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Thursday, December 7, 2017

सेक्स और जनवाद को खदेड़ती लड़कियां

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति


कौन जानता है कि कब किसका हंसना, बोलना, उठना, बैठना, रूठना, मनाना जैसा तात्‍कालिक भाव, भविष्‍य में जिक्र के साथ व्‍यक्तित्‍व का स्‍थायी मामला जैसा दिखने लगे। घीसू, माधव भी कहां जानते थे कि उनकी हरकतें इतिहास की किसी ऐसी कथा का हिस्‍सा हो जाएंगी जिसमें हिंदी का दलित साहित्‍य जन्‍म लेगा। मैं कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी के पात्र घीसू, माधव की बात नहीं कर रहा। अपने ही तरह के उन दो इंसानों की बात कर रहा जिनके भोलेपन में भी कितनी ही गंभीर हरकतें शामिल रहती थी। शाम होते ही जिन्‍हें कुलबुलाने का रोग था और अपनी उस कुलबुलाहट में ही अक्‍सर वे गैरजिम्‍मेदार नजर आने लगते है। रहे होंगे कभी हरजीत और अवधेश बहुत करीब। रहा होगा कभी अरविन्‍द इस तिकड़ी का एकमात्र संयोजक। पर उस वक्‍त तो जो जोड़ी सबसे ज्‍यादा अराजक कहलायी जा रही थी वह अवधेश जी और नवीन भाई की थी। ऐसे ही तो नहीं पडा था दोनों का नाम घीसू-माधव।  पर कौन घीसू, और कौन माधव ? इस प्रश्‍न से कभी कोई नहीं उलझा। आप भी तो नहीं उलझे न भाई साहब (वाल्‍मीकि जी) ।

याद होगा आपको एक दिन पहले ही टिप-टॉप की बैठक में घीसू-माधव ने सूचना दे दी थी कि आने वाले कल की शाम सारे ‘टंटे’ टिप-टॉप में जमा हों। याद नहीं आ रहा कि किसी भी बात को पोस्‍टर बनाकर टांग देने वाले हरजीत ने ऐसी कोई सूचना सार्वजनिक कर दी थी या नहीं कि ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव, कथाकार गिररिराज किशोर और प्रियवंद को ऋषिकेश आना है। प्रियवंद जी शायद कोई मकान खरीदना चाहते थे ऋषिकेश में । वह मकान शायद लेखक गीतेश शर्मा जी का था, जो कलकत्‍ता में रहते थे। बहुत निश्चित होकर नहीं कह पा रहा कि मकान किसका था। पर सुना था कि वह ऐसा मकान है जिसका मुंह गंगा की ओर खुलता है और प्रियवंद जी को संगमन के काम के लिए उपयुक्‍त लगा है। मालूम नहीं उस मामले का क्‍या हुआ होगा। देहरादून में लिखने पढ़ने वालों की जमात तीनों ही लेखकों के लेखन और नाम से परिचित थी लेकिन व्‍यक्तिगत परिचय का दायरा घीसू और माधव का ही था। अवधेश एक स्‍थापित कवि थे। अज्ञेय जी के द्वारा संपादित चौथे सप्‍तक के कवि और आर्टिस्‍ट के नाते उनका एक नाम था। पुरानी पीढ़ी के सुभाष पंत जी के अलावा दून की नयी पीढ़ी में जितेन ठाकुर के बाद नवीन भाई की कहानियां उस समय की दो स्‍थापित पत्रिकाओं ‘हंस’ एवं ‘सारिका’ में  प्रकाशित होने लगी थी जिसके कारण नवीन जितेन जी की तरह ही, अब कवि की बजाय कहानीकार नवीन नैथानी की पहचान को प्राप्‍त होने लगे थे। ‘चढाई’ उनकी पहली कहानी थी जो संभवत: 1989 दिसम्‍बर के ‘हंस’ में छपी थी और ‘हंस’ के उस अंक की यादाश्‍त हम दूनवासियों के लिए ‘चढ़ाई’ की बजाय उसी अंक में प्रकाशित आलोकधन्‍वा जी की कविताओं ‘पतंग’ और ‘भागी हुई लड़कियां’ ही रही। पूरे शहर के एक-एक व्‍यक्ति को न जाने कितनी कितनी बार उन कविताओं को सुनना पड़ा। ‘हंस’ नवीन भाई के थैले में होता था और मोका मिलते ही वे कविताएं पढ़ने लगते थे। यदि कविताओं के पाठ लयात्‍मक आवाज में न किये गये होते तो स्‍पष्‍ट जानिये देहरादून का हर बाशिंदा उस कवि आलोकधन्‍वा का दुश्‍मन हो गया होता जिसकी कविताओं को उन्‍हें सजा की हद तक सुनना पड़ रहा था। यह कहना शायद अति‍शयोक्ति न हो कि उन कतिवाओं के बाद हिन्‍दी की दुनिया में, शुरूआत में कविताओं में और बाद में कहानियों में भी, जिस तेजी से भागती हुई लड़कियां प्रवेश करने लगी, उसका कारण नवीन भाई के पाठ ही रहे होंगे। आलोक धन्‍वा की उन कविताओं का स्‍वर- ‘आकाश का नरम और मुलायम बनाते हुए कि बांस की सबसे पतली कमानी उड़ सके, दुनिया का सबसे पतसे पतला और रंगीन कागज उड़ सके और शुरू हो सके रोटियों किलकारियों की एक नाजुक दुनिया’ उस समय तक ‘हंस’ में जारी ‘सेक्‍स और जनवाद’ की बहस के लफंगेपन को भी भगा देने में प्रभावी हो रही थी। हालांकि आप भी जानते हैं एक संस्‍थानिक प्रदूषण का मुकाबला कोई एक अकेली कविता कब तक कर सकती है। ‘हसं’ की लफंगई के प्रभाव तो इतने गहरे रहे कि चाचियों, मामियो, बहनों की छातियों पर चढ़कर साइकिल चलाने वाली कहानियों से ही हिंदी कहानी को युवा मानने की प्रवृत्ति ने जोर पकड़ा। यहां तक कि वैचारिक शालीनता का जामा पहनकर निकलने वाली ‘पहल’ भी उसके प्रभाव से मुक्‍त नहीं रह सकी और अपना ऐसा युवा खोजने लगी जो रक्‍त संबंधों से बचते हुए पड़ोस की आंटियों की बेटियों के भागने में स्‍त्री विमर्श का नया पाठ रचे। ‘पहल’ के युवा के लिए जरूरी था कि अन्‍य युवाओं से हर मायने में जुदा हो और उस जुदापन में ही ‘पहल’ अपने प्रभाव की वैचारिकता को विदेशी रचनाओं के अनुवाद वाली उदारता में छुपा सकता था।


  स्‍मृति

Friday, December 1, 2017

वह गुस्ताख मिज़ाज



कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

जब चारों ओर उथल-पुथल मची हो। दिग्‍भ्रम की सी स्थिति हो, संकट- मौत की ओर धकेलने वाली स्थितियों भर का ही नहीं, निर्मम तरह से किये जाने वाले वार और तड़फडते जिस्‍म के साथ पाश्विक हिंसा का डर फैलाते हुए भी खड़ा हो,
मनुष्‍य विरोधि ताकतें आक्रमकता का ताण्‍डव रचते हुए लगातार ताकतवर होती जा रही हों, तो ऐसे में मित्र और शत्रु की पहचान करना मुश्किल हो जाता है। हो सकता है, वह आपका मित्र ही हो जिसने खुद की जान बचाने के लिए कोई ऐसी हरकत कर दी हो जिससे आपकी जान सासत में पड़ गयी। या, शत्रु ही हो, चाहता हो कि आप मुसिबत में फंस जाएं, लेकिन उसके रचे गये प्रपंच ने आपको पहले से थोड़ा लाभ की स्थिति में पहुंचाने में मदद कर दी हो। ऐसे में दोस्‍त और दुश्‍मन की पहचान कैसे करेंग। क्‍या इसे वैज्ञानिक समझदारी कही जाएगी कि आप प्राप्‍त परिणाम के आधार पर मित्र और शत्रु की पहचान कर लें ? यह विज्ञान की यांत्रिक परिभाषा ही होगी जिसके आधार पर तर्क रखा जाएगा कि प्रयोगों से प्राप्‍त परिणामों की सत्‍यतता की बारम्‍बारता से ही कोई व्‍यवहार सिद्धांत हो जाता है।

धर्म को लेकर सवाल खड़े हो तो न जाने कितने समान वैचारिक मित्र भी ऐसे ही यांत्रिकता के साथ भिन्‍न राय रखते हैं। यहांवहां से, जाने कहां कहां से कितने ही हवाले गिनाते हुए धर्म को एक पद्धति और जनता की आंकांक्षाओं को सहारा- देने , यह वालभी कहते हुए कि चाहे झूठा ही सही, जैसी बातें करने लगते हैं।  

आपकी स्‍मृतियां इन स्थितियों से उबरने का रास्‍ता सुझा रही हैं। जिदद की हद तक अपने तर्क के पक्ष में खड़े रहने वाला आपका बौद्धिक साहस हिम्‍मत बंधाता है। आपकी स्‍मृति के हवाले से ही कह सकता हूं कि ऐसे में जरूरी हो जाता है कि खूब तेज आवाजों में बोला जाए- जो भी बोलना हो। कहीं ऐसा न हो कि कानाफूसी आपको संदिग्‍ध बना दे। तेज आवाजों में रखा गया आपका पक्ष बेशक आपके भीतर के अन्‍तरविरोधों को भी छुपने न दे। लेकिन तहजीब की मध्‍यवर्गीय शालीनता का दिखावा करना छोड़ दे।

