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Saturday, March 20, 2010

अवचेतन कला कैनवास पर तो ज्यामितीय आकारों के भीतर ही होती है

लखनऊ फाइन आर्ट कॉलेज में आर्किटेक्चर डिपार्टमेण्ट के विभागाध्यक्ष रहे डी0 एल0 साह की चित्रकला में रूचि और दखल समान है। अपने लैण्डस्केप चित्रों में उदासी के रंगों को फिराते चित्रकार साह के पास चित्रकला एक विजन के रूप में भी मौजूद है। प्रस्तुत है चित्रकार डी0 एल0 साह से रोहित जोशी की बातचीत के अंश-

रोहित जोशी
9837263452
सबसे पहले तो अपने बारे में बताइए कि आप में कला अभिरूचियां कहां से पैदा हुई? और आपके कला कर्म की शुरूआत कहां से रही है?
डी0 एल0 साह: जब मैं आठवीं या नवीं कक्षा में पढ़ा करता था तो मेरा आर्ट अच्छा समझा जाता था, फिर जब मैं दसवीं के बाद लखनऊ फाइन आर्टस् कालेज में गया तो मेरी दिली ख्वाहिश फाइन आर्टस को ही विषय के रूप में लेने की थी लेकिन हमारे प्रोफेसर श्री विशाल लाल साह ने कहा कि तुम फाइन आर्ट नहीं करोगे। तुम्हैं वास्तुकला में एडमिशन लेना है। इस तरह मैंने वास्तुकला में एडमिशन ले लिया। कुछ समय बाद जब में दशहरे की छुट्टियों में पिथौरागढ़ आया तो यहां मैं वहां प्रकृति को देखकर विचलित हो उठा। क्योंकि इससे पहले मैं चित्रकला की गम्भीरता को समझता नहीं था और स्कूल में फूल पत्ती आदि के चित्रण को ही कला मानता था। लेकिन आर्टस् कालेज में फाइन आर्टस् के स्टूडैण्ट्स को कार्य करते हुए देखा था खास कर कि लैण्डस्कैप में। तो पिथौरागढ़ की बेहद खूबसूरत वादियों में मेरा विचलित हो उठना लाज़मी ही था। मेरे भीतर का चित्रकार इन छुट्टियों भर हिलोरे मारता रहा और उसने मुझे चित्रकला की ओर खींचा। नतीजा ये हुआ कि आर्टस् कालेज के, अपने चित्रकला की तकनीकों के ऑब्जर्वेशन्स के चलते मैंने लैण्डस्कैप्स बनाने शुरू कर दिए। मुझे कॉलेज में चित्रकला के अनुरूप माहौल मिला। हम एक दूसरे के काम से सीखा करते थे। जो भी लैण्डस्कैप मैं करके लाता अपने सीनियर्स को दिखाता। वहां एक टीचर थे फ्रैंक रैसली। वे लैण्डस्कैप के बड़े चित्रकार थे उन्हें मैं अपना वर्क जरूर दिखाता था। उनके सुझावों से मेरा काम काफी परिष्कृत हुआ। वहां तमाम कलाकारों के संपर्क मंे आने से मुझे कई चीजंे सीखने को मिली और मेरा एक अपना स्टाइल भी बनने लगा था। एक तरह से ये हो रहा था कि वास्तुकला मे रहते हुए चित्रकला की ओर ज्यादा आकृष्ट था।
आपने किन किन माध्यमों पर काम किया है?
डी0 एल0 साह:- मैंने शुरूवात तो वॉटर कलर्स से ही की और लैण्डस्कैप ही ज्यादा किया था। उसके बाद धीरे धीरे जब वॉटर कलर मेरी पकड़ बनने लगी तो फिर स्टूडियो वर्क मैंने आयल कलर्स से करने शुरू किए। आउटडोर वर्क तो मैं तब भी वॉटर कलर या फिर स्कैचिंग से ही किया करता था।
तो रचनाकर्म के लिए आपने लैण्डस्कैप के अतिरिक्त कौन सी विधाएं चुनी हैं ?
डी0 एल0 साह:- प्रतिनिधि रूप से लैण्डस्कैप में ही मैंने काम किया है इसके अतिरिक्त कम्पोजिषन भी तैयार किए हैं। कम्पोजिषन्स में जो फिगर आए हैं वो भी निभाऐ हैं। लेकिन पोट्रेट मैंने कभी एक्सपर्टाइज के साथ नहीं बनाऐ।
मुख्य रूप से लैण्डस्कैप की विधा चुनने के क्या कारण रहे?
डी0 एल0 साह:- कारण ये रहे कि प्रकृति के आयाम बहुत वास्ट हैं। उसकी कोई लिमिट्स नहीं हैं। इसलिए मैने लैण्डस्कैप को विधा के रूप में चुना। लोग कहते हैं कि प्रकृति को चुन कर आप क्या कर लेंगे? लेकिन मेरा स्पष्ठ मानना रहा है कि नेचर में सब कुछ है। आपने अल्मोड़ा के एक चित्रकार बुस्टर का नाम सुना होगा उनका काम देखिए उन्होंने अल्मोड़ा की आत्मा को पकड़ डाला है। उनके फ्रेम लीजिए उनके रंग लीजिए। वो कार्य की पराकाष्ठा है। मैंने बांकी कलाकारों को भी देखा है वो कार्य की उस गहराई तक नहीं जा पाऐ हैं। लेकिन 'बुस्टर" के चित्रों में लगता है जैसे अल्मोड़ा की मिट्टी उधर है।
एक सवाल मेरा है, कला के दर्शन से। कला जन्म कहां लेती है?
डी0 एल0 साह:- कला की उत्पत्ति के बारे में मेरा अनुभव है कला ईश्वर की कृपा से जन्म लेती है। इसके लिए कोई जरूरत नहीं कि आप कितना पढ़े लिखे हैं अगर आप पर कृपा है तो आप कलाकार हो जाऐंगे। कबीर का उदाहरण ले लीजिए कबीर अनपढ़ थे लेकिन उनके भीतर रचना कर्म कर सकने की अद्भुत् क्षमताऐं थीं। यदि कोई ये समझे कि मैं बहुत ज्यादा पढ़ लिख कर कलाकार बन जाऊंगा तो आर्ट्स कालेज से आज तक न जाने कितने ही लोग प्रशिक्षित हुए लेकिन कलाकार कितने बने ये देखने वाली बात है।
कला कला के लिए और कला समाज के लिए की दो बहसें हैं इनमें आप अपनी पक्षधरता कहां पाते हैं?
डी0 एल0 साह:- देखिए मैं समाज को कोई मैसेज नहीं देना चाहता। वस्तुत: मैं कबीर से बहुत प्रभावित रहा हूं। क्योंकि जो उसके स्टेटमैंट्स रहे हैं उसमें समाज की कोई परवाह नहीं है। जो कुछ उसने कहना था कह डाला। और उसी तरह का मैं पेण्टर हूं। मैं स्पोन्टिनियस पेण्टर हूं किसी भी चीज से मैं प्रभावित होता हूं तो उसको मैं अपनी तरह से अभिव्यक्तित करता हूं। दूसरी ओर मैं गौतम बुद्ध को लेता हूं। गौतम बुद्ध अभिजात्य परिवार से संबद्ध रहे हैं वे ऐकेडमिक भी रहे हैं। उन्होंने हर एक बात नपी तुली बोली है। लेकिन कबीर ने ये नहीं देखा। कबीर ने अपने कला बोध से पानी में आग लगते हुए भी देखी गौतम बुद्ध ने तर्क तलाशे। ऐसे ही मछलियों को पेड़ में चड़ते हुए कबीर देख सकते हैं गौतम बुद्ध नहीं। ऐसे ही पेंटिंग की दुनिया में आप चित्रकार एम0 सलीम को ले लीजिए वह एक डिसिप्लिंड पेंटर हैं। ऐकेडमिक किस्म के। गौतम बुद्ध की तरह। और मेरे चित्रण में अराजकता है जैसी आप कबीर के भीतर पाएंेगे। अगर समाज मुझसे मैसेज लेना चाहे तो ठीक है लेकिन में कोई मैसेज देना नहीं चाहता।
तो एक प्रश्न यह उठता है कि ऐसी स्थिति में एक कलाकार को समाज स्वीकारे क्यों? क्योंकि अन्तत: स्वीकार्यता तो समाज की ही है?
डी0 एल0 साह:- हां समाज की स्वीकार्यता तो है। लेकिन जिसको समाज ने कभी अस्वीकार किया है तो बाद में स्वीकार भी किया है। जैसे आप 18वीं षताब्दी में विन्सेन्ट वान गॉग को देखिए उन्हें कलाजगत में स्वीकार ही नहीं किया जाता था। लेकिन आज वो कला जगत का बड़ा नाम हैं।
कला की जो मुख्यधारा है उसमें अभी अवचेतन कला को बड़ी मान्यता है। इसे आप कैसे देखते हैं?
डी0 एल0 साह:- देखिए मैं एब्स्ट्रैक्ट आर्ट को लगभग 1956 से देख रहा हूं। लेकिन अवचेतन कला जिसे कहा जाता है कि विचार से जन्मीं कला। कैनवास पर तो वह ज्यामितीय आकारों के भीतर ही है। अवचेतन तो कुछ नहीं है। उसके लिए जो आकार हमने लिए हैं वो भी प्रकृति से इतर नहीं हैं। हां लेकिन एक ट्र्रैण्ड चल पड़ा है।
एक सवाल अब कुमाऊं की लोकचित्रकला के इतिहास पर है कि इसका विकासक्रम क्या रहा है?
डी0 एल0 साह:- कुमाऊं में चित्रकला की जो परम्परा मुख्यधारा की रही वो तो अंग्रेजों के आने के बाद ही की है। लेकिन इससे पहले ऐपण की और ऐसे ही लोकचित्रण की परम्परा और उससे भी पहले गुहाकालीन मानव की चित्रण अभिव्यक्ति रही है। पिछले 100 सालों और 150 सालों के भीतर जो यथार्थवादी अभिव्यक्ति कला की हुई है वो छिटपुट ही रही है और जितनी भी रही है या तो वो अंग्रेजों ने ही की या फिर अंग्रेजों की प्रेरणा ने ही उसके पीछे काम किया।

