Thursday, March 3, 2011

खिलखिलाने दो उसे सरे बाजार

मौज लेना एक चालू मुहावरा है। फिर उसके साइड इफ़ेक्ट पर बात करना ? ली गई मौज को मस्ती मान लिया जाए तो मौज बहार आ जाए। मौज का यथार्थ थोड़ा ज्यादा शालीन और कम औपचारिक होते हुए दोस्तानेपन का सबब बने।
हमारे घर के पास रहने वाला वह लड़का जो बोलते हुए हकलाता था, अल्टी नाम था उसका, सब उससे मौज लेते थे। वह भी कम न था। हकला-हकला कर गाली देते हुए पीछे भागता और मौज लेने को आतुर भीड़ से दूसरे की भी मौज लिवाने में कोई कसर न छोड़ता। हालांकि, नहीं जानता था कि उसके हुनर में ही वह ताकत है जो हर एक को मौज लेने का अवसर देती है और माहौल को कुछ ज्यादा आत्मीय बनाती है। डॉक्टर 'होगया’ भी ऐसे ही हुनर का मास्टर, उपन्यास 'फाँस’ का एक पात्र है। प्रस्तुत है उपन्यास का एक छोटा-सा अंश।


         रात के अंधेरे को परे धकेल, खुल चुकी सुबह का वह ऐसा समय था, जब अलसाई हुई दुनिया के मुँह पर पानी की छपाक मारता वह बाजार, जो कस्बे को शहर में तब्दील करने की ओर था, आँखें धो चुका था। रेहड़ी वाले मण्डी से उठाए माल को झल्लियों और माल ढुलाई के लिए लगी गाड़ियों पर लदवा रहे थे। ज्यादातर सब्जी वाले लद चुकी रेहड़ियों को धकेलते हुए अपने-अपने ठिकानों को निकल चुके थे। ठिकानों पर पहुँच चुकी रेहड़ी वाले रेहडियों पर सब्जियां सजाने लगे थे। फल वालों का माल अभी झल्लियों में झूलता चला आ रहा था। टमाटर वाला पेटियों को खोल-खोलकर एक-एक टमाटर उठाता, झाड़न से साफ करता और बहुत ही तल्लीनता से मीनार दर मीनार चढ़ाता जा रहा था। गारे मिट्टी की दीवारों को चिनने वाला कोई कारीगर देखता तो जरूर ही ठिठ्कता। ईर्ष्या करना भी चाहता तो टमाटर के रंग और उनकी चमकती सतह पर टिकी निगाहें उसे उल्लास से भर देती। वह फल वाला, जो पहले सब्जी का काम करता था और अब पफल बेचने लगा था, अपनी पूर्व आदत के साथ अब भी तड़के ही माल उठाने मण्डी पहुँच जाता। उन फल वालों की तरह उसने अपनी आदत बदली नहीं थी, सब्जी वालों के निकल जाने के बाद जो मण्डी पहुँचते और इस तरह देर से मण्डी पहुँचने में अपनी शान समझते। टमाटर वाले की तरह उसके हाथ भी पफलों को झाड़ने-पोंछने में व्यस्त थे। सँतरों को झाड़न से पोंछ-पोंछकर रेहड़ी पर सजाते हुए, चमकते छिलों को देखकर उसका मन प्रफुल्लित हो रहा था। केले के गुच्छे अभी रेहड़ी के किनारे ही रखे थे, बहुत जल्द ही वह उन्हें धागे से लटका देने वाला था। रेहड़ी पर उठायी हुई छप्पर में लगाई गईं खपच्चियाँ उसने पहले से ही केलों के लिए निर्धरित की हुई थी। सेब की पेटी को उसने अभी तोड़ा नहीं था।
आलू-प्याज वाले ने आलू और प्याज के बोरों का खुला मुँह अपनी ओर को रख, उन्हें ज्यों का त्यों बिछाकर अपना ठिया जमा लिया था। गंदे नाले का वह किनारा, लम्बे समय से टूटी पुलिया के कारण जो पैदल चलने वालों के लिए कुछ खतरनाक हो गया था, उसका ठिया था। बगल में ही खड़ी रेहड़ी से एक कप चाय और साथ में बेकरी का बना पंखा, जो मुँह में जाते ही किरच-किरच करता, उसने खरीदा और सुबह का नाश्ता करने लगा। पुलिया के ठीक सामने, दूसरी ओर, सड़क के किनारे वाली कपड़ों की दुकान का मालिक शॅटर को मत्था टेकने के बाद ताला खोल चुका था और बादलों की गड़-गड़ाहट-सी आवाज करते शॅटर को उसने ऊपर उठा दिया था। दुकान के अन्दर धूप-बत्ती कर और गल्ले को हाथ जोड़ने की कार्रवाई अभी उसे जल्द से निपटानी थी और ग्राहक के इंतजार में मुस्तैदी से बैठ जाना था। बगल की दुकान में बर्तन वाला धूप-बत्ती करने के बाद आतुरता से बोहनी हो जाने का इंतजार कर रहा था। दूसरे दुकानदार भी व्याकुलता से बोहनी का ही इंतजार कर रहे थे।

- बिना हील-हुज्जत वाला ही ग्राहक आए---हे भगवान!

