Friday, October 26, 2012

गाय पर निबंध लिखो


गाय: जीवन में उपेक्षित पर मरने पर महान माँ  
 यादवेन्द्र 

 9411100294
राजनैतिक नजरिये से देखें तो गाय को लेकर अभी प्रकाश सिंह बादल ने मृत गाय की आत्मा की शांति के लिए विधान सभा में शोक प्रस्ताव रखने और गाय के भव्य स्मारक के निर्माण के लिए करोड़ों रु.स्वीकृत करने जैसे अप्रत्याशित कारनामे  पंजाब  में किये तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने जन्माष्टमी पर अपने ब्लॉग में कांग्रेस की सरकार पर गोमांस का निर्यात करने का बहाना बना कर हल्ला बोला.पर गऊ माता का दिनरात माला जपने वाली भाजपा बादल के निर्णय का स्वागत करने के बदले चुनावी नफे नुक्सान को देखते हुए कभी हाँ तो कभी ना करने की मुद्रा में आ गयी पर सबसे हास्यास्पद स्थिति विधान सभा सचिवालय की हो गयी कि इस शोक प्रस्ताव का लिफाफा किस पते ठिकाने पर पहुँचाया जाये यह किसी को समझ नहीं आ रहा था.इसी तरह गुजरात में गोहत्या को भाजपा को बड़ा मुद्दा बनाते देख कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा दस हजार एकड़ से ज्यादा सुरक्षित गोचर भूमि उद्योगों को कारखाने लगाने को दे डालने का आरोप लगाया और सत्ता में आने पर उस भूमि को वापस लेने का आश्वासन दिया.इन सबके बीच केरल के थुम्बा रॉकेट प्रक्षेपण केंद्र के पचास साल पूरे होने पर इसके प्रथम निदेशक डा.बसंत गौरीकर ने याद दिलाया  कि रॉकेट प्रक्षेपण की उनकी पहली प्रयोगशाला एक गौशाला में बनायी गयी थी. 
पर गाय क्या आज के समय में सचमुच इस पाले से उस पाले में धकेली जाने वाली राजनैतिक गेंद नहीं रह गयी है?देश के अधिकांश भू भाग में दैनिक जीवन में दूध की बात जब की जाती है तो वह दूध गाय का नहीं बल्कि भैंस
 इरान के नए सिनेमा के शिखर पुरुष दरियुश मेहरजुई की युगांतकारी फिल्म द काऊ  (1969 )  दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाने वाली कृति है और आज के हर बड़े फिल्म समारोह में धूम मचाने वाले इरानी फ़िल्मकार इस फिल्म को अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते हैं.एक गोमांसभक्षी इस्लामी समाज में किसी निःसंतान व्यक्ति  को अपनी गाय को बच्चे जैसा दर्जा देना आसानी से हजम नहीं होता पर यह इतिहास में दर्ज है कि दुनिया भर में इस्लामी अभ्युदय की पताका फहराने वाले अयातोल्ला खोमैनी
की  यह पसंदीदा फिल्म थी और कहा तो यहाँ तक जाता है कि यही वो फिल्म थी जिसने कट्टरपंथी इस्लामी क्रांति के बाद फिल्म संस्कृति को नेस्तनाबूद करने के निर्णय को बदलकर शासन को फिल्मों के सकारात्मक पक्षों के समाज निर्माण में भूमिका की सम्भावना  के प्रति सहिष्णु बनाया.
का या डेरी का मिश्रित दूध होता है.अब यह अलग बात है कि स्वामी रामदेव जब जन स्वास्थ्य को सँवारने के नाम पर अपने व्यवसाय की बात करते हैं तो उनमें गोमूत्र के उत्पादों का नाम तो प्रमुखता से लिया जाता है पर गाय के दूध का सेवन बढ़ाने की बात कम सुनाई देती है.ओलम्पिक में देश का मान ऊँचा उठाने वाले पहलवानों सुशील  और योगेश्वर का जब दिल्ली के चाँदनी चौक में पारंपरिक शैली में स्वागत किया गया तो उन्हें रोहतक से 82 हजार रु.प्रति भैंस की लागत से खरीदी गयी भैंसें(गाय नहीं) थमाई गयीं...तस्वीरों में आज के युग के दोनों पहलवान उनके रस्से थामते हुए संकोच करते हुए दिखते हैं.यहाँ यह प्रसंग विषयेतर नहीं होना चाहिए कि ओलम्पिक  में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने के बाद टीम जब दक्षिण अफ्रीका लौटी तो वहाँ के एक बड़े उद्यमी ने विजेता खिलाडियों को अच्छे नस्ल की गायें देने की घोषणा की पर कुछ खिलाड़ियों ने जीवित गाय स्वीकार करने की बजाय उनके मांस से बने पकवान गरीब बच्चों के बीच बाँट देने का अनुरोध किया. अमेरिकी डेयरी उद्योग में साफ़ सफाई के नाम पर गायों की पूँछ काट डालने की परिपाटी पर दुनिया भर के पशुप्रेमी सवाल उठाते रहे हैं.यूँ अमेरिका के कई राज्यों में भी पशुओं के प्रति क्रूर बर्ताव का विरोध करने वाले कुछ संगठन सड़क किनारे उन गायों का स्मारक बनाने की माँग कर रहे  हैं जो गाड़ियों की ठोकर से असमय जान गँवा बैठीं.
जब मेरी पीढ़ी के लोगों ने स्कूल में हिंदी में निबंध लिखना शुरू किया था तो सबसे पहले विषय के रूप में गाय ने ही पदार्पण किया था और इसके चौपाये होने जैसे परिचय के साथ इसका श्रीगणेश हुआ करता था.बाद में स्व.रघुवीर सहाय ने दिनमान में एकबार गाय पर लिखे लेख आमंत्रित करके अभिजात पाठकों को चौंका दिया था.बदलते हुए भारत के आदर्शवादी व्याख्याकार प्रेमचंद के गोदान का पूरा ताना बाना ही एक दुधारू गाय और उस से होने वाले अल्प आय से भविष्य सँवर जाने के स्वप्न के इर्द गिर्द बुना गया था..पर देश के नवनिर्माण के स्वप्न सरीखे इस गो स्वप्न के बिखरने में समय नहीं लगा.लोकमानस में गाय की छवियाँ बदलती सामाजिक सचाइयों और अर्थव्यवस्था के साथ धूमिल जरुर पड़ रहीं हैं और गाय को लेकर अब सारा मामला इसके वध और मांस बेचने /निर्यात करने तक सिमट कर रह गया है.स्व.करतार सिंह दुग्गल की एक गाय और उसके बछड़े को लेकर लिखी गयी अद्भुत पंजाबी कहानी अब इतिहास की बात रह गयी.
सांप्रदायिक चश्में से समाज को देखने वाले गोवध की बात करते हुए हमेशा मुसलमानों की ओर ऊँगली उठाते हैं पर पिछले दिनों कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयों में छात्रों के मेस में विभिन्न जीवन शैलियों को बराबरी का दर्जा देने के साथ गोमांस का प्रयोग करने की माँग तक हुई है.दिल्ली के जे.एन.यू. में तो गो और सूअर मांस फ़ूड फेस्टिवल आयोजित करने को लेकर मामला हाई कोर्ट तक जा पहुंचा है. दलित विमर्श में भी गोमांस के निषेध के ब्राह्मणवादी डंडे को नकारने के स्वर उठते रहे हैं और इसको व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन कहा जा रहा है.पर देवबंद के दारुल उलूम की हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए मुसलमानों से गोवध से परहेज करने की और गोहत्या के सम्बन्ध में देश के नियम का सम्मान और पालन करने की गुजारिश(फतवे की शक्ल में) का पूरा पन्ना ही  दैनिक विमर्श की किताब से फाड़ लेने का षड्यंत्र जोर शोर से जारी है.
 इरान के नए सिनेमा के शिखर पुरुष दरियुश मेहरजुई की युगांतकारी फिल्म द काऊ(1969 )  दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाने वाली कृति है और आज के हर बड़े फिल्म समारोह में धूम मचाने वाले इरानी फ़िल्मकार इस फिल्म को अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते हैं.एक गोमांसभक्षी इस्लामी समाज में किसी निःसंतान व्यक्ति  को अपनी गाय को बच्चे जैसा दर्जा देना आसानी से हजम नहीं होता पर यह इतिहास में दर्ज है कि दुनिया भर में इस्लामी अभ्युदय की पताका फहराने वाले अयातोल्ला खोमैनी की  यह पसंदीदा फिल्म थी और कहा तो यहाँ तक जाता है कि यही वो फिल्म थी जिसने कट्टरपंथी इस्लामी क्रांति के बाद फिल्म संस्कृति को नेस्तनाबूद करने के निर्णय को बदलकर शासन को फिल्मों के सकारात्मक पक्षों के समाज निर्माण में भूमिका की सम्भावना  के प्रति सहिष्णु बनाया. फिल्म के नायक हसन का अधिकांश समय गाय(पूरे गाँव में इकलौती गाय) को नहलाने धुलाने,खिलने पिलाने,बतियाने और हिफाजत करने में ही जाता है...यहाँ तक कि साबुन से मलमल कर नहलाने  के बाद वो उसको अपने  कोट से पोंछता है .अपनी गाय की वजह से उसकी गाँव में बहुत इज्जत है और जब उसको पता चलता है कि वो गर्भवती है तो हसन को एक से दो गायों का स्वामी हो जाने का गुमान भी होने लगता है.एकदिन किसी काम से जब हसन को बाहर जाना पड़ता है तो उसी बीच में उसकी गर्भवती गाय की मृत्यु हो जाती है.उसकी पत्नी और सभी गाँव वाले गाय को एक गड्ढे में दफना तो देते हैं पर मिलकर यह फैसला करते हैं कि हसन के लौटने पर उसकी कोमल भावनाओं का ख्याल रखते हुए गाय के अपने  आप कहीं चले जाने की  बात कहेंगे.हसन को लोगों की बात पर भरोसा नहीं होता पर गाय से बिछुड़ जाने की बात उसके लिए ग्राह्य नहीं होती.उसकी याद में वह इतना तल्लीन और एकाकार हो जाता है कि खुद को हसन नहीं हसन की गाय मानने लगता है. अपना कमरा छोड़ कर वो गाय के झोंपड़े में रहने लगता है,पुआल खाने  लगता है और गाय की आवाज में बोलने भी लगता है.फिल्म का सबसे मार्मिक व् धारदार वह दृष्य है जब उसकी यह दशा देख कर गाँव वाले गाय के लौट आने का झूठा दिलासा देते हैं तो गाय बना हसन चारों दिशाओं में असली हसन को ढूँढने लगता है.उसको जबरदस्ती जब लोग अस्पताल ले जाने की कोशिश करते हैं तो वह बिलकुल अड़ियल जानवर जैसा सलूक करता है...फिर उसकी डंडे से जानवरों जैसी पिटाई की जाती है और अंततः तंग आकर बारिश में खुले आकाश के नीचे छोड़ कर लोग चले जाते हैं.अंत में हसन एक पहाड़ी से फिसल कर गिर जाता है और अपना दम तोड़ देता है.
हसन रूपी गाय को इरानी फिल्म व्याख्याकारों ने सीधी सादी जनता के रूप में देखा और लोकतान्त्रिक आजादी के खात्मे के बाद होने वाली दुर्दशा का सशक्त प्रतीक बताया...क्या भारत में भी गाय संकीर्ण दलगत और जातिवादी राजनीति से ऊपर उठकर  एकबार फिर विनाश न करने वाली उत्पादन पद्धति ,सामाजिक भाईचारे और सहिष्णुता का प्रतीक बनेगी?

