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Monday, November 26, 2012

मटर का मौसम और राजेश सकलानी की कविता



   (मटर का मौसम आते ही राजेश सकलानी की कविता ‘गेंद की तरह’  चेतना में कौंध जाती है.आज इस कविता का स्वाद लीजिये)



गेंद की तरह
                                                                       -राजेश सकलानी




कौन से देश से आयी हो
किसके हाथों उपजाई हो
गदराई हुई मटर की फलियों
जैसे धूप टोकरी से कहती हो

मैं लगा छीलने फलियां
एक दाना छिटक कर गया यहां-वहां
लगा ढूंढने उसे मेज के नीचे
वह नटखट जैसे छिपता हो

फिर सोचा एक ही दाना है
लगा दूसरी फलियों को छूने
लेकिन नहीं,बार-बार वह आंखों में कौंधता

आखिर गया तो गया कहां
वह कसा-कसा हरियाला
मिल जाये तुरत उसे छू लूं

काग़ज़,किताब,जूते सब उठा पलट कर
मैं लगा देखने

एक और मेरा समय
दूसरी और मटर के दाने का इतराना

ज्यों-ज्यों आगे लगा काम में
लगता जैसे अभी-अभी वह गेंद की तरह
टप्पा खाकर उछला है.


Sunday, July 17, 2011

अलकनन्दा घाटी का मूर्ति शिल्प

उत्तराखण्ड के गांवों की वीरानी, तकलीफ देने वाली है। जो लोग वहां खपने के लिए छूट गए हैं उनकी कोई खबर लेने वाला नहीं है। जो खत्म हो चुके हैं उनका कोई ब्यौरा हमारे पास नहीं है। आर्थिक कारणों के अतिरिक्त सवर्णों की खराब सोच के कारण हमारे शिल्पकारों, मूर्तिकारों और संगीतकारों को खत्म होना पड़ा। सवर्णों के लिए ये कार्य हेय है और इनके सक्रिय लोग निम्न कोटि के वासी हैं। कभी ये ध्यान ही नहीं गया कि यहां के मन्दिरों में सुन्दर मूर्तिशिल्प किसने बनाए? हमारे घरों की तिबारियों पर गढ़े गए लकड़ी के सुन्दर शिल्पों का निर्माण करने वाले आखिर हैं कहां ? लेकिन पहाड़ों में घुमकड़ी करने वाले कला रसिक नन्द किशोर हटवाल की मुलाकात आशा लाल से होती है। आशा लाल खांटी मजदूर है। वैसे ही दिखते हैं विनम्र और अबोध। घरों की खोली बनाने में वे निपुण हैं लेकिन अपने उजड़ते गांवों में इसकी जरूरत ही नहीं रही। बहुत संकोच के साथ वे बताते हैं वे मूर्तिशिल्पी हैं और पहाड़ के स्थानीय पत्थरों पर वे देवी देवताओं के शिल्प उकेरते हैं। वे जानते और मानते नहीं कि वे कलाकार हैं। जिला चमोली के छिनका नामक स्थान के सामने पाखे पर उनका गांव है। मूर्तिशिल्प कोई लेने वाला नहीं इसलिए बनाते भी नहीं हैं। पहले कभी पारम्परिक खरीददार रहे होंगे। आज के समय की मार्केटिंग उन्हें नहीं आती, इसलिए सड़क पर मजदूरी करते हैं।
वे शौक के लिए तो मूर्ति बना नहीं सकते। लगभग एक-फुट ऊंची मूर्ति बनाने में लगभग 15 दिन लगते हैं। पहले पहाड़ की ऊंचाई पर उपयुक्त जगह पर पत्थर को छांटना पड़ता है। फिर भारी पत्थर को ढो कर अपने गांव तक लाना पड़ता है। इतने समय तक बच्चों का पेट कौन भरेगा। सो काम बिल्कुल खत्म है। वे लगभग सत्तर-बह्त्तर वर्ष की आयु के हैं। उनके साथ इस दुर्लभ कला का भी अन्त होना हुआ।
किसी तरह लगभग दस मूर्तियां उनसे आग्रह कर बनवाई गईं। उनमें कलाकार का अहंकार नहीं है, ये कार्य वे मजदूर की तरह ही करते हैं। उनके मूर्तिशिल्पों की अलग पहचान है। उनका खुरदरापन और स्थानिकता देश के किसी भी दूसरे भाग की मूर्तियों से भिन्न है। स्थानिक देवी-देवता के अलावा वे भगवान बदरीनाथ की मूर्ति बनाते हैं। बहुत सम्भव है उनके पूर्वजों ने ही बदरीनाथ देवता की मूर्ति का सृजन किया होगा।
जांच पड़ताल करने पर कुछ और मूर्ति शिल्पियों की जानकारी भी मिली। छिनका के अनुसुया लाल और पंगनों के बसन्तू लाल के नाम उल्लेखनीय हैं। चमोली जिले में दस या बारह इस तरह के कलाकार हैं। ठीक से शोध करने पर उत्तरकाशी से बागेश्वर तक ऐसे अनेकों गुणी कलाकारों का जरूर पता लग सकता है। साहित्यकार नन्द किशोर हटवाल ने इस दिशा में पहल की है।
चारों धाम की यात्रा करने वाले लाखों लोगों को वैसे भी अपने उत्तराखण्ड में यादगार के लिए कोई चीज खरीदने को नहीं मिलती है।