केले वाला मन ही मन कल सुबह-सुबह ही आ गए उस ग्राहक की याद को अपने मन से मिटा नहीं पाया था, जिसने बोहनी के वक्त ही तू-तू, मैं-मैं कर देने को मजबूर कर दिया था और जिसका असर दिन भर की बिक्री पर पड़ा, ऐसा वह माने बैठा था।

- हे भगवान कहीं आज पिफर ऐसा न हो जाए!

लेकिन डॉक्टर 'होगया" की उपस्थिति में उस ग्राहक की स्मृतियां उसके भीतर बची रहने वाली नहीं थी। अपने क्लीनिक की ओर आते डॉक्टर को देख वह बीते दिन के वाकये को एकदम से भूल चुका था और जोर से चिल्लाया -        

- होगया--- होगया---।

डॉक्टर उसी की ओर देख रहा है, यह ताड़ते ही उसने भरसक कोशिश की चुप होने की लेकिन एक क्षण को उसका मुँह खुला का खुला ही रह गया। शब्द मुँह से छूट चुके थे। डॉक्टर की निगाह से वह अपने को छुपाने में पूरी तरह से नाकामयाब रहा। क्लीनिक में भी अभी ठीक से न पहँुचा डॉक्टर 'होगया’ केले वाले की हरकत से बुरी तरह चिढ़ गया था। उसके मुँह से दना-दन गालियां फूटने लगी। केले वाला आगे-आगे और डॉक्टर उसके पीछे-पीछे दौड़ने लगा। डॉक्टर की पकड़ में आने से बचने के लिए केले वाला बित्ती भर चुका था। अब डॉक्टर होगया के लिए उसको पकड़ना आसान नहीं था। कहाँ पचास पार कर चुका डॉक्टर और कहाँ उसकी आधी उमर का वह उदंड। डॉक्टर की साँस उखड़ने लगी थी। वह एक ही जगह पर खड़े होकर उखड़ती साँसों से गालियां बकने लगा,

- ओ तेरी माँ का हो गया---साले हरामी तेरा हो गया।

डॉक्टर को रुका हुआ देख, बचकर भाग रहा वह केले वाला भी रुक गया और वहीं से खड़े होकर डॉक्टर को चिढ़ाने लगा। दूर से खड़े होकर अपने को चिढ़ाते उस हरामी का क्या करे ?, डॉक्टर की समझ नहीं आ रहा था। तभी कोई दूसरा चिल्लाया,

- होगयाह्णह्णह्ण--- होगयाह्णह्णह्ण---।

डॉक्टर नीचे झुका हुआ था और पाँव से चप्पल निकाल रहा था। परेशान था कि कैसे निपटे इन हरामियों से। निगाहें उसी पर टिकी थी, जो अब भी दूर से खड़ा होकर तरह-तरह की हरकत करते हुए चिढ़ाये जा रहा था। डॉक्टर अचानक उस ओर को घूमा जिधर से दूसरी आवाज आई थी और बिना देखे ही उसने चप्पल उस ओर को दे मारी। चप्पल सीधे उस झल्ली वाले के लगी, जो सिर पर रखी केलों की झल्ली को नीचे उतार रहा था। चारों ओर से हँसी का फव्वारा छूट गया। सड़क के आर पार के रेहड़ी वालों के साथ-साथ, बिना ग्राहकों के खाली बैठे दुकानदार भी खिल-खिलाने लगे और शुरु हो चुके तमाशे में शामिल हो गए। मुश्किलों से ही जिनके चेहरे पर हँसी की कोई रेखा खिंचती हो, ऐसे लोगों के लिए भी मुस्कराये बिना चुप रहना संभव न रहा। झल्ली वाला, चप्पल जिसके बेवजह पड़ी थी, खुद भी खिल-खिला रहा था,

-क्या ---'होगया’--- डॉक्टर साहिब --- यूं ही बिना देखे ही हमको बजा दिये ?

बेवजह ही एक निर्दोष को चप्पल मार देने पर डॉक्टर को अपनी गलती पर माफी माँगनी चाहिए, ऐसा सोचने वाले अजनबियों के लिए तो पूरा मामला ही पेचिदा हो गया कि डॉक्टर तो उल्टा झल्ली वाले को भी गालियां सुना रहा है।

- हरामखोर अभी देखता  तुझे --- साले तेरे नहीं होता है क्या ?
  