Friday, October 19, 2012

करतब दिखाती लड़की





फांस २०११ में प्रकाशित मेरा पहला उपन्यास है। आज (१९/१०/२०१२) सड़क से गुजरते हुए उपन्यास के पात्रों से नये सिरे से मुलाकात हुई। कुछ तस्वीरें हैं जो नायिका की हैं। नायिका से संबंधित उपन्यास का एक छोटा सा हिस्सा यहां शेयर कर रहा हूं। तस्वीरें आज शाम की हैं।
तब से आज तक जीने के लिए जान को जोखिम में डालने वाली यह लड़की देखो तो कैसे इतरा रही है न!!
जब से साइकिल वाले ने मजमा लगाया, छोटे ने वहीं अपना अड्डा जमा दिया। सुबह और शाम के वक्त जब दर्शकों की बेतहाशा भीड़ होती और साइकिल वाला तरह-तरह के करतब दिखाता तो छोटे को बड़ा मजा आता।  
अनवरत, सात दिनों तक साइकिल चलाने वाला वह शख्स इसी कारण छोटे का प्रेरणा स्रोत बनता जा रहा था। स्कूल जाने की बजाय वह दिन भर ही वहीं मण्डराता रहता। सुबह घ्ार से निकल जाता और देर रात को, जब साइकिल वाला स्वंय, बड़े प्यार से-अपने अजीज छोटे और सागर को खुद घर के लिए रवाना करता, तब ही घर पहुँचता। शाम के वक्त जब साइकिल वाला करतब दिखा रहा होता तो उस वक्त साइकिल पर सवार उसकी बेटी रीना भी साथ-साथ होती। अपने पिता के जैसे वह भी तरह-तरह के करतब दिखाती। उस छोटी सी लडकी के करतब तो छोटे को आश्चर्य से भर देते और उकसाने लगते- 'जब इतनी पुच्ची-सी यह।।।ये सब कर सकती है।।। तो मैं क्यों नहीं ?"
लोहे के गाल रिंग को वह गले में डालती और मुश्किलों से, गर्दन भर की गोलाई बराबर, रिंग के घेरे को नीचे पाँवों तक पहुँचा देती। छोटा ही नहीं हर कोई अचम्भित होता। तनी हुई रस्सी पर संतुलन बनाकर चलते हुए उसके चेहरे पर जो मुस्कान बिखर रही होती, छोटा उसमें नहाने लगता। देखने वाले तालियां पीटते। पर तनी हुई रस्सी पर करतब दिखाती रीना को साक्षात देखना तो छोटे के लिए संभव ही न होता। यदि देख पाता और हाथ खुले होते तो खूब तालियां पीटता। वह तो उस वक्त कंधे का पूरा जोर लगाते हुए खम्बे को थामे हुए होता। निगाहें जमीन की ओर झुकी होतीं। शरीर की पूरी ताकत कंधें पर सिमट आने की वजह से माथे पर तनाव उभर आता। भौहों पर एकाएक उठ आया माँस ऊपर कुछ दिख जाने की संभावना को भी खत्म कर देता। उस वक्त तो  सिर्पफ दर्शकों की तालियों को से ही महसूस कर सकता था कि रस्सी पर छाता ताने चलती रीना गजब की खूबसूरत दिख रही होगी। 
खम्बा कंधे के जोर पर टिका होता और दोनों हाथ खम्बे को कसकर पकड़े होते।
रस्सी जिन खम्बों पर बंधी होती उन खम्बों को पकड़ने के लिए दो मजबूत आदमियों की जरूरत थी। मजबूती ऐसी कि जिनकी पकड़ में कसे हुए खम्बों पर जो रस्सी तनती, उस पर ही वह अदाकारा लड़की एक सिरे से दूसरे सिरे तक दौड़ती, ठुमके लगाती। खम्बे जमीन में गाड़े नहींं जा सकते थे। करतब दर करतबों की श्रंृखला को स्थायी तौर पर गड़े खम्बों के साथ जारी रखना संभव न था। गड़े हुए खम्बों को जल्दी से हटाना संभव नहीं। और हटा भी दें तो छुट जाने वाले गड्ढों को कैसे भरें !  मजबूत, बलिष्ठ कंधें के जोर पर ही करतब को संभव किया जा सकता था। साइकिल वाले ने साइकिल पर चढ़े-चढ़े ही गोल घ्ोरे में घ्ाूमते हुए गुहार लगायी।

- मेहरबानों, कद्रदानों ।।।! ।।।।मैं।।।अपना आज का खेल शुरू करने से पहले।।।आप लोगों की दाद चाहता हूं।।।।

दर्शकों की करतल ध्वनि  गूँज गई।

-।।।मित्रों आज दूसरा दिन है।।।।कल आपने मेरी बेटी रीना को रिंग से पार होते देखा। ।।।आज भी देखोगे।

साथ-साथ चलती रीना के चेहरे पर उल्लास की रेखा खिंचती रही। छोटा नहाता रहा

- रीना आज आपके सामने वो करतब दिखायेगी।।।जिसे देखते हुए ।।। आपकी निगाह रुकी की रुकी रह जाएगीं।

दर्शकों की करतल ए"वनि के साथ-साथ गोल घेरे में चल रही रीना ने झटका देकर अपनी साइकिल के अगले पहिए को उसी तरह उठाया जिस तरह अक्सर, किशोर उठाता। पर वह उतनी कुशल नहीं थी कि पिता की तरह एक ही पहिये पर पूरा गोल चर काट सकती थी। बस एक सीमित दूरी तक ही साइकिल को साध् पाई। लड़खड़ाते हुए संभलने की कोशिश का वह क्षण ऐसा रोमंचकारी था कि पाँव जमीन पर टिकने की बजाय साइकिल के अगले रिम की किनारियों में पँफस गए। ठीक वैसे ही जैसे किशोर दोनों पाँवों को मात्रा एक इंच की चौड़ाई वाले रिम में में फंसा देता और एक हाथ से हैण्डल को थाम कर दूसरे हाथ से अगले पहिए को ढकेल कर आगे बढ़ा रहा होता। उसकी उम्र के घेरे में मौजूद दर्शकों की हथेलियां अनूठे अंदाज में करतब दिखाती अदाकारा के लिए यकायक खुल गईं। असपफलता का नहीं सफलता का वह बेहद मासूम क्षण था जिसने रीना को उत्साह से भर दिया। किशोर के चेहरे पर भी एक आश्चर्यजनक मुस्कराहट थी।