आपने यदि विरोध को उस दिन तहजीब की मध्‍यवर्गीय शालीनता में रखा होता तो आपके भीतर की आग से कैसे तो राजेन्‍द्र यादव भी वाकिफ हो पाते! हिंदी में दलित साहित्‍य की संज्ञा तो तब थी ही नहीं और आप अपनी कविताओं के पक्ष में वैसे ही तर्क दे रहे थे, जो स्‍थापित नहीं था। आपमें खुद के भीतर को रख देने का जो बौद्धिक साहस था, उसके कारण ही न सिर्फ राजेन्‍द्र यादव बल्कि हिन्‍दी की दुनिया जान पायी थी अम्‍बेडकर सिर्फ एक संविधान निर्माता नहीं बल्कि एक ज्‍योतिपुंज है इस देश के दलित शोषितों के लिए ।

उस रोज ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव अचानक से देहरादून पहुंचे थे। गिररिराज किशोर, प्रियंवद और राजेन्‍द्र यादव के लिए बिना पहले से की गई व्‍यवस्‍था के बावजूद रात भर की शरण के नाम जुटा ली गयी यमुना कालोनी गेस्‍ट हाऊस की शाम थी। इस किस्‍से को यदि किस्‍से को वास्‍तविक रूप से बुनने वाला और सचमुच का किस्‍सागो, नवीन ही यदि कहे तो मेरा पक्‍का यकीन है कि अंधियारी शाम, नहीं जाति और धर्म को एक पद्धति मानने वाली धूल से फैलता अंधकार, कम से कम उन लोगों को जरूर ही बाहर निकलने में मददगार होगा जो बदलाव की बात करना शौक के तौर पर नहीं, जरूरी कार्रवाई के रूप में देखते हैं। वरना हकीकत तो यह है कि देहरादून में किसका परिचय था राजेन्‍द्र यादव से, प्रियंवद से या गिरिराज जी से ही। अवधेश और नवीन ही तो थे उस गोष्‍ठी के सूत्रधार।

अजीब अहमकों का शहर है यूं भी देहरादून, जिन्‍हें अवसरों की ताक में डोलते हुए कोई नहीं पाएगा। इस शहर के बाशिंदें की पहचान का एक सिरा इस मिजाज से भी पकड़ा जा सकता है कि अवसर के होते हुए भी संकोची बना दिखेगा। अतिमहत्‍वाकांक्षा तो दूर की बात महत्‍वाकांक्षा की डालों पर भी झूला डालने से बचेगा। बिना बड़बोलेपन के खामोशी से अपने में जुटा रहेगा। लेकिन भूल न करे कि यहां बाशिंदा मतलब इतना भर नहीं कि जो देहरादून में ही रहता हो। जी नहीं, देहरादून में रहने वाले तो बहुत से हैं लगातार के ‘खबरी’। ऐसे समझे कि जैसे जयपुर में रहते हुए भी अरूण कुमार ‘असफल’ देहरादून का बाशिंदा ही बना रहा। ये न मानिये कि मैं यह बात इसलिए कह रहा कि अरूण चूंकि जयपुर से लौटकर दुबारा से देहरादून में रहने लगा है और अब सचमुच का बाशिंदा हो गया है। लौटकर तो जबलपुर से आप भी आए थे देहरादून पर मैं ही नहीं दूसरे साथी भी बता सकते हैं कि आप अपना देहरादून खो कर ही लौटे थे। हां, फिर से बांशिदा हो जाने के कारण उम्‍मीद बनने लगी थी कि आप अपना देहरादून पा लेंगे। लेकिन  उसका वक्‍त ही नहीं मिला आपको।  कोई यह भी कह सकता है कि अरूण तो गोरखपुर का मूल बाशिंदा है, फिर उसके भीर तो है वह गोरखपुर की विशेषता ही हुई। इस बात से मेरी असहमति नहीं कि गोरखपुर में भी देहरादूनिये रहते हों। किसी दूसरे शहर में भी हो सकते हैं। अभी यदि आप दिल्‍ली में हो तो राजेश सेमवाल से मिल लें। जान जाएंगे की गजब की सौम्‍यता के बावजूद एक गुस्‍ताख किस्‍म की अकड़ है बंदें में। लिजलिजापन तो कोसों दूर की बात। लम्‍बे समय से दिल्‍ली में रहने वाले सुरेश उनियाल या हमेशा बाहर ही बाहर रहे मनमोहन चडढा से पूछें कि आप कहां के बाशिंदे हैं जनाब। गनीमत समझिये कि उनक जवाब में कोई गुस्‍ताख खामोशी भरी आवाज न सुननी पड़ जाए आपको। बस उसी गुस्‍ताख आवाज में उस दिन आड़े हाथों ले लिया था आपने ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव को।


मेरी सीमा है कि मैं उस पूरे प्रकरण को उतनी वास्‍तविकता में न रख पाऊं, क्‍योंकि पता नहीं इस बीच मैं भी अपने भीतर कितना बचा पाया हूं दून को। बल्कि मैं ही क्‍यों देहरादून में रहने वाले हमारे दूसरे साथी भी क्‍या उसे बचा पा रहे हैं या नहीं। पर यकीन के साथ कोई भी कह सकता है कि नवीन के भीतर तो वह हमेशा ही बचा हुआ है। दरअसल देहरादून की बदलती आबोहवा में वह तो अब भी श्सौरी का बाशिंदा है न। यह कथा कहने का सुपात्र वही है। मैं उम्‍मीद करूंगा कि पिछले कुछ दिनों से उसके शरीर में जो थकान बसती जा रही है, उसे मोहलत दे ताकि वह उस किस्‍से को कह पाए, वरना मुझे तो कहनी ही होगी। मैं तो आपसे सीधे मुखातिब जो हूं इस वक्‍त।      

  स्‍मृति

Tuesday, November 28, 2017

धर्म मनुष्य की पहचान क्यों हो ?

फोटो- गजेन्‍द्र बहुगुणा

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

यद्यपि लेखन में कविता आपकी मुख्‍य विधा थी। आपका समूचा स्‍वर भी उसी में सधा। लेकिन हिंदी में दलित साहित्‍य की जो धारा प्रस्‍फूटित हो चुकी थी उसके प्रवाह को जारी रखना और उसे हर तरह से समृद्ध करने की जिम्मेदारी भी आपके ऊपर थी। दलित चेतना के स्वर में लिखने वाले चंद लोग ही उस वक्‍त तक सक्रिय थे। आयुध कारखाने ओ एल एफ, जिसमें आप कार्यरत थे, बहुत से नये लोग भर्ती हुए थे। उन नये लोगों में बहुत से ऊर्जावान दलित साथी थे जिन्‍होंने एक संस्‍था बनायी थी- अस्मिता अध्‍ययन केन्‍द्र। सामाजिक गतिविधियों के साथ साथ संस्‍था में अमबेकरवादी साहित्‍य का अध्‍ययन भी किया जाता था। आपके संगसाथ की वजह से मेरी भी उपस्थिति यथोचित बनी रहती थी। एक बार रविदास जयंती के अवसर पर एक विचार गोष्‍ठी के साथ शाम को कविता पाठ का भी आयोजन रखने का विचार आपने रखा। उस वक्‍त ही आपने मुश्किलों को सांझा किया था कि कविता गोष्‍ठी में किन कवियों को बुलाया जाए जो दलित चेतना से लिख रहे है। कँवल भारती और तीन चार अन्‍य कवि आमंत्रित हुए। मेरा किसी से भी पूर्व परिचय नहीं था। इसलिए आज ठीक से याद भी नहीं कर पा रहा कि अन्‍यों में कौन कौन थे। संभवत: सूरजपाल चौहान रहे हों, लेकिन मैं बहुत आश्‍वस्‍त होकर नहीं कह सकता। हां सूरजपाल चौहान जी से मेरी मुलाकात उस वक्‍त हुई थी जब आप और मैं एक रात नोएडा स्थित उनके घर पर रुके थे।

ऐसी परिस्थितियों के साथ दलित साहित्‍य की धारा बहना शुरु कर चुकी थी। आप इस बात को अच्‍छे से समझ रहे थे। तभी तो कविता के साथ-साथ कहानी, आत्‍मकथा और नाटक तक ही नहीं रुके। ‘’दलित साहित्‍य का सौन्‍दर्य शास्‍त्र’’ गढ़ने के लिए प्रयासरत हुए। इतिहास के भीतर झांकना चाहते रहे। भारतीय समाज को जाति में बांटने वाले धर्म की पोल पट्टी खोल देना चाहते रहे। उसके लिए  ‘’सफाई देवता’’ लिखी। दलितों की पहचान को हिंदू धर्म से विलगाने वाले तथ्‍यों को खोजना चाहते रहे। दलित विचारक कांचा इल्‍लेया की पुस्‍तक Why I am not a Hindu किताब का अनुवाद तो आपने सन 2000 के बाद किया। ठीक से याद नहीं, संभवत: 2004-05। हां, इतना याद है उस वक्‍त आप जबलपुर से स्‍थानांतरित होकर देहरादून वापिस आ चुके थे। लेकिन, ‘जूठन’ में, जिसका प्रकाशन 1997 में हुआ, आप लिख ही चुके थे, ‘’नहीं, मैं ईसाई नहीं हुआ हूं।
’’लेकिन मन में एक उबाल-सा उठता था जो कहना चाहता था, मैं हिंदू भी तो नहीं हूं। यदि हिंदू होता तो हिंदू मुझसे इतनी घृणा, इतना भेद-भाव क्‍यों करते ? बात-बात पर जातीय-बोध की हीनता से मुझे क्‍यों भरते? मन में यह भी आता था कि अच्‍छा इन्‍सान बनने के लिए जरूरी क्‍यों हो कि वह हिुदू ही हो...हिंदू की क्रूरता बचपन से देखी है, सहन की है। जातीय श्रेष्‍ठता-भाव अभिमान बनकर कमजोर को ही क्‍यों मारता है ? क्‍यों दलितों के प्रति हिंदू इतना निर्मम और क्रूर है ? ‘’

