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Monday, August 23, 2010

तेरा-मेरा ये बतियाना-क्या कहने हैं


देहरादून और पूरे उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों में सांस्कृतिक तौर पर डटे रहने वाले संस्कृतिकर्मी गिर्दा-गिरीश चंद्र तिवाड़ी को देहरादून के रचनाजगत ने पूरे लगाव से याद किया। गिर्दा का मस्तमौला मिजाज और फक्कड़पन, उनकी बेबाकी और दोस्तानेपन के साथ किसी भी परिचित को अपने अंकवार में भर लेने की उनकी ढेरों यादें उनके न रहने की खबर पर देहरादून के रचनाजगत और सामाजिक हलकों में सक्रिय रहने वाले लोगों की जुबां में आम थी। गत रविवार को यह सूचना मिलने पर कि गिर्दा नहीं रहे, देहरादून के तमाम जन संगठनों ने उन्हें अपनी-अपनी तरह से याद किया। संवेदना की बैठक में नीवन नैथानी, दिनेश चंद्र जोशी, निरंजन सुयाल राजेश सकलानी, विद्या सिंह और अन्य रचनाकारों ने गिर्दा के देखने, सुनने और उनके साथ बिताये गये क्षणों को सांझा किया। कवि राजेश सकलानी ने उनकी हिन्दी में लिखी कविताओं का पाठ किया तो दिनेश चंद्र जोशी ने कुंमाऊनी कविता का पढ़ी। निरंजन सुयाल ने 1994 से आखिरी दिनों तक के साथ का जिक्र करते हुए गिर्दा के एक गीत की कुछ पंक्तियों का स-स्वर पाठ किया। उत्तराखण्ड आंदोलन के दौरान गाये जाने वाले उनके गीतों को याद करते हुए तुतुक नी लगाउ देखी, घुनन-मुनन नी टेकी गीत को कोरस के रुप में भी गाया गया। इस अवसर पर फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा ने कुछ महत्वपूर्ण सवाल भी उठाये। डॉ जितेन्द्र भारती, मदन शर्मा, प्रमोद सहाय और चंद्र बहादुर रसाइली अदि अन्य रचनाधर्मी भी गोष्ठी में उपस्थित थे। गिर्दा की कविताओं के साथ गोष्ठी की बातचीत की कुछ झलकियां यहां जीवन्त रुप में प्रस्तुत है।         
अक्षर
ध्वनियों से अक्षर ले आना-क्या कहने हैं,
अक्षर से ध्वनियों तक जाना- क्या कहने हैं।
कोलाहल को गीत बनाना- क्या कहने हैं,
गीतों से कुहराम मचाना- क्या कहने हैं।
कोयल तो पंचम में गाती ही है लेकिन
तेरा-मेरा ये बतियाना-क्या कहने हैं।
बिना कहे भी सब जाहिर हो जाता है पर,
कहने पर भी कुछ रह जाना- क्या कहने हैं।
अभी अनकहा बहुत-बहुत कुछ है हम सबमें,
इसी तड़फ को और बढ़ाना- क्या कहने हैं।
इसी बहाने चलो नमन कर लें उन सबको
'अ" से 'ज्ञ" तक सब लिख जाना- क्या कहने हैं।
 ध्वनियों से अक्षर ले आना-क्या कहने हैं,
अक्षर से ध्वनियों तक जाना- क्या कहने हैं।
  


दिल लगाने में वक्त लगता है,
डूब जाने में वक्त लगता है,
वक्त जाने में कुछ नहीं लगता-
वक्त आने में वक्त लगता है।



दिल दिखाने में वक्त लगता है,
फिर छिपाने में वक्त लगता है,
दिल दुखाने में कुछ नहीं लगता-
दर्द जाने में वक्त लगता है।


अभी करता हूँ तुझसे आँख मिलाकर बातें,
तेरे आने की लहर से तो उबर लूँ पहले।
ये खिली धूप, ये चेहरा, ये महकता मौसम,
अपनी दो-चार खुश्क साँसें तो भर लूँ पहले।।

    



  

 


Wednesday, August 11, 2010

पत्रकार वार्ता

देहरादून

नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित साक्षात्कार में महिला रचाकारों के रचनाकर्म पर की गई अभद्र टिप्पणी के विरोध में आयोजित पत्रकार वार्ता में देहरादून के विभिन्न सामजिक साहित्यिक संगठनों के बीच स्पष्ट एकता दिखायी दी। महिला समाख्या, जागो रे अभियान, उत्तराखंड महिला मंच, संवेदना, दिशा सामाजिक संगठन, वाइज, प्रगतिशील महिला मंच की प्रतिनिधियों ने सामूहिक तौर पर पत्रकारवार्ता को संबोधित किया। साक्षात्कार में की गई टिप्पणी की निंदा करते हुए महात्मा गांधी राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति और साहित्यकार विभूतिनारायण राय के इस्तीफे की मांग शिक्षा मंत्री से की गई। वार्ता में शामिल महिला संगठनों का मानना था कि विभूतिनारायण राय की ओर से की गई टिप्पणी उनकी कुत्सित मानसिकता को दिखाती है। पत्रकार वार्ता को संबोधित करने वालों में गीता गैरोला, कमला पंत, मनमोहन चड्ढा, पदमा गुप्ता आदि मुख्य रहे। देहरादून के अन्य साहित्यकार और सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनों के बहुत से कार्यकर्ता इस अवसर पर उपस्थित रहे।

Sunday, August 8, 2010

विवादित साक्षात्कार की हलचल

गोष्ठी की रिपोर्ट को दर्ज करने की सूचना पर इस ब्लाग के सहभागी लेखक राजेश सकलानी ने कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह द्वारा लिखित एक संस्मरण ( एक विरोधाभास त्रिलोचन) के उस अंश को दुबारा याद करना चाहा है जिसमें एक जिम्मेदार लेखक गरीब की बेटी को नग्न करके शब्द के अर्थ तक पहुंचने की कथा पूरी तटस्थता से सुनाता है। जबकि लेखक एक शिक्षाविद्ध भी है।


साहित्य की समकालीन दुनिया की खबरों की हलचल का प्रभाव इतना गहरा था कि खराब मौसम के बावजूद 8 अगस्त 2010 को आयोजित संवेदना की मासिक रचनागोष्ठी बेहद हंगामेदार रही। कथाकार सुभाष पंत, डॉ जितेन्द्र भारती, कुसुम भट्ट, मदन शर्मा, दिनेश चन्द्र जोशी, के अलावा फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा और दर्शन लाल कपूर गोष्ठी में उपस्थित थे। अगस्त माह की यह गोष्ठी बिना किसी रचनापाठ के कथाकार और कुलपति विभूति नारायण राय के उस साक्षाकत्कार पर केन्द्रित रही जो नया ज्ञानोदय के अगस्त अंक में प्रकाशित हुआ है और विवाद के केन्द्र में है। महिला समाख्या की कार्यकर्ता गीता गैरोला के उस पत्र को आधार बनाकर बातचीत शुरू हुई जिसमें उन्होंने संवेदना के सदस्यों से अपील की है कि महिला रचनाकारों के बारे में अभद्र भाषा में की गई टिप्पणी के विरोध में 10 अगस्त को आयोजित होने वाली प्रेस कान्फ्रेन्स में, अपनी सहमति के साथ उपस्थित हों। साक्षात्कार का सामूहिक पाठ किया गया और उस पर विस्तृत बहस के बाद गोष्ठी में उपस्थित सभी रचनाकारों ने अभद्र भाषा में की गई टिप्पणी पर विरोध जताते हुए प्रेस कांफ्रेंस में संवेदना की भागीदारी की सहमति जतायी। 




