Saturday, June 30, 2018

ऐसी ज़िन्दगी किस काम की जो सिर्फ घृणा पर टिकी हो


कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति




मैं आपके इस तर्क को निराधार तो नहीं मान सकता कि एक लम्‍बे समय तक आपकी रचनाओं को स्‍थापित पत्र पत्रिकाओं में जगह न दिया जाना आपका दलित होना रहा होगा, लेकिन थोड़ा वस्‍तुनिष्‍ठ तरह से इस संभावना को रखना चाहूंगा कि हिंदी में पेशेवराना मिजाज न होने के कारण ही ऐसा हुआ होगा। पेशेवराना अभाव के कारण ही हिंदी आलोचना, आलोचकों की पहुंच की सीमा बनी हुई है। 1989 में प्रकाशित आपकी कविता पुस्तिका ‘सदियों का संताप’ भी उसी गुमानामी के अंधेरे में रहा होता यदि हिंदी में दलित साहित्‍य को पहचाना नहीं गया होता। इतिहास गवाह है कि ‘सदियों का संताप’ के प्रकाशन तक हिंदी में दलित साहित्‍य नाम की संज्ञा न होने के कारण रचनाओं के बाबत उस पुस्तिका में हम कहीं भी नहीं कह पाये थे कि ये दलित कविताएं हैं।
हिंदी में दलित साहित्‍य की आवाज तो ‘हंस’ संपादक राजेन्‍द्र यादव से हुई आपकी उस भेंट के बाद ही संभव हुई, जिस मुलाकात में तीखी बहस के बाद हंस संपादक ने आपसे हंस के लिए कविताएं भेजने को कहा था और मिलते ही उन्‍हें हंस में छापा भी था। बस इतना ही तो था हिंदी में दलित साहित्‍य के उभार का वह घटनाक्रम। जबकि बाद में तो आपकी रचनाओं को छापने वाले संपादकों के फोन और पत्रों की बाढ़ के हम आपके साथी गवाह रहे। उस वक्‍त आप अपने लेखन में ठीक ठाक व्‍यस्‍क हो चुके थे। यानी एक लेखक के रूप में आपकी पहचान आपके किशोर वय के दौरान की पहचान नहीं रही। इसी कारण हिंदी कविताओं को ‘इतिहास’ लिखने वाली आलोचना के पास आपकी पहचान को किसी ‘दशक’ में पहचानना मुश्किल ही बना हुआ है। जिस तरह कुछ लेखकों को किशोर वय में ही हाथों हाथ ले लिया जाता है, आप भी यदि उसी तरह एक लेखक के रूप में स्‍थापित हो गए होते तो यह आशंका जाहिर की ही जा सकती है कि हिंदी में दलित साहित्‍य के प्रणेता का दर्जा आपको शायद ही मिला होता। किसी आंदोलन का प्रणेता होने के लिए जिस वैचारिक तैयारी की जरूरत होती है, ‘तारीफ और तालियां’ आपको भी पता नहीं वैसा करने का मौका देती या नहीं। तालियों की गड़गड़ाहट यूं भी किसी को अपने में कहां रहने देती है। आप भी अपने करीब बने रहते, ऐसा न मानने के पीछे बस वे सामाजिक प्रवृत्तियां ही आधार हैं जो हिंदी में ‘अतिमहत्‍वाकांक्षा’ का कोहराम मचाए नजर आती हैं। आशंकाओं को निर्मूल न माने तो यह बात दृढ़ता से कही जा सकती है कि आप कवि, कहानीकार खूब कहलाए होते, लेकिन जिस तरह की वैचारिक जद्दोजहद आपने की, हिंदी की हमारी दुनिया उससे वंचित भी रह सकती थी।     

'जाति' आदिम सभ्यता का 
नुकीला औज़ार है 
जो सड़क चलते आदमी को
कर देता है छलनी 
एक तुम हो
जो अभी तक इस 'मादरचोद' जाति से चिपके हो 
न जाने किस हरामज़ादे ने 
तुम्हारे गले में 
डाल दिया है जाति का फन्दा
जो न तुम्हें जीने देता है
न हमें !   

यह कविता बाद के दौर की कविता है। उस दौर की, जब एक रचनात्‍मक स्‍वीकारोक्ति ने आपको आत्‍मविश्‍वास से भरना शुरु कर दिया था। शुरुआती दौर की कविताओं से इस मायने में भिन्‍न हैं कि वहां जो गुस्‍सा था, असहायता की क्षीण सी रेखा खींचता देता था, इनमें वह चुनौति प्रस्‍तुत करने लगा था। बानगी के तौर पर शुरूआती दौर की आपकी एक कविता का स्‍वर  कुछ यूं था,

मैंने दुख झेले
सहे कष्‍ट पीढ़ी-दर-पीढ़ी इतने
फिर भी देख नहीं पाए तुम
मेरे उत्‍पीड़न को
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको ।

इतिहास यहाँ नकली है
मर्यादाएँ सब झूठी
हत्‍यारों की रक्‍तरंजित उँगलियों पर
जैसे चमक रही
सोने की नग जड़ी अँगूठियाँ ।

कितने सवाल खड़े हैं
कितनों के दोगे तुम उत्‍तर
मैं शोषित, पीड़ित हूँ
अंत नहीं मेरी पीड़ा का
जब तक तुम बैठे हो
काले नाग बने फन फैलाए
मेरी संपत्ति पर ।

मैं खटता खेतों में
फिर भी भूखा हूँ
निर्माता मैं महलों का
फिर भी निष्‍कासित हूँ
प्रताडित हूँ ।

इठलाते हो बलशाली बनकर
तुम मेरी शक्ति पर
फिर भी मैं दीन-हीन जर्जर हूँ
इसलिए युग समूचा
लगता है पाखंडी मुझको । (अक्‍टूबर 1988)

निश्चित ही यह बदलाव इस बात के गवाह हैं कि अब आप अपने रास्‍ते, जो यू तो पहले से तय था, उस पर पूरी शिद्धत से बढ़ना शुरु कर चुके थे। यह विकास ही आपको आत्‍मविश्‍वासी बनाता रहा और यह आत्‍मविश्‍वास ही आपको उदात भी बनाता चला गया,

ऐसी ज़िन्दगी किस काम की
जो सिर्फ़ घृणा पर टिकी हो
कायरपन की हद तक
पत्थर बरसाये
कमज़ोर पडोसी की छत पर!

...जारी

  स्‍मृति

Saturday, June 23, 2018

मुझसे बातें करती जाती है

भिन्नता का सम्मान करना और उसके बीच बने रहना, सहज मानवीय गुण हैं। इस ब्रह्माण्ड की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति-जो प्रकृति के रूप में हमारे इर्द गिर्द बिखरी है, हमारे भीतर और बाहर है, कहीं हमशक्ल तक भी दिखती नहीं, उसके अदृश्य गुणों की भिन्नता की बात तो क्या ही की जाए। सभ्यता के विकासक्रम में भिन्नता के संग साथ सतत बनी रहने वाली प्रकृति की प्रेरणा ने ही जनतांत्रिक मूल्य एवं नैतिकता के मानदण्ड रचे हैं। 

यह सुखद अहसास है कि अनीता सकलानी, जिनके कवि होने की घोषणाएं शायद ही सुनी गई हों, अपनी डायरी में भिन्नता का कोहराम मचाये हैं। उनकी कविताओं का मिजाज भिन्नता के यशोगान में ही आप्लावित है। कहें कि भिन्नता का काव्य उत्सव मनाते रहना उनकी कविताओं का ध्येय होता हुआ है। व्याकरण सम्मत कसाव में उनके कहन की सहज स्पष्टता, मजबूर कर रही है कि उनके कवि होने की घोषणा कर दी जाये।

 वि.गौ.

