । हिन्दी में पहली बार पहाड़ के साल वन को भी स्थान मिला था, जो सदियों से उपेक्षित रहते आए हैं । अब तुम्हारी पुस्तक में भी उन्हें स्थान मिला है । दोनों की एक ही भूमि है, और दोनों में एक ही जैसे लोगों की जीवन गाथाएँ उभरती हैं पूरी शिद्दत के साथ ।
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