जयपुर
प्रेमचंद जयंती समारोह-2010
राजस्‍थान प्रगतिशील लेखक संघ और जवाहर कला केंद्र की पहल पर इस बार जयपुर में प्रेमचंद की कहानी परंपरा को ‘कथा दर्शन’ और ‘कथा सरिता’ कार्यक्रमों के माध्‍यम से आम लोगों तक ले जाने की कामयाब कोशिश हुई, जिसे व्‍यापक लोगों ने सराहा। 31 जुलाई और 01 अगस्‍त, 2010 को आयोजित दो दिवसीय प्रेमचंद जयंती समारोह में फिल्‍म प्रदर्शन और कहानी पाठ के सत्र रखे गए थे। समारोह की शुरुआत शनिवार 31 जुलाई, 2010 की शाम प्रेमचंद की कहानियों पर गुलजार के निर्देशन में दूरदर्शन द्वारा निर्मित फिल्‍मों के प्रदर्शन से हुई। प्रेमचंद की ‘नमक का दारोगा’, ‘ज्‍योति’ और ‘हज्‍ज-ए-अकबर’ फिल्‍में दिखाई गईं।
रविवार 01 अगस्‍त, 2010 को वरिष्‍ठ रंगकर्मी एस.एन. पुरोहित ने प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ का अत्‍यंत प्रभावशाली पाठ किया। कथाकार राम कुमार सिंह ने ‘शराबी उर्फ तुझे हम वली समझते’ कहानी का पाठ किया। कहानी पाठ की शृंखलमें प्रदेश के युवतम कथाकार राजपाल सिंह शेखावत ने ‘नुगरे’ कहानी का पाठ किया| उर्दू अफसानानिगार आदिल रज़ा मंसूरी ने अपनी कहानी ‘गंदी औरत’ का पाठ किया। सुप्रसिद्व युवा कहानीकार अरुण कुमार असफल ने अपनी कहानी ‘क ख ग’ का पाठ किया। मनीषा कुलश्रोष्‍ठ की अनुपस्थिति में सुपरिचित कलाकार सीमा विजय ने उनकी कहानी ‘स्‍वांग’ का प्रभावी पाठ किया। अध्‍यक्षता करते हुए जितेंद्र भाटिया ने पढ़ी गई कहानियों की चर्चा करते हुए समकालीन रचनाशीलता को रेखांकित करते हुए कहा कि इधर लिखी  जा रही कहानियों ने हिंदी कहानी के भविष्‍य को लेकर बहुत आशाएं जगाईं हैं। सत्र के समापन में उन्‍होंने अपनी नई कहानी ‘ख्‍वाब एक दीवाने का’ का पाठ किया।
‘कथा सरिता’ के दूसरे सत्र का आरंभ वरिष्‍ठ साहित्‍यकार नंद भारद्वाज की अध्‍यक्षता में युवा कहानीकार दिनेश चारण के कहानी पाठ से हुआ। इसके बाद लक्ष्‍मी शर्मा ने ‘मोक्ष’ कहानी का पाठ किया। युवा कवि कथाकार दुष्‍यंत ने ‘उल्‍टी वाकी धार’ कहानी का पाठ किया। चर्चित कथाकार चरण सिंह पथिक ने ‘यात्रा’ कहानी का पाठ किया।
प्रस्‍तुति : फारुक आफरीदी

Tuesday, February 23, 2010

भाड़े का विज्ञान और विशेषज्ञ

यूं तो सम्पूर्ण ऊर्जा के दोहन को लेकर अनेक योजनाएं बनायी जा रही है पर उत्तराखण्ड के पहाड़ों में विशेष रूप से 400 से ज्यादा छोटी-बड़ी जल-विद्युत परियोजनाओं पर काम चल रहा है। जाहिर है स्थानीय जनता के विस्थापन से लेकर पर्यावरण संरक्षण तक के मुद्दे प्रमुख रूप से उभर कर आ रहे हैं। ज्ञात हो कि उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों में जनता के पास कुल भूमि का मात्र 7 प्रतिशत भूमि पर मालिकाना हक है, बाकी सब भूमि रिजर्व फॉरेस्ट व अन्य सरकारी खातों में बंद है। जल-विद्युत परियोजनाओं के निर्माण की अंधी दौड़ में यह तथ्य छुपाया जा रहा है कि जिस हिसाब से पर्वतों की जनता यहां की भूमि पर मालिकाना हक खो रही है उस हिसाब से बहुत जल्दी उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्रों की नदी घाटियों में बांध ही बांध और शिखरों में वन्यजीव अभ्यारण्य होंगे। यह भी उदघाटित होना चाहिए कि बांधों के निर्माण हेतु जारी दिखावटी प्रक्रिया, जिसके तहत पर्यावरणीय समीक्षा से लेकर विस्थापन और मुआवजों के मामलें निपटाये जाते हैं, कैसे उन विशेषज्ञों की रिपोर्टों के आधार पर तैयार हो जाते है जिनके अपने हित जल-विद्युत कम्पनियों के साथ बंधें होते हैं। पिछले दिनों जोशीमठ शहर के ठीक नीचे बनाये जा रही एक सुरंग में यकायक 600 लीटर प्रति सैकेण्ड की गति से जल रिसाव होने से निर्माण कार्य ठप है। अब जोशीमठ के निवासी भयभीत हैं कि कहीं उनके जल स्रोत सूख न जाए या कहीं जोशीमठ भूमि धसाव की जकड़ में न आ जाए। यह चिंताएं अकारण नहीं है। जोशीमठ के ठीक सामने के उस चाई गांव का मामला अभी कोई ज्यादा पुराना नहीं हुआ है जो एक ऐसी ही परियोजना के कारण इतिहास के गर्त में समा गया। चाई नाम के उस छोटे-से गांव के ठीक नीचे से जे पी कम्पनी की सुरंग निकाली गयी थी। परियोजना को पूर्ण रूप से सुरक्षित होने का प्रमाण-पत्र भी विशेषज्ञों द्वारा जारी किये जाने के बावजूद दो वर्ष पूर्व चाई गांव भूमि धसाव का शिकार हो चुका है, लेकिन अफसोस कि उन विशेषज्ञ रिपोर्टो पर आज तक कोई सवाल नहीं।
ऐसे ही सवालों के साथ प्रस्तुत है डॉ. सुनील कैंथोला का यह आलेख:

सुनील कैंथोला

हिंदुकुश हिमालय का एक बड़ा हिस्सा आतंकवाद और राजनैतिक अस्थिरता से ग्रस्त है। आतंक के इस खूनी खेल में भाड़े के सैनिकों की प्रमुख भूमिका है, जो लोकतंत्र और अमन-चैन को अपने पेशे के प्रतिकूल समझते हैं। दूसरी तरफ, हिमालय के ऐसे क्षेत्र जहां अमन है, लोकतंत्र है, वहां भाड़े के विशेषज्ञों का आतंक दिनों-दिन बढ़ता ही जा रहा है। भाड़े के आतंकवादियों की ही तरह इनका दीन मात्र पैसा है और इसके एवज में ये लोकतंत्र का गला घोंटने से परहेज नहीं करते। इनके आतंक में पिसती स्थानीय जनता की स्थिति किंकर्त्तव्यविमूढ़ जैसी होकर रह गई है। अब भारत सरकार का कोई बोर्ड हो, विशेषज्ञों की मोटी तकनीकी रिपोर्ट हो और इसके बावजूद भी आप तकरार करने की हिमाकत करें, तो या तो आप कतई सिरफिरे हैं या निश्चित तौर पर माओवादी हो सकते हैं। जिसके नापाक इरादों पर पानी फेरने के लिए भारत सरकार चौबीसों घंटे चौकन्नी व लामबंद है।

इन दिनों उत्तराखंड मुआवजे की धनराशि से खरीदी गई गाड़ियों, उन पर लगे भारत सरकार के बोर्ड और उसमें विराजमान ताजी हजामत वाले, कृत्रिम इत्र-फुलेल की दुर्गंध छोड़ते भाड़े के विशेषज्ञों और उनके काणे विज्ञान की कलाबाजियों से पूरी तरह सम्मोहित है। मदारी, बहरूपिए, चालबाज, जेबकतरे आदि जब बड़े स्तर पर हाथ मारने में कामयाब हो जाते हैं, तो अंग्रेजी में उन्हें कलाकार का दर्जा देते हुए कॉन आर्टिस्ट कहा जाता है। उत्तराखंड में बड़े कॉन आर्टिस्टों की क्षमता संपन्न कंपनियों द्वारा कथित विशेषज्ञों को भाड़े पर उठाकर जो मायाजाल बुना जा रहा है, वह शेयर बाजार में भले ही उफान पैदा कर दे, स्थानीय आजीविका और अस्तित्व पर तो वह अंतिम कील ठोक ही देगा। इस भ्रम का शीघ्र अति शीघ्र पर्दाफ़ाश करना संविधान की आत्मा और लोकतंत्र की रक्षा की लड़ाई का हिस्सा बनता जा रहा है।

जब किसी के नाम के आगे विशेषज्ञ शब्द जुड़ जाए और ऊपर भारत सरकार का बोर्ड हो तो किसी की क्या मजाल कि उसकी विशेषज्ञता को चुनौती दे सके। फिर मामला जब ऐसा हो कि विशेषज्ञ की जरूरत पहले से तैयार रिपोर्ट के अंत में सिर्फ हस्ताक्षर भर करने के लिए हो, तो लाला किसी भी अंजे-गंजे को विशेषज्ञ के स्थान पर खड़ा कर देगा। जैसे वर्ष 2003 में विख्यात पर्वतारोही हरीश कपाड़िया जल्दबाजी में ग्लेशियोलॉजी पढ़ने वाले एक लौंडे को विशेषज्ञ बनाकर विश्व धरोहर नंदादेवी कोर जोन में ले गए, तो पूरी सरकार उनकी आवभगत में जुटी रही। सामाजिक-आर्थिक स्तर पर विशेषज्ञता का बंटाधार तो डा।राबर्ट चैंबर्स अपने पी।आर।ए। और आर।आर।ए।के कथित विज्ञान द्वारा पहले ही कर चुके थे। आप दो हफ्ते के 70-72 घंटे के प्रशिक्षण द्वारा डॉक्टर, इंजीनियर या फॉरेस्टर नहीं बन सकते परंतु इतने ही समय में कोई भी लप्पू झन्ना न केवल समाजशास्त्री बन सकता है बल्कि अपने तूफानी दौरे के दौरान होटल-ढ़ाबों में हुई बातचीत के बल पर नीतिगत अनुशंसा करने के स्तर तक भी पहुंच जाता है। बहुत संभव है कि डा.चैंबसरा की यह मंशा न रही हो पर उनके पी.आर.ए.शास्त्र ने लालाओं के "उत्तराखंड कब्जाओ" एजेंडा को बल ही प्रदान किया है। बांध संबंधी विषयों पर जनता के साथ बैठकों की संचालन विधि, चांदी के कटोरों की भेंट और जन सुनवाइयों की हलवा-पूरी की कवायद उस दौर से बिल्कुल अलग नहीं, जब नकली मोती और आईना देकर अंग्रेज आदिवासियों की जमीनें हड़पा करते थे। इतना जरूर है कि तब नेतृत्व दलाल नहीं अपितु भोला था। पी।आर।ए।ने हमारे माननीय प्रशासकों के दृष्टिकोंण को ठीक उसी सांचे में ढालने में भूमिका निभाई हो, जो साम्राज्यवाद के विस्तार के दौर में क्षेत्रीय प्रशासकों का होता था। आज का प्रशासक उससे भी ज्यादा क्षमता संपन्न है, वह अपने पी।आर।ए। द्वारा लोकतंत्र के बाकी बचे स्तंभों को चलाता है।

उत्तराखंड निर्माण के उपरांत जिस धंधे के दिन पलटे उसमें विशेषकर डी.पी.आर.(डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) बनाने के व्यवसाय से जुड़ा पेशा शामिल है। इसमें भू-वैज्ञानिक, कथित समाजशास्त्री, पर्यावरणीय प्रभाव की रिपोर्ट बनाने वाले किसी भी पृष्ठभूमि के कंसल्टेंट अथवा भाड़े के विशेषज्ञ शामिल होते हैं, जो लालाओं की कंपनी के दिशा निर्देशानुसार रिपोर्ट बनाते हैं। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि जरूरत इनके कथित ज्ञान की नहीं सिर्फ हस्ताक्षरों की होती है, कोई मना कर भी दे, तो बाजार में इनकी कमी नहीं।

उत्तराखंड निर्माण से पूर्व डी।पी।आर।का धंधा अपेक्षाकृत छोटे स्तर पर हुआ करता था, जिस पर देहरादून के मुट्ठी भर भू-वैज्ञानिकों की इजारेदारी थी, जो बेरोजगार भू-वैज्ञनिकों को अल्प समय के लिए भाड़े पर रखकर सीमित मुनाफे में अपनी आजीविका चलाते थे। राज्य निर्माण के उपरांत उत्तराखंड के जल स्रोतों के दोहन के अभियान में आई तेजी ने इनके भी दिन फेर दिए, जो कि निश्चित रूप से बुरी बात नहीं है। मुद्दा रिपोर्टों की और भू-विज्ञान की वैज्ञानिक विश्वसनीयता का है। भू-विज्ञान स्वयं में आधारभूत (फंडामेंटल) विज्ञान न होकर विभिन्न आधारभूत विज्ञानों व एप्लाइड साइंस का अद्भुत सम्मिश्रण है। इसकी नितांत आवश्यकता भी है। तभी तो 1767 में सर्वे ऑफ इंडिया की स्थापना के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1836 में कोल कमेटी का गठन किया, जो कालांतर में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया बनी। साम्राज्यवाद को अपने विस्तार के लिए जिन विभागों की आवश्यकता थी, उनमें भूगोल और भू-विज्ञान प्रमुख थे। पिछली दो शताब्दियों में भू-विज्ञान ने भले ही चहुमुंखी प्रगति कर भी ली हो परंतु वह आधारभूत विज्ञान की तरह दो और दो चार कह पाने की स्थिति में नहीं पहुंचा है। जैसे कि चांई का मामला। अब जे।पी।के सीमेंट से बनी जे।पी।हाईड्रो पावर की टनल यदि रिक्टर 8 के पैमाने के भूकंप को झेल जाएगी, तो इसका श्रेय सीमेंट, सरिया और रेत को सही अनुपात में मिलाने को जाएगा पर ग्राम चांई जो ध्वस्त हुआ तो उस भू-विज्ञान को कौन शूली चढ़ाएगा, जिसके आधार पर उक्त योजना को स्वीकृति प्रदान की गई? जाहिर है कि यह जनता के पैसे पर भू-वैज्ञानिकों के अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार को आयोजित करने का अच्छा बहाना हो सकता है। जिसमें विभिन्न प्रकार के कयास लगाए जाएंगे पर चांई के साथ हुए विश्वासघात पर चर्चा नहीं होगी क्योंकि यह भू-विज्ञान का विषय जो नहीं है।