अनीता सकलानी










अदभुत


उड़ती हूं बादलों में
रोम-रोम पुलकता है
स्‍नान करती है आत्‍मा
अपसृत धाराओं में
सितारों संग, बिखरी पड़ी है, शरद पूर्णिमा
आकाश में

चांदनी से नहायी पृथ्‍वी में
विभोर होती है मीरा गलियों में
कबीर एक तारा बजाते हैं
सूर के कृष्‍ण नृत्‍य करते हैं
पेड़, पर्वत, नदी, एक नीली झीनी चादर ओढ़े
हवा के साथ करते ठिठोली हैं

एक धरती
एक लोग
भेद नहीं कहीं भी
इस धरती पर मैं समायी
अदभुत है 
  

आकाश


हवा मुझे ले जा रही आकाश में
नीचे मेरी प्‍यारी धरती

कभी पहाड़ कभी जंगल कभी चट्टानें
घुमड़ कर बादल आवेग में,
हृदय की लहरों की तरह

गहराई में छोटे-छोटे मकान
जैसे बच्‍चों ने खेल में बनाए हुये

शायद पाकिस्‍तान शायद अफगानिस्‍तान
कोई देश मेरे अनजाने
खुशी से ठाठे मारता समुद्र,
रात,
चांद पर रीझती रात
यहीं कहीं रहती है मेरी बेटी
थक कर सोई बिछौने में,
एक स्‍वप्‍नमयी नींद

