यमुना के बागी बेटे कथाकार विद्यासागर नौटियाल का उपन्यास है। यह उपन्यास रंवाई के ढंढक की पृष्ठभूमि में लिखा गया है।
रवांई का ढंढक की वह घ्ाटना 20 मई 1930 को घटी थी। यानि 23 अप्रैल 1930 को जहां एक ओर अंग्रेज फौज के सिपाही पेशावर में निहत्थे देशवासियों पर हथियार उठाने से इंकार कर चुके थे। वहीं उस घ्ाटना के महीने भर के भीतर ही टिहरी रियासत का दीवान चक्रधर जुयाल राज्य की जनता पर हथियार चला रहा था।
पर्यावरणविद्ध सुन्दरलाल बहुगुणा के आलेखों और अन्य ऐतिहासिक दस्तावेजों के हवाले से इतिहासकार शिवप्रासद डबराल द्वारा लिखे उत्तराखण्ड का इतिहास भाग-8 में दर्ज रवांई के इस ढंढक की गाथा को देखा जा सकता है।
टिहरी में वन व्यवस्था से असन्तोष
1927-28 में राज्य टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गयी उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जानबूझकर अवहेलना की गयी। इससे वनोंे के निकट की ग्रामीण जनता में भारी असन्तोष फैला। परगना रवांई वनों की जो सीमा निर्धारित की गयी उसमें ग्रामीणों के आने जाने के मार्ग, खलीहान तथा पशुओं को बांधने के स्थान (छानी) भी वन की सीमा में चले गए। फलत: ग्रामीणों के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बन्द हो गए। वन विभाग की ओर से घोषणा की गई कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिए जा सकते। कई वर्ष पहले से ही वनों पर ग्रामीणो
के अधिकारों को रोककर उनके विक्रय से अधिकाधिक धनराशि बटोरने का क्रम चला आ रहा था। राज्स की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पति के अनतर्गत गिने जाते थे। इसलिए कोई भी व्यक्ति किसी भी अन्य किसी भी वस्तु को अपने अधिकार के रुप में बिना मूल्य प्राप्त नहीं कर सकता था। यदि राज्य की ओर से किसी व्यक्ति को राज्य के वनों से किसी वस्तु को निशुल्क प्राप्त करने की छूट दे दी जाती है तो इसे महराजा की ''विशेष कृपा"" समझना चाहिए। जो सुविधाऐं वनों में जनता को दी गई हैं, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकते हैं।
पशुचारण और कृषि के रोजगार पर निर्भर जनता के लिए अपने पशुओं के चारागाह बन्द हो गये। खेती के उपकरण, हल आदि जो विशेष जाति के वृक्षों से अनाए जाते थे, दुर्लभ हो गए। छप्परों को छाने के लिए बांस, घास और मालू आदि की पत्तियों एवे मालू के रेशों की की कमी हो गई। वनों पर निर्भर ग्रामीणों पर कठोर प्रतिबन्ध लगादेने से स्वभाव से ही उग्र एवं अदम्य स्वतंत्रताप्रिय रवांलटों का रुधिर खौलने लगा। जनता पूछती थी वन बन्द हो जाने से हमारे पशु कहां चरेगें ? सरकार की ओर क्षुद्र और विवेकशून्य कर्मचारी जवाब देते, "ढंगारों में फेंक दो।"
आंदोलन भड़क उठा
पूरे भारत में गांधी जी के आहवान पर जनता ब्रिटिश सरकार निर्मित विधि-विधानों को अदम्य उत्साह के साथ तोड़ रही थी। सरकार के विरुद्ध आंदोलनकारियों का जयजयकार सर्वत्र बड़ी श्रद्धा, उत्साह एवं आवेश के साथ किया जाता था। चकरोता में रवांई को जाने वाले मार्ग पर स्थित राजतर नामक स्थान पर लाला रामप्रसाद की दूकान पर समाचारपत्र आते थे, जिनमें देशभर में फैले हुए सत्याग्रह के समाचार छपते थे। रवांई के निवासी इन समाचारों को बड़ी उत्सुकता से पढ़ते और सुनते थे।
रवांई में साहसी व्यक्तियों ने वनों में अपने अधिकारों की रक्षा के लिए आंदोलन आरम्भ कर दिया। आंदोलन का नेतृत्व नगाणगांव के हीरासिंह, कसरू के दयाराम और खुमण्डी-गोडर के बैजराम ने सम्भाला। इनके पास समाचार पहुंचाते रहने की व्यवस्था लाला रामप्रसाद ने की। रवा्रई निवासियों ने अपनी आजाद पंचायत की स्थापना कर डाली। आजाद पंचायत की ओर से घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वाली प्रजा को वन सम्पदा के उपभोग का सबसे अधिक अधिकार है। रवांई वासियों ने अपनी समानान्तर सरकार की स्थापना कर ली। हीरासिंह को पांच सरकार और बैजराम को तीन सरकार कहा जाने लगा। रवाईं निवासियों ने वनों की नई सीमाओं को मानना अस्वीकार कर दिया। आजाद पंचायत की ओर से लोटे की छाप का मुहर के रूप में प्रयोग करके आदेश भेजे जाने लगे।
सारे रवांई में क्रांति की फैली हुई लहर को देखकर राजदरबार की ओर से भूतपूर्व वजीर हरिकृष्ण रतूड़ी को रवांई भेजा गया। रतूड़ी के सम्मुख आंदोलनकारियों ने मांग रखी वनों का हम लोग अब तक जिस प्रकार उपयोग करते थे, उसी प्रकार की सुविधाएं अब भी मिलनी चाहिए। ग्रमीणों की मांगों को जायज मानते हुए अपनी ओर से आश्वासन देकर रतूड़ी वापिस चले गये।
जब एक ओर समझौते की बातचीत चल रही थीए दूसरी ओर रवांई के अन्तर्गत राजगढ़ी के एसडीएम सुरेन्द्रदत के न्ययालय में आंदोलन के प्रमुख नेताओं पर राज्य के वनों को हानि पहुंचाने के अपराध में अभियोग चलाया जा रहा था। यह अभियोग राज्य की ओर से वनविभाग के डीएफओ पद्मदत्त रतूड़ी द्वारा चलाया गया था। एसडीएम ने आंदोलन के प्रमुख नेता दयाराम, रुद्रसिंह रामप्रसाद और जमनसिंह को दोषी पाया और उन्हें कारावास का दण्ड सुनाया।
पटवारी और पुलिस के साथ एसडीएम एवं डीएफओ 20 मई 1930 को आंदोलन के उन नेताओं जिन्हें सजा सुना दी गयी थी, को लेकर राजगढ़ी से टिहरी की ओर प्रस्थान कर गये। डण्डियाल गांव के नजदीक पहुंचे ही थे कि आंदोलनकारियों ने अपने साथियों को छुड़ाने के लिए हमला कर दिया। दोनों ओर से जमकर गोलीबारी हुई। डीएफओ पदमदत्त रतूड़ी की रिवाल्वर से निकली गाली से ज्ञानसिंह मारा गया। जूनासिंह एवं अजितसिंह भी मारे गये। बहुत से घायल हो गये। एसडीएम भी गाली लगने से घ्ाायल हुआ। पदमदत्त रतूड़ी जिसके पास रिवालर था, भाग गया। पुलिस वाले भी भाग गये। एसडीएम सुरेन्द्रदत्त को आंदोलनकारियों ने बन्दी बना लिया। अपने साथियों को छुड़ाकर आदोलनकारी राजतर ले गये। समाचार पाकर दीवान चक्रधर जुयाल ने रवांई के निवासियों को ऐसा पाठ पढ़ाने की सोची, जिसे वे कभी भूल न सकें। राजा यूरोप की यात्रा में गया हुआ था। दीवान ने संयुक्त प्रदेश के गवर्नर से आंदोलन के दमन करने के लिए, यदि आवश्यकता पड़ी तो शस्त्रों का प्रयोग करने की अनुमति प्राप्त कर ली। टिहरी राज्य की सेना का अध्यक्ष कर्नल सुन्दरसिंह जब प्रजा पर गोलियां चलाने के लिए प्रस्तुत न हुआ तो दीवान ने उसे हटाकर नत्थूसिंह सजवाण को राज्य की सेना का सर्वोच्च अफसर बनाकर ढंढकियों का दमन करने के लिए भेजा।
धरासू के मार्ग से राज्य की सेना राजगढ़ी पहुंची। सेना का मार्ग रोकने के लिए ग्रामीणों ने वृक्षों को काटकर सड़क पर गिराने की योजना बनाई थी। किन्तु इससे विशेष बाधा न पड़ी। थोकदार रणजोरसिंह अपने दलबल सहित मदिरा के घड़ों को लेकर सेना के स्वागत के लिए खड़ा था। रात्रि विश्राम के वक्त सेना ने जम के नाचरंग और मदिरापान का आनंद उठाया। थेकदार लाखीराम और रणजोरसिंह ने जिसे चाहा, पकड़वाया।