-राजेश सकलानी

यदि ग्राहक मौजूद हों तो मूर्तिशिल्प की उपलब्धता  संभव हो सकती है। एक ठीक ठाक आकार का शिल्प (लगभग १ फ़ुट लम्बा और८ इंच चौड़ा) मेहनताने की कीमत रू २५०० से ३००० के बीच उपलब्ध हो सकता है।

Thursday, June 16, 2011

हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं

 

यह हमारे लिये अत्यन्त खुशी की बात है कि राजेश सकलानी का दूसरा कव्य संग्रह पुश्तों का बयान हाल ही मे प्रकाशित हुआ है. प्रकाशन के प्रति बेहद लापरवाह राजेश सकलानी की कवितायें अभी तक समुचित मुल्यांकन की प्रतीक्षा कर रही हैं. अपसंस्कृति और बाजार की आपाधापी की हलचलों से भरपूर इस समय में राजेश मनुष्य की गरिमा के लिये प्रतिरोध का विरल पाठ रचते हैं.
राजेश  प्रकाशन-भीरु कवि हैं.निपट अकेली राह चुनने की धुन उन्हे समकालीन कविता के परिद्र्श्य  में थोडा बेगाना बानाती है-उनकी कविताओं का शिल्प इस फ़न के उस्तादों की छायाओं से भरसक बचने की कोशिश करते हुए नये औजारों की मांग करता है.अपने लिये नये औजार गढ़ना किसी भी कवि के लिये बहुत मुश्किल काम है. राजेश वही काम करते हैं.अस्सी से ज्यादा कविताओं के इस संग्रह से कोई प्रतिनिधि कविता चुनना दुरूह है।
उनके इस संग्रह से कुछ कवितायें यहां सगर्व प्रकाशित की जा रही हैं|
- नवीन नैथानी



दुल्हन

सपनों की त्वचा में रंगभेद नहीं होता
और दुल्हन की साड़ी की कोई कीमत नहीं होती

नंगे पैर गली में भटकने से
कैसे धरती तुम्हारे चेहरे पर निखरती है और
कितनी प्यारी हैं तुम्हारे श्रंृगार की गलतियाँ
चन्द्रमा की तरह दीप्त
अपनी बालकनी से दबे-दबे मुस्करातीं हैं मालकिनें
तुम्हारी खुशियों को नादानी समझतीं
उनकी आँखों में तुम मछली की तरह
लहराती हुई निकलो

भले ही जल्द टूट जाएँ वे चप्पलें जो
त्ुमने जतन और किफ़ायत से खरीदी हैं,
उन्हें इतराने दो और खप जाने दो मेहँदी
अपनी खुरदरी हथेलियों में

कुछ-कुछ ज्यादा है वे रंग जो तुम
अपने चेहरे पर चाहती हो
एक वह है जो दूसरे में दखल किए जाता है

दुल्हनें इसलिए भी शरमाती हैं कि चाहती
भी हैं दिखना लेकिन तुम ऐसे शरमाती हो
जैसे धीमे-धीमे दुनिया से टर लेती हो
जैसे तुमने जान ली है थोड़ी-सी लज्जा और
थोड़े से भरोसे के साथ दिख जाने की कला

जैसे तुम पहली बार उजाले में आई हो
कोई तेरी पलकों के ठाठ देखकर
चौंक पड़ेंगे
कुछ भले लोगों की तरह सँभलेंगे
कुछ इंतजार करेंगे बेचैनी से
मेहँदी के घटने के दिन

कुछ ऐसे देखेगें लापरवाही से जैसे नहीं देखते हो
अच्छा हो तुम उन्हें भी ऐसे ही देखो
जैसे न देखती हो
जैसे तुम समझ गई हो अपना होना
समय की कठिनाइयों में यह भी काम आएगा
अपने टूटे-फूटे बचपन की किताब को
तुम बंद कर देती हो
जैसे शाम होते ही दिन खत्म हो जाता है

ऐसे ही गुज़रो तुम बहुत समय तक
मचल-मचल कर इस जीवन को गाढ़ा कर दो।

अमरूद वाला

लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब
आसानी से घोंपे गए

पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का उनका
छोड़ दिया रोना फैला फ़र्श पर

एक तीखी गंध अपनी राह बनाती,
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का।



पुश्तों का बयान

हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
सँभालते हैं हमारे कंधे

हम भी हैं सुन्दर, सुगठित और दृढ़

हम ठोस पत्थर हैं खुरदरी तराश में
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत
हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं

सुरक्षित रास्ते हैं जिंदगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा है
घरों के लिए

तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन।

पुश्ता : भूमिक्षरण रोकने के लिए पत्थरों की दीवार। पहाड़ों सड़कें, मकान और खेत पुश्तों पर टिके रहते हैं।


     

Sunday, February 28, 2010

हर रचनाकार की पहली चेष्टा समकालीन होने की होती है।



वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी से हमारे साथी राजेश सकलानी की यह बातचीत अक्टूबर 2009 की है जो कि एक पत्रिका के लिए की गई थी। हमें खुशी है कि बातचीत को पत्रिका से पहले हम इस ब्लाग के पाठकों तक पहुंचा पाने में सक्षम हुए।


हर रचनाकार की पहली चेष्टा समकालीन होने की होती है। अगली कोशिश आगे निकलकर आधुनिक होने की होती है। यदि वह चिन्तनशील और समर्थ है तो उसे आधुनिकता की खोज करना आना चाहिए।
अविष्कार की यह परंपरा हमारे प्राचीन संस्कृत काव्य में विद्यमान रही है। बहुत विकसित रूप में।
समकालीनता के साथ कवि की एक निजकालीनता भी होती है जो उसे केवल एक तरह के समय में नहीं रहने देती। कभी वह अपने समय को गुफा कालीन और अग्निविहीन समय में ले जाता है। कभी पाषाणकालीन पशुवान समय में। तभी वह इतिहास के सभी समयों को लांघता हुआ प्रथम विश्वयुद्ध से पहले के समय में ले जा लेता है। अपनी माइथोलॉजी के कारण तभी वह अपने को महाभारत के युद्ध में खड़ा पाता है जहाँ विचार और दृष्टिकोण का काव्यात्मक विस्तार पाता हुआ वह पछतावे के बावजूद उद्यम तत्पर अपने को देखने लगता है। "गीता" को वह कविता की पुस्तक कहे या कर्म और जीवन की। जो भी हो वह कविता की भाषा की अद्भुत तार्किक निष्पत्ति है। इन दीर्घकायताओं से निकलकर आये बिना समकालीनता बनती नहीं है। अपनी निजकालीनता में अपनी निजता को सभी जगह से बटोरना पड़ता है। तब समकालीनता की परिस्थिति बनती है अन्यथा समसामयिकता बनकर रह जाती है। सामयिक से सम-सामयिक में फैलना और अपने होने न होने को वहाँ पड़तालना समकालीन होने की पहली चेष्टा कहा जा सकता है। पड़तालना समकालीन होने की पहली चेष्टा कहा जात सकता है। लेकिन काल के वृहत्तर आयामों की ओर अग्रसर होना समकालीनता से महाकालीनता में प्रवेश मिल सकता है।
सारे समयों में ज्ञानात्मक यात्रा कर चुकने के बाद, पाने-खोने की बेहतर और खराब उपलब्धियों के संज्ञान के बाद, यह समझ में आता है कि क्या है जो अभी नहीं है। क्या था जो सोचा गया पर पाया नहीं जा सकता। क्या-क्या है जो शेष है और क्या-क्या है जो निश्शेष हो चुका है। तब पता चलता है कि केवल आज का दिन था जो सृष्टि में संभव करने के लिए बचा हुआ था और जिसकी अपनी अलग वजहें हैं। मनुष्य से वे वजहें जुड़ी हुई होकर भी उसकी मोहताज नहीं हैं। मनुष्य अलग है और प्राकृतिक वजहें एकदम अलग-अलग भी होती हैं और होती रहती हैं। प्राकृतिक "आज" खासकर समय के केन्द्र में लाखों-करोड़ों वर्षों से मौजूद सूर्य की नियमित देनों में से एक है। पर आज के संसाधनों को जो स्वरूप उनकी प्रकृति को पहचान-पहचान कर मनुष्य ने पैदा किया है वह अकेले किसी सूर्य और चाँद के बस कार नहीं था। मनुष्य का "आज" नितान्त आधुनिक हो गया है। मनुष्य का "आज" सूर्य और चाँद के बिना भी काम शुरू कर सकता है। मनुष्य का "आज" उसका सत्व और परिश्रम , दोनों हैं। भाषा, टेक्नोलॉजी और रहन-सहन से लेकर अंतर्दाह विश्वासों तक यह आधुनिकता की समझ और ज़रूरत पैदा करने वाला तत्व फैला हुआ है। आधुनिक होना अपने प्राचीन होने को सबसे पहले स्वीकारता है। आज भले ही आधुनिक होने के लिए उसे पाषाणकालीन मनुष्य से भी अधिक मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि आधुनिकता का केवल कोई एक पहलू महत्वपूर्ण न होकर समूची आधुनिकता ज़रूरी हो गयी है। अन्यथा फिर कवि हो या कोई साधारण मनुष्य, उस में पुरानी परिपाटियाँ फिर से स्वत: काम करने लग जायेंगी। क्योंकि आधुनिकता की कोई एक बनी-बनाई परिपाटी नहीं है। इतना जरूर है कोई मनुष्य आधुनिकता में कैद होकर सोचना चाहे तो ज़रूरी नहीं कि परिणाम कितने स्वाभाविक हैं। अज्ञात, अस्वाभाविक और अप्रयुक्त परिणाम आधुनिकता को प्रिय रहे हैं। अपनी रचनाओं में भी कवि का यह अविष्कार उसे कई प्रकार की परिपाटियों से विरत करता है। कभी वह रूढ़ियों से भी किसी नयी परम्परा की शुरुआत कर ले जाता है। संस्कृत काव्य ने भी अपनी रूढ़ियों को सार्थक आधुनिक रूप दिये हैं और समकालीनता के आग्रह में आज का कवि भी अपने समय के कुतुबनुमा को घुमाते हुए दिखता है। कविता के कुतुबनुमें में उत्तर दिशा या कोई भी दिशा अतनी सुनिश्चित नहीं होती। फिर भी उसके प्रश्न उत्तर की ओर बल्कि सही उत्तरों की ओर झोंक खाते प्रतीत होते हैं। संस्कृत काव्य में समय का संधान अपनी विषय-वस्तु के कारण आधुनिक व आकर्षक है बजाय अपने शिल्प विधान के। संस्कृत साहित्य में शिल्प विधान की आधुनिकता वैचारिक आधुनिकता की अपेक्षा कम दिखाई देती है। जीवन और उसके व्यवहारिक संकटों का आधुनिक प्रकटीकरण सस्कृत वांगमय में अधिक दिखता है। शिल्प वैविध्य नहीं। यही वजह है कि कुछ चीजों की रूढ़िया जरूर टूटी लेकिन परम्परायें नहीं टूट पायीं। समसामयिकता तब समकालीनता की ओर जाती है जब इतिहास की ओर उन्मुख होकर उसका हिस्सा होना चाहती है। आधुनिकता इतिहास को आगे बढ़ाती है। आधुनिकता की खोज इतिहास के संग्रहालय में रखने के लिए नहीं की जाती बल्कि वह जीवन के दैनिक व्यापार और व्यवहार को सटिक और कारगर बनाने की सार्थक कोशिश के रूप में जाँची-परखी जाती है।
इधर हिन्दी कविता का वर्तमान गहरे राजनैतिक संकट में फँसा हुआ है। कई बार रचनाकर्म में तल्लीन रहना अपराध बोध जगाता है। हमें शायद तोड़ने और बनाने के काम में कहीं ओर होना चाहिए था।
किस तरह के रचनाकार्य में हम तल्लीन हैं? समकालीन या आधुनिक? कविता और साहित्य की अन्य विधाओं की रचनात्मकता कतई भाषा आधारित है। भाषा पर हमारा क्या काम है? भाषा की बनती-बिगड़ती और संवरती रंगतों को हम कितना जानते हैं? समाज द्वारा रची हुयी भाषा को हमने कहाँ-कहाँ पर कितना और रचा है? ऐसे कुछ उदाहरण हैं समकालीन रचनाकारों के पास? यदि ऐसा है तो नया अनुभव पर अर्थ वाले अद्यतन रचें हुए शब्दों का एक छोटा ही सही कोष हमारे पास होना चाहिए। भाषा के नये रसायन को हम समझ नहीं पा रहे हैं, कहीं इसी बिन्दु से अपराधबोध नहीं उपज रहा? भाषा उतनी ही पर्याप्त नहीं है जितनी वह बरती जा चुकी है। भाषा जितनी चालू है उसमें से और क्या-क्या किस तरह बनया जा सकता है। किस तरह बनाने की बात ही शायद शिल्प का निर्धारण कर सके। तब शायद यह सही लग सकता है कि हमें तोड़ने और बनानें के काम में कहीं और होना चाहिए था। कहीं का अभिप्राय है यहीं कहीं और। हो सकता है प्रकृति के किसी संसाधन को हजारों लाखों वर्षों बाद हम प्रयुक्त करने लायक समझदारी प्राप्त कर सकें। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रकृति हमसे अधिक आधुनिक है। आधुनिकता उपादानों, उपकरणों के बदलाव और श्रम में आराम से समझ में आती है। गति में इतनी तीव्रता की समय कम लगे। धन और परिश्रम एक बार चाहे ज्यादा लग जाए। सूर्य और वर्षा जल का विविध उपयोग यह प्रकृति की नहीं मनुष्य की देन है। ज्ञानी नहीं विज्ञानी ही आज भविष्यवाणी कर सकता है। ज्ञान और विज्ञानी ही चिन्तनशील और समर्थ है। वे समकालीन रचनाएँ अपने समय को लाँघ कर आगे के समयों में चली जाती है जिनमें समाज का क्रियाशील मन किसी रचनात्मक प्रेरणा से सक्रिय दिखता है। जिस भाषा में नई सामाजिक परिस्थितियाँ दिखती है उसी में अछूते शब्द अनुभवों का तत्व दर्शन करने चले आते हैं।