मुझसे बातें करती जाती है
यह पृथ्‍वी


Friday, June 22, 2018

विलोम के अतिरेक सुंदर नहीं हो सकते हैं


डा. रश्मि रावत 













स्त्री को तो सदा से उसके मन को समझने वाला, उसके क्रियाकलापों से साझा करने वाले साथी की जरूरत रही है। पता नहीं किसके लिए अतिरिक्त प्रोटीन ले कर जिम जा कर कुछ पुरुष ‘माचौ’ मैन बनने, मसल्स बनाने में लगे रहते हैं। समझना चाहिए कि शारीरिक बल व्यक्तित्व का निर्धारक तत्व नहीं है, व्यक्तित्व का समूचा विकास अधिक महत्वपूर्ण है। लड़कियों का जीरो फिगर और लड़कों का सिक्स पैक्स दोनों अतिचार है, जिसकी भविष्‍य में कोई जरूरत नहीं रहने वाली है। अपने आस-पास निगाह डालें तो दिखाई देगा कि पिछले पाँच-सात सालों से शिशु को गोदी में लिए पिता मेट्रो या बस में दिखने लगे हैं। पहले एक वर्ष तक के बच्चे के साथ माँ का होना अवश्यम्भावी लगता था। किंतु अब पूरे आत्मविश्वास से पुरुष बच्चे को, उसके सामान को सम्भालते, भीड़ में जगह बनाते दिखते हैं। उनके लिए सीट खाली करना, उनका सहज भाव से लेना ...बहुत सुंदर लगते हैं ऐसे पुरुष। गोद में बच्चा लिया हुआ पुरुष किसी के लिए खतरा नहीं हो सकता। उनकी उपस्थिति में तो बोतल फोड़ बाहर आई हँसी की खनखनाहट भी कुंठित नहीं होगी। बल्कि ऐसे दृश्य अपने कोमल संस्पर्श से परिवेश में मुलामियत ला देते हैं।
सामाजिक गतिकी पर उसके प्रभाव को परखने के लिए अपने आस-पास के परिवेश पर नजर डालें तो कुछ सुख विभोर करने वाली अनुगूँजें सुनायी दे सकती हैं। कुछ साल पहले तक लड़कियों का खुल कर हँसना भी सहज सम्भव नहीं था। महानगरों में मेट्रो के लेडीज कोच में, कैंटीन या कहीं भी जहाँ लड़कियाँ बहुसंख्य हों। ‘हँसी तो फँसी’ जैसे शब्द-युग्म अपना अर्थ खो बैठे हैं। लड़कियों की हँसी की खनक से पूरा डिब्बा ऐसे गुलजार रहता है जैसे किसी ने हँसी की बोतल का डाट खोल दिया। आस-पास के माहौल से बेखबर बेबात पर ऐसी चहचहाहट, खिलखिलाहट अक्सर सुनाई पड़ती है, ये बेपरवाही, ये बेवजह का खिलंदड़पन, खुशनुमाई अकुंठ व्यक्तित्व में ही सम्भव है। संतोष होता है कि कहीं तक तो पहुँचा कारवाँ।
बदलते समय के साथ विकसित जिन नवीन अध्ययन दृष्टियों ने ज्ञान की एकांगी प्रणाली पर सवाल उठाए हैं, स्त्री-विमर्श सहित अन्य अस्मिता मूलक विमर्श उनकी बानगी भर हैं। स्त्री विमर्श के उभार के बाद से दुनिया भर में जेंडर अध्ययन केंद्र विकसित हुए हैं। नयी समावेशी दृष्टि से खंगाली गई वास्तविकता से ज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़ी शिफ्ट आई है। स्त्री-पुरुष दोनों समान रूप से ज्ञान के लक्ष्य एवं केंद्र हैं। दलित, आदिवासी जैसी अन्य हाशियाकृत अस्मिताएँ भी अपने नजरिए से दुनिया को देखने और उसमें अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रही हैं। स्त्री समाज ऐसा समाज है जो वर्ग, नस्ल राष्ट्र आदि संकुचित सीमाओं के पार जाता है और वंचनाग्रस्त समाज से ममता और स्नेह का मानवीय सम्बंध स्थापित करता है। वरना सभ्यता के अब तक के इतिहास ने दुनिया को स्त्री-पुरुष, देह-मस्तिष्क, प्रकृति-संस्कृति के विलोम द्वय में विभाजित करके ग्रहण करने की ज्ञान-सरणियाँ ही विकसित की हुई थी। यदि वे सरणियां यूंही कायम रहें तो निश्चित ही जीवन-जगत में कई तरह की विसंगतियाँ जन्‍म लेंगी। द्वित्व बोध से देखा गया सत्य कभी पूरा नहीं हो सकता। स्‍पष्‍ट है कि विलोम की मानसिकता से उत्पन्न सत्य केवल खंडित ही नहीं होता अपितु एक पक्ष को महत्वपूर्ण आयामों से वंचित कर देता है। पुरुष को केंद्र में रख कर पुरुष के नजरिए से विकसित समाज में स्त्री की स्थिति तो दोयम नागरिक की ही रही है। इतिहास एवं ज्ञान के अन्य अनुशासनों का निर्माता पुरुष ही बना रहा है।
यूं भी स्त्री-पुरुष का सम्बंध एक ऐसा अनिवार्य सम्बंध है जिसके बिना समाज एक कदम भी नहीं चल सकता। इसमें फाँक सम्बंध को बेहद जटिल बना देती है।
गत कुछ दशकों में शेष आधी दुनिया का नजरिया और आधी दुनिया का यथार्थ पत्र-पत्रिकाओं, गोष्ठियों, वाद-विवादों, साहित्य-सिनेमा, सोशल मीडिया, सामाजिक संगठनों से लेकर गली-गली ..हर जगह फैले नुक्कड़ नाटकों, रैलियों सब जगह अपनी पैठ बनाता भी गया है।
दुनियावी बदलावों के ऐसे प्रयोगों के परिणाम बताते हैं कि संवादधर्मिता से मानवीय गुणों का प्रशिक्षण सम्भव हो सकता है। प्रतीकात्मक रूप से यही संकेतित होता है कि उदात्त मानवीय गुणों की उच्च भूमि में आसीन होने के लिए स्त्री जैसी सह्दयता, संवेदनशीलता, वर्तमानता होनी जरूरी है। रोजमर्रा के जीवन में भी निर्णायक भूमिका में इन गुणों का समायोजन आवश्यक है।
किसी भी तरह के अतिरेकों से युक्त समाज स्वस्थ और सुंदर नहीं हो सकता। परम्परा के अनुसार वीरता, शौर्य, नियंत्रण, दमन, न्याय प्रिय, सबल, समर्थ इत्यादि गुण पुरुषोचित माने गए। स्नेह, ममता, सहनशीलता, क्षमा, करुणा, संवेदनशीलता आदि गुण स्त्रियोचित माने गए।
इस सत्‍य से भी मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है कि स्त्रीवाद के विभिन्न उभारों में स्त्रीत्व के उत्सव मनाने की प्रवृत्ति भी देखी गई। यह प्रतिक्रिया अब तक दबाई गई स्प्रिंग का उछाल ही प्रतीत होती है और आशंका उत्पन्न होती है कि नई तरह की अति से ग्रस्त न हो जाए। स्त्री में पुरूषोचित ‘विशिष्ट गुणों’ के अभाव की बात को चुनौती देते हुए सिद्ध करने की कोशिश भी अक्‍सर होती है कि स्त्री भी उन सब गुणों से लैस है। स्त्री में उन गुणों का अभाव नहीं है। स्त्री अनन्या नहीं है। बाज दफे तो शारीरिक, जैविक, मानसिक विशिष्टता के कारण उसे पुरुष से बेहतर भी मान लिये जाने वाली बातें सामने आती हैं। इस तरह के दावे किये जाते हैं कि स्त्रियोचित ‘उत्कृष्ट गुण’ केवल स्त्रियों में हो सकते हैं।
जबकि एक मुकम्मल मनुष्य होने के लिए दोनों तरह के गुणों का होना आवश्यक है।
एकांगी गुणों से संचालित सभ्यता ने तो घर और बाहर हिंसा और अत्याचार के अनंत सिलसिले रचे हैं। यहां तक कि जब कोई स्त्री सफल , सबल हो कर समाज में सशक्त भूमिका में आती है तो वह भी इन्हीं शक्तिशाली समझे जाने वाले गुणों को अपना लेती है और अपने सहज स्वाभाविक,वअधिक जीवंत गुणों को छोड़ती जाती है।
मानवीय गुणों को बड़े-छोटे, महान-सामान्य, भाव-अभाव की श्रेणियों में विभक्त कर देने वाली शिक्षा सिर्फ महान करार दिये गए गुणों के गुणगान का ही पाठ पढ़ाती है। सत्ता से उसका सीधा सम्बंध है। सत्‍ता का वह रूप आज बाजार के रूप में दिखता है, सूचना तंत्र के सहारे चौतरफा आक्रामक तेवर के जरिये जो सम्‍पूर्ण मानवता को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लेने को ललायित है।  सब पहचानें गला-तपा कर व्यक्ति उपभोक्ता में तब्दील होता जा रहा है।
इस्मत चुगताई ने अपनी आत्मकथा में एक ऐसी घटना का जिक्र किया जब एक पुलिस वाला उनके हस्ताक्षर लेने घर आया तो वे अपनी दस महीने की बच्ची को दूध पिला रही थी। पेन पकड़ने के लिए हाथ खाली करने उन्होंने चंद सेकंड के लिए दूध की बोतल उसे पकड़ानी चाही तो वह इतनी बुरी तरह बिदक के कई कदम पीछे हो गया जैसे कि बोतल न हो कर बंदूक हो।
आज बच्‍चे की दूध की बोतल के साथ सहज रिश्ता पुरुषों का बनने लगा है। स्‍त्री विमर्श का एक पाठ और जरूरी पाठ यह हो सकता है कि प्राणों को सींचने के काम में जब पुरुष सहभागी होंगे तो जिंदगी का मूल्य तो खुद ब खुद उन्हें समझ आने लगेगा। ऐसी प्राणशीलता जिसके भीतर कुलबुला रही हो, उसके हाथ चाकू नहीं चला सकते, उसकी वाणी आक्रामक नहीं हो सकती। कसक होती है कि हमारा परिवेश इस अकुंठ आनंद उत्सव का लुत्फ लेना क्यों नहीं सीख लेता। स्वस्थ सौंदर्य बोध, स्वस्थ आनंद बोध। जैसे कोई सूर्योदय का, प्रकृति की लीलाओं का आनंद लेता है बिना किसी अधिकार भाव के, बिना किसी अधीनस्थ बनाने की लालसा के। प्रकृति के सुंदरतम प्राणि के सौंदर्य को, चंचलता को क्यों नहीं ऐसे निहारा जा सकता जैसे चिड़िया की चहचहाहट या नदी की चंचल लहरों को। प्रकृति के साथ स्वस्थ सम्बंध के सूत्र आदिवासी साहित्य से भी सीखे जा सकते हैं।
मध्य काल की एक कवयित्री ने आपसदारी की भावना इस तरह से अभिव्यक्त की थी कि ईश्वर करे इस घर में आग लग जाए और फिर पति मेरे साथ मिल कर आग बुझाएगा।
दरअसल यह चाहना एक तरह से मानवीय गुणों की चाहना है। करुणा, संवेदनशीलता, ममता, प्रेम, स्नेह, सहिष्णुता जैसे भाव, मानवीय गुण हैं। स्त्री हो या पुरुष सभी को इन गुणों को व्यक्तित्व का प्रमुख अंश बनाना चाहिए। आवश्यकता है कि वर्तमान समाज इन्हीं गुणों से प्रधानतः संचालित हो। भारतीय परम्परा में प्रेम से लोकमंगल की धारा बहाने वाले महात्मा बुद्ध, रामकृष्ण परमहंस जैसे अनेक महानुभावों का व्यक्तित्व करुणा से सम्बलित गुणों से ही संरचित था।
बहुत जरूरी है कि स्नेह, प्रेम, करुणा, मधुरभाषिता, कोमलता, संवेदनशीलता, सहिष्णुता, विश्वास, परस्परता, आपसदारी इत्यादि जीवन-ऊष्मा से भरपूर तरल गुणों को समाज में अधिक से अधिक महत्व मिले।
अर्धनारीश्वर की अवधारणा दोनों तरह के गुणों के समायोजन को उच्च मानवीयता के लिए जरूरी मानती हैं। भारतीय समाज का अवचेतन मन इन गुणों के महत्व को भली-भाँति समझता है। देवता की भूमिका में आसीन राम-कृष्ण जैसे मिथकीय चरित्र हों अथवा बुद्ध, महावीर जैन, 24 तीर्थंकर जैसे ऐतिहासिक चरित्र, उनकी छवि को हमेशा कोमल कांत किशोर ही दिखाया जाता है। दाड़ी-मूँछ नहीं। न ही बुढ़ापे के चिह्न।

