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Tuesday, May 31, 2011

उजड़ते गाँवों की व्यथा-कथा


कभी देहरादून तो कभी बंगलौर और कभी नोएडा, पिछले कुछ वर्षों से कथाकार विद्यासागर नौटियाल के तीन-तीन घर हुए हैं। घर परिवार के लोगों का संग साथ और स्वास्थय के लिहाज से उनकी देखभाल का यह सफर उनकी रचनात्मकता को किस तरह से प्रभावित कर रहा होगा, यह एक अध्ययन का विषय है। देश दुनिया के बीच यात्राओं की अनंत आवाजाही (बनारस से लेकर सोवियत संघ और अमेरिका की भूमि तक) के बावजूद रचनाओं में वे अपने बचपन, जवानी और संघर्ष की यादों की टिहरी को ही क्यों जिन्दा रखते हैं, क्या यह जानना अपने आप में दिलचस्प नहीं क्या ? उनकी कथा यात्रा में ऐसे सूत्रों का खोजना और उन कारणों तक पहुंचना जहां उनकी रचनात्मकता का कोई मुहाना दिखायी दे, दिलचस्प शोध हो सकता है। गत 19 मई को देहरादून से बंगलौर निकलते हुए भाई नवीन नैथानी को उन्होंने एक पत्र मेल किया। पत्र , नवीन नैथानी के कथा संग्रह सौरी की कहानियों पर प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी है।  उनकी यह टिप्पणी न सिर्फ़ नवीन की कहानियों को समझने में मद्दगार हो सकती है अपितु स्वंय उनकी रचनात्मकता के मुहाने तक भी शायद इस रास्ते पहुँचा जा सकता  है।