चलिए सीधी बात पर आते हैं। लोकतंत्र यदि साफ तरह से साधारण जन को गुमराह करने वाला शब्द बन जाए तो आधुनिकता को परिभाषित करने का काम तात्कालिकता, तत्परता और आपात्कालीनता की माँग करता है।
लोकतंत्र खुद एक आधुनिक तरीका है जनता की इच्छा को आदर देने का। लोकतंत्र शब्द यदि गुमराह और धोखाधड़ी करता है तो उसका निवावरण तात्तकलिता, तात्परता और आपत्कालीनता नहीं कर सकती। लोकतंत्र को एक जन-तार्किकता ही बचा सकती है। आधुनिकता का एक अर्थ प्रयुक्त साधनों को नया और बेहतर रूप देना। आधुनिकता परिभाषित कम और परिमार्जित ज्यादा करती है। आधुनिकता कभी विस्तार तो कभी कतर-ब्यौंत, दोनोंके सहारें चलती है। आधुनिकता को हर बार ईजाद करना पड़ता है।
आपकी बातों से लगता है कि लिखना सामाजिक, राजनैतिक हिस्सेदारी से बिल्कुल अलग कोई कर्म है। रचनाकारों और पाठकों की एक स्वायत दुनिया है। " ययो तस्थौ" पद में भी गतिमानता है। यह मुझे इसलिए याद रहा है क्योंकि "इस यात्रा में" और "घबराए हुए शब्द" तक आप में प्रश्न उठाने की विकलता है। वह बाद के संग्रहों में कम हुई है। स्वाभाव में तत्वदर्शी होने की कोशिश बढ़ती गई है। कुछ-कुछ शास्त्री होने जैसी भंगिमा।
मुझे लगता है कि तोड़ने और बनाने की बीच की स्थिति है "न ययौ, न तस्थौं"। हर बार कुछ करना और कुछ न कर पाना टकरा जाता है। पर इस टकराने से हर बार कोई वांछित-अवांछित विस्फोट नहीं होता। कोई अपराध-बोध भी पैदा नहीं होता। एक समकालीनता पैदा होती है, न जा सका (सकी) , न रुक सका के अर्थ को संवहन करने वाली। यह समकालीनता न रुकी हुई है न अग्रसर हो पायी है। लेकिन प्रस्थान कर चुकी है। अपना प्रस्थान उसने बना लिया है। इसमें वापसी संभव नहीं है। कहीं न कहीं पहुँचना ही इस समकालीनता का भविष्य है। भविष्य ही इसमें वह संभावना है जो कुछ निर्धारित या प्रतिपादित कर पायेगी। आप पीछे की ओर जा रहे हैं। "इस यात्रा में" और "घबराये हुए शब्द में" प्रश्न उठाने की विकलता पा रहें है। क्या प्रश्न उठाना ही बड़ी बात है या कौन से प्रश्न उठाना बड़ी बात है? काश की प्रश्नों की प्रजाति, स्वभाव इत्यादि कुछ चिन्हित हो सका होता। मैंने तो प्रश्न उठाया ही नही। अगर उठाये हैं तो उन परिस्थितियों ने उठाये है जिनकी वजह से वे कविताएँ बनीं। कविताओं की परिस्थिति क्या हैं और उन परिस्थितियों की काव्य परिणति क्या है? बाद के संग्रह यानि कि "भय भी शक्ति देता है" "अनुभव के आकाश में चाँद", 'महाकाव्य के बिना" की एक लम्बी कविता "अनुस्मृति", 'ईश्वर की अध्यक्षता में", "खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है"। अभी तक हिसाब से यहीं पाँच संग्रह बनते हैं। पाँचों को प्रश्नाकुलता से रहित नहीं कहा जा सकता। हाँ, मैं केन्द्रित प्रश्न कम हुए हैं। बिना प्रश्नों के कौन सा तत्व दिख जायेगा?
"बची हुई पृथ्वी" (1977) में बलदेव खटिक कविता में रंगतू, बलदेव खटिक और सत्ता का चरित्र बहुत स्पष्ट रूप से पकड़ में आता है। आज की तारीख में अब यह भी मुश्किल लगता है। एक शहरी जीवन बिताते हुए अधिसंख्य रचनाकार क्या साफ किस्म की पक्षधरता से क्या थोड़े कम साबित नहीं हो रहे हैं? सत्ता का एक नकली तरह का विरोध सामने दिखता है।
