(देहरादून १ जून २००८)
संवेदना की मासिक गोष्ठी, जो हर माह के पहले रविवार को होती है, में आज काफी अच्छी उपस्थिति रही। उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार विद्यासागर नौटियालए सुभाष पंत, कुसुम भटट, गुरुदीप खुराना, जितेन्द्र शर्मा, जितेन ठाकुर, दिनेश चंद्र जोशी, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती, कवि लीलाधर जगूड़ी, राजेश सकलानी, प्रेम साहिल, राजेश पाल, प्रमोद सहाय, जयंति सिजवाली, कृष्णा खुराना आदि रचनाकारों के अलावा साहित्य के शुद्ध रुप से पाठक सी एन मिश्रा, राजेन्द्र गुप्ता, शकुन्तला, गीता गैरोला, वेद आहलूवालिया आदि मौजूद थे।
गोष्ठी जितेन ठाकुर के हाल ही में प्रकाशित उपन्यास उड़ान पर केन्द्रित थी। चर्चा के आरम्भ में दो लिखित पर्चे प्रस्तूत हुए। शशिभूषण बड़ूनी, जो किन्हीं कारणों से स्वंय उस्थित नहीं हो पाये, ने अपनी राय पर्चे के रुप में लिख कर भेजी, जिसका पाठ किया गया। दूसरा पर्चा दिनेश चंद्र जोशी का था।
चर्चा से पूर्व उड़ान के एक अंश का पाठ किया हुआ। दोनों ही पर्चों ने बहस को पूरी तरह से खोल दिया था जिसमें उपन्यास के पात्रों से लेकर, भाषा-शिल्प और कथानक तक के ब्यौरे ने सभी को चर्चा में शामिल कर लिया। यूं उपस्थितों में ज्यादातर उपन्यास को पहले ही पढ़ चुके थे। पर जिन्होंने उपन्यास नहीं पढ़ा था, वे भी इस विस्तृत चर्चा में हिस्सेदारी करते हुए उपन्यास से एक हद तक परिचित हो गये।
समकालीन रचना जगत में जितेन जमकर लिखने वाले और उसी रुप में पढ़े जाने वाले एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं। उड़ान के मार्फत हुई चर्चा में जहां उनकी इस खूबी को चिन्हित किया गया वहीं उनके रचना संसार के ऐसे कमजोर पक्ष भी आलोचना के केन्द्र में रहे जिनके मार्फत उड़ान की प्रासंगिकता पर भी विचार किया जा सका।
Sunday, June 1, 2008
Saturday, May 31, 2008
एक विषय दो पाठ
(ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी गयी हैं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।)
तोप शब्द से हमारी स्मृति में कुछ आजादी से पहले की यादें भी जुड़ी हैं। वह विनाश का उपकरण तो है ही लेकिन सत्ता के अहंकार और निरंकुशता का प्रतीक भी है। "क्या तू अपने को तोप समझता है ?" इस तरह के वाक्य हमारी बातचीत में भी आते हैं। वीरेन डंगवाल तोप का मखौल उड़ाते हुए बताते हैं कि तोप कितनी भी बड़ी हो कभी न कभी उसका मुंह बन्द होना ही होता है। जनता उसको अपने संघ्ार्ष से अर्थहीन कर देती है।असद जैदी पुश्तैनी तोप के बारे में कहते हैं कि हमारा दारिद्रय कितना विभूतिमय है। यह संभवत: जड़ परम्पराओं को सहेज कर रखने की प्रवृति के विरोध हैं। इनके पीछे गतिशीलता नहीं है। इसीलिए विरोधियों को भी इस पर हंसी आ जाती है। यह तोप है जो कभी भी समाज के काम नहीं आ सकती।
तोप
वीरेन डंगवाल
कम्पनी बाग के मुहाने पर
धर रखी गयी है यह सन 1857 की तोप
इसकी होती है बड़ी सम्हाल, विरासत में मिले
कम्पानी बाग की तरह
साल में चमकायी जाती है दो बार.
सुबह-शाम कम्पानी बाग में आते हैं बहुत सैलानी
उन्हें बताती है यह तोप
कि मैं बड़ी जबर
उड़ा दिये थे मैंने अच्छे-अच्छे सूरमाओं के छज्जे
अपने जमाने में
अब तो बहरहाल
छोटे लड़कों की घुड़सवारी से अगर फारिग हो
तो उसके ऊपर बैठकर
चिड़ियां ही अक्सर करती हैं गपशप
कभी-कभी शैतानी में वे इसके भीतर भी घुस जाती हैं
खास कर गौरैयें
वे बताती हैं कि दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उसका मुंह बन्द
पुश्तैनी तोप
असद जैदी
आज कभी हमारे यहां आकर देखिये हमारा
दारिद्रय कितना विभूतिमय है
एक मध्ययुगीन तोप है रखी हुई
जिसे काम में लाना बड़ा मुश्किल है
हमारी इस मिल्कियत का
पीतल हो गया है हरा, लोहा पड़ चुका है काला
घंटा भर लगता है गोला ठूंसने में
आधा पलीता लगाने में
इतना ही पोजीशन पर लाने में
फिर विपक्षियों पर दागने के लिए
इससे खराब और विश्वसनीय जनाब
हथियार भी कोई नहीं
इसे देखते ही आने लगती है
हमारे दुश्मनों को हंसी
इसे सलामी में दागना भी
मुनासिब नहीं है
आखिर मेहमान को दरवाजे पर
कितनी देर तक खड़ा रखा जा सकता है।
लेबल:
असद जैदी,
कविता,
टिपण्णी,
वीरेन डंगवाल
Tuesday, May 27, 2008
एक विषय दो पाठ
(ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी गयी हैं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।)
नागार्जुन साधारण के अभियान के कवि हैं। वे बड़ी सहजता से सौन्दर्य और व्यवहार की हमारी बनावटी और जन विरोधी समझ को तहस नहस कर डालते हैं। इतना ही नहीं वे पाठक को नए सौन्दर्य आलोक से परिचय कराते हैं। वो सच्ची समझ और आनन्द से भर उठता है। क्योंकि अपनी दुनिया को फिर से अन्वेषित कर पाने के लिए ज़रुरी नैतिक तार्किकता और विश्वास उनकी रचनाओं में बिना किसी बौद्धिक पाखंड के उपलब्ध हो जाता है। "पैने दांतों वाली" रचना में मादा सूअर मादरे हिन्द की बेटी है। हम जानते हैं कि सूअर, उससे जुड़े लोग और परिवेश को हिकारत से ही देखा जाता है। यह कविता बड़ी आसानी से इस दृष्टिकोण को तोड़-फोड़ देती है। मादा सूअर के बारह थन, जैसा कि सामाजिक उर्वरता को केन्द्र में लाकर रख देते हैं। भाषा ओर शिल्प साधने की अखरने वाली कोशिश नागार्जुन की कविता में ढूंढनी मुश्किल है। कविता का बीज कथा की ऊष्मा में ही स्फुटित होता है। 'मादरे हिन्द की बेटी' मुहावरा देशकाल को विस्तृत और सघन करता है।
वीरेन डंगवाल की रचना में बारिश में घुलकर सूअर अंग्रेज का बच्चा जैसा हो जाता है। हमारे बीच बातचीत में अंग्रेज शब्द व्यक्तित्व की शान ओ शौकत के लिए भी किया जाता है। सौन्दर्यबोध की हमारी इस जड़ता को इस पद में ध्वस्त होते देखना भी सुकून देता वाला है। हमारे जीवन की बुनावट आने वाली पंक्तियों में लगाव और कौतुक के साथ व्यक्त होती है। इसमें गाय, कुत्ता,घोडा भी शामिल हैं। चाय-पकौड़े वाले या बीड़ी माचिस वाले भी हैं। डीजल मिला हुआ कीचड़ भी अपने जीवन का हिस्सा है। बारिश में सभी जमकर भीगते हैं। सूअर के साथ हमारे हृदय में ठंडक सीझ कर पहुंचती है ओर आनन्द से भर देती है।
पैने दांतों वाली
नागार्जुन
धूप में पसर कर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर---
जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!
लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुंहे छौनो की रग-रग में
मचल रही है आखिर मां की ही तो जान!
जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पसर कर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है!