   विद्यासागर नौटियाल
डी-8, नेहरू कॉलानी, देहरादून
   19-5-2011
प्रिय नवीन,
   मेरे कागजों में कहीं दर्ज है कि तुम्हारी पुस्तक ''सौरी की कहानियाँ " मेरे पास मार्च 2010 में भेजी गई थी । मुझे याद नहीं आ सकता कि मैने इसे कितनी बार पढ़ा । मेरा मानना है कि इन कहानियों के बारे में जल्दबाजी में कुछ  कहना ताती खीर खाना है, जो उतना स्वाद नहीं बताती जितना मुँह को जला बैठती है । इस पर तो अगली सदी में व्यवस्थित तौर पर विमर्श होना चाहिए । अपनी जड़ों को तलाशते, सदियों के फासलों को लाँघते आ रहे लोग, जो अपनी उम्र भी ठीक-ठीक नहीं बता सकते  । सदियों की चौकीदारी करने वाले पुरूष पुरातन रामप्रसाद ने छयानवे के बाद की गिनती करना छोड़ दिया है।  सालोंसाल अपने पास आने वालों को वह यही उम्र बताता रहता है । छयानवे से आगे वह कभी बढ़ता ही नहीं । यह बता पाना भी एक समस्या है कि यह उपन्यास है कि कहानियों का संग्रह । क्योंकि यह सौरी बे बाहर नहीं    निकलता । 'किस्से के शुरू में सौरी की सम्पन्नता का जिक्र होता था, जिसमें सौरी से बाहर निकलने के एक रास्ते का वर्णन होता था , जो एक तंग ढलान से होकर गुजरता था । ढलान के ऊपर खड़े होकर बाहर की दुनिया बड़ी लुभावनी, मोहक और मायावी लगा करती  । शुरू में जो लोग उस रास्ते से होकर गये, वे वापस नहीं लौटे । बादमें जो लोग वापस लौटे उनकी बाहर की स्मृति गायब हो गई, सौरी के लोगों को वे अजनबी लगा करते । वे सौरी के लोगों को पकड़कर अपनी पहचान बताते ।बाद में लोगां ने उस रास्ते से उतरना बन्द कर दिया । "  सौरी के बाद  और उससे अभिन्न रूप से नत्थी एक और महत्वपूर्ण नाम चोर घटड़ा । सौरी के लोग अपनी दुनिया में बन्द रहते थे ।  वे चाहते ही नहीं थे कि कोई  वहाँ से बाहर निकले । लोगों ने यह बात फैला रखी थी कि जो चोर धटडे से बाहर निकलेगा चोर घटड़ा उसमें  घुसते ही वहाँ  की उसकी याददाश्त चुरा लेगी ।  कलाधर वैद्य की तरह  जो अपने बड़े-से थैले में याददाश्त की जड़ी बूटियाँ भर कर बाहर गया, फिर लौटने  पर   उसे बड़  का पेड़ ही नहीं मिला । वह उसी पेड़ को ढ़ूढ़ने आसपास भटकता रहा । उसकी लाश की पहचान उसके हाथ में फंसे थैले से हुई।  यह किस्सा सुना लेने के बाद पिता  को बच्चा ही नहीं मिला । बदहवास पिता को कहीं दूर से उसकी आवाज़ सुनाई दी -मैं यहाँ हूं, चोर घटड़े में। बच्चे की आवाज़ अब और ज़्यादा दूर '' मैं यहाँ हूँ  चोर घटड़े में । " 
खोजराम के होने से पहले पूरना दाई पर यही अपयश लगाया जाता रहता था कि  उसके हाथ से सौरी में आजतक सिर्फ लड़के जन्म लेते रहे हैं ।  सौरी वासी  प्रसूति गृह से लड़की के जन्म लेने का शुभ समाचार कभी नहीं सुन पाए। बहुत बाद में एक खोजा ने जन्म लिया, जिसका एक पैर मुड़ा हआ था और एक कान बहरा। चार बरस की उम्र में वह सोना खोजने जंगल की ओर निकल पड़ा। फिर लोगों से सुनने के बाद पारस की ।
     सौरी में अपनी जड़ों को खोजते फिर रहे लोगों को  रात्रि निवास की शरण पाने की आस में मुंदरी बुढ़िया अपने घर की तीसरी मंजिल में भेज देती है । बहुत सारे लोग। उनके सामने वहाँ एक पीपल की जड़ उभरती दिखाई देती है । यह सौरी की मूल ज़ड़ है जो पूरी तरह उलटी हो चुकीहै । वही सौरी जो पहले तीस पैंतीस घरों का गाँव था और अब  पाँच छह घर बाकी रह गए हैं। सम्पन्नता प्रदान करने वाले उसके जंगल मर चुके हैं । अब ग्राम का इतिहास किसी गर्त में लुप्त होने लगा है । मुंदरी बुढिया के घर का निर्माण करने वाले गोकुल मिस्त्री को अब एक घर की टीन की छत के उड़ जाने के बाद उसकी फिर से छवाँईं करने लायक जिन्दा दीवारें नहीं मिल पा रही हैं । मुश्किल है बाबूजी, अब इनमें बल्लियाँ भी नहीं टिकेंगी राफ्टर कहाँ  लगेंगे ? उसने हाथ झाड़ लिए । मुंदरी बुढ़िया और रामप्रसाद चौकदार की पहचान मिट चुकी है , सौरी की तरह जिसके खोजा लाटा को जंगल में एक सुनयना मिल जाने और उसके सौरी में एक लडकी को जन्म देकर उस बारे में लोगों का अंधविश्वास मिटा देने के बावजूद । खुद सौरी वाले ही अपने अतीत और इतिहास को पूरी तरह बिसार चुके हैं ।
इस पुस्तक को मैं एक और मायने में भी ऐतिहासिक मानता हूँ। मैने दस साल पहले प्रकशित सुभाष पन्त के उपन्यास '' पहाड़ चोर " को  सदी का पहला धमाका की संज्ञा दी थी । वह एक मामले में ऐतिहासिक था । हिन्दी में पहली बार पहाड़ के साल वन को भी स्थान मिला था, जो सदियों से उपेक्षित रहते आए हैं । अब तुम्हारी पुस्तक में भी उन्हें स्थान मिला है । दोनों की एक ही भूमि है, और दोनों में  एक  ही जैसे लोगों की जीवन गाथाएँ उभरती हैं पूरी शिद्दत के साथ ।



