एक था रामू और एक था अब्दुल। रामू पहाड़ का हिंदू और अब्दुल मारवाड़ का मुसलमान। दो जिस्म एक जान जैसे पक्के दोस्त। एक अनेक देवी—देवताओं का मुरीद और एक अल्लाह का बंदा, कैसे एक दूसरे के इतने करीब आए, इसकी भी अपनी एक अलग कहानी है। गरीबी में पले परिवार की तंगहाली से तंग, घर छोड़ काम की खोज में दिल्ली चले आए। रामू दर्जा चार तक पढ़ा था, अब्दुल बिलकुल कोरा कागज लेकिन जूता गांठने में माहिर। परिवार का पुश्तैनी धंधा जो था। दोनो काम की तलाश में भटकते फिरे। रामू को एक होटल में बर्तन मांजने का काम मिल गया, लेकिन अब्दुल को वह भी नसीब नहीं हुआ। मुसलमान जो था। हिंदू-पानी और मुसलमान पानी वाले इस देश में छूत—छात की धारणा अभी पूरी शिद्दत के साथ जिंदा थी। अब्दुल को दिहाड़ी मजदूरी पर गुजारा करना पड़ा। इसी बीच जान—पहचान वालों से पता चला कि सरकारी दफ्तरों में चपरासियों के लिए भर्ती खुली है। कोशिश की तो दोनो संयोगवश एक ही दफ्तर के लिए चुन लिए गए। यह पहला अवसर था जब दोनो ने एक दूसरे को देखा।
सीधे—सादे रामू ने जब साथी का नाम सुना तो चौंक उठा। अब्दुल यानी मुसलमान लेकिन सिर पर न तुर्की टोपी र ठुड्डी पर लहराती दाढ़ी। शक्ल—सूरत और रूप रंग में अपने जैसा ही, फिर कैसा मुसलमान सुना तो यह भी था कि मुसलमान हर बात में हिंदू का उलट होता है। हो सकता है इसकी भोली सूरत के पीछे भी शैतान ही छिपा बैठा हो। यह सोचकर रामू अब्दुल से कटकर रहने लगा। सामने पडऩे पर अब्दुल जब भी मुस्कराता तो रामू को उसकी मुस्कराहट में भी खोट ही नजर आता।
दफ्तर में जमादार (सीनियर चपरासी) ने उन्हें जो काम सौंपे थे उनमें भी हिंदू-मुसलमान का ही भेद नजर आता था। रामू को पानी पिलाने और कैंटीन से चाय—काफी आदि लाने का काम सौंपा गया था क्योंकि दफ्तर में साहब से लेकर बाबुओं तक अधिकतर हिंदू ही थे। गैर-हिंदू तो एक-आध ही थे और उन्हें भी हिंदू हाथ से पानी पीने से कोई गुरेज नहीं था। अब्दुल फाइलें इधर-उधर पहुंचाने का काम सौंपा गया था। जब भी वे एक दूसरे के सामने पड़ते तो रामू उससे बचकर एक ओर खिसक जाता कि कहीं अब्दुल छू न जाए। एक दिन रामू बरामदे में रखे घड़े से पानी लेकर भीतर घुस ही रहा था कि उसी समय बड़े बाबू ने पुकारा—“अब्दुल ओ अब्दुल, कल वाली फाइल तूने कहां रखी, मिल नहीं रही।”
अब्दुल तेजी से उधर दौड़ा तो दरवाजे पर रामू से टकरा बैठा। रामू के हाथ से तश्तरी छूट गए और चारों पानी भरे कांच के गिलास चूर-चूर हो गए। सामने स्टूल पर ऊंघता जमादार चिल्लाया— “बेवकूफ पहाड़ी, यह क्या कर डाला तूने। गिलासों की कीमत क्या तेरा बाप भरेगा।”
इस पर अब्दुल बोल उठा— “जमादारजी, कसूर रामू का नहीं मेरा है। मैं ही हड़बड़ी में उससे जा टकराया। कीमत अगर भरनी है तो मैं भरूंगा। मेरी तन्ख्वाह से कटवा लें।”
“तू भरे या रामू लेकिन नुकसान तो भरना होगा। ”—जमादार का फैसला था।
अब्दुल दौडक़र पहले तो बड़े बाबू को फाइल दिखा आया और दरवाजे पर आकर कांच के टुकड़े बीनने में रामू की मदद करने लगा। रामू ने झिझकते—झिझकते उसके चेहरे पर देखा तो उस पर खिली मुस्कराहट में पहली बार अपनेपन का अहसास किया। रामू का संकोच मिट गया। उस दिन से वह अब्दुल की चाल—ढाल और गौर से परखने लगा। उसे लगा कि अब्दुल बाहर से ही नहीं भीतर से भी उसी जैसा है। उसके भीतर भी दूसरों के प्रति सहानुभूति का जज्बा है, और वह भी मौका पडऩे पर दूसरों की मदद करने की इच्छा रखता है।