पैने दांतों वाली---
सूअर का बच्चा
वीरेन डंगवाल
बारिश जमकर हुई, धुल गया सूअर का बच्चा
धुल-पुंछकर अंग्रेज बन गया सूअर का बच्चा
चित्रलिखी हकबकी गाय, झेलती रही बौछारें
फिर भी कूल्हों पर गोबर की झांई छपी हुई है
कुत्ता तो घुस गया अधबने उस मकान के भीतर
जिसमें पड़ना फर्श, पलस्तर होना सब बाकी है।
चीनी मिल के आगे डीजल मिले हुए कीचड़ में
रपट गया है लिये-दिये इक्का गर्दन पर घोड़ा
लिथड़ा पड़ा चलाता टांगें आंखों में भर आंसू
दौड़े लगे मदद को, मिस्त्री-रिक्शे-तांगेवाले।
राजमार्ग है यह, ट्रैफिक चलता चौबीसों घंटे
थोड़ी सी बाधा से बेहद बवाल होता है।
लगभग बन्द हुआ पानी पर टपक रहे हैं खोखे
परेशान हैं खास तौर पर चाय-पकौड़े वाले,
या बीड़ी माचिस वाले।
पोलीथिन से ढांप कटोरी लौट रही घर रज्जो
अम्मा के आने से पहले चूल्हा तो धौंका ले
रखे छौंक तरकारी।
पहले दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले
आंख ने पहले-पहले अपनी उजास देखी है
ठंडक पहुंची सीझ हृदय में अदभुद मोद भरा है
इससे इतनी अकड़ भरा है सूअर का बच्चा।
नागार्जुन साधारण के अभियान के कवि हैं। वे बड़ी सहजता से सौन्दर्य और व्यवहार की हमारी बनावटी और जन विरोधी समझ को तहस नहस कर डालते हैं। इतना ही नहीं वे पाठक को नए सौन्दर्य आलोक से परिचय कराते हैं। वो सच्ची समझ और आनन्द से भर उठता है। क्योंकि अपनी दुनिया को फिर से अन्वेषित कर पाने के लिए ज़रुरी नैतिक तार्किकता और विश्वास उनकी रचनाओं में बिना किसी बौद्धिक पाखंड के उपलब्ध हो जाता है। "पैने दांतों वाली" रचना में मादा सूअर मादरे हिन्द की बेटी है। हम जानते हैं कि सूअर, उससे जुड़े लोग और परिवेश को हिकारत से ही देखा जाता है। यह कविता बड़ी आसानी से इस दृष्टिकोण को तोड़-फोड़ देती है। मादा सूअर के बारह थन, जैसा कि सामाजिक उर्वरता को केन्द्र में लाकर रख देते हैं। भाषा ओर शिल्प साधने की अखरने वाली कोशिश नागार्जुन की कविता में ढूंढनी मुश्किल है। कविता का बीज कथा की ऊष्मा में ही स्फुटित होता है। 'मादरे हिन्द की बेटी' मुहावरा देशकाल को विस्तृत और सघन करता है।
वीरेन डंगवाल की रचना में बारिश में घुलकर सूअर अंग्रेज का बच्चा जैसा हो जाता है। हमारे बीच बातचीत में अंग्रेज शब्द व्यक्तित्व की शान ओ शौकत के लिए भी किया जाता है। सौन्दर्यबोध की हमारी इस जड़ता को इस पद में ध्वस्त होते देखना भी सुकून देता वाला है। हमारे जीवन की बुनावट आने वाली पंक्तियों में लगाव और कौतुक के साथ व्यक्त होती है। इसमें गाय, कुत्ता,घोडा भी शामिल हैं। चाय-पकौड़े वाले या बीड़ी माचिस वाले भी हैं। डीजल मिला हुआ कीचड़ भी अपने जीवन का हिस्सा है। बारिश में सभी जमकर भीगते हैं। सूअर के साथ हमारे हृदय में ठंडक सीझ कर पहुंचती है ओर आनन्द से भर देती है।
पैने दांतों वाली
नागार्जुन
धूप में पसर कर लेटी है
मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर---
जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पूस की गुनगुनी धूप में
पसरकर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है
भरे-पूरे बारह थनों वाली!
लेकिन अभी इस वक्त
छौनों को पिला रही है दूध
मन-मिजाज ठीक है
कर रही है आराम
अखरती नहीं है भरे-पूरे थनों की खींच-तान
दुधमुंहे छौनो की रग-रग में
मचल रही है आखिर मां की ही तो जान!
जमना किनारे
मखमली दूबों पर
पसर कर लेटी है
यह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है!