चांई एक छोटा गांव है, जो भाड़े के विशेषज्ञों की बलि चढ़ गया। अब जोशीमठ के अस्तित्व पर तलवार लटक गई है, जो बदरीनाथ जी का शीतकालीन आवास और संभवत: लाखों परिवारों की आजीविका का स्रोत है। जिसके ऊपर अरबों रुपयों के शीतकालीन क्रीड़ा की इंवेस्टमेंट भी हैं। इधर, एन.टी.पी.सी.का एफ.पी.ओ.शेयर बाजार में उतरा रहा है। उधर, जोशीमठ के ठीक नीचे कहीं जल रिसाव से सुरंग का कार्य बंद हो गया। अब बाजार से पैसा उठाना परियोजना की गुणवत्ता से महत्वपूर्ण हो गया है। मामला फिर विशेषज्ञों के पाले में है, जो भाड़े पर हैं। जिनका विज्ञान अंत में मात्र कयासों पर आधारित है। कल यदि जोशीमठ के अस्तित्व को कुछ होता है, तो जनता संभवत: ये कैसे हुआ होगा इस विषय पर भूगर्भ शास्त्रियों की थ्योरियां न सुनना चाहेगी बल्कि आज अपने अस्तित्व की गारंटी लेना पसंद करेगी।

ऊर्जा निश्चित रूप से देश की आवश्यकता है। हैरत की बात है कि ओ.एन.जी.सी.के भूगर्भशास्त्री दशकों भारत में तेल खोजते रहे पर मिला खुलेपन के उपरांत रिलायंस घराने को। जिसकी बंदरबांट का झगड़ा इस देश का सबसे चर्चित अदालती केस है। उत्तराखंड के परिप्रेक्ष्य में कहें, तो यहां पर्यावरणवादियों और जल ऊर्जा कंपनियों ने अपने-अपने इलाके कब्जा लिए हैं। बांध के मामले में पर्यावरणवादी भी चुप्पी साध लेते हैं। इस दोहरी मार का एक उदाहरण जोशीमठ-मलारी के बीच स्थित ग्राम लाता है, जहां भारत के वन्य जीव संस्थान के विशेषज्ञों ने अपने कथित अध्ययनों के आधार पर जनता पर अनेक प्रतिबंध लगा दिए पर उसी ग्राम की तलहटी पर बन रहे बांध के पर्यावरणीय प्रभाव पर ये विशेषज्ञ मौन हैं। इन बांधों की डी।पी।आर।में इस क्षेत्र का कोई जैव विविधीय महत्व नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं कि इन परियोजनाओं की पर्यावरणीय समीक्षा भी इन्हीं विशेषज्ञों अथवा इनके चेलों ने तैयार की हों। विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पर्यावरण व जैव विविधता का रोना रोने वाले ये विशेषज्ञ आज मौन क्यों हैं? इस पर चर्चा करना व्यर्थ है। ऊर्जा की आवश्यकता और जैव विविधता संरक्षण, अंतर्राष्ट्रीय मुद्दे हैं, जबकि स्थानीय जनता का अस्तित्व, स्थानीय मुद्दा। उत्तराखंड की राजनीति यदि ठेकेदारी पर आश्रित न होती, तो संभवत: भाड़े के विशेषज्ञों द्वारा रचे गए इस मारक चक्रव्यूह से जनता को सुरक्षित बाहर निकाल लाती।


Monday, January 25, 2010

साहित्य की स्वाधीन और जनपक्षधर परंपरा का उपहास है समसुंग पुरस्कार -जन संस्कृति मंच

जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारिणी सदस्य सुधीर सुमन के हवाले से जारी यह  प्रेस बयान  प्रतिरोध की एक जरूरी पहल है, इसी आशय के साथ इसे यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।


समसुंग कंपनी और साहित्य अकादमी की ओर से दिया जा रहा टैगोर साहित्य पुरस्कार साहित्य अकादमी की स्वायत्ता, भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा और टैगोर की विरासत के ऊपर एक हमला है। दे्श की तमाम भाषाओं के साहित्यकारों व साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठनों को इस प्रवृत्ति का सामूहिक तौर पर प्रतिरोध करना चाहिए--- साहित्य अकादमी को सत्तापरस्ती और पूंजीपरस्ती से मुक्त किया जाना चाहिए।
जिस तरह साहित्य अकादमी ने लेखकों का नाम चयन करके पुरस्कार के लिए समसुंग के पास भेजा है वह भारतीय साहित्यकारों के स्वाभिमान को चोट पहुंचाने वाला कृत्य है और इससे साहित्य अकादमी की स्वायत्तता पर प्रश्नचिह्न लग गया है। क्या अब इस दे्श की साहित्य अकादमी समसुंग जैसी कंपनियों के सांस्कृतिक एजेंट की भूमिका निभाएगी? यह खुद अकादमी के संविधान का उपहास उड़ाने जैसा है।
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर दिए जाने वाला यह पुरस्कार स्वाधीनता और जनता के लिए प्रतिबद्ध इस दे्श की लंबी और बेमिसाल साहित्यिक परंपरा पर कुठाराघात के समान है। बेशक दे्श की ज्यादातर पार्टियां और उनकी सरकारें साम्राज्यवादपरस्ती और निजीकरण की राह पर निर्बंध तरीके से चल रही हैं। दे्शी पूंजीपति घराने भी साहित्य-संस्कृति को पुरस्कारों और सुविधाओं के जरिए अपना चेरी बना लेने की लगातार कोशिश करते रहे हैं, बावजूद इसके दे्श के साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों की बहुत बड़ी तादाद अपनी रचनाओं में इनका विरोध ही करती रही है। साहित्य अकादमी और समसुंग के पुरस्कारों के जरिए इस विरोध को ही अगूंठा दिखाने का उपहासजनक प्रयास किया जा रहा है और इसके लिए समय भी सोच समझकर चुना गया है। गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर पूरे देश को एक तरह का संकेत देने की तरह है कि जैसी साम्राज्यवादपरस्त जनविरोधी अर्थनीति पिछले दो दशक में इस दे्श पर लाद दी गई है, वैसे ही मूल्यों को साहित्य में प्रश्रय दिया जाएगा और साहित्य अकादमी जैसी अकादमियां इसका माध्यम बनेंगी। बे्शक साहित्य अकादमी सरकारी अनुदान से चलती है, मगर इसी कारण उसे सरकारी संस्कृति का प्रचार संस्थान बनने नहीं दिए जा सकता। जिस पैसे के जरिए यह अकादमी चलती है वह पैसा जनता के खून-पसीने का है और इसीलिए उस संस्था का एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के जशन का ठेकेदारी ले लेना आपत्तिजनक है। इस पुरस्कार का विरोध करना साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के साथ-साथ इस दे्श की जनता का भी फर्ज है।
साहित्य अकादमी को और भी स्वायत्त बनाने और सही मायने में एक लोकतांत्रिक दे्श की राष्ट्रीय साहित्य अकादमी बनाने की जरूरत है। जिस शर्मनाक ढंग से समसुंग के समक्ष समर्पण किया गया है उसे देखते हुए सवाल खड़ा होता है कि क्या साहित्य अकादमी की विभिन्न समितियों में जो लेखक हैं, वे इस हद तक पूंजीपरस्त हो चुके हैं। उनका यह विवेकहीन निर्णय इस जरूरत को सामने लाता है कि अकादमी को लोकतांत्रिक बनाया जाए और उसे सत्तापरस्ती से मुक्त किया जाए।
टैगोर ने साहित्य-संस्कृति, शिक्षा और विचार को जनता से काटकर इस तरह समसुंग जैसी किसी कंपनी की सेवा में लगाने का काम नहीं किया था। जबकि आज साहित्य अकादमी ठीक इसके विपरीत आचरण कर रही है। यह टैगोर की विरासत के साथ भी दुर्व्यवहार है। देश के तमाम जनपक्षधर साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों और लोकतंत्रपसंद-आजादीपसंद जनमत का ख्याल करते हुए पुरस्कृत लेखकों को भी एक बार जरूर पुनर्विचार करना चाहिए कि वे किन मूल्यों के साथ खड़े हो रहे हैं और इससे वे किनका भला कर रहे हैं। साहित्य मूल्यों और आदर्शों का क्षेत्र है। बेहतर हो कि वे उसके पतन का वाहक न बनें और इस पुरस्कार को ठुकराकर एक मिसाल कायम करें। 25 जनवरी को पुरस्कार समारोह के वक्त अपराह्न 3 बजे जन संस्कृति मंच के सदस्यों समेत दिल्ली के कई साहित्यकार-संस्कृतिकर्मी ओबेराय होटल के सामने जो शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसमें ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल होना चाहिए।
         