उन्हें पहाडग़ंज में अगल—बगल के एक-एक कमरे वाले दो सरकारी क्वार्टर अलॉट हुए थे। रामू पहले तो अब्दुल के हाथ से कोई भी चीज लेने में परहेज बरतता था, लेकिन नजदीकी बढऩे पर वे खाने—पीने में भी एक दूसरे का हाथ बंटाने लगे। कभी रामू के चूल्हे पर खाना पकता तो की अब्दुल के। मांस के शौकीन दोनो थे। अब्दुल रामू के सामने ही बकरे का मांस खरीदता ताकि बड़े मांस का संदेह ही पैदा न हो। उसका पकाया मांस रामू को इतना भाता कि अंगुलियां चाटकर रह जाता। रामू ने पैसे की थोड़ी—बहुत बचत करके अपने लिए पुरानी साइकिल का जुगाड़ कर लिया। चलाना सीख ही रहा था कि सडक़ के किनारे खड़े तांगे से टकराकर अपनी टांग तुड़ा बैठा। घुटना एेसा मुड़ा कि खड़ा ही नहीं हो पाया। अब्दुल ने किसी तरह से उसे और उसकी साइकिल को क्वार्टर तक पहुंचाया। रामू को कराहते देख उससे रहा नहीं गया। किसी तरह से वह रामू को एक डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर ने रामू के घुटने की अच्छी तरह से पड़ताल की और फिर दो गोलियां देकर विदा किया। अब्दुल ने सवालिया लहजे में देखा तो डॉक्टर अब्दुल की ओर देखकर मुस्कराया भी था। घर पहुंचकर गोलियां लेते ही रामू के पेट में हलचल मचने लगी। लगा कि बस अभी हाजत होती है। कहीं पायजामे में ही न हो पड़े, इस आशंका से वह तेजी से घिसट-घिसटकर सामने सामूहिक संडास की ओर बढऩे लगा। मलद्वार में ऐसी जलन मची कि रामू एक झटके से खड़ा हुआ तो घुटने का जोड़ अपनी सही जगह बैठ गया। रामू पहले की तरह खड़ा होकर चलने लगा। अब्दुल अपने दरवाजे से यह सब देख रहा था। वह समझ गया कि डॉक्टर ने दस्तावर की गोलियां क्यों दी थीं। इसलिए कि मरीज हाजत के लिए झटके से उठे और पहले की तरह चलने फिरने लगे। रामू निवृत्त होकर लौटा तो अब्दुल हंसते—हंसते दोहरा हो गया। बोला— “वाह रे डॉक्टर ! क्या इलाज किया।”
रामू भी बात समझ कर हंसने लगा। यह घटना उन्हें और करीब ले आई।
चार साल यूं ही बीत गए। इस बीच अब्दुल एक बूढ़े मोची की दुकान पर भी काम करने लगा। वह दफ्तर जाने से पहले सुबह दो घंटे और शाम को पांच बजे के बाद अंधेरा होने तक जूते सिलने— गांठने का काम करने लगा। उसके लिए खाना बनाने का भार रामू ने अपने ऊपर ले लिया। अब्दुल के हाथ के बने जूते ग्राहकों को भाने लगे तो बूढ़ा मोची फरीद उस पर जान छिडक़ने लगा। उसका अपना बेटा तो था नहीं। एक अकेली बेटी थी। वब भी किसी ऐसे कारिंदे की फिराक में था,जिससे वह बेटी का निकाह करके दुकान भी सौंप सके और निश्चिंत होकर खुदा की इबादत में अपना अंतिम वक्त गुजार सके। बेटी फिजां अब्दुल को पसंद भी करने लगी थी। अब्दुल को भी इनकार नहीं था। नतीजतन निकाह हो गया और दोनो मियां—बीवी मोची फरीद के घर पर ही रहने लगे। अब्दुल ने अब अपनी अक्ल दौड़ानी शुरू की और दुकान का कायापलट हो गया। आमदनी दिनों-दिन बढ़ती गई तो उसने चपरासीगिरी भी छोड़ दी। रात—दिन की मेहनत से धंधा चमक उठा था। अब वह अच्छी—खासी दुकान का मालिक बन चुका था।
रामू भी जब मौका मिलता दिन में एक बार उसकी दुकान का रुख जरूर करता। इधर उसकी शादी भी हो चुकी थी। पत्नी पहाड़ से अपने पति के पास आई थी।