Sunday, February 28, 2010

हर रचनाकार की पहली चेष्टा समकालीन होने की होती है।



वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी से हमारे साथी राजेश सकलानी की यह बातचीत अक्टूबर 2009 की है जो कि एक पत्रिका के लिए की गई थी। हमें खुशी है कि बातचीत को पत्रिका से पहले हम इस ब्लाग के पाठकों तक पहुंचा पाने में सक्षम हुए।


हर रचनाकार की पहली चेष्टा समकालीन होने की होती है। अगली कोशिश आगे निकलकर आधुनिक होने की होती है। यदि वह चिन्तनशील और समर्थ है तो उसे आधुनिकता की खोज करना आना चाहिए।
अविष्कार की यह परंपरा हमारे प्राचीन संस्कृत काव्य में विद्यमान रही है। बहुत विकसित रूप में।
समकालीनता के साथ कवि की एक निजकालीनता भी होती है जो उसे केवल एक तरह के समय में नहीं रहने देती। कभी वह अपने समय को गुफा कालीन और अग्निविहीन समय में ले जाता है। कभी पाषाणकालीन पशुवान समय में। तभी वह इतिहास के सभी समयों को लांघता हुआ प्रथम विश्वयुद्ध से पहले के समय में ले जा लेता है। अपनी माइथोलॉजी के कारण तभी वह अपने को महाभारत के युद्ध में खड़ा पाता है जहाँ विचार और दृष्टिकोण का काव्यात्मक विस्तार पाता हुआ वह पछतावे के बावजूद उद्यम तत्पर अपने को देखने लगता है। "गीता" को वह कविता की पुस्तक कहे या कर्म और जीवन की। जो भी हो वह कविता की भाषा की अद्भुत तार्किक निष्पत्ति है। इन दीर्घकायताओं से निकलकर आये बिना समकालीनता बनती नहीं है। अपनी निजकालीनता में अपनी निजता को सभी जगह से बटोरना पड़ता है। तब समकालीनता की परिस्थिति बनती है अन्यथा समसामयिकता बनकर रह जाती है। सामयिक से सम-सामयिक में फैलना और अपने होने न होने को वहाँ पड़तालना समकालीन होने की पहली चेष्टा कहा जा सकता है। पड़तालना समकालीन होने की पहली चेष्टा कहा जात सकता है। लेकिन काल के वृहत्तर आयामों की ओर अग्रसर होना समकालीनता से महाकालीनता में प्रवेश मिल सकता है।
सारे समयों में ज्ञानात्मक यात्रा कर चुकने के बाद, पाने-खोने की बेहतर और खराब उपलब्धियों के संज्ञान के बाद, यह समझ में आता है कि क्या है जो अभी नहीं है। क्या था जो सोचा गया पर पाया नहीं जा सकता। क्या-क्या है जो शेष है और क्या-क्या है जो निश्शेष हो चुका है। तब पता चलता है कि केवल आज का दिन था जो सृष्टि में संभव करने के लिए बचा हुआ था और जिसकी अपनी अलग वजहें हैं। मनुष्य से वे वजहें जुड़ी हुई होकर भी उसकी मोहताज नहीं हैं। मनुष्य अलग है और प्राकृतिक वजहें एकदम अलग-अलग भी होती हैं और होती रहती हैं। प्राकृतिक "आज" खासकर समय के केन्द्र में लाखों-करोड़ों वर्षों से मौजूद सूर्य की नियमित देनों में से एक है। पर आज के संसाधनों को जो स्वरूप उनकी प्रकृति को पहचान-पहचान कर मनुष्य ने पैदा किया है वह अकेले किसी सूर्य और चाँद के बस कार नहीं था। मनुष्य का "आज" नितान्त आधुनिक हो गया है। मनुष्य का "आज" सूर्य और चाँद के बिना भी काम शुरू कर सकता है। मनुष्य का "आज" उसका सत्व और परिश्रम , दोनों हैं। भाषा, टेक्नोलॉजी और रहन-सहन से लेकर अंतर्दाह विश्वासों तक यह आधुनिकता की समझ और ज़रूरत पैदा करने वाला तत्व फैला हुआ है। आधुनिक होना अपने प्राचीन होने को सबसे पहले स्वीकारता है। आज भले ही आधुनिक होने के लिए उसे पाषाणकालीन मनुष्य से भी अधिक मेहनत करनी पड़ती है, क्योंकि आधुनिकता का केवल कोई एक पहलू महत्वपूर्ण न होकर समूची आधुनिकता ज़रूरी हो गयी है। अन्यथा फिर कवि हो या कोई साधारण मनुष्य, उस में पुरानी परिपाटियाँ फिर से स्वत: काम करने लग जायेंगी। क्योंकि आधुनिकता की कोई एक बनी-बनाई परिपाटी नहीं है। इतना जरूर है कोई मनुष्य आधुनिकता में कैद होकर सोचना चाहे तो ज़रूरी नहीं कि परिणाम कितने स्वाभाविक हैं। अज्ञात, अस्वाभाविक और अप्रयुक्त परिणाम आधुनिकता को प्रिय रहे हैं। अपनी रचनाओं में भी कवि का यह अविष्कार उसे कई प्रकार की परिपाटियों से विरत करता है। कभी वह रूढ़ियों से भी किसी नयी परम्परा की शुरुआत कर ले जाता है। संस्कृत काव्य ने भी अपनी रूढ़ियों को सार्थक आधुनिक रूप दिये हैं और समकालीनता के आग्रह में आज का कवि भी अपने समय के कुतुबनुमा को घुमाते हुए दिखता है। कविता के कुतुबनुमें में उत्तर दिशा या कोई भी दिशा अतनी सुनिश्चित नहीं होती। फिर भी उसके प्रश्न उत्तर की ओर बल्कि सही उत्तरों की ओर झोंक खाते प्रतीत होते हैं। संस्कृत काव्य में समय का संधान अपनी विषय-वस्तु के कारण आधुनिक व आकर्षक है बजाय अपने शिल्प विधान के। संस्कृत साहित्य में शिल्प विधान की आधुनिकता वैचारिक आधुनिकता की अपेक्षा कम दिखाई देती है। जीवन और उसके व्यवहारिक संकटों का आधुनिक प्रकटीकरण सस्कृत वांगमय में अधिक दिखता है। शिल्प वैविध्य नहीं। यही वजह है कि कुछ चीजों की रूढ़िया जरूर टूटी लेकिन परम्परायें नहीं टूट पायीं। समसामयिकता तब समकालीनता की ओर जाती है जब इतिहास की ओर उन्मुख होकर उसका हिस्सा होना चाहती है। आधुनिकता इतिहास को आगे बढ़ाती है। आधुनिकता की खोज इतिहास के संग्रहालय में रखने के लिए नहीं की जाती बल्कि वह जीवन के दैनिक व्यापार और व्यवहार को सटिक और कारगर बनाने की सार्थक कोशिश के रूप में जाँची-परखी जाती है।
इधर हिन्दी कविता का वर्तमान गहरे राजनैतिक संकट में फँसा हुआ है। कई बार रचनाकर्म में तल्लीन रहना अपराध बोध जगाता है। हमें शायद तोड़ने और बनाने के काम में कहीं ओर होना चाहिए था।