Friday, May 13, 2011

अक्लांत कौरव



अरविंद शेखर
      ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित महाश्वेता देवी साहित्य-प्रेमियों के लिए कोई अनजाना नाम नहीं है। उत्पीडित, वंचित और शोषित लोगों के लिए सहानुभूति से भरा उनका लेखन स्वयं में एक मिसाल है। अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत जनता के संघर्ष को प्रमाणिकता के साथ, सटीक ढंग से प्रस्तुत करने में सफल रही है।
        अक्लात कौरव लघु उपन्यास उनकी अन्य प्रसिद्ध कृतियों जंगल के दावेदार, टैरोडिक्टल, 1084वें की मां, शालगिरह की पुकार पर, मास्टर साहब, श्रीश्री गणेश महिमा के क्रम में ही आता है। महाश्वेता देवी लगातार आदिवासी समाजों से जुडी रही है और उनके बीच कार्य करती रही हैं। उनके अन्य उपन्यासों की तरह अक्लात-कौरव के केंद्र मे पश्चिमी बंगाल का अत्यंत पिछडा इलाका चौबीस परगना और उसके आस-पास के क्षेत्र का आदिवासी समाज है।
        इस उपन्यास की कथा जायज संघर्षो में हारे लोगों की कहानी है जो स्वयं को संघर्ष के लिए पुन: तैयार कर रहे हैं। कहानी का समय सत्तर के दशक के नक्सलवादी आंदोलन के बाद का है। जबकि आंदोलन के असफल होने का बाद पश्चिम बंगाल में सी।पी।एम। के नेतृत्व वाला वाममोर्चा सत्तारूढ हो चुका है। यह उपन्यास बताता है कि किस तरह सत्तारूढ होने के बाद वाममोर्चा अपने प्रमुख चुनावी वादे भूमि-सुधर को पूरा करने में असफल ही नहीं हो जाता बल्कि यथास्थिति बनाए रखने की कोशिश भी करता है। यही नहीं जनदबाब बढ़ने पर वहां की भूमि सुधर के नाम पर सिपर्फ छोटी जमीन के मालिकों को ही छेड़ा जाता है। जबकि बड़े जमींदार क्योंकि पाला बदलकर अब सी।पी।एम। को चंदा देने लगे है अत: पार्टी नेतृत्व उन्हें पूरा-पूरा संरक्षण देता है। परिवर्तन के नाम पर चुनाव जीत कर सत्ता में आई सरकार के यहां ग्राम जीवन में भी कोई परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि पुराने संपत्ति-शाली वर्ग की सत्ता ही कायम रहती है। बदलता है तो सिर्फ झंडा- तिरंगे के स्थान पर लाल। लेखिका के शब्दों में- ''चूड़ामणि जैसे लोग समाज के प्रतिष्ठित अंग है। सरकारें आती है, सरकारें जाती है, चूड़ामणियों का कुछ नही बिगड़ता ।" निर्वाचित प्रतिनिधि सामंत पर टिप्पणी करते हुए वह कहती हैं-''शासकदल के निर्वाचित नेता के तौर पर सामंत जागुला में सभी को दबा कर रख सकते है, कलकत्ता में वह संभव नहीं है। जागुला के विरोधियों से सामंत नहीं डरता। गुप्त समझोते में उन्होंने जागुला का बंटवारा उसके नाम पर कर दिया है। वास्तव में शहर, अभी उनके गुण्डे-मस्तान-ठेकेदार-व्यापारियों के कब्जे में है। इस शासन से सभी खुश है। मनमाना मुनाफा लूटा जा रहा है, मनमानी गुंडागर्दी चल रही है। मनमानी कीमतें बढाई जा रही है, कालाबाजारी जोरों पर है। इसके बाद भी इस शासन का पतन कौन चाहेगा, क्यों चाहेगा सामंत सोच भी नहीं पाता।"
        अक्लांत कौरव की कथा छोटी सी, परन्तु बहुत सी कड़वी सच्चाईयां उजागर करती है। इस कथा का नायक इंद्र सी।पी।एम। का एक ईमानदार कैडर है। वह पहले मजदूर संगठन में कार्य कर चुका है तथा अब ग्रामीण क्षेत्रा में कार्य करना चाहता है। लेकिन जब वह आदिवासी संथालों के बीच पहुंचता है तो पाता है कि भूमि सुधर का आपरेशन बर्गा लुंज-पुंज ढंग से चल रहा है। यहां तक कि उनकी पार्टी का निर्वाचित प्रतिनिधि सामंत भी आपरेशन बर्गा को सफल नहीं होने देना चाहता। और उसने भ्रष्ट पुलिस और प्रशासन से भी एक नापाक गठजोड़ कायम कर लिया है। इस सबके चलते अपने अधिकारों और मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित ग्रामीणों की हालात बद से बदतर हो गयी है। ये वे ही आदिवासी है जिनकी संघर्ष की एक लम्बी परंपरा रही है। विरसा मुंडा, सिंधु कानू के ये वंशज अपना संघर्षशील चरित्र छोड़ दें इसलिए उनके बीच एक अध्येता बुद्धिजीवी द्वैपायन सरकार को प्रवेश कराया जाता है। द्वैपायन सरकार दिल्ली में स्थित विदेशी देशों से धन लेकर चलने वाले एक फाउंडेशन से संबंद्ध है। द्वैपायन सरकार आदिवासियों को कायरता तथा संघर्ष से विरत रहने का पाठ ही नहीं पढ़ाना चाहता बल्कि वह सिद्ध कर देना चाहता है कि संथाल एक डरपोक व लालची कौम है। परन्तु अपने इस षडयंत्र में वह सफल नहीं हो पाता, भले ही उसे सत्ताधरियों का पूरा सहयोग प्राप्त होता है।
        इंद्र को अपने प्रवास के दौरान नक्सलवाडी के दिनों के ईमानदार नेता कालीबाबू  के विषय में पता चलता है कि जिनकी सामंत की शह पर पुलिस ने निगर्म हत्या ही नहीं कर दी थी बल्कि इस तथ्य को छुपाने की पूरी कोशिश आज भी जारी है। इंद्र को इस पर सहसा विश्वास नहीं होता और व काफी समय तक वह सही गलत के अंर्तद्वन्द का शिकार रहता है। एक तरफ पार्टी के सिद्धांत और दूसरी तरफ नेतृत्व की काली करतूतें। पर अंत में उसका विश्वास गहरा होता जाता है। जब सामंत और पार्टी नेतृत्व उसे व उसके साथियों को संघर्ष से दूर रहने के लिए शांति का पाठ पढ़ाता है। यहां तक कि जब वह भूमिहीन मजदूरों के लिए मजदूरी की सरकारी दरें लागू करवाने हेतु आंदोलन करता है तो इस भटकाव कहा जाता है। और उसे उत्पीड़क पुलिस प्रशासन से सहयोग करने को कहा जाता है। इतना ही नहीं वरन जायज हकों की बात करने पर उस पर नक्सली होने जाने का आरोप लगाया जाता है। इस तरह वह अपने अंर्तद्वन्द से मुक्त होता जाता है और सच्चाई की राह पर अग्रसर होता जाता है। आदिवासी भी उस पर आसानी से विश्वास नहीं करते पर उसकी ईमानदारी तथा उत्पीडितों के प्रति पक्षधरता के कारण वे उसे पहचान लेते है, और जान लेते हैं कि वह उनका सच्चा हितैषी है।
        यही अक्लांत कौरव की कथा है जो धीरे-धीरे पश्चिमी बंगाल के बहुप्रचारित भूमि-सुधरों के ढोल की पोल खोलते हुए, सत्ताधरियों के चरित्र की बखिया उधेडते हुए आगे बढती है। बांग्ला से अनुदित होने के कारण संभवत: यह मूल उपन्यास का सा आनन्द न दे परन्तु अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तेवरों के कारण यह पठनीय ही नहीं अपितु संग्रहणीय है।

