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Thursday, October 18, 2012

मनुष्यता का दैहिक यथार्थ



किसी भी रचना की विविध व्याख्यायें संभव है। रचना के मंतव्य के आधार पर, शिल्प या विषय वस्तु के आधार पर। रचना के काल और पृष्ठभूमि के आधार पर। प्रशंसक की अपनी मन:स्थिति भी व्याख्या का आधार होती है। इतिहास को भी तथ्य आधारित रचना ही माना जा सकता है। क्योंकि तथ्यों का चुनाव और उनका प्रस्तुतिकरण इतिहासकार की दृष्टि का हिस्सा हुए बगैर स्थान नहीं पा सकते। सवाल है विविध के बीच सबसे उपयुक्त व्याख्या किसे स्वीकारा जाये।

स्पष्टत:, सामाजिक नजरिये से खुशनुमा माहौल, बराबरी की भावना और उच्च आदर्शों की स्थापना जैसे प्रगतिशील मूल्यों के उद्देश्य को महत्व मिलना चाहिए एवं सामाजिक विघटन और पतन की कार्रवाइयों का समर्थन करती रचना या रचना की व्याख्या को त्याज्य समझा जाना चाहिए। लेकिन देखते हैं कि सामंती मूल्य चेतना के लिए वह त्याज्य ही सर्वोपरी एवं सर्वोत्कृष्ट बना रहता है। बल्कि, बरक्स प्रगतिशील मूल्यों पर प्रहार करना ही उसका प्राथमिक लक्ष्य होता है। मनुष्य को उसकी सम्पूर्ण प्रकृति में स्वीकारने से भी उसे परहेज होता है। स्त्रियों के मामले में सामंती दौर का तीखापन दासता का नुकीला इतिहास है। स्त्री की दैहिकता को स्वीकारने में ज्यादा पहरेदारी वाली जीवनशैली उसका चरित्र है। प्रकृति के रहस्यों की अज्ञानता से उपजे ईश्वर की कल्पनाओं को विदेह के रूप में देखने की उसकी प्रकृति ने जिद्दीपन की हद तक मनुष्यता को भी विदेह माना है। देह के सौन्दर्य की कल्पना पाप का पर्याय बनी है। देख सकते हैं कि सामंती दौर का प्रतिरोधी साहित्य प्रेम की स्पष्ट आवाजों में नख-शिख वर्णन से भरा है। सामंती पहरेदारी के खिलाफ संयोग श्रृंगार के वर्णन खुली बगावतों जैसे हैं। साहित्य का भक्तिकाल प्रेम की उपस्थिति में ही विद्रोह की चेतना के स्वर को बिखरने वाला कहलाया है। कला साहित्य ने मनुष्यता के पक्ष के साथ अपनी सार्थकता को सिद्ध किया है और मनुष्यता के विदेहपन के प्रतिरोध में ही निराकार ईश्वर को साकार रूप में रखते हुए दैहिक सौन्दर्य को अपना विषय बनाया है। दैहिक सौन्दर्य से परिपूर्ण मनुष्यता के कलारूप्ा ऐतिहासिक गुफाओं के भीतर अंकित हुए हैं। सार्वजनिक कलारूपों में उनकी अनुपस्थिति इतिहास के अनुसंधान का विषय होना चाहिए था। लेकिन सामंती चेतना का ऐजेण्डा आदर्शों और नैतिकताओं की पुनर्स्थापना में ज्यादा आक्रामक होता गया है। एम एफ हुसैन के चित्रों में आम मनुष्य की दैहिकता का रूप धारण करती ईश्वरियता हो चाहे राजा रवि वर्मा के चित्रों में आकर लेता मिथकीय यथार्थ हो, हमेशा उसके निशाने में रहा है।  
  