- हाँ तो दोस्तो।।।रीना जो करतब दिखायेगी ।।। उसके लिए मैं।।।दो मजबूत, बलिष्ठ आदमियों से दरखास्त करता हूँ ।।। वे आएं और मजबूती से इन खम्बों को पकड़क़र खड़े हो जाएं ।।। एक इध्र।।।और।।।दूसरा उध्र। ।।। अपने कंधें की ताकत पर यकीन हो तो चले आओ दोस्त। ।।। खम्बों पर तनी रस्सी पर ही रीना चलकर दिखायेगी।

कोई आगे न बढ़ा। मैदान के बीच जाकर, खम्बा पकड़ लेने का साहस, संकोच की चादरों में लिपटा रहा साइकिल वाले ने दूसरी बार गुहार लगायी। कोई सुगबुगाहट नहीं। हर कोई खेल देखना चाहता था, खेल का हिस्सा होना नहीं चाहता था। कंधें के जोर पर यकीन कैसे करें, सवाल मुश्किल था। कहीं भसक ही न जाए कंध ! क्यों बैठे ठाले ले लें पंगा। आशंकाएं चुप्पी की भाषा में तब्दील हो चुकी थी।
संकोच के लबादे को एक ओर पेंफक, छोटा आगे बढ़ा और अपने हर अच्छे-बुरे वक्त के साथी, सागर को भी खींच लिया था। सागर की देह ऐसी कि कमीज के टूटे हुए बटन से झांकता छाती का पिंजर। मनुष्य के शरीर की भीतरी संरचना के पाठ को पढ़ाने में भी उसकी मदद ली जा सकती थी। साइकिल वाला दोनों ही बालकों की कद काठी के कारण उनकी शारीरिक क्षमता का आकलन नहीं कर पाया। बल्कि उनको देखकर तो कुछ दर्शक भी खिलखिलाने लगे। लिहाजा साइकिल वाले ने एक बार पिफर गुहार लगायी।

- देखिए भाई लोगों ।।। इन दो होनहार बालकों ने अपना साहस दिखाया है।।।।।।। मैं दोनों ही बच्चों का सम्मान करता ।।।इनकी हिम्मत की दाद देता  ।।। पर भाईयों ये बच्चे इतने छोटे हैं कि खम्बे को अपने शरीर के जोर पर रोक न पायें।।।शायद ।।। मेरी गुजारिश है ।।। मजबूत कद-काठी के मेरे भाई ।।। अपने संकोच को छोड़कर ।।। आगे बढ़े ।।। और देखें कि मेरी बेटी रीना कैसे तनी हुई रस्सी पर।।।एक सीरे से दूसरे सीरे तक चलकर ।।।। आप लोगों को कैसे आनन्दित करेगी।

अपनी जाँघों के दम पर साइकिल के हैण्डल को थामे, आदमकद लम्बाई के बावजूद किशोर की आवाज में एक दयनीय पुकार थी-दर्शकों से की जा रही गुहार। कहीं कोई प्रतिक्रिया न हुई। खामोशी चारों ओर व्याप्त हो गई। पिता के साथ गोल घेरे में चक्कर काट रही रीना की आँखों में करतब दिखाने की चंचलता थी। साइकिल वाला वैसे ही गोल चर लगाता जा रहा था, जैसे उसे अगले पांच दिनों तक अनवरत लगाने थे।
साइकिल वाले की बार-बार लगायी गई गुहार पर भी कोई आगे न बढ़ा। साइकिल वाला सागर और छोटे के कंधें की ताकत और खम्बों पर उनकी पकड़ पर अपना विश्वास जमा नहीं पा रहा था। उसकी हर अगली गुहार पर छोटा अपने को और छोटा महसूस करने लगा। उसे साइकिल वाले का व्यवहार बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। गुस्सा उसके भीतर था पर मन ही मन वह बड़बड़ाता रहा- 'एक बार मौका तो दे के देख ।।। मजाल है खम्बा अपनी जगह से एक सूत भी खिसक जाए।'
अनेकों पुकारों के बाद भी जब कोई आगे न बढ़ा तो छोटा और सागर ही विकल्प के रूप में बचे रह गए। करतब तो दिखाना ही था। दोनो ही बच्चों की मदद से साइकिल वाले ने करतब दिखाने की ठान ली। लेकिन एक आवश्यक सावधनी उसने ले लेनी चाही, जो वैसे भी उसे लेनी ही थी। छोटे और सागर को एक पफासले पर आमने-सामने खड़ा होने की हिदायत देते हुए उसने जमीन पर उन जगहों को चिहि्नत कर-जहाँ लकड़ी के खूँटे गाड़े जाने थे, निशान मार देने को कहाँ

- मेरे बहादुर बच्चों।।।वहाँ दो लकड़ी के खूंटे रखे हैं ।।। उठा लाओ।

गोल घेरे के बाहर, जहाँ साइकिल वाले का सामान रखा था, छोटे और सागर वहाँ उलझे सामानों के बीच रखे, एक ओर से नुकीले, लकड़ी के दो भारी-भारी खूंटे उठा लाए।

- बहादुर बच्चों।।।जहाँ तुमने निशान लगाये हैं।।।वहीं पर दोनों को गाड़ दो। ।।। लकड़ी के इन खूँटों के सहारे ही तुम्हे खम्बे को टिकाना है और अपने कंधें के जोर पर उन्हें थामना है ।।। यह खूँटे तुम्हे मदद पहुँचायंेगे।।।।

सागर दौड़ कर गया और सामानों के साथ ही रखे एक भारी भरकम हथौडे को उठा लाया और खूँटों को ठोकने लगा। दोनों का ही उत्साह देखने लायक था। किसी प्रकार का संकोच उनके भीतर न था। लकड़ी के खूँटों को मजबूती से गाड़ दिया गया। मजबूती ऐसी कि भैंसे को बांध् दिया जाए तो पूरे जोर लगाने के बाद वह भी न उखाड़ सके। करतब के लिए मैदान तैयार हो गया। छोटे और सागर ने अपने-अपने खम्बों को खूँटों के सहारे टिका दिया। दोनों खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी खम्बों के एकदम सीधे होते ही खिंच गई। खूँटों के सहारे खम्बों को टिका दिया गया। दोनों ने ही अपनी पकड़ को मजबूत किया। जाँघ से लेकर कंधे तक का जोर लगाकर खम्बों को सीध किया। खम्बों के शीर्ष पर बंधी रस्सी पूरी तरह से तन गयी। अब किसी प्रकार का भी झोल उसमें दिखायी नहीं दे रहा था। रस्सी पर करतब दिखाने से पहले रीना ने उसके तनाव और खम्बों पर सागर और छोटे की पकड़ की मजबूती जांचनी चाही। साइकिल पर चलते हुए ही उसने दूसरी रस्सी में लंगड़ बांध् ऊपर को उछाल दिया। तनी हुई रस्सी पर फंदा डालने का उसका अंदाज निराला था। सागर और छोटे बेखबर थे। उनका सारा ध्यान तो इसी पर टिका था कि कब और कैसे रीना तनी हुई रस्सी पर चढ़ती है। तनी हुई रस्सी के दूसरी ओर निकल आए लंगड़ का पंफदा बना उसने जोर का झटका दिया। झटके के साथ ही कांप रस्सी ने दोनों ही ओर के खम्बों समेत छोटे और सागर भी लड़खड़ा दिया। हँसी का ऐसा फव्वारा छूटा, जिसमें रीना की हँसी की खनक भी शामिल थी। साइकिल वाला भी मुस्कराने लगा।

- कोई बात नहीं जवानों।।।कोई बात नहीं । बस ।।।एकदम सावधन रहो मेरे बच्चों ।।। तुम्हारे कंधें की ताकत पर ही मेरी बेटी रीना।।।या तो हुनरमंद करतबबाज कहलायेगी।।।या अनाड़ी। चलो अबकी बार पिफर से तय्यार हो जाओ ।।।। खम्बों को मजबूती से पकड़ लो ।।। कीलड़ों का सहारा नहीं हटना चाहिए ।।। रीना एक बार फिर से रस्सी को खींचकर देखेगी। खम्बे जरा भी हिले ।।। या झुके ।।। तो रस्सी का तनाव कम हो जाएगा। ।।। बस।।।समझ लो मेरे बहादुर बच्चों।।।वही क्षण हवा में झूलती रीना को नीचे पटक देगा ।।। तुम्हारे हाथों में मेरी इज्जत है मेरे बच्चों।।।!! ।।। चलो एक बार पिफर तय्यार हो जाओ और अपने शरीर के जोर पर रोको खम्बें।