Friday, August 13, 2010

सफाई देवता कोई इतिहास पुस्तक नहीं

’’सफाई देवता’’ कोई इतिहास पुस्तक नहीं है। पर दलित विमर्श के साथ इतिहास में हस्तक्षेप करने की कोशिश इसमें साफ दिखायी देती है।

इतिहास की प्रचलित मान्यताओं पर समकालीन दलित धारा क्या दृष्टिकोण रखती है, इसके संकेत तो पुस्तक से मिलते ही हैं। यह संयोग ही है कि भारतीय दलित धारा के विद्धान कांचा ऐलय्या की पुस्तक ’’व्हाई आई एम नाॅट हिन्दू’’ का हिन्दी अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता के साथ ही आया है। इस पुस्तक का अनुवाद भी ओम प्रकाश वाल्मीकि ने ही किया है। बेशक दोनों पुस्तकों का एक साथ प्रकाशन संयोग हो पर यह संयोग नहीं है कि ओम प्रकाश वाल्मीकि सफाई देवता भी लिखें और कांचा ऐलयया का अनुवाद भी करें। इसीलिए सफाई देवता को इतिहास के बजाय इतिहास में हस्तक्षेप करती दलित धारा की उपस्थिति के रुप में ही देखा जाना चाहिए।