टगले दिन तिलाड़ी के मैदान में, चांदाडोखरी नामक स्थान पर आजाद पंचायत की बैठक हुई। जिसमें सेना के आगमन तथा समझौते की शर्तो पर विचार-विमर्श होने लगा। सेना ने घ्ाटनास्थल पर तीन ओर से घेरा डाल दिया। सेना में रवांई का ही एक सैनिक अगमसिंह था। उसने आगे बढ़कर आंदोलनकारियों को सचेत करना चाहा कि दीवान ने सीटी बजा दी। दीवान की सीटी की आवाज पर सैनिकों ने गोलियों की बौछार शुरु कर दी। प्राण बचाने के लिए कुछ जमीन पर लेट गये, कुछ पेड़ों पर चढ़ गए, कुछ ने जान बचाने के लिए यमुना में छलांग लगा दी। न जाने कितने मारे गये और कितने घायल। जान बचाकर यमुना में कूदने वालों पर चलायी गयी गोली से यमुना के पार सुनाल्डी गांव में सैनिकों की गाली से एक गाय भी मर गयी।
यमुना के बागी बेटों का यह ऐसा दमन था जिसकी खबरें प्रकाशित नहीं हुई। आंदोलन पर यकीन रखने वालों के व्यक्तिगत प्रयासों से कहीं कोई छुट-पुट कोशिश हुई भी तो खबर के फैलने से पहले ही ब्रिटिश हुकूमत गिरफ्तारियों को उतावली रही। यमुना के बागी बेटो का इतिहास तो किस्से कहानियों में ही दर्ज है।
Tuesday, May 20, 2008
Sunday, May 18, 2008
भगत सिंह : सौ बरस के बूढ़े के रुप में याद किये जाने के विरुद्ध
("ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगत सिंह जीवित भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक होगा। मुझे फांसी हो जाने के बाद मेरे क्रान्तिकारी विचारों की सुगन्ध हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जायेगी। वह नौजवानों को मदहोश करेगी और वे क्रान्ति के लिए पागल हो उठेगें। नौजवानों का यह पागलपन ही ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को विनाश के कगार पर पहुंचा देगा। यह मेरा दृढ़ विश्वास है। मैं बेसब्री के साथ उस दिन का इंतजार कर रहा हूं जब मुझे इस देश के लिए मेरी सेवाओं और जनता के लिए मेरे प्रेम का सर्वोच्च पुरस्कार मिलेगा।"
भगत सिंह का यह कथन उनके साथी शिव वर्मा के हवाले से है। परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित भगत सिंह की जेल डायरी में शिव वर्मा जी ने अपने आलेख में उर्द्धत किया है।
पहल88 में प्रकाशित कवि राजेन्द्र कुमार की कविता को पढ़ते हुए जेल डायरी को पलटने का मन हो गया। यह कविता की खूबी ही है कि उसने भगत सिंह को जानने के लिए मुझे प्रेरित किया। पहल से साभार कवि राजेन्द्र कुमार की कविता आपके लिए यहां पुन: प्रस्तुत है।
मैं फिर कहता हूं
फांसी के तख्ते पर चढ़ाये जाने के पचहतर बरस बाद भी
'क्रान्ति की तलवार की धार विचारों की सान पर तेज होती है।"
वह बम
जो मैंने असेंबली में फेंका था
उसका धमाका सुनने वालों में तो अब शायद ही कोई बचा हो
लेकिन वह सिर्फ बम नहीं, एक विचार था
और, विचार सिर्फ सुने जाने के लिए नहीं होते
माना कि यह मेरे
जनम का सौ वां बरस है
लेकिन मेरे प्यारों,
मुझे सिर्फ सौ बरस के बूढ़ों में मत ढूंढ़ों
वे तेईस बरस कुछ महीने
जो मैंने एक विचार बनने की प्रक्रिया में जिये
वे इन सौ बरसों में कहीं खो गये
खोज सको तो खोजो
वे तेईस बरस
आज भी मिल जाएं कहीं, किसी हालत में
किन्हीं नौजवानों में
तो उन्हें मेरा सलाम कहना
और उसका साथ देना ---
और अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बूढ़ों से कहना
अपने बुढ़ापे का गौरव उन पर न्यौछावर कर दें
राजेन्द्र कुमार, फोन : 0532 - 2466529
भगत सिंह का यह कथन उनके साथी शिव वर्मा के हवाले से है। परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित भगत सिंह की जेल डायरी में शिव वर्मा जी ने अपने आलेख में उर्द्धत किया है।
पहल88 में प्रकाशित कवि राजेन्द्र कुमार की कविता को पढ़ते हुए जेल डायरी को पलटने का मन हो गया। यह कविता की खूबी ही है कि उसने भगत सिंह को जानने के लिए मुझे प्रेरित किया। पहल से साभार कवि राजेन्द्र कुमार की कविता आपके लिए यहां पुन: प्रस्तुत है।
मैं फिर कहता हूं
फांसी के तख्ते पर चढ़ाये जाने के पचहतर बरस बाद भी
'क्रान्ति की तलवार की धार विचारों की सान पर तेज होती है।"
वह बम
जो मैंने असेंबली में फेंका था
उसका धमाका सुनने वालों में तो अब शायद ही कोई बचा हो
लेकिन वह सिर्फ बम नहीं, एक विचार था
और, विचार सिर्फ सुने जाने के लिए नहीं होते
माना कि यह मेरे
जनम का सौ वां बरस है
लेकिन मेरे प्यारों,
मुझे सिर्फ सौ बरस के बूढ़ों में मत ढूंढ़ों
वे तेईस बरस कुछ महीने
जो मैंने एक विचार बनने की प्रक्रिया में जिये
वे इन सौ बरसों में कहीं खो गये
खोज सको तो खोजो
वे तेईस बरस
आज भी मिल जाएं कहीं, किसी हालत में
किन्हीं नौजवानों में
तो उन्हें मेरा सलाम कहना
और उसका साथ देना ---
और अपनी उम्र पर गर्व करने वाले बूढ़ों से कहना
अपने बुढ़ापे का गौरव उन पर न्यौछावर कर दें
राजेन्द्र कुमार, फोन : 0532 - 2466529
Thursday, May 15, 2008
इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे अन्य विवरणों के बिना भी
अगली सुबह अखबार पढ़ते हुए मैं चौंक गया। पुलिस ने दावा किया था कि उसके पास से अनेक आपत्तिजनक दस्तावेज मिले थे। पुलिस को शक था कि उसके सम्बंध किसी नक्सलवादी पड़ोसी मुल्क से थे और वो देश में अशांति उत्पन्न करना चाहता था। - प्रस्तुत कहानी दुर्दांत से.
(आज यथार्थ का चेहरा इतना इकहरा नहीं रह गया है कि किसी भी घटना के कार्यकारण संबंधों को आसानी से पकड़ा जा सके। समकालीन यथार्थ की इस जटिल प्रवृति ने गम्भीरता से रचनारत संवेदनशील लोगों को उसको ठीक-ठीक तरह से पुन:सर्जित करने के लिए न सिर्फ कथ्य के स्तर पर बल्कि भाषा और शिल्प के स्तर पर भी नये से नये प्रयोग करने को मजबूर किया है। समकालीन युवा रचनाकारों की कहानियों में विशेषतौर पर यह बात स्पष्ट दियायी दे रही है। शिल्प और भाषा के इस प्रयोग के चलते कहानी का पारम्परिक ढांचा एक हद तक टूटता हुआ सा भी दिख रहा है।
ऐसे में कहानी को उसकी शास्त्रियता के ढांचे में ही कह पाने की कोशिश उतनी आसान नहीं रह गयी है। यही वजह है कि हर वह कहानी जो अपने कहानीपन के निर्वाह के साथ, बिना भाषायी और शिल्प के चमत्कार के जब उसी यथार्थ को कह पाने में समर्थ होती है तो उसकी तरफ ध्यान जाना लाजिमि है। जितेन ठाकुर एक ऐसे ही कहानीकार है जो कहानी को परम्परागत शास्त्रिय ढांचे में रखते हुए ही लगातार रचनारत है। दुर्दांत उनकी ऐसी ही कहानी है जिसमें हम उसी यथार्थ को हुबहू और बहुत ही सहज ढंग से प्रकट होते हुए देखते हैं, जिसके लिए इधर की अन्य कहानियां लम्बे लम्बे पैराग्राफों में इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे अन्य विवरणों के बिना संभव नहीं हो पा रही है।
"दहशतगर्द लोग", "अजनबी शहर में", "एक झूठ एक सच" जितेन ठाकुर के महत्वपूर्ण कथा संग्रह एवं "शेष अवशेष" उपन्यास के अलावा अभी हाल ही में, वर्ष 2008 में प्रकाशित एक अन्य उपन्यास "उड़ान" चर्चाओं में है। हिन्दी के अलावा जितेन डोगरी में भी समान रुप से लिखते हैं। "न्हेरी रात स्नैहरे ध्याड़े" उनके द्वारा डोगरी में लिखी कहानियों का संग्रह है।)
दुर्दांत
जितेन ठाकुर 09410593800