रीना ने एक बार पिफर वैसे ही जोर का झटका दिया। छोटे और सागर अबकी बार मुस्तैद थे। अपने जिस्म की पूरी चेतना के साथ खम्बों को उन्होंने थामा हुआ था। कैसा भी झटका उनकी पकड़ को ढीला नहींं कर सकता था। रस्सी का तनाव ज्यों का त्यों बना रहा तालियों की जोरदार आवाज स्वाभाविक ही थी। छोटा भीतर ही भीतर गर्व से भर गया। सागर भी। रीना ने एक और अप्रत्याशित प्रयास थोड़े अंतराल में पिफर किया, यह जांचने के लिए कि कहीं सागर और उसका साथी छोटा पिफर से लापरवाह तो नहीं हो गए। पर खम्बों पर पकड़ पहले से भी मजबूत थी। आश्वस्त हो जाने के बाद साइकिल को एक ओर छोड़, लम्बे-लम्बे बाँस के डण्डों में बने कुंडों में दोनों पाँव पँफसा रीना डण्डों के सहारे खड़ी होने लगी। छटांक भर की लड़की पलक झपकते ही आसमान को छूने लगी। लम्बे-लम्बे बाँसों पर खड़ी वह हवा में चलती हुई सी लग रही थी। उसके चेहरे पर उल्लास था। दर्शकों को उसका चेहरा देखने के लिए अपनी-अपनी गर्दन को इस कदर उठाना पड़ रहा था कि एक बार को भ्रम हो सकता था कि वे तो आकाश को ताक रहे हैं। छोटे और सागर चाहकर भी गर्दन नहींं उठा सकते थे। खम्बों के लचक जाने का भय उन्हें छूट नहीं दे रहा था। वे तो बाँसों पर चढ़ी आदमकद ऊँचाई को छूती रीना का होना, बस गोल घेरे में चक्कर काटती दो बल्लियों के रूप में ही महसूस कर सकते थे- वह भी तब, जब वह साइकिल पर चर लगाते अपने पिता के साथ-साथ बाँसों के सहारे चलती हुई उनके एकदम नजदीक से गुजर रही थी।
बाँस के डण्डे जो उसके पाँवों में पँफसे थे, न जाने कब हटे कि वह तनी हुई रस्सी पर खड़ी हो गयी। हाथों को शरीर से बाहर की ओर पूरा खोलकर एक कुशल करतब बाज की तरह वह तनी हुई रस्सी पर चल रही थी। दर्शक झूम रहे थे और जिनकी करतल ध्वनियों से पूरा माहौल गूँज रहा था। लड़की अपना संतुलन बनाये हुए जितनी एकाग्र थी, छोटे और सागर की एकाग्रता को उससे उन्नीस नहीं कहा जा सकता था। हवा में उछलकर जब लड़की जमीन पर कूद गई तो छोटे और सागर की तनी हुई माँस-पेशियाँ अपनी सामान्य स्थितियों में लौटने लगी। उनके शरीर पसीने से भीग चुके थे। साइकिल वाला दोनों ही लड़कों के प्रति कृतज्ञ हो रहा था। लड़की फिर से साइकिल पर चढ़कर अपने पिता के साथ-साथ गोल चर काटने लगी। उसके करतब से प्रभावित हुए पहले से ही ढीली जेबों वाले दर्शक, अपनी उन जेबों को पूरी तरह से उलट कर ढीला कर देना चाहते थे। लड़की के हुनर का सम्मान करने के लिए अपनी भावनाओं का प्रदर्शन वे इसी तरह कर सकते थे। भारी जेब वालों की उंगलियां उनकी जेबों में फंसकर रह जा रही थी। 
(उपन्यास अंश- फांस)

 

Thursday, October 18, 2012

मनुष्यता का दैहिक यथार्थ



किसी भी रचना की विविध व्याख्यायें संभव है। रचना के मंतव्य के आधार पर, शिल्प या विषय वस्तु के आधार पर। रचना के काल और पृष्ठभूमि के आधार पर। प्रशंसक की अपनी मन:स्थिति भी व्याख्या का आधार होती है। इतिहास को भी तथ्य आधारित रचना ही माना जा सकता है। क्योंकि तथ्यों का चुनाव और उनका प्रस्तुतिकरण इतिहासकार की दृष्टि का हिस्सा हुए बगैर स्थान नहीं पा सकते। सवाल है विविध के बीच सबसे उपयुक्त व्याख्या किसे स्वीकारा जाये।

स्पष्टत:, सामाजिक नजरिये से खुशनुमा माहौल, बराबरी की भावना और उच्च आदर्शों की स्थापना जैसे प्रगतिशील मूल्यों के उद्देश्य को महत्व मिलना चाहिए एवं सामाजिक विघटन और पतन की कार्रवाइयों का समर्थन करती रचना या रचना की व्याख्या को त्याज्य समझा जाना चाहिए। लेकिन देखते हैं कि सामंती मूल्य चेतना के लिए वह त्याज्य ही सर्वोपरी एवं सर्वोत्कृष्ट बना रहता है। बल्कि, बरक्स प्रगतिशील मूल्यों पर प्रहार करना ही उसका प्राथमिक लक्ष्य होता है। मनुष्य को उसकी सम्पूर्ण प्रकृति में स्वीकारने से भी उसे परहेज होता है। स्त्रियों के मामले में सामंती दौर का तीखापन दासता का नुकीला इतिहास है। स्त्री की दैहिकता को स्वीकारने में ज्यादा पहरेदारी वाली जीवनशैली उसका चरित्र है। प्रकृति के रहस्यों की अज्ञानता से उपजे ईश्वर की कल्पनाओं को विदेह के रूप में देखने की उसकी प्रकृति ने जिद्दीपन की हद तक मनुष्यता को भी विदेह माना है। देह के सौन्दर्य की कल्पना पाप का पर्याय बनी है। देख सकते हैं कि सामंती दौर का प्रतिरोधी साहित्य प्रेम की स्पष्ट आवाजों में नख-शिख वर्णन से भरा है। सामंती पहरेदारी के खिलाफ संयोग श्रृंगार के वर्णन खुली बगावतों जैसे हैं। साहित्य का भक्तिकाल प्रेम की उपस्थिति में ही विद्रोह की चेतना के स्वर को बिखरने वाला कहलाया है। कला साहित्य ने मनुष्यता के पक्ष के साथ अपनी सार्थकता को सिद्ध किया है और मनुष्यता के विदेहपन के प्रतिरोध में ही निराकार ईश्वर को साकार रूप में रखते हुए दैहिक सौन्दर्य को अपना विषय बनाया है। दैहिक सौन्दर्य से परिपूर्ण मनुष्यता के कलारूप्ा ऐतिहासिक गुफाओं के भीतर अंकित हुए हैं। सार्वजनिक कलारूपों में उनकी अनुपस्थिति इतिहास के अनुसंधान का विषय होना चाहिए था। लेकिन सामंती चेतना का ऐजेण्डा आदर्शों और नैतिकताओं की पुनर्स्थापना में ज्यादा आक्रामक होता गया है। एम एफ हुसैन के चित्रों में आम मनुष्य की दैहिकता का रूप धारण करती ईश्वरियता हो चाहे राजा रवि वर्मा के चित्रों में आकर लेता मिथकीय यथार्थ हो, हमेशा उसके निशाने में रहा है।  
  
नवजागरण काल के चित्रकार राजा रवि वर्मा की रचनाओं की यह व्याख्या ही हिन्दी फिल्म ''रंगरसिया" का विषय है। केतन मेहता के कैमरे की आंख से उसे देखना एक सुखद अनुभव है। मराठी उपन्यासकार रंजित देसाई के उपन्यास पर आधारित राजा रवि वर्मा के जीवन की झलकियों से भरी केतन मेहता की फिल्म ''रंगरसिया" यूं तो एक व्यवसायिक फिल्म ही है। लेकिन गैर बराबरी की अमानवीय भावना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ठेठ स्थानिक किस्म की आधुनिकता जैसी पंच लाइनों से भरे दृश्यों की उपस्थिति उसे व्यवसायिक फिल्मों के बाजारूपन वाली धारा से थोड़ा दूर कर देती है। फिल्म इस बात पर भी ध्यान आकृष्ट करती है कि भारतीय आजादी के आंदोलन का आरम्भिक चरण यूरोपिय आधुनिकता के प्रभाव में ठेठ स्थानिक होना चाहता रहा है। समाजिक सुधारों की पहलकदमी और 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि में इसे तार्किक रूप से समझना मुश्किल भी नहीं। फिल्म का एक और महत्वपूर्ण पाठ है कि मनुष्यता के दैहिक यथार्थ को चित्रों में उकेर कर ही राजा रवि वर्मा ने, हर वक्त मन्दिरों के भीतर ही विराजमान रहने वाले दैवी देवताओं को आम जन के लिए सुलभ बनाया है। प्रिंट दर प्रिंट के रूप में घरों की दीवारों तक टंगते कलैण्डरों ने मन्दिरों के भीतर प्रवेश से वंचित कर दिये जा रहे जन मानस को मानवीय आकृतियों वाले ईश्वर से साक्षात्कार करने में मद्द की है। केतन मेहता की फिल्म ''रंगरसिया" का यह बीज उद्देश्य ही उसे आम व्यावसायिक फिल्मों से विलगाता है।
 