एक बात स्पष्ट है कि समाज का वह तबका, वर्षों की गुलामी झेलते-झेलते, जो अब गुलामी के जुए को उतार फेंकना चाहता है, एक सुन्दर भविष्य की कामना के लिए तत्पर हुआ है। ज्ञान विज्ञान के सभी क्षेत्रों की पड़ताल करते हुए मेहनतकश््रा आवाम के जीवन की अस्मिता का प्रश्न उसको उद्ववेलित किये है। अभी तक प्रकाश में आये दलित धारा के साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि भाषा और शैली के लिहाज से सहज-सरल सा लगना वाला यह साहित्य समाज की जितनी जटिलताओं को सामने रखने में सफल हुआ है उसमें दलित चेतना की सतत बह रही धारा भी परिष्कृत हो रही है।

दलित रचनाकारों के आग्रह, जो प्रारम्भ में किन्हीं खास बिन्दुओं को लेकर उभरते रहे, अब उसी रूप में नहीं रह रहे हैं। जातीय अस्मिता के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक जटिलता के प्रश्न पर भी वे लगातार टकरा रहे हैं। यही वजह है कि रचनाओं के पाठ भी उतने इकहरे नहीं है कि कोई उनमें सिर्फ एक व्यक्ति के जीवन वृत्त को ही उसका आधार मान ले। इतिहास, समाज, अर्थव्यवस्था और अन्य विषयों पर भी दलित धारा के रचनाकारों की राय बिना एक दूसरे से व्यक्तिगत मतैक्य रखते हुए विमर्श की स्वस्थ बहस को जिन्दा कर रही है। इसी परिप्रेक्ष्य में ओम प्रकाश वाल्मीकि की किताब सफाई देवता दलितों में भी दलित, समाज के सबसे उपेक्षित तबके के सामाजिक, सांस्कृतिक परिवेश को आधार बनकार एक ऐतिहासिक मूल्यांकन करने का प्रयास है।

उनके मंतव्य से सहमति पर भारतीय समाज के उनके विश्लेषण से असहमति रखते हुए कहूं तो कह सकता हूं कि यह किताब एक बहस को जन्म दे रही है। स्वाभाविक है कि हर तरह की सामाजिक स्थितियों से दर-किनार कर दिये गये ‘अछूत’ भी किसी समय विशेष में विज्ञान की जानकारी की सीमा के चलते अपने डर और संश्यों के लिए, अन्यों की तरह, अदृश्य शक्ति की कल्पना करने को मजबूर रहे। चूंकि समाज की सामूहिक गतिविधियों से बहिष्कृत रहने के कारण उनके देवताओं के रूप, आकार और नाम वही नहीं रह सकते थे, जो चातुर्वणीय व्यवस्था के अन्य वर्णो के हो सकते थे, तो यह एक फर्क उनमें दिखायी देना ही था। वे ब्राहमणी मुख्यधारा के देवताओं की पूजा अर्चना से वंचित थे, इसलिए काफी हद तक वे न तो उन देवताओं के नामों से परिचित हो सकते थे और न ही उनके रूप से। आदिम समाज के जातीय टोटम उनके साथ बने ही रहने थे।

जब सुन लेने पर ही पिघले हुए शीशे को कानों में उड़ेल दिया जाना था तो देखने की कोई कोशिश करने की हिमाकत कैसे होती भला! सम्पूर्ण दलित समाज को चातुर्वणीय व्यवस्था से अलग मानते हुए दिये गये दोनों ही विद्धानों के तर्क इसीलिए इस बहस को जन्म दे रहे हैं कि आखिर वास्तविकता को ही नकारने की यह कोशिश फिर कैसे भारतीय समाज के बीच मौजूद जातीय व्यवस्था को तोड़ पाने में सफल होगी ? यह आग्रह नहीं एक प्रश्न है। और तर्क के तौर पर वे स्थितियां हैं जहां यज्ञोपवित करके घंटों-घंटों पूजा में लीन रहने वाले दलित समाज के उस तबके को देखा जा सकता है, जो जाति को छुपाने के लिए मजबूर है। ये स्थितियां स्वंय ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक सफाई देवता में ज्यादा विस्तार से जगह पा रही है।