Sunday, May 20, 2018

घरभूत

शोभाराम शर्मा


एक था रामू और एक था अब्दुल। रामू पहाड़ का हिंदू और अब्दुल मारवाड़ का मुसलमान। दो जिस्म एक जान जैसे पक्के दोस्त। एक अनेक देवीदेवताओं का मुरीद और एक अल्लाह का बंदाकैसे एक दूसरे के इतने करीब आएइसकी भी अपनी एक अलग कहानी है। गरीबी में पले परिवार की तंगहाली से तंगघर छोड़ काम की खोज में दिल्ली चले आए। रामू दर्जा चार तक पढ़ा थाअब्दुल बिलकुल कोरा कागज लेकिन जूता गांठने में माहिर। परिवार का पुश्तैनी धंधा जो था। दोनो काम की तलाश में भटकते फिरे। रामू को एक होटल में बर्तन मांजने का काम मिल गयालेकिन अब्दुल को वह भी नसीब नहीं हुआ। मुसलमान जो था। हिंदू-पानी और मुसलमान पानी वाले इस देश में छूतछात की धारणा अभी पूरी शिद्दत के साथ जिंदा थी। अब्दुल को दिहाड़ी मजदूरी पर गुजारा करना पड़ा। इसी बीच जानपहचान वालों से पता चला कि सरकारी दफ्तरों में चपरासियों के लिए भर्ती खुली है। कोशिश की तो दोनो संयोगवश एक ही दफ्तर के लिए चुन लिए गए। यह पहला अवसर था जब दोनो ने एक दूसरे को देखा।
सीधेसादे रामू ने जब साथी का नाम सुना तो चौंक उठा। अब्दुल यानी मुसलमान लेकिन सिर पर न तुर्की टोपी र ठुड्डी पर लहराती दाढ़ी। शक्लसूरत और रूप रंग में अपने जैसा हीफिर कैसा मुसलमान सुना तो यह भी था कि मुसलमान हर बात में हिंदू का उलट होता है। हो सकता है इसकी भोली सूरत के पीछे भी शैतान ही छिपा बैठा हो। यह सोचकर रामू अब्दुल से कटकर रहने लगा। सामने पडऩे पर अब्दुल जब भी मुस्कराता तो रामू को उसकी मुस्कराहट में भी खोट ही नजर आता।
दफ्तर में जमादार (सीनियर चपरासी) ने उन्हें जो काम सौंपे थे उनमें भी हिंदू-मुसलमान का ही भेद नजर आता था। रामू को पानी पिलाने और कैंटीन से चायकाफी आदि लाने का काम सौंपा गया था क्योंकि दफ्तर में साहब से लेकर बाबुओं तक अधिकतर हिंदू ही थे। गैर-हिंदू तो एक-आध ही थे और उन्हें भी हिंदू हाथ से पानी पीने से कोई गुरेज नहीं था। अब्दुल फाइलें इधर-उधर पहुंचाने का काम सौंपा गया था। जब भी वे एक दूसरे के सामने पड़ते तो रामू उससे बचकर एक ओर खिसक जाता कि कहीं अब्दुल छू न जाए। एक दिन रामू बरामदे में रखे घड़े से पानी लेकर भीतर घुस ही रहा था कि उसी समय बड़े बाबू ने पुकाराअब्दुल ओ अब्दुलकल वाली फाइल तूने कहां रखीमिल नहीं रही।
अब्दुल तेजी से उधर दौड़ा तो दरवाजे पर रामू से टकरा बैठा। रामू के हाथ से तश्तरी छूट गए और चारों पानी भरे कांच के गिलास चूर-चूर हो गए। सामने स्टूल पर ऊंघता जमादार चिल्लाया— “बेवकूफ पहाड़ीयह क्या कर डाला तूने। गिलासों की कीमत क्या तेरा बाप भरेगा।
इस पर अब्दुल बोल उठा— “जमादारजीकसूर रामू का नहीं मेरा है। मैं ही हड़बड़ी में उससे जा टकराया। कीमत अगर भरनी है तो मैं भरूंगा। मेरी तन्ख्वाह से कटवा लें।
तू भरे या रामू लेकिन नुकसान तो भरना होगा। ”—जमादार का फैसला था।
अब्दुल दौडक़र पहले तो बड़े बाबू को फाइल दिखा आया और दरवाजे पर आकर कांच के टुकड़े बीनने में रामू की मदद करने लगा। रामू ने झिझकतेझिझकते उसके चेहरे पर देखा तो उस पर खिली मुस्कराहट में पहली बार अपनेपन का अहसास किया। रामू का संकोच मिट गया। उस दिन से वह अब्दुल की चालढाल और गौर से परखने लगा। उसे लगा कि अब्दुल बाहर से ही नहीं भीतर से भी उसी जैसा है। उसके भीतर भी दूसरों के प्रति सहानुभूति का जज्बा हैऔर वह भी मौका पडऩे पर दूसरों की मदद करने की इच्छा रखता है।
उन्हें पहाडग़ंज में अगलबगल के एक-एक कमरे वाले दो सरकारी क्वार्टर अलॉट हुए थे। रामू पहले तो अब्दुल के हाथ से कोई भी चीज लेने में परहेज बरतता थालेकिन नजदीकी बढऩे पर वे खानेपीने में भी एक दूसरे का हाथ बंटाने लगे। कभी रामू के चूल्हे पर खाना पकता तो की अब्दुल के। मांस के शौकीन दोनो थे। अब्दुल रामू के सामने ही बकरे का मांस खरीदता ताकि बड़े मांस का संदेह ही पैदा न हो। उसका पकाया मांस रामू को इतना भाता कि अंगुलियां चाटकर रह जाता। रामू ने पैसे की थोड़ीबहुत बचत करके अपने लिए पुरानी साइकिल का जुगाड़ कर लिया। चलाना सीख ही रहा था कि सडक़ के किनारे खड़े तांगे से टकराकर अपनी टांग तुड़ा बैठा। घुटना एेसा मुड़ा कि खड़ा ही नहीं हो पाया। अब्दुल ने किसी तरह से उसे और उसकी साइकिल को क्वार्टर तक पहुंचाया। रामू को कराहते देख उससे रहा नहीं गया। किसी तरह से वह रामू को एक डॉक्टर के पास ले गया। डॉक्टर ने रामू के घुटने की अच्छी तरह से पड़ताल की और फिर दो गोलियां देकर विदा किया। अब्दुल ने सवालिया लहजे में देखा तो डॉक्टर अब्दुल की ओर देखकर मुस्कराया भी था। घर पहुंचकर गोलियां लेते ही रामू के पेट में हलचल मचने लगी। लगा कि बस अभी हाजत होती है। कहीं पायजामे में ही न हो पड़ेइस आशंका से वह तेजी से घिसट-घिसटकर सामने सामूहिक संडास की ओर बढऩे लगा। मलद्वार में ऐसी जलन मची कि रामू एक झटके से खड़ा हुआ तो घुटने का जोड़ अपनी सही जगह बैठ गया। रामू पहले की तरह खड़ा होकर चलने लगा। अब्दुल अपने दरवाजे से यह सब देख रहा था। वह समझ गया कि डॉक्टर ने दस्तावर की गोलियां क्यों दी थीं। इसलिए कि मरीज हाजत के लिए झटके से उठे और पहले की तरह चलने फिरने लगे। रामू निवृत्त होकर लौटा तो अब्दुल हंसतेहंसते दोहरा हो गया। बोला— “वाह रे डॉक्टर ! क्या इलाज किया।