इतिहास साक्षी है कि यूरोपिय आधुनिकता से प्रभावित भारतीय बौद्धिक समाज के एक बड़े हिस्से ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को हर स्तर पर पिछड़ा साबित करने को उतारू बिट्रिश श्रेष्ठताबोध से भरी शासकीय औपनिवेशिकता का विरोध अपने तरह से किया है। जिसके तेवर बेशक बहुत क्रान्तिकारी न रहे हों लेकिन भारतीय जनमानस के आत्मबल को संभालने में उसकी कोशिशें ईमानदार रही है। पक्ष में तर्कपूर्ण ऐतिहासिक सांख्यिकी की अनुपस्थिति के चलते हुए भी मिथकों भरी कथाओं के सहारे भारतीय आदर्श को परिभाषित करना उसका उद्देश्य हुआ है। बिट्रिश शासन के प्रतिरोध की यह धारा औपनिवेशिक दौर के कला साहित्य में सत्त प्रवाहमान दिखती है। हिंदी भाषा के विकास के साथ-साथ भारतेन्दू के नाटकों से लेकर पूरे छायावादी दौर तक उसकी धीमी लय को देखा-सुना जा सकता है। मिथकों से होते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास के गौरव की स्थापना का सर्जन उसका उद्देश्य रहा है। चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु जैसे पात्रों को केन्द्र में रख कर रचे गये जयशंकर प्रसाद के नाटकों के विषय छायावादी दौर तक पहुंची उस प्रवृत्ति को ज्यादा साफ करते हैं। ऐतिहासिक माहौल को रचने की यह स्थितियां खुद को पिछड़ा, दकियानूस और तंत्र-मंत्र में ही जीने-रमने जैसा मानने वाली बिट्रिश श्रेष्ठता के प्रतिरोध का अनूठा ढंग था। यह चौंकने की बात नहीं कि ब्रिटिश जीवन शैली को अपनाने वाले भारतीय बौद्धिक वर्ग के भीतर से ही ठेठ देशज भारतीयता की स्थापना का जन्म हुआ। राजा राम मोहन राय से लेकर गांधी के समय तक जारी सामाजिक सुधारों की हिमायत करने वाले ज्यादातर महानुभावों के भीतर यह साम्यता दिखायी देती है।

आधुनिक मूल्य बोध को समाज के विकास के लिए जरूरी मानने वाली मानसिकता से बंधे भारतीय बौद्धिक जमात के ये सभी लोग अपनी पृष्ठभूमि के कारण औपनिवेशिक शासनतंत्र के छद्म को ज्यादा करीब से देख पाने में सक्षम थे और इसीलिए प्रतिरोध को बेचैन भी। औपनिवेशिक शासन तंत्र के साथ उनके रिश्तों की व्याख्या इसीलिए थोड़ा जटिल भी है। निजी जीवन में यूरोपिय स्टाइल की जीवन शैली को अपनाते हुए भी प्राचीन भारतीय साहित्य के भीतर मौजूद नैतिकता और आदर्शों के प्रति आकर्षण भरी उनकी कार्रवाइयां आम जनमानस के साथ उनके संबंधों के अन्तर्विरोधों का ऐसा बिन्दू रहा जिसकी आड़ चालाक ब्रिट्रिश शासकों को राहत पहुंचाने वाली रही। उपज रहे अन्तर्विरोधों को विस्तार देने में न्याय का दण्ड थामें वे खुद को ज्यादा उदार दिखा सकते थे। कानून के राज का यह नया आधुनिक रूप आज तक भी ज्यादा कुशलता से संचालित होता हुआ है। यूरोपिय से दिखते भारतीय बौद्धिक जमात की ठेठ भारतीय आदर्शों की स्थापनाओं की चाह पर प्रहार के लिए पिछड़ी मानसिकताओं से भरे सामंतों और पोंगा पंडितों को प्रश्रय देना औपनिवेशिक शासन की प्राथमिकता थी। प्रतिरोध की कोई स्पष्ट दिशा तय हो सके, ऐसी बहसों में संेधमारी के लिए जरूरी था कि न्यायिक विधान का ऐसा ढोंग रचा जाये जो थकाऊ, उबाऊ और बिट्रिश शासन व्यवस्था के ज्यादा अनुकूल हो। कला साहित्य के माध्यम से प्रतिरोध की गतिविधियों को सीधे तौर पर रोकने की बजाय अपने साथ कदम ताल करते सामंतों और पोंगा पंडितों की मद्द से उन पर प्रहार करना ज्यादा आसान एवं औपनिवेशिक शासन को सुरक्षा प्रदान करने में ज्यादा कारगर था। ठीक उसी तरह, जैसे समकालीन दौर झूठे राष्ट्रवाद के सहारे अंध राष्ट्रीयता की मुहिम को चलाये रहता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं अपितु एक हद तक दिखायी देती लोकतांत्रिक स्थितियों का ही गला घोट देना चाहता है। अनुदार धार्मिक वातावरण की पुनर्स्थापना का वह औपनिवेशिक ध्येय आज छुपा न रह गया है। एम एफ हुसैन जैसे चित्रकार की रचनाओं पर किये जाते और करवाये जाते प्रहारों की लम्बी श्रृखंला इसके साक्ष्य हैं। 

राजा रवि वर्मा के चित्रों के बहाने, फिल्म ''रंगरसिया" भारतीय इतिहास की ऐसी ही व्याख्या को प्रस्तुत कर रही है और भारतीय चित्रकला के ठेठ आरम्भिक चरण से लेकर आधुनिक दौर की विसंगतियों तक हस्तक्षेप करना चाहती है। हिंसा पर उतारू भीड़ के कोलाहल से भरे शुरुआती दृश्य के साथ ही दर्शक का सीधा साक्षात्कार अपने समय से होता है। अभिव्यक्ति का गला घोट देने को उतारू हिंसक जिद का तांडव रंगरसिया जैसे कोमल पद को छिन्न भिन्न करता हुआ है। विलोम की विसंगति से भरे समकालीन यथार्थ की उपस्थिति में जो कुछ दिखायी देता है, उसकी रोशनी में दर्शक स्वत: ही राजा रवि वर्मा पर फिल्माये जा रहे दृश्य में भी एम एफ हुसैन को देखने लगता है। एक बहस उसके भीतर जन्म लेने लगती है और इसीलिए राजा रवि वर्मा के दौर के भारतीय माहौल की दृश्यात्मक सांस्कृतिक अनुपस्थिति के बावजूद समकालीन सी दिखती सांस्कृतिक स्थितियां भी किसी तरह अवरोध नहीं बनती। इतिहास कथा पर केन्द्रित फिल्म का समकालीन जीवन्त स्थितियों सा फिल्मांकन वर्तमान में घटता हुआ सा लगने लगता है। लेकिन फिल्म का यथार्थ राजा रवि वर्मा के चित्रों पर उठायी गयी आपत्ति में दर्ज ऐतिहासिक मुकदमा ही है। रवि वर्मा के जीवन की घटनायें और कलाकार राजा रवि वर्मा होने तक की जो यात्रा दृश्यों में है, वह संभवत: रणजीत देसाई के उपन्यास का कथासार है। आधुनिक भारतीय चित्रकला के शुरुआती चरण का वह महत्वपूर्ण पहलू भी, जिसमें मिथकीय कथाओं के शास्त्रीय चित्रकला का विषय होने की स्थितियां है, स्पष्ट दिख रही है। औपनिवेशिक स्थितियों के विरूद्ध केरल से लेकर आधुनिक महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल तक विचरण करती राष्ट्रीय भावना के शुरुआती उफान में कला साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है जिसने एक सामान्य व्यक्ति, रवि वर्मा को चित्रकार राजा रवि वर्मा होने की स्थितियां पैदा की। देश के भीतर चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव में ठेठ देशज कथाओं को चित्रों में ढालने की वे ऐसी कोशिशें थी जिसमें शकुन्तला, द्रोपदी और अहिल्या सरीखे स्त्री चरित्रों के मार्फत हमेशा से प्रताड़ित स्त्रियों के प्रति संवेदनशील बनने की जरूरत पर ध्यान आकृष्ट किया जा सका है। यह वही समय है जब सामाजिक सुधार की तमाम कोशिशें भी देखी जा सकती हैं। सती प्रथा का विरोध हो रहा है। स्त्री शिक्षा का सवाल समाने है। जाति भेद भाव के विरुद्ध आम सहमति जैसी स्थिति बेशक न बन पायी थी लेकिन उस के प्रति असम्मान का भाव पैदा होने लगा था।