नवजागरण काल के चित्रकार राजा रवि वर्मा की रचनाओं की यह व्याख्या ही हिन्दी फिल्म ''रंगरसिया" का विषय है। केतन मेहता के कैमरे की आंख से उसे देखना एक सुखद अनुभव है। मराठी उपन्यासकार रंजित देसाई के उपन्यास पर आधारित राजा रवि वर्मा के जीवन की झलकियों से भरी केतन मेहता की फिल्म ''रंगरसिया" यूं तो एक व्यवसायिक फिल्म ही है। लेकिन गैर बराबरी की अमानवीय भावना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ठेठ स्थानिक किस्म की आधुनिकता जैसी पंच लाइनों से भरे दृश्यों की उपस्थिति उसे व्यवसायिक फिल्मों के बाजारूपन वाली धारा से थोड़ा दूर कर देती है। फिल्म इस बात पर भी ध्यान आकृष्ट करती है कि भारतीय आजादी के आंदोलन का आरम्भिक चरण यूरोपिय आधुनिकता के प्रभाव में ठेठ स्थानिक होना चाहता रहा है। समाजिक सुधारों की पहलकदमी और 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि में इसे तार्किक रूप से समझना मुश्किल भी नहीं। फिल्म का एक और महत्वपूर्ण पाठ है कि मनुष्यता के दैहिक यथार्थ को चित्रों में उकेर कर ही राजा रवि वर्मा ने, हर वक्त मन्दिरों के भीतर ही विराजमान रहने वाले दैवी देवताओं को आम जन के लिए सुलभ बनाया है। प्रिंट दर प्रिंट के रूप में घरों की दीवारों तक टंगते कलैण्डरों ने मन्दिरों के भीतर प्रवेश से वंचित कर दिये जा रहे जन मानस को मानवीय आकृतियों वाले ईश्वर से साक्षात्कार करने में मद्द की है। केतन मेहता की फिल्म ''रंगरसिया" का यह बीज उद्देश्य ही उसे आम व्यावसायिक फिल्मों से विलगाता है।
 
इतिहास साक्षी है कि यूरोपिय आधुनिकता से प्रभावित भारतीय बौद्धिक समाज के एक बड़े हिस्से ने सम्पूर्ण भारतीय समाज को हर स्तर पर पिछड़ा साबित करने को उतारू बिट्रिश श्रेष्ठताबोध से भरी शासकीय औपनिवेशिकता का विरोध अपने तरह से किया है। जिसके तेवर बेशक बहुत क्रान्तिकारी न रहे हों लेकिन भारतीय जनमानस के आत्मबल को संभालने में उसकी कोशिशें ईमानदार रही है। पक्ष में तर्कपूर्ण ऐतिहासिक सांख्यिकी की अनुपस्थिति के चलते हुए भी मिथकों भरी कथाओं के सहारे भारतीय आदर्श को परिभाषित करना उसका उद्देश्य हुआ है। बिट्रिश शासन के प्रतिरोध की यह धारा औपनिवेशिक दौर के कला साहित्य में सत्त प्रवाहमान दिखती है। हिंदी भाषा के विकास के साथ-साथ भारतेन्दू के नाटकों से लेकर पूरे छायावादी दौर तक उसकी धीमी लय को देखा-सुना जा सकता है। मिथकों से होते हुए प्राचीन भारतीय इतिहास के गौरव की स्थापना का सर्जन उसका उद्देश्य रहा है। चंद्रगुप्त, स्कंदगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, अजातशत्रु जैसे पात्रों को केन्द्र में रख कर रचे गये जयशंकर प्रसाद के नाटकों के विषय छायावादी दौर तक पहुंची उस प्रवृत्ति को ज्यादा साफ करते हैं। ऐतिहासिक माहौल को रचने की यह स्थितियां खुद को पिछड़ा, दकियानूस और तंत्र-मंत्र में ही जीने-रमने जैसा मानने वाली बिट्रिश श्रेष्ठता के प्रतिरोध का अनूठा ढंग था। यह चौंकने की बात नहीं कि ब्रिटिश जीवन शैली को अपनाने वाले भारतीय बौद्धिक वर्ग के भीतर से ही ठेठ देशज भारतीयता की स्थापना का जन्म हुआ। राजा राम मोहन राय से लेकर गांधी के समय तक जारी सामाजिक सुधारों की हिमायत करने वाले ज्यादातर महानुभावों के भीतर यह साम्यता दिखायी देती है।