‘जूठन’ में ही आपने अनुभवों के हवाले से दलित समाज के उन देवी देवताओं का जिक्र किया है जिसके आधार पर आपने रखना चाहा है कि दलित समाज हिंदू धर्म का हिस्‍सा नहीं रहा है। ‘’कहने को तो बस्‍ती के सभी लोग हिंदू थे, लेकिन किसी हिंदू देवी-देवता की पूजा नहीं करते थे। जन्‍माष्‍टमी पर कृष्‍ण जी नहीं, जहारपीर की पूजा होती थी या फिर ‘पौन’ पूजे जाते थे। वे भी अष्‍टमी को नहीं, ‘नवमी’ के ब्रह्ममुहर्त में।
‘’इसी प्रकार दीपावली पर लक्ष्‍मी का पूजन नहीं, माई मदारन के नाम पर सूअर का बच्‍चा चढ़ाया जाता है या फिर कड़ाही की जाती है। कड़ाही यानी हलवा-पूरी का भोग लगाया जाता है।‘’

दरअसल हिंदू धर्म ही नहीं, कोई दूसरा धर्म भी आपको रुचता नहीं था। अम्‍बेडकरवादी चेतना के बावजूद आपने बौद्ध होना भी तो नहीं स्‍वीकारा था। उम्‍मीद से आपके पास आने वाले उन नव बौद्धों को कई बार निराश ही होना पड़ा जब आपने उनके आग्रह को स्‍वीकारने का कोई संकेत भी उन्‍हें कभी नहीं दिया। बहुत करीबी बातचीत में आपने ही एक बार बताया था, ‘’ये सज्‍जन, जो अभी तुम्‍हारे आने से पहले ही निकले, चाहते हैं कि मैं बौद्ध हो जाऊं।‘’ बावजूद बुद्ध के प्रति प्रेम और आदर के आपके चेहरे पर दिए गये प्रस्‍ताव को दृढ़ता से नकारने के भाव थे। बौद्ध होना आपको स्‍वीकार्य नहीं था। हिंदू आप थे नहीं। सच तो यह है कि मनुष्‍य की पहचान धर्म से हो, आपकी समझदारी में यह विचार ही खराब था। 

स्‍मृति

Saturday, November 25, 2017

वह बौद्धिक साहस और चेतना के साथ सतत लेखन

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

आपमें यदि बौद्धिक साहस और एक चेतना के साथ सतत लिखने का माददा न होता तो कहा नहीं जा सकता कि वंचितों की आवाज बनकर लिखी जा रही रचनाओं के स्‍वर को दलित साहित्‍य की संज्ञा से पहचाने जाने में अभी कितना वक्‍त लगता। पत्रकार मोहनदास नैमिशराय की आत्‍मकथा, ‘अपने-अपने पिंजरे’ तो छप ही चुकी थी। लेकिन उसे दलित साहित्‍य  की रचना तो उस समय नहीं माना गया था। आपकी लगातार की जिदद भरी कोशिशों ने ही उस वातावरण का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाई कि जिस ‘सदियों के संताप’ को छापते हुए भी उसे दलित साहित्‍य की रचना न कह पाने की हमारी कमजोरियां उसे दलित कविताओं की पुस्‍तक के रूप में स्‍थापित कर गई। हमारी कमजोरियों का कारण वह वातावरण भी तो था जो आलोचना के गैर पेशेवराना मिजाज के कारण नामगिनाऊ था। और उस नाम गिनाऊ आलोचना में आपकी कोई जगह ही न थी। फिर एक अकेले व्‍यक्ति में इतना साहस कहां से पैदा हो जाता कि पहली ही किताब को दलित साहित्‍य कह पाए। कोई संगठन होता, कोई बड़ा आंदोलन चल रहा होता तो निश्चित ही वैसा लिख देने का साहस हम बटोर ही लेते।

आपको ध्‍यान होगा कि पुस्‍तक छपने के बाद नेहरू युवक केन्‍द्र, ई सी रोड़, देहरादून के उस प्रांगण में जहां लीचियों के पेड़ झूमते थे, सिर्फ स्‍थानीय रचनाकारों की उपस्थिति में ही आयोजित हुई ‘फिलहाल’ की गोष्‍ठी में पुस्‍तक का लोकापर्ण और चर्चा हुई थी। अवधेश कौशल जी की वजह से नेहरू युवक केन्‍द्र दून के रंगकर्मियों के सर्वसुलभ जगह थी। उनका अड्डा थी। इस नाते हमारे गोष्‍ठी के लिए वह सर्वसुलभ ही थी। वरना गोष्‍ठी करने को भी तो कोई जगह हमारे पास नहीं थी। घरूवा गोष्‍ठी के रूप में सदियों के संताप के छप जाने का कोई मतलब नहीं था।

यूं उसे लोकार्पण भी तो नहीं कहा जा सकता। पुस्‍तक लोकार्पण  कैसे होता है, इसका भी तो हमें अनुभव कहां था। बस मित्र इक्‍टठे हुए, आने कविताएं पढ़ी और उन पर चर्चा हुई। पुस्‍तक पर सम्‍पूर्ण रूप से कोई बात नहीं हुई। हां, इतना जरूर हुआ कि उसके बाद पुस्‍तक को बेचना हमने शुरू कर दिया। शुरूआती दिनों तक तो वह अनाम ही रही, फिर जब आपकी कविताएं पहली बार ‘हस’ मासिक में छपी और हिंदी की दुनिया में उन्‍हें दलित साहित्‍य के रूप में पहचाना जाने लगा तो कितने ही पत्र पुस्‍तक की मांग के संबंध में आने लगे। यहां तक कि उनमें से कई पत्र तो इस तरह के होते थे जो ‘फिलहाल प्रकाशन’ को एक लगातार का प्रकाशन मानने की गलतफहमी में पूरा कैटलॉग भेजने की बात लिखते थे। सीमित प्रतियों को बेच लेने के बाद हम उन बहुत से पाठकों को पुस्‍तकें भेज सकने में असमर्थ थे। हमारा अंदाज भी कोई पेशेवराना नहीं था कि उन पत्रों के जवाब ही देते। वे बिना जवाबी खत होने लगे। यद्यपि यह जरूर हुआ कि बहुत जिददी लोगों को पुस्‍तक की कुछ फोटो कॉपी उस वक्‍त मुफ्त भेजी गयी। वह हमारे देहरादून में फोटोकॉपी मशीन के आ जाने का शुरूआती समय था।      

हिंदी में दलित साहित्‍य की अनुगूंज को जगाने का श्रेय बेशक ‘हंस’ और उसके सम्‍पादक राजेन्‍द्र यादव को दिया जाता रहे, पर आपके बौद्धिक साहस और सतत चेतना की जिदद के साथ आपके लिखने को दरकिनार नहीं किया जा सकता। वह भी तब, जबकि हिंदी साहित्‍य की मुख्‍यधारा की पत्रिकाओं में छपने से आपकी रचनाएं वंचित रहती जा रहा थी। आप तो वहां भी दलित की तरह ही ‘दलित’ पत्रिकाओं में ही छप रहे थे। कुछ नाम याद आते है, मुगेर, बिहार से निकलने वाली मरगिल्‍ली सी पत्रिका ‘पंछी’, राजस्‍थान से निकलने वाली ‘मरूगंधा’, देहरादून से निकलने वाला द्विभाषीय दैनिक ‘वैनगार्ड’, देहरादून से हस्‍तलिखित पत्रिका ‘अंक’, कविात फोल्‍डर ‘संकेत’ और फिलहाल’, घोषित रूप से मासिक लेकिन कभी कभी अनियमित हो होकर छपने वाली ‘नयी परिस्थितियां’, नागपुर से निकलने वाला मराठी साप्‍ताहिक ‘नागसेन’। बेशक हिंदी में आलोचना का कोई पेशेवराना रूप आज भी नहीं तो भी हिंदी साहित्‍य के इतिहास पर जब भी कुछ लिखा जाएगा तो आपाको जम्‍प करके निकल जाना किसी के लिए भी मुश्किल ही होगा। हिंदी में आलोचना का पेशेवराना रूप होता तो ऐसा हो नहीं सकता था कि शुद्ध साहित्‍य और पाप्‍लुर पर चलने वाली बहसें आज इतना शोर मचाती। या फिर फेसबुक पर छपने वाली रचनाओं को बिना पढ़े ही सिरे से खारिज करने वाली आवाजें ही ज्‍यादा गंभीर मानी जाती। पेशेवर आलोचक उनकी भी पड़ताल पेशेवराना ढंग से करते और आलोचना का कोई वस्‍तुनिष्‍ठ रूप उभरता। या यूं भी कि किसी एक आलोचक के बस चंद लेखक ही प्रिय नहीं होते, वह उन पर भी नाम गिनाऊं तरह से पुनारवृत्ति भरे आलेख भर नहीं लिखता, बल्कि उन पुस्‍तकों और लेखकों को भी खोजता जो बहुत नामालुम सी पत्रिकाओं में छपते और किसी अनजाने शहर के बांशिंदे होते। यहां चूंकि मैं अभी ऐसे उन बहुत से अनाम रह गई रचनाओं और रचनाकारों के बारे में बात नहीं करना चाहता। यहां तो सिर्फ आपकी ही बात करूंगा। क्‍योंकि, आप भी जानते हैं अच्‍छे से स्‍थापित हो जाने के बाद ही आपकी रचनाओं पर लिखा और सुना गया। जबकि, उन रचनाओं की त्‍वरा तो हमेशा ही एक जैसी रही। अपने लिखे जाने के वक्‍त भी और छप जाने के वक्‍त भी।