"बलदेव खटिक" कविता में मनुष्य के उस दुख को उकेरा गया है जिसे मार्क्स कहते हैं कि मनुष्य से शक्ति भर लो लेकिन ज़रूरत भर दो। लेकिन व्यवस्था ने लेना तो उसकी शक्ति से अधिक शुरू कर दिया है और देना उसकी ज़रूरत के अनुसार नहीं बल्कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार शुरू कर दिया है। यहाँ एक ही घर के भूख और न्याय पैदा होना चाहते हैं। जिस घर में लोहार है उसी घर में धरातल पर पुलिस का सिपाही भी अन्याय से पीड़ित होकर शरण पाना चाहता है। न्याय करने वालों का पता भले ही न चले पर अन्याय की मार खाने वालों के ठिकानें हमें अक्सर मिल जाते हैं। अपराधी और पुलिस एक ही खदान से पैदा हो रहे हैं। गालियों से रिश्ते याद आ रहे हैं। असंगति और विडंबना ने ताल मेल बिठा लिया है। एक बार दिमाग की स्थपित व्यवस्थाओं से लगता है बाहर आना पड़ेगा। तभी जीवन को नये सिरे से व्यवस्थित करने की शुरुआत बलदेव खटिक कर सकता है। हारे हुए व्यक्ति को लगता है कि गड़बड़ मेरी वजह से है। इस अधूरे आत्म-ज्ञान से असली, नकली और नकली, असली दिखने लगता है।
1964 में अपना पहला संग्रह प्रकाशित हुआ। शायद आप सीमान्त जनपद उत्तरकाशी में उस वक्त थे। जवाहर लाल नेहरू की स्वपदर्शिता और गाँधी के आदर्श के उस जमाने का कोई भी प्रभाव आपकी रचनाओं पर स्पष्ट रूप से नहीं दिखता। विक्षोप के कारण उस पर्वतीय जनपद में तब से ही है। यह राजनीति कैसे बनती है आपके यहाँ धर्मभीरु और सत्ता पर भरोसा करने वाली जनता के बीच।
"शखमुखी शिखरों पर" (1964) का रचना समय 1960 से शुरू हो जाता है ओर 1964 में खत्म। क्योंकि फिर मैंने अपना शिष्य ही नहीं अपना नाम भी बदल दिया "शर्मा" को "जगूड़ी" कर दिया। मैंने सोचा था "शर्मा" से ब्रह्मण होने का बोध बिना बताये हो जाता है जो कि एक गाँव (जोगथ) से उत्पन्न जगूड़ी जैसे स्थानवाची शब्द से नहीं होगा। जाति वाचक नाम को त्यागने में क्या गाँधी या उस जमाने में सक्रिय गाँधीवादी डॉ। सम्पूर्णानंद का आग्रह कहीं आपको काम करता हुआ नहीं दिखता। मैंने अपने लिए "अमल", विमल, कमल, भ्रमर, पराग, पुष्प और नवीन-प्राचीन जैसा नहीं चुना। क्या इसमें आपको महात्मा गाँधी की सादगी और जैसे हम हैं वैसे दिखने की चेष्टा नहीं दिखती। जवाहरलाल नेहरू भी "कौल" जाति की कश्मीरी ब्राह्मण थे लेकिन नहर के किनारे घ्ार होने से नेहरू वाली पहचान उन्हें अच्छी लगी। क्या यह जातिहीन होने की ओर एक छोटा सा ही, सही कदम नहीं माना जायेगा। हम लोग कुछ खास पैमानों के आदि हो गये हैं। न नया कुछ सोच पाते हैं न नया कुछ ढूँढ़ पाते हैं। विक्षोप वहाँ भी है और "नाटक जारी" में भी है। पर्वतीय जनता को मैं धर्मभीरु और राजसत्ता पर भरोसा करने वाला कतई नहीं मानता।
चीनी, आटा, चावल, दाल, सब्जियाँ जैसी बुनियादी चीजों के दाम इतनी तेजी से बढ़ गए है। यह जनता पर दमन की नई नीति है सत्ता की। इन बढ़ी हुई कीमतों का पैसा कहाँ जा रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। रचनाकारों और कलाकारों पर अकर्मण्यता का निश्चित आरोप बनता है।
भारतवर्ष में उत्पादन का मतलब है गेहूँ, धान, दाल, सब्जी और ज्यादा से ज्यादा दूध और बागवानी अर्थात फलों को भी आप इसमें गिन सकते हैं। ये उत्पादन भारत में अपने लिए ही पूरे नहीं पड़ते। कपास को भी यहाँ सामान्य उत्पादन नहीं माना जाता क्योंकि गेहूँ, धान और बाजरे की तरह यह हर जगह नहीं होता। दालों में उड़द हर जगह होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कारों का उत्पादन अधिक होता है तो मैकेनिकल इंजीनियर परिवारों में खुशी का तब जल सकता है जब कारों की बिक्री बढ़े। मोटर साइकिलों की बिक्री बढ़े। इससे