अपने इतिहास से किनारा करने और अपनी पहचान को छुपाने के लिए उनकी मजबूरी के कारणों पर आगे बाते हो सकती हैं, पर यह तथ्य के रुप में ही यहां रखते हुए कह सकते हैं कि दलितों में भी चातुर्वणीय व्यवस्था के ऊध्र्वाधर वर्गीकरण के साथ फैले क्षैतिज धरातल पर भी मनुष्य को बांटते चली गयी व्यवस्था भी उनके देवताओं मे वैसी ही समानता नहीं रहने दे रही है। स्वंय वाल्मीकि ने और कांचा ऐलयया दोनों ने ही विभिन्न जातियों के अलग-अलग देवताओं का जिक्र किया है। बल्कि सफाई देवता में तो एक पूरा अध्याय ही इस विषय पर लिखा गया है। चेचक, दलितों के यहां भी माता है और सवर्णों के यहां भी वह उसी रुप में है। अब नाम दुर्गा हो या पोचम्मा, इससे क्या फर्क पड़ता है। औद्योगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर तो किया ही है, बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक ढीला तो किया ही है।

दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन, गांधी के दलिताद्वार और ऐसे ही अन्य समाजिक आंदोलन के परिणाम स्वरुप हुए सामाजिक बदलाव ने शहरी क्षेत्रों में सामूहिक कार्यक्रमों में दलितों को दरकिनार करने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया है। एक हद तक गांवों में भी उसका प्रभाव हुआ है। सवर्णों के देवता ही आज दलितों के देवता के रूप में भी आज इसीलिए स्वीकार्य हो पाये हैं। फिर ऐसे में देवताओं के नामों और पूजा-पद्धतियों के आधार पर पायी जाने वाली भिन्नता को आधार बनाकर किये जा रहे जातिगत विश्लेषण में दलितों को उस ब्राहमणी व्यवस्था से अलग मानने का तर्क मेरी समझ के हिसाब से पुष्ट नहीं होता। मनुष्य को जातिगत आधार पर बांटने वाली व्यवस्था के विरोध का अर्थ क्या सम्पूर्ण दलित समाज को उससे बाहर मानने से हो सकता है ?

जिस तर्क के आधार पर कांचा ऐलय्या सम्पूर्ण दलित समाज को उस ब्राहमणी व्यवस्था में नहीं मानते ठीक उसी तरह की समझदारी ओम प्रकाश वाल्मीकि में भी दिखायी देती है। कांचा ऐल्य्या का काम ज्यादातर दक्षिण भारतीय समाज को आधार बनाकर हुआ लेकिन ओमप्रकाश वाल्मीकि उत्तर भारत के समाज को आधार बनाकर बात करते हैं। दक्षिण भारतीय समाज के बारे में खुद की जानकारी के अभाव में मैं नहीं बता सकता कि कांचा ऐल्यया के तर्क कितना अपने समाज के विश्लेषण को तार्किकता प्रदान करते हैं पर उत्तर भारतीय समाज के बारे में अपनी एक हद तक जानकारी के देखता हूं तो दलितों को हिन्दू जाति व्यवस्था से बाहर मानने वाले ओम प्रकाश वाल्मीकि के तर्को से सहमत नहीं हो पा रहा हूं।
सवाल है कि फिर वो चातुर्वणय व्यवस्था क्या है ? समाज को चार जातियों में बांटने वाली व्यवस्था ही तो उसे शूद्र बना दे रही है। जिसका निषेध होना चाहिए। पर निषेध के मायने क्या सारे दलित समाज को उससे बाहर का मान कर कोई हल निकल सकता है, इस पर सोचा जाना चाहिए। कानून व्यवस्था का सहारा लेकर भ्रष्टाचार का तंत्र फैलाती नौकरशाही की जात क्या है ? क्या वह वर्ण व्यवस्था के आधार पर बंटे भारतीय समाज के वर्णों के लिए अलग-अलग तरह से योजनाओं को आबंटित कर भ्रष्टाचार की सांख्यिकी से भरी है या एक समान भाव से वह सब कुछ हड़प कर जाने के लिए मुंह खोले बैठी है ?

ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुस्तक में उठाये गये भ्रष्टाचार के मामले जिस रूप में उर्द्धत हुए, उनको ध्यान में रखकर यह प्रश्न उठता है। दलित विमर्श की वर्तमान चेतना मौजूदा तंत्र में फैले भ्रष्टाचार के घुन को भी क्यों सिर्फ इतना सीमित होकर देखना चाहती है। नौकरशही की जात क्या भ्रष्टाचार के मुद्दे पर अलग अलग है! सामाजिक प्रश्न को राजनैतिक प्रश्न की तरह देखने पर ही वर्तमान दलित विमर्श की सीमायें दिखने लगती हैं। यहीं से यह सवाल उठता है कि क्या अमूर्त किस्म का राजनैतिक संघर्ष समाजिक बदलाव में सहायक हो सकता है ?

दलित विमर्श के विकास का यही प्रस्थान बिन्दू समाज व्यवस्था के बुनियादी बदलाव के संघर्ष में सहायक हो सकता है जिस पर गमभीरता से विचार होना चाहिए। भ्रष्टाचार से भरी वर्तमान व्यवस्था का विश्लेषण करने का दलित चिंतको का दृष्टिकोण पर बात करें तो उसकी कुछ अपनी सीमाऐं दिखायी देती है। वह सत्ता के बुनियादी चरित्र के बदलावों के संघर्ष की बजाय उसी के बीच में अपने लिए एक सुरक्षित जगह निकाल लेने के साथ है। एक नये समाज के सर्जन के लिए जिस तरह के विध्वंस की आवश्यकता होती है उससे उसका विचलन दलित पैंथर के आंदोलन के बिखरने के साथ ही हो चुका था।

पूंजीवादी लोकतंत्र की स्थापना के लिए प्रयासरत महान विचारक अमबेडकर की सीमाओं भी एक हद तक इसमें आड़े आती हैं। दलित विमर्श की संभावनाओं के द्वार भी उससे टकराकर ही खुल सकते है। व्यवस्था के सामंती ढांचे का खुलासा कर सकने की वैज्ञानिक सोच के साथ सामाजिक बदलाव की वास्तविक पहल को निश्चित ही उससे बल मिलेगा। दलित शोषित समाज के खिलाफ आक्रामक रुख अपनायी हुई सम्राज्यवादी नीतियों पर भी चोट कर सकने की संभावना भी यहीं से पैदा होगीं। मौजूदा व्यवस्था से माहभंग की स्थिति में पहुॅंचे शोषित समाज के सामने एक नयी और दलित शोषित के वर्गीय हितों का पोषण करने वाली एवं समता और न्याय की स्थापना के लिए सचेत व्यवस्था की कल्पना तभी संभव हो सकती है।

यह तय है कि भारतीय समाज का बहुसंख्यक शोषित वर्ग मूल रूप से वर्ण व्यवस्था के चैथे पायदान पर बैठा जन ही है। भारतीय सर्वहारा के इस चेहरे को न सिर्फ दलित धारा को पहचानना चाहिए बल्कि हर ऐसे समूह, जो देश दुनिया को बदलाव के लिए प्रयासरत है, समझना चाहिए। चर्चा की जा रही पुस्तक में दलित विमर्श का जो चेहरा सिर्फ रिपोर्ट को रख देने भर से उभर रहा है, वह सिर्फ एक जाति विशेष की समस्या के खात्मे पर ही बदलाव की इति श्री जैसा हो जाता है।

व्यवस्था का वर्तमान ढांचा जबकि इतना क्रूर है कि मेहनतकश वर्ग के आवाम के खिलाफ ही उसकी सारी नीतियां जारी है। जो बेरोजगारी बढ़ाने और भूखों मरने की नौबत पैदा करने वाला है। ऐसे में अपने जीने भर के लिए तमाम अमानवीय परिस्थितियों के बीच से रास्ता निकालने की कोशिश जारी हैं। फिर वह चाहे मोटर गैराज में तमाम चीकट कालिख के बीच गाड़ियों को अपनी छाती पर उठाये और उनका दुरस्त करता कोई मैकेनिक हो या, गटर के अन्दर उतर कर गटर की सफाई करने को मजबूर कामगार।