खलील जिब्रान को पढ़ने के बाद उसका भेजा घूम गया है- कम से कम दुनिया ने यही समझा था। उसने तय किया कि अब वो अन्याय और अव्यवस्था के विरूद्ध लड़ेगा। उसे विच्च्वास था कि उसकी आवाज पर लाखों सोई हुई आत्माएं जाग उठेंगी और करोड़ों अलसाई आत्माओं की मुटि्ठयां हवा को बींध देंगी। एक ऐसा झंझावत उठेगा जो इस गांव से उस गांव, इस कस्बे से उस कस्बे, एक द्राहर से दूसरे द्राहर होता हुआ एक दिन समुद्र की हदों को लांध जाएगा। फिर आदमी साफ हवा में सांस ले पाएगा, शुद्ध अनाज खाएगा, खालिस दूध पिएगा और हर तरफ फैली अव्यवस्था और अराजकता से मुक्त हो जाएगा।
इस सोच के बाद उसे फूलों के रंग ज्यादा शोख और चटख दिखने लगे थे। फूली हुई घास किसी सर्द और सब्ज अंगारे की तरह दहकने लगी थी। कैक्टस की फुनगियों पर बुरांस खिल उठे थे। आसमान का नीलापन उचक कर पकड़ लेने की हद तक झुक आया था और पहाड़ों की चोटियों पर अद्ध खिले चांद उतर आए थे। इस ख्याल ने उसके पोरों में होने वाली सूचनाओं की कसक को कम कर दिया था और अब कभी-कभी वो मुस्कुराने भी लगा था।
यह शहर छोटा था और यहाँ के कलैक्टर की आमदनी कुछ लाख रूपया महीना था। शहर छोटा था इसलिए पुलिस कप्तान की आमदनी भी इससे बहुत फर्क नहीं थी। थानों की बार-बार की गई निलामी और माफियाओं के साथ की गई बैठकों का भी कोई बहुत सकारात्मक प्रभाव नहीं हुआ था। पूरी कोशिशों के बाद भी माफियाओं की संख्या में वृद्धि नहीं हो पाई थी जिससे स्वस्थ प्रतिद्वंदिता का अभावा था। यहाँ का सारा अधिकारी वर्ग यह अभाव झेल रहा था और कुर्सियां सस्ते में नीलाम हो रही थी। पता नहीं लोग इस सच को जानते थे या नहीं- पर वो जानता था।
वो जानता था कि शहर की सारी बसें मिट्टी के तेल से चलती है। इसीलिए ढ़िबरी भर मिट्टी का तेल हासिल करने के लिए मजदूर को कई गुना दाम चुकाने पड़ते हैं। ढ़िबरी बुझने से पहले ही उसे नींद आ जाए इसलिए वो मिलावट वाली देसी शराब का पउआ पीता, सडे हुए सरकारी गेंहू का काला आटा फांकता और सो जाता। रात का सोया हुआ मजदूर जब सुबह उठता तो खुदा का भेजा हुआ सफैद दाढ़ी और नूरानी चेहरे वाला मौलवी मस्जिद की मीनार से उसे आवाज लगाता। भारी पेट और थुलथुले बदन वाला लिजलिजा पंडित घंटिया बजा-बजा कर उसे बुलाता। यह तब तक तक चलता जब तक उसकी जेब में बची रह गई पिछले दिन की बकाया कमाई झटक न ली जाती। खाली जेब और भूखे पेट के साथ एक भी दिन के आराम के बिना वो फिर कामगारों की पंक्ति में खड़ा पाया जाता।
वो जानता था कि ताजाबनी सड़कें क्यों एक बरसात भी नहीं झेल पातीं। लैंपपोस्ट के बल्ब आए दिन क्यों बुझे रहते हैं। क्यों द्राानदान बंगलों की घास गर्मियों में भी नहीं सूखती और म्यूनिसपैलिटी के नल सर्दियों में भी सूखे रहते हैं। पैदल चलता आदमी खादी पहनते ही कैसे शानदार गाड़ियों का मालिक हो जाता है ओर झंडा फहराकर भाषण देता अधिकारी कितना झूठ बोलता है।
वो ऐसी बहुत सी सच्चाइयां जानता था। उसका यह सब जान लेना अपराध नहीं था पर सोचना एक हिमाकत थी। उसकी यह हिमाकत आज तक ढकी-छुपी रही थी। पर आज वो द्राहर के बीचों-बची उधड़ी हुई सीवन की तरह बेनकाब हो गया था। वो सोचता है- सोच सकता है। वो बोलता है- बोल सकता है। उसके अंतस में ज्वालामुखी धधक रहा था और प्रशासन नहीं जान पाया। यह बात शासन और प्रशासन दोनों को हैरान कर रही थी। सबसे ज्यादा हैरानी उस अखबार के मालिक को थी जिसमें वो काम करता था।
मालिक ने पिछले तीन सालों में उसे बैल की तरह जोता था- वो चुप-चाप जुता रहा था। वो विज्ञापन लाता तो मालिक पीठ थप-थपाता। वो झूठ लिखता तो मालिक खुच्च होकर छापता। पर जिस दिन उसने सच लिखने की कोशिश की थी- मालिक ने झिड़क दिया था।
प्रशासन के आला हुक्मरानों की चिंता का कारण दूसरा भी था। अरबों रूपए के खर्च पर खड़ा सिस्टम आज खोखला और बेमानी साबित हुआ था। इसी शहर का एक आदमी लगातार सोचता रहा था और दसियों गुप्तचर एजैंसियां नहीं जान पाई थीं। सूचना विभाग नाराज था कि भरपूर विज्ञापन देने के बावजूद वो अखबार अपने एक अदने से नौकर पर काबू नहीं रख पाया। द्रारीफों की सांसे भी गिन लेने का दावा करने वाली पुलिस जान भी नहीं पाई और वो द्राहर के बीचों-बीच घंटाघर पर चढ़ गया था। हद तो यह थी कि घंटाघर की भरपूर ऊँचाई के बावजूद उसके हाथ में पकड़ा हुआ सच्च का पुलिंदा लोगों को दिखलाई दे रहा था और लोग उस पुलिंदे में बंधे सच को सुन लेना चाहते थे। पर विडम्बना यह थी कि उसकी ऊँचाई इतनी अधिक थी कि उसकी आवाज जमीन तक नहीं पहुंच पा रही थी।
सच का यह पुलिंदा उठाए-उठाए उसने कई दरवाजों पर दस्तक दी थी। दरवाजे खुले भी थे पर उसके पुलिंदे की गांठ खुलने से पहले ही दरवाजे बंद हो जाते थे। किसी के पास इतना समय नहीं था कि उसकी बासी बातों को- ऐसा वो लोग सोचते थे- सुन लेता।
उसे खलील जिब्रान पढ़ाने का अफसोस मुझे उस दिन हुआ था जब उसने सरे बाजार मेरे गिरेबां में भी झांक लिया।
दरअसल हुआ यह था कि हम लोग एक खोखे में बैठ कर चाय पी रहे थे। उसकी बातों से मैं प्रभावित था। उसकी तमाम नाकाम कोशिशों के बावजूद उसके होंसले में कोई कमी नहीं आई थी। उसे विश्वास था कि भले ही देर से सही पर इस देश में क्रांति का जन नायक वहीं होगा। जिस दिन उसकी आवाज आवाम तक पहुंचेगी- लोकतंत्र के सारे संदर्भ बदल जाएंगें। खलील जिब्रान को मैंने भी पढ़ा था। पर अपने होशों हवास पर काबू रख कर। इसीलिए मैंने उसे समझाने के लिए एक कविता की कुछ पंक्तियां सुनाई थी।
कविता सुनकर वो मुझे निस्पृह भाव से घूरता रहा था फिर अचानक उसका चेहरा तमतमा गया। वो लगभग चीखते हुए स्वर में बोला
"तुम साले लेखक अपने को तुर्रम खां समझते हो। जो तुमने कह दिया वही सच हो गया। अरे तुम्हारे बड़े-बड़े आलोचक पैसा लेकर किताबों को अच्छा बुरा कहते हैं। तुम्हारे जनवादी सम्पादक पैसे के लिए भगवा सरकार के विज्ञापन छापते हैं और तुम्हारे प्रगतिशील लेखक छपने और चर्चित होने के लिए इन्हीं सम्पादकों और आलोचकों की चप्पलें उठाते हैं।"
"तुम कुछ ज्यादा ही बहक रहे हो।" मैंने उसके आवेश को कम करने के लिए समझाने वाले स्वर में कहा
"बहके हुए तो तुम लोग हो। डिब्बा बंद मछली की तरह ठंडे और बासी। आम आदमी पर फिल्म बनाते हो और पैसा कमाते हो। पर आम आमदी को क्या मिलता है? आम आदमी पर कविता-कहानी लिखकर वाह-वाही लूटते हो- आम आदमी को क्या मिलता है? नंगी-भूखी तस्वीरें बनाकर अंतर्राषट्रीय हो जाते हो- आम आदमी को क्या मिलता है? अरे तुम लोग तो पैरासाईट हो - पैरासाईट।"
"पागल हो गए हो तुम सोचते हो कि खलील जिब्रान पढ़कर समाज बदल दोगे? सनकी हो तुम।"
मुझे उसके व्यवहार पर गुस्सा आ गया था। पर यह सच है कि यदि मैं जानता कि उसके पिटारे में हमारा सच भी छुपा है तो मैं इस चर्चा को आरम्भ ही नहीं करता।
"खलील जिब्रान पढ़ कर नहीं- खलील जिब्रान बनकर।" तमतमाता हुआ उसका चेहरा अचानक हंसने लगा थां पर इसे अपमान की चुभन कहें या सच का नश्तर! मैं हंस नहीं सका था। मुझे पहली बार अफसोस हुआ था कि मैंने पढ़ने के लिए उसे खलील जिब्रान क्यो दिया था। दो वक्त की रोटी कमाकर वो एक सीधी साधी जिंदगी बिता रहा था, मैंने उससे रोटी भी छीन ली थी और जिंदगी भी। अब उसके पास बेचैनी, कुढ़न और क्रोध के सिवा और कुछ नहीं था। उससे सहानुभूति होते हुए भी अब मैं उससे कतराने लगा था।