Friday, January 22, 2010

डॉ0 कालिका प्रासाद चमोला नही रहे



केन्द्रीय विद्यालय संगठन , जयपुर  के सहायक आयुक्त डा। कालिका प्रासाद चमोला का दिनॉक 13.01.2010 को निधन हो गया । वे 46 वर्ष के थे और पिछले चार माह से लीवर की बीमारी से पीड़ित थे। तबियत बिगड़ने पर उन्हे दिनॉक 14.01.2010 को जयपुर के अपेक्स अस्पताल मे भरती किया गया जहॉ अपराह्रन 15:45 पर उनका निधन हो गया। उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो पुत्र हैं।
दिनॉक 30.06.1963 को रूद्रप्रयाग में जन्मे चमोला आरॅभ से ही मेधावी छात्र थे। एमएससी गणित विषय में गोल्ड मेडलिस्ट होने के पश्चात उन्होने पीएचडी की और केन्द्रीय विद्यालय में पीजीटी अध्यापक के रूप में नौकरी आरम्भ किया। उसके पश्चात उन्होनें तिब्बती विद्यालय संगठन दिल्ली में एजूकेशन अधिकारी  के रूप में कार्य किया। सन 2001 में वे केन्द्रीय विद्यालय पाण्डिचेरी में प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त हुये। पाण्डिचेरी रहते हुये उन्होने गणित की दो शोधपरक् पुस्तकें लिखीं - वैदिक अर्थमेटिक्स एण्ड डेवलपमेंट ऑफ बेसिक कान्सेप्टस् तथा दूसरी एलिमेन्टरी वैदिक अलजेबरा ( दोनो ही सूरा प्रकाशन चेन्नई से सन 2006 में प्रकाशित)। वे विद्यालयं में स्कूली शिक्षा के अतिरिक्त रचनात्मक गतिविधियों की ओर भी विशेष ध्यान देते थे। सन 2006 में पाडिचेरी में प्रथम मैथमैटिक्स ओलम्पियाड कराने का श्रेय उन्हीं को जाता हैं।
बाद में सन 2007 जुलाई में केन्द्रीय विद्यालय संगठन के सहायक आयुक्त बन कर जयपुर आये। नई जिम्मेदारी में वे अत्यन्त व्यस्त रहते। प्राय: वे दौरे पर जयपुर से बाहर रहते और जब जयपुर में रहते भी तो देर रात तक कार्यालय में रहते। इतनी व्यस्तताओं के बावजूद उनकी दो अन्य पुस्तकें बाजार में आईं- वैदिक मैथमैटिक्स फॉर बिगनर्स (धनपत रॉय प्रकाशन नई दिल्ली 2007 ) तथा द ग्रेट आर्किटेक्ट्स ऑफ मैथमैटिक्स वाल्यूम 1 ( आर्य बुक डिपो नई दिल्ली 2008)। इसके अतिरिक्त निम्न लिखित पुस्तकों पर कार्य कर रहे थे-
1। मैथमैटिक्स डिक्शनरी 
2। द ग्रेट आर्किटेक्ट्स ऑफ मैथमैटिक्स वाल्यूम 2
3। द पायोनियर ऑफ मैथमैटिक्स
4। मैथमैटिकल एम्यूज़मेन्ट्स
वैदिक मैथमैटिक्स फॉर बिगनर्स को केन्द्रीय विद्यालय संगठन के पुस्तकालयों के लिये अनुमोदित किया गया है।
 डा कालिका प्रासाद चमोला का साहित्य से भी गहरा सरोकार रहा है। अस्सी नब्बे के दशक में जब वे देहरादून में थे तो वे रचनात्मक रूप से काफी सक्रिय थे। साहित्यिक गोष्ठियों में नियमित उनकी उपस्थिति रहती। उन्हे 1991 का कादम्बरी का युवा कहानीकार मिला था। पाण्डिचेरी और जयपुर रहते हुये भी वे साहित्य के लिए बेचैन रहते थे और कई बार अपनी व्यस्तता को कोसते रहते। फिर भी इस दौरान उन्होने "शिकार", "झड़ते काफल" तथा "एक और पलायन" जैसी कहानियॉ लिखा। जयपुर आते ही वे वरिष्ठ साहित्यकार विजयदान देथा से मिलने उनके घर बोस्न्दा ( जोधपुर) गये। साहित्य के प्रति उनके अनुराग का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा।
 किसी एक नौकरी में लम्बे समय न टिके रहने से अस्थायित्व उनके जीवन का मुख्य चरित्र बन गया था। नई नौकरी को नई जगह से शुरू करने से वे हमेशा व्यस्त रहते। ऐसा नही था कि वे अपने बेहतर जीवन या व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए "कैरियरिस्ट" थे। वरन् यह कैसे  होता कि इतनी बड़े पद पर आसीन व्यक्ति के पास चौपहिया तो क्या दुपहिया भी न हो। दरअसल जब उन्होने केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापक के रूप में नौकरी शुरू की तो उस समय केन्दीय विद्यालयों का स्तर का ग्राफ एक ऊंचाई को छूकर गिरना शुरू हो गया था। संवेदनशील चमोला इसे लेकर काफी बेचैन रहते। उन्होने सोचा कि सुधारने का वे  कितना दृढ़ संकल्प क्यों न  ले ले एक अध्यापक के रूप में तो केवल पहाड़ को खिसकाने जैसा ही कोशिश होती। इस कृत संकल्प के साथ उन्होने प्रशासनिक सेवा की राह चुना। और प्रशासक बनते ही संगठन से जुड़े विद्यालयों को सुधारने की मुहिम में लग गये। इसीलिए वे आये दिन विभिन्न केन्द्रीय विद्यालयों के दौरे पर रहतें। वे विद्यार्थियों मे नैतिक उत्थान के प्रति काफी चिन्तित रहते और इस क्षेत्र में सक्रिय  संगठनों या संस्थाओं से अपने स्कूलों में कार्यशाला करवाने की सॅभावना का पता लगाते। इसी उद्देश्य से उन्होने माउंटआबू स्थित ब्रह्मकुमारियों के संगठन से अपने कई स्कूलों में कार्यशाला लगवाया। उनसे बातचीत से  गृह प्रदेश उत्तराखण्ड के केन्द्रीय विद्यालयों का स्तर सुधारने की उनकी इच्छा जाहिर होती थी और इसके लिये उत्तराखण्ड में स्थानन्तरण के लिये प्रयत्नशील थे। उनके असमय निधन से शिक्षा क्षेत्र ने न केवल एक कुद्गाल एवम् ऊर्जावान प्रशासक को खोया है बल्कि गणित एवम् साहित्य का एक सॅभावनाशील व्यक्तित्व भी हमारे बीच से अचानक ही चला गया।