केतन मेहता ने ''मंगल पाण्डे" और "रंगरसिया" के बहाने 1857 के पुनर्जागरण को रखने की जो कोशिशें की है, हिंदी फिल्मों की वर्तमान धारा में उसे एक सकारात्मक हस्तक्षेप कहा जा सकता है। व्यवसायिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बेशक बहुत बुनियादी बातें न हुई हों लेकिन वर्तमान दौर की विसंगतियों और बदलाव की पहल जैसे विषयों पर एक बहस तो जन्म ले ही रही है।  यद्यपि यह भी उतना ही सच है कि पूंजीगत लाभ के दृष्टिकोण से रंगरसिया को दैहिक भव्यता में अंजाम दिया गया है। और इसीलिए वैचारिक सहमति के बावजूद रंगरसिया को फिल्मांकन की बाजारू प्रवृत्ति के बोझ से झुकी कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। फिल्म की मुख्य अदाकारा नंदना सेन के मुंह से साक्षात इन शब्दों को सुनने के बाद भी कि नग्नता यदि दृश्य की आवश्यकता है तो उससे परहेज नहीं किया जा सकता लेकिन नग्नता यदि बाजारूपन का पर्याय है तो जरूर उससे बचा जाना चाहिए। नंदना के कहे के मुताबिक ही देखें तो दैहिक क्रीड़ा के अनंत दृश्यों से भरी रंगरसिया एक विलोम की विसंगति से भरी नजर आती है। क्रीड़ा की वल्गरिटी बेशक नहीं लेकिन उसके भव्य आस्वादन से भरे दृश्यों में दैहिक उपस्थिति का कोलाहल लगातार मौजूद रहता है। यहां यह सवाल भी है कि क्या इस तरह के दृश्यों को मात्र पूंजीगत लाभ की दृष्टि से रचा गया मान लिया जाये और उन पर गम्भीरता से सोचने की बजाय लोकप्रिय सिनेमा की पूंजीगत लाभ की आकांक्षओं से भरी प्रवृत्ति का शिकार मान लिया जाये ? राज रवि वर्मा और मंगल पाण्डे को याद करते हुए पुनर्जागरण काल को याद करने वाले निर्देशक केतन मेहता की फिल्म रंगरसिया को इस तरह के सरलीकृत विश्लेषण के साथ छोड़ना शायद ठीक नहीं। बल्कि निर्देशक के मानस में बैठी उस प्रवृत्ति को पकड़ने की कोशिश होनी चाहिए जिसका शिकार आज के हिंदी युवा कहानीकारों की कहानियां भी हो रही हैं। लहराते पेटीकोट वाले दृश्यों को कलात्मक कौशल के साथ अनूठे से अनूठे तरह से रचने वाली हिंदी कहानियों के संदर्भ में कतिपय मेरा कथन स्पष्ट है कि उसे वैश्विक पूंजी द्वारा स्थापित किये जा रहे मूल्यबोध के गिरफ्त में होते जाने के रूप में समझा जा सकता है। रंगरसिया भी निर्देशक केतन मेहता के उसी प्रभाव में हो जाने के कारण विलोम की विसंगति दिख रही है।

  





Thursday, October 11, 2012

पर उपदेश कुशल बहुतेरे

 --- यादवेन्द्र
मध्य प्रदेश के साँची में लगभग दो सौ करोड़ रु. की लागत से सौ एकड़ भूमि में बनने वाले बौद्ध विश्वविद्यालय का शिलान्यास श्री लंका के राष्ट्रपति महिंद राजपक्ष ने 21सितम्बर को किया जिसमें प्रमुख रूप में बौद्ध दर्शन,सनातन धर्म और विभिन्न धर्मों ,परम्पराओं ,साहित्य और कलाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया जाना प्रस्तावित है.इस अवसर पर उन्होंने विश्व शांति और सहिष्णुता का रटा रटाया उद्बोधन भी किया जिसके सन्दर्भ में खलील जिब्रान की यह उक्ति बेहद समीचीन होगी : "जिनपर जबरन कब्ज़ा कर लिया गया हो उनको यदि विजेता खुद संबोधित करे तो ऐसे भाषण को सुनने को मैं कभी नहीं तैयार हो सकता." मानव स्मृति कितनी भी अल्पजीवी क्यों न हो इन्हीं महाशय के नेतृत्व में श्रीलंका के जातीय नरसंहार को भूलना इतना सहज और आसान नहीं है.
पर भारत में एक विश्वविद्यालय की नींव रखने वाले राजपक्ष के श्रीलंका में जुलाई से सरकारी विश्वविद्यालय पढ़ाई नहीं करवा रहे हैं और हर रोज सरकार तानाशाही फ़रमान जारी कर स्थिति को और बिगाड़ रही है....इस बीच गैर सरकारी विश्वविद्यालय धड़ल्ले से बन रहे हैं.
दक्षिण दिशा में अपने निकटतम पड़ोसी श्रीलंका हमारे मानस पटल से बिलकुल अनुपस्थित रहता यदि जयललिता ने हाल में वहाँ से फुटबॉल खेलने और तीर्थयात्रा करने के लिए तमिलनाडु आने वाले श्रीलंकाई नागरिकों को वापस न भेज दिया होता.थोड़ी और रियायत करें तो जब जब कथित रामसेतु का मामला सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए आता है तब परोक्ष रूप में श्रीलंका की याद आती है.पर अपनी भौगोलिक विशालता के गुरुर में हम इतना खो जाते हैं कि पड़ोसी देशों के समाज को गहरे तौर पर प्रभावित करने वाली बड़ी घटनाएं भी हमें छू नहीं पातीं.
इसी तरह का एक मामला श्रीलंका में जुलाई से चल रही यूनिवर्सिटी शिक्षकों की हड़ताल का है. वहाँ के शिक्षा मंत्री कभी कहते हैं कि इस आन्दोलन का कोई ख़ास असर नहीं है और उनको इसकी परवाह नहीं.फिर अचानक पिछले महीने की 21 तारीख को उन्होंने देश की सभी पंद्रह सरकारी यूनिवर्सिटी को अनिश्चित कालीन अवधि के लिए बंद कर दिया.इस महीने उनको खोल तो दिया गया पर शिक्षकों की हड़ताल अब भी जारी है और धीरे धीरे इस हड़ताल के लिए जान समर्थन बढ़ रहा है.
हड़ताली शिक्षकों की मुख्य माँग है कि उनका वेतन बीस फीसदी बढाया जाये और शिक्षा के लिए देश के कुल जी.डी.पी. का छह फीसदी खर्च किया जाये.उनकी अन्य मांगों में शिक्षा के निजीकरण और राजनैतिक हस्तक्षेप और येन केन प्रकारेण चोर दरवाजे से सैन्य प्रशिक्षण को थोपने को बंद करना शामिल है.पूरा प्रकरण तब ज्यादा प्रासंगिक हो गया जब छात्रों का एक बड़ा वर्ग शिक्षकों की मांग के खुले समर्थन में आ खड़ा हुआ. जब सभी तरफ से इस अड़ियल रवैय्ये को लेकर दबाव बढ़ने लगा तो सरकार को बंद यूनिवर्सिटीयों को खोलने का फैसला करना पड़ा पर हड़ताली शिक्षक बिना माँग माने अपने आन्दोलन को स्थगित करने को तैयार नहीं हैं.सरकार आन्दोलनकारियों की तख्ता पलट की षड़यंत्रकारी मंशा की ओर इशारा करती है तो आन्दोलनकारी हड़ताल को लम्बा खींचने के पीछे उच्च शिक्षा के निजीकरण की कुटिल राजनीति का हवाला देते हैं.

सरकार बार बार यूनिवर्सिटी कैम्पस से उठने वाली सत्ता विरोधी राजनीति का हवाला देती है और इसको जड़ से कुचलने का दम भरती है.इसीलिए शिक्षकों द्वारा उठाई गयी बड़े नीतिगत फैसलों की माँग भी नक्कार खाने में तूती बनकर दबती जा रही है .शिक्षकों की यूनियन के अध्यक्ष डा. निर्मल रंजीथ देवासिरी का कहना है कि उनकी माँग ने देश में शिक्षा की वर्तमान दशा की ओर व्यापक स्तर पर जनता का ध्यान खींचा है तभी तो लाखों की संख्या में उनको समर्थन में लोगों के हस्ताक्षर मिले हैं.अनेक बैठकों के बाद सरकार ने उनकी मांगों की पृष्ठभूमि में एक सरकारी नीति प्रपत्र लेने की बात पर सहमति जताई है पर वेतन वृद्धि को लेकर दोनों पक्षों के बीच की खाई अभी भी उतनी ही चौड़ी है.सरकार ने छात्रों के लिए प्रस्तावित नए प्रशिक्षण कार्यक्रम भी फ़िलहाल रोक देने का आश्वासन दिया है.
सरकार ने बातचीत के बाद जो सरकारी नीति प्रपत्र प्रस्तुत किया उसमें आर्थिक संसाधनों का रोना रोते हुए शिक्षा के लिए जी.डी.पी. का छह फीसदी हिस्सा उपलब्ध कराने में असमर्थता जताई है.जमीनी हकीकत यह है कि 1970 में जहाँ सरकार शिक्षा के लिए 3.98 फीसदी खर्च किया करती थी वह 2005 में घट कर 2.9 फीसदी रह गया और अब तो घटते घटते यह हिस्सा दो फीसदी से भी कम रह गया है.श्रीलंका के पड़ोसी देश मालदीव और मलेशिया जहाँ इस इस मद में 11 और 8 फीसदी खर्च करते हैं वहीँ भारत और पाकिस्तान 3.85 और 2.7 फीसदी खर्च करते हैं.