शंकरकंद पैदा करने वालो ओर बेचने वालों की खुशी नहीं बढ़ सकती। मँहगाई बढ़ी और बहुत ज्यादा बढ़ गयी है। सबकी माँग थी कि तनख्वाहें बढ़े। तनख्वाहें पहली बार अपार सीमा तक बढ़ गयी है। टेक्नोलोजी की माँग थी कि उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़े। वेतन बढ़कार क्रय शक्ति बढ़ा दी गयी। यह नहीं सोचा गया कि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के बाजार का क्या होगा। गेहूँ, गोभी, धान और टमाटर की टेक्नोलोजी को कृषि है जैसे ऑक्सीजन की टेक्नोलाली जंगल है। वेतन बढ़ाने से पहले कृषि ओर पशु आधारित उत्पादों को न्यायोजित बढ़ा हुआ मूल्य प्रत्येक पाँच वर्ष के लिए घोषित कर दिये जाने का कोई नियम हमारे यहाँ नहीं है। इसलिए नियंत्रण भी नहीं है। महँगी टेक्नोलाजी और आधुनिक महँगे रहन-सहन ने तनख्वाहें बढ़ायी नतीजा यह हुआ कि सारा श्रम और सारा उत्पादन महँगा हो गया। चिंता यह नहीं है कि यह बढ़ा हुआ पैसा जो बे-नौकरीपेशा जनता दे रही है यह कहाँ जा रहा है बल्कि प्रश्न यह है कि यह कहाँ जा रहा है?
किसानों, मजदूरों, मेहनतकशों और उत्पीड़ितों के साथ कवि अपने को पाता है लेकिन कवि न फूड इस्पेक्टर है या लेबर इस्पेक्टर, न कृषि मंत्री और न श्रम मंत्री। कवि नियति का लेखाकार है उससे टेक्स का हिसाब माँगना गैर-जिम्मेदारी और ना समझी दोनों है।
वेतन बढ़ाये गये है तकनीकी रूप से महँगे उत्पादों को खरीद क्षमता के अन्तर्गत लाने के लिए न कि दाल-रोटी तक पहुँच बनाने के लिए। दाल-रोटी जो लोग पहुँच से बाहर बना रहे हैं असल में वे भी अपने लिए इसी साल अपने लिए एक नई कार खरीदना चाहते हैं। प्रत्येक नागरिक को शिक्षित और टेक्निकल बनाना जरूरी है अन्यथा वह संस्कृति के अनेक अंधविस्वासों का शिकार होता रहेगा। कविता में भाषा में अन्तर्निहित कर्म का हमेशा पक्ष लिया है। आत्माओं की जासूसी की है, बाजार भाव पर नियंत्रण उसके वश का नहीं।
कविता में विमर्श का वर्तमान दौर आपकी कविताओं में पहले से विद्यमान रहा है। यद्यपि इसका हवाला दिया कोई नहीं देता। हमारे सामाजिक, राजनैतिक व्यवहार का विखंडन कर उसमें छुपें मन्तव्यों और रूढ़ियों की चीर-फाड़ आपके प्राय: सभी संग्रहों में है। हाँ मैं यह जरूर कहूँगा कि अपेक्षाकृत एक कम नजर आने वाली शास्त्रीय परम्परा को आपने विकसित किया है। जीवन को परखने की आपकी दृष्टि और उपकरण नितान्त भारतीय है।
विखंडन भी सबसे प्राचीन आधुनिकता है। भारत में विमर्श को खंडन-मंडन की विधा माना गया है। भारत में वृक्षों की पूजा की जाती है और वृक्षारोपण को वंश वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में दस पुत्रों के बराबर माना गया है। लेकिन विमर्श का उद्येश्य मूल तक जाना रहा है। यहाँ जड़ उखाड़ने तक का विचार-विमर्श मान्य रहा हैं यही प्रवृतियाँ अक्सर डॉ। रामविलास शर्मा और डॉ। नामवर सिंह में लक्षित की जा सकती है। मूलगामी प्रवृतियों को पिछड़ेपन की पुनर्यात्रा के रूप में भी माना गया है। आधुनिक होना है तो केवल मूलगामी होने से नहीं चलेगा। जड़ अगर आप उखाड़ भी लाये तो भी समस्या निर्मूल नहीं हो जायेगी। हमें भूल के साथ मौलि (फुनगी) तक की यात्रा करनी है। यह विमश और विखंडन की रचनात्मक यात्रा है। ध्वंस एक खंडहर है। विध्वंस खंडहर को भी तोड़ देता है। सबकुछ तोड़ने के बाद जो मूल फिर मौलि की ओर यात्रा करने लगे वही पुनर्नवा है। वही पुनरोदय है। वही पुनर्भव है। बिना मूल के मौली की आरे जाना संभव नहीं। मेरी कविताओं के बारे में भी अगर ऐसा हुआ तो वही मौलिक विचार-विमर्श होगा। नये विचार उगाने जैसा ही महत्वपूर्ण है विध्वंश में से कुछ पाकर उसका पुनरोपण करना। साहित्य और शल्य चिकित्सा में अस्थियों और ऊतकों की पुर्नप्राप्ति कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह भी विखंडन का सूचनात्मक उपयोग है।