झल्ली वाला और भी खिल-खिलाकर हँसने लगा। उसके इस तरह खिल-खिलाने से खिसियाया हुआ डॉक्टर पिफर से गालियां बकने लगा। ''होगया--- होगया" की आवाजें अब हर तरफ से आ रही थीं। डॉक्टर कभी एक ओर को मुँह कर गाली देता तो कभी दूसरी ओर। उछल-उछल कर गाली देते हुए उसकी साँस फूलने लगी थी। चप्पल उठाने के लिए झल्ली वाले की ओर दौड़ ही रहा था कि तभी न जाने कहाँ से तुफैल दौड़ता हुआ आया और 'होगया" चिल्लाते हुए उसने चप्पल पर जोर से किक जमा दी। चप्पल हवा में उछलकर उस ओर जा गिरी जिधर बित्ती भरकर दौड़ने वाला, खड़ा होकर सुस्ता रहा था। वह आश्वस्त था कि अब तो डॉक्टर उसकी बजाए तुफैल से निपटना चाहेगा। तुफैल की हरकत पर डॉक्टर पूरी तरह से झल्ला भी गया,

- अबे रुक साले कटवे के--- तेरी माँ का होगा मादरचो---। हरामखोर अभी तो तू भी पूरी तरह से नी हुआ---।

दूसरे पाँव की चप्पल उतार कर उसने उस ओर उछाली, जिधर तुफैल दौड़ रहा था। पिद्दी-सा तुफैल तेजी से दौड़कर सड़क के पार निकल चुका था। अबकी बार केले की ठेली के बगल में बैठा वह कुत्ता चपेट में था, खुजलीदार शरीर पर उड़ चुके बालों की वजह से जो मरगिल्ला-सा दिखायी देता था। चप्पल उसके न जाने किस अंग पर लगी कि जोर से किकियाने लगा। कुत्ते की कॉय-कॉय और डॉक्टर की गालियों से पूरा माहौल ही तमाशे में बदल गया। चिढ़ाने वालों के पीछे-पीछे, सड़क के इधर-उधर दौड़ता डॉक्टर हँसी का पात्र हो चुका था। आस-पास के दुकानदार भी दुकानों से बाहर निकल, दौड़-दौड़ कर गाली देते डॉक्टर से मजा ले रहे थे। जानते थे कि डॉक्टर को कुछ भी कहना, खुद को भी गालियों का शिकार बना लेना है तो भी वे ऐसा करने से बाज न आ रहे थे। हँसी की उठती स्वर लहरियां नौकरों को भी दुकान में आए ग्राहकों से निबटने की बजाय कुछ देर लुत्फ उठा लेने की छूट दे रही थी। महावर क्लाथ हाऊस का सेल्समैन, जिसे क्षण भर भी कभी खाली बैठने की छूट न होती, गज में पँफसाये कपड़े को हाथ में पकड़े हुए, गद्दी से बाहर को लटक कर तमाशे का मजा लूटने लगा। सामने बैठी ग्राहक के द्वारा चुन लिये गए कपड़े को उसने पूरा नाप लिया था और काटकर बस अलग ही करना था। ग्राहक भी हँसे बिना न रह पा रहा थी।



Tuesday, March 1, 2011

बीबीसी रेडियो


शमशेर सिंह बिष्ट

गिरदा के अचानक जाने के बाद सुबह-शाम स्थानीय से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विचार-विमर्श का जो सिलसिला टेलीफोन पर बात करने का होता था, वह खत्म हो गया। कई दिनों तक आदतन हाथ टेलीफोन में 05942-23XX30  पर चला जाता था। तब झटके से ख्याल आता कि अब तो इस टेलीफोन पर गिरदा से कभी बात हो ही नहीं पायेगी।

ऐसा ही एक जर्बदस्त धक्का तब लगा, जब मालूम पड़ा कि 27 मार्च, 11 बीबीसी बन्द होने वाला है। तब फिर सुबह 6.30 बजे आदतन हाथ ट्रांजिस्टर पर बीबीसी लगाने के लिये जायेगा, लेकिन फिर एकाएक ध्यान आ जायेगा कि इस रेडियो से तो बीबीसी ने हमेशा के लिए बोलना बंद कर दिया है। गिरदा व बीबीसी में अन्तर इतना ही है कि गिरदा ने अचानक बोलना बंद किया, जबकि बीबीसी बाकायदा घोषणा कर अपनी आवाज बंद करने जा रहा है। गिरदा के साथ जहाँ 35 वर्ष का सम्बन्ध रहा, वहीं बीबीसी के साथ 50 वर्ष पुराना।

तब आठवीं कक्षा में अल्मोड़ा इण्टर कालेज में बढ़ता था। सुबह प्रार्थना के बाद प्रधानाचार्य नीलाम्बर जोशी का वक्तव्य होता था, जिसमें वे दुनिया भर की घटनाओं का विवरण भी देते थे। हमें आश्चर्य होता कि अखबार तो दिल्ली से दूसरे दिन पहुँचते हैं, जोशी जी कैसे एक दिन पहले ही खबरें बता देते हैं। मैंने हिम्मत करके एक दिन जोशी जी से पूछ ही लिया, तो उन्होंने बताया कि वे नियमित रूप से बीबीसी सुनते हैं। उन दिनों हमारे मोहल्ले, पल्टन बाजार में सिर्फ बचीलाल जी के पास ही रेडियो था, जिसे वे सुबह आठ बजे आकाशवाणी के समाचारों के लिए ही चालू करते थे।