अब्दुल को पता चला तो वह एक दिन शाम को अपनी बीवी के साथ रामू के क्वार्टर पर पहुंच गया बुर्के वाली को देख रामू की घरवाली असहज हो उठी मियां बीवी में जब उसे भाभी जान कह कर पुकारा तो वह सकुचाकर कुछ बोल नहीं पाई। जब रामू ने बताया अब्दुल उसका अपना सगा भाई जैसा है तो उसकी जान में जान आई। मियां—बीवी भाभी जान के लिए कीमती खूबसूरत जूतियां भेंट स्वरूप लाए थे। कुछ ही पलों में अब्दुल की बीवी और रामू की घरवाली गहरी सहेलियों की तरह घुल—मिल गईं। बुर्के का दुराव दूर हो गया था। दोनों की पत्नियों जब भी मौका मिलता, एक दूसरे के घर आने जाने लगीं।
वे दिन थे जब हिंदुस्तान की आजादी की मांग पूरी होने वाली थी लेकिन अलग पाकिस्तान की मांग को लेकर लोग चौराहे पर खड़े थे। राजनीतिक माहौल इतना गर्म था कि कभी भी भयानक सांप्रदायिक विस्फोट हो सकता था। लीगी, हिंदू महासभाई, अकाली और राष्टीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के लोग आग उगल रहे थे। उनके दुष्प्रचार का असर दिखाई देने लगा था। रामू और अब्दुल जैसे साधारण लोग भी प्रभावित होने लगे थे। एक दिन रामू अब्दुल से कह बैठा—क्यों भाई अब तो तुम भी यहां चंद दिनों के मेहमान हो। पाकिस्तान चले जाआेगे न
रामू के मुख से यह सुनकर अब्दुल रुआंसा हो गया बोला—“क्या कह रहे हो भाई क्या हमारा जोधपुर का इलाका पाकिस्तान में जा रहा है ?”
राम ने कहा—“शायद नहीं।”
अब्दुल बोला—“अगर नहीं तो मैं क्यों जाऊं जिस मिट्टी में मेरे पुरखों की मिट्टी मिली है। मैं उस मिट्टी को छोड़ और कहीं क्यों जाऊं ? ”
रामू ने यूं ही कह दिया—“लेकिन तुम्हारे लोग तो पाकिस्तान बसने जा रहे हैं ।”
अब्दुल—“कहा न मुझे नहीं जाना। पाक हो या नापाक मुझे कहीं नहीं जाना।”
और बात यहीं पर खत्म हो गई ।
हफ्ता भर बीता होगा कि रामू की घरवाली की तबीयत अचानक बिगड़ गई। सरकारी अस्पताल गए तो इतनी भीड़ कि निराश लौटना पड़ा, ऊपर से ड्यूटी पर भी नहीं जा पाया। अब्दुल से रोना रोया तो उसने सलाह दी— “सरकारी अस्पताल के फेर में न पड़े किसी प्राइवेट डॉक्टर को दिखाओ। सरकारी अस्पताल में तो टालमटोल का माहौल रहता है। निजी डॉक्टर अच्छा इलाज करते हैं उन्हें अपनी आमदनी बढ़ाने की फिक्र होती है सरकारी डॉक्टरों का क्या इलाज हो न हो, तनख्वाह तो मिलेगी ही।”
रामू ने कहा—“ठीक कहते हो भाई ! लेकिन निजी डॉक्टर की फीस कहां से लाऊं ऊपर से गौरी को लाने ले जाने के लिए कहां तक छुट्टी लेता फिरूं, यह भी तो एक समस्या है।”
“हां, समस्या तो है लेकिन मैंने निदान भी सोच लिया है। फीस की चिंता छोड़ो, भाई मानते हो न, तो फिर मैं कब काम आऊंगा। तुम्हें छुट्टी लेने की भी जरूरत नहीं। फिजां है न खाली बैठी रहती है । भाभीजान को वही डॉक्टर के पास ले जाएगी और फिरक्वार्टर पर ही छोड़ आया करेगी।”—अब्दुल ने कहा ।
रामू की हिचकिचाहट भांपकर अब्दुल ने आगे कहा—“मुसीबत में अपने ही तो काम आते हैं भाई जब भी हो सकेगा धीरे-धीरे चुकाते रहना। तुम्हें एहसान तले दबाने कि मेरी कोई नीयत नहीं है। नहीं भी चुका पाओ तो कोई मलाल नहीं।”
यह सुना तो राम अब्दुल की इंसानियत का और भी कायल हो गया।