पैने दांतों वाली---
सूअर का बच्चा
वीरेन डंगवाल
बारिश जमकर हुई, धुल गया सूअर का बच्चा
धुल-पुंछकर अंग्रेज बन गया सूअर का बच्चा
चित्रलिखी हकबकी गाय, झेलती रही बौछारें
फिर भी कूल्हों पर गोबर की झांई छपी हुई है
कुत्ता तो घुस गया अधबने उस मकान के भीतर
जिसमें पड़ना फर्श, पलस्तर होना सब बाकी है।
चीनी मिल के आगे डीजल मिले हुए कीचड़ में
रपट गया है लिये-दिये इक्का गर्दन पर घोड़ा
लिथड़ा पड़ा चलाता टांगें आंखों में भर आंसू
दौड़े लगे मदद को, मिस्त्री-रिक्शे-तांगेवाले।
राजमार्ग है यह, ट्रैफिक चलता चौबीसों घंटे
थोड़ी सी बाधा से बेहद बवाल होता है।
लगभग बन्द हुआ पानी पर टपक रहे हैं खोखे
परेशान हैं खास तौर पर चाय-पकौड़े वाले,
या बीड़ी माचिस वाले।
पोलीथिन से ढांप कटोरी लौट रही घर रज्जो
अम्मा के आने से पहले चूल्हा तो धौंका ले
रखे छौंक तरकारी।
पहले दृश्य दीखते हैं इतने अलबेले
आंख ने पहले-पहले अपनी उजास देखी है
ठंडक पहुंची सीझ हृदय में अदभुद मोद भरा है
इससे इतनी अकड़ भरा है सूअर का बच्चा।
लेबल:
कविता,
टिपण्णी,
नागार्जुन,
वीरेन डंगवाल
Sunday, May 25, 2008
कविता का भूगोल
(कविताओं में स्थानिकता भाषा और भूगोल दोनों ही स्तरों पर दिखायी दे तो छा रही एकरसता तो टूटती ही है। महेश चंद्र पुनेठा ऐसे ही कवि है जिनके यहां पहाड़ अपने पूरे भूगोल के साथ मौजूद है। इधर के युवा कवियों में महेश की यह विशिष्टता ही उसकी पहचान बना रही है। इस युवा कवि की कविताओं को वागर्थ, कृति ओर, कथादेश आदि महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में पढ़ने का अवसर समय समय पर मिलता रहा है। कविताओं के अलावा महेश पुस्तक-समीक्षा लेखन में भी सक्रिय हैं। गंगोलीहाट, पिथोरागढ़ में रहने वाले महेश चंद्र पुनेठा विद्यालय में शिक्षक हैं। महेश की ताजा कविताओं को प्रकाशित करते हुए हमें खुशी हो रही है।)
महेश चंद्र पुनेठा
सिंटोला
बहुत सुरीला गाती है कोयल
बहुत सुन्दर दिखती है मोनाल
पर मुझे
बहुत पसंद है - सिंटोला
हां, इसी नाम से जानते हैं
मेरे जनपद के लोग
भूरे बदन, काले सिर
पीले चोंच वाली उस चिड़िया को
दिख जाती है जो
कभी घर-आंगन में दाना चुगते
कभी सीम में कीड़े मकोड़े खाते
कभी गाय-भैंसों से किन्ने टीपते
तो कभी मरे जानवर का मांस खींचते
या जब हर शाम भर जाता है
खिन्ने का पेड़ उनसे
मेरे गांव की पश्चिम दिशा का
गधेरा बोलने लगता है उनकी आवाज में
बहुत भाता है मुझे
चहचहाना उनका एक साथ
दबे पांव बिल्ली को आते देख
सचेत करना आसन्न खतरे से
अपने सभी साथियों को कर लेना इकट्ठा
झपटने का प्रयास करना बिल्ली पर
न सही अधिक,
खिसियाने को विवश तो कर ही देते है वे
बिल्ली को।
गमक
फोड़-फाड़कर बड़े-बड़े ढेले
टीप-टापकर जुलके
बैठी है वह पांव पसार
अपने उभरे पेट की तरह
चिकने लग रहे खेत पर
फेर रही है हाथ
ढांप रही है
सतह पर रह गये बीजों को