मोहल्ले के सभी इच्छुक लोगों के साथ मैं भी वहाँ होता। जब नवीं कक्षा में गया तो ‘काकू’ के नाम से जाने जाने वाले एक सीआईडी इन्सपेक्टर रिटायर होकर हमारे मोहल्ले में आ गये। उनके पास एक रेडियो था, जिसके पीछे एक बड़ी बैट्री लगती थी। वे शाम को बीबीसी सुनते थे। मैं नियमित रूप से उनके घर जाने लगा। जब बड़े भाई साहब की शादी हुई तब उन्हें दहेज में एक ट्रांजिस्टर मिला। मुझे सुबह-शाम, दोनों समय बीबीसी सुनने की सुविधा मिल गई। बी.ए. में मैं सबसे पीछे की बेंच पर बैठता था।

एक दिन राजनीति विज्ञान की कक्षा में पूछा गया कि भारत में किन-किन राज्यों में विधान परिषद है ? सिर्फ मेरा ही जवाब सही निकला, क्योंकि दो दिन पहले ही बीबीसी से मालूम हुआ था कि पं. बंगाल में विधान परिषद समाप्त कर दी गई है। सन् 1972 में अल्मोड़ा छात्र संघ के चुनाव की जनरल गैदरिंग के दिन मुझे भाषण करना था। मेरे शुभचिन्तक मुझे बता रहे थे कि तुम्हें यह कहना चाहिए, वह कहना चाहिये। लेकिन उन्हीं दिनों भारत के एक प्रसिद्ध वैज्ञानिक ने उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली थी। मैंने बीबीसी से प्राप्त जानकारी के आधार पर अपना पूरा भाषण इसी पर केन्द्रित कर दिया। नतीजन मुझे 92 प्रतिशत मत मिले थे। लोगों को उन दिनों यह भ्रम होने लगा था कि मै बहुत अध्ययन करता हूँ।

मुझे हर विषय का ज्ञान है। लेकिन बात सिर्फ इतनी थी कि मैं बीबीसी का नियमित श्रोता था। बीबीसी के नियमित श्रोता, गिरदा के रूम पार्टनर रहे राजा के अंतिम दिनों का एक दृश्य याद आता है। तब वह जंगल के बीच एक अंधेरे कमरे में रहता था। नीम अंधेरे में एक दिया टिमटिमाता होता और बीबीसी की आवाज उस जंगल को गुंजायमान करती। जब उसकी मृत्यु हुई तो उसके कमरे से सबसे मूल्यवान चीज रेडियो ही निकला था। एक बार जब बीबीसी की टीम कुमाऊँ दौरे पर आई थी। एक दिन राजा ने कहीं से मुझे टेलीफोन किया कि वह टीम अल्मोड़ा पहुँच गई है। रामदत्त त्रिपाठी किसी पान की दुकान से बोल रहे हैं। पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि वे अल्मोड़ा में नहीं, नैनीताल की किसी पान की दुकान से बोल रहे हैं। राजा को बहुत निराशा हुई।

हमारा जनान्दोलनों का एक साथी बसन्त खनी आजकल धौलादेवी के अपने गाँव में बकरी चराता है। वहाँ बिजली नही है। फिर भी वह नियमित रूप से बीबीसी सुनता है। उसकी जानकारी विश्वविद्यालय के किसी प्रवक्ता से अधिक है। अल्मोड़ा में ऐसे सैकड़ों श्रोता मिल जायेंगे। बीबीसी सिर्फ समाचार ही नही देता बल्कि व्यक्तित्व का भी निर्माण करता है। जब कभी नैनीताल गया, तो राजीव के बड़े भाई ‘मालिक साब’ से बीबीसी के समाचार मालूम हो जाते हैं। बाएँ से खड़े हुए--गोपाल भनोट, पुरुषोत्तम लाल पाहवा, रत्नाकर भारतीय, मार्क टली, गौरीशंकर जोशी, आले हसन. बाएँ से बैठे हुए--हिमांशु कुमार, सुषमा दत्ता, ओंकारनाथ श्रीवास्तव बीबीसी को लोग क्यों पंसद करते है ? सच यह है कि बीबीसी प्रामाणिकता के साथ और तत्काल खबरें प्रसारित करता है। कभी दबाव या पक्षपात उसके प्रसारण में नहीं देखा गया। उसका विश्लेषण अद्भुत है।

रेडियों की सुई घुमाते हुए बीबीसी ढूँढने में कठिनाई नही होती, क्योंकि उसके वाचकों का समाचार प्रस्तुत करने का तरीका निराला है। मेरे कई वामपंथी मित्र एक पूँजीवादी देश का प्रसारण होने के कारण बीबीसी पर वाम विरोधी होने का आरोप लगाते हैं। मुझे ऐसा नहीं लगता। भारत के माओवादियो की खबरें जितनी निष्पक्षता से बीबीसी देता है, उतना भारत का कोई प्रचार माध्यम नहीं देता। आज तो भारत का लगभग पूरा मीडिया कारपोरेट क्षेत्र का गुलाम बन गया है। ऐसे में बीबीसी का बंद होना निश्चित रूप से लोकतंत्र पर आघात है, क्योंकि लोकतंत्र में सबसे बड़ा लाभ ही बोलने की आजादी है। बीबीसी विज्ञापनों का गुलाम नहीं है, भले ही उसे ब्रिटिश सरकार के विदेश विभाग की मदद मिलती हो। इसी के चलते उसकी विश्वसनीयता बनी हुई थी। ब्रिटेन को तो लोकतंत्र की जननी कहा जाता है, तो क्यों फिर ब्रिटेन सरकार बीबीसी का प्रसारण बंद कर विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र पर रेडियों पर कुठाराघात कर रही है ? जबकि आज भी भारत में करोड़ों लोग बीबीसी सुनते हैं।

