फोटो- गजेन्द्र बहुगुणा
कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
यद्यपि लेखन में कविता आपकी मुख्य विधा थी। आपका समूचा स्वर भी उसी में सधा। लेकिन हिंदी में दलित साहित्य की जो धारा प्रस्फूटित हो चुकी थी उसके प्रवाह को जारी रखना और उसे हर तरह से समृद्ध करने की जिम्मेदारी भी आपके ऊपर थी। दलित चेतना के स्वर में लिखने वाले चंद लोग ही उस वक्त तक सक्रिय थे। आयुध कारखाने ओ एल एफ, जिसमें आप कार्यरत थे, बहुत से नये लोग भर्ती हुए थे। उन नये लोगों में बहुत से ऊर्जावान दलित साथी थे जिन्होंने एक संस्था बनायी थी- अस्मिता अध्ययन केन्द्र। सामाजिक गतिविधियों के साथ साथ संस्था में अमबेकरवादी साहित्य का अध्ययन भी किया जाता था। आपके संगसाथ की वजह से मेरी भी उपस्थिति यथोचित बनी रहती थी। एक बार रविदास जयंती के अवसर पर एक विचार गोष्ठी के साथ शाम को कविता पाठ का भी आयोजन रखने का विचार आपने रखा। उस वक्त ही आपने मुश्किलों को सांझा किया था कि कविता गोष्ठी में किन कवियों को बुलाया जाए जो दलित चेतना से लिख रहे है। कँवल भारती और तीन चार अन्य कवि आमंत्रित हुए। मेरा किसी से भी पूर्व परिचय नहीं था। इसलिए आज ठीक से याद भी नहीं कर पा रहा कि अन्यों में कौन कौन थे। संभवत: सूरजपाल चौहान रहे हों, लेकिन मैं बहुत आश्वस्त होकर नहीं कह सकता। हां सूरजपाल चौहान जी से मेरी मुलाकात उस वक्त हुई थी जब आप और मैं एक रात नोएडा स्थित उनके घर पर रुके थे।
ऐसी परिस्थितियों के साथ दलित साहित्य की धारा बहना शुरु कर चुकी थी। आप इस
बात को अच्छे से समझ रहे थे। तभी तो कविता के साथ-साथ कहानी, आत्मकथा और नाटक तक
ही नहीं रुके। ‘’दलित साहित्य का सौन्दर्य शास्त्र’’ गढ़ने के लिए प्रयासरत
हुए। इतिहास के भीतर झांकना चाहते रहे। भारतीय समाज को जाति में बांटने वाले धर्म
की पोल पट्टी खोल देना चाहते रहे। उसके लिए
‘’सफाई देवता’’ लिखी। दलितों की पहचान को हिंदू धर्म से विलगाने वाले तथ्यों
को खोजना चाहते रहे। दलित विचारक कांचा इल्लेया की पुस्तक Why I am not a Hindu किताब का अनुवाद तो आपने सन 2000 के बाद
किया। ठीक से याद नहीं, संभवत: 2004-05। हां, इतना याद है उस वक्त आप जबलपुर से
स्थानांतरित होकर देहरादून वापिस आ चुके थे। लेकिन, ‘जूठन’ में, जिसका प्रकाशन
1997 में हुआ, आप लिख ही चुके थे, ‘’नहीं, मैं ईसाई नहीं हुआ हूं।
’’लेकिन मन में
एक उबाल-सा उठता था जो कहना चाहता था, मैं हिंदू भी तो नहीं हूं। यदि हिंदू होता
तो हिंदू मुझसे इतनी घृणा, इतना भेद-भाव क्यों करते ? बात-बात पर जातीय-बोध की
हीनता से मुझे क्यों भरते? मन में यह भी आता था कि अच्छा इन्सान बनने के लिए
जरूरी क्यों हो कि वह हिुदू ही हो...हिंदू की क्रूरता बचपन से देखी है, सहन की
है। जातीय श्रेष्ठता-भाव अभिमान बनकर कमजोर को ही क्यों मारता है ? क्यों
दलितों के प्रति हिंदू इतना निर्मम और क्रूर है ? ‘’
‘जूठन’ में ही
आपने अनुभवों के हवाले से दलित समाज के उन देवी देवताओं का जिक्र किया है जिसके
आधार पर आपने रखना चाहा है कि दलित समाज हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं रहा है। ‘’कहने
को तो बस्ती के सभी लोग हिंदू थे, लेकिन किसी हिंदू देवी-देवता की पूजा नहीं करते
थे। जन्माष्टमी पर कृष्ण जी नहीं, जहारपीर की पूजा होती थी या फिर ‘पौन’ पूजे
जाते थे। वे भी अष्टमी को नहीं, ‘नवमी’ के ब्रह्ममुहर्त में।
‘’इसी प्रकार
दीपावली पर लक्ष्मी का पूजन नहीं, माई मदारन के नाम पर सूअर का बच्चा चढ़ाया
जाता है या फिर कड़ाही की जाती है। कड़ाही यानी हलवा-पूरी का भोग लगाया जाता है।‘’
दरअसल हिंदू धर्म
ही नहीं, कोई दूसरा धर्म भी आपको रुचता नहीं था। अम्बेडकरवादी चेतना के बावजूद
आपने बौद्ध होना भी तो नहीं स्वीकारा था। उम्मीद से आपके पास आने वाले उन नव
बौद्धों को कई बार निराश ही होना पड़ा जब आपने उनके आग्रह को स्वीकारने का कोई
संकेत भी उन्हें कभी नहीं दिया। बहुत करीबी बातचीत में आपने ही एक बार बताया था, ‘’ये
सज्जन, जो अभी तुम्हारे आने से पहले ही निकले, चाहते हैं कि मैं बौद्ध हो जाऊं।‘’
बावजूद बुद्ध के प्रति प्रेम और आदर के आपके चेहरे पर दिए गये प्रस्ताव को दृढ़ता
से नकारने के भाव थे। बौद्ध होना आपको स्वीकार्य नहीं था। हिंदू आप थे नहीं। सच
तो यह है कि मनुष्य की पहचान धर्म से हो, आपकी समझदारी में यह विचार ही खराब था।
# स्मृति
2 comments:
यह एक तरह से हिंदी के दलित साहित्य के इतिहास की भी पड़ताल है।
इस स्मृति यात्रा को किश्त दर किश्त पढ़ना अच्छा लग रहा है। एक रचनाकार के व्यक्तित्व, उसकी रचना यात्रा के वर्णन साथ साथ दलित विमर्श के इतिहास की गहरी पड़ताल भी आप कर रहे हैं जो अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस दस्तावेजीकरण के लिए निसंदेह आप बधाई के पात्र हैं। अगली किश्त का इंतजार रहेगा विजय जी।
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