किस तरह के रचनाकार्य में हम तल्लीन हैं? समकालीन या आधुनिक? कविता और साहित्य की अन्य विधाओं की रचनात्मकता कतई भाषा आधारित है। भाषा पर हमारा क्या काम है? भाषा की बनती-बिगड़ती और संवरती रंगतों को हम कितना जानते हैं? समाज द्वारा रची हुयी भाषा को हमने कहाँ-कहाँ पर कितना और रचा है? ऐसे कुछ उदाहरण हैं समकालीन रचनाकारों के पास? यदि ऐसा है तो नया अनुभव पर अर्थ वाले अद्यतन रचें हुए शब्दों का एक छोटा ही सही कोष हमारे पास होना चाहिए। भाषा के नये रसायन को हम समझ नहीं पा रहे हैं, कहीं इसी बिन्दु से अपराधबोध नहीं उपज रहा? भाषा उतनी ही पर्याप्त नहीं है जितनी वह बरती जा चुकी है। भाषा जितनी चालू है उसमें से और क्या-क्या किस तरह बनया जा सकता है। किस तरह बनाने की बात ही शायद शिल्प का निर्धारण कर सके। तब शायद यह सही लग सकता है कि हमें तोड़ने और बनानें के काम में कहीं और होना चाहिए था। कहीं का अभिप्राय है यहीं कहीं और। हो सकता है प्रकृति के किसी संसाधन को हजारों लाखों वर्षों बाद हम प्रयुक्त करने लायक समझदारी प्राप्त कर सकें। इसका मतलब यह नहीं है कि प्रकृति हमसे अधिक आधुनिक है। आधुनिकता उपादानों, उपकरणों के बदलाव और श्रम में आराम से समझ में आती है। गति में इतनी तीव्रता की समय कम लगे। धन और परिश्रम एक बार चाहे ज्यादा लग जाए। सूर्य और वर्षा जल का विविध उपयोग यह प्रकृति की नहीं मनुष्य की देन है। ज्ञानी नहीं विज्ञानी ही आज भविष्यवाणी कर सकता है। ज्ञान और विज्ञानी ही चिन्तनशील और समर्थ है। वे समकालीन रचनाएँ अपने समय को लाँघ कर आगे के समयों में चली जाती है जिनमें समाज का क्रियाशील मन किसी रचनात्मक प्रेरणा से सक्रिय दिखता है। जिस भाषा में नई सामाजिक परिस्थितियाँ दिखती है उसी में अछूते शब्द अनुभवों का तत्व दर्शन करने चले आते हैं।
चलिए सीधी बात पर आते हैं। लोकतंत्र यदि साफ तरह से साधारण जन को गुमराह करने वाला शब्द बन जाए तो आधुनिकता को परिभाषित करने का काम तात्कालिकता, तत्परता और आपात्कालीनता की माँग करता है।
लोकतंत्र खुद एक आधुनिक तरीका है जनता की इच्छा को आदर देने का। लोकतंत्र शब्द यदि गुमराह और धोखाधड़ी करता है तो उसका निवावरण तात्तकलिता, तात्परता और आपत्कालीनता नहीं कर सकती। लोकतंत्र को एक जन-तार्किकता ही बचा सकती है। आधुनिकता का एक अर्थ प्रयुक्त साधनों को नया और बेहतर रूप देना। आधुनिकता परिभाषित कम और परिमार्जित ज्यादा करती है। आधुनिकता कभी विस्तार तो कभी कतर-ब्यौंत, दोनोंके सहारें चलती है। आधुनिकता को हर बार ईजाद करना पड़ता है।
आपकी बातों से लगता है कि लिखना सामाजिक, राजनैतिक हिस्सेदारी से बिल्कुल अलग कोई कर्म है। रचनाकारों और पाठकों की एक स्वायत दुनिया है। " ययो तस्थौ" पद में भी गतिमानता है। यह मुझे इसलिए याद रहा है क्योंकि "इस यात्रा में" और "घबराए हुए शब्द" तक आप में प्रश्न उठाने की विकलता है। वह बाद के संग्रहों में कम हुई है। स्वाभाव में तत्वदर्शी होने की कोशिश बढ़ती गई है। कुछ-कुछ शास्त्री होने जैसी भंगिमा।
मुझे लगता है कि तोड़ने और बनाने की बीच की स्थिति है "न ययौ, न तस्थौं"। हर बार कुछ करना और कुछ न कर पाना टकरा जाता है। पर इस टकराने से हर बार कोई वांछित-अवांछित विस्फोट नहीं होता। कोई अपराध-बोध भी पैदा नहीं होता। एक समकालीनता पैदा होती है, न जा सका (सकी) , न रुक सका के अर्थ को संवहन करने वाली। यह समकालीनता न रुकी हुई है न अग्रसर हो पायी है। लेकिन प्रस्थान कर चुकी है। अपना प्रस्थान उसने बना लिया है। इसमें वापसी संभव नहीं है। कहीं न कहीं पहुँचना ही इस समकालीनता का भविष्य है। भविष्य ही इसमें वह संभावना है जो कुछ निर्धारित या प्रतिपादित कर पायेगी। आप पीछे की ओर जा रहे हैं। "इस यात्रा में" और "घबराये हुए शब्द में" प्रश्न उठाने की विकलता पा रहें है। क्या प्रश्न उठाना ही बड़ी बात है या कौन से प्रश्न उठाना बड़ी बात है? काश की प्रश्नों की प्रजाति, स्वभाव इत्यादि कुछ चिन्हित हो सका होता। मैंने तो प्रश्न उठाया ही नही। अगर उठाये हैं तो उन परिस्थितियों ने उठाये है जिनकी वजह से वे कविताएँ बनीं। कविताओं की परिस्थिति क्या हैं और उन परिस्थितियों की काव्य परिणति क्या है? बाद के संग्रह यानि कि "भय भी शक्ति देता है" "अनुभव के आकाश में चाँद", 'महाकाव्य के बिना" की एक लम्बी कविता "अनुस्मृति", 'ईश्वर की अध्यक्षता में", "खबर का मुँह विज्ञापन से ढका है"। अभी तक हिसाब से यहीं पाँच संग्रह बनते हैं। पाँचों को प्रश्नाकुलता से रहित नहीं कहा जा सकता। हाँ, मैं केन्द्रित प्रश्न कम हुए हैं। बिना प्रश्नों के कौन सा तत्व दिख जायेगा?
"बची हुई पृथ्वी" (1977) में बलदेव खटिक कविता में रंगतू, बलदेव खटिक और सत्ता का चरित्र बहुत स्पष्ट रूप से पकड़ में आता है। आज की तारीख में अब यह भी मुश्किल लगता है। एक शहरी जीवन बिताते हुए अधिसंख्य रचनाकार क्या साफ किस्म की पक्षधरता से क्या थोड़े कम साबित नहीं हो रहे हैं? सत्ता का एक नकली तरह का विरोध सामने दिखता है।
