गाय: जीवन में उपेक्षित पर मरने पर महान माँ
यादवेन्द्र
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राजनैतिक नजरिये से देखें
तो गाय को लेकर अभी प्रकाश सिंह बादल ने मृत गाय की आत्मा की शांति के लिए
विधान सभा में शोक प्रस्ताव रखने और गाय के भव्य स्मारक के निर्माण के लिए
करोड़ों रु.स्वीकृत करने जैसे अप्रत्याशित कारनामे पंजाब में किये तो
दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी ने जन्माष्टमी पर अपने ब्लॉग में कांग्रेस की
सरकार पर गोमांस का निर्यात करने का बहाना बना कर हल्ला बोला.पर गऊ माता का
दिनरात माला जपने वाली भाजपा बादल के निर्णय का स्वागत करने के बदले
चुनावी नफे नुक्सान को देखते हुए कभी हाँ तो कभी ना करने की मुद्रा में आ
गयी पर सबसे हास्यास्पद स्थिति विधान सभा सचिवालय की हो गयी कि इस शोक
प्रस्ताव का लिफाफा किस पते ठिकाने पर पहुँचाया जाये यह किसी को समझ नहीं आ
रहा था.इसी तरह गुजरात में गोहत्या को भाजपा को बड़ा मुद्दा बनाते देख
कांग्रेस ने नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा दस हजार एकड़ से ज्यादा
सुरक्षित गोचर भूमि उद्योगों को कारखाने लगाने को दे डालने का आरोप लगाया
और सत्ता में आने पर उस भूमि को वापस लेने का आश्वासन दिया.इन सबके बीच
केरल के थुम्बा रॉकेट प्रक्षेपण केंद्र के पचास साल पूरे होने पर इसके
प्रथम निदेशक डा.बसंत गौरीकर ने याद दिलाया कि रॉकेट प्रक्षेपण की उनकी
पहली प्रयोगशाला एक गौशाला में बनायी गयी थी.
पर गाय क्या आज के समय में सचमुच इस पाले से उस पाले में
धकेली जाने वाली राजनैतिक गेंद नहीं रह गयी है?देश के अधिकांश भू भाग में
दैनिक जीवन में दूध की बात जब की जाती है तो वह दूध गाय का नहीं बल्कि भैंस
इरान के नए सिनेमा के शिखर पुरुष दरियुश मेहरजुई की युगांतकारी फिल्म द काऊ (1969
) दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाने वाली कृति है और आज
के हर बड़े फिल्म समारोह में धूम मचाने वाले इरानी फ़िल्मकार इस फिल्म को
अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते हैं.एक गोमांसभक्षी इस्लामी समाज में किसी
निःसंतान व्यक्ति को अपनी गाय को बच्चे जैसा दर्जा देना आसानी से हजम नहीं
होता पर यह इतिहास में दर्ज है कि दुनिया भर में इस्लामी अभ्युदय की पताका
फहराने वाले अयातोल्ला खोमैनी
की यह पसंदीदा फिल्म थी और कहा तो
यहाँ तक जाता है कि यही वो फिल्म थी जिसने कट्टरपंथी इस्लामी क्रांति के
बाद फिल्म संस्कृति को नेस्तनाबूद करने के निर्णय को बदलकर शासन को फिल्मों
के सकारात्मक पक्षों के समाज निर्माण में भूमिका की सम्भावना के प्रति
सहिष्णु बनाया.