आधुनिक मूल्य बोध को समाज के विकास के लिए जरूरी मानने वाली मानसिकता से बंधे भारतीय बौद्धिक जमात के ये सभी लोग अपनी पृष्ठभूमि के कारण औपनिवेशिक शासनतंत्र के छद्म को ज्यादा करीब से देख पाने में सक्षम थे और इसीलिए प्रतिरोध को बेचैन भी। औपनिवेशिक शासन तंत्र के साथ उनके रिश्तों की व्याख्या इसीलिए थोड़ा जटिल भी है। निजी जीवन में यूरोपिय स्टाइल की जीवन शैली को अपनाते हुए भी प्राचीन भारतीय साहित्य के भीतर मौजूद नैतिकता और आदर्शों के प्रति आकर्षण भरी उनकी कार्रवाइयां आम जनमानस के साथ उनके संबंधों के अन्तर्विरोधों का ऐसा बिन्दू रहा जिसकी आड़ चालाक ब्रिट्रिश शासकों को राहत पहुंचाने वाली रही। उपज रहे अन्तर्विरोधों को विस्तार देने में न्याय का दण्ड थामें वे खुद को ज्यादा उदार दिखा सकते थे। कानून के राज का यह नया आधुनिक रूप आज तक भी ज्यादा कुशलता से संचालित होता हुआ है। यूरोपिय से दिखते भारतीय बौद्धिक जमात की ठेठ भारतीय आदर्शों की स्थापनाओं की चाह पर प्रहार के लिए पिछड़ी मानसिकताओं से भरे सामंतों और पोंगा पंडितों को प्रश्रय देना औपनिवेशिक शासन की प्राथमिकता थी। प्रतिरोध की कोई स्पष्ट दिशा तय हो सके, ऐसी बहसों में संेधमारी के लिए जरूरी था कि न्यायिक विधान का ऐसा ढोंग रचा जाये जो थकाऊ, उबाऊ और बिट्रिश शासन व्यवस्था के ज्यादा अनुकूल हो। कला साहित्य के माध्यम से प्रतिरोध की गतिविधियों को सीधे तौर पर रोकने की बजाय अपने साथ कदम ताल करते सामंतों और पोंगा पंडितों की मद्द से उन पर प्रहार करना ज्यादा आसान एवं औपनिवेशिक शासन को सुरक्षा प्रदान करने में ज्यादा कारगर था। ठीक उसी तरह, जैसे समकालीन दौर झूठे राष्ट्रवाद के सहारे अंध राष्ट्रीयता की मुहिम को चलाये रहता है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही नहीं अपितु एक हद तक दिखायी देती लोकतांत्रिक स्थितियों का ही गला घोट देना चाहता है। अनुदार धार्मिक वातावरण की पुनर्स्थापना का वह औपनिवेशिक ध्येय आज छुपा न रह गया है। एम एफ हुसैन जैसे चित्रकार की रचनाओं पर किये जाते और करवाये जाते प्रहारों की लम्बी श्रृखंला इसके साक्ष्य हैं। 