जैसे जांच रही हो
धड़कन
गमक रहा है खेत और औरत।
सूचना: हमारे साथी राजेश सकलानी इधर एक श्रृखंला शुरु कर रहे हैं। जो किन्हीं भी दो कवियों की एक ही विषय वस्तु को लेकर लिखी गयी कविताओं पर केन्द्रित है। कविताओं पर उनकी टिप्पणी भी होगी। बकोल राजेश सकलानी, "ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी जायेगीं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।"
महेश चंद्र पुनेठा
सिंटोला
बहुत सुरीला गाती है कोयल
बहुत सुन्दर दिखती है मोनाल
पर मुझे
बहुत पसंद है - सिंटोला
हां, इसी नाम से जानते हैं
मेरे जनपद के लोग
भूरे बदन, काले सिर
पीले चोंच वाली उस चिड़िया को
दिख जाती है जो
कभी घर-आंगन में दाना चुगते
कभी सीम में कीड़े मकोड़े खाते
कभी गाय-भैंसों से किन्ने टीपते
तो कभी मरे जानवर का मांस खींचते
या जब हर शाम भर जाता है
खिन्ने का पेड़ उनसे
मेरे गांव की पश्चिम दिशा का
गधेरा बोलने लगता है उनकी आवाज में
बहुत भाता है मुझे
चहचहाना उनका एक साथ
दबे पांव बिल्ली को आते देख
सचेत करना आसन्न खतरे से
अपने सभी साथियों को कर लेना इकट्ठा
झपटने का प्रयास करना बिल्ली पर
न सही अधिक,
खिसियाने को विवश तो कर ही देते है वे
बिल्ली को।
गमक
फोड़-फाड़कर बड़े-बड़े ढेले
टीप-टापकर जुलके
बैठी है वह पांव पसार
अपने उभरे पेट की तरह
चिकने लग रहे खेत पर
फेर रही है हाथ
ढांप रही है
सतह पर रह गये बीजों को
जैसे जांच रही हो
धड़कन
गमक रहा है खेत और औरत।
सूचना: हमारे साथी राजेश सकलानी इधर एक श्रृखंला शुरु कर रहे हैं। जो किन्हीं भी दो कवियों की एक ही विषय वस्तु को लेकर लिखी गयी कविताओं पर केन्द्रित है। कविताओं पर उनकी टिप्पणी भी होगी। बकोल राजेश सकलानी, "ये कविताएं तुलना के लिए एक साथ नहीं रखी जायेगीं। दो भिन्न कविताओं में एक से विषय या बिम्ब या वस्तु कौतुहल तो जगाते हैं। रचनाकारों के मस्तिष्क में कैसे भिन्न किस्म की डालें विकसित होती हैं ? कुछ भिन्न किस्म के पत्ते, कुछ भिन्न किस्म की फुनगियां विकसित होती हैं। कवि की अपनी निजता साफ तरह से निकल कर आती हैं। रचना का जादू चमक उठता है। इस तरह की भिन्न कविताओं को आमने-सामने देखकर।"
लेबल:
कविता,
ब्लाग पर,
महेश चंद्र पुनेठा
Saturday, May 24, 2008
भाषा संवाद का एक माध्यम है
(भाषा का सीधा-सीधा संबंध साहित्य से है और साहित्य वही जो हमारे दैनिक जीवन को सम्प्रेष्रित करे। भाषा पर चंद्रिका के विचार यहां इस बहस को जन्म दे रहे है कि साहित्य के सरोकार क्या है ? उसका जन जीवन से क्या लेना देना है ? चंद्रिका युवा है। गम्भीरता से विचार करते हैं। दखल की दुनिया, उनके द्वारा जारी ब्लाग इस बात का गवाह। हिन्दी रचनाजगत और रचनाकारों से संवाद की उनकी पहल का स्वागत है।)
चंद्रिका - 09766631821
मेरे कुत्ते ने आज दूध नहीं पिया!
वह गोश्त चाह रहा था!