-अरूण कुमार असफल

Saturday, January 2, 2010

उम्मीदों भरी एक शुरुआत

देहरादून

एक समय में उत्तराखण्ड ही नहीं देश के अन्य हिस्सों में भी जन पक्षधर नुक्कड़ नाटकों की स्थापना के लिए सचेत देहरादून की नाट्य संस्था दृष्टि ने एक लम्बी खामोशी के बाद नये साल के पहले दिन जिस तरह से अपनी उपस्थिति को दर्ज किया है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि वर्ष 2010 देहरादून के रंग आंदोलन में एक हिलौर लाने वाला हो सकता है। उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के दौरान देहरादून के उन तमाम रंग कर्मियों को, जो एक समय तक नुक्कड़ नाटकों से परहेज करते रहे, सड़क पर उतारते हुए जो भूमिका दृष्टि ने उस वक्त निभाई थी, वह आज इतिहास हो चुकी है।

नब्बे के दशक में मंचीय नाटकों से हटकर दादा अशोक चक्रवर्ती, अरुण विक्रम राणा, कुलदीप मधववाल और विजय शर्मा जैसे प्रतिबद्ध रंगकर्मियों ने दृष्टि की शुरुआत की थी। वह समय हिन्दी नाटकों में नुड़ नाटकों का शुरूआती दौर था। रंगकर्मी सफदर हाशमी और दर्शक के रुप में मौजूद कामरेड राम बहादुर की सहादत के दिन को नुक्क्ड़ नाटक दिवस के रुप में मनाने के लिए दृष्टि ने जन नाट्य मंच, दिल्ली, शमशूल इस्लाम और उनके साथी, बिहार के कई नाट्य ग्रुप, नैनीताल के नाट्य ग्रुप युवमंच जैसे दूसरे प्रतिबद्ध नाट्य ग्रुपों के साथ एक संवाद कायम किया और अपने सहोदर संगठनों के साथ लगातार मिलकर नुक्कड़ नाटकों की रंग यात्रा को एक मुकाम तक पहुंचाने में अपनी भूमिका निभाई। लेकिन उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन के उस संयुक्त संघर्ष के दौरान कई कारणों से विभ्रम की स्थितियों के चलते और राज्य निर्माण के बाद जो स्थितियां दिखाई दी, दृष्टि के साथियों को एक गहरी चुप्पी में ले जाने वाली रही। उस लम्बी चुप्पी की छाया को देहरादून के रंगमंच पर देखा भी जाता रहा। 1 जनवरी के दिन अपने बैनर और कविता पोस्टरों के साथ गांधी पार्क पहुंचे दृष्टि के साथियों ने जिस तरह से अपनी भूमिका को फिर से पहचाना है उससे देहरादून के रंग-आंदोलन में एक बहुत से गहरे उठती हलचल को हर कोई महसूस कर सकता था। सुबह 11 बजे से शुरू हुई पोस्टर प्रदर्शनी को देखने के लिए शहर के कई रंगकर्मी, साहित्यकार और नाटकों के वे दर्शक जो दृष्टि को उसके मिजाज से जानते रहे, दिन भर गांधी पार्क में मौजूद रहे। इप्टा, मसूरी के साथियों ने दृष्टि के मंच पर जनगीत और नाटक की प्रस्तुति दी। 
नुक्कड़ नाटक दिवस के अवसर पर अपने बैनर पोस्टरों के साथ पहुंचे धरातल नाट्य संस्था और ज्ञान विज्ञान जत्थे के साथियों ने भी कविता पोस्टर प्रदर्शनी, जनगीत और अपने नाटकों की प्रस्तुति से गांधी पार्क में हलचल मचाए रखी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए धरातल संस्था ने अपने छ दिवसीय, पोस्टर, जनगीत और नुड़ नाटक अभियान की शुरूआत गांधी पार्क से ही की। इस अवसर पर डा। अतुल शर्मा द्वारा लिखित जनगीत ''बादशाह गश्त पर है"" का एक एकल अभियन युक्त पाठ रंगकर्मी पवन नारायण रावत द्वारा किया गया। ज्ञान विज्ञान समिति के सतीद्गा धौलाखण्डी ने भी अपने युवा साथियों के साथ एकल गीत नाटिका का मंचन किया।
दृष्टि, धरातल और ज्ञान विज्ञान समिति की हलचल भरी इस उपस्थिति को लम्बे समय से बेचैनी भरी कसमसाहट को महसूस करते रंगकर्मी, दर्शक और सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन को उम्मीदों भरी निगाहों से सराहने वाले आखिर एक नई शुरुआत के रुप में ही देख रहे हैं।
ऐसा वहां मौजूद डा। जितेन्द्र भारती, मदन शर्मा, प्रेम साहिल, डा। अतुल शर्मा, अरविन्द शेखर, जयंति सिजवाल, रंजना शर्मा, रेवा नन्द भट्ट, रमेश डोबरियाल, जगदीश बाबला, रेखा शर्मा, कमला पंत, बी बी थापा, जगदीश कुकरेती और दूसरे कई जनसंगठनों के कार्यकर्ताओं के साथ-साथ दर्शकों के रुप में मौजूद लोगों की उपस्थिति से जाना जा सकता है।  

Monday, November 23, 2009

विलुप्त होती भाषा बोलियां


 विलुप्त होती भाषा बोलियों की चिन्ता जिस तरह से अनुवादक यादवेन्द्र जी को दुनिया भर के रचनात्मक साहित्य तक जाने को मजबूर करती है, पत्रकार अरविंदशेखर  की वैसी ही चिंताएं तथ्यात्मक आंकड़ों के रुप में दर्ज होते हुए हैं। प्रस्तुत है विलुप्त होती भाषा बोलियों पर अरविंद शेखर  की रिपोर्ट । 


वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जाएगी राजी बोली 

अरविंद शेखर, देहरादून
किसी भी भाषा बोली के बचे रहने की गारंटी क्या होती है, यह कि उसकी भावी पीढ़ी उसको बोले। मगर उत्तराखंड की सबसे अल्पसंख्यक राजी जनजाति की राजी बोली वक्त की अंधी सुरंग में गुम हो जान वाली है। वजह साफ है उसके 20 प्रतिशत बच्चे अपनी बोली में बातचीत करना ही पसंद नहीं करते क्योंकि वे समझते हैं कि अपने पूर्वजों की बोली की बजाय कुमाऊंनी बोलना ज्याद फायदेमंद है। 60 प्रतिशत लोग अपनी बोली के प्रति बेपरवाह हैं, जबकि केवल 20 प्रतिशत को अपनी बोली में बात करना भाता है। 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में राजी या वनरावतों की आबादी महज 517 है। यह छोटी-सी खानाबदोश जनजाति नेपाल की सीमा से सटे उत्तराखंड के पिथौरागढ़ और चंपावत जिलों में रहती है। इसके महज पांच फीसदी लोग ही साक्षर हैं। ऐसे में राजी बोली का केवल मौखिक रूप जीवित है। हाल में ही दून आईं लखनऊ विश्वविद्यालय की रीडर डा. कविता रस्तोगी का सर्वेक्षण इस बोली के अंधेरे भविष्य की ओर संकेत करता है। डा.रस्तोगी के सर्वे के अनुसार 90 प्रतिशत राजियों का मानना था कि राजी बोलने से कोई फायदा नहीं, जबकि 60 फीसदी को अपनी जबान से कोई मतलब ही नहीं था। 26 से 35 साल के 65 फीसदी तो 16 से 25 साल के 60 फीसदी युवाओं को अपनी भाषा में बोलना पसंद नहीं। 26 से 35 साल के 40 प्रतिशत लोगों को अपनी भाषा संस्कृति पर कोई गर्व नहीं तो, 16 से 35 साल के 80 फीसदी तो 36 से 45 साल के 70 फीसदी राजी नहींमानते कि राजी बोलना अच्छा है। डा. रस्तोगी के मुताबिक दरअसल राजी लोगों में धीरे-धीरे अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति हीनताबोध घर कर रहा है। इसलिए वे धीरे-धीरे कुमाउंनी या हिंदी पर निर्भर होते जा रहे हैं। राजी लोग अपनी बोली का 84 फीसदी इस्तेमाल धार्मिक कर्मकांड के दौरान ही करते हैं। बोली का घरों में 75 फीसदी तो दूसरे स्थानों पर केवल 30 फीसदी ही इस्तेमाल होता है। राजी बोली पर देश में पहली पीएचडी करने वाले भाषा विज्ञानी डा. शोभाराम शर्मा का कहना है कि किसी भी भाषा बोली के जिंदा रहने के लिए उसके बोलने वाले समाज का उसके प्रति झुकाव और उसकी भौतिक परिस्थितियां जिम्मेदार हैं। उन्होंने बताया के पिछली कांग्रेस सरकार ने राजी जनजाति पर संकट भांपते हुए जनजाति के लोगों को ज्यादा संतान पैदा करने पर पुरस्कृत करने और सुविधाएं मुहैया कराने की घोषणा की थी लेकिन उसका क्या हुआ पता नहीं। जिन भाषाओं में जीविका का जुगाड़ नहीं होता वे मर जाती हैं। राजी बोली का खत्म होना देश ही नहीं दुनिया की अपूरणीय क्षति होगा। सरकार को चाहिए कि वह भाषाई विविधता की रक्षा के लिए राजी जनजाति और उनकी बोली के संरक्षण के लिए प्रयास करें।


Monday, November 9, 2009

प्रभाष जोशी के क्रिकेटिया गल्प





प्रभाष जोशी नहीं थे। हम संवेदना के साथियों के बीच वे मौजूद थे। कथाकार अल्पना मिश्र दैनिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित महाश्वेता देवी के उस स्मृतिआलेख को अपने साथ ले आईं थी जिसमें पराड़कर की परम्परा के पत्रकार प्रभाष जोशी का जिक्र था। प्रभाष जोशी से हममें से कोई शायद ही व्यक्तिगत रूप से परिचित हो, अल्पना मिश्र का सोचना देहरादून के साथियों की उस फितरत के कारण रहा होगा जिसमें तमाम रचनात्मक व्यक्तियों के रचनाकर्म से परिचित होने के बावजूद भी व्यक्तिगत परिचय की बहुत सीमित जानकारियों का इतिहास था। अनुमान गलत भी न था। उपस्थित साथियों में कोई भी प्रभाष जोशी से व्यक्तिगत रूप से परिचित न था। उसी आलेख का पाठ करते हुए हम प्रभाष जोशी को याद कर रहे थे। जनसत्ता जो संख्यात्मक रूप में बेशक सीमित प्रतियों वाला अखबार है, अपने साहित्यिक आस्वाद के कारण हममें से हर एक का प्रिय था। प्रभाष जोशी उसी जनसत्ता के सम्पादक थे। रविवारिय संस्करण के हम ज्यादातर पाठक जो किक्रेट के जिक्र से भरे कागद कारे को अपनी थाली में से हड़प लिए गए किसी साहित्यिक आलेख की जगह के रूप में देखते थे, उस वक्त उन्हीं कागद कारे करने वाले प्रभाष जोशी के क्रिकेटिया गल्प के जिक्र के साथ प्रभाष जोशी को याद कर रहे थे। रविवार में प्रकाशित उनके हालिया साक्षात्कार से असहमति के स्वर भी थे तो अभी तीन राज्यों के भीतर हुए चुनाव में मीडिया की भूमिका को लेकर दबंगई से लिखने वाले पत्रकार प्रभाष जोशी के प्रति आगध स्नेह भी बातचीत में था। कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, मनमोहन चढडा, वेद आहलूवालिया, स्वाति, महावीर प्रसाद शर्मा  मुख्यरूप से उपस्थितों में थे।


स्वाति, वह युवा रचनाकार जो पहली बार संवेदना की बैठक में उपस्थित हुई, अपनी कविताओं के साथ आई थी। उसने कविताओं का पाठ किया। कथाकार/व्यंग्यकार मदन शर्मा ने अपने ताजा व्यंग्य का पाठ किया और अंत में कथाकार सुभाष पंत के ताजा लिखे जा रहे उपन्यास अंश को सुनना गोष्ठी की उपलब्धता रही।