राजा रवि वर्मा के चित्रों के बहाने, फिल्म ''रंगरसिया" भारतीय इतिहास की ऐसी ही व्याख्या को प्रस्तुत कर रही है और भारतीय चित्रकला के ठेठ आरम्भिक चरण से लेकर आधुनिक दौर की विसंगतियों तक हस्तक्षेप करना चाहती है। हिंसा पर उतारू भीड़ के कोलाहल से भरे शुरुआती दृश्य के साथ ही दर्शक का सीधा साक्षात्कार अपने समय से होता है। अभिव्यक्ति का गला घोट देने को उतारू हिंसक जिद का तांडव रंगरसिया जैसे कोमल पद को छिन्न भिन्न करता हुआ है। विलोम की विसंगति से भरे समकालीन यथार्थ की उपस्थिति में जो कुछ दिखायी देता है, उसकी रोशनी में दर्शक स्वत: ही राजा रवि वर्मा पर फिल्माये जा रहे दृश्य में भी एम एफ हुसैन को देखने लगता है। एक बहस उसके भीतर जन्म लेने लगती है और इसीलिए राजा रवि वर्मा के दौर के भारतीय माहौल की दृश्यात्मक सांस्कृतिक अनुपस्थिति के बावजूद समकालीन सी दिखती सांस्कृतिक स्थितियां भी किसी तरह अवरोध नहीं बनती। इतिहास कथा पर केन्द्रित फिल्म का समकालीन जीवन्त स्थितियों सा फिल्मांकन वर्तमान में घटता हुआ सा लगने लगता है। लेकिन फिल्म का यथार्थ राजा रवि वर्मा के चित्रों पर उठायी गयी आपत्ति में दर्ज ऐतिहासिक मुकदमा ही है। रवि वर्मा के जीवन की घटनायें और कलाकार राजा रवि वर्मा होने तक की जो यात्रा दृश्यों में है, वह संभवत: रणजीत देसाई के उपन्यास का कथासार है। आधुनिक भारतीय चित्रकला के शुरुआती चरण का वह महत्वपूर्ण पहलू भी, जिसमें मिथकीय कथाओं के शास्त्रीय चित्रकला का विषय होने की स्थितियां है, स्पष्ट दिख रही है। औपनिवेशिक स्थितियों के विरूद्ध केरल से लेकर आधुनिक महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल तक विचरण करती राष्ट्रीय भावना के शुरुआती उफान में कला साहित्य की भूमिका महत्वपूर्ण रही है जिसने एक सामान्य व्यक्ति, रवि वर्मा को चित्रकार राजा रवि वर्मा होने की स्थितियां पैदा की। देश के भीतर चल रहे राष्ट्रीय आंदोलन के प्रभाव में ठेठ देशज कथाओं को चित्रों में ढालने की वे ऐसी कोशिशें थी जिसमें शकुन्तला, द्रोपदी और अहिल्या सरीखे स्त्री चरित्रों के मार्फत हमेशा से प्रताड़ित स्त्रियों के प्रति संवेदनशील बनने की जरूरत पर ध्यान आकृष्ट किया जा सका है। यह वही समय है जब सामाजिक सुधार की तमाम कोशिशें भी देखी जा सकती हैं। सती प्रथा का विरोध हो रहा है। स्त्री शिक्षा का सवाल समाने है। जाति भेद भाव के विरुद्ध आम सहमति जैसी स्थिति बेशक न बन पायी थी लेकिन उस के प्रति असम्मान का भाव पैदा होने लगा था।