पर उसका गोश्त मांगना।
परसों मेरी बेटी के झींगा मछली मांगने जैसा नहीं था।
बेटी - बेटी थी।
कुत्ता - कुत्ता था।
भाषा की इस बहस में अभी तक की प्रविष्टियाँ बतौर साहित्यकार आयी है। भाषा का मतलब सम्प्रेषणियता से ही है पर सिर्फ़ सम्प्रेषणियता नहीं। सम्प्रेषणियता से भी ज्यादा जरूरी होता है उसका भाव। साहित्य के अर्थ में ये मायने और भी बढ़ जाते हैं। भाषा में भावनिहित अर्थ ही सम्प्रेषक के मायने को सही अर्थों में प्रेषित करता है। क्योंकि भाषायी प्रभाव मूलत: मनोवैज्ञानिक तरीके से परिलक्षित होता है। एक ही भाषा में बोली गयी बात अपने-अपने सच का एक पाठ रचती है।
जैसे सद्दाम को हुई फ़ांसी। सद्दाम हुए कुर्बान। या, अफजल की फ़ांसी टली। अफ़जल को फिर बख्सा गया। या, उत्तराखन्ड में पत्रकार प्रशांत राही की गिरफ्तारी पर आये समाचारों की भाषा। या, दिन-प्रतिदिन के अखबारों की भाषा को आप देख सकते हैं। झूठ कौन बोल रहा है? सम्प्रेषणियता कहाँ नहीं हो रही है? पर एक ही समाचार में एक ही भाषा में छिपे भाव अलग-अलग हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी हमारे यहां भी और पूरी दुनिया के स्तर पर भी रूलिंग क्लास की भाषा बन चुकी है। जिसको लेकर अक्सर हिन्दी प्रेमी लोग गालियाँ दिया करते हैं। यहां इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी भाषा का विस्तार सम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया है और इसी के साथ ही संभव हुआ है। जो आज प्रत्यक्ष रूप में बेशक न दिखायी दे रहा हो पर परोक्ष रूप में मौजूद है। और अंग्रेजी उसकी सहायता कर रही है। परन्तु यहां यह भी देखना है कि जो चिन्तन अंग्रेजी में हुआ है वैसा अन्य भाषा में नही है, क्यों ? कारण स्पष्ट है, यहाँ चिन्तन का अर्थ किसी भाषा की लेखनी से ही नहीं है बल्कि उस समाज, जिसकी यह भाषा है, दर्शन से भी है। भाषा का सीधा-सीधा सम्बंध उस समाज से है जिसमे वह बोली जा रही है, सोची जा रही है होती है। अब हिन्दी को ही लें हिन्दी भाषी समाज में या कहें मुख्यधारा के भारतीय समाज में आध्यात्म वादी दर्शन इतना हावी रहा है कि वैज्ञानिक तरीके से बहुत कम सोचा गया। यानि मानवीय समस्या का हल मानव समाज से दूर जाकर परलोक में खोजने की कोशिश की गयी। जबकि ये अपने आप में स्पष्ट है कि दुनिया की 1/6 जनसंख्या होने के बावजूद भी हमने रोशनी के लिये ढिबरी तक नहीं बनायी।
भाषा का निर्माण एवं विकास उत्पादन और उत्पाद की उपयोगिता पर भी निर्भर करता है। जब हमने रेलगाड़ी नहीं बनायी तो उसे लोह चक वाहिनी कहने की जिद कैसा हास्य पैदा करती है, यह किसी से छुपा नहीं है। फिर भी चुटिया धारी मानसिकता ऐसी ही जिद के साथ होती है, यह भी हर कोई जानता ही है। स्पष्ट है कि उत्पादन के महत्व पूर्ण रूप में ही भाषा का विकास निर्भर करता है। यदि किसी समाज में खोज, निर्माण, अविष्कार अधिक होगा, मूल रूप से उसी भाषा में उनका नामकरण किया जायेगा। इसके बाद भारतीय भाषा संस्थान के अलसाये हुए लोग भले ही कम्प्युटर को संगणक, माउस को चूहा कहते रहे। उससे सिर्फ उनकी आत्मतुष्टि ही हो सकती है पर उस शब्द या भाषा की स्थापना नहीं।
भाषा के विकास के लिये मौलिक चिंतन, शोध, अविष्कार निर्माण की जरूरत होती है। फिर भारत जैसे बहुभाषी समाज में हिन्दी भाषा के लोग अन्य भारतीय भाषाओं को ही सीखने की जहमत नहीं उठाना चाहते। तेलगू के बरबर राव के अलावा हिन्दी पाठक तेलगू के ही कितने अन्य कवि लेखक को जानते है? यही हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का वर्चस्व है। यही कारण है कि हिन्दी के कुछ विद्वान हिन्दी को दुनिया की दूसरे नम्बर पर बोली जाने वाली भाषा और हिन्दू को सबसे बडी जनसंख्या और हिन्दोस्तान को देश का सबसे बडा और गर्व से लिया जाने वाला नाम मानते है। इस बात का भी कई लोगों को मलाल है कि बांगला साहित्य में पाठक हिन्दी साहित्य के पासंग बराबर नहीं है। अरे भई बांगला के लेखक कवि अपनी कलम सिर्फ दिल्ली में या कलकत्ता में बैठ कर कागज पर नही उतारते बल्कि वे खुद सडकों पर भी उतरते हैं, जनता के लिये। नंदीग्राम के मसले पर इसे स्पष्ट देखा जा सकता है।
हमारे गांव में लोगों को यह नहीं पता है कि प्रेमचद के बाद भी कहानी-वहानी लिखि गयी या, लिखी जा रही है। वे नहीं जानते उदय प्रकाश कौन है ? या हिन्दी में कौन-कौन लेखक हैं ? प्रेम चंद को इसलिये जानते हैं क्योंकि जिस क्लास तक वे पढते हैं, प्रेमचंद की पूस की रात या कफ़न पढा ही दी जाती। पर बंगला के साथ यह नहीं है। आज के उपभोक्ता वादी युग में जहा एक खास संस्क्रिति के विकास और बचाव के लिये पूरा संचार माध्यम जुटा है लेखक जनता से जुडकर नही लिखेगा या उसकी लेखनी में जन समस्यायें नहीं होगी, तो पाठक कैसे उन्हें अपनी रचना समझेगा ? जब तक रचनाओं में पात्र के रुप में वह खुद नही होगा या मह्सूस नहीं करेगा तब तक आप क्या उम्मीद करते है ?