स्‍मृति

Friday, November 24, 2017

न्यू नतम लागत मूल्य और सदियों का संताप



कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

आपको ध्यान होगा, ऋषिकेश से एक कविता संग्रह प्राकाशित हुआ था। ‘उत्‍तर हिमानी’ नाम से प्रकाशित उस संग्रह में उत्‍तराखण्‍ड के अन्‍य कवियों की कविताएं भी थी। पार्थ सारथी डबराल के संपादक थे। 
‘सदियों की संताप’ आपकी कविता पुस्‍तक तो 1989 में प्रकाशित हुई। तब तक हम दोनों ने भी ‘उत्‍तर हिमानी’ के लिए कविताएं भेज दी थी। आपकी डायरी में सबसे अन्तिम कविता ‘तब तुम क्‍या करोगे’ ही थी उस वक्‍त। आपकी डायरी को पूरा पढ़ने के बाद डायरी की वह अंतिम कविता मेरे भीतर बहुत दिनों तक गूंजती रही थी।
पारंपरिक छापे की प्रक्रिया से छपने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिल्‍हाल की टीम’ फिल्‍हाल के तीन अंक निकाल चुकी थी और इस नाते प्रकाशन के जोड़ घटाव से एक हद तक परिचित हो चुकी थी। उस अनुभव के नाते ही एक रोज शाम को अम्‍मा-अब्‍बा को खाना पहुंचाने जाते वक्त हम (मैं और आप) जब उस कविता संग्रह की बात कर रहे थे जिसमें सहयोग राशि के साथ हम दोनों की कविताएं छप रही थी (‘उत्‍तर हिमानी’) तो मैंने कहा था कि अब आपकी भी कविता पुस्‍तक छप जानी चाहिए। मेरी बात पर आपने मायूसी के साथ जवाब दिया था, ‘’
‘’कौन छापेगा किताब।
‘’हम खुद छाप सकते हैं न।‘’
‘’कैसे ?’’
‘’जैसे फिलहाल छापते हैं। 6 फोल्‍ड में मुश्किल से 300 रू खर्च होते हैं हमारे एक अंक छापने पर। यदि किताब मैं 50.60 पेज हों और हम उसकी 400-500 प्रतियां छापें तो किताब का खर्च मुश्किल से 1000-1200 रू ही आएगा। उसको भी हम किताब बेच कर निकाल लेगें।‘’
फिल्‍हाल की छपाई में मोटा कागज इस्‍तेमाल होता था, जिसका दाम सामान्‍य कागज से कहीं ज्‍यादा था। ‘युगवाणी’ पर पेज की 30 रू लेता था। चालीस से पचास रू के भीतर कवर में छपने वाले चित्र का ब्‍लाक बन जाता था और लगभग 60-70 रू में कागज की 120-130 सीट आ जाती थी। एक सीट से दो प्रति तैयार हो जाती थी। किताब को छापे जाने के पीछे मेरा तर्क था कि नब्‍बे का दशक बीत रहा है, लगातार की उपेक्षा के चलते आप क्‍यों नब्‍बे के बाद के दशक में गिने जाएं। उस वक्‍त थोड़ी बहुत आलोचनाएं पढ़ते हुए मैं इस बात को जानने लगा था कि आलोचना में दशक के रचनाकारों के जिक्र होते हैं। हालांकि सच बात तो यह हिन्‍दी कविताओं की आलोचना में कहीं यह आज तक दर्ज नहीं आप कौन से दशक के कवि हैं। ‘लांग नाइंटीज’ के विशेषणों वाली आलोचना भी आपके कवि होने को दर्ज नहीं कर पाई जबकि आप मूलत: कवि ही थे। परिस्थितिजन्‍यता में या कविता में शुद्धातावादियों के बोलबाले ने आपको कहानीकारों के खाते में ही डाले रखा।
न जाने वह कौन सा क्षण था, अम्मा-अब्बा को खाने पहुंचाने के बाद जब हम वापिस घर लौटे, आपने अपनी डायरी निकाली। अल्‍टी–पल्‍टी कुछ सोचा-विचार किया और मासूमियत भरी दृढ़ता से कहा, ‘’लो ले जाओ डायरी।‘’
डायरी को हाथ में थामते हुए एक बड़ी जिम्‍मेदारी के अहसास ने मुझे घेर लिया। आपसे विदा लेकर मैं घर चला आया। कविताओं को पढ़ा और जमाने को जाति की दासता में जकड़ने वाली ब्राहमणवादी प्रवृत्तियों से उलझता रहा। उस वक्‍त तक हिंदी में दलित साहित्‍य नहीं आया था। जब मैंने कुछ कविताओं के साथ एक पुस्तिकानुमा किताब को शीर्षक ‘’सदियों का संताप’’ के साथ आपके सामने रखा तो आपने मेरी इस अनुनय को भी स्‍वीकार लिया कि छपाई में जो अनुमानित खर्च्‍ रू 1300 के करीब आएगा, बतौर उधार दे देंगे। पुस्तिका की 200  प्रति छाप कर बेच लेने की मंशा के साथ उसका मूल्‍य रू 7 निर्धारित किया गया। यह संतोष की बात है कि लगभग 150 प्रतियां  बेची जा सकी और लगाये गए धन की वापसी न्‍यनतम मूल्‍य रख कर हासिल की जा सकी। याद कीजिए उस कविता पुस्‍तक का कवर भाई रतीनाथ योगेश्‍वर ने किया था, वह भी तब जबकि अवधेश कुमार जैसे बड़े आर्टिस्‍ट हमारे बीच थे। अवधेश कुमार की बजाय कवर पर रतीनाथ के हाथों की छाप कैसे अंकित हुई, उस कथा को बाद में कहूंगा। अभी तो इतना ही कि सदियों के संताप का जब आपके स्‍टार हो जाने के बादए कई सालों बाद उसका पुन:प्रकाशन एक अन्‍य प्रकाशक ने किया और कवर को लगभग ज्‍यों का त्‍यों एक दूसरे आर्टिस्‍ट के नाम से छाप दिया तो आपने इस पर कोई एतराज जाहिर नहीं किया, क्‍यों ? यहां तक कि एक रोज कभी यूंही आपने कहा था कि सदियों के संताप का यदि कोई पुन:प्रकाशन करता है तो मैं उसमें अपने उन अनुभवों को भूमिका के रूप में लिखूं जो पुस्‍तक के पहले प्रकाशन में हुए। लेकिन आपने जब उस पुन: प्रकाशित पुस्‍तक की प्रति मुझे भेंट की तो उसे अलटने पलटने के बाद मैंने एकाएक कहा था, वाह। पर दूसरे ही क्षण कवर पर कलाकार का बदला हुआ नाम देखकर आपकी निगाहों में ताकते हुए कहा था, ये क्‍या तो आप निगाह बचाते हुए जाने क्‍यों खामोश हो गए थे।

स्‍मृति

Monday, November 20, 2017

हिन्दी में दलित कविता की आहट

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

हमारा वर्तमान देवत्‍व को प्राप्‍त हो चुके लोगों की ही स्‍मृतियों को सर्वोपरि मानने वाला है। उसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, उन कारणों को ढूंढने के लिए तो सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शोध ही रास्‍ता हो सकते हैं। अपने सीमित अनुभव से मैं एक कारण को खोज पाया हूं- हमारी पृष्‍ठभूमि एक महत्‍वपूर्ण कारक होती है। ‘पिछड़ी’ पृष्‍ठभूमि से आगे बढ़ चुका हमारा वर्तमान हमेशा आशंकित रहता है कि कहीं सामने वाला मुझे फिर से उस ‘पिछड़ेपन’ में धकेल देने को तैयार तो नहीं और उसकी बातों के जवाब में हम अक्‍सर आक्रामक रुख अपना लेते हैं। मैं किसी दूसरे की बात नहीं कहता, अपनी ही बताता हूं, कारखाने में बहुत छोटे स्‍तर से नौकरी शुरू की। आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं कि उस स्‍तर पर काम करने वाले कारीगर के प्रति कारखाने के ऑफिसर ही नहीं सुपरवाइजरी स्टाफ तक का व्‍यवहार कैसा होता है। आप भी उस रास्‍ते ही आगे बढ़े, जिस पर मेरा वर्तमान गतिशील है। ट्रेड एप्रैटिंस करने के बाद एक दिन ड्राफ्टसमैन हुए, बाद में ड्राफ्टसमैन का पद कार्यवेक्षक में समाहित हुआ तो कार्यवेक्षक कहलाए और इस तरह से सीढ़ी दर सीढ़ी पदोनन्तियों के बाद एक अधिकारी के तौर अपनी सामाजिक स्थिति का वह वर्तमान हासिल करते रहे जो आपको सामाजिक रूप से एक हद तक सम्‍मानजनक बनाता रहा। आपकी पृष्‍ठभूमि में तो सामाजिक सम्‍मान का सबसे क्रूरतम चक्र भी पीछा करने वाला रहा। आपने यदि हमेशा देवत्‍व को प्राप्‍त हो गए लोगों को ही अपनी प्रेरणा के रूप में दर्ज किया तो मैं इसमें आपको वैसा दोष नहीं देना चाहता जैसा अक्‍सर निजी बातचीतों में लोग देते रहे। आपके बारे में दुर्भवाना रखने वाले या अन्‍यथा भी आपकी आलोचना करने वाले जानते हैं कि उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने के मध्‍यवर्गीय व्‍यवहार से मुक्‍त रहते हुए ही मैंने जब-तब उनकी मुखालिफत की है। साथ ही आपकी पृष्‍ठभूमि के पक्ष को ठीक से रखने की कोशिश की है, जिसके कारण एक व्‍यक्ति का वर्तमान व्‍यवहार निर्भर करता है। यद्यपि यह बात तो मुझे भी सालती रही कि आपने कभी भी अपनी प्रेरणा में ‘कवि जी’ यानी ‘वैनगार्ड’ के संपादक सुखबीर विश्‍वकर्मा का जिक्र तक  नहीं किया। ‘कवि जी’ से मुझे तो आपने ही परिचित कराया था। बल्कि कहूं कि देहरादून के लिखने पढ़ने वालों की बिरादरी का हिस्‍सा मैं आपके साथ ही हुआ। वह लघु पत्रिकाओं का दौर था, अतुल शर्मा, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी, विश्‍वनाथ आदि और भी कई साथी मिलकर एक हस्‍त लिखित पत्रिका निकाल रहे थे। पतिका का नाम था ‘अंक’। ‘अंक’ का पहला अंक निकल चुका था। दूसरे अंक की तैयारी थी, प्रका‍शन के बाद उसका विमोचन हम लोगों ने सहस्‍त्रधारा में किया था। ‘कवि जी’ को उस रोज मैंने पहली बार देखा था। राजेश सेमवाल जी से भी वहीं पहली बार मुलाकात हुई थी। आपने ही बताया था देहरादून में नयी कविता के माहौल को बनाने वाले सुखबीर विश्‍वकर्मा अकेले शख्‍स रहे। आपके साथ ही मैं न जाने कितनी बार वैनगार्ड गया। मेरे ही सामने आपने नयी लिखी हुई कितनी ही कविताएं वैनगार्ड में छपने को दी। जरूरी हुआ तो ‘कवि जी’ की सलाह पर कविता में आवश्‍यक रद्दोबदल भी कीं। ‘कवि जी’ आपको बेहद प्‍यार करते थे। आप भी उनकी प्रति अथाह स्‍नेह और श्रद्धा से भरे रहे। हिन्‍दी में दलित साहित्‍य नाम की कोई संज्ञा उस वक्‍त नहीं थी। ‘कवि जी’ की कविताओं की मार्फत ही मैं दलित धारा की रचनाओं के कन्‍टेंट को समझ रहा था। आप उनकी व्‍याख्‍या करते थे और मैं सीखने समझने की कोशिश करता था। वरना आपकी कविताओं में जो गुस्‍सा और बदलाव की छटपटाहट मैं देखता था, उससे दलित कविता को समझना मुश्किल हो रहा था। उस समय लिखी जा रही जनवादी और प्रगतिशील कविता से उनका स्‍वर मुझे भिन्‍न नहीं दिखता था। ‘कवि जी’ की कविता का आक्रोश मिथकीय पात्रों को संबोधित होते हुए रहता था। आप ही बताते थे कि मराठी दलित कविता मिथकीय पात्रों की तार्किक व्‍याख्‍याओं से भरी हैं। मराठी कविताएं मैंने पढ़ी नहीं थी। शायद ही ‘कवि जी’ ने भी पढ़ी हों। यह उस समय की बात जब न तो आपने ‘अम्‍मा की झाड़ू’ (शीर्षक शायद मैं भूल न‍हीं कर रहा तो)  लिखी थी, न ‘तब तुम क्‍या करोगे’ लिखी थी और न ही तब तक आपकी कविताओं की वह पुस्तिका प्रकाशित हुई थी, जिसके प्रकाशन की जिम्‍मेदारी देहरादून से प्रकाशित होने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिलहाल’ ने उठायी थी। हां, ‘ठाकुर का कुंआ’ उस वक्‍त आपकी सबसे धारदार कविता थी। लेकिन हिन्‍दी कविता की जगर मगर दुनिया और उसके आलोचक तब तक न तो उस कविता से परिचित थे न ही जानते थे कि किसी ओमप्रकाश वाल्‍मीकि नाम के बहुत नामलूम से कवि की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ हिन्‍दी में दलित कविता की आहट पैदा कर चुकी है।