रामू भी बात समझ कर हंसने लगा। यह घटना उन्हें और करीब ले आई।
चार साल यूं ही बीत गए। इस बीच अब्दुल एक बूढ़े मोची की दुकान पर भी काम करने लगा। वह दफ्तर जाने से पहले सुबह दो घंटे और शाम को पांच बजे के बाद अंधेरा होने तक जूते सिलने— गांठने का काम करने लगा। उसके लिए खाना बनाने का भार रामू ने अपने ऊपर ले लिया। अब्दुल के हाथ के बने जूते ग्राहकों को भाने लगे तो बूढ़ा मोची फरीद उस पर जान छिडक़ने लगा। उसका अपना बेटा तो था नहीं। एक अकेली बेटी थी। वब भी किसी ऐसे कारिंदे की फिराक में था,जिससे वह बेटी का निकाह करके दुकान भी सौंप सके और निश्चिंत होकर खुदा की इबादत में अपना अंतिम वक्त गुजार सके। बेटी फिजां अब्दुल को पसंद भी करने लगी थी। अब्दुल को भी इनकार नहीं था। नतीजतन निकाह हो गया और दोनो मियांबीवी मोची फरीद के घर पर ही रहने लगे। अब्दुल ने अब अपनी अक्ल दौड़ानी शुरू की और दुकान का कायापलट हो गया। आमदनी दिनों-दिन बढ़ती गई तो उसने चपरासीगिरी भी छोड़ दी। रातदिन की मेहनत से धंधा चमक उठा था। अब वह अच्छीखासी दुकान का मालिक बन चुका था।
रामू भी जब मौका मिलता दिन में एक बार उसकी दुकान का रुख जरूर करता। इधर उसकी शादी भी हो चुकी थी। पत्नी पहाड़ से अपने पति के पास आई थी।
अब्दुल को पता चला तो वह एक दिन शाम को अपनी बीवी के साथ रामू के क्वार्टर पर पहुंच गया बुर्के वाली को देख रामू की घरवाली असहज हो उठी मियां बीवी में जब उसे भाभी जान कह कर पुकारा तो वह सकुचाकर कुछ बोल नहीं पाई। जब रामू ने बताया अब्दुल उसका अपना सगा भाई जैसा है तो उसकी जान में जान आई। मियांबीवी भाभी जान के लिए कीमती खूबसूरत जूतियां भेंट स्वरूप लाए थे। कुछ ही पलों में अब्दुल की बीवी और रामू की घरवाली गहरी सहेलियों की तरह घुलमिल गईं। बुर्के का दुराव दूर हो गया था। दोनों की पत्नियों जब भी मौका मिलताएक दूसरे के घर आने जाने लगीं।
वे दिन थे जब हिंदुस्तान की आजादी की मांग पूरी होने वाली थी लेकिन अलग पाकिस्तान की मांग को लेकर लोग चौराहे पर खड़े थे। राजनीतिक माहौल इतना गर्म था कि कभी भी भयानक सांप्रदायिक विस्फोट हो सकता था। लीगीहिंदू महासभाईअकाली और राष्टीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठनों के लोग आग उगल रहे थे। उनके दुष्प्रचार का असर दिखाई देने लगा था। रामू और अब्दुल जैसे साधारण लोग भी प्रभावित होने लगे थे। एक दिन रामू अब्दुल से कह बैठाक्यों भाई अब तो तुम भी यहां चंद दिनों के मेहमान हो। पाकिस्तान चले जाआेगे न
 रामू के मुख से यह सुनकर अब्दुल रुआंसा हो गया बोला—“क्या कह रहे हो भाई क्या हमारा जोधपुर का इलाका पाकिस्तान में जा रहा है ?”
राम ने कहा—“शायद नहीं।
अब्दुल बोला—“अगर नहीं तो मैं क्यों जाऊं जिस मिट्टी में मेरे पुरखों की मिट्टी मिली है। मैं उस मिट्टी को छोड़ और कहीं क्यों जाऊं ? 
रामू ने यूं ही कह दिया—“लेकिन तुम्हारे लोग तो पाकिस्तान बसने जा रहे हैं ।
अब्दुल—“कहा न मुझे नहीं जाना। पाक हो या नापाक मुझे कहीं नहीं जाना।
और बात यहीं पर खत्म हो गई ।
हफ्ता भर बीता होगा कि रामू की घरवाली की तबीयत अचानक बिगड़ गई। सरकारी अस्पताल गए तो इतनी भीड़ कि निराश लौटना पड़ाऊपर से ड्यूटी पर भी नहीं जा पाया। अब्दुल से रोना रोया तो उसने सलाह दी— “सरकारी अस्पताल के फेर में न पड़े किसी प्राइवेट डॉक्टर को दिखाओ। सरकारी अस्पताल में तो टालमटोल का माहौल रहता है। निजी डॉक्टर अच्छा इलाज करते हैं उन्हें अपनी आमदनी बढ़ाने की फिक्र होती है सरकारी डॉक्टरों का क्या इलाज हो न होतनख्वाह तो मिलेगी ही।
रामू ने कहा—“ठीक कहते हो भाई ! लेकिन निजी डॉक्टर की फीस कहां से लाऊं ऊपर से गौरी को लाने ले जाने के लिए कहां तक छुट्टी लेता फिरूं, यह भी तो एक समस्या है।
 हांसमस्या तो है लेकिन मैंने निदान भी सोच लिया है। फीस की  चिंता छोड़ोभाई मानते हो नतो फिर मैं कब काम आऊंगा। तुम्हें छुट्टी लेने की भी जरूरत नहीं। फिजां है न खाली बैठी रहती है । भाभीजान को वही डॉक्टर के पास ले जाएगी और फिरक्वार्टर पर ही छोड़ आया करेगी।”—अब्दुल ने कहा ।
रामू की हिचकिचाहट भांपकर अब्दुल ने आगे कहा—“मुसीबत में अपने ही तो काम आते हैं भाई जब भी हो सकेगा धीरे-धीरे चुकाते रहना। तुम्हें एहसान तले दबाने कि मेरी कोई नीयत नहीं है। नहीं भी चुका पाओ तो कोई मलाल नहीं।
यह सुना तो राम अब्दुल की इंसानियत का और भी कायल हो गया।
पाकिस्तान की गठन की घोषणा से पहले ही जो दंगे पूरब और पश्चिम को अपने लपेटे में ले चुके थे उनकी आंच अब राजधानी तक पहुंचने लगी थी। शरणार्थियों के जत्थे के जत्थे इधर से उधर जाने और उधर से इधर आने शुरू हो गए थे। कब दंगे भडक़ उठें,  इस डर से लोग अपनों की सुरक्षा के लिए बेचैन होने लगे। रामू ने अपनी घरवाली वापस पहाड़ भेजने में ही कुशल समझी। अब्दुल भी फिजां को अपनी ढाणी भेज कर वापस लौट आया था।