"बलदेव खटिक" कविता में मनुष्य के उस दुख को उकेरा गया है जिसे मार्क्स कहते हैं कि मनुष्य से शक्ति भर लो लेकिन ज़रूरत भर दो। लेकिन व्यवस्था ने लेना तो उसकी शक्ति से अधिक शुरू कर दिया है और देना उसकी ज़रूरत के अनुसार नहीं बल्कि अपनी सामर्थ्य के अनुसार शुरू कर दिया है। यहाँ एक ही घर के भूख और न्याय पैदा होना चाहते हैं। जिस घर में लोहार है उसी घर में धरातल पर पुलिस का सिपाही भी अन्याय से पीड़ित होकर शरण पाना चाहता है। न्याय करने वालों का पता भले ही न चले पर अन्याय की मार खाने वालों के ठिकानें हमें अक्सर मिल जाते हैं। अपराधी और पुलिस एक ही खदान से पैदा हो रहे हैं। गालियों से रिश्ते याद आ रहे हैं। असंगति और विडंबना ने ताल मेल बिठा लिया है। एक बार दिमाग की स्थपित व्यवस्थाओं से लगता है बाहर आना पड़ेगा। तभी जीवन को नये सिरे से व्यवस्थित करने की शुरुआत बलदेव खटिक कर सकता है। हारे हुए व्यक्ति को लगता है कि गड़बड़ मेरी वजह से है। इस अधूरे आत्म-ज्ञान से असली, नकली और नकली, असली दिखने लगता है।
1964 में अपना पहला संग्रह प्रकाशित हुआ। शायद आप सीमान्त जनपद उत्तरकाशी में उस वक्त थे। जवाहर लाल नेहरू की स्वपदर्शिता और गाँधी के आदर्श के उस जमाने का कोई भी प्रभाव आपकी रचनाओं पर स्पष्ट रूप से नहीं दिखता। विक्षोप के कारण उस पर्वतीय जनपद में तब से ही है। यह राजनीति कैसे बनती है आपके यहाँ धर्मभीरु और सत्ता पर भरोसा करने वाली जनता के बीच।
"शखमुखी शिखरों पर" (1964) का रचना समय 1960 से शुरू हो जाता है ओर 1964 में खत्म। क्योंकि फिर मैंने अपना शिष्य ही नहीं अपना नाम भी बदल दिया "शर्मा" को "जगूड़ी" कर दिया। मैंने सोचा था "शर्मा" से ब्रह्मण होने का बोध बिना बताये हो जाता है जो कि एक गाँव (जोगथ) से उत्पन्न जगूड़ी जैसे स्थानवाची शब्द से नहीं होगा। जाति वाचक नाम को त्यागने में क्या गाँधी या उस जमाने में सक्रिय गाँधीवादी डॉ। सम्पूर्णानंद का आग्रह कहीं आपको काम करता हुआ नहीं दिखता। मैंने अपने लिए "अमल", विमल, कमल, भ्रमर, पराग, पुष्प और नवीन-प्राचीन जैसा नहीं चुना। क्या इसमें आपको महात्मा गाँधी की सादगी और जैसे हम हैं वैसे दिखने की चेष्टा नहीं दिखती। जवाहरलाल नेहरू भी "कौल" जाति की कश्मीरी ब्राह्मण थे लेकिन नहर के किनारे घ्ार होने से नेहरू वाली पहचान उन्हें अच्छी लगी। क्या यह जातिहीन होने की ओर एक छोटा सा ही, सही कदम नहीं माना जायेगा। हम लोग कुछ खास पैमानों के आदि हो गये हैं। न नया कुछ सोच पाते हैं न नया कुछ ढूँढ़ पाते हैं। विक्षोप वहाँ भी है और "नाटक जारी" में भी है। पर्वतीय जनता को मैं धर्मभीरु और राजसत्ता पर भरोसा करने वाला कतई नहीं मानता।
चीनी, आटा, चावल, दाल, सब्जियाँ जैसी बुनियादी चीजों के दाम इतनी तेजी से बढ़ गए है। यह जनता पर दमन की नई नीति है सत्ता की। इन बढ़ी हुई कीमतों का पैसा कहाँ जा रहा है यह किसी से छिपा नहीं है। रचनाकारों और कलाकारों पर अकर्मण्यता का निश्चित आरोप बनता है।
भारतवर्ष में उत्पादन का मतलब है गेहूँ, धान, दाल, सब्जी और ज्यादा से ज्यादा दूध और बागवानी अर्थात फलों को भी आप इसमें गिन सकते हैं। ये उत्पादन भारत में अपने लिए ही पूरे नहीं पड़ते। कपास को भी यहाँ सामान्य उत्पादन नहीं माना जाता क्योंकि गेहूँ, धान और बाजरे की तरह यह हर जगह नहीं होता। दालों में उड़द हर जगह होती है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि कारों का उत्पादन अधिक होता है तो मैकेनिकल इंजीनियर परिवारों में खुशी का तब जल सकता है जब कारों की बिक्री बढ़े। मोटर साइकिलों की बिक्री बढ़े। इससे शंकरकंद पैदा करने वालो ओर बेचने वालों की खुशी नहीं बढ़ सकती। मँहगाई बढ़ी और बहुत ज्यादा बढ़ गयी है। सबकी माँग थी कि तनख्वाहें बढ़े। तनख्वाहें पहली बार अपार सीमा तक बढ़ गयी है। टेक्नोलोजी की माँग थी कि उपभोक्ता की क्रय शक्ति बढ़े। वेतन बढ़कार क्रय शक्ति बढ़ा दी गयी। यह नहीं सोचा गया कि जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के बाजार का क्या होगा। गेहूँ, गोभी, धान और टमाटर की टेक्नोलोजी को कृषि है जैसे ऑक्सीजन की टेक्नोलाली जंगल है। वेतन बढ़ाने से पहले कृषि ओर पशु आधारित उत्पादों को न्यायोजित बढ़ा हुआ मूल्य प्रत्येक पाँच वर्ष के लिए घोषित कर दिये जाने का कोई नियम हमारे यहाँ नहीं है। इसलिए नियंत्रण भी नहीं है। महँगी टेक्नोलाजी और आधुनिक महँगे रहन-सहन ने तनख्वाहें बढ़ायी नतीजा यह हुआ कि सारा श्रम और सारा उत्पादन महँगा हो गया। चिंता यह नहीं है कि यह बढ़ा हुआ पैसा जो बे-नौकरीपेशा जनता दे रही है यह कहाँ जा रहा है बल्कि प्रश्न यह है कि यह कहाँ जा रहा है?
किसानों, मजदूरों, मेहनतकशों और उत्पीड़ितों के साथ कवि अपने को पाता है लेकिन कवि न फूड इस्पेक्टर है या लेबर इस्पेक्टर, न कृषि मंत्री और न श्रम मंत्री। कवि नियति का लेखाकार है उससे टेक्स का हिसाब माँगना गैर-जिम्मेदारी और ना समझी दोनों है।
वेतन बढ़ाये गये है तकनीकी रूप से महँगे उत्पादों को खरीद क्षमता के अन्तर्गत लाने के लिए न कि दाल-रोटी तक पहुँच बनाने के लिए। दाल-रोटी जो लोग पहुँच से बाहर बना रहे हैं असल में वे भी अपने लिए इसी साल अपने लिए एक नई कार खरीदना चाहते हैं। प्रत्येक नागरिक को शिक्षित और टेक्निकल बनाना जरूरी है अन्यथा वह संस्कृति के अनेक अंधविस्वासों का शिकार होता रहेगा। कविता में भाषा में अन्तर्निहित कर्म का हमेशा पक्ष लिया है। आत्माओं की जासूसी की है, बाजार भाव पर नियंत्रण उसके वश का नहीं।