उस वक्‍त आपके मार्फत जिन दो व्‍यक्तियों को मैं जानता था, उसमें एक कवि जी रहे और दूसरे उस समय भारत सरकार के प्रकाशन संस्‍थान के मुखिया श्‍याम सिंह ‘शशि’। श्‍याम सिंह ‘शशि’ जी से मेरी कभी प्रत्‍यक्ष मुलाकात नहीं रही। लेकिन आपके मुंह से अनेक बार उनका नाम सुनते रहने के कारण एक मेरे भीतर उनकी एक आत्‍मीय छवि बनी रही।
#स्‍मृति

Friday, November 17, 2017

चल निगोड़े

मेरी उम्र चालीस के पास पहुंच रही थी उस वक्‍त। आपको ख्‍याल नहीं था। चंदा भाभी को भी ख्‍याल नहीं रहा होगा। मुझे याद नहीं भाभी ने न जाने क्‍या मजाक किया था, आपकी मुस्‍कराहट याद है बस, और याद है वह जवाब जो मैंने उस वक्‍त दिया था। चंदा भाभी नहीं जानती थी कि मैंने वैसा जवाब क्‍यों दिया। आप समझ गए थे पर। आपके चेहरे की मुस्‍कराहट बुझ गयी थी। कही गयी बात को सुनते हुए बोलने वाले के भीतर चल रही प्रक्रिया को जानने का आपमें खूब सलीका था। रंगकर्मी जो थे आप। एक रंगकर्मी की पहचान ही है यह कि वह न सिर्फ अपनी ‘एक्जिट’ और ‘एंट्री’ से अपने पात्र का परिचय दे दे बल्कि अपने पात्र को तैयार करते हुए ऐसे कितने ही लोगों के चलने बोलने, देखने, सुनने, मुस्‍कराने, रुठने जैसे भावों का अध्‍ययन करे। आप जानते थे कि मेरे और आपके बीच वह लम्‍बे समय का अंतरंग साथ कुछ कम हुआ है। ऐसा आपको इसलिए भी लग सकता था कि आपके जबलपुर स्‍थानांतरित हो जाने के बाद हमारा हर वक्‍त का साथ नहीं रहा था। जबकि असल वजह इतनी भर नहीं थी, आप अब पहले वाले आमेप्रकाश वाल्‍मीकि नहीं रहे थे, हिन्‍दी के ‘सुपर स्‍टार’ लेखक हो चुके थे। अपने इर्द गिर्द एक घेरा खड़ा कर लेने वाले लेखक के रूप में जाने जाने लगे थे। अब आपको लौटती हुई रचनाओं के साथ किलसते हुए देखने वाला कोई नहीं हो सकता था। बल्कि आज यहां का बुलावा तो कल वहां के बुलावे पर आपको हर दिन कहीं न कहीं लेक्‍चर देने जाने के जाते हुए देखने पर हतप्रभ होने वाले लोग ही थे। मेरा संबंध तो उस वाल्‍मीकि से नहीं था। मैं तो उस वाल्‍मीकि को जानता था जो मेरा आत्‍मीय ही नहीं, सबसे करीबी मित्र और बड़ा भाई था। अपनी उस फितरत का क्‍या करूं जो महानता को प्राप्‍त हो गये लोगों के साथ मुझे तटस्‍थ रहने को मजबूर कर देती है। तब भी हल्‍के फुल्‍के और थोड़ा मजाकिया लहजे में ही मैंने चंदा भाभी की बात का जवाब दिया था, 
‘’देखो अब मुझे अठारह साल का किशोर न समझो भाभी। आप लोगों से भी ज्‍यादा उम्र हो गई मेरी।‘’

भाभी मेरी बात पर चौंकी थी। चौंके तो आप भी थे। क्‍योंकि वास्‍तविकता तो यही है कि उम्र तो हर व्‍यक्ति समय के सापेक्ष ही बढ़ती है। दरअसल उस वक्‍त मेरे मन एकाएक ख्‍याल उठा था कि हम जब करीब आए थे आपकी उम्र कितनी रही होगी। आपको याद होगा कि कुछ ही देर पहले आपने बताया था कि बस दो साल रह गए रिटायरमेंट के। उस वक्‍त हम मार्च 2009 के अप्रैल की धूप ही तो सेंक रहे थे आपके आवास की बॉलकनी में बैठकर। अपनी बात को स्‍पष्‍ट करते हुए मैंने कहा था, 
‘’अच्‍छा बताओ भाभी जब हम पहली बार मिले थे आपकी उम्र कितनी थी ?’’ 
वे समय का अनुमान लगाते हुए कुछ गिनती सी करने लगीं थीं। आपके मन में भी कोई ख्‍याल तो आया ही होगा। वे जब तक जवाब तक पहुंचती, मैंने उनका रास्‍ता आसान कर देना चाहा था, 
‘’मैं बताता हूं, 37 या 38 के आस-पास ही रही होगी।‘’ 
वे खामोशी से मुझे सुनती रहीं। आप भी। मेरा बोलना जारी था, 
‘’तब बताइये, आज मैं चालीस पूरे करने की ओर हूं... तो हुआ नहीं क्‍या आपसे बड़ा?’’ 
भाभी बहुत जोर से हंसी थी और एक धौल जमाते हुए उन्‍होंने सिर्फ इतना ही कहा था, 
‘’चल निगोड़े’’ 
आपके चेहरे पर बहुत धूमिल सी  मुस्‍कराहट ठहर गई थी। वैसे आप भी जानते होंगे रंगमंच मेरा भी क्षेत्र रहा और मैंने चेहरे की मुद्रा के बावजूद मुस्‍कराहट को मुस्‍कराहट की तरह नहीं पकड़ा था।    