भारत के आकाशवाणी से यह आशा कभी नहीं की जा सकती। निजी क्षेत्र में भी कोई ऐसा संस्थान नहीं है जो इसकी पूर्ति कर सके। आज 13 फरवरी को फैज अहमद फैज की 100वीं जयन्ती मनाई जा रही है। आकाशवाणी से सुबह के समाचार में एक शब्द भी फैज के बारे में नहीं था। लेकिन बीबीसी ने फैज के बारे में ही नहीं बताया, बल्कि उनकी पुत्री का इन्टरव्यू भी श्रोताओ को सुनवाया। 12 फरवरी को मिश्र में सम्पन्न रक्तक्रांति के दिन प्रतिदिन का हाल और सारा राजनैतिक विश्लेषण बीबीसी ने प्रस्तुत किया। लगता है, बीबीसी पर भी कारपोरेट सेक्टर का दबाव बढ़ता जा रहा है। भूमण्डलीकरण के इस युग में लोकतंत्र से बड़ा बाजार हो गया है।

भारत भी एक बड़ा बाजार है। इसलिये आशंका है कि रेडियो का खात्मा कहीं मोबाइल का बाजार को बढ़ाने के लिये तो नही किया जा रहा है, क्योंकि मोबाइल और इंटरनेट पर तो बीबीसी चलता रहेगा। परन्तु रेडियो से बीबीसी का जाना एक युग का अन्त होगा। मेरे पास आज जो रेडियो है, वह बीबीसी के लिये ही रखा है। तब मेरा रेडियो से नाता ही समाप्त हो जायेगा।


नैनीताल समाचार से साभार

Friday, February 25, 2011



 1964 में काहिरा में जनमी फातिमा नउत (
Fatima Naut) मिस्र की आधुनिक पीढ़ी की लोकप्रिय कवि हैं.पेशे से वे प्रशिक्षित वास्तुकार हैं और साहित्य रचना के साथ साथ अपना पेशेगत काम भी करती हैं.उनकी अपनी कविताओं के संकलन के अलावा समालोचना और विश्व की अन्य भाषाओँ से अनूदित रचनाओं की करीब एक दर्जन किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं.अंग्रेजी और चीनी के अतिरिक्त कई विदेशी भाषाओँ में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं.एक अनियत कालीन साहित्यिक पत्रिका का संपादन भी करती हैं.
जब मैं देवी बनूँगी
                                                         -- फातिमा नउत

मैं उतार डालूंगी दुनिया के फटे पुराने बदरंग कपड़े
झाड़पोंछ करुँगी नक़्शे का
और इतिहास की पांडुलिपियाँ उठा कर फेंक दूँगी कूड़ेदान में
साथ में अक्षांश और देशांतर की रेखाएं
और देशों को बाँटने वाली सीमारेखाएं भी
पर्वत झरने
और सोना,पेट्रोल,जलवायु और बादल..सब कुछ...
इन सबको मैं फिर से न्यायोचित ढंग से वितरित करुँगी
मैं पंखों से बने अपने झाड़न को हौले हौले
फिराउंगी अस्त व्यस्त थके चेहरों के ऊपर
जिससे सफ़ेद,साँवले और पीले पड़े हुए चेहरे
पिघल कर खुबानी के रंग के निखर जाएँ.
मैं देसी बोलियों से बीन बीन कर
एकत्र करुँगी भाषाएँ और कहावतें
और इनको अपनी कटोरी में रख के पिघला दूँगी
जिस से निर्मित कर सकूँ श्वेत धवल एक अदद शब्दकोश
प्रेत छायाओं और क्रोधपूर्ण शब्दों से जो होगा पूर्णतया मुक्त.

अपने राज सिंहासन पर बैठने से पहले
मैं हिलाडुला कर ठीक करुँगी सूरज की दिशा
साथ साथ भूमध्य रेखा को भी खिसकाउंगी
वर्षा तंत्र को भी संगत और दुरुस्त करुँगी.
ये सब कर के जब मैं काटूँगी फीता
तो मेरे तमाम भक्त करतल ध्वनि से स्वागत करेंगे
स्पार्टकस, गोर्की, गुएवारा भी...

ख़ुशी से झूमते हुए मैं हकलाती हुई घोषणा करुँगी :
अब से सृष्टि के वास्तुशिल्प का काम मेरा है
तीसरा विश्व युद्ध शुरू हो इस से पहले
मुझे पलभर को पीछे मुड़ कर देखना होगा धरती पर
और दुनिया को वापिस उस ढब से ही सजाना धजाना होगा
जैसे हुआ करती थी कभी ये पहले.