अचानक एक दिन सुबहसुबह दंगाई सडक़ों पर उतर आए अपने घरों से उखड़े और टूट लोगों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। हाथों में डंडेलोहे के सरिएबरछे-भाले अच्छे और यहां तक कि नंगी तलवारें लेकर पागलों की तरह चीखतीचिल्लाती भीड़ सब कुछ स्वाह करने पर आमादा थी। हैवानियत का नंगा नाच पहले कभी देखा नहीं गया। दुकानों के साथ रिहायशी मकान भी धूधू कर जलने लगे। ईंटों और पत्थरों की ऐसी बौछार हुई कि सडक़ों और गलियों का नक्शा ही बदल गया। जान बचाकर भागते अपाहिज तक नहीं छोड़े गए। मासूम बच्चों को भालों और बरछों से बींधकर हवा में उछालती हैवानी करतूत अपने चरम पर थी। आदमी के भीतर का वहशी सारी सीमाएं लांघ चुका था। मां-बहनों की इज्जत से सरेआम खिलवाड़ हो रहा था। विरोध होने पर मत की नींद सुलाने का राक्षसी खेल खेला जा रहा था। इंसानियत आठआठ आंसू बहाने को मजबूर हो गई थी। इसी बीच दंगाइयों की भीड़ अब्दुल की दुकान की ओर लपकी। अब्दुल ने अपनी दुकान बचाने का भरपूर प्रयास किया। वह बलवाइयों के के पैरों पर गिरागिड़गिड़ाया. लेकिन वहां कौन सुनने वाला था। दंगाई तो उसे भी जलती दुकान के भीतर फेंक कर जिंदा इंसान को जलाने का तमाशा देखना चाहते थे। अब्दुल किसी तरह उनके चंगुल से छूटा और कुछ दूरी पर रामू के क्वार्टर की ओर दौड़ पड़ा। दो तीन बलवाई भी उसका पीछा करने लगे। रामू क्वार्टर के बाहर खड़ा था। बदहवास अब्दुल को आते देख वैसे बुरी तरह घबरा गया।
 “ मुझे बचा लो, मुझे बचा लो रामू भाई। यह कहते हुए अब्दुल भीतर घुस गया और रामू की चारपाई के नीचे छिप कर लेट गया। तब तक दंगाई भी आ पहुंचे। राम ने दंगाइयों को भीतर घुसने से रोकना चाहा लेकिन निहत्था क्या करता। वे उसे पटखनी देकर भीतर घुस पड़े। एक ने तो एक में चारपाई के नीचे छिपे अब्दुल को वरछे से बींध डाला। घायल अब्दुल ने बाहर निकल कर भागना चाहा तो दूसरे ने एक झटके में तलवार से उसकी गर्दन उड़ा दी। अब्दुल का धड़ रामू के बिस्तर पर ढह गया और सिर एक कोने में जा गिरा। रामू पत्थर सा हो गया। आंखें मुंद गई। बेहोश होतेहोते बचा। वह तो अपने गांव में बकरे या भैंसे की बलि देते समय आंखें मूंद लिया करता था या एक ओर खड़ा होता था। एक इंसान और वह भी सगे भाई जैसाउसे इस तरह कटते देखकर वह बुरी तरह रो पड़ा । दंगाई उसे धमका कर जा चुके थे। किसी तरह साहस जुटा कर रामू ने अब्दुल के कटे सिर की ओर देखा। दहशत के मारे अब्दुल की आंखें खुली की खुली रह गई थीं और मुंह भी खुला का खुला। सारे कमरे में खून ही खून। बिस्तर भी खून से सराबोर। दीवारो पर भी खून के बेशुमार छींटे उस  जघन्य हत्याकांड की गवाही दे रहे थे। बेचारा राम कुछ करने या सोचने की स्थिति में नहीं था। अब्दुल की लाश का वह क्या करे पशोपेश में था। उसी समय दो पुलिसवाले सामने से गुजरे एक की नजर दरवाजे से बाहर बह आए खून पर पड़ी। वह ठिठककर खड़ा हो गया।
कमरे से बाहर निकलते समय हत्यारे ने कहा था—“मुसल्टे ! जा अपने पाकिस्तान।
रामू सोच रहा था—“ वाह री सियासतउधर देश दो भागों में बंटा और इधर अब्दुल के दो टुकड़े, पाकिस्तान के नाम पर उसी के दो टुकड़ेजिसका उससे कोई सरोकार तक नहीं था, नफरत की यह आग क्या कभी बुझ पाएगी।  सोच ही रहा था कि उसी समय पुलिस वाले ने उसके कंधे पर हाथ रखा। वह चौंक उठा। मुडक़र देखा तो पुलिस वाला पूछ रहा था—“क्यों रे खून तूने क्यों किया। 
दूसरा पुलिसवाला भी कुछ आगे जाकर लौट आया थाबोला—“इसी ने किया तभी तो चुप है।
नहीं-नहीं हवलदार साहब ! खून मैंने नहीं किया वह तो दंगाई थे, जो बेचारे अब्दुल को काट कर चले गए। -रामू ने कहा।
 हर अपराधी यही कहता है मौके पर पकड़ा गया तो मना करता है।-पहले वाले ने कहा
इसी बीच कुछ पड़ोसी वहां आ गए। पड़ोसी जमादार ने कहा—“रामसिंह ठीक कहता हैहवलदार साहब मरने वाला अपनी जान बचाने इसके कमरे में घुसा था। इसने तो दंगाइयं को रोकना भी चाहा लेकिन निहत्था क्या करता दंगाई काटकर चले गए।
लगता है तुम लोग भी इस खेल में शामिल हो तुम सभी को हिरासत में लेना पड़ेगा।-हवलदार ने धमकाया।
यह भी खूब रही सच कहता हूं मेरा आंखों देखा सच है। मरने वाला इसकी जान पहचान का था । मैंने इन्हें कई बार एक दूसरे के यहां आते जाते देखा है। यह भला उसका खून क्यों करता।”— जमादार ने कहा।
केवल जानपहचान का नहीं। अब्दुल तो मेरा सगा भाई जैसा था। उसके एहसान का बदला तो मैं जीते जी शायद ही चुका पाऊं। -पड़ोसियों की हिमायत से बल पाकर रामू ने कहा।
अच्छा....अच्छा तो वह अब्दुल थामुसलमान। और तू हिंदू ऊपर से एहसान की बात शायद लेनदेन की बात रही होगी। दंगे में मौका लगा और बेचारे की जान ही ले ली । -हवलदार ने हत्या के पीछे का कारण भी खोज निकाला।
चल बेटा थाने वही सच— झूठ का पता चलेगा। -कहते हुए उसने रामू का हाथ पकड़ लिया।
पड़ोसी ने कहा—“हवलदार साहब रामसिंह सरकारी कर्मचारी है हिरासत में लेने से पहले दफ्तर की इजाजत तो ले लें।
वह सब तो होता रहेगा जाकर बता दो कि रामू खून के इल्जाम में पकड़ा गया है।”—पुलिस वाले यह कहकर रामसिंह को पकड़ ले गए। सभी को बुरा लगा। जमादार दफ्तर में सूचना देने चला गया ।
थाना अभी खाली था थानेदार और सिपाही दंगाइयों से निपटने के नाम पर न जाने कहां कहां की धूल फांक रहे थे। केवल एक मुंशी अपनी टूटी कुर्सी पर ऊंघ रहा था। रामू को हवालात में बंद कर दिया गया। थानेदार के आने की राह देखी जाने लगी।
कुछ ही देर में थानेदार चार पुलिस वालों के साथ थाने पहुंचा। सभी थके और पसीने से तरबतर। दो को पहले से बैठा देखा तो थानेदार बिफर उठा—“ड्यूटी छोड़ कर यहां आराम करने चले आए हरामखोरोंनौकरी नहीं करनी है क्या?  