#स्‍मृति

Friday, October 21, 2016

कहां है वॉइस् रिकॉर्डर और कहां है मेरा कैमरा


वह इंसान रह रहकर याद आएगा

भास्‍कर उप्रेती

डेंगू के उपचार के बाद अस्पताल से डिस्चार्ज हो ही रहा था कि अनुराग भाई का फ़ोन आया.."पापा नहीं रहे"..भवाली के लिए निकल रहा हूँ..अनुराग का नंबर सेव नहीं था सो समझ ही नहीं आया..लेकिन आवाज किसी परिचित की सी लगी..थोड़ी ही देर में विनीत का भीमताल से फ़ोन आ गया..'दयानंद अनंत नहीं रहे'..सर झन्ना गया..मन मानने को तैयार नहीं था.. दो महीने पहले उनसे मिला था कहलक्वीरा में..वे सड़क तक आने में समर्थ नहीं थे..लेकिन बाकी तो पूरे ठीक थे..हमने विश्व राजनीति पर पहले की तरह बातें कीं..उनके फ़िनलैंड से आये मित्र सईद साब के बारे में बातें हुईं..उनका आग्रह था कि वे लौटें इससे पहले उनका इंटरव्यू करो..मैंने हामी भरी थी..लेकिन इंटरव्यू के लिए जो दिन सोचा उसी दिन उनको फ्लाइट पकड़नी थी. अनंत जी दिमागी रूप से हमेशा की तरह अलर्ट थे. पिछले तीन साल से मैं उनसे कह रहा था..आप जल्दी अपनी जीवनी लिख दीजिये..पता नहीं किस दिन जाना हो जायेगा..लेकिन वे जीवनी लिखने से बचते रहे..उन्होंने कहा..'आई ऍम क्वाईट यंग..क्या कहती हो उमा?'. उमा जी ने कहा..आप तो 18 साल के हो रहे अभी..लेकिन अनंत जी वाकई चले गए..टी.बी. ने तो युवावस्था में ही जकड़ लिया था. तब सी.पी.आई. ने पी.पी.एच. की झोली पकड़ाकर उन्हें मुंबई से नैनीताल रवाना कर दिया था.
जिस नैनीताल में अनंत जन्मे..जिस नैनीताल के लिए वो महानगरों को पछाड़कर भागे-भागे आ गए..यहाँ तक कि दिल्ली में रची-बसी जीवन-संगिनी को भी इसी नैनीताल में झोंक दिया..उस नैनीताल से उनके जनाजे में एक मनिख नहीं आया...मुझे हमेशा से प्रिय रहे नैनीताल पर उस दिन भयानक गुस्सा आया..मैं बम बन सकता होता तो इस शहर पर फूटकर उसे फ़ोड़ ही डालता!
और दो दशक पहले तो दिल्ली में वो लगभग चले हीे गए थे..जब जानलेवा हमले के बाद कोमा में चले गए थे. उमा जी उन्हें वापस बुला लायी थीं. उनके हाथ में दुबारा कलम दी..विदेश से मित्र द्वारा भेजा कैमरा और वौइस् रिकॉर्डर तो हमेशा हाथ में ही रहता था..मानो अभी चल पड़ेंगे छापामार पत्रकारिता को. अभी कुछ समय पहले ही दिल्ली के एक बड़े प्रकाशक से उनकी कहानियों का समग्र लाने का मामला भी बन गया था. अभी कुछ ही समय तक वे युगवाणी के लिए कॉलम लिख ही रहे थे..अनंत जी के भीतर अनंत आत्माएं थीं. नैनीताल में दरोगा के घर जन्मे ..फिर नास्तिक हुए..फिर मुंबई..लाहौर..कराँची..मोस्को..लंदन..कहीं किसी काम में मन रमा नहीं..दूरदर्शन में उनकी रचनाओं के मंचन कब के आ गए..लगातार खुद को तोड़ते चले गए..खुद को किसी बुत में ढलने नहीं दिया.. फैज, कैफ़ी, मजाज, सरदार जाफ़री..संगी साथी थे..कवि/गीतकार शैलेन्द्र को उन्होंने ही मार-मारकर कम्युनिस्ट बनाया..हिंदी के बड़े-बड़े लेखकों की शुरुआती रचनाएँ एडिट कीं..लेकिन वे लेखक बन गए तो कभी नहीं कहा..हासिल. दिल्ली में जो जोड़ा था, उसे दिल्ली ही छोड़कर आ गए अपनी भवाली की प्रिय झोपड़ी में रहने. गढ़वाल पितरों की भूमि थी, लेकिन वहां इसलिए नहीं गए कि बिरादर कहेंगे देखो न यहाँ पैदा हुआ..न रहा..अब बुढ़ापे में जमीन लेने आ गया. जबकि उनके अनुज विवेकानंद (आई.ए.एस.) और दूसरे अनुज कर्नल साब ने उनके हिस्से की 80 नाली जमीन उनके लिए जरूर रख छोड़ी थी. अनुराग से भी कहते..गढ़वाली होने के लिए जरूरी नहीं गढ़वाल में जमीन हो. तुम्हारे चाचा अपने आप देखेंगे..नहीं देखेंगे तो कभी दलित/ भूमिहीन भाईयों को दान कर आना. देहरादून आते तो मेरे किराये के घर में ही रहते..वहीं उनके जर्जर हो चुके यार उनसे मिलने आ जाते. कुछ नाम तो वे ऐसे बताते जो एक दशक पहले ही सिधार चुके होते..मैं उनसे कहता वो तो गए सर..तब वो कान की मशीन की संभालते हुए जोर से चीखते 'चला गया..'..फिर दुबारा धीमे स्वर में कहते.."अच्छा चला गया होगा". मृत्यु से वो कभी नहीं डरते..जबकि अपने प्रिय यार के किस्सों में खो जाते..किस्से आलोचना और आत्मालोचना से भरे होते..लेकिन कटुता कभी नहीं आने दी..खंडूड़ी परिवार (पूर्व सी.एम. खंडूड़ी का परिवार) के वे बड़े प्रशंसक थे, सिवा बी.सी. खंडूड़ी के. खंडूड़ी की पत्नी ही उनसे हमारे घर पर मिलने आ जाती, वे कभी उनके पास नहीं गए. मगर वे कहते घनानंद खंडूड़ी बड़ा आदमी था..उन्होंने मसूरी के बच्चों की शिक्षा का बीड़ा उठाया था. ये तो नेता हो गया..फिर कहते इस खंडूड़ी का अंग्रेजी-तलफ्फुज मैं ठीक करता था..और इसे पैग कैसे बनाते हैं मैंने ही सिखाया था. वो एक बार लंबे समय तक घर पर रहे तो डंगवाल आंटी ने एक दिन उन्हें घूरते हुए कहा..'अरे ये दया दाज्यू तो नहीं?' उन्होंने बचपन में उन्हें नैनीताल में देखा था. उनके पिता वहां डी.ऍफ़.ओ. रहे थे. फिर दोनों दया दाज्यू के बचपन की शरारतों के बारे में देर से बातें करते रहे..'ये तो मंदिर से पैसे चुरा लेते थे', 'ये तो आग माँगने जरूर आते थे', 'ये तो खूब स्मार्ट थे'..'फिर से भाग गये घर से..और अब देख रही हूँ इन्हें..'. 'हे भगवान ये तो अब भी इतने स्मार्ट हैं..और मैं तो कैसी चिमड़ी गयी हूँ.' ...तो अस्पताल से रिहा होने के दूसरे दिन नैनीताल श्मशान घाट यानी पाईन्स जाना हुआ. उनका जनाजा एकदम शांत था..कोई शोर नहीं..कोई चीख नहीं..कहलक्वीरा के ही चार-छह जन..मैं अजीब-सी उदासी से भर गया इस सुनसान मौत पर. अगर दिल्ली से उस दिन पंकज बिष्ट और डॉ. ज्योत्सना नहीं आतीं तो कोई बड़ा आदमी कहने को नहीं था वहां. सब के सब आम आदमी थे. नैनीताल से थोड़ी देरी के बाद महेश जोशी और अनिल कार्की पहुंचे..और जो दरअसल दोनों नैनीताल के नहीं थे. जिस नैनीताल में अनंत जन्मे..जिस नैनीताल के लिए वो महानगरों को पछाड़कर भागे-भागे आ गए..यहाँ तक कि दिल्ली में रची-बसी जीवन-संगिनी को भी इसी नैनीताल में झोंक दिया..उस नैनीताल से उनके जनाजे में एक मनिख नहीं आया...मुझे हमेशा से प्रिय रहे नैनीताल पर उस दिन भयानक गुस्सा आया..मैं बम बन सकता होता तो इस शहर पर फूटकर उसे फ़ोड़ ही डालता! खैर इसके बाद मैं कई दिन तक अनंत जी की फोटो अपने लैपटॉप में ढूंढता रहा..अमर उजाला के 'आखर' के लिए उनका पहला इंटरव्यू किया था डॉ विनोद पाण्डे (अहमदाबाद) और मैंने..उसके बाद दैनिक जागरण के लिए भी..उसके बाद तो बार-बार उनके घर जाना ही रहा..फोटो भी खिंचते रहे..लेकिन पता नहीं उनके जाते ही उनके फोटो कहाँ चले गए..हाँ उन्होंने हमारी जो फोटो खीचीं..वे सब की सब हैं..एक से एक बेहतरीन..वे हमेशा व्यक्तिपरता के खिलाफ रहे..और शायद उनके फोटो इसीलिए नहीं मिल रहे..उमा जी और सुनीता के साथ खींचा हमारी शादी से चार बरस पहले का ये फोटो हमें बहुत प्यारा है..एक बार तो उन्होंने हम दोनों की ढेरों फोटो खींचकर..उन्हें लैब से बनवाकर हमें बंच भेंट कर चौंका ही दिया था. कितने उत्साही ..कितने जिंदादिल थे दयानंद अनंत! (आज आठ दिन बाद उन पर कुछ लिखने की हिम्मत मैं कर पाया..और मन कर रहा है..लिखता चला जाऊं..बहुत शानदार यादें हैं इस शानदार दोस्त की संगत की.)"