यह अनुवाद मूलतः अरबी भाषा में लिखी इस कविता के अंग्रेजी अनुवाद: कीस निजलांद, पर आधारित है
प्रस्तुति:  यादवेन्द्र  

Sunday, February 20, 2011

यह कल्पनालोक नहीं

सृजन के संकट की कहानियां


लंबे समय बाद सुरेश उनियाल का नया कहानी संग्रह आया है। संग्रह में 'क्या सोचने लगे आदित्य सहगल" सहित कुल 13 कहानियां तथा 15 छोटी कहानियां हैं। ये कहानियां सुरेश उनियाल की कथायात्रा में एक नए मोड़ से परिचित कराती हैं। इनमें सुरेश की मूल प्रवृत्ति फैंटेसी ने बोध-कथा के साथ मिलकर एक नई शक्ल अख्तियार की है।
पिछले संग्रहों - विशेषकर 'यह कल्पनालोक नहीं" - में कल्पनाशीलता ठोस तार्किकता की जमीन पर खड़ी होकर विज्ञान कथाओं की शक्ल में सामने आई है। यहां यह कल्पनाशीलता मनुष्य के अस्तित्व और मानवीयता की पड़ताल करती दिखाई पड़ती है। संग्रह की शीर्षक कहानी  "क्या सोचने लगे आदित्य सहगल" इस बात को पुष्ट करती है। आदित्य सहगल कल्पनाशील बुद्धिजीवी है जो दिल के ऊपर दिमाग को तरजीह देता है। एक रोज वह इस प्रद्गन से दो-चार होता है कि यदि मनुष्यों के मस्तिष्क की रेटिंग की जाए तो कैसा रहे।
''अगर एक व्यक्ति से एक मिनट की मुलाकात हो तो पांच अरब ब्यक्तियों से एक-एक बार मिलने में ही नौ हज़ार पांच सौ तेरह वर्ष लग जाएंगे।" इस तरह के गणित से गुजरते हुए आदित्य सहगल अंतत: इस नतीजे पर पहुंचता है कि ''यह रेटिंग अगर जरूरी है तो दिमाग की जगह अपनत्व की डिग्री की रेटिंग होनी चाहिए।" यह कहानी किसी प्रचलित रूप में कहीं से भी कहानी नहीं लगती। एक शांत जिरह, खुद से उलझते कुछ सवालों को सुलझाने का सिलसिला और एक सहज बातचीत।।। जैसे आप किसी टी हाउस में कुछ बहस कर रहे हैं और फिर एक खूबसूरत फैसले पर पहुंचते हैं कि ''अगर दिमाग का काम दिल को धड़काना न होता तो दिमाग को निकलवा फेंकना ही बेहतर होता।"
सृजनशील व्यक्तित्व कभी न कभी रचनात्मकता के संकट से टकराते जरूर हैं। फेलिनी की फिल्म "एट एंड हाफ" तो सृजनात्मकता के संकट से टकराने की संभवत: श्रेष्ठतम प्रस्तुति है। सुरेश उनियाल के इस कहानी संग्रह की बहुत सी कहानियां इस प्रद्गन से टकराती दिखलाई पड़ती हैं। "कहानी की खोज में लेखक" और ''भागे हुए नायक से एक संवाद" ऐसी ही कहानियां हैं। कहानी से उसका नायक गायब हो जाता है। वह लेखक से जिरह करता है कि ''जिस तरह से मैं बोलता हूं, उस तरह से तू लिख।"" लेखक नहीं मानता, कहानी पूरी नहीं होती। फेंटेसी सुरेश की कहानियों का मूलतव है और अपने से पूर्व तथा बाद की तमाम पीढ़ियों के लेखको से अलग वह अभी तक  फेंटैसी को साथ लिये चल रहे हैं। उनसे पहले और उनके बाद की पीढ़ियों ने फेंटेसी का थोड़ा-बहुत इस्तेमाल किया और छोड़ दिया। सुरेश फेंटेसी के विभिन्न स्वरूपों से प्रयोग करने में नहीं हिचकते। यह वैसा ही है जैसे कोई कलाकार किसी खास माध्यम की विभिन्न संरचनाओं में ताउम्र डूबा रहता है। लेकिन सुरेश संरचनावादी भी नहीं हैं। कलावादी तो खैर कहीं से भी नहीं हैं।
वे बहुत साधारण तरीके से कहानी कहते हैं। लगभग बतकही के अंदाज में। भाषा की जादूगरी से भरसक बचने की कोशिश करते हुए और संवादों की नाटकीयता को एकदम खारिज करते हुए।
इस सादेपन में एक तरफ तो वह 'खोह" जैसा असाधारण दार्शनिक आख्यान रच सके हैं और दूसरी तरफ 'उसके हाथ की रेखाएं" जैसा अद्भुत बोर्खेज़ियन गल्प साध सके हैं। इन दो कहानियां पर खास तौर से बात की जानी चाहिए।