पाकिस्तान की गठन की घोषणा से पहले ही जो दंगे पूरब और पश्चिम को अपने लपेटे में ले चुके थे उनकी आंच अब राजधानी तक पहुंचने लगी थी। शरणार्थियों के जत्थे के जत्थे इधर से उधर जाने और उधर से इधर आने शुरू हो गए थे। कब दंगे भडक़ उठें, इस डर से लोग अपनों की सुरक्षा के लिए बेचैन होने लगे। रामू ने अपनी घरवाली वापस पहाड़ भेजने में ही कुशल समझी। अब्दुल भी फिजां को अपनी ढाणी भेज कर वापस लौट आया था।
अचानक एक दिन सुबह—सुबह दंगाई सडक़ों पर उतर आए अपने घरों से उखड़े और टूट लोगों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। हाथों में डंडे, लोहे के सरिए, बरछे-भाले अच्छे और यहां तक कि नंगी तलवारें लेकर पागलों की तरह चीखती—चिल्लाती भीड़ सब कुछ स्वाह करने पर आमादा थी। हैवानियत का नंगा नाच पहले कभी देखा नहीं गया। दुकानों के साथ रिहायशी मकान भी धू—धू कर जलने लगे। ईंटों और पत्थरों की ऐसी बौछार हुई कि सडक़ों और गलियों का नक्शा ही बदल गया। जान बचाकर भागते अपाहिज तक नहीं छोड़े गए। मासूम बच्चों को भालों और बरछों से बींधकर हवा में उछालती हैवानी करतूत अपने चरम पर थी। आदमी के भीतर का वहशी सारी सीमाएं लांघ चुका था। मां-बहनों की इज्जत से सरेआम खिलवाड़ हो रहा था। विरोध होने पर मत की नींद सुलाने का राक्षसी खेल खेला जा रहा था। इंसानियत आठ—आठ आंसू बहाने को मजबूर हो गई थी। इसी बीच दंगाइयों की भीड़ अब्दुल की दुकान की ओर लपकी। अब्दुल ने अपनी दुकान बचाने का भरपूर प्रयास किया। वह बलवाइयों के के पैरों पर गिरा, गिड़गिड़ाया. लेकिन वहां कौन सुनने वाला था। दंगाई तो उसे भी जलती दुकान के भीतर फेंक कर जिंदा इंसान को जलाने का तमाशा देखना चाहते थे। अब्दुल किसी तरह उनके चंगुल से छूटा और कुछ दूरी पर रामू के क्वार्टर की ओर दौड़ पड़ा। दो तीन बलवाई भी उसका पीछा करने लगे। रामू क्वार्टर के बाहर खड़ा था। बदहवास अब्दुल को आते देख वैसे बुरी तरह घबरा गया।
“ मुझे बचा लो, मुझे बचा लो रामू भाई।” यह कहते हुए अब्दुल भीतर घुस गया और रामू की चारपाई के नीचे छिप कर लेट गया। तब तक दंगाई भी आ पहुंचे। राम ने दंगाइयों को भीतर घुसने से रोकना चाहा लेकिन निहत्था क्या करता। वे उसे पटखनी देकर भीतर घुस पड़े। एक ने तो एक में चारपाई के नीचे छिपे अब्दुल को वरछे से बींध डाला। घायल अब्दुल ने बाहर निकल कर भागना चाहा तो दूसरे ने एक झटके में तलवार से उसकी गर्दन उड़ा दी। अब्दुल का धड़ रामू के बिस्तर पर ढह गया और सिर एक कोने में जा गिरा। रामू पत्थर सा हो गया। आंखें मुंद गई। बेहोश होते—होते बचा। वह तो अपने गांव में बकरे या भैंसे की बलि देते समय आंखें मूंद लिया करता था या एक ओर खड़ा होता था। एक इंसान और वह भी सगे भाई जैसा, उसे इस तरह कटते देखकर वह बुरी तरह रो पड़ा । दंगाई उसे धमका कर जा चुके थे। किसी तरह साहस जुटा कर रामू ने अब्दुल के कटे सिर की ओर देखा। दहशत के मारे अब्दुल की आंखें खुली की खुली रह गई थीं और मुंह भी खुला का खुला। सारे कमरे में खून ही खून। बिस्तर भी खून से सराबोर। दीवारो पर भी खून के बेशुमार छींटे उस जघन्य हत्याकांड की गवाही दे रहे थे। बेचारा राम कुछ करने या सोचने की स्थिति में नहीं था। अब्दुल की लाश का वह क्या करे पशोपेश में था। उसी समय दो पुलिसवाले सामने से गुजरे एक की नजर दरवाजे से बाहर बह आए खून पर पड़ी। वह ठिठककर खड़ा हो गया।
कमरे से बाहर निकलते समय हत्यारे ने कहा था—“मुसल्टे ! जा अपने पाकिस्तान।”