केतन मेहता ने ''मंगल पाण्डे" और "रंगरसिया" के बहाने 1857 के पुनर्जागरण को रखने की जो कोशिशें की है, हिंदी फिल्मों की वर्तमान धारा में उसे एक सकारात्मक हस्तक्षेप कहा जा सकता है। व्यवसायिक उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए बेशक बहुत बुनियादी बातें न हुई हों लेकिन वर्तमान दौर की विसंगतियों और बदलाव की पहल जैसे विषयों पर एक बहस तो जन्म ले ही रही है।  यद्यपि यह भी उतना ही सच है कि पूंजीगत लाभ के दृष्टिकोण से रंगरसिया को दैहिक भव्यता में अंजाम दिया गया है। और इसीलिए वैचारिक सहमति के बावजूद रंगरसिया को फिल्मांकन की बाजारू प्रवृत्ति के बोझ से झुकी कहना ही ज्यादा ठीक लग रहा है। फिल्म की मुख्य अदाकारा नंदना सेन के मुंह से साक्षात इन शब्दों को सुनने के बाद भी कि नग्नता यदि दृश्य की आवश्यकता है तो उससे परहेज नहीं किया जा सकता लेकिन नग्नता यदि बाजारूपन का पर्याय है तो जरूर उससे बचा जाना चाहिए। नंदना के कहे के मुताबिक ही देखें तो दैहिक क्रीड़ा के अनंत दृश्यों से भरी रंगरसिया एक विलोम की विसंगति से भरी नजर आती है। क्रीड़ा की वल्गरिटी बेशक नहीं लेकिन उसके भव्य आस्वादन से भरे दृश्यों में दैहिक उपस्थिति का कोलाहल लगातार मौजूद रहता है। यहां यह सवाल भी है कि क्या इस तरह के दृश्यों को मात्र पूंजीगत लाभ की दृष्टि से रचा गया मान लिया जाये और उन पर गम्भीरता से सोचने की बजाय लोकप्रिय सिनेमा की पूंजीगत लाभ की आकांक्षओं से भरी प्रवृत्ति का शिकार मान लिया जाये ? राज रवि वर्मा और मंगल पाण्डे को याद करते हुए पुनर्जागरण काल को याद करने वाले निर्देशक केतन मेहता की फिल्म रंगरसिया को इस तरह के सरलीकृत विश्लेषण के साथ छोड़ना शायद ठीक नहीं। बल्कि निर्देशक के मानस में बैठी उस प्रवृत्ति को पकड़ने की कोशिश होनी चाहिए जिसका शिकार आज के हिंदी युवा कहानीकारों की कहानियां भी हो रही हैं। लहराते पेटीकोट वाले दृश्यों को कलात्मक कौशल के साथ अनूठे से अनूठे तरह से रचने वाली हिंदी कहानियों के संदर्भ में कतिपय मेरा कथन स्पष्ट है कि उसे वैश्विक पूंजी द्वारा स्थापित किये जा रहे मूल्यबोध के गिरफ्त में होते जाने के रूप में समझा जा सकता है। रंगरसिया भी निर्देशक केतन मेहता के उसी प्रभाव में हो जाने के कारण विलोम की विसंगति दिख रही है।

  





Monday, May 16, 2011

कहीं खण्डित न हो जाये सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतना

ओसामा के मारे जाने के समाचार से खुश होती दुनिया की खबरें अखबारों और दूसरे माध्यमों पर पिछले दिनों खूब छायी रही। तालिबानी विध्वंश की आक्रामकता की पराजय को देखने की ख्वाइश शायद हर सचेत नागरिक के भीतर थी। आतंक की परिभाषा को गढ़्ते बाजार की चकाचौंध दुनिया के प्रभाव में डूबे  लोगों की खुशी के बाबत तो क्या ही कहना। बल्कि कहा जाये कि जीवन में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करते बाजार के प्रभाव के प्रतिरोध की धाराओं में बंटे लोगों के सामने एक संकट स्पष्ट रहा कि आक्रामकता के विरोध में सिर्फ़ व्यापारिक हितों की चिन्ता से भरे अमेरिका का क्या करें ? अपनी बात को बहुत साफ साफ दोनों ही तरह की  आक्रामकता को लक्षित करने की कोशिश में कई बार किसी एक के साथ दिख जाना हो जाता रहा। हाना मखमलबाफ़ की फ़िल्म   इस द्रष्टि से देखी जाने योग्य फ़िल्म है।  इरादों में  तालिबानी आक्रमता और मानवीय चिंताओं पर झूठी अमेरिकी संवेदनशीलता- जो बम वर्षकों का  बेहद दिल्चस्प खेल है, दोनों को ही लक्षित करती एक युवा फ़िल्मकार की फ़िल्म Budha collapsed out of shame एक महत्वपूर्ण फ़िल्म है। बुध की करूणा में उसका संयोजन एक अनूठा प्रयोग  है। 