इस घटना के बाद उसने और कितने सच इठे किए थे- मैं नहीं जान पाया। पर मैंने उसके झोले को एक गट्ठर में बदलते हुए देखा। उस गट्ठर को उठाए हुए वो इतना हांफजाता कि रूक कर सुस्ताने लगता था पर गट्ठर को नीचे जमीन पर नहीं रखता था। उससे कतराने के बावजूद मुझे उससे सहानुभूति थी। द्राायद इसीलिए मैं उस दिन उससे नजर नहीं चुरा पाया।
"तुम इस गट्ठर को नीचे क्यों नही रख देते।" मैंने आत्मीय होने की तो चेष्टा की वो हंसा, फिर कड़वाहट की हद तक व्यंग्य भरे स्वर में बोला
"ताकी तुम इसे चुरा सको।"
"मैं क्या करूंगा तुम्हारा यह गट्ठर चुराकर?" मैंने खीझ कर कहा था।
"तुम्हारे लिखने के लिए इसमें तैयार शुद्ध माल है।"
उसकी यह निर्ममता मुझे अखर गई थी और मैंने उससे बोलना बंद कर दिया था।
पर मैं देख रहा था कि उसके जिस्म पर टिके कपड़ों की सिलाई उधड़ने लगी थी। उसकी खिचड़ी दाढ़ी बढ़ने लगी थी और उसके बाल लम्बे होकर बिखर गए थे। खलील जिब्रान पढ़ने से पहले तक झक काले उसके बाल अब आधे अधूरे सफेद हो चुके थे। उसका पूरा हुलिया एक बेतरतीब जिंदगी की नुमाईच्च बनकर रह गया था।
---और आज मैंने देखा कि वो घंटाघर पर चढ़ा हुआ खड़ा है और चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को अपने पिटारे का सच बताने की कोशिश कर रहा है। उसकी आवाज शायद नीचे तक पहुँच भी जाती पर नीचे लगातार बढ़ती हुई भीड़ का शोर उसकी आवाज को गुम कर रहा था। चीखने के कारण उसके गले की नसें फूल कर चमकने लगी थीं। कनपटी पर तेज धड़कन के साथ मोटी नस फड़क रही थी। उत्तेजना के कारण चेहरा लाल हो चुका था। मेरे अलावा शायद ही कोई और समझ पाया हो कि वो खलील जिब्रान के एक उपन्यास में मठ से निकाले गए पात्र की तरह व्यवहार कर रहा था। वो भीड़ को आंदोलित करना चाहता था। उसकी पूरी कोशिश थी कि उसकी आवाज किसी तरह भीड़ तक पहुंच जाए।
पर भीड़ का सच उसके सच से अलग था। भीड़ उसके मकसद से अनजान, घंटाघर, पर चढे हुए एक पुतले को देख-देख कर उत्तेजित और अल्हादित हो रही थी। पुतला गिरा तो क्या होगा- नहीं गिरा तो क्या होगा? भीड़ की जिज्ञासा इससे अधिक और कुछ नहीं थी। पर उसके लिए संदर्भ बिल्कुल बदले हुए थे। उसे लगा था कि नीचे इठा हुई भीड़ उसके आह्वान पर एकत्रित हुई है। जब वो एक हाथ उठा कर भीड़ को सम्बोधित करता तो भीड़ दोनों हाथ उठा देती। भीड़ समझती थी कि उसका हाथ उठाना-घंटाघर से कूदने की तैयारी है। इसलिए भीड़ उसे रोकने के लिए अपने दोनों हाथ उठा लेती।
वो खुशी से झूम उठा! उसे लगा कि भीड़ तक उसकी आवाज और उसका मकसद पहुँच रहे हैं। अब उसने अपने पुलिंदे की गांठ खोलना शुरू कर दी थी और भीड़ के और करीब आने के लिए घंटाघर के छज्जे पर उतरने की कोच्चिच्च करने लगा था। तभी सामने से उसके ऊपर पानी की तेज बोछार हुई और वो पीछे हट गया। उसने दांई और मुड़ने की कोशिश की तो उस ओर भी पानी की तेज बोछार थी। मैंने देखा दमकल की गाड़ियों ने घंटाघर को चारों ओर से घेर लिया था। वो जिस तरफ भी हिलता उसी ओर बोछार शुरू हो जाती। पानी की धार इतनी तेज थी कि वो जब भी उससे टकराता- गिर पड़ता। फिर एका-एक चारों ओर से एक साथ पानी की तेज धार उस पर पड़ने लगी। मैंने देखा सच के पुलिंदे को पेट से चिपका कर वो ऊकडू बैठ गया है। वो उसे गीला होने से बचाना चाहता था। दमकल वालों के लिए इतना मौका काफी था। लम्बी सीढ़ियां घंटाघर पर छा गईं और बीसियों आदमियों ने उसे दबोच लिया।
अगली सुबह अखबार पढ़ते हुए मैं चौंक गया। पुलिस ने दावा किया था कि उसके पास से अनेक आपत्तिजनक दस्तावेज मिले थे। पुलिस को शक था कि उसके सम्बंध किसी नक्सलवादी पड़ोसी मुल्क से थे और वो देश में अशांति उत्पन्न करना चाहता था। सच्चाई जानने और उसके साथियों का पता लगाने के लिए पुलिस ने उसे पोटा में निरूद्ध कर दिया था।
मेरा शरीर कांपने लगा। हाथ में पकड़ा चाय का गिलास मेज पर रखकर मैं धीरे-धीरे सिर को दबाने लगा। बात यहाँ तक पहुँच सकती है- इसका तो मुझे अंदाज ही नहीं था। मैं तो यही मान कर चल रहा था कि पुलिस उसे सुबह से शाम तक थाने में बिठाएगी, दो चार झांपड़ रसीद करेगी और छोड़ देगी। किसी सिर फिरे के साथ और किया भी क्या सकता था। परंतु यहाँ तो पूरा घटना क्रम ही नाटकीय तरीके से बदला गया था।
उसे छुड़ाने के लिए मैं पूरा दिन अपने सम्पर्का और सम्बंधों को भुनाने की कोच्चिच्च करता रहा। पुलिस कप्तान से लेकर आई जी पुलिस तक से मिला। कलैक्टर और कमीश्नर को दुहाई दे देकर सच समझाया। विधायक और सांसद को विश्वास में लेने की कोशिश की पर सब बेकार। अब तो जनता भी पुलिस की बनाई कहानी पर चटकारा ले रही थी।
रात गए मैं कमरे पर लौटा तो निढ़ाल हो चुका था। मैं समझ चुका था कि कहीं से भी मदद की कोई उम्मीद करना बेकार है क्योंकि उसके पास सच का जो हमाम था उसमे नंगे खड़े लोग भला उसकी मदद कैसे कर सकते थे।
हर ओर से हताश और निराश मैं बिजली बुझा कर पलंग पर लेट गया। पर तभी दरवाजे पर पड़ती दस्तक ने तंद्रा तोड़ दी। उठकर लाईट जलाई तो हक्का-बक्का रह गया। कमरे की हर खिड़की में संगीन तनी हुई थी।
---पुलिस को उसके जिस साथी की तलाश थी शायद वो उन्हें मिल गया था।
(आज यथार्थ का चेहरा इतना इकहरा नहीं रह गया है कि किसी भी घटना के कार्यकारण संबंधों को आसानी से पकड़ा जा सके। समकालीन यथार्थ की इस जटिल प्रवृति ने गम्भीरता से रचनारत संवेदनशील लोगों को उसको ठीक-ठीक तरह से पुन:सर्जित करने के लिए न सिर्फ कथ्य के स्तर पर बल्कि भाषा और शिल्प के स्तर पर भी नये से नये प्रयोग करने को मजबूर किया है। समकालीन युवा रचनाकारों की कहानियों में विशेषतौर पर यह बात स्पष्ट दियायी दे रही है। शिल्प और भाषा के इस प्रयोग के चलते कहानी का पारम्परिक ढांचा एक हद तक टूटता हुआ सा भी दिख रहा है।
ऐसे में कहानी को उसकी शास्त्रियता के ढांचे में ही कह पाने की कोशिश उतनी आसान नहीं रह गयी है। यही वजह है कि हर वह कहानी जो अपने कहानीपन के निर्वाह के साथ, बिना भाषायी और शिल्प के चमत्कार के जब उसी यथार्थ को कह पाने में समर्थ होती है तो उसकी तरफ ध्यान जाना लाजिमि है। जितेन ठाकुर एक ऐसे ही कहानीकार है जो कहानी को परम्परागत शास्त्रिय ढांचे में रखते हुए ही लगातार रचनारत है। दुर्दांत उनकी ऐसी ही कहानी है जिसमें हम उसी यथार्थ को हुबहू और बहुत ही सहज ढंग से प्रकट होते हुए देखते हैं, जिसके लिए इधर की अन्य कहानियां लम्बे लम्बे पैराग्राफों में इतिहास, समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र जैसे अन्य विवरणों के बिना संभव नहीं हो पा रही है।
"दहशतगर्द लोग", "अजनबी शहर में", "एक झूठ एक सच" जितेन ठाकुर के महत्वपूर्ण कथा संग्रह एवं "शेष अवशेष" उपन्यास के अलावा अभी हाल ही में, वर्ष 2008 में प्रकाशित एक अन्य उपन्यास "उड़ान" चर्चाओं में है। हिन्दी के अलावा जितेन डोगरी में भी समान रुप से लिखते हैं। "न्हेरी रात स्नैहरे ध्याड़े" उनके द्वारा डोगरी में लिखी कहानियों का संग्रह है।)
दुर्दांत
जितेन ठाकुर 09410593800
खलील जिब्रान को पढ़ने के बाद उसका भेजा घूम गया है- कम से कम दुनिया ने यही समझा था। उसने तय किया कि अब वो अन्याय और अव्यवस्था के विरूद्ध लड़ेगा। उसे विच्च्वास था कि उसकी आवाज पर लाखों सोई हुई आत्माएं जाग उठेंगी और करोड़ों अलसाई आत्माओं की मुटि्ठयां हवा को बींध देंगी। एक ऐसा झंझावत उठेगा जो इस गांव से उस गांव, इस कस्बे से उस कस्बे, एक द्राहर से दूसरे द्राहर होता हुआ एक दिन समुद्र की हदों को लांध जाएगा। फिर आदमी साफ हवा में सांस ले पाएगा, शुद्ध अनाज खाएगा, खालिस दूध पिएगा और हर तरफ फैली अव्यवस्था और अराजकता से मुक्त हो जाएगा।
इस सोच के बाद उसे फूलों के रंग ज्यादा शोख और चटख दिखने लगे थे। फूली हुई घास किसी सर्द और सब्ज अंगारे की तरह दहकने लगी थी। कैक्टस की फुनगियों पर बुरांस खिल उठे थे। आसमान का नीलापन उचक कर पकड़ लेने की हद तक झुक आया था और पहाड़ों की चोटियों पर अद्ध खिले चांद उतर आए थे। इस ख्याल ने उसके पोरों में होने वाली सूचनाओं की कसक को कम कर दिया था और अब कभी-कभी वो मुस्कुराने भी लगा था।
यह शहर छोटा था और यहाँ के कलैक्टर की आमदनी कुछ लाख रूपया महीना था। शहर छोटा था इसलिए पुलिस कप्तान की आमदनी भी इससे बहुत फर्क नहीं थी। थानों की बार-बार की गई निलामी और माफियाओं के साथ की गई बैठकों का भी कोई बहुत सकारात्मक प्रभाव नहीं हुआ था। पूरी कोशिशों के बाद भी माफियाओं की संख्या में वृद्धि नहीं हो पाई थी जिससे स्वस्थ प्रतिद्वंदिता का अभावा था। यहाँ का सारा अधिकारी वर्ग यह अभाव झेल रहा था और कुर्सियां सस्ते में नीलाम हो रही थी। पता नहीं लोग इस सच को जानते थे या नहीं- पर वो जानता था।
वो जानता था कि शहर की सारी बसें मिट्टी के तेल से चलती है। इसीलिए ढ़िबरी भर मिट्टी का तेल हासिल करने के लिए मजदूर को कई गुना दाम चुकाने पड़ते हैं। ढ़िबरी बुझने से पहले ही उसे नींद आ जाए इसलिए वो मिलावट वाली देसी शराब का पउआ पीता, सडे हुए सरकारी गेंहू का काला आटा फांकता और सो जाता। रात का सोया हुआ मजदूर जब सुबह उठता तो खुदा का भेजा हुआ सफैद दाढ़ी और नूरानी चेहरे वाला मौलवी मस्जिद की मीनार से उसे आवाज लगाता। भारी पेट और थुलथुले बदन वाला लिजलिजा पंडित घंटिया बजा-बजा कर उसे बुलाता। यह तब तक तक चलता जब तक उसकी जेब में बची रह गई पिछले दिन की बकाया कमाई झटक न ली जाती। खाली जेब और भूखे पेट के साथ एक भी दिन के आराम के बिना वो फिर कामगारों की पंक्ति में खड़ा पाया जाता।
वो जानता था कि ताजाबनी सड़कें क्यों एक बरसात भी नहीं झेल पातीं। लैंपपोस्ट के बल्ब आए दिन क्यों बुझे रहते हैं। क्यों द्राानदान बंगलों की घास गर्मियों में भी नहीं सूखती और म्यूनिसपैलिटी के नल सर्दियों में भी सूखे रहते हैं। पैदल चलता आदमी खादी पहनते ही कैसे शानदार गाड़ियों का मालिक हो जाता है ओर झंडा फहराकर भाषण देता अधिकारी कितना झूठ बोलता है।
वो ऐसी बहुत सी सच्चाइयां जानता था। उसका यह सब जान लेना अपराध नहीं था पर सोचना एक हिमाकत थी। उसकी यह हिमाकत आज तक ढकी-छुपी रही थी। पर आज वो द्राहर के बीचों-बची उधड़ी हुई सीवन की तरह बेनकाब हो गया था। वो सोचता है- सोच सकता है। वो बोलता है- बोल सकता है। उसके अंतस में ज्वालामुखी धधक रहा था और प्रशासन नहीं जान पाया। यह बात शासन और प्रशासन दोनों को हैरान कर रही थी। सबसे ज्यादा हैरानी उस अखबार के मालिक को थी जिसमें वो काम करता था।
मालिक ने पिछले तीन सालों में उसे बैल की तरह जोता था- वो चुप-चाप जुता रहा था। वो विज्ञापन लाता तो मालिक पीठ थप-थपाता। वो झूठ लिखता तो मालिक खुच्च होकर छापता। पर जिस दिन उसने सच लिखने की कोशिश की थी- मालिक ने झिड़क दिया था।
प्रशासन के आला हुक्मरानों की चिंता का कारण दूसरा भी था। अरबों रूपए के खर्च पर खड़ा सिस्टम आज खोखला और बेमानी साबित हुआ था। इसी शहर का एक आदमी लगातार सोचता रहा था और दसियों गुप्तचर एजैंसियां नहीं जान पाई थीं। सूचना विभाग नाराज था कि भरपूर विज्ञापन देने के बावजूद वो अखबार अपने एक अदने से नौकर पर काबू नहीं रख पाया। द्रारीफों की सांसे भी गिन लेने का दावा करने वाली पुलिस जान भी नहीं पाई और वो द्राहर के बीचों-बीच घंटाघर पर चढ़ गया था। हद तो यह थी कि घंटाघर की भरपूर ऊँचाई के बावजूद उसके हाथ में पकड़ा हुआ सच्च का पुलिंदा लोगों को दिखलाई दे रहा था और लोग उस पुलिंदे में बंधे सच को सुन लेना चाहते थे। पर विडम्बना यह थी कि उसकी ऊँचाई इतनी अधिक थी कि उसकी आवाज जमीन तक नहीं पहुंच पा रही थी।
सच का यह पुलिंदा उठाए-उठाए उसने कई दरवाजों पर दस्तक दी थी। दरवाजे खुले भी थे पर उसके पुलिंदे की गांठ खुलने से पहले ही दरवाजे बंद हो जाते थे। किसी के पास इतना समय नहीं था कि उसकी बासी बातों को- ऐसा वो लोग सोचते थे- सुन लेता।
उसे खलील जिब्रान पढ़ाने का अफसोस मुझे उस दिन हुआ था जब उसने सरे बाजार मेरे गिरेबां में भी झांक लिया।
दरअसल हुआ यह था कि हम लोग एक खोखे में बैठ कर चाय पी रहे थे। उसकी बातों से मैं प्रभावित था। उसकी तमाम नाकाम कोशिशों के बावजूद उसके होंसले में कोई कमी नहीं आई थी। उसे विश्वास था कि भले ही देर से सही पर इस देश में क्रांति का जन नायक वहीं होगा। जिस दिन उसकी आवाज आवाम तक पहुंचेगी- लोकतंत्र के सारे संदर्भ बदल जाएंगें। खलील जिब्रान को मैंने भी पढ़ा था। पर अपने होशों हवास पर काबू रख कर। इसीलिए मैंने उसे समझाने के लिए एक कविता की कुछ पंक्तियां सुनाई थी।
कविता सुनकर वो मुझे निस्पृह भाव से घूरता रहा था फिर अचानक उसका चेहरा तमतमा गया। वो लगभग चीखते हुए स्वर में बोला
"तुम साले लेखक अपने को तुर्रम खां समझते हो। जो तुमने कह दिया वही सच हो गया। अरे तुम्हारे बड़े-बड़े आलोचक पैसा लेकर किताबों को अच्छा बुरा कहते हैं। तुम्हारे जनवादी सम्पादक पैसे के लिए भगवा सरकार के विज्ञापन छापते हैं और तुम्हारे प्रगतिशील लेखक छपने और चर्चित होने के लिए इन्हीं सम्पादकों और आलोचकों की चप्पलें उठाते हैं।"
"तुम कुछ ज्यादा ही बहक रहे हो।" मैंने उसके आवेश को कम करने के लिए समझाने वाले स्वर में कहा
"बहके हुए तो तुम लोग हो। डिब्बा बंद मछली की तरह ठंडे और बासी। आम आदमी पर फिल्म बनाते हो और पैसा कमाते हो। पर आम आमदी को क्या मिलता है? आम आदमी पर कविता-कहानी लिखकर वाह-वाही लूटते हो- आम आदमी को क्या मिलता है? नंगी-भूखी तस्वीरें बनाकर अंतर्राषट्रीय हो जाते हो- आम आदमी को क्या मिलता है? अरे तुम लोग तो पैरासाईट हो - पैरासाईट।"
"पागल हो गए हो तुम सोचते हो कि खलील जिब्रान पढ़कर समाज बदल दोगे? सनकी हो तुम।"
मुझे उसके व्यवहार पर गुस्सा आ गया था। पर यह सच है कि यदि मैं जानता कि उसके पिटारे में हमारा सच भी छुपा है तो मैं इस चर्चा को आरम्भ ही नहीं करता।