बांग्लादेश में भी पिछले कई महीनों से यूनिवर्सिटी शिक्षा देशव्यापी आंदोलनों की वजह से ठप है और प्रधानमंत्री शेख हसीना इस अव्यवस्था से निबटने के लिए सख्त होने तक की धमकी दे चुकी हैं.देश में 34 सरकारी और 62 गैर सरकारी यूनिवर्सिटी हैं और इनमें से अधिकांश सरकारी संस्थानों में वाईस चांसलरों और शीर्ष अधिकारियों को हटाने की माँग की जा रही है. कहीं कहीं तो सेना को भी बीच में लाया जा रहा है इसी लिए सेना को सभी उच्च शिक्षा संस्थानों से बाहर करने की मांग भी छात्र करने लगे हैं.अधिकांश मामलों में अध्यापकों का समर्थन छात्रों के साथ है हांलाकि हाई कोर्ट ने उन्हें ऐसा करने से मना किया है पर आन्दोलन की औपचारिक घोषणा न करके वे छात्रों के साथ मिलकर वैकल्पिक आन्दोलन चला रहे हैं.कहा जाता है कि इस शैक्षणिक असंतोष के लिए मुख्यतः शीर्ष पदों पर राजनैतिक नियुक्तियाँ और छात्र तथा शिक्षक यूनियनों का दलगत संघर्ष जिम्मेवार है.शिक्षाविदों में निजी शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देने की नीति को लेकर भी गहरा असंतोष है और सरकार एक के बाद दूसरी कमिटी बना कर आपने हाथ झाड़ लेती है.करीब सवा लाख छात्रों वाली बांग्लादेश की नेशनल यूनिवर्सिटी दुनिया की सबसे बड़ी यूनिवर्सिटी मानी जाती है और उच्च शिक्षा के इच्छुक देश के करीब सत्तर फीसदी छात्र इस से सम्बद्ध हैं पर अव्यवस्था का आलम यह है कि चार साल का डिग्री कोर्स दुगुने समय में पूरा हो पा रहा है.बांग्लादेश यूनिवर्सिटी ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नालाजी देश के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित तकनीकी संस्थानों में शुमार किया जाता है और पिछले दिनों यहाँ के आन्दोलनकारी छात्र अपना लहू एकत्र करके वाईस चांसलर के दफ्तर के सामने बिखेरते हुए देखे गये.

ब्रिटेन पंद्रह साल पहले हांगकांग को चीन के हवाले कर गया था तबसे पश्चिमी तर्ज की आज़ादी का स्वाद चख चुके इस विशेष दर्जाधारी राज्य में चीनीकरण की प्रक्रिया जोरशोर से चलायी जा रही है.कहने को एक हजार वर्ग किलोमीटर से थोड़ा ज्यादा रकबे वाला सत्तर लाख आबादी वाला यह इलाका बहुत छोटा है पर एक दलीय चीनी शासन व्यवस्था थोपने का कदम कदम पर विरोध हो रहा है.नया शैक्षिक सत्र लागू होते ही इसबार हांगकांग के छात्र नए प्रस्तावित नेशनल एजुकेशन करिकुलम (खास तौर पर इसके अंतर्गत दिए गये मोरल एंड नेशनल पॅकेज) का विरोध करते हुए सड़कों पर उतर आये और उन्हें अभिभावकों,आम नागरिकों और शिक्षकों का अपार समर्थन मिला.खबरें आ रही हैं कि लाखों की संख्या में रात दिन लोग इस में शामिल होते गये जिसमें यूनिवर्सिटी के छात्रों पर नैतिक शिक्षा के नाम पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का गुणगान करने वाले एकतरफ़ा इतिहास और पाठ्यक्रम को थोपने का विरोध किया गया.शासन ने पहले तो देशभक्ति की भावना बढ़ाने का हवाला देते हुए काफी सख्त रुख अपनाया पर धीरे धीरे आन्दोलनकारियों के निशाने पर जब भ्रष्टाचार और एकदलीय शासन प्रणाली आने लगे,यहाँ तक कि आन्दोलनकारियों ने स्टैच्यू ऑफ लिबर्टी की तर्ज पर लोकतंत्र की देवी की मूर्ति तक बना डाली तो स्थानीय चुनावों के मद्देनजर शासकों का रवैय्या नरम पड़ा और अंततः 8 सितम्बर को पाठ्यक्रम को फ़िलहाल स्वैच्छिक घोषित कर दिया गया पर 2015 में अनिवार्य तौर पर लागू करने पर अब भी यथास्थिति बनी हुई है.जुलाई में शुरू हुआ स्कूली छात्रों का यह स्वतःस्फूर्त आन्दोलन समाज के प्रबुद्ध तबके को इस कदर झगझोड़ गया कि एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर सार्वजनिक तौर पर बोल पड़े कि हम छात्रों के साथ हैं और उनकी मदद में जो भी बन पड़ेगा हम करने को तैयार हैं.

Tuesday, October 2, 2012

कुछ मन की बातें

पिछले दो तीन महीनों की ऐसी व्यस्तता जिसमें लिखना पढ़ना संभव न हो पाया, उससे निजात मिली है। उस दौरान ब्लाग भी अपडेट करना संभव न हुआ और ब्लाग जगत की खबरों से भी बहुत ज्यादा परिचित न रह पाया। फिर से रूटीन में लौटना चाहता हूं लेकिन इतने दिनों की मानसिक स्थिति वापिस लौटने में आलस बनती रही है। अपने भीतर के आलस से लड़कर कल से कुछ शुरूआत संभव हुई। सोच रहा था पहले ब्लाग अपडेट करूं। लेकिन क्या लिखूं यह विचारते ही एक ऐसा पाठक जेहन में उभर आया, जिससे कभी मिलना संभव न हुआ। हां ब्लाग की दुनिया के उस जबरदस्त पाठक से बहुत से पत्र व्यवहार हुए। तीखे बहसों से भरे वे ऐसे पत्र हैं जो मुझे ऊर्जा देते हैं। उनमें से एक पत्र और जवाब में दिये गये खुद के पत्र को यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। आगे भी मन हुआ तो वे दूसरे पत्र रखना चाहूंगा जिसमें मेरी रचनाओं पर भी उस साथी पाठक की तीखी आलोचनात्मक टिप्पणियां दर्ज हैं।
अपनी आदत के मुताबिक इन पत्रों की वर्ड फ़ाइल में न तो मैंने ही कोई तिथि दर्ज की है न ही साथी पाठक के पत्र पर कोई तिथि दर्ज है। मेल में जरूर तिथियां मौजूद है। लेकिन जब पत्रों की फ़ाइल में वे मौजूद नहीं तो उन्हें दर्ज न करने  की छूट ले रहा हूं ताकि इधर घटी बहुत सी घटनओं के संदर्भ में भी इसे पढ़ पाना संभव हो सके। वि.गौ.
प्रिय मित्र संदीप
क्या ही अच्छा हो कि जिस गिरोहगर्दी के बारे में मैंने अपनी चिन्ताएं रखीं, उसके लिए कोई सांझी कार्रवाई जैसी स्थितियां पैदा हों !!! मैं नहीं जानता कि आप मेरी बातों को सिर्फ एक व्यक्ति की एकल कार्रवाई तक सीमित क्यों मान रहे हैं। मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि साहित्य में ही नहीं जीवन के कार्यव्यापार के किसी भी क्षेत्र में बदलाव की सकारात्मक संभावना की तस्वीर को मैं बिना समान विचार के साथियों के सांझेपन और दोस्ताना सहमति में पहुंचे बगैर संभव नहीं मानता हूं। हां, यह जरूर है कि साहित्य की दुनिया में मेरे द्वारा की जा रही ऐसी पहलकदमियां समान विचारों वाले बहुत ही सीमित साथियों के चलते कई बार एकल जैसी दिखती हुई हो सकती है। लेकिन वे नितांत एकल तो शायद ही होती हो। आपको भी मैं एक समान विचारों वाले मित्र जैसा ही तो मानने लगा हूं। आपके पत्र और उनके मार्फत हमारे बीच के संवाद को क्या सांझापन नहीं कह सकते हैं ? हां, यह ऐसा सांझापन है जिसे शायद कई बार आप भी और मैं भी एकल ही समझ रहे हों। पर मैं इसे एकल तो कतई नहीं मानने को तैयार हूं, वह भी तब-जब हमारे बीच का संवाद, यदा-कदा ही सही, मध्यवर्गीय शालीनता की सीमाओं के पार निकल जा रहा हो और विचारों की आपसी टकराहट मुझे तो कई बार अपनी धारणाओं पर फिर से विचार करने को मजबूर करने लग जा रही हो। संदीप जी आपने रचना में एजेण्डे के बरक्स ट्रीटमेंट की स्वायतता की जो बात कही, वह एकदम दुरस्त बात है। यहां कहना चाहूंगा कि ट्रीटमेंट को ही कई बार एजेन्डा मानने की जिद ही है जो कलावाद की अंधी गलियों की ओर बढ़ रही होती है। रचना में प्रतिबद्धता की बजाय सिर्फ भाषा और शिल्प की व्याख्या करने वाली गैर वैज्ञानिक आलोचनाओं ने भी रचनाकारों के भीतर महत्वाकांक्षओं के खराब बीज रोपें हैं जिसकी वजह से निजी अनुभवों को समष्टी तक पहुंचाने वाली धमन भट्टी का ताप सिर्फ चमकदार भाषा और अनूठे शिल्प की कवायद में बेकार जाता हुआ है। वरना खूबसूरत अभिव्यक्तियों से भरे उजले टुकड़े न तो ऊर्जावान रचनाकार देवी प्रसाद मिश्र की रचनाओं में दिखते और न ही उदय प्रकाश की रचनाओं में। रचनाकारों के भीतर का आत्मबोध भी है जो उन्हें अपनी आलोचनाओं को बरदाश्त करने की ताकत नहीं दे रहा होता और न ही उससे टकराने की मानसिकता बना रहा होता है। ऐसे में गिरोहगर्द साथियों की जरूरत ही तीव्रता से महसूस होती है। तो तय जाने मेरी टिप्पणियां सिर्फ उस आलोचना की पुकार ही हैं जो एक गम्भीर रचनाकार के साथ दोस्ताना व्यवहार बरतते हुए खुलेपन के साथ हों। राग-द्वेष से उनका कोई लेना देना हो। एक जनतांत्रिक पहलकदमी उनका शुरूआती कदम हो। यानी मेरा मानना है कि यह भी वैसे ही ट्रीटमेंट का मामला है, एजेन्डे का नहीं जो कई बार एकल दिख सकता है। वरना यह जाने कि मैं, जिसको आप उसके लिखने भर से जान रहे हैं, देखते होंगे कि साहित्य की स्थापित दुनिया में अदना सा व्यक्ति है लेकिन उसके बाद भी कुछ कह पाने की हिम्मत जुटा पा रहा होता है तो स्पष्ट है कि अपने जैसे दूसरे साथियों से बहस मुबाहिसें में उलझ कर ही ताकत पाता है। हां, जैसा कि हिन्दी साहित्य का वर्गीय चरित्र उसमें हिस्सेदारी कर रहे रचनाकारों से बना है, वह मध्यवर्गीय है। जहां अपनी असहमतियों को रखना एक शालीन चुप्पी की तरह हो रहा है। बस मैंने उस शालीनता से एक हद तक थोड़ा परहेज करने की कोशिश की हुई है। हां मैं पूरी तरह मुक्त हूं, ऐसी गलतफहमी मुझे नहीं। असहमति की यह शालीन चुप्पी भी सांझेपन से ही टूट सकती है। पर किसी न किसी को तो वक्त बेवक्त उसे मुखर होने देने की संभावना खोजनी ही होगी। ऐसा मैं ही नहीं और भी कई दूसरे लोग है जो वक्त बे वक्त करते भी हैं। बल्कि कहूं कि ब्लाग की इस नई बनती दुनिया में यह होने की संभावनाएं भी दिखाई देती हैं। यदि सांझापन बढ़ा तो गोष्ठियों के वे ऑपरेटिंग पार्ट जो प्रतिबद्धतओं की वकालत करते हों जरूर ही बढ़ेंगे वरना उनका रूप तो रचनाकारों के आपसी मिलने जुलने और उसी गिरोहगर्द दुनिया को आगे बढ़ाने वाला है। उनके भीतर स्वीकार्य होकर ही अपनी बात की जा सकती है, बाहर खड़े होकर तो कहने की आज गुंजाइश ही नहीं। आपके पत्र के इंतजार में रहूंगा।
विजय