रामू सोच रहा था—“ वाह री सियासत, उधर देश दो भागों में बंटा और इधर अब्दुल के दो टुकड़े, पाकिस्तान के नाम पर उसी के दो टुकड़े, जिसका उससे कोई सरोकार तक नहीं था, नफरत की यह आग क्या कभी बुझ पाएगी।” सोच ही रहा था कि उसी समय पुलिस वाले ने उसके कंधे पर हाथ रखा। वह चौंक उठा। मुडक़र देखा तो पुलिस वाला पूछ रहा था—“क्यों रे खून तूने क्यों किया।”
दूसरा पुलिसवाला भी कुछ आगे जाकर लौट आया था, बोला—“इसी ने किया तभी तो चुप है।”
“नहीं-नहीं हवलदार साहब ! खून मैंने नहीं किया वह तो दंगाई थे, जो बेचारे अब्दुल को काट कर चले गए।” -रामू ने कहा।
“हर अपराधी यही कहता है मौके पर पकड़ा गया तो मना करता है।”-पहले वाले ने कहा
इसी बीच कुछ पड़ोसी वहां आ गए। पड़ोसी जमादार ने कहा—“रामसिंह ठीक कहता है, हवलदार साहब मरने वाला अपनी जान बचाने इसके कमरे में घुसा था। इसने तो दंगाइयं को रोकना भी चाहा लेकिन निहत्था क्या करता दंगाई काटकर चले गए।”
“लगता है तुम लोग भी इस खेल में शामिल हो तुम सभी को हिरासत में लेना पड़ेगा।”-हवलदार ने धमकाया।
“यह भी खूब रही सच कहता हूं , मेरा आंखों देखा सच है। मरने वाला इसकी जान पहचान का था । मैंने इन्हें कई बार एक दूसरे के यहां आते जाते देखा है। यह भला उसका खून क्यों करता।”— जमादार ने कहा।
“केवल जान—पहचान का नहीं। अब्दुल तो मेरा सगा भाई जैसा था। उसके एहसान का बदला तो मैं जीते जी शायद ही चुका पाऊं।” -पड़ोसियों की हिमायत से बल पाकर रामू ने कहा।
“अच्छा....अच्छा तो वह अब्दुल था, मुसलमान। और तू हिंदू ऊपर से एहसान की बात शायद लेन—देन की बात रही होगी। दंगे में मौका लगा और बेचारे की जान ही ले ली ।” -हवलदार ने हत्या के पीछे का कारण भी खोज निकाला।
“चल बेटा थाने वही सच— झूठ का पता चलेगा।” -कहते हुए उसने रामू का हाथ पकड़ लिया।
पड़ोसी ने कहा—“हवलदार साहब रामसिंह सरकारी कर्मचारी है हिरासत में लेने से पहले दफ्तर की इजाजत तो ले लें।”
“वह सब तो होता रहेगा जाकर बता दो कि रामू खून के इल्जाम में पकड़ा गया है।”—पुलिस वाले यह कहकर रामसिंह को पकड़ ले गए। सभी को बुरा लगा। जमादार दफ्तर में सूचना देने चला गया ।
थाना अभी खाली था थानेदार और सिपाही दंगाइयों से निपटने के नाम पर न जाने कहां कहां की धूल फांक रहे थे। केवल एक मुंशी अपनी टूटी कुर्सी पर ऊंघ रहा था। रामू को हवालात में बंद कर दिया गया। थानेदार के आने की राह देखी जाने लगी।
कुछ ही देर में थानेदार चार पुलिस वालों के साथ थाने पहुंचा। सभी थके और पसीने से तरबतर। दो को पहले से बैठा देखा तो थानेदार बिफर उठा—“ड्यूटी छोड़ कर यहां आराम करने चले आए हरामखोरों, नौकरी नहीं करनी है क्या? ”
“हजूर! हुजूर! नाराज न हों । हम तो एक खूनी को रंगे हाथ पकड़ लाए हैं।” -एक ने कहा ।
“क्या कहा कातिल है कौन ? और कत्ल किस जगह हुआ था? ” -थानेदार बोले
“यह सरकारी क्वार्टर में हुआ है।”—दूसरे ने बताया
रामू को हवालात से निकालकर ज्यों ही थानेदार के आगे पेश किया गया थानेदार की आंखें फटी की फटी रह गईं
अरे! रामसिंह तू ? और थानेदार आगे बोल नहीं पाया।
थानेदार की इस प्रतिक्रिया से दोनों पुलिसवाले अब सकपका गए