साहित्य में देश-विदेश कुछ नहीं होता उस में जीवन मात्र का अंतराष्ट्रीय अंतरात्मा होता है। साहित्य में भाषा का भूत झगड़ा करवाता है लेकिन मनुष्य के वैश्विक मन का लौकिक स्तर पर ऐकिक दृष्टिकोण उसको बँटने नहीं देता। इससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता है कि अंततोगत्वा अनुभूतियों को अपनी कमायी हुई भाषा चाहिए ज़रूर। मैंने अपनी कविताओं के लिए वही भाषा कमायी हैं। किसी की कमायी किसी और को सहाये या नहीं यह उसकी आंतरिक बनावट पर निर्भर करता है। कठिन ही मेरे यहाँ आसान है और आसान ही कठिन भी।
विमर्श की बात को आगे बढ़ाते है। "खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है" में "अपनी सरस्वती की अदरूनी खबर" में सरस्वती पूजा घर से लोगों की बीच में आती है। धार्मिक तंत्र की रूढ़ि से मुक्ति मिलती हैं 'सरस्वती लक्ष्मी सहित मनुष्य का मारा जाना तय है। यह पद आज के यथार्थ का अनुभव कराता है। और यह भी कि पूरी संरचना में आदमी अलग-थलग नहीं है। लेकिन युद्ध मे उतार देने के लिए "बुद्धिजीवियों की जल्दबाजी" को कारण बताना वर्गभेद को थोड़ा क्षीण बना देता है।
सरस्वती की निर्यात मनुष्यों ने कुछ खेत, कारखानों, रोजी-रोटी के युद्ध क्षेत्रों से हटाकर उसकी जगह पूजाघरों में सुनिश्चित कर दी। जबकि मूर्ख समझे जाने वाले कम जानकारों की बुद्धि ने कई बार मानवता को आगे बढ़ाने के चमत्कार किए है। जब युद्ध छिड़े तो सरस्वती विहिन लोगों ने तहखाने बनाये। हर किसी की सूझबूझ और टेक्नोलोजी को सरस्वती का दर्जा हासिल होना अभी भारतीय समाज में बाकी है। यहाँ किताबी कीड़ो के परिश्रमहीन और शोधहीन जीवन को विद्या का वरदान मान लिया गया हैं। इन सरस्वती चिन्हों से हमें बाहर आना पड़ेगा। पृथ्वी की जड़ता और मनुष्य की मूर्खताएँ ज्यादा उर्वर होती है। सरस्वती का संबध असामान्य और असाधारण रचनात्मकता रचना से है। एक स्त्री के सफेद वस्त्र पहनकर कमल के फूल पर बैठ जाना उस समय सचमुच असामान्य और असाधारण घटना रही होगी जिसके दिमाग में भी यह बिम्ब आया हो-जादूई था। लेकिन सफेदी का कारोबार करती आज की विज्ञापन सुन्दरियाँ क्या उस फूल पर बैठायी जा सकती हैं।
मैंने जान बूझकर अपने दो कविता संग्रहों में पहली कविता सरस्वती पर दी। ये तीनों कविताएँ सरस्वती की मिटती-बनती पहचान के बीच उसकी वह पहचान करना चाहती है जो शायद वह थी। सरस्वती भी पिछड़ी हुई भला क्यों रहना चाहेगी। सरस्वती एक विचार, एक उद्यम, एक उत्पादन, एक उपार्जन और अपने में अपना सृजन, अपना निन्धन भी है। एक प्रज्ञा भी हमेशा दूसरी प्रज्ञा की तरह नहीं हुई है। मनुष्य की प्रज्ञा निरन्तरता को जानती चलती है। अगर वह रोजमर्रा के साथ सारे ब्रह्माण्ड की रिलेशनशिप नहीं बैठा सकती तो वह अभी प्रज्ञावान नहीं हुई है।
सरस्वती का शब्दिक अर्थ है - सर: वती। सर अर्थात तालाब और वती माने वाली। जिस तरह "वान" माने वाला होता है। तालाब वाली यह कौन सी बाई है? पानी वाली ताई तो हमारी समूचि प्रकृति है जो अपनी फफूँद से भी कुछ न कुछ बना लेती है। प्रकृति का प्रतीक भी सरस्वती का अच्छा रूपक है। कठोर होन के बावजूद पानी वाली मृदुल और सरस तो होगी ही। जंगलों जैसी नमी से भरी हुई सृजनशील प्रवृत्ति का नाम सरस्वती है। सफेद जलद उसकी प्रतिभा के उड़ते हुए हिस्से हैं।
बुद्धि वर्ग भेद पैदा नहीं करती बल्कि कम करने के तरीक ढूँढती है।