बाखती ! यदि घर जाना चाहती हो तो अभी मर जाओ।
यह किसी अमेरीकी सिपाही की सीख नहीं एक दोस्त की सीख है, अपनी हम उम्र दोस्त को जो तालिबानी आक्रामकता के खेल में निरीह अफगानी नजर आ रही है। वही दोस्त जिसकी हर कोशिश उस युद्ध से और युद्ध की आक्रामकता से बाहर निकलने की है। 
जीने के लिए मरना जरूरी है।  तालिबानी आक्रमकता को झेलने के बाद टूटी बोध गुफाओं में जीवन बिताते बच्चों के जीवन में तालिबानी होना भी एक खेल हो जाता है। कथा पात्र बाखती युद्ध के ऐसे खेल की बजाय जीवन को जगमगाने का खेल खेलना चाहती है। स्कूल जाना चाहती है। उस कहानी को फिर-फिर पढ़ना चाहती जिसको सुनना ही उसे लुत्फ देता रहा है। वही कहानी जिसमें एक आदमी पेड़ के नीचे लेटा है। हम उम्र और पड़ोसी अब्बास जिसको जोर-जोर से पढ़ता है। वही अब्बास जिसे तालीबानी होते बच्चे अमेरिका का प्रतीक बना देना चाहते है, बावजूद इसके कि बुद्ध की सी तटस्थता में वह शान्त बना रहता है। अमेरीकी होता हुआ कहीं दिखता ही नहीं।
युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ की फिल्म  Budha collapsed out of shame एक रूपक है। एक खेल है जिसे देखने से ज्यादा खेलने का मन करता है। तकनीक की दृष्टि से कहें चाहे कथ्य की दृष्टि से, बहुत ही लाजवाब फिल्म है। एक उम्दा वृत्तचित्र का सा सच उदघाटित करती।  तालिबानी दौर की आक्रामकता जिसमें खूबसूरत आंखों को आजादी नहीं कि दुनिया के खूबसूरत को मंजर को खुली आँखों से देख सके। बबलगम खाती बेफिक्र किस्म की स्त्री को कैद करना तो और भी जरूरी है। लिपिस्टिक अपने पास रखने वाली स्त्री को छूट नहीं दी जा सकती कि वह स्कूल भी जाए। ईश्वर के बताये रास्ते पर दुनिया को चलाने के लिए उन्हें कैद किया जाना जरूरी है। कोई अमेरीकी बम वर्षक नहीं आता मुक्त कराने पर एक खेल चलता रहता है। बाखती स्कूल के लिए निकली है। अण्डे बेचने की थकाऊ कार्रवाई के बाद भी पैसे हासिल नहीं हुए। अण्डों के बदले में जुटाई गई रोटी को बेचने के बाद ही नोट-बुक खरीदी जा सकी है। पेंसिल फिर भी नहीं। स्कूल का कायदा नोट-बुक के साथ पेंसिल भी ले जाने का है। माँ की लिपिस्टिक पेंसिल हो सकती है, यह कल्पना ही इस फिल्म को वह उछाल दे देती है कि फिर तो खेल खेल रह ही नहीं जाता।
हिंसा के खेल को बुद्ध की सहजता से पार पाने की युक्ति बेशक अतार्किक और अव्यवहारिक हो पर युवा फिल्मकार हाना मखमलबाफ़ जिस खूबसूरती से दृश्य रचती है उसमें खेल चरमोत्कर्स तार्किक परिणीति तक पहुँचता है। बाखती मृत्यु के आगोश में दुबक जाने को मजबूर है। हथियारबंद  तालिबानी गिरोह से मुक्ति आत्म समर्पण की युक्ति से ही संभव है। खास तौर पर ऐसे में जब चारों ओर एक घनीभूत तटस्थता छायी हो। चौराहे का सिपाही नियम के कायदे में बंधा बंधकों को छुड़ाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर रहा हो। बल्कि असमर्थता जाहिर करते वक्त भी उसके चेहरे पर जब कोई पश्चाताप या ग्लानी जैसा भाव भी मौजूद न हो। बस एक काम-काजी किस्म का व्यवहार ही उसको संचालित किये हो। मेहनतकश आवाम भी जब युद्धोन्मांद में फँसी लड़की की कातर पुकार पर तव्वजो देने की बजाय बहुत ही तटस्थता से बच्चों को दूसरी जगह जाकर खेलने को कह रहा हो। दूसरी जगह- जहाँ जारी खेल बेशक खूनी आतंक की हदों को पार कर जाए पर उनके काम में प्रत्यक्ष रुकावट डालने वाला न हो। मध्य एशिया में जारी हमले के दौरान अमेरीकी प्रतिरोध की दुनिया का कदम इससे भिन्न नहीं रहा है। और उसके चलते ही कब्जे की लगातार आगे बढ़ती कार्रवाई जारी है, यह कोई छुपा हुआ तथ्य नहीं।