दोनों की स्थितियां जातीय आधार पर उन्हें कुछ खास सुविधा नहीं देती। सिर्फ फर्क है तो यही कि जो जिसके अनुभवों का हिस्सा है अमुक जाति का व्यक्ति उसी अनुभव को आधार बनाकर रोजी रोटी के जुगाड़ में जुटा है और जीने भर का रास्ता तलाशने को मजबूर है। यानी दलित वर्ग के मेहनतकश आवाम के अनुभवों में जो यातना दायक अनुभव है, मजबूरन उस वर्ग के बेरोजगार को उन्हें ही अपनाने की मजबूरी है। चालीस किलोमीटर पैदल चलते हुए सिर पर मैला ढोने को वह मजबूर है, जैसा कि पुस्तक में उल्लेख है। उसके बदले भी वाजिब मूल्य नहीं।

तो फिर इस निर्मम व्यवस्था के अमानवीय आक्रमण के खिलाफ रास्ता क्या है, यह सोचनिय प्रश्न है। क्या चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लिया जा सकता है ? बल्कि असलियत तो यह है कि उनके बचाये रखते हुए ही निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को ऐसा भी न करने की स्थिति में निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ दिया जा रहा है।

आम मध्यवर्गीय खाते पीता वर्ग, जो जनता के धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका है, यूंही नहीं ऐसे तर्कों को अक्सर रखता है। ऐसी चालाक कोशिशें के पर्देफाश के लिए जो सचेत कार्यवाही होनी चाहिए, दलित विमर्श की वर्तमान धारा उस पर अभी केन्द्रित नहीं हो पायी है, पुस्तक में भी उसकी कमी अखरती ही है। मैं व्यक्तिगत तौर पर सफाई देवता को एक सही समय पर आयी ऐसी पुस्तक मानता हूं कि जो भारतीय समाज के बुनियादी चरित्र के विश्लेषण की बहस को जिन्दा करने में सहायक है।

-विजय गौड

Thursday, February 4, 2010

शोषण के अभयारण्य

वैश्वीकरण की इस बीच जितनी चर्चा हुई है उस लिहाज से हिंदी में उस पर अर्थशास्त्रीय अनुशासन के तहत लगभग नहीं के बराबर काम हुआ है। विशेष कर ऐसा काम जो सामान्य पाठक को उसकी सैद्धांतिकी के साथ व्यवहारिक पक्षों से भी परिचित करवा सके।

अशोक कुमार पाण्डेय, कवि होने के बावजूद, उन बिरले लेखकों में से हैं, जिन्होंनें साहित्य की चपेट में सिमटी हिंदी में ऐसे विषयों पर भी लेखन किया है जो समकालीन समय, उसकी चुनौतियों और संकटों को समझने-समझाने में मददगार साबित होता है। अर्थशास्त्र जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लगातार हिंदी में किया गया उनका लेखन कई दृष्टियों से प्रशंसनीय है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह लेखन पाठ्यक्रमीय लेखन नहीं है जैसा कि अक्सर होता है। वैश्वीकरण के विभिन्न पक्षों पर विगत कुछ वर्षों में लिखे गए इस संग्रह के लेखों में दृष्टि संपन्नता, मानवीय सरोकार और विषय की गहरी पकड़ साफ देखी जा सकती है।

एक युवा अर्थशास्त्री के ये लेख आम पाठक के लिए भी उतने ही ज्ञानवर्द्धक और पठनीय हैं जितने कि विषय के अध्येताओं और विशेषज्ञों के लिए हो सकते हैं। यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि अगर किसी भी दौर को समझना हो तो यह काम उसकी आर्थिक प्रवृत्तियों को बिना जाने नहीं हो सकता। आज के दौर के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है।

एक संपादक के रूप में ही नहीं बल्कि एक आम पाठक के तौर पर भी मैंने इन लेखों को पढ़ा है और मैं चाहूंगा कि इसे वे सब लोग अवश्य पढ़ें जो अपने दौर को सही परिप्रेक्ष्य में समझना चाहते हैं।

ये लेख हिंदी में साहित्येत्तर लेखन की चुनौती को तो स्वीकारते ही हैं साथ में सभी भारतीय भाषाओं के पक्ष को ऐसे दौर में मजबूत करते हैं जब कि अंग्रेजी ने शायद ही ज्ञान का कोई पक्ष छोड़ा हो जिस पर एकाधिकार न जमा लिया हो।
- पंकज बिष्ट  

पुस्तक : शोषण के अभयारण्य
लेखक : अशोक कुमार पाण्डेय
प्रकाशक: शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली (मो.  09810101036)
कीमत : 200 रु