 मित्र विजय जी
 आप का पत्र पढ़ा। और आपकी चिन्ताओं से भी अवगत हुआ। आप बहुत पैशन के साथ पत्र लिखते हैं- यह मुझे बेहद सुकून देता है। मित्र आपकी चिन्ताएं बेहद सामयिक हैं और जरूरी भी। दरअसल आज साहित्य जहां ठहरा हुआ है-वहां से हम संकट के अनेक आयाम देख सकते हैं। वामिक जौनपुरी का एक शेर याद आ रहा है- ज़िन्दगी कौन सी मंज़िल पर खड़ी है आकर आगे बढ़ती भी नहीं राह बदलती भी नहीं साहित्य में प्रगतिशील पक्षधरता रखने वाले जो चन्द लोग हैं उन पर उपरोक्त शेर सटीक बैठता है। सत्ता प्रतिष्ठानों में आकण्ठ डूबे लोगों का यह संकट नहीं है। वे तो हर दिन राह बदलते रहते हैं। जनपक्षधर साहित्यकारों को भी यह मानने में अक्सर दित होती है कि साहित्य का अपना कोई स्वतन्त्र एजेण्डा नहीं होता। साहित्य का भी वही एजेण्डा होता है जो समाज का एजेण्डा होता है। साहित्य की स्वायत्ता उसके अपने स्वतन्त्र एजेण्डे में नहीं वरन उस एजेण्डे के 'ट्रीटमेंट" में होती है। यह और बात है कि बहुत से लोग इस 'ट्रीटमेंट" को ही साहित्य का स्वतन्त्र एजेण्डा घोषित कर देते हैं। खैर, दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि साहित्य को "गिरोहगर्दों" से छुड़ाने का काम हमेशा विचारधारा (जिसे कुछ लोग विजन कहना भी पसन्द करते हैं) ,सामाजिक सांस्कृतिक आन्दोलन और आन्दोलन की अन्योन्यक्रिया से बनने वाले ठोस या तरल साहित्यिक संगठन करते हैं। भारत में प्रगतिशील लेखक संघ व इप्टा के शुरुआती वर्षों में आप इसकी आधी-अधूरी झलक देख सकते हैं। हमें यह मानने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आज हम इन सभी क्षेत्रों में बेहद पिछड़े हुए हैं। बल्कि सच कहें तो हमें इसका अहसास भी बहुत कम है। पिछले पत्रों में मैने इस लिए कहा था कि गिरोहगर्द स्थितियां तो सिम्टम मात्र है हमें ज्यादा समय व ऊर्जा उपरोक्त समस्याओं पर विचारविमर्श करने व उसका कोई छोटा ही सही ऑपरेटिंग पार्ट निकालने पर खर्च करना चाहिए। अभी मैं अक्टूबर में उदयपुर में हुयी ''संगमन" की गोष्ठी की रपट पढ़ रहा था। आप खुद बताइये कि इस दो दिवसीय गोष्ठी में शाम को उदयपुर घूमने के अलावा इस गोष्ठी का ऑपरेटिंग पार्ट क्या था। आज 99 प्रतिशत गोष्ठियां ऐसी होती हैं जिनका कोई ऑपरेटिंग पार्ट नहीं होता। क्या साहित्य में कोई सामूहिक जिम्मेदारियां नहीं होती। और यदि होती हैं तो इसका ऑपरेटिंग पार्ट क्या होगा।यहां मै उन गोष्ठियों की बात कर रहा हूं जो छोटी जगहों पर और छोटे पैमानों पर होती हैं और जिसमें हम आप जैसे लोग भाग लेते हैं। उन गोष्ठियों की बात नहीं कर रहा हूं जो सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा कराए जाते हैं। मित्र, यह टॉलस्टॉय का जमाना नहीं है। जहां एक सामन्त अपने खूबसूरत आश्रम में बैठ कर लिखते हुए "रूसी क्रान्ति का चितेरा" बन जाए। यह बहुत जटिल वर्गीय संरचना व उथल पुथल वाला तेज भागने वाला समय है। खैर, इसपर फिर कभी। समाज के हर क्षेत्र की तरह साहित्य पर भी वर्गीय प्रभावों का पूरा पूरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए साहित्य में भी वर्गीय धु्रवीकरण की स्थितियां मौजूद होती हैं। हालांकि यह थोड़ा जटिल रूप में होती हैं। अत: यहां भी समाज के अन्य क्षेत्रों की तरह ही गिरोहगर्दी को सामूहिक प्रयासों से ही तोड़ा जा सकता है। गिरोहगर्द स्थितियों की व्यक्तिगत आलोचना महज सहायक भर हो सकती हैं। वह भी बहुत कम सीमा तक। शायद मैं आपको कुछ स्पष्ट कर पाया। मुक्तिबोध के समय भी लगभग यही स्थितियां थीं। हां अन्तर अवश्य था। पहले प्रगतिशील लेखक संघ, परिमल, कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम जैसे संगठन संगठन की तरह थे। और ये संगठन के नार्म-फॉर्म कमोबेश निभाते भी थे। लेकिन आज ये सभी पतित होकर (कुछ तो इस प्रक्रिया में अपना अस्तित्व भी खो चुके हैं) संगठन से गिरोह में बदल गए हैं। जिससे स्थितियां और दुरूह हो गयी है- विशेषकर उन नए साहित्यकारों के लिए जो साहित्य में एक सामाजिक उद्देश्य लेकर प्रवेश करते हैं। तो इस बार इतना ही। मैने आपको बोर तो नहीं किया। दरअसल आपकी चिन्ताएं यह आश्वस्त करती हैं कि हम अकेले नहीं हैं। इस लिए आपसे बात करके एक तरह का सुकून मिलता है। इधर कुछ नया तो पढ़ा नहीं। हां एनबीटी से लोककथाओं के संकलन की एक किताब आयी है उसे ही पढ़ रहा हूं। 
पत्र की प्रतीक्षा में 
संदीप