इस बात का कोई मायने नहीं है कि फैलती संचार माध्यमों की व्यवस्था साहित्य के विकास में बाधक है। विदेशों में संचार माध्यम हमसे कमजोर नही हैं पर साहित्य पढना भी इस तरह से बंद नही हुआ है। असल बात है कि सामाजिक स्थितियाँ विकट होने के बावजूद भी हिन्दी भाषा में सिर्फ शिल्प के स्तर पर गुल खिलाये जाते रहे हैं। गरम कोट पहन कर आदमी विचार की तरह कोरे कागजों पर चल रहा होता है।
चंद्रिका - 09766631821
मेरे कुत्ते ने आज दूध नहीं पिया!
वह गोश्त चाह रहा था!
पर उसका गोश्त मांगना।
परसों मेरी बेटी के झींगा मछली मांगने जैसा नहीं था।
बेटी - बेटी थी।
कुत्ता - कुत्ता था।
भाषा की इस बहस में अभी तक की प्रविष्टियाँ बतौर साहित्यकार आयी है। भाषा का मतलब सम्प्रेषणियता से ही है पर सिर्फ़ सम्प्रेषणियता नहीं। सम्प्रेषणियता से भी ज्यादा जरूरी होता है उसका भाव। साहित्य के अर्थ में ये मायने और भी बढ़ जाते हैं। भाषा में भावनिहित अर्थ ही सम्प्रेषक के मायने को सही अर्थों में प्रेषित करता है। क्योंकि भाषायी प्रभाव मूलत: मनोवैज्ञानिक तरीके से परिलक्षित होता है। एक ही भाषा में बोली गयी बात अपने-अपने सच का एक पाठ रचती है।
जैसे सद्दाम को हुई फ़ांसी। सद्दाम हुए कुर्बान। या, अफजल की फ़ांसी टली। अफ़जल को फिर बख्सा गया। या, उत्तराखन्ड में पत्रकार प्रशांत राही की गिरफ्तारी पर आये समाचारों की भाषा। या, दिन-प्रतिदिन के अखबारों की भाषा को आप देख सकते हैं। झूठ कौन बोल रहा है? सम्प्रेषणियता कहाँ नहीं हो रही है? पर एक ही समाचार में एक ही भाषा में छिपे भाव अलग-अलग हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी हमारे यहां भी और पूरी दुनिया के स्तर पर भी रूलिंग क्लास की भाषा बन चुकी है। जिसको लेकर अक्सर हिन्दी प्रेमी लोग गालियाँ दिया करते हैं। यहां इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजी भाषा का विस्तार सम्राज्य विस्तार की प्रक्रिया है और इसी के साथ ही संभव हुआ है। जो आज प्रत्यक्ष रूप में बेशक न दिखायी दे रहा हो पर परोक्ष रूप में मौजूद है। और अंग्रेजी उसकी सहायता कर रही है। परन्तु यहां यह भी देखना है कि जो चिन्तन अंग्रेजी में हुआ है वैसा अन्य भाषा में नही है, क्यों ? कारण स्पष्ट है, यहाँ चिन्तन का अर्थ किसी भाषा की लेखनी से ही नहीं है बल्कि उस समाज, जिसकी यह भाषा है, दर्शन से भी है। भाषा का सीधा-सीधा सम्बंध उस समाज से है जिसमे वह बोली जा रही है, सोची जा रही है होती है। अब हिन्दी को ही लें हिन्दी भाषी समाज में या कहें मुख्यधारा के भारतीय समाज में आध्यात्म वादी दर्शन इतना हावी रहा है कि वैज्ञानिक तरीके से बहुत कम सोचा गया। यानि मानवीय समस्या का हल मानव समाज से दूर जाकर परलोक में खोजने की कोशिश की गयी। जबकि ये अपने आप में स्पष्ट है कि दुनिया की 1/6 जनसंख्या होने के बावजूद भी हमने रोशनी के लिये ढिबरी तक नहीं बनायी।