हजूरहुजूर! नाराज न हों । हम तो एक खूनी को रंगे हाथ पकड़ लाए हैं। -एक ने कहा ।
क्या कहा कातिल है कौन और कत्ल किस जगह हुआ था?  -थानेदार बोले
यह सरकारी क्वार्टर में हुआ है।”—दूसरे ने बताया
रामू को हवालात से निकालकर ज्यों ही थानेदार के आगे पेश किया गया थानेदार की आंखें फटी की फटी रह गईं
अरे! रामसिंह तू ? और थानेदार आगे बोल नहीं पाया।
थानेदार की इस प्रतिक्रिया से दोनों पुलिसवाले अब सकपका गए
रामू ने बताया—“पंडित जी ये लोग मुझे नाहक ही पकड़ लाए मैं बिल्कुल बेकसूर हूं जिसका कत्ल हुआ। वह मेरा दोस्त अब्दुल था। दंगाईयों से जान बचाने वह मेरे पास आया लेकिन मैं कुछ नहीं कर पाया। दंगाई भीतर घुस कर उसे काट कर चले गए। और मैं देखता रह गया। उसी समय ये लोग आए और लाश के सामने खड़ा देख मुझे पकड़ लाए।
“ यही तो मैं सोच रहा हूंरामसिंह जैसा इंसान कातिल कैसे हो सकता है।”—थानेदार ने कहा।
 हुजूर हो सकता है यह सच कह रहा होलेकिन मौकावारदात पर तो यही था। गुनाह भी इसी के क्वार्टर में हुआ। कोई दूसरा भी आस पास नहीं था दंगाई तो जा चुके थे वह सरकारीक्वार्टरों में घुसे इसका भी कोई सबूत नहीं है। वे तो सामने की सडक़ से निकल गए थे। ऊपर से यह मृतक के एहसान की बात भी करता है। हमें तो शक है कि इस ने जमकर उधार लिया होगा। चुकता नहीं कर पाया तो बलवे की आड़ में बेचारे की जान ही ले ली। जिस बेरहमी से गर्दन काटी गई। देखकर तो हमारी ही रुह कांप गई।-हवलदार ने कहा।
 खैर,जिस शक की बिना पर तुम इसे उठा लाए उसकी छानबीन तो करनी ही पड़ेगी। लेकिन मेरा जमीर कहता है राम सिंह खूनी नहीं हो सकता है, मैं तो इसे बचपन से जानता हूं हमारे अपने यजमानों के परिवार से है जो बकरे की बलि देते देख आंखें मूंद लेता या भाग खड़ा होता था। वह किसी आदमी की गर्दन काटकर फेंक दे। यकीन नहीं होता। हां यह तो बताआे कि जिस हथियार से गर्दन उड़ाई गई है वह हथियार है कहां ? - थानेदार ने पूछा।
वह तो मिला नहीं हजूर। कातिल बड़ा शातिर लगता है, पता नहीं कहां गायब कर दिया।”— दूसरे पुलिस वाले ने कहा।
मुझे लगता है तुम एक बेगुनाह को फंसाने का गुनाह कर रहे हो। अरे जिस दंगाई में गर्दन उड़ाई क्या वह हथियार वहीं छोड़ जाता अपने साथ ही तो ले गया होगा ना।-थानेदार यह कह रहा था कि उसी समय दफ्तर के बड़े बाबू जमीदार के साथ जमादार के साथ थाने पहुंच गए।
बड़े बाबू ने आते ही थानेदार से कहा—“थानेदार साहब! रामसिंह एक सरकारी मुलाजिम है उसे बिना इजाजत क्यों पकड़ा गया।
कत्ल जैसे संगीन मामले में इजाजत के लिए रुका रहना सही नहीं होता। कातिल भाग जाता तो कौन जिम्मेदार होता मेरे लोगों को शक है कि लेन देन के मामले में यह कत्ल किया गया है। दंगे तो हो ही रहे हैं और शातिर लोग उन्हें भुना भी रहे हैं।- थानेदार बोला।
 नहीं हजूर! जैसा आप सोच रहे हैं वैसा कुछ भी नहीं है। जिसका कत्ल हुआ वह दो साल पहले तक इसी रामसिंह के साथ हमारे दफ्तर में चपरासी था। इन दोनों की दोस्ती की तो लोग मिसाल देते हैं । अब्दुल के नौकरी छोडऩे के बाद भी इनकी दोस्ती में कई फर्क नहीं आया। मैं इन दोनों को जितना जानता हूं। उतना कोई नहीं जानता। दफ्तर में मैं ही तो इनसे काम लेता था। रामसिंह अपने जिगरी दोस्त का खून नहीं कर सकता। यह काम तो एक पग्गड़ वाले दंगाई का है। मैंने खुद अपनी आंखों से देखा है। जिसने खून किया मैं उसे सैकड़ों में पहचान सकता हूं। जो दंगाई हमारे क्वार्टरों में घुसे उन्हें अगर पकड़ पाएं तो मुझे बुला लें। मैं उस हत्यारे को पहचान लूंगा। रामसिंह बिल्कुल बेगुनाह है । उसे छोड़ दें एक बेकसूर को शक की बिना पर फांसी के फंदे तक न पहुंचाएं हुजूर।-कहतेकहते जमादार सिसकने लगा।
 “ शक करना तो हम पुलिस वालों की फितरत है। वैसे मैं खुद मानता हूं कि रामसिंह जैसा सीधा साधा आदमी किसी का खून नहीं कर सकता। आपने मेरे इस यकीन को और पुख्ता कर दिया है। हम रामसिंह को फिलहाल छोड़ रहे हैं। हां अगर कोई नई बात सामने आई और रामसिंह से फिर पूछताछ करनी पड़ी तो उसे थाने आना होगा। आप लोग रामसिंह को अपने साथ ले जा सकते हैं। हवलदार हथकड़ी खोल दो।”— थानेदार ने आदेश दिया।
बड़े बाबू और जमादार के साथ रामू अपनेक्वार्टर पहुंच गया। इस बीच म्युनिसिपैलिटी ट्रक में इधर-उधर बिखरे शवों के साथ अब्दुल का धड़ और सिर भी न जाने कहां ले जाए जा चुके थे। बड़े बाबू रामू को दिलासा देकर चले गए। जमादार ने कमरा साफ करने को कहा। खून से सना बिस्तर नीचे पड़ा था। सारे फर्श पर खून का थक्का जम चुका था। इंसानी खून की एक अजीब सी गंध बेचैनी पैदा कर रही थी। उबकाई आ रही थी। रामू भीतर घुसने का साहस नहीं जुटा पाया। उसे रहरहकर अब्दुल की दहशत चीखें। उसकी खुली आंखें और खुला रह गया मुंह याद आ रहा था। उसे लगा कि अब्दुल कहीं उसे अपनी मौत का जिम्मेदार न समझ बैठे। उसे लगा कि उसे बचाने के लिए जो कशिश होनी चाहिए थी वह तो उससे हो नहीं पाई। उसे उस जैसे दोस्त को बचाने के लिए अपनी जान पर खेल जाना चाहिए था। जान भी चली जाती तो अच्छा ही होता। लेकिन वह तो उसे कुर्बानी के बकरे की तरह कटते देखकर आंखें मूंद बैठा था। हत्यारे की नंगी तलवार से डर जो गया था। रामू अब्दुल की मौत का जिम्मेदार खुद को समझने लगा। रोनेबड़बड़ाने लगा— “अब्दुल हां, मैं ही ही हूं तेरा कातिल।