'खोह" मूलत: एक फेंटैसी है जो किसी खोह के रास्ते गुम हो चुके पिता की तलाद्गा में निकले पुत्र के यात्रा वृतांत की शक्ल में कही गई है। जॉन हिल्टन की 'लॉस्ट होराइज़न" और हेनरी राइडर हैगार्ड की 'शी" जैसी अति स्मरणीय रचनाओं की याद दिलाती 'खोह" ठेठ भारतीय संदर्भों में कही गई जीवन और मृत्यु के शाश्वत द्वंद्व की कथा है। पिता जिस स्थान पर है, वहां पुत्र एक लामा के सहयोग से मार्ग खोजकर पहुंचता है और विस्मित होता है कि वह स्वर्ग में पहुंच गया है। स्वर्ग मरने के बाद नहीं मिलता बल्कि वह जैविक क्षरण को रोकने की विशुद्ध पर्यावरणीय युक्ति है जहां शरीर की मरती और पैदा होती कोशिकाओं का संतुलन बना हुआ है। वहां भोग है किंतु जन्म नहीं है। जन्म नहीं है इसलिए पर्यावरण को बिगाड़ने का उपक्रम भी नहीं है।
'' यहां जनसंख्या न घटती है और न बढ़ती है। यहां न मौत होती है और न जन्म। यहां जो लोग हैं, हमेशा से वहीं थे और हमेशा वही रहेंगे। कभी कभी सदियों में हम-तुम जैसे एक-दो लोग आते हैं तो कोई फर्क नहीं पड़ता।"
'रोज वही-वही लोग, वही-वही शक्लें, वही-वही जगहें, एक जैसी दिनचर्या, मुझे तो कल्पना से ही ऊब होने लगी थी।"
'ऊब क्यों होगी? यही तो जिंदगी है। यहां हम जिंदगी को पूरी तरह से जीते है। इसी सुख की कल्पना तो तुम लोग अपने लोक में करते हो।"
मेरे मुंह से निकल गया, 'नहीं, यह जिंदगी नहीं, मौत है।"
"उसके हाथ की रेखाएं" एक अलग दुनिया में ले जाती हैं। यहां एक ऐसे पात्र से साक्षात्कार होता है जो लोगों के हाथ की रेखाएं गायब कर देता है। यह काफ्काई  खोज नहीं है बल्कि एक सहज प्रेक्षण है कि कहानी का नायक एक रोज पाता है कि उसके हाथ की एक रेखा गायब हो गई है। फिर दफ्तर के चपरासी की मदद से एक ऐसे आदमी के पास पहुंचता है जो हाथ की रेखाएं ठीक किया करता है।
अकसर साहित्यिक बातचीत में एक बात का जिक्र बड़े अफसोस के साथ किया जाता है कि हिंदी में कोई बोर्खेज़ जैसा लेखक नहीं है। बोर्खेज़ तो सदियों के अंतराल में कभी कहीं हो जाते हैं लेकिन उनकी कहानियों का जो प्रभाव है, इस तरह का प्रभाव देखना हो तो यह कहानी जरूर पढ़नी चाहिए।
'किताब" को विज्ञान कथाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है। मुझे याद है कि मैंने जब 'यह कल्पनालोक नहीं" पढ़ा था तो मुझे यह बात खटकी थी कि संग्रह में सिर्फ तीन ही विज्ञान कथाएं थीं। इस संग्रह में मात्र एक है। शायद किसी लेखक से यह पूछना उचित नहीं होगा कि अमुक किस्म की रचना क्यों नहीं की और अमुक किस्म की रचना ही क्यों की!
हालांकि इस संग्रह की काफी कहानियों में विज्ञान कथाओं के दोनों तव - कल्पनाशीलता और घ्ानघ्ाोर तार्किकता - पूरी तरह से मौजूद हैं, अब यह अलग बात है कि लेखक ने इन दोनों चीजों से कुछ दूसरी तरह की कहानियां रची हैं।
कुछ कहानियां जीवन के बहुत साधारण अनुभवों को लेकर भी लिखी गई हैं। 'बिल्ली का बच्चा", 'बड़े बाबू", 'सॉरी अंकल" और 'चेन" ऐसी ही कहानियां हैं। 'बड़े बाबू" और 'चेन" दांम्पत्य जीवन की कश-म-कश से निकली कहानियां हैं। 'इनसान का ज़हर" एक आधुनिक बोधकथा के रूप में पढ़ी जा सकती है जहां नदी में स्नान करते साधु द्वारा डूबते बिच्छू को बचाने की दंद्गाभरी कथा को बिच्छू के दृष्टिकोण से दुबारा कहा गया है।
'एक नए किस्से का जन्म" पहाड़ के परिवेद्गा पर बनते और टूटते किस्सों के भीतर छिपी विडंबना का मिथकीय बयान है।
इसके अतिरिक्त इस संग्रह में 15 छोटी कहानियां हैं, जिन पर अलग से चर्चा की आवद्गयकता नहीं है। हां, 'विश्व की अंतिम लघुकथा" लिख सकने का साहस हम जैसे पाठकों को एक साथ विस्मित, आनंदित और आतंकित कर देता है। सृष्टि के आरंभ पर दुनिया की प्राचीनतम भाषाओं से लेकर आधुनिक विचारकों ने कुछ न कुछ लिखा है। सृष्टि के अंत का दृद्गय एक वैज्ञानिक संभावना बनकर सुदूर भविष्य की अनिश्चितता में डालकर हम आश्वस्त हो जाते हैं। उस अंत पर कलम उठाने को एक बड़ा लेखकीय दुस्साहस की कहा जाएगा। सुरेश उनियाल के यहां यह साहस हैं।