का या डेरी का मिश्रित दूध होता है.अब यह अलग बात है कि स्वामी रामदेव जब
जन स्वास्थ्य को सँवारने के नाम पर अपने व्यवसाय की बात करते हैं तो उनमें
गोमूत्र के उत्पादों का नाम तो प्रमुखता से लिया जाता है पर गाय के दूध का
सेवन बढ़ाने की बात कम सुनाई देती है.ओलम्पिक में देश का मान ऊँचा उठाने
वाले पहलवानों सुशील और योगेश्वर का जब दिल्ली के चाँदनी चौक में पारंपरिक
शैली में स्वागत किया गया तो उन्हें रोहतक से 82 हजार रु.प्रति भैंस की
लागत से खरीदी गयी भैंसें(गाय नहीं) थमाई गयीं...तस्वीरों में आज के युग के
दोनों पहलवान उनके रस्से थामते हुए संकोच करते हुए दिखते हैं.यहाँ यह
प्रसंग विषयेतर नहीं होना चाहिए कि ओलम्पिक में श्रेष्ठ प्रदर्शन करने के
बाद टीम जब दक्षिण अफ्रीका लौटी तो वहाँ के एक बड़े उद्यमी ने विजेता
खिलाडियों को अच्छे नस्ल की गायें देने की घोषणा की पर कुछ खिलाड़ियों ने
जीवित गाय स्वीकार करने की बजाय उनके मांस से बने पकवान गरीब बच्चों के बीच
बाँट देने का अनुरोध किया. अमेरिकी डेयरी उद्योग में साफ़ सफाई के नाम पर
गायों की पूँछ काट डालने की परिपाटी पर दुनिया भर के पशुप्रेमी सवाल उठाते
रहे हैं.यूँ अमेरिका के कई राज्यों में
भी पशुओं के प्रति क्रूर बर्ताव का विरोध करने वाले कुछ संगठन सड़क किनारे
उन गायों का स्मारक बनाने की माँग कर रहे हैं जो गाड़ियों की ठोकर से असमय
जान गँवा बैठीं.
जब मेरी पीढ़ी के लोगों ने स्कूल में हिंदी में निबंध
लिखना शुरू किया था तो सबसे पहले विषय के रूप में गाय ने ही पदार्पण किया
था और इसके चौपाये होने जैसे परिचय के साथ इसका श्रीगणेश हुआ करता था.बाद
में स्व.रघुवीर सहाय ने दिनमान में एकबार गाय पर लिखे लेख
आमंत्रित करके अभिजात पाठकों को चौंका दिया था.बदलते हुए भारत
के आदर्शवादी व्याख्याकार प्रेमचंद के गोदान का पूरा ताना बाना ही एक
दुधारू गाय और उस से होने वाले अल्प आय से भविष्य सँवर जाने के स्वप्न के
इर्द गिर्द बुना गया था..पर देश के नवनिर्माण के स्वप्न सरीखे इस
गो स्वप्न के बिखरने में समय नहीं लगा.लोकमानस में गाय की छवियाँ बदलती
सामाजिक सचाइयों और अर्थव्यवस्था के साथ धूमिल जरुर पड़ रहीं हैं और गाय को
लेकर अब सारा मामला इसके वध और मांस बेचने /निर्यात करने तक सिमट कर रह गया
है.स्व.करतार सिंह दुग्गल की एक गाय और उसके बछड़े को लेकर लिखी गयी
अद्भुत पंजाबी कहानी अब इतिहास की बात रह गयी.
सांप्रदायिक चश्में से समाज को देखने वाले गोवध की बात
करते हुए हमेशा मुसलमानों की ओर ऊँगली उठाते हैं पर पिछले दिनों कुछ
प्रमुख विश्वविद्यालयों में छात्रों के मेस में विभिन्न जीवन शैलियों को
बराबरी का दर्जा देने के साथ गोमांस का प्रयोग करने की माँग तक हुई
है.दिल्ली के जे.एन.यू. में तो गो और सूअर मांस फ़ूड फेस्टिवल आयोजित करने
को लेकर मामला हाई कोर्ट तक जा पहुंचा है. दलित विमर्श में भी गोमांस के
निषेध के ब्राह्मणवादी डंडे को नकारने के स्वर उठते रहे हैं और इसको
व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन कहा जा रहा है.पर देवबंद के दारुल उलूम
की हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करते हुए मुसलमानों से गोवध से परहेज
करने की और गोहत्या के सम्बन्ध में देश के नियम का सम्मान और पालन करने की
गुजारिश(फतवे की शक्ल में) का पूरा पन्ना ही दैनिक विमर्श की किताब से फाड़
लेने का षड्यंत्र जोर शोर से जारी है.
