Tuesday, February 15, 2011

अन्तर्विरोध: कभी कभार



                                  

 ''कभी-कभार"" के ''नियमित"" पाठक जानते होगें कि यह कालम कवि-आलोचक अशोक बाजपेयी लिखते हैं। यह कॉलम का अन्तर्विरोध हो सकता है कि शीर्षक के बावजूद नियमित है। पर रचनाकार और उसके अन्तर्विरोधों के सवाल पर की गई बातचीत में शायद कोई अन्तर्विरोध न हो, क्योंकि वह तो एक सैद्धाान्तिकी को रखने की युक्ति भी दिखाई दे रहा है- अन्तर्विरोध सृजनात्मक समृद्धि और उपलब्धि का आधार हो सकते हैं। जो बिल्कुल सीधा-सपाट है, जिसमें कोई अन्तर्विरोध है ही नहीं वह कुछ सच्चा और टिकाऊ रच सकता है इस पर संदेह किया जा सकता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि लेखक भी सबकी तरह अंतत: मिट्टी के माधव ही होते है, देवता या दिव्यपुरुष नहीं। देवता और दिव्यपुरुष नहीं, साधारण और अन्तर्विरोधों से भरे लोग ही साहित्य रचते हैं। बेहद मासूमियत से भरी इस टिप्पणी से असहमति का मतलब यह कतई नहीं कि देश-दुनिया की साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों के साथ-साथ समकालीन ज्वलन्त मसलों पर एक सचेत रचनाकार की टिप्पणियों से भरे कॉलम का मखौल उड़ाया जा रहा है।
19 दिसम्बर 2010 के अंक में प्रकाशित यह टिप्पणी अनायास याद नहीं आ रही है जिसमें रचना के मूल्यंाकन पर बात की गई है- अन्तर्विरोध। टिप्पणी स्पष्ट तौर पर रचना और रचनाकार के आदर्शों को जुदा-जुदा मान उसे सहज स्वीकार्य मानने की वकालत करती है। मार्फत अपने एक मित्र के कवि अशोक बाजपेयी ने रचना के मूल्यांकन में रचनाकार के निजी जीवन के सवाल को उठाया और जवाब में तर्क देते हुए भौतिक जीवन में इतिहास हो चुके रचनाकारों के मूल्यांकन के लिए अपनायी जा रही पद्धति का हवाला दिया है। यानी एक ऐसा तर्क जो आगे किसी भी तरह की बात को रखने की छूट देने की बजाय मुंह को खुलने से पहले ही दबोच लेना चाहता है। एक जनतांत्रिक प्रक्रिया को बाधित करने का उपकर्म इस अलग होता है क्या ? या खुद के मनोगत आग्रहों की पुष्टि के लिए कहना पड़ रहा है, ''आधुनिकों समकालीनों के बारे में तो ऐसे आचरण की जानकारी हमें हो सकती है, पर प्राचीनों के बारे में ऐसी जानकारी बहुत कम और अधिकतर अप्रमाणिक होगी।"  यहां प्रश्न है कि क्या जब हम प्राचीनों के बारे में बिना किसी जानकारी के रचनाओं का मूल्यांकन करने के लिए मजबूर है तो आधुनिकों समकालीनों के बारे में अन्य किसी जानकारी के प्रति आंखें बंद किए रहे ? और आधुनिकों समकालीनों को सिर्फ और सिर्फ झूठे आदर्शों पर ज्ञान बघ्ाारते हुए सुनते, देखते और पढ़ते रहें ? या, फिर समकालीन यथार्थ का सही मूल्यांकन करते हुए आदर्शों से स्वंय मुंह मोड़ लेने वाले रचनाकार के द्वारा रचना में किसी भी आदर्श को गढ़ने की उसकी मंशाओं के मंतव्य तक पहुँचने की पद्धति को अपनाए ? हाल ही में प्राकशित हुए चिनुचा अचीबी के अनुदित उपन्यास  ''खोया हुआ चैन"" को पढ़ते हुए याद आ गई उपरोक्त टिप्पणी इस लिए अनायास नहीं कही जा सकती, क्यों कि आदर्शों और नैतिकताओं पर दृढ़ उपन्यास के पात्र के जीवन में आ गई फिसलन को समझने की कोशिश करना चाहता रहा। उपरोक्त उपन्यास नैतिकता और आदर्श के लिए पुरजोर तरह से हिमायत और व्यवहार में उसे लागू करने के लिए प्रतिबद्ध पात्र के भ्रष्ट और अनैतिकता की हद गिर जाने का आख्यान है। समझना चाहता हूँ कि आदर्शों के टूटने के साथ ही व्यवाहारिक गड़बड़ियां एक मनुष्य को यूंही घेर लेती होंगी या फिर उसे सिर्फ एक उपन्यास की कथा भर ही माना जाए। कवि आलोचक अशोक बाजपेयी की टिप्पणी तो उपन्यास को समझने का द्वार नहीं खोल रही है।    

- विजय गौड़

No comments: