Wednesday, June 18, 2008
जवानी के इन दिनों में
बचपन के उन दिनों में
नहीं रहा उतना बच्चा
जितना खरगोश
जितनी गिलहरी
जितना धान का पौधा
जवानी के इन दिनों में
नहीं हूं इतना जवान
जितना गाय का बछड़ा
अमरुद का पेड
फ़िर बुढ़ापे के उन दिनों में
कैसे होऊंगा ऐसा बूढ़ा
जितना बरगद का पेड़ ।
इससे पूर्व यह कविता बया के दिसम्बर २००७ वाले अंक में प्रकाशित हुई है. हालांकि १९९६ में लिखी गयी थी.
Tuesday, June 17, 2008
अपने वतन का नाम बताओ- चार
(यात्रा संस्मरण की यह अंतिम किश्त है. पूर्व प्रकाशित अंशों को आप यहां पढ सकते है - अपने वतन का नाम बताओ, अपने वतन का नाम बताओ- दो, अपने वतन का नाम बताओ- तीन )
सुबह पांच बजे ही लमखागा की ओर बढ़ लिये यह सोच कि किसी तरह सुबह नौ बजे तक पास पर पहुंच जायें तो पास पार करना आसान हो जायेगा। सूरज का ताप जब तक रात भर सख्त हो चुकी बर्फ को गलाने न लगे, चलना आसान होता। वरना पांव गहरे तक धंसता, जिसको निकालने में ही इतनी ऊर्जा खत्म हो जाती कि पास पार कर लेना संभव ही नहीं। हिमाचल के पिन पार्वती पास का यह अनुभव जल्द से जल्द बर्फ भरे रास्तों को पार कर लेने के लिए सचेत करता रहता है।
जहां चल रहे थे, पूरा पहाड़ कच्चा था। कच्चे पहाड़ पर चलते हुए डर लगता। एक पत्थर सरका नहीं कि ढेरों पत्थरों के सरकते जाने का खेल रास्ते भर देखते ही आये थे। बड़ी बड़ी शिलायें भी हल्के से इशारे पर सरक जातीं। जिस धार पर चढ़े थे उसके अन्तिम छोर पर लम्बा मैदान दिखायी दिया। सफेद-भूरी बर्फ की चादर बिछी हुई थी। ग्लेशियर का कच्चापन भी जगह जगह झांक ही रहा था, जिसने किसी भी तरह की मस्ती करते हुए भी सचेत रहने की हिदायत दे दी- पोली बर्फ कब आगे बड़ने से रोक दे और न जाने पाताल के किस कोने में स-शरीर पहुंच जायें। बर्फ भरे मैदान को पार किया। अभी तक का सबसे कठिन रास्ता शुरु हो गया।
एकदम तीखी चढ़ाई। पहाड़ का वही कच्चापन। पत्थरों के लुढ़कने का खतरा यहां पहले से भी ज्यादा दहशत भरा। मजबूरी थी हिम्मत नहीं छोड़ना और साथियों को हिम्मत बंधाना। एक दूसरे के सहारे आगे बढ़ते रहे। कहीं-कहीं जानवरों की मानिंद चलना पड़ा। पास पर पहुंचे चुके तिरेपन और धर्म सिंह अपना सामान वहीं पटक उन साथियों की मद्द के लिए नीचे उतरने लगे, जो हिम्मत छोड़ सकते थे।
किशन की चाल बड़ी ही मस्त थी। सबसे ज्यादा बोझ उसी के कंधों पर रहा होगा, तो भी वह चाहता तो तेज गति से निकलकर पास पर सबसे पहले पहुॅच सकता था। पर इस दौरान देख चुके थे कि पूरी टीम के साथ आगे बढ़ना वह अपनी जिम्मेदारी समझता था। बेशक उसका रास्ता वह नहीं होता जहां से दल के अन्य साथी गुजर रहे होते तो भी आखिरी साथी भी उसकी निगाहों में हमेशा रहता। यही वजह थी कि किशन का रास्ता किसी दूसरे का रास्ता नहीं हो सकता था। हम लोग जिस वक्त किसी जगह से चलना शुरु कर रहे होते उस वक्त वह इतमीनान से आस-पास की चोटियों को निहारता। डायरी निकालता। आवश्यक विवरण नोट करता। आस-पास की स्थितियों को स्केच करता और फिर हमारे समानान्तर ही उस ओर को चलने लगता जहां से उसकी निगाहें हमारे ऊपर पड़ रही होती।
टॉप पर पहुंचा हुआ विमल ऊपर चढ़ते साथियों की तस्वीर कैद करता रहा। पास की इस आखिरी चढ़ाई में मैं