Sunday, March 27, 2016

अस्पताल के उस कमरे

एक छुअन की याद

योगेंद्र आहूजा 

पिछले कुछ बरसों में कर्इ बार ऐसा हुआ कि वीरेन जी को मिलने देखने अलग अलग अस्पतालों मेें जाना पड़ा, शीशों के पीछे दूर से ही देखकर वापस आना पड़ा । एक अस्पताल में उनके साथ, उनके बेड के करीब काउच पर दो रातें भी बितार्इं । फिर भी मुझे कभी यकीन नहीं हुआ कि वह शख्स किसी गंभीर बीमारी से ग्रस्त है या हो सकता है । इसलिये कि बीमारी के सबसे कठिन क्षणों में, उपचारों के बीच के अंतरालों, मुशिकल शल्यक्रियाओं के बीच की मोहलतों में या एक से दूसरे अस्पताल आते जाते उनसे जो बातें होती थीं उनमें दुनिया जहान के सारे विषय आते थे, लेकिन जिस पर कभी चर्चा नहीं होती थी, वह था - उनकी बीमारी । वे उसकी चर्चा सफार्इ से टाल देते थे या जरा सा कुछ कहतेे थे तो एक ऊबे हुए स्वर में, निर्वैयकितक भाव से ।  मसलन 'हां यार इधर से काट दिया है उन्होंने या गर्दन की पटटी को छूकर - 'कुछ नहीं, जरा सा रेडियेशन से जल गया है । शायद ही किसी ने उनका दर्द से विकृत चेहरा देखा हो, कराहना सुना हो । उनके तार तो हमेशा पूरी कायनात से जुड़े थे । बीमारी बस एक व्यतिक्रम थी, थोडी देर का व्यवधान या 'ब्लैक आउट का एक संक्षिप्त अंतराल जब  रोशनियों कुछ देर के लिये बुझती हैं, मगर फिर जल उठती हैं, पहले से भी उज्जवल और प्रकाशमान । उन्हें बहुत अधिक मिजाजपुर्सी या अतिरिक्त चिंता दर्शाना पसंद न थे । वे साहित्य की दुनिया और असल दुनिया, दोनों के एक एक रग रेशे की खबर रखते थे, बहसों और वार्तालापों और मनोविनोदों में पूरी चेतना के साथ मौजूद रहते थे । इसलिये, वे अब नहीं हैं, यह खबर अभी तक मुझे एक अफवाह  सरीखी लगती है । उस चलती फिरती रौनक या छलकते प्याले का बीमारी और मृत्यु से कोर्इ नाता जोड़ पाना मुझे असंभव जान पड़ता है ।
दिल्ली के कटवारिया सराय में स्थित राकलैंड अस्पताल में शुरुआती सर्दियों की वह रात धप से अचानक उतरी । केरल या मणिपुर से आयी नर्स बीच बीच में आती जाती थी । पास में रखे स्टैंड पर ग्लूकोज नली में टप टप टपकता था । नर्स नली में ही इंजेक्शन से दवाइयां उंडेलती थी जो ग्लूकोज के संग बहते हुए हाथ की उभरी हुर्इ शिराओं में चली जाती थीं । वीरेन जी इसे बहुत कौतूहल से देख रहे थे ।
'इसी दुनिया में के कवि के लिये जो कुछ था, बस यही दुनिया थी, भले ही यह उनके लिये छोटी पड़़ जाती थी । यह अधूरी थी, मनमुताबिक नहीं थी और रोज ब रोज भयावह होती जाती थी - मगर जो कुछ भी था वह यही । उन्हें जैसे सांस लेने को हवा काफी नहीं थी, सूरज, पक्षी, पौधे, पेड़़ और न जाने क्या क्या चीजें उन्हें हरदम पास बुलाती रहती थी । ( एक बार किसी चिडि़याघर से कोर्इ गैंडा भाग गया था और वे बरेली के मित्रों के साथ जीप में बहुत दूर उस जंगल में चले गये थे जहां उसका होना संभावित था । ) उन्हें लोगों से घिरे रहना, इर्द गिर्द मानवीय चेहरों की मौजूदगी पसंद थी और वे भी जैसे पूरे जुटते नहीं थे । मगर किसी दूसरी दुनिया में न उनका यकीन था, न कहीं और जाने की आकांक्षा । चालीस बरसों के लंबे साथ में, स्वाभाविक ही, अनेक बार प्रियजनों की मौतों की खबरें आयीं । ऐसे अवसरों पर मैंने उन्हें विचलित, शोकाकुल यहां तक कि अथाह शोक में डूबे हुए भी देखा( याद आता है कि गोरख पांडेय की मृत्यु की खबर आने पर वे किस कदर गमगीन हुए थे, और इसी तरह उत्तराखंड के पत्रकार उमेश डोभाल की हत्या पर, अभिनेत्री सिमता पाटिल की मृत्यु पर )  - लेकिन मृत्यु को लेकर दार्शनिक चिंतन करते, फिलासफी में फिसलते कभी नहीं । वे हमेशा मौत के खिलाफ थे और मौत के फलसफों और मृत्योन्मुख  रचनाओं के उससे भी अधिक । सिर्फ स्थूल मृत्यु नहीं बलिक उसके जो भी संभव मायने हो सकते हैं मसलन ठहराव, गतिहीनता, खालीपन, खात्मा, मातम, सूनापन, पराजय, बिछोह, अलविदा । वह शख्स दर्द को भीतर भींचे, हाथों में एक डायरी थामे, आधे कटे चेहरे और रिसते घावों के साथ आखिरी पल तक जनांदोलनों में कवितायें पढ़ता यूं ही नजर नहीं आता था । बेशक वह फासीवाद के विरुद्ध अपनी मुटठी उठाना, प्रतिरोध के स्वरों में अपनी आवाज मिलाना चाहता था । बेशक वह कर्इ दशकों पहले, शुरुआती युवावस्था में अपने आप से किया वादा आखिरी सांस तक निभाना चाहता था - भाषा को रस्से की तरह थामे, दोस्तों केे रास्ते पर चलते जाने का । मगर यह मौत की घूरती आंखों से एक मुठभेड़ भी थी, उनकी निजी लड़ार्इ, जिसमें हर बार मौत को ही मुंह की खानी होती थी । इसलिये उस सर्वदा अपराजेय शख्स का इस दुनिया को अलविदा कह जाना मुझे घोर अतार्किक जान पड़ता है । उसे स्वीकार कर पाने के लिये मेरे पास कोर्इ तार्किक तसल्ली नहीं, न कोर्इ दार्शनिक दिलासा  । 

वे चार दशकों पहले के दिन थे । वे बरेली के उस कालेज में पढ़़ाते थे जहां मैं नैनीताल जिले के छोटे से कस्बे काशीपुर से आगे पढ़ने के लिये आया था । वे हिंदी विभाग में थे और मैं विज्ञान का विधार्थी था । ये दोनों विभाग एक दूसरे के लिये जैसे परग्रही थे, प्रकाश वर्षो की दूरी पर । लैबोरेटरी के सन्नाटे और सिर चकरा देने वाली गंधों के बीच उनके नाम का जिक्र कभी कभी चला आता था । कभी मैं भी मानविकी विभागों का एक खामोश चक्कर लगा आता था, यूं ही निरुददेश्य । उन दिनों एक ही कालेज में होने के बावजूद उनसे कभी भेंट नहीं हुर्इ । मैं उन्हें सिर्फ दूर दूर से देखा करता था । वे आपातकाल के सहमे हुए दिन थे । याद आता है कि कालेज के मेन हाल में कोर्इ साहित्यिक कार्यक्रम था । भीतर एक इंतजार करती, कसमसाती  हुर्इ भीड़ थी और मैं बाहर गलियारे में टहल रहा था । एक स्कूटर आकर रुकता है । वीरेन जी तेजी में हैं, मशहूर लेखक मटियानी जी के साथ भीतर जाते हुए ।  सीढि़यों पर उनके सैंडिल में कुछ उलझा, वे क्षणांश के लिये लड़खड़ाये । मैं पास ही खड़ा था, संकोच में सिमटा हुआ । मैं उस घड़ी आगे बढ़़कर उस हाथ को थामना चाहता था जिसे आगे चलकर असंख्य बार मुझे थामना था, भरोसा और दिलासे देने थे । लेकिन चूक गया, बस यूं ही खड़ा रहा । कर्इ सालों के बाद दोस्ती होने पर एक बार यह घटना उन्हें बतार्इ । हर 'टच अपने भीतर इतनी संभावनायें लिये होता है, उन्होंने कहा । हर छुअन कोर्इ दरवाजा खोल सकती है । क्या पता कि वह टच होते होते रह न जाता तो हमारी दोस्ती को इतने सालों का नुकसान न होता । 

उसके बाद न जाने कितने कुंओं की मुंडेरों पर साथ साथ बैठे, कितनी स़ड़कें नापीं । समुद्र तटों तक जाने वाली सड़कें, और धूल धक्कड़ से भरी और कबि्रस्तानों के करीब से गुजरने वाली उजाड़, सब प्रकार की । आलमगीरीगंज की सड़कों पर बेपनाह धूल हुआ करती थी और सिविल लाइंस की अभिव्यंजनावादी चित्रों सरीखी थीं, नीलवर्णी, नयनाभिराम । वह मेरे लिये एक अनखोजा, अनजाना, रोमांचक अनंत था । विचारधारा, मनुष्य, दुनिया, इंसान की जददोजहद, कवितायें और महान रचनायें और ख्ुाद अपना आप - जितना जानना संभव था, उसी दौरान, उनकी सोहबत मेें ही जाना । उसी दौरान विचार स्पष्ट और एनेलिसिस धारदार हुए । दुनिया और समाज की पोलें खुलीं, रहस्य उजागर हुए, मायने प्रकट हुए । वीरेन जी की सर्वाधिक प्रिय जगह सड़कें थीं और वे खुद को एक गरबीला सड़क छाप कहते थे । उनकी सड़क सीरीज की कवितायें इलाहाबाद की सड़कों के बारे में हैं लेकिन संभवत: सबसे अधिक वे बरेली की ही सड़कों पर दोहरायी गयीं । उन पर चलते हुए उन्होंने न जाने कितनी बार कहा होगा कि अपनी जमीन यही है, वे उसे छोड़कर कभी नहीं जाने वाले, या वहां से कहीं भी जाना वहीं वापस आने के लिये होगा । वहां की हर सड़क का मन में एक अलग संस्मरण है । 