कविता में विमर्श का वर्तमान दौर आपकी कविताओं में पहले से विद्यमान रहा है। यद्यपि इसका हवाला दिया कोई नहीं देता। हमारे सामाजिक, राजनैतिक व्यवहार का विखंडन कर उसमें छुपें मन्तव्यों और रूढ़ियों की चीर-फाड़ आपके प्राय: सभी संग्रहों में है। हाँ मैं यह जरूर कहूँगा कि अपेक्षाकृत एक कम नजर आने वाली शास्त्रीय परम्परा को आपने विकसित किया है। जीवन को परखने की आपकी दृष्टि और उपकरण नितान्त भारतीय है।
विखंडन भी सबसे प्राचीन आधुनिकता है। भारत में विमर्श को खंडन-मंडन की विधा माना गया है। भारत में वृक्षों की पूजा की जाती है और वृक्षारोपण को वंश वृद्धि के परिप्रेक्ष्य में दस पुत्रों के बराबर माना गया है। लेकिन विमर्श का उद्येश्य मूल तक जाना रहा है। यहाँ जड़ उखाड़ने तक का विचार-विमर्श मान्य रहा हैं यही प्रवृतियाँ अक्सर डॉ। रामविलास शर्मा और डॉ। नामवर सिंह में लक्षित की जा सकती है। मूलगामी प्रवृतियों को पिछड़ेपन की पुनर्यात्रा के रूप में भी माना गया है। आधुनिक होना है तो केवल मूलगामी होने से नहीं चलेगा। जड़ अगर आप उखाड़ भी लाये तो भी समस्या निर्मूल नहीं हो जायेगी। हमें भूल के साथ मौलि (फुनगी) तक की यात्रा करनी है। यह विमश और विखंडन की रचनात्मक यात्रा है। ध्वंस एक खंडहर है। विध्वंस खंडहर को भी तोड़ देता है। सबकुछ तोड़ने के बाद जो मूल फिर मौलि की ओर यात्रा करने लगे वही पुनर्नवा है। वही पुनरोदय है। वही पुनर्भव है। बिना मूल के मौली की आरे जाना संभव नहीं। मेरी कविताओं के बारे में भी अगर ऐसा हुआ तो वही मौलिक विचार-विमर्श होगा। नये विचार उगाने जैसा ही महत्वपूर्ण है विध्वंश में से कुछ पाकर उसका पुनरोपण करना। साहित्य और शल्य चिकित्सा में अस्थियों और ऊतकों की पुर्नप्राप्ति कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह भी विखंडन का सूचनात्मक उपयोग है।
साहित्य में देश-विदेश कुछ नहीं होता उस में जीवन मात्र का अंतराष्ट्रीय अंतरात्मा होता है। साहित्य में भाषा का भूत झगड़ा करवाता है लेकिन मनुष्य के वैश्विक मन का लौकिक स्तर पर ऐकिक दृष्टिकोण उसको बँटने नहीं देता। इससे इन्कार भी नहीं किया जा सकता है कि अंततोगत्वा अनुभूतियों को अपनी कमायी हुई भाषा चाहिए ज़रूर। मैंने अपनी कविताओं के लिए वही भाषा कमायी हैं। किसी की कमायी किसी और को सहाये या नहीं यह उसकी आंतरिक बनावट पर निर्भर करता है। कठिन ही मेरे यहाँ आसान है और आसान ही कठिन भी।
विमर्श की बात को आगे बढ़ाते है। "खबर का मुँह विज्ञापन से ढँका है" में "अपनी सरस्वती की अदरूनी खबर" में सरस्वती पूजा घर से लोगों की बीच में आती है। धार्मिक तंत्र की रूढ़ि से मुक्ति मिलती हैं 'सरस्वती लक्ष्मी सहित मनुष्य का मारा जाना तय है। यह पद आज के यथार्थ का अनुभव कराता है। और यह भी कि पूरी संरचना में आदमी अलग-थलग नहीं है। लेकिन युद्ध मे उतार देने के लिए "बुद्धिजीवियों की जल्दबाजी" को कारण बताना वर्गभेद को थोड़ा क्षीण बना देता है।
सरस्वती की निर्यात मनुष्यों ने कुछ खेत, कारखानों, रोजी-रोटी के युद्ध क्षेत्रों से हटाकर उसकी जगह पूजाघरों में सुनिश्चित कर दी। जबकि मूर्ख समझे जाने वाले कम जानकारों की बुद्धि ने कई बार मानवता को आगे बढ़ाने के चमत्कार किए है। जब युद्ध छिड़े तो सरस्वती विहिन लोगों ने तहखाने बनाये। हर किसी की सूझबूझ और टेक्नोलोजी को सरस्वती का दर्जा हासिल होना अभी भारतीय समाज में बाकी है। यहाँ किताबी कीड़ो के परिश्रमहीन और शोधहीन जीवन को विद्या का वरदान मान लिया गया हैं। इन सरस्वती चिन्हों से हमें बाहर आना पड़ेगा। पृथ्वी की जड़ता और मनुष्य की मूर्खताएँ ज्यादा उर्वर होती है। सरस्वती का संबध असामान्य और असाधारण रचनात्मकता रचना से है। एक स्त्री के सफेद वस्त्र पहनकर कमल के फूल पर बैठ जाना उस समय सचमुच असामान्य और असाधारण घटना रही होगी जिसके दिमाग में भी यह बिम्ब आया हो-जादूई था। लेकिन सफेदी का कारोबार करती आज की विज्ञापन सुन्दरियाँ क्या उस फूल पर बैठायी जा सकती हैं।
मैंने जान बूझकर अपने दो कविता संग्रहों में पहली कविता सरस्वती पर दी। ये तीनों कविताएँ सरस्वती की मिटती-बनती पहचान के बीच उसकी वह पहचान करना चाहती है जो शायद वह थी। सरस्वती भी पिछड़ी हुई भला क्यों रहना चाहेगी। सरस्वती एक विचार, एक उद्यम, एक उत्पादन, एक उपार्जन और अपने में अपना सृजन, अपना निन्धन भी है। एक प्रज्ञा भी हमेशा दूसरी प्रज्ञा की तरह नहीं हुई है। मनुष्य की प्रज्ञा निरन्तरता को जानती चलती है। अगर वह रोजमर्रा के साथ सारे ब्रह्माण्ड की रिलेशनशिप नहीं बैठा सकती तो वह अभी प्रज्ञावान नहीं हुई है।
सरस्वती का शब्दिक अर्थ है - सर: वती। सर अर्थात तालाब और वती माने वाली। जिस तरह "वान" माने वाला होता है। तालाब वाली यह कौन सी बाई है? पानी वाली ताई तो हमारी समूचि प्रकृति है जो अपनी फफूँद से भी कुछ न कुछ बना लेती है। प्रकृति का प्रतीक भी सरस्वती का अच्छा रूपक है। कठोर होन के बावजूद पानी वाली मृदुल और सरस तो होगी ही। जंगलों जैसी नमी से भरी हुई सृजनशील प्रवृत्ति का नाम सरस्वती है। सफेद जलद उसकी प्रतिभा के उड़ते हुए हिस्से हैं।
बुद्धि वर्ग भेद पैदा नहीं करती बल्कि कम करने के तरीक ढूँढती है।