"खलील जिब्रान पढ़ कर नहीं- खलील जिब्रान बनकर।" तमतमाता हुआ उसका चेहरा अचानक हंसने लगा थां पर इसे अपमान की चुभन कहें या सच का नश्तर! मैं हंस नहीं सका था। मुझे पहली बार अफसोस हुआ था कि मैंने पढ़ने के लिए उसे खलील जिब्रान क्यो दिया था। दो वक्त की रोटी कमाकर वो एक सीधी साधी जिंदगी बिता रहा था, मैंने उससे रोटी भी छीन ली थी और जिंदगी भी। अब उसके पास बेचैनी, कुढ़न और क्रोध के सिवा और कुछ नहीं था। उससे सहानुभूति होते हुए भी अब मैं उससे कतराने लगा था।
इस घटना के बाद उसने और कितने सच इठे किए थे- मैं नहीं जान पाया। पर मैंने उसके झोले को एक गट्ठर में बदलते हुए देखा। उस गट्ठर को उठाए हुए वो इतना हांफजाता कि रूक कर सुस्ताने लगता था पर गट्ठर को नीचे जमीन पर नहीं रखता था। उससे कतराने के बावजूद मुझे उससे सहानुभूति थी। द्राायद इसीलिए मैं उस दिन उससे नजर नहीं चुरा पाया।
"तुम इस गट्ठर को नीचे क्यों नही रख देते।" मैंने आत्मीय होने की तो चेष्टा की वो हंसा, फिर कड़वाहट की हद तक व्यंग्य भरे स्वर में बोला
"ताकी तुम इसे चुरा सको।"
"मैं क्या करूंगा तुम्हारा यह गट्ठर चुराकर?" मैंने खीझ कर कहा था।
"तुम्हारे लिखने के लिए इसमें तैयार शुद्ध माल है।"
उसकी यह निर्ममता मुझे अखर गई थी और मैंने उससे बोलना बंद कर दिया था।
पर मैं देख रहा था कि उसके जिस्म पर टिके कपड़ों की सिलाई उधड़ने लगी थी। उसकी खिचड़ी दाढ़ी बढ़ने लगी थी और उसके बाल लम्बे होकर बिखर गए थे। खलील जिब्रान पढ़ने से पहले तक झक काले उसके बाल अब आधे अधूरे सफेद हो चुके थे। उसका पूरा हुलिया एक बेतरतीब जिंदगी की नुमाईच्च बनकर रह गया था।
---और आज मैंने देखा कि वो घंटाघर पर चढ़ा हुआ खड़ा है और चिल्ला-चिल्लाकर लोगों को अपने पिटारे का सच बताने की कोशिश कर रहा है। उसकी आवाज शायद नीचे तक पहुँच भी जाती पर नीचे लगातार बढ़ती हुई भीड़ का शोर उसकी आवाज को गुम कर रहा था। चीखने के कारण उसके गले की नसें फूल कर चमकने लगी थीं। कनपटी पर तेज धड़कन के साथ मोटी नस फड़क रही थी। उत्तेजना के कारण चेहरा लाल हो चुका था। मेरे अलावा शायद ही कोई और समझ पाया हो कि वो खलील जिब्रान के एक उपन्यास में मठ से निकाले गए पात्र की तरह व्यवहार कर रहा था। वो भीड़ को आंदोलित करना चाहता था। उसकी पूरी कोशिश थी कि उसकी आवाज किसी तरह भीड़ तक पहुंच जाए।
पर भीड़ का सच उसके सच से अलग था। भीड़ उसके मकसद से अनजान, घंटाघर, पर चढे हुए एक पुतले को देख-देख कर उत्तेजित और अल्हादित हो रही थी। पुतला गिरा तो क्या होगा- नहीं गिरा तो क्या होगा? भीड़ की जिज्ञासा इससे अधिक और कुछ नहीं थी। पर उसके लिए संदर्भ बिल्कुल बदले हुए थे। उसे लगा था कि नीचे इठा हुई भीड़ उसके आह्वान पर एकत्रित हुई है। जब वो एक हाथ उठा कर भीड़ को सम्बोधित करता तो भीड़ दोनों हाथ उठा देती। भीड़ समझती थी कि उसका हाथ उठाना-घंटाघर से कूदने की तैयारी है। इसलिए भीड़ उसे रोकने के लिए अपने दोनों हाथ उठा लेती।
वो खुशी से झूम उठा! उसे लगा कि भीड़ तक उसकी आवाज और उसका मकसद पहुँच रहे हैं। अब उसने अपने पुलिंदे की गांठ खोलना शुरू कर दी थी और भीड़ के और करीब आने के लिए घंटाघर के छज्जे पर उतरने की कोच्चिच्च करने लगा था। तभी सामने से उसके ऊपर पानी की तेज बोछार हुई और वो पीछे हट गया। उसने दांई और मुड़ने की कोशिश की तो उस ओर भी पानी की तेज बोछार थी। मैंने देखा दमकल की गाड़ियों ने घंटाघर को चारों ओर से घेर लिया था। वो जिस तरफ भी हिलता उसी ओर बोछार शुरू हो जाती। पानी की धार इतनी तेज थी कि वो जब भी उससे टकराता- गिर पड़ता। फिर एका-एक चारों ओर से एक साथ पानी की तेज धार उस पर पड़ने लगी। मैंने देखा सच के पुलिंदे को पेट से चिपका कर वो ऊकडू बैठ गया है। वो उसे गीला होने से बचाना चाहता था। दमकल वालों के लिए इतना मौका काफी था। लम्बी सीढ़ियां घंटाघर पर छा गईं और बीसियों आदमियों ने उसे दबोच लिया।
अगली सुबह अखबार पढ़ते हुए मैं चौंक गया। पुलिस ने दावा किया था कि उसके पास से अनेक आपत्तिजनक दस्तावेज मिले थे। पुलिस को शक था कि उसके सम्बंध किसी नक्सलवादी पड़ोसी मुल्क से थे और वो देश में अशांति उत्पन्न करना चाहता था। सच्चाई जानने और उसके साथियों का पता लगाने के लिए पुलिस ने उसे पोटा में निरूद्ध कर दिया था।
मेरा शरीर कांपने लगा। हाथ में पकड़ा चाय का गिलास मेज पर रखकर मैं धीरे-धीरे सिर को दबाने लगा। बात यहाँ तक पहुँच सकती है- इसका तो मुझे अंदाज ही नहीं था। मैं तो यही मान कर चल रहा था कि पुलिस उसे सुबह से शाम तक थाने में बिठाएगी, दो चार झांपड़ रसीद करेगी और छोड़ देगी। किसी सिर फिरे के साथ और किया भी क्या सकता था। परंतु यहाँ तो पूरा घटना क्रम ही नाटकीय तरीके से बदला गया था।
उसे छुड़ाने के लिए मैं पूरा दिन अपने सम्पर्का और सम्बंधों को भुनाने की कोच्चिच्च करता रहा। पुलिस कप्तान से लेकर आई जी पुलिस तक से मिला। कलैक्टर और कमीश्नर को दुहाई दे देकर सच समझाया। विधायक और सांसद को विश्वास में लेने की कोशिश की पर सब बेकार। अब तो जनता भी पुलिस की बनाई कहानी पर चटकारा ले रही थी।
रात गए मैं कमरे पर लौटा तो निढ़ाल हो चुका था। मैं समझ चुका था कि कहीं से भी मदद की कोई उम्मीद करना बेकार है क्योंकि उसके पास सच का जो हमाम था उसमे नंगे खड़े लोग भला उसकी मदद कैसे कर सकते थे।
हर ओर से हताश और निराश मैं बिजली बुझा कर पलंग पर लेट गया। पर तभी दरवाजे पर पड़ती दस्तक ने तंद्रा तोड़ दी। उठकर लाईट जलाई तो हक्का-बक्का रह गया। कमरे की हर खिड़की में संगीन तनी हुई थी।
---पुलिस को उसके जिस साथी की तलाश थी शायद वो उन्हें मिल गया था।
Wednesday, May 14, 2008
देश जो कि बाज़ार है
(मानवीय मनोभावों को बदलते मौसम के साथ व्याख्यायित करने में समकालीन हिन्दी कविता ने जीवन के कार्य व्यापार के अनेकों संदर्भों से अपने को समृद्ध किया है। कवि दुर्गा प्रसाद गुप्त की प्रस्तुत कवितायें ऐसी ही स्थितियों को रेखांकित करती हैं।
समकालीन रचना जगत में दुर्गा प्रसाद गुप्त जहॉं एक ओर अपनी सघन अलोचकीय दृष्टि के लिए जाना पहचाना नाम है, वहीं सुक्ष्म संवदनाओं से भरी उनकी कविताऐं एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रचनात्मक सरोकारों का साक्ष्य हैं। वर्तमान में "हिन्दी उर्दू हिन्दुस्तानी" जैसे विषय से जूझ रहे दुर्गा प्रसाद गुप्त केन्द्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिन्दी के प्रोफसर हैं। हाल ही में "आस्थाओं का कोलाज" रामशरण जोशी के लेखों की प्रकाशित पुस्तक में सम्मिलित आलेखों का चयन और सम्पादन दुर्गा प्रसाद गुप्त ने किया है। इसके अलावा "आधुनिकतावाद", "अपने पत्रों में मुक्तिबोध", "संस्कृति का अकेलापन" उनकी अन्य प्रकाशित कृतियां हैं। कविता संग्रह "जहां धूप आकार लेती है" उनकी प्रकाशनाधीन कृति है।)
कविता का बसंत
जाड़े के दिनों की तरह बसंत के दिन उदास नहीं होते
खिड़की के बाहर कुहासा नहीं होता
धूप आती-जाती-सी नहीं लगती, और न
जाडे वाली बारिश के दिनों की तरह
गलियों में कीच और ठंड होती है, पर
जाडे के दिनों में घर में कैद, चुप और खिन्न लोगों के बारे में