स्वाति का कविता-पाठ आप यहां क्लिक कर सुन सकते हैं-

Tuesday, October 13, 2009

किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात




देहरादून
जेम्सवाट की केतली- यह ऐसा शीर्षक है जो ने सिर्फ एक कहानी को रिपरजेंट करता है बल्कि कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में शामिल सभी कहानियों को बहुत अच्छे से परिभाषित करता है। संवेदना, देहरादून की विशेष चर्चा गोष्ठी में, जो सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित हुई कथाकार कुसुम संग्रह की कहानियों की पुस्तक पर आयोजित थी, कथाकार सुभाष पंत का यह वक्तव्य उन सवालों का जवाब था जिनमें कुसुम भट्ट की कहानियों पर यह सवाल ज्यादातर उठ रहा था कि उनकी कहानियों के शीर्षक उनकी कहानियों के कथ्य से मेल खाते हुए नहीं हैं। फिल्म समीक्षक मनमोहन चढडा का तो कहना था कि जेम्स वॉट की केतली जैसा शीर्षक तो स्त्रियों की अन्तर्निहित शक्तिय को पूरे तौर पर परिभाषित करता है। कुसुम भट्ट की कहानी हिसंर को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए कथाकार सुभाष पंत ने कहानी के प्रति अपने दृष्टिकोण को सांझा करते हुए कहा कि प्रकृति चित्रण, साहित्य की जुमले बाजी है जिसमें मूल संवेदना से दूर जाना है। उन्होंने आगे कहा कि भाषा सम्प्रेषण का माध्यम है। कथ्य पर भाषा हावी नहीं होनी चाहिए। भाषा का सौन्दर्य कथ्य के साथ है।
कहानी पुस्तक पर चर्चा से पहले गोष्ठी में संग्रह में शामिल कहानी वह डर का पाट किया गया। कवयित्री और सहृदय पाठिका कृष्णा खुराना ने कुसुम भट्ट के कथा संग्रह में सम्मिलित कहानियों की विस्तार से चर्चा अपने लिखित पर्चे को पढ़कर की। जिसका सार तत्व था कि पहाड़ी अंचल और स्त्रीमन को कुसुम भट्ट ने अच्छे से पकड़ा है। दूसरा पर्चा वरिष्ठ कथाकार एवं व्यंग्य लेखक मदन शर्मा ने पढ़ा। कुसुम भट्ट की कथा भाषा को महत्वपूर्ण मानते हुए उन्होंने कहानियों के शिल्प की भी चर्चा की।

एक अधेड़ स्त्री मन के भीतर से बार बार किशोर और युवा के दिनों के गहरे आघात में आकार लेता एक स्त्री का व्यक्तित्व उनके ज्यादातर पात्रों के मानस के रूप में दिखाई देता है। संग्रह में शामिल वह डर, गांव में बाजार: सपने में जंगल, हिंसर, डरा हुआ बच्चा आदि कहानियों को सभी पर सभी ने खूब बात की। चर्चा में अन्य लोगों में प्रेम साहिल, राजेश सकलानी, गुरूदीप खुराना, डॉ जितेन्द्र भारती, चन्द्र बहादुर, जितेन्द्र शर्मा, राजेन्द्र गुप्ता आदि ने भी शिरक्त की।

Monday, September 7, 2009

निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले के प्रयोग


रचना का संकट उस जटिल यथार्थ को संम्प्रेषित करने से शुरू होता है जिसकी व्याख्या को किसी घटना के मार्फत सरलीकृत करना उसकी पहली शर्त होता है। वह यथार्थ जिसे हम, यानी बहुत ही सामान्य लोग, ठीक से समझ न पा रहे हों। संवेदना की मासिक गोष्ठी में कथाकार नवीन नैथानी
की कहानियों पर आयोजित चर्चा के दौरान वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की यह टिप्पणी न सिर्फ नवीन की कहानियों को समझने के लिए एक जरूरी बिन्दु है बल्कि समग्र रचनात्मक साहित्य को समझने में भी मद्दगार है। कहानी की व्याख्या में उन्होंने स्पष्ट कहा कि जो मुझे जीवन देती है, सघर्ष करने की ताकत देती है, उसे ही मैं कहानी मानता हूं।
नवीन की कहानी पारस को निर्विवाद रूप से सभी चर्चाकारों ने एक ऐसी कहानी के रूप में चिहि्नत किया जिसमें जीवन का संघर्ष कथानायक खोजराम के चरित्र से नये आयाम पाता है। सौरी नवीन कुमार नैथानी की कल्पनाओं का एक ऐसा लोक है जो जीवन की आपाधापी के इस ताबड़तोड़ समय में भी सौरी के बांशिदों को अपने सौरीपन को जिन्दा रखने की कोशिश के साथ है। ललचाऊपन की ओर बढ़ती दुनिया की ओर जाने वाला कोई भी रास्ता सौरी से होकर नहीं गुजरता है।


प्रयोगों से प्राप्त परिणाम के आधार पर जान लिए गए को ही हम विज्ञान मानते हैं, यह विज्ञान की बहुत स्थूल व्याख्या है, कवि राजेश सकलानी का यह वाक्य नवीन की कहानियों में उस वैज्ञानिकता की तलाश करती टिप्पणी का जवाब था जो कार्यकारण संबंधों की स्पष्ट पहचान में ही यथार्थ की पुन:रचना को किसी भी रचना की सार्थकता के लिए एक जरूरी शर्त मानता है। सकलानी ने नवीन की कहानियों की वैज्ञानिकता को स्पष्ट रूप से उन अर्थों में पकड़ने की कोशिश की जिसमें वे उन्हें निष्कर्षों तक पहुंचने से पहले किए गए प्रयोगों के रूप में देखते हैं।


रूड़की में रहने वाले और देहरादून के साथियों मित्र यादवेन्द्र जी ने अपनी उपस्थिति से चर्चा को एक जीवन्त मोड़ देते हुए संग्रह की तीन कहानियों के मार्फत अपनी बात रखी- पारस, आंधी और तस्वीर दिनेशचंद्र जोशी और यादवेन्द्र ने नवीन के कल्पना लोक सौरी को हिन्दी का मालगुड़ी मानते हुए अपनी टिप्पणियों में उसकी सार्थकता को रेखांकित किया। पारस को एक महत्वपूर्ण कहानी मानते हुए भी यादचेन्द्र जी ने कहानी के अंत से अपनी दोस्ताना असहमति को भी दर्ज किया। दिनेश चंद्र जोशी, कृष्णा खुराना, मनमोहन चढडा, गीता गैरोला और कथाकार जितेन ठाकुर ने अपने लिखित पर्चों पढ़े और कहानियों पर विस्तार से अपनी बातें रखीं। पुनीत कोहली एवं गुरूदीप खुराना ने अपनी-अपनी तरह से नवीन की कहानियों पर बात रखते हुए कहा कि नवीन की कहानियों को किसी एक खांचें में कस कर नहीं देखा जाना चाहिए।
डॉ जितेन्द्र भारती ने नवीन की कहानियों के संदर्भ से बदलाव के संघर्षों में निरन्तर गतिमान रहने वाली एक अन्तर्निहित धारा के बहाव को परिभाषित करते हुए कहा कि नवीन की कहानियां अपने मूल अर्थों में एक चेतना की संवाहक हैं। सहमति और असहमति के मिले-जुले स्वर के बीच पुस्तक पर हुई चर्चा गोष्ठी में कथाकार विद्यासागर नौटियाल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, मदन शर्मा, समर भण्डारी, चंद्र बहादुर रसाइली, प्रेम साहिल, इंद्रजीत, मनोज कुमार और प्रमोद सहाय आदि संवेदना के कई मित्र शामिल थे। सौरी की कहानियां नवीन कुमार नैथानी की कहानियों का हाल ही में प्रकाशित पहला कथा संग्रह है।

पिछले दिनों इस दुनिया से विदा हो गए आर्टिस्ट एच एन मिश्रा को गोष्ठी में शिद्दत से याद किया गया और विनम्र श्रद्धाजंली दी गई। मिश्रा एक ऐसे आर्टिस्ट थे जिनकी पेटिंग्स में गणेश के ढेरों रूप आकार पाते हैं। मिथ गणेश के विभिन्न रूपों का सृजन उनका प्रिय विषय था। पेंटर चन्द्रबहादुर ने मिश्रा जी के रचना संसार पर विस्तार से अपनी बात रखी।