Saturday, January 23, 2010

कलाकार एक चेतना से परिपूर्ण सत्ता है

घुमकड़ी का शौक रखने वाले और कला साहित्य में खुद को रमाये रखने वाले रोहित जोशी ने यह साक्षात्कार विशेषतौर इस ब्लाग के लिए भेजा है। हम अपने इस युवा साथी के बहुत बहुत आभारी हैं। प्रस्तुत है चित्रकार एम0 सलीम से रोहित जोशी की बातचीत---




चित्रकार के रूप में एम0 सलीम से मिलना प्रकृति के विविध पहलुओं से मिलना है। भूदृश्य चित्रण के कलाकार एम0 सलीम के चित्रों में प्रकृति के तमाम रंगो-आकार अंगड़ाई लेते दिखते हैं। जो कई बार रंगों में वॉ्श  तकनीक के प्रयोग से यथार्थ और स्वप्न के कहीं बीच लहराते नजर आते हैं। उनके कैनवास मूलत: इसलिए ध्यान आकर्षित करते हैं क्योंकि वहां प्रकृति की अनुकृति भी प्रकृति से एक कदम आगे की है। उनसे हुई कुछ बातें---
रोहित जोशी

  सबसे पहले तो कुछ बहुत अपने बारे में बताइए? कला के प्रति आपकी अभिरूचि कहां से जन्मीं?
एम सलीम:- यूं तो ये रूझान बचपन से ही रहा है। जब छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो सलेट में पत्थरों के ऊपर चॉख से, या इसी तरह कुछ, कभी जानवरों के चित्र, पेड़-पौंधे मकान आदि ड्रा किया करते थे। इसके बाद ऊंची कक्षाओं में आए यहां काम कुछ परिष्कृत हुआ इसके अलावा कला अभिरूचियों में विस्तार के लिए एक कारण मैं समझता हूं प्रमुख रहा, अब तो यह चलन कम हुआ है, लेकिन पहले लगभग 50से 70 तक के दशक में अल्मोड़ा में बाहर से बहुत कलाकार आया करते थे और साइटस् पर जाकर लैण्डस्केप्स् किया करते थे। उन्हें कार्य करते देखना अपने आप में प्रेरणाप्रद रहा। रूचि थी ही, कलाकारों को देखकर स्वाभाविक ही बड़ी होगी।
चित्रकला सम्बन्धी शिक्षा-दीक्षा कहां से रही?
एम सलीम:- दसवीं पास करने के बाद पिताजी और उनके मित्रों ने मेरी कला में अभिरूचि को देखते हुए मुझे लखनऊ आर्टस् कालेज में दाखिला दिलवा दिया। वहां फाईन आर्टस् का पॉंच वर्षों का कोर्स हुआ करता था। यहीं मेरी कला की समुचित शिक्षा दीक्षा हुई।
आपने किन-किन माध्यमों और विधाओं में काम किया है?