रामू ने बताया—“पंडित जी ये लोग मुझे नाहक ही पकड़ लाए मैं बिल्कुल बेकसूर हूं जिसका कत्ल हुआ। वह मेरा दोस्त अब्दुल था। दंगाईयों से जान बचाने वह मेरे पास आया लेकिन मैं कुछ नहीं कर पाया। दंगाई भीतर घुस कर उसे काट कर चले गए। और मैं देखता रह गया। उसी समय ये लोग आए और लाश के सामने खड़ा देख मुझे पकड़ लाए।”
“ यही तो मैं सोच रहा हूं, रामसिंह जैसा इंसान कातिल कैसे हो सकता है।”—थानेदार ने कहा।
“हुजूर ! हो सकता है यह सच कह रहा हो, लेकिन मौका—ए—वारदात पर तो यही था। गुनाह भी इसी के क्वार्टर में हुआ। कोई दूसरा भी आस पास नहीं था दंगाई तो जा चुके थे वह सरकारीक्वार्टरों में घुसे इसका भी कोई सबूत नहीं है। वे तो सामने की सडक़ से निकल गए थे। ऊपर से यह मृतक के एहसान की बात भी करता है। हमें तो शक है कि इस ने जमकर उधार लिया होगा। चुकता नहीं कर पाया तो बलवे की आड़ में बेचारे की जान ही ले ली। जिस बेरहमी से गर्दन काटी गई। देखकर तो हमारी ही रुह कांप गई।”-हवलदार ने कहा।
“खैर,जिस शक की बिना पर तुम इसे उठा लाए उसकी छानबीन तो करनी ही पड़ेगी। लेकिन मेरा जमीर कहता है राम सिंह खूनी नहीं हो सकता है, मैं तो इसे बचपन से जानता हूं हमारे अपने यजमानों के परिवार से है जो बकरे की बलि देते देख आंखें मूंद लेता या भाग खड़ा होता था। वह किसी आदमी की गर्दन काटकर फेंक दे। यकीन नहीं होता। हां यह तो बताआे कि जिस हथियार से गर्दन उड़ाई गई है वह हथियार है कहां ? - थानेदार ने पूछा।
“वह तो मिला नहीं हजूर। कातिल बड़ा शातिर लगता है, पता नहीं कहां गायब कर दिया।”— दूसरे पुलिस वाले ने कहा।
“मुझे लगता है तुम एक बेगुनाह को फंसाने का गुनाह कर रहे हो। अरे जिस दंगाई में गर्दन उड़ाई क्या वह हथियार वहीं छोड़ जाता अपने साथ ही तो ले गया होगा ना।”-थानेदार यह कह रहा था कि उसी समय दफ्तर के बड़े बाबू जमीदार के साथ जमादार के साथ थाने पहुंच गए।
बड़े बाबू ने आते ही थानेदार से कहा—“थानेदार साहब! रामसिंह एक सरकारी मुलाजिम है उसे बिना इजाजत क्यों पकड़ा गया।”
“कत्ल जैसे संगीन मामले में इजाजत के लिए रुका रहना सही नहीं होता। कातिल भाग जाता तो कौन जिम्मेदार होता मेरे लोगों को शक है कि लेन देन के मामले में यह कत्ल किया गया है। दंगे तो हो ही रहे हैं और शातिर लोग उन्हें भुना भी रहे हैं।”- थानेदार बोला।
“नहीं हजूर! जैसा आप सोच रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है। जिसका कत्ल हुआ वह दो साल पहले तक इसी रामसिंह के साथ हमारे दफ्तर में चपरासी था। इन दोनों की दोस्ती की तो लोग मिसाल देते हैं । अब्दुल के नौकरी छोडऩे के बाद भी इनकी दोस्ती में कई फर्क नहीं आया। मैं इन दोनों को जितना जानता हूं। उतना कोई नहीं जानता। दफ्तर में मैं ही तो इनसे काम लेता था। रामसिंह अपने जिगरी दोस्त का खून नहीं कर सकता। यह काम तो एक पग्गड़ वाले दंगाई का है। मैंने खुद अपनी आंखों से देखा है। जिसने खून किया मैं उसे सैकड़ों में पहचान सकता हूं। जो दंगाई हमारे क्वार्टरों में घुसे उन्हें अगर पकड़ पाएं तो मुझे बुला लें। मैं उस हत्यारे को पहचान लूंगा। रामसिंह बिल्कुल बेगुनाह है । उसे छोड़ दें एक बेकसूर को शक की बिना पर फांसी के फंदे तक न पहुंचाएं हुजूर।”-कहते—कहते जमादार सिसकने लगा।