एक मारक स्थिति से भरी कैद से निकल भाग स्कूल पहुँची लड़की को कक्षा में बैठने भर की जगह हासिल करने के लिए की जाने वाली मश्त अपने प्रतीकार्थ में व्यापक है। झल्लाहट और परेशनी के भावों को चेहरे पर दिखाये जाने की बजाय उदात मानवीय भावना से ताकती आंखों वाली बाखती अपने दृढ़ इरादों और खिलंदड़पन के साथ है। लिपिस्टिक पेंसिल की जगह नोट-बुक पर लिखे जाने के लिए प्रयुक्त होने वाली चीज नहीं, सौन्दर्य का प्रतीक है और इसी वजह से वह उस चुलबुली लड़की को अपनी गिरफ्त में ले लेती है जिसके नजदीक ठुस कर बैठी है बाखती। छीन-झपट कर हथिया ली गई लिपिस्टिक को बेशऊर ढंग से पहले वह अपने होठों पर लगाती है, फिर उतनी ही उत्तेजना के साथ बाखती के होठों को भी रंग देने के लिए आतुर है। उसके इस तरह झपटने से सौन्दर्य को उपजाने वाली चेतना खण्डित हो सकती है, मानवीय सरोकारों से भरी बाखती की अदायें इस बात का अहसास करा देती हैं। लिपिस्टिक बाखती की जरूरत नहीं, उसे तो एक अद्द पेंसिल चाहिए जो उन अक्षरों को नोट-बुक में दर्ज करने में सहायक हो जिसे अघ्यापिका दोहराते हुए बोर्ड पर लिखती जा रही है। बाखती लिपिस्टिक के उपयोग को भी जानती है और सौन्दर्य को कैसे सहेजता से उकेरा जा सकता है, वाकिफ है। तालीबानी अमेरीकी युद्ध खेलते बच्चों की कैद में फँसी सुंदर आँखों वाली लड़की के कागजी नकाब को उतार कर जिस अंदाज में उसने लिपिस्टिक के प्रयोग से उसकी सुदरता को और बढ़ा दिया था बिल्कुल उसी अंदाज में, चुलबुली लड़की के हाथ से लिपिस्टिक लेकर हौले-हौले वह उसके होठों पर, गालों पर सौन्दर्य की लाली के चकते छोड़ते हुए उसे सजाने लगती है। एक-एक कर कक्षा की हर लड़की को सजाकर सुंदरता का संसार रच देना चाहती है। बोर्ड पर अक्षर उकेरती अध्यापिका बेखबर है कि फैल जा रही लिपिस्टिक को थूक की लार से पोंछ-पोंछ कर तराश देने की कार्रवाई में जुटी बच्चियां अपने उस बचपन को छलांगती जा रही हैं जो दक्षिणपंथी उभारों से भरी तालीबानी दिनों के रूप में उनके जीवन का शुरूआती दौर है। तालीबानी विध्वंस के प्रतिरोध में यह दृश्य एक स्वाभाविक लय के साथ फिल्मांकित है।
तालिबानी बने बच्चों द्वारा अमेरिका के प्रतीक बना दिए अब्बास के प्रति बाखती की आत्मीयता बेहद मानवीय है। हाथ पकड़कर स्कूल पहुँचा देने का साथ भर। मुसीबत के वक्त मद्द की गुहार भर का। युवा फिल्मकार सचेत है और आत्मीय प्रेम के चालू मुहावरे में संबंधों को फिल्माने से बच निकलती है। जबकि उस तरह के संबंध पनपने की स्वभाविक गुंजाइश साफ-साफ हैं। यहां इस बात का उल्लेख इधर हाल के दिनों में आई उन हिन्दी की कहानियों के संबंध में करना मौजू है जिनमें कथा विन्यास को गूंथते हुए ऐसी स्थितियों तक पहुँचने की पकड़ में आ जाने वाली युक्तियां साफ दिखाई देती हैं। एक गम्भीर विषय को दैहिक विन्यास तक सीमित कर देने वाले विवरणों से भरे और लहराते पेटीकोटों की छायाओं से भरी ऐसी रचनाओं का संसार क्यों अराजक हो जाता है, युवा फिल्मकार मखमलबाफ की इस फिल्म से सीखा जा सकता है।           