इरान के नए सिनेमा के शिखर पुरुष दरियुश मेहरजुई की युगांतकारी फिल्म द काऊ(1969
) दुनिया की सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शुमार की जाने वाली कृति है और आज
के हर बड़े फिल्म समारोह में धूम मचाने वाले इरानी फ़िल्मकार इस फिल्म को
अपनी प्रेरणा का स्रोत मानते हैं.एक गोमांसभक्षी इस्लामी समाज में किसी
निःसंतान व्यक्ति को अपनी गाय को बच्चे जैसा दर्जा देना आसानी से हजम नहीं
होता पर यह इतिहास में दर्ज है कि दुनिया भर में इस्लामी अभ्युदय की पताका
फहराने वाले अयातोल्ला खोमैनी की यह पसंदीदा फिल्म थी और कहा तो
यहाँ तक जाता है कि यही वो फिल्म थी जिसने कट्टरपंथी इस्लामी क्रांति के
बाद फिल्म संस्कृति को नेस्तनाबूद करने के निर्णय को बदलकर शासन को फिल्मों
के सकारात्मक पक्षों के समाज निर्माण में भूमिका की सम्भावना के प्रति
सहिष्णु बनाया. फिल्म के नायक हसन का अधिकांश समय गाय(पूरे गाँव में इकलौती
गाय) को नहलाने धुलाने,खिलने पिलाने,बतियाने और हिफाजत करने में ही जाता
है...यहाँ तक कि साबुन से मलमल कर नहलाने के बाद वो उसको अपने कोट से
पोंछता है .अपनी गाय की वजह से उसकी गाँव में बहुत इज्जत है और जब उसको पता
चलता है कि वो गर्भवती है तो हसन को एक से दो गायों का स्वामी हो जाने का
गुमान भी होने लगता है.एकदिन किसी काम से जब हसन को बाहर जाना पड़ता है तो
उसी बीच में उसकी गर्भवती गाय की मृत्यु हो जाती है.उसकी पत्नी और सभी गाँव
वाले गाय को एक गड्ढे में दफना तो देते हैं पर मिलकर यह फैसला करते हैं कि
हसन के लौटने पर उसकी कोमल भावनाओं का ख्याल रखते हुए गाय के अपने आप
कहीं चले जाने की बात कहेंगे.हसन को लोगों की बात पर भरोसा नहीं होता पर
गाय से बिछुड़ जाने की बात उसके लिए ग्राह्य नहीं होती.उसकी याद में वह
इतना तल्लीन और एकाकार हो जाता है कि खुद को हसन नहीं हसन की गाय
मानने लगता है. अपना कमरा छोड़ कर वो गाय के झोंपड़े में रहने लगता है,पुआल
खाने लगता है और गाय की आवाज में बोलने भी लगता है.फिल्म का सबसे मार्मिक
व् धारदार वह दृष्य है जब उसकी यह दशा देख कर गाँव वाले गाय के लौट आने का
झूठा दिलासा देते हैं तो गाय बना हसन चारों दिशाओं में असली हसन को ढूँढने
लगता है.उसको जबरदस्ती जब लोग अस्पताल ले जाने की कोशिश करते हैं तो वह
बिलकुल अड़ियल जानवर जैसा सलूक करता है...फिर उसकी डंडे से जानवरों जैसी
पिटाई की जाती है और अंततः तंग आकर बारिश में खुले आकाश के नीचे छोड़ कर लोग
चले जाते हैं.अंत में हसन एक पहाड़ी से फिसल कर गिर जाता है और अपना दम तोड़
देता है.
हसन रूपी गाय को इरानी फिल्म व्याख्याकारों ने सीधी सादी
जनता के रूप में देखा और लोकतान्त्रिक आजादी के खात्मे के बाद होने वाली
दुर्दशा का सशक्त प्रतीक बताया...क्या भारत में भी गाय संकीर्ण दलगत और
जातिवादी राजनीति से ऊपर उठकर एकबार फिर विनाश न करने वाली उत्पादन पद्धति
,सामाजिक भाईचारे और सहिष्णुता का प्रतीक बनेगी?