“ शक करना तो हम पुलिस वालों की फितरत है। वैसे मैं खुद मानता हूं कि रामसिंह जैसा सीधा साधा आदमी किसी का खून नहीं कर सकता। आपने मेरे इस यकीन को और पुख्ता कर दिया है। हम रामसिंह को फिलहाल छोड़ रहे हैं। हां अगर कोई नई बात सामने आई और रामसिंह से फिर पूछताछ करनी पड़ी तो उसे थाने आना होगा। आप लोग रामसिंह को अपने साथ ले जा सकते हैं। हवलदार हथकड़ी खोल दो।”— थानेदार ने आदेश दिया।
बड़े बाबू और जमादार के साथ रामू अपनेक्वार्टर पहुंच गया। इस बीच म्युनिसिपैलिटी ट्रक में इधर-उधर बिखरे शवों के साथ अब्दुल का धड़ और सिर भी न जाने कहां ले जाए जा चुके थे। बड़े बाबू रामू को दिलासा देकर चले गए। जमादार ने कमरा साफ करने को कहा। खून से सना बिस्तर नीचे पड़ा था। सारे फर्श पर खून का थक्का जम चुका था। इंसानी खून की एक अजीब सी गंध बेचैनी पैदा कर रही थी। उबकाई आ रही थी। रामू भीतर घुसने का साहस नहीं जुटा पाया। उसे रह—रहकर अब्दुल की दहशत चीखें। उसकी खुली आंखें और खुला रह गया मुंह याद आ रहा था। उसे लगा कि अब्दुल कहीं उसे अपनी मौत का जिम्मेदार न समझ बैठे। उसे लगा कि उसे बचाने के लिए जो कशिश होनी चाहिए थी वह तो उससे हो नहीं पाई। उसे उस जैसे दोस्त को बचाने के लिए अपनी जान पर खेल जाना चाहिए था। जान भी चली जाती तो अच्छा ही होता। लेकिन वह तो उसे कुर्बानी के बकरे की तरह कटते देखकर आंखें मूंद बैठा था। हत्यारे की नंगी तलवार से डर जो गया था। रामू अब्दुल की मौत का जिम्मेदार खुद को समझने लगा। रोने—बड़बड़ाने लगा— “अब्दुल ! हां, मैं ही ही हूं तेरा कातिल।”
कुछ देर में जमादार उसे बुलाने आया कि पेट में तो कुछ डाल ले लेकिन रामू कहीं दिखाई नहीं दिया भीतर झांका तो खून से सना कमरा जैसे का तैसा। कहां चला गया कुछ पता नहीं चला। शौचालय साफ करने वालों से कहकर कमरा तो साफ करवा दिया गया लेकिन रामू फिर वहां नहीं आया।
हां कुछ लोगों ने जरूर उसे आसपास मंडराते देखा। लेकिन सामने पड़ते ही वह भाग कर न जाने कहां छुप जाता। दफ्तर से उसकी ढूंढ खोज के लिए पुलिस को भी हिदायत हुई थी। हफ्ते भर गैरहाजिरी के कारण आखिर उसके घर को भी सूचना भेज दी गई ।
खोज-खबर लेने रामू का बड़ा भाई आया। क्वार्टर खाली पड़ा था। आशंका थी कि कहीं वह भी तो दंगे का शिकार न हो गया हो। जमादार ने भाई की मदद की। थानेदार से मिलाने ले गया। थानेदार तो पहले से ही खोजबीन में लगा था। कोशिश रंग लाई रामू पुरानी दिल्ली की एक अंधेरी गली से पकड़ में आया। कूड़े के ढेर में बिखरे सूखे बिस्कुटों और रोटी के टुकड़े बीन रहा था। बाल बिखरे हुए दाढ़ी बढ़ चली थी और कपड़े चीकट मैले और फटे हुए। भाई को थानेदार के साथ देखकर वह भागने लगा लेकिन धर लिया गया। पकड़ में आने पर रामू चिल्लाने लगा— “ हंत्या, हंत्या । अब्दुल मैं तुम्हें नहीं बचा पाया। मैं तुम्हारा हत्यारा हूं तुम मुझे माफ नहीं करोगे। मुझे जाने दो।”
पकड़ से छूटने के लिए उसने भरपूर जोर लगाया लेकिन छूट नहीं पाया।
रामू के इस पागलपन से छुटकारे के लिए लोगों ने न जाने कितनी तरकीबें सुझाई। हां एक बात पर सभी सहमत थे कि उस पर अब्दुल का भूत हावी हो गया है। थानेदार ने दो सिपाहियों को भाई की मदद करते रहने को कहा था। वे रामू को कई ओझाओं, फकीरों और तांत्रिकों के पास ले गए। झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, गंडा—ताबीज कोई भी काम नहीं आया। रामू के मन से हत्या—बोध का वहम दूर नहीं हो पाया। वह सोते—सोते अचानक उठ पड़ता। मैं अब्दुल हूं मै अब्दुल हूं तूने मुझे मार डाला अब्दुल अब्दुल कहते वह बड़बड़ाने लगता। हताश होकर बड़ा भाई एक दिन उसे किसी तरह गांव ही ले आया।