बरेली कालेज के दिनों की दशकों पुरानी उस अनहुर्इ छुअन की याद से एक दूसरी छुअन की याद उभर आयी है । वे राकलैंड अस्पताल में थे । अगले दिन उनका एक आपरेशन होना था । उनका फोन आया । वे चाहते थे कि मैं वह रात अस्पताल के कमरे में उनके साथ बिताऊं । 'साथ में कुछ लेते आना यार, सुनाना यह भी कहा उन्होंने । कवि होने के नाते उनका ज्यादा राब्ता, स्वाभाविक रूप से, कविता की दुनिया से था । उनके लिये मुझे गल्प और गध के संवाददाता का रोल निभाना होता था । हमारे बीच का यह एक स्थायी मजाक था, एक नकली बहस ... मैं उन्हें छेडने के लिये कहता था कि रही होगी कभी कविता अग्रगामी विधा, लेकिन अब वह पिछड़ गयी है । इस वक्त का असल प्रातिनिधिक कृतित्व गध में लिखा जा रहा है, गध में ही मुमकिन है । कविता काल कवलित हो चुकी या कहानी के पीछे पीछे चलती है, लड़खड़ाती हुर्इ । 'क्षुधा के राज्य में पृथ्वी गधमय है बांग्ला कवि सुकांत का यह वाक्य हमारी बातचीत में आता था । वीरेन जी कहते थे कि यह वाक्य स्वयं अपने में एक कविता का अंश है, और मानवीय अभिव्यकित का सर्वश्रेेष्ठ रूप, कुछ भी कहो, कविता ही है, वही हर लफज की कीमत पहचानना सिखाती है, और, कि तुम लोग लफजों की कितनी बरबादी करते हो ।

दिल्ली के कटवारिया सराय में स्थित राकलैंड अस्पताल में शुरुआती सर्दियों की वह रात धप से अचानक उतरी । केरल या मणिपुर से आयी नर्स बीच बीच में आती जाती थी । पास में रखे स्टैंड पर ग्लूकोज नली में टप टप टपकता था । नर्स नली में ही इंजेक्शन से दवाइयां उंडेलती थी जो ग्लूकोज के संग बहते हुए हाथ की उभरी हुर्इ शिराओं में चली जाती थीं । वीरेन जी इसे बहुत कौतूहल से देख रहे थे । बाद में उन्होंने मुझसे एक सहज शरीर-वैज्ञानिक जिज्ञासा प्रकट की - अच्छा, इस नली में इंजेक्शन से थोड़ी शराब डाली जाये तो  ?

बिस्तर के करीब बेंच पर बैठकर मैंने धीमे धीमे ब्राजील के लेखक जोआओ गाउमरास रोजा की बहुप्रशंसित, बहुअनुवादित कहानी पढ़ी जिसका शीर्षक था  - नदी का तीसरा किनारा । वे कंबल ओढ़कर लेटे थे, ध्यानमग्न सुनते हुए ।  वह उन्हें बहुत भावसिक्त करने वाली कहानी लगी लेकिन हमारी छदम बहस के संदर्भ में  उन्होंने कहा कि उस कहानी के सारे मायने तो वाक्यों के बीच हैं । उस पर खुद कविता का एक भारी कर्ज है । रात्रि काफी बीतने पर, अस्पताल के सन्नाटे में मैंने उन्हें जो दूसरी कहानी सुनार्इ वह पोलेंड के लेखक फि्रजेश कारिंथी की थी । वे खुद एक डाक्टर थे और कहानी भी अस्पताल की पृष्ठभूमि पर थी । इतने वर्षो के बाद उस रात्रि को याद करते हुए मुझे यह कुछ अतिरिक्त रूप से मानीखेज लग रहा है । एक अस्पताल में एक डाक्टर लेखक की कहानी का पढ़ा जाना, अस्पताल की पृष्ठभूमि पर ।

एक आपरेशन के तुरंत बाद एक बहुत सम्मान्य सीनियर सर्जन के दो सहायक, जो जूनियर डाक्टर हैं, दस्ताने उतारने के बाद हाथ धो रहे हैं । प्रथम सहायक वयदा गुस्से में उबल रहा है । 'जहन्नुम में जायें । उसका चेहरा लाल हो रहा है । 'डांट सुनने को मैं ही एक रह गया हूं । मैं कोर्इ बच्चा नहीं हूं । वे दोनों उस सर्जन को कोस रहे हैं जिसने आपरेशन के दौरान उन्हें छोटी छोटी गलतियों पर कस कर लताड़ लगार्इ है, मरीज के सामने ही जो बेहोश नहीं था । 'उसका असिस्टेंट होने का गौरव मेरे लिये दो कौड़ी का है । अब मुझ पर चिल्लाया तो ...। इसी दौरान प्रोफेसर सर्जन अचानक कमरे में चले आये थे । उन्होंने उनका चिल्लाना सुन लिया है मगर अनजान बनकर वे कहते हैं -  अच्छा भाइयो, आज का काम खत्म हुआ । 

दोनों की जान में जान आती है । मुंह से खून के छींटे धोते हुए सर्जन दर्र्द से कराहता है । दोनों सहायक दौड़ते हैं । 'ओह यह मुझे चैन न लेने देगा । इसका इंतजाम करना ही होगा । वह कहता है । सहायक हक्के बक्के खड़े हैं। 

'मुंह बाये क्या खड़े हो ? जैसे तुम्हें मालूम ही नहीं कि मुझे हर्निया है । काम करते वक्त जब मैं दर्द के मारे दांत भींचता हूं और तुम छिप छिप कर हंसते हो तो तुम समझते हो कि मैं जानता नहीं ? 

वीरेन जी आंखें मेरे चेहरे पर टिकाये ध्यानमग्न सुन रहे हैं ।

आने वाले कुछ दिन छुटिटयों के हैं । सर्जन के मन में जैसे उसी क्षण विचार आया हो, वह तय करता है कि क्यों न तत्काल उसका आपरेशन कराकर छुटटी पायी जाये । उसकी स्फूर्ति का असर सहायकों पर भी होता है । वे सुझाव देते हैं कि फलाने सर्जन को बुलाया जाये । 'दिमाग ठिकाने है ? प्रोफेसर भयंकर चेहरा बनाकर कहता है । 'भला किसी अन्य प्रोफेसर की मजाल जो मेरे पेट में पंजा घुसेड़े ? आपरेशन थियेटर तैयार होता है । वही सहायक आपरेशन करेंगे । बस चिमटियां, औजार, रुर्इ पकड़ाने के लिये एक नर्स और रहेगी । चीरा लगाने के लिये स्थानीय रूप से सुन्न करना काफी है । इत्तफाक से वे सुबह नाश्ता गोल कर गये थेे इसलिये जुलाब देने की भी जरूरत नहीं । एक बड़ा सा शीशा लैंप के ऊपर तिरछा लटकाया जायेगा कि प्रोफेसर सारा तमाशा साफ साफ देखते रहेें । 

जीवन अगर स्पर्शो का जमा खाता है तो मेरी स्पर्श एलबम का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है । अनगिनत बार उसकी याद आंखें गीली कर चुकी है ।
वीरेन जी उठकर बैठ जाना चाहते हैं । नर्स भागी हुर्इ आती है । वह टूटी फूटी हिंदी में कुछ कहती है और उन्हें फिर लेटने को बाध्य कर सिरहाना और नलियां ठीक करती है । उसके जाने के बाद वीरेन जी कहते हैं, चिटखनी लगा दो । 

इसके बाद कहानी में उस आपरेशन का विस्तार से विवरण है ।  दोनों जूनियर सहायक डरे सहमे हैं और प्रोफेेसर उन्हें हर बात पर डांटता है - रोशनी का फोकस, चीरे की पोजीशन और लंबार्इ, चिमटियां रखने की जगह ।  उनका चेहरा अपमान के मारे काला पड़ जाता है । आपरेशन चल रहा है और वह उन्हें गालियों से नवाज रहा है । 'कसार्इ, साले, नालायक । वे घबराये हुए, गलतियों पर गलतियां करते हैं । माथे पर पसीना झलमला रहा है । जख्म बहते जा रहे हैं, उनसे धागे निकल रहे हैं । 'धन्य हो, जनाब सर्जन । अब क्या करना होगा ? बता दूं तो बड़ा अच्छा हो, क्यों ? लेकिन अपनी प्रतिष्ठा की जिस सर्जन को इतनी चिंता हो, उसे पता होना चाहिये । मैं कौन हूं ? मैं तो इस वक्त असहाय मरीज हूं । अपनी मुकित का इंतजाम खुद ही करो । 

वीरेन जी के चेहरे से जाहिर है कि कहानी का एक एक लफज दिल को चीरता चल रहा है । एक कामिक कथा होने का भ्रम देने वाली यह कहानी जब अवाक कर देने वाले बेहद मानवीय और हृदयस्पर्शी अंत पर पहुंचती है, उनका चेहरा उत्तेजना से आरक्त है । उनकी आंखें चमकने लगी थीं । 'यह मुझे फोटो स्टेट चाहिये यार ।  यहां के सारे डाक्टरों और नर्सो को दूंगा । उन्होंने कहा । 

अस्पताल के उस कमरे में न कोर्इ बीमारी थी न अंत की दूर दूर तक कोर्इ आहट । वहां दवाइयों की गंध थी मगर हमारे लिये उस रात अस्पताल का वह कमरा जैसे 'बहारों का जवाब था । ओह काश मुझे अंदाजा होता कि . . .
कुछ देर में वीरेन जी सो गये । वे हल्की सर्दियों के दिन थे । पास के काउच पर लेटे मुझे भी न जाने कब नींद आ गयी । वह ऊषाकाल रहा होगा जब आप गहरी नींद में होते हुए भी जागृत होते हैं । मैंने महसूस किया गरमार्इ का एक सुखद घेरा पैरों की तरफ से उठता, मुझे ढ़कता हुआ । कोर्इ मुझे कंबल ओढ़ा रहा था । वह जो भी था, उसका नर्स होना तो नामुमकिन था क्यों कि रात को सोते वक्त कमरे का दरवाजा मैंने ही बंद किया था । नींद में ही अवचेतन ने हर हरकत, छोटी से छोटी चीज दर्ज की । किस तरह वीरेन जी ने मुझे कंबल ओढ़ाने के लिये अपने हाथ से वह सुर्इ सावधानी से अलग की होगी । ग्लूकोज वाला स्टैंड परे खिसकाया होगा । बिस्तर से उतर कर कुछ कदम चल कर मुझ तक आये होंगे ।

जीवन अगर स्पर्शो का जमा खाता है तो मेरी स्पर्श एलबम का अब तक का सबसे चमकीला स्पर्श वही है । अनगिनत बार उसकी याद आंखें गीली कर चुकी है ।