विजय गौड़
  (jansandesh times में पूर्व प्रकाशित)

Monday, February 14, 2011

I am a painter, I want to become an artist

 

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Sunday, March 15, 2009

अभी तो ठीक से याद नहीं

होली बीत चुकी है। यूंही दर्ज कर लिया गया दृश्य आंखों में घूम रहा है। यूं तो बचपन की होली का ध्यान है जब गाने बजाने वालों की टोलियां घर-घर जाकर होली गाती थी। हमारे इलाके में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ढेरों लोग रहते थे जो लगभग महीने भर पहले से ही शाम के वक्त ढोल मजीरा लेकर होली गाते थे। बोल कुछ इस तरह थे -
इकवर खेलै कुंवर कन्हैया, इकवर राधा होरी हो
सदा अन्नदही रहयौ द्वारा, मोहन होरी खेलै हो।
या

कहै के हाथे कनक पिचकारी,, कहै के हाथे गौरी की चुनरी होह्णह्णह्ण


अभी तो ठीक से याद भी नहीं, सुने हुए को भी नहीं तो 28-30 वर्ष हो गए

इधर हमारी परीक्षाओं की तैयारी चल रही होती थी और उधर वे होलियारे हमें अपनी लोकधुन गुन-गुना लेने को उकसा रहे होते थे।
इस बार हू--हू तो नहीं, पर हां वैसा ही, लेकिन बिना साज बाज का नजारा था- कालोनी के तमाम जौनसारी लड़के जिस मस्ती में होली गा रहे थे और नाच रहे थे, देखकर मन मचल उठा। गाने के बोल को तो समझा नहीं जा सका पर उस लय को तो महसूसा ही जा सकता था जो इन आधुनिक पीढ़ी के जौनसारी युवाओं को मस्त किए थी। अपनी भाषा और लोकगीत के प्रति उनका अनुराग घरों के भीतर बैठे लागों को भी पहले बैलकनी से झांकने के लिए और फिर रंग लेकर नीचे उतर आने को उकसा रहा था। बेशक कोई पूर्व तैयारी के बिना यह हुजूम गा रहा था पर उनके गीत और नृत्य में एक खास तरह का उछाल था। लीजिए आप भी देखिए और सुनिए-