सोचती हैं वह लड़की, कि
बारिश और जाडे की नमी ने ही उसके भीतर चाहत पैदा की है बसंत की
वह बसंत की कामना बाहर नहीं, अपने भीतर करती है, और
एक दिन अपनी गर्म साँसों में पाती है, कि
बसंत अपनी सहजता में निस्पंद लहलहा रहा है उसके भीतर
किसी सुदंर की सृष्टि करता हुआ।
पागल होना ज़रूरी है
जो सहना नहीं जानते, वे पागल होते हैं, और
जो पागल होते हैं, वे ही सच को भी जानते हैं
सहने की हद तक जब कोई
किसी सच के खिलाफ किसी झूठ को सच बता रहा होता है
पागल उस सच को नहीं, झूठ को भूलना चाह रहा होता है
वह जानता है कि जो अधूरे पागल हैं वे पागलखाने के बाहर हैं, और
जो पूरे हैं वे पागलखाने के अंदर, पर
पागलखाने के बाहर रहना भी एक दूसरे को धोखा देना ही है
क्योंकि-
जिस देश में पागलखाने नहीं बढ़ते
वहाँ सच की उम्मीद भी नहीं बढ़ती।
देश जो कि बाज़ार है
बाज़ार चीज़ों को खरीदता और बेचता ही नहीं है
वह चीज़ों के साथ हमारे आत्मीय सम्बंधों को भी परिभाषित करने लगा है
वह चाहता है कि उसकी तिज़ारत में हमारे सुख-दु:ख भी शामिल हों
ताकि हमें भी लगे कि बाज़ार हमारे साथ और हमारे ही लिए हैं
बाज़ार ने हमें कुछ सिखाया हो या नहीं
कम-से-कम चीज़ों का उपभोग करना तो सिखा ही दिया है
जिस तरह फिल्मों ने हमें कम-से-कम नाचना गाना तो सिखा ही दिया है
इसीलिए बाज़ार के 'लाइव शो" में बदहाली और खुशहाली सब-
'रीमिक्स" हो नाचती हैं देश के लिए,
देश जो कि अब बाज़ार है।
समकालीन रचना जगत में दुर्गा प्रसाद गुप्त जहॉं एक ओर अपनी सघन अलोचकीय दृष्टि के लिए जाना पहचाना नाम है, वहीं सुक्ष्म संवदनाओं से भरी उनकी कविताऐं एक प्रतिबद्ध रचनाकार के रचनात्मक सरोकारों का साक्ष्य हैं। वर्तमान में "हिन्दी उर्दू हिन्दुस्तानी" जैसे विषय से जूझ रहे दुर्गा प्रसाद गुप्त केन्द्रीय विश्वविद्यालय जामिया मिल्लिया इस्लामिया में हिन्दी के प्रोफसर हैं। हाल ही में "आस्थाओं का कोलाज" रामशरण जोशी के लेखों की प्रकाशित पुस्तक में सम्मिलित आलेखों का चयन और सम्पादन दुर्गा प्रसाद गुप्त ने किया है। इसके अलावा "आधुनिकतावाद", "अपने पत्रों में मुक्तिबोध", "संस्कृति का अकेलापन" उनकी अन्य प्रकाशित कृतियां हैं। कविता संग्रह "जहां धूप आकार लेती है" उनकी प्रकाशनाधीन कृति है।)
कविता का बसंत
जाड़े के दिनों की तरह बसंत के दिन उदास नहीं होते
खिड़की के बाहर कुहासा नहीं होता
धूप आती-जाती-सी नहीं लगती, और न
जाडे वाली बारिश के दिनों की तरह
गलियों में कीच और ठंड होती है, पर
जाडे के दिनों में घर में कैद, चुप और खिन्न लोगों के बारे में
सोचती हैं वह लड़की, कि
बारिश और जाडे की नमी ने ही उसके भीतर चाहत पैदा की है बसंत की
वह बसंत की कामना बाहर नहीं, अपने भीतर करती है, और
एक दिन अपनी गर्म साँसों में पाती है, कि
बसंत अपनी सहजता में निस्पंद लहलहा रहा है उसके भीतर
किसी सुदंर की सृष्टि करता हुआ।
पागल होना ज़रूरी है
जो सहना नहीं जानते, वे पागल होते हैं, और
जो पागल होते हैं, वे ही सच को भी जानते हैं
सहने की हद तक जब कोई
किसी सच के खिलाफ किसी झूठ को सच बता रहा होता है
पागल उस सच को नहीं, झूठ को भूलना चाह रहा होता है
वह जानता है कि जो अधूरे पागल हैं वे पागलखाने के बाहर हैं, और
जो पूरे हैं वे पागलखाने के अंदर, पर
पागलखाने के बाहर रहना भी एक दूसरे को धोखा देना ही है
क्योंकि-
जिस देश में पागलखाने नहीं बढ़ते
वहाँ सच की उम्मीद भी नहीं बढ़ती।
देश जो कि बाज़ार है
बाज़ार चीज़ों को खरीदता और बेचता ही नहीं है
वह चीज़ों के साथ हमारे आत्मीय सम्बंधों को भी परिभाषित करने लगा है
वह चाहता है कि उसकी तिज़ारत में हमारे सुख-दु:ख भी शामिल हों
ताकि हमें भी लगे कि बाज़ार हमारे साथ और हमारे ही लिए हैं
बाज़ार ने हमें कुछ सिखाया हो या नहीं
कम-से-कम चीज़ों का उपभोग करना तो सिखा ही दिया है
जिस तरह फिल्मों ने हमें कम-से-कम नाचना गाना तो सिखा ही दिया है
इसीलिए बाज़ार के 'लाइव शो" में बदहाली और खुशहाली सब-
'रीमिक्स" हो नाचती हैं देश के लिए,
देश जो कि अब बाज़ार है।
लेबल:
कविता,
दुर्गा प्रसाद गुप्त,
ब्लाग पर
Wednesday, May 7, 2008
मछलियां पकडने वाला तिब्बती खरगोश
(ल्वोचू खरगोश की कथा श्रंृखंला की यह अंतिम कड़ी है)
ल्वोचू खरगोश की कथा - चार
जाड़े का मोसम शुरु हो चुका था। चोटियों पर बर्फ पूरी तरह से जम चुकी थी और नदी का पानी जमने लगा था। सर्दी से बचने के लिए जानवर अपनी मांद में दुबककर बैठ गये थे। भूख से तड़फती नीले रंग की वो मादा भेड़िया, जिसके दो साथी खरगोश की योजनाओं के शिकार हो चुके थे, जो भी छोटा मोटा जीव दिख जाता उसे दौड़ भागकर धर दबोचती।
एक दिन ल्वोचू खरगोश बर्फ जमी नदी पर अपनी पूंछ को बर्फ पर पटकने का खेल खेल रहा था। लगातार खेलते हुए वह थक गया तो आराम करने लगा।
तभी उस नर भेडिये की छोटी बहन उस नीली मादा भेडिया ने दौड़कर उसके पास आयी और बोली, "ओ तू ही है वो हरामी जिसने मेरे भाई को चट्टान के नीचे फेंका और मेरी भाभी को नदी की तेज धारा में डुबोया। तुझे तो मैं आज छोडूंगी ही नहीं। वैसे भी मुझे जोर की भूख लगी है।" और वह खरगोश पर झपटी।
बर्फ में लुढ़कने के बाद जब खरगोश खड़ा हुआ तो उसने बड़े ही कोमल ढंग से मादा भेड़िया को प्रणाम किया, "हे भेड़िया कुमारी, आप क्यों ऐसा दोष मुझ पर मड़ रही हैं। मैंने सुना है कि धूप सेंकने वाले खरगोश ने आपके भाई को अंधा बनाया और स्वर्ग के वृक्ष पर सवार होने वाले खरगोश ने आपकी भाभी की हत्या की। मैं तो मछली पकड़ने वाला खरगोश हूं, किसी की हत्या करने के बारे में तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता।"
मादा भेड़िया पर कोई असर न हुआ, "लेकिन फिर भी मैं तुझे छोडूंगी नहीं, चाहे तू हत्यारा है या नहीं।" और उसने अपने नुकीले पंजे खरगोश की ओर बढ़ा दिये।
खरगोश थोड़ा हड़बड़ा गया, "भेड़िया कुमारी, आप देखें तो सही मैं कितना दुबला पतला हूं। मुझमें तो एक चूहे के बराबर भी मांस नहीं। मुझे खाकर भी आपकी भूख शांत न होगी। यदि आप सच में भूखी हैं तो मैं आपके लिए मछलियां पकड़ देता हूं।"
मादा भेड़िया सचेत थी। उसने खरगोश के कान उमेठे, "तू कितना दुष्ट है, मैं अच्छे से जानती हूं। तेरे मुंह में पड़ी दरार बता रही है कि तू तो तू तेरे पूर्वज भी ऐसे ही दुष्ट रहे होगें। तुम खरगोश ही मेरे भाई और भाभी के हत्यारे हो। मुझे जल्दी बता कि तू मछलियां कैसे पकड़ता है ?"
खरगोश उसे उस स्थान पर ले गया जहां कुछ ही देर पहले उसने अपनी पूंछ को पटकने का खेल खेला था और बोला, "कुमारी भेड़िया, बर्फ में छेद बना मैं पूंछ को छेद में डाल देता हूं तो भूखी मछलियां मेरी पूंछ पर चिपट जाती हैं। तब मैं झटके से अपनी पूंछ को ऊपर खींचकर पूंछ पर चिपटी मछलियों को पकड़ लेता हूं।"
मादा भेड़िया की आंखें फटी की फटी रह गयी। "यह तो तूने खूब बताया।" बस फिर तो वह खरगोश के साथ पूंछ से बर्फ पर थपेड़े मारने लगी।
इस तरह से जब बर्फ में छेद हो गया तो खरगोश ने मादा भेड़िया से पूछा, "कुमारी जी, आपको छोटी मछली खाना पसंद है या बड़ी?"