कुछ देर में जमादार उसे बुलाने आया कि पेट में तो कुछ डाल ले लेकिन रामू कहीं दिखाई नहीं दिया भीतर झांका तो खून से सना कमरा जैसे का तैसा। कहां चला गया कुछ पता नहीं चला। शौचालय साफ करने वालों से कहकर कमरा तो साफ करवा दिया गया लेकिन रामू फिर वहां नहीं आया।
हां कुछ लोगों ने जरूर उसे आसपास मंडराते देखा। लेकिन सामने पड़ते ही वह भाग कर न जाने कहां छुप जाता। दफ्तर से उसकी ढूंढ खोज के लिए पुलिस को भी हिदायत हुई थी। हफ्ते भर गैरहाजिरी के कारण आखिर उसके घर को भी सूचना भेज दी गई ।
खोज-खबर लेने रामू का बड़ा भाई आया। क्वार्टर खाली पड़ा था। आशंका थी कि कहीं वह भी तो दंगे का शिकार न हो गया हो। जमादार ने भाई की मदद की। थानेदार से मिलाने ले गया। थानेदार तो पहले से ही खोजबीन में लगा था। कोशिश रंग लाई रामू पुरानी दिल्ली की एक अंधेरी गली से पकड़ में आया। कूड़े के ढेर में बिखरे सूखे बिस्कुटों और रोटी के टुकड़े बीन रहा था। बाल बिखरे हुए दाढ़ी बढ़ चली थी और कपड़े चीकट मैले और फटे हुए। भाई को थानेदार के साथ देखकर वह भागने लगा लेकिन धर लिया गया। पकड़ में आने पर रामू चिल्लाने लगा— “ हंत्याहंत्या । अब्दुल मैं तुम्हें नहीं बचा पाया। मैं तुम्हारा हत्यारा हूं तुम मुझे माफ नहीं करोगे। मुझे जाने दो।
पकड़ से छूटने के लिए उसने भरपूर जोर लगाया लेकिन छूट नहीं पाया।
 रामू के इस पागलपन से छुटकारे के लिए लोगों ने न जाने कितनी तरकीबें सुझाई। हां एक बात पर सभी सहमत थे कि उस पर अब्दुल का भूत हावी हो गया है। थानेदार ने दो सिपाहियों को भाई की मदद करते रहने को कहा था। वे रामू को कई ओझाओंफकीरों और तांत्रिकों के पास ले गए। झाड़-फूंक, तंत्र-मंत्र, गंडाताबीज कोई भी काम नहीं आया। रामू के मन से हत्याबोध का वहम दूर नहीं हो पाया। वह सोतेसोते अचानक उठ पड़ता। मैं अब्दुल हूं मै अब्दुल हूं तूने मुझे मार डाला अब्दुल अब्दुल कहते वह बड़बड़ाने लगता। हताश होकर बड़ा भाई एक दिन उसे किसी तरह गांव ही ले आया।
उसकी दशा देखकर बूढ़े मां बाप और घरवाली का बुरा हाल था। बुजुर्गो ने देवजागरण का सुझाव दिया। आशा थी कि कुलदेवता रामू को ठीक करने का कई उपाय अवश्य बताएंगे। जागरण के आयोजन से पहले एक भूतप्रेत बाधा मोचक पंडितजी से गुहार की गई। वह रामू को श्मशान घाट ले गए। एक मुर्गे और एक मेढ़े की बलि दी जानी थी। अपने विचित्र मंत्रों को गुनगुनाते ज्यों ही मेढ़े की बलि दी गई। राम चिल्लाकर उठा और मेढ़े का खून से सना सिर पंडितजी के सिर पर पटक कर एक ओर भाग गया। भूतप्रेत विद्या विशारद पंडितजी भी अब्दुल के भूत से हार मान गए। अब तो देवताओं का जागर ही एकमात्र उपाय बचा था। शुभ घड़ी देख कर देव जागरण आयोजित हुआ। जगरी ने हुडक़े पर पहली थाप मारी और कांसे की थाली की चिनचिनाहट के साथ देवी देवताओं का वृत्त गायन शुरू हो गया। देवीदेवता अपने डांगरों (देव वाहनों) पर अवतरित होने लगे।
इसी बीच रामू भी “ अब्दुल मेरे भाई अब्दुलमैं तुझे नहीं बचा पाया रे! तेरा हत्यारा मैं हूं रे मैं ” कहता हुआ बुरी तरह नाचने लगा। लोग समझे शायद किसी सैद (सैय्यद)की आत्मा अवतरित हो गई है। सैद का अनपढ़ से अनपढ़ डांगर भी उर्दू बोलने लगता था। जागरी सैद संबंधी वृत्त लेने लगा पर रामू क्रोध में जमीन पर सिर पटकने लगा। जागरी की समझ में नहीं आया कि आखिर मामला क्या है। कुलदेवता नृसिंह का आह्वान किया गया। जिसके डांगर ने रामू को अपने आगोश में लेकर शांत करने का प्रयास किया। लेकिन राम उसके भी बस में नहीं आया। जागरी ने परिवार के सदस्यों से पूछा कि आखिर अब्दुल था कौन। घरवाली आगे आई बोली—“गुरुजी अब्दुल को ये अपने सगे भाई से भी बढक़र मानते थे। वह आदमी था भी बहुत भला। उसके न जाने हम पर कितने एहसान थे। मारा गया तो ये अपने को ही दोषी मान बैठे हैं। जागरी कुछ सोचने लगा।
बूढ़े बाप ने नृसिंह के डांगर के आगे नतमस्तक होकर पूछा—“प्रभो ! आप ही बताएं इस बला से हमें कैसे छुटकारा मिले ?
“ हरिद्वार और जोशीमठ ले जाकर खैरात बांटो तो कल्याण होगा। -नृसिंह का डांगर बोला
अजमेर शरीफ ख्वाजा की शरण में जाऊंगा मैं मुझे वहीं जाना है और कहीं नहीं।-रामू के मुख से निकला
बड़े भाई ने हाथ जोडक़र कहा—“जो हुकुम हम इसी साल अजमेर शरीफ जाएंगे।”-सुनते ही रामू निढाल होकर एक ओर लुढक़ गया। चेहरे पर अजीब सी शांति की रौनक लौटने लगी।
अब तक जागरी किसी निर्णय पर पहुंच चुके थे। बोले—“यह अब्दुल का भूत इस परिवार का घर भूत बन चुका है, पूजा प्रतिष्ठा देनी होगी।
एक बुजुर्ग ने दखल दिया—“ वाह गुरु जी कैसी बात कह दी आपने?  घरभूत वो पुरखे होते हैं जो अकाल मृत्यु के कारण अपनी संतान से पूजा प्रतिष्ठा की मांग करते हैं। अब्दुल न हमारी जाति कान हमारे धर्म का। वह हमारा घरभूत कैसे हो सकता है? ”
जागरी बोले—“घरभूतों में देवताओं की तरह जाति धर्म का भेदभाव कैसा  सैद (सैय्यद) पूजते हो तो इसे भी घर भूत समझकर पूजो।
सुबह होने वाली थी। जागर समाप्ति पर थे। लोग उठने लगे थे। हैरानपरेशान रामू के बूढ़े मांबाप ने आकाश की ओर देखा और कहा—“ हे भगवान! अब्दुल का भूत और हमारा घरभूत। रामू अभी तक लुढक़ा पड़ा था।