एम सलीम:- मैंने जलरंग व तैलरंग दोनों ही माध्यमों में काम किया है। लेकिन मुख्य रूप से जलरंगों में मेरी बचपन से ही रूचि रही है। तैल रंगों से तो परिचय ही आर्टस् कालेज में जाकर हुआ और जहां तक विधाओं का सवाल है, मैंने लैण्डस्केप, पोट्रेट, स्टिल लाइफ, लाइफस्टडी, और एब्स्ट्रैक्ट आदि पर भी काम किया है। लेकिन यहॉं मुख्य रूप से लैण्डस्केप पर मेरा काम है। जिसे मैं अधिकतम् जल माध्यम के रंगों से ही करता हूं। जल माध्यम भी कला जगत् में बड़ा विवादास्पद रहा है। जो
पुराने मास्टर्स रहे हैं, उनका मानना है कि पानी में घोलकर रंगों को पेपर में लगाया जाना चाहिए। इसमें पारदर्षिता होनी चाहिए। जैसे आपने कोई एक रंग लिया है, और उसके ऊपर दूसरा ले रहे हैं तो सारी परतें एक के बाद एक दिखनी चाहिए। इस तकनीक में अपारदर्शी रंगों का प्रयोग वर्जित माना गया है। लेकिन दौर बदला है और ये मान्यताऐं भी टूट रही हैं। कई नऐ प्रकार के रंग माध्यम आए हैं। ऐक्रेलिक मीडियम है पोस्टर मीडियम है, इनके आने के बाद से आयाम बढ़े हैं।

आपने मुख्य रूप से जल रंगों में जो लैण्डस्कैप को अपनी विधा के रूप में चुना इसके क्या कारण रहे। आपको ये ही पसन्द क्यों आया?
एम सलीम:- इसका मुख्य कारण प्रकृति में मेरी रूचि से था। आप देखेंगे हमारे पास तो काम के लिए छोटा सा  कैनवास है लेकिन प्रकृति के पास ऐसे अनेक कैनवास हैं। इसी से लैण्डस्कैप में बहुत सारी चीजें हैं, जंगल र्हैं, नदियां हैं, झरने हैं, बादल हैं, मकान हैं, पेड़-पौंधे हैं, और भी कई अन्य चीजें हैं जिनको लेकर ताउम्र काम किया जा सकता है।

कला के दर्शन से उपजता एक सवाल मैं आपसे करना चाहुंगा, कि-कला जन्म कहॉं से लेती है? उसका उद्भव कहां है?
एम सलीम:- मेरा इस बारे में जो मानना है वह यह है कि कला मूलत: पैदाइशी है। लेकिन इसे उभारने की प्रेरणा हमारे चारों ओर मौजूद प्रकृति से मिलती है। जो चीज हमें अपील करती है उसके प्रति हमारे भीतर भावनाऐं पैदा होती हैं कि हम इन्हैं अपने मनोभावों के साथ पुन: उतारें, यहीं कला का जन्म होता है। मानव ने अपने प्रारंभिक अवस्था से ही ऐसा किया है।
कला के संदर्भ में दो मान्यताऐं हैं 'कला कला के लिए" और 'कला समाज के लिए" ऐसे में आप स्वयं को कहॉं पाते हैं? और कला के सामाजिक सरोकार क्या होने चाहिए?
एम सलीम:- जो कहा जाता है कि- "आर्ट फॉर दि सेक ऑफ आर्ट" ,'कला कला के लिए" ये अपनी जगह बिल्कुल सही चीज है। इसको आप बिल्कुल इप्तदाई तौर से लें, जब आदमी समाज में नहीं बधा था, तब भी उसने सृजन किया है। प्रकृति की प्रेरणाओं से उसने चित्रांकन किया। लेकिन जब हम समाज में बध गए तो समाज के प्रति स्वाभाविक रूप से उत्तरदायित्व भी बने हैं। समाज के भीतर बहसों की वजहें भी विषय के रूप में सामने आई। कई कलाकारों ने इन विषयों पर काम भी किया। यहां एक बात मैं समझता हूं कि यह कलाकार की रूचि का विषय है कि वे इन पर कलाकर्म करे, न कि उसका उत्तरादायित्व।
कुमाऊं पर बात करें। यहॉं चित्रकला के विकासक्रम को कैसे देखते हैं आप?
एम सलीम:- कुमाऊं के ग्रामीण क्षेत्रों में संसाधनों के अभाव में चित्रकला का विकास मुख्यत: लोककलाओं में ही रहा है। मुख्यधारा की चित्रकला परम्मरा यहॉं देखने को नहीं मिलती है। लोककलाओं में भी ज्यादातर योगदान महिलाओं का रहा है। अपनी अभिव्यक्ति के लिए घर के अलंकरण के जरिए सुलभ उपकरणों, रंगों आदि का प्रयोग कर उन्होंने चित्रण किया है। गेरू, चांवल, रामरज आदि का रंगों के लिए प्रयोग किया है। और इसके अतिरिक्त जो काम कुमाऊं में चित्रकला की मुख्यधारा का हुआ वह नगरी क्षेत्रों में हुआ। यह भी लगभग विगत् एक से डेढ़ शताब्दी पुरानी ही बात है।
आप मुख्यत: प्रकृति के चितेरे रहे हैं। अभी यहॉं मुख्यधारा के कला जगत में अवचेतन कला में प्रधानता आई है। इसे ही मान्यता भी मिल रही है। इसे आप कैसे लेते हैं?