भाषा का निर्माण एवं विकास उत्पादन और उत्पाद की उपयोगिता पर भी निर्भर करता है। जब हमने रेलगाड़ी नहीं बनायी तो उसे लोह चक वाहिनी कहने की जिद कैसा हास्य पैदा करती है, यह किसी से छुपा नहीं है। फिर भी चुटिया धारी मानसिकता ऐसी ही जिद के साथ होती है, यह भी हर कोई जानता ही है। स्पष्ट है कि उत्पादन के महत्व पूर्ण रूप में ही भाषा का विकास निर्भर करता है। यदि किसी समाज में खोज, निर्माण, अविष्कार अधिक होगा, मूल रूप से उसी भाषा में उनका नामकरण किया जायेगा। इसके बाद भारतीय भाषा संस्थान के अलसाये हुए लोग भले ही कम्प्युटर को संगणक, माउस को चूहा कहते रहे। उससे सिर्फ उनकी आत्मतुष्टि ही हो सकती है पर उस शब्द या भाषा की स्थापना नहीं।
भाषा के विकास के लिये मौलिक चिंतन, शोध, अविष्कार निर्माण की जरूरत होती है। फिर भारत जैसे बहुभाषी समाज में हिन्दी भाषा के लोग अन्य भारतीय भाषाओं को ही सीखने की जहमत नहीं उठाना चाहते। तेलगू के बरबर राव के अलावा हिन्दी पाठक तेलगू के ही कितने अन्य कवि लेखक को जानते है? यही हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का वर्चस्व है। यही कारण है कि हिन्दी के कुछ विद्वान हिन्दी को दुनिया की दूसरे नम्बर पर बोली जाने वाली भाषा और हिन्दू को सबसे बडी जनसंख्या और हिन्दोस्तान को देश का सबसे बडा और गर्व से लिया जाने वाला नाम मानते है। इस बात का भी कई लोगों को मलाल है कि बांगला साहित्य में पाठक हिन्दी साहित्य के पासंग बराबर नहीं है। अरे भई बांगला के लेखक कवि अपनी कलम सिर्फ दिल्ली में या कलकत्ता में बैठ कर कागज पर नही उतारते बल्कि वे खुद सडकों पर भी उतरते हैं, जनता के लिये। नंदीग्राम के मसले पर इसे स्पष्ट देखा जा सकता है।
हमारे गांव में लोगों को यह नहीं पता है कि प्रेमचद के बाद भी कहानी-वहानी लिखि गयी या, लिखी जा रही है। वे नहीं जानते उदय प्रकाश कौन है ? या हिन्दी में कौन-कौन लेखक हैं ? प्रेम चंद को इसलिये जानते हैं क्योंकि जिस क्लास तक वे पढते हैं, प्रेमचंद की पूस की रात या कफ़न पढा ही दी जाती। पर बंगला के साथ यह नहीं है। आज के उपभोक्ता वादी युग में जहा एक खास संस्क्रिति के विकास और बचाव के लिये पूरा संचार माध्यम जुटा है लेखक जनता से जुडकर नही लिखेगा या उसकी लेखनी में जन समस्यायें नहीं होगी, तो पाठक कैसे उन्हें अपनी रचना समझेगा ? जब तक रचनाओं में पात्र के रुप में वह खुद नही होगा या मह्सूस नहीं करेगा तब तक आप क्या उम्मीद करते है ?
इस बात का कोई मायने नहीं है कि फैलती संचार माध्यमों की व्यवस्था साहित्य के विकास में बाधक है। विदेशों में संचार माध्यम हमसे कमजोर नही हैं पर साहित्य पढना भी इस तरह से बंद नही हुआ है। असल बात है कि सामाजिक स्थितियाँ विकट होने के बावजूद भी हिन्दी भाषा में सिर्फ शिल्प के स्तर पर गुल खिलाये जाते रहे हैं। गरम कोट पहन कर आदमी विचार की तरह कोरे कागजों पर चल रहा होता है।
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