                                                            
 
                                                                                                          - नवीन कुमार नैथानी
क्या सोचने लगे ।।।
प्रकाशक : भावना प्रका्शन, दिल्ली-91
मूल्य : 200 रुपए
पृष्ठ संख्या : 144

Tuesday, February 15, 2011

अन्तर्विरोध: कभी कभार



                                  

 ''कभी-कभार"" के ''नियमित"" पाठक जानते होगें कि यह कालम कवि-आलोचक अशोक बाजपेयी लिखते हैं। यह कॉलम का अन्तर्विरोध हो सकता है कि शीर्षक के बावजूद नियमित है। पर रचनाकार और उसके अन्तर्विरोधों के सवाल पर की गई बातचीत में शायद कोई अन्तर्विरोध न हो, क्योंकि वह तो एक सैद्धाान्तिकी को रखने की युक्ति भी दिखाई दे रहा है- अन्तर्विरोध सृजनात्मक समृद्धि और उपलब्धि का आधार हो सकते हैं। जो बिल्कुल सीधा-सपाट है, जिसमें कोई अन्तर्विरोध है ही नहीं वह कुछ सच्चा और टिकाऊ रच सकता है इस पर संदेह किया जा सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि लेखक भी सबकी तरह अंतत: मिट्टी के माधव ही होते है, देवता या दिव्यपुरुष नहीं। देवता और दिव्यपुरुष नहीं, साधारण और अन्तर्विरोधों से भरे लोग ही साहित्य रचते हैं। बेहद मासूमियत से भरी इस टिप्पणी से असहमति का मतलब यह कतई नहीं कि देश-दुनिया की साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ-साथ समकालीन ज्वलन्त मसलों पर एक सचेत रचनाकार की टिप्पणियों से भरे कॉलम का मखौल उड़ाया जा रहा है।
19 दिसम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित यह टिप्पणी अनायास याद नहीं आ रही है जिसमें रचना के मूल्यंाकन पर बात की गई है- अन्तर्विरोध। टिप्पणी स्पष्ट तौर पर रचना और रचनाकार के आदर्शों को जुदा-जुदा मान उसे सहज स्वीकार्य मानने की वकालत करती है। मार्फत अपने एक मित्र के कवि अशोक बाजपेयी ने रचना के मूल्यांकन में रचनाकार के निजी जीवन के सवाल को उठाया और जवाब में तर्क देते हुए भौतिक जीवन में इतिहास हो चुके रचनाकारों के मूल्यांकन के लिए अपनायी जा रही पद्धति का हवाला दिया है। यानी एक ऐसा तर्क जो आगे किसी भी तरह की बात को रखने की छूट देने की बजाय मुंह को खुलने से पहले ही दबोच लेना चाहता है। एक जनतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने का उपकर्म इस अलग होता है क्या ? या खुद के मनोगत आग्रहों की पुष्टि के लिए कहना पड़ रहा है, ''आधुनिकों समकालीनों के बारे में तो ऐसे आचरण की जानकारी हमें हो सकती है, पर प्राचीनों के बारे में ऐसी जानकारी बहुत कम और अधिकतर अप्रमाणिक होगी।"  यहां प्रश्न है कि क्या जब हम प्राचीनों के बारे में बिना किसी जानकारी के रचनाओं का मूल्यांकन करने के लिए मजबूर है तो आधुनिकों समकालीनों के बारे में अन्य किसी जानकारी के प्रति आंखें बंद किए रहे ? और आधुनिकों समकालीनों को सिर्फ और सिर्फ झूठे आदर्शों पर ज्ञान बघ्ाारते हुए सुनते, देखते और पढ़ते रहें ? या, फिर समकालीन यथार्थ का सही मूल्यांकन करते हुए आदर्शों से स्वंय मुंह मोड़ लेने वाले रचनाकार के द्वारा रचना में किसी भी आदर्श को गढ़ने की उसकी मंशाओं के मंतव्य तक पहुँचने की पद्धति को अपनाए ? हाल ही में प्राकशित हुए चिनुचा अचीबी के अनुदित उपन्यास  ''खोया हुआ चैन"" को पढ़ते हुए याद आ गई उपरोक्त टिप्पणी इस लिए अनायास नहीं कही जा सकती, क्यों कि आदर्शों और नैतिकताओं पर दृढ़ उपन्यास के पात्र के जीवन में आ गई फिसलन को समझने की कोशिश करना चाहता रहा। उपरोक्त उपन्यास नैतिकता और आदर्श के लिए पुरजोर तरह से हिमायत और व्यवहार में उसे लागू करने के लिए प्रतिबद्ध पात्र के भ्रष्ट और अनैतिकता की हद गिर जाने का आख्यान है। समझना चाहता हूँ कि आदर्शों के टूटने के साथ ही व्यवाहारिक गड़बड़ियां एक मनुष्य को यूंही घेर लेती होंगी या फिर उसे सिर्फ एक उपन्यास की कथा भर ही माना जाए। कवि आलोचक अशोक बाजपेयी की टिप्पणी तो उपन्यास को समझने का द्वार नहीं खोल रही है।    

- विजय गौड़