एम सलीम:- नऐ दौर का यह एक ऐसा क्रेज है जिसके बिना हम नहीं रह सकते। यह चित्रकला का समय के सापेक्ष विकास है। देखिए आज फोटोग्रॉफी, चित्रकला की प्रतिस्पर्धा में है। और साथ ही ये तकनीकी रूप से भी बहुत ऐडवांस हो गई है। इससे चित्रकला की पुरानी मान्यताऐं भी टूट रही हैं। कैमरा सिर्फ एक क्लिक में चित्रकार के तीन चार घण्टे की मेहनत सरीखा परिणाम दे रहा है। ऐसे में यदि आप सिर्फ वस्तुओं की अनुकृति मात्र कर देंगे तो वह आकर्षित नहीं कर पाऐगी यदि आप अवचेतन विचारों का अपनी अनुकृति में प्रयोग करेंगे तो यह कलागत् दृष्टि से नवनिर्माण होगा व उसे मान्यता भी मिलेगी। यहां एक बहुत महत्वपूर्ण बात है कि कैमरे के पास मन नहीं होता और न हीं संवेदनाऐं होती है। लेकिन कलाकार एक चेतना से परिपूर्ण सत्ता है जो कि मौलिक सृजन करने की क्षमता रखता है।
अवचेतन कला है क्या?
एम सलीम:- जिसको अवचेतन कला कहते हैं, "एब्स्ट्रैक्ट आर्ट"। तो एब्स्ट्रैक्ट तो वीज्युअल आर्ट में कुछ है ही नहीं। आकार रहित तो कोई कला हो ही नहीं सकती। हां ये जरूर है कि प्रकृति से वह विषय आपके भीतर गया है व रूप बदलकर बाहर आया है। बुनियादी रूप में वह मूर्त था बस जब तक आपके विचारों में रहा अमूर्त रहा लेकिन जब कैनवास में रंगों के माध्यम से उतरा फिर मूर्त हो उठा। हां लेकिन यह मूर्तता उस मूर्तता से अलग है जो वह प्रकृति में है।

Wednesday, May 21, 2008

राज-काज की भाषा और जनता की भाषा

(भाषा को लेकर पिछले कुछ दिनों से हमारे ब्लागर साथी एक ऐसी कार्यवाही में जुटे हैं जो मोहल्ले में विवाद नहीं तो चर्चा को तो जन्म दिये हुए ही है। कल यानि 20 मई को बुद्ध पूर्णिमा थी। वर्ष 2001 में बुद्ध पूर्णिमा के ही दिन मैंने और मेरे कथाकार साथी अरुण कुमार असफल ने तेलगू के कवि वरवर राव के साथ उनके अपने रचनाकर्म, समकालीन साहित्य सांस्कृतिक स्थितियों और तेलगू साहित्य पर कुछ बातचीत की थी। वर्ष 2002 में साहित्यिक कथा मासिक कथादेश के मई अंक में जो प्रकाशित हुई है। तेलगू के कवि वरवर राव द्वारा हिन्दी में दिया गया यह प्रथम साक्षात्कार था। हम दोनों ही साथी तेलगू साहित्य से पूरी तरह से अनभिज्ञ ही थे। कुछ छुट-पुट अनुवाद ही, जो कि सीमित ही हैं, हमने पढ़े भर हैं। बल्कि तेलगू ही क्यों अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य की पर्याप्त संख्या में अनुपलबधता हमें उस से अपरिचित किये हुए है। जबकि अन्य विदेशी भाषा के साहित्य के अनुवाद भी हमने इनसे कहीं ज्यादा पढ़े होंगे। ये सवाल हमारे भीतर उस वक्त मौजूद था। अपनी बातचीत को हमारे द्वारा इसी बिन्दु से शुरु करते हुए हमारी जिज्ञासा को शांत करने के लिए भाषा पर दिया गया वी वी का वक्तव्य यहां इसी संदर्भ में पुन: प्रस्तुत है।)

वरवर राव -

यह एक भूमिका की बात है। एक ऐसी भूमिका जिसका आधार राजनीतिक और आर्थिक सम्बंधों के कारण खड़ा हुआ है। हम भी हिन्दी कविताएं या हिन्दी साहित्य के बारे में थोड़ा बहुत ही जान पाये, या जान पा रहे हैं। पर अपने पड़ोसी तमिल, मराठी, कन्नड़, ओड़िया और अन्य किसी दूसरी भाषा के बारे में इससे भी कम समझ रखते हैं। हाल ही में मेरी तेलगु कविताओं का मराठी में अनुवाद हुआ। उसकी भूमिका में मैंने लिखा - 'दलित पैंथर' को छोड़कर मराठी साहित्य के बारे में मेरी जानकारी बिल्कुल भी नहीं है। हां, थोड़ा-बहत सुना है तो पहले अमर शेख के बारे में बाद में अनाभाव साठे के बारे में इसका मुख्य कारण, उनका जुड़ाव कम्युनिस्ट पार्टी के सांस्कृतिक आंदोलनों से रहा, जिससे कि मैं खुद भी जुड़ा हूं। जबकि पड़ोसी होने पर भी मराठी साहित्य के बारे में तो मैं जानता तक नहीं हूं। पड़ोसी की ही बात नहीं - तेलुगु, मराठी, कन्नड़ भाषा-भाषी बहुत साल तक एक ही राज्य में थे - हैदराबाद में। जहां से मैं आया हूं। यानि जिसमें तेलंगाना है। मैं उस तेलंगाना, मराठवाड़ा के चार जिले, कर्नाटक के तीन जिले (जिसे आज भी हैदराबाद कर्नाटक कहते हैं ) को मिलाकर कुल सोलह जिलों का भौगोलिक क्षेत्र ही हैदराबाद राज्य था। फिर भी हमको एक दूसरे की भाषा नहीं आती। यहां तक कि उनके साहित्य के बारे में भी कुछ नहीं सुना। कारण था कि राज की भाषा उर्दू थी। यानि हमारी भाषाओं ने कभी राज नहीं किया।
भाषा की सदैव दो भूमिका रही है, जबकि होनी चाहिए एक ही। वो एक मात्र भूमिका है, एक दूसरे को समझने की-सम्प्रेषण की। मगर इस देश में भाषा की एक राज करने की भूमिका भी रही है। राज करने वाले की यानि कुलीन वर्ग की भाषा रही है जिसे हम कह सकते हैं ब्राहमणीकल फ्यूडलिज्म। उस समय से लेकर मुगलों तक जनता की भाषा एक थी। राज काज की भाषा दूसरी।
भाषा का एक ऑथोरिटेरियन रोल था। यानि राज काज करने की भूमिका। जो भाषा राज-काज की भाषा रही, वह कभी किसी जनता की भाषा नहीं रही। हमारे देश के लिए यह एक खास बात है और दुर्भाग्यपूर्ण भी, जैसे कहा जाये दो हजार साल पहले जनता की भाषा थी पाली, प्राकृत और अनेक उपभाषाएं, जिन्हें डाइलेक्टस भी कहते हैं। इन सब भाषाओं से पाणिनि ने अष्टाध्यायी लिखा। ग्रामर की रचना और एक प्रमाणिक भाषा का निर्माण किया जिसे संस्कृत कहते हैं। जिसका ब्राहमण शास्त्रों में इस्तेमाल किया गया। वैसे ही एक सत्ता की भाषा बनी जो किसी की भी मातृभाषा थी ही नहीं। बुद्ध ने अपने धम्मपद पाली में लिखकर चेतना से इसका विरोध किया।
अब आधुनिक काल में आयें तो अंग्रेजी सत्ता की भाषा बन गयी। हमारी कोई भी मातृभाषा कभी भी सत्ता की भाषा नहीं रही। अंग्रेजी जो दुनिया के शासकों की भाषा है, दुनिया के साहित्य की गवाक्ष भी बन गयी। जो भी अंग्रेजी से आ रहा है वह हमें प्राप्त हो रहा है।