"मुझे तो बड़ी मछलियां ही पसंद है।" मादा भेड़िया ने कहा।
खरगोश तुरंत बोला, "मेरी पूंछ तो छोटी है, इसलिए छोटी मछलियां ही पकड़ पाता हूं। आपकी पूंछ तो बहुत लम्बी है, बड़ी मछलियों को आप आसानी से पकड़ पायेगीं। क्यों न आप ही पहले पकड़े।"
खरगोश की चापलूसी भरी बातों से मादा भेड़िया खुश हुई। अपनी लम्बी पूंछ को उसने झट छेद में डाल दिया।
पास ही खड़ा खरगोश लयात्मक स्वर में गाते हुए छेद में पानी उड़ेलने लगा,
"काली मछली आआ
सफेद मछली आओ
छोटी मछली आओ
बड़ी मछली आओ
दौड-दौडकर आओ
सारी मछलियां आओ।"
थोड़ी ही देर में मादा भेड़िया की पूंछ सर्दी के कारण जमती हुई बर्फ से चिपक गयी। वह सोचने लगी कि मछलियों ने उसकी पूंछ को जकड़ा हुआ है, बस मन ही मन खुश होती रही।
खरगोश वहां से एक ओर को हट गया और शरीर तान खड़ा होते हुए मादा भेड़िया को लल्कारते हुए बोला, "ऐ, इस जंगल के पशुओं की शत्रु बता जब मैं घास पर धूप सेंक रहा था तो तेरा भाई मुझ पर क्यों झपटा ? मैंने ही उसकी आंखों पर सरेस चढ़ाया और उसे गहरी खायी में गिरने को उकसाया। जब मैं पेड़ पर खेल रहा था तो तेरी भाभी ने मुझे क्यों धमकाया ? उसे स्वग की यात्रा मैंने ही करायी। अभी अभी मैं बर्फ पर खेल रहा था तो तूने भी मुझे क्यों धमकाया ? अब तो तेरी भी मृत्यू तेरा इंतजार कर रही है। तुझे जो भी कहना अब जल्द से बोल ले। आज मैं अपने सभी साथियों का बदला तुझसे भी ले रहा हूं।" और नाचने लगा।
खरगोश को खुशी से नाचता देख मादा भेड़िया जोर से गुर्रायी। अपने शरीर की पूरी ताकत लगाकर उसने जैसे ही खरगोश पर झपटना चाहा, बर्फ में फंसी पूंछ के कारण उसकी पूंछ और कूल्हा एक साथ टूट गये। कुछ देर तक वह छटपटाती रही फिर उसने दम तोड़ दिया।
खुशी की खबर लिये, ल्वाचू खरगोश विजय गीत गाते हुए अपने दोस्तों को मिलने निकल पड़ा।
यदि इस कथा को सिलसिलेवार रुप से पढ्ना चाहते है तो एक एक कर क्रमवार पढें :
एक
दो
तीन
ल्वोचू खरगोश की कथा - चार
जाड़े का मोसम शुरु हो चुका था। चोटियों पर बर्फ पूरी तरह से जम चुकी थी और नदी का पानी जमने लगा था। सर्दी से बचने के लिए जानवर अपनी मांद में दुबककर बैठ गये थे। भूख से तड़फती नीले रंग की वो मादा भेड़िया, जिसके दो साथी खरगोश की योजनाओं के शिकार हो चुके थे, जो भी छोटा मोटा जीव दिख जाता उसे दौड़ भागकर धर दबोचती।
एक दिन ल्वोचू खरगोश बर्फ जमी नदी पर अपनी पूंछ को बर्फ पर पटकने का खेल खेल रहा था। लगातार खेलते हुए वह थक गया तो आराम करने लगा।
तभी उस नर भेडिये की छोटी बहन उस नीली मादा भेडिया ने दौड़कर उसके पास आयी और बोली, "ओ तू ही है वो हरामी जिसने मेरे भाई को चट्टान के नीचे फेंका और मेरी भाभी को नदी की तेज धारा में डुबोया। तुझे तो मैं आज छोडूंगी ही नहीं। वैसे भी मुझे जोर की भूख लगी है।" और वह खरगोश पर झपटी।
बर्फ में लुढ़कने के बाद जब खरगोश खड़ा हुआ तो उसने बड़े ही कोमल ढंग से मादा भेड़िया को प्रणाम किया, "हे भेड़िया कुमारी, आप क्यों ऐसा दोष मुझ पर मड़ रही हैं। मैंने सुना है कि धूप सेंकने वाले खरगोश ने आपके भाई को अंधा बनाया और स्वर्ग के वृक्ष पर सवार होने वाले खरगोश ने आपकी भाभी की हत्या की। मैं तो मछली पकड़ने वाला खरगोश हूं, किसी की हत्या करने के बारे में तो मैं कभी सोच भी नहीं सकता।"
मादा भेड़िया पर कोई असर न हुआ, "लेकिन फिर भी मैं तुझे छोडूंगी नहीं, चाहे तू हत्यारा है या नहीं।" और उसने अपने नुकीले पंजे खरगोश की ओर बढ़ा दिये।
खरगोश थोड़ा हड़बड़ा गया, "भेड़िया कुमारी, आप देखें तो सही मैं कितना दुबला पतला हूं। मुझमें तो एक चूहे के बराबर भी मांस नहीं। मुझे खाकर भी आपकी भूख शांत न होगी। यदि आप सच में भूखी हैं तो मैं आपके लिए मछलियां पकड़ देता हूं।"
मादा भेड़िया सचेत थी। उसने खरगोश के कान उमेठे, "तू कितना दुष्ट है, मैं अच्छे से जानती हूं। तेरे मुंह में पड़ी दरार बता रही है कि तू तो तू तेरे पूर्वज भी ऐसे ही दुष्ट रहे होगें। तुम खरगोश ही मेरे भाई और भाभी के हत्यारे हो। मुझे जल्दी बता कि तू मछलियां कैसे पकड़ता है ?"
खरगोश उसे उस स्थान पर ले गया जहां कुछ ही देर पहले उसने अपनी पूंछ को पटकने का खेल खेला था और बोला, "कुमारी भेड़िया, बर्फ में छेद बना मैं पूंछ को छेद में डाल देता हूं तो भूखी मछलियां मेरी पूंछ पर चिपट जाती हैं। तब मैं झटके से अपनी पूंछ को ऊपर खींचकर पूंछ पर चिपटी मछलियों को पकड़ लेता हूं।"
मादा भेड़िया की आंखें फटी की फटी रह गयी। "यह तो तूने खूब बताया।" बस फिर तो वह खरगोश के साथ पूंछ से बर्फ पर थपेड़े मारने लगी।
इस तरह से जब बर्फ में छेद हो गया तो खरगोश ने मादा भेड़िया से पूछा, "कुमारी जी, आपको छोटी मछली खाना पसंद है या बड़ी?"
"मुझे तो बड़ी मछलियां ही पसंद है।" मादा भेड़िया ने कहा।
खरगोश तुरंत बोला, "मेरी पूंछ तो छोटी है, इसलिए छोटी मछलियां ही पकड़ पाता हूं। आपकी पूंछ तो बहुत लम्बी है, बड़ी मछलियों को आप आसानी से पकड़ पायेगीं। क्यों न आप ही पहले पकड़े।"
खरगोश की चापलूसी भरी बातों से मादा भेड़िया खुश हुई। अपनी लम्बी पूंछ को उसने झट छेद में डाल दिया।
पास ही खड़ा खरगोश लयात्मक स्वर में गाते हुए छेद में पानी उड़ेलने लगा,
"काली मछली आआ
सफेद मछली आओ
छोटी मछली आओ
बड़ी मछली आओ
दौड-दौडकर आओ
सारी मछलियां आओ।"
थोड़ी ही देर में मादा भेड़िया की पूंछ सर्दी के कारण जमती हुई बर्फ से चिपक गयी। वह सोचने लगी कि मछलियों ने उसकी पूंछ को जकड़ा हुआ है, बस मन ही मन खुश होती रही।
खरगोश वहां से एक ओर को हट गया और शरीर तान खड़ा होते हुए मादा भेड़िया को लल्कारते हुए बोला, "ऐ, इस जंगल के पशुओं की शत्रु बता जब मैं घास पर धूप सेंक रहा था तो तेरा भाई मुझ पर क्यों झपटा ? मैंने ही उसकी आंखों पर सरेस चढ़ाया और उसे गहरी खायी में गिरने को उकसाया। जब मैं पेड़ पर खेल रहा था तो तेरी भाभी ने मुझे क्यों धमकाया ? उसे स्वग की यात्रा मैंने ही करायी। अभी अभी मैं बर्फ पर खेल रहा था तो तूने भी मुझे क्यों धमकाया ? अब तो तेरी भी मृत्यू तेरा इंतजार कर रही है। तुझे जो भी कहना अब जल्द से बोल ले। आज मैं अपने सभी साथियों का बदला तुझसे भी ले रहा हूं।" और नाचने लगा।
खरगोश को खुशी से नाचता देख मादा भेड़िया जोर से गुर्रायी। अपने शरीर की पूरी ताकत लगाकर उसने जैसे ही खरगोश पर झपटना चाहा, बर्फ में फंसी पूंछ के कारण उसकी पूंछ और कूल्हा एक साथ टूट गये। कुछ देर तक वह छटपटाती रही फिर उसने दम तोड़ दिया।
खुशी की खबर लिये, ल्वाचू खरगोश विजय गीत गाते हुए अपने दोस्तों को मिलने निकल पड़ा।
यदि इस कथा को सिलसिलेवार रुप से पढ्ना चाहते है तो एक एक कर क्रमवार पढें :
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