उसकी दशा देखकर बूढ़े मां बाप और घरवाली का बुरा हाल था। बुजुर्गो ने देव—जागरण का सुझाव दिया। आशा थी कि कुलदेवता रामू को ठीक करने का कई उपाय अवश्य बताएंगे। जागरण के आयोजन से पहले एक भूत—प्रेत बाधा मोचक पंडितजी से गुहार की गई। वह रामू को श्मशान घाट ले गए। एक मुर्गे और एक मेढ़े की बलि दी जानी थी। अपने विचित्र मंत्रों को गुनगुनाते ज्यों ही मेढ़े की बलि दी गई। राम चिल्लाकर उठा और मेढ़े का खून से सना सिर पंडितजी के सिर पर पटक कर एक ओर भाग गया। भूत—प्रेत विद्या विशारद पंडितजी भी अब्दुल के भूत से हार मान गए। अब तो देवताओं का जागर ही एकमात्र उपाय बचा था। शुभ घड़ी देख कर देव जागरण आयोजित हुआ। जगरी ने हुडक़े पर पहली थाप मारी और कांसे की थाली की चिनचिनाहट के साथ देवी देवताओं का वृत्त गायन शुरू हो गया। देवी—देवता अपने डांगरों (देव वाहनों) पर अवतरित होने लगे।
इसी बीच रामू भी “ अब्दुल मेरे भाई अब्दुल, मैं तुझे नहीं बचा पाया रे! तेरा हत्यारा मैं हूं रे मैं ” कहता हुआ बुरी तरह नाचने लगा। लोग समझे शायद किसी सैद (सैय्यद)की आत्मा अवतरित हो गई है। सैद का अनपढ़ से अनपढ़ डांगर भी उर्दू बोलने लगता था। जागरी सैद संबंधी वृत्त लेने लगा पर रामू क्रोध में जमीन पर सिर पटकने लगा। जागरी की समझ में नहीं आया कि आखिर मामला क्या है। कुलदेवता नृसिंह का आह्वान किया गया। जिसके डांगर ने रामू को अपने आगोश में लेकर शांत करने का प्रयास किया। लेकिन राम उसके भी बस में नहीं आया। जागरी ने परिवार के सदस्यों से पूछा कि आखिर अब्दुल था कौन। घरवाली आगे आई बोली—“गुरुजी अब्दुल को ये अपने सगे भाई से भी बढक़र मानते थे। वह आदमी था भी बहुत भला। उसके न जाने हम पर कितने एहसान थे। मारा गया तो ये अपने को ही दोषी मान बैठे हैं। जागरी कुछ सोचने लगा।”
बूढ़े बाप ने नृसिंह के डांगर के आगे नतमस्तक होकर पूछा—“प्रभो ! आप ही बताएं इस बला से हमें कैसे छुटकारा मिले ?
“ हरिद्वार और जोशीमठ ले जाकर खैरात बांटो तो कल्याण होगा।” -नृसिंह का डांगर बोला
“अजमेर शरीफ ख्वाजा की शरण में जाऊंगा मैं मुझे वहीं जाना है और कहीं नहीं।”-रामू के मुख से निकला
बड़े भाई ने हाथ जोडक़र कहा—“जो हुकुम हम इसी साल अजमेर शरीफ जाएंगे।”-सुनते ही रामू निढाल होकर एक ओर लुढक़ गया। चेहरे पर अजीब सी शांति की रौनक लौटने लगी।
अब तक जागरी किसी निर्णय पर पहुंच चुके थे। बोले—“यह अब्दुल का भूत इस परिवार का घर भूत बन चुका है, पूजा प्रतिष्ठा देनी होगी।”
एक बुजुर्ग ने दखल दिया—“ वाह गुरु जी कैसी बात कह दी आपने? घरभूत वो पुरखे होते हैं जो अकाल मृत्यु के कारण अपनी संतान से पूजा प्रतिष्ठा की मांग करते हैं। अब्दुल न हमारी जाति का, न हमारे धर्म का। वह हमारा घरभूत कैसे हो सकता है? ”
जागरी बोले—“घरभूतों में देवताओं की तरह जाति धर्म का भेदभाव कैसा सैद (सैय्यद) पूजते हो तो इसे भी घर भूत समझकर पूजो।“
सुबह होने वाली थी। जागर समाप्ति पर थे। लोग उठने लगे थे। हैरान—परेशान रामू के बूढ़े मां—बाप ने आकाश की ओर देखा और कहा—“ हे भगवान! अब्दुल का भूत और हमारा घरभूत।” रामू अभी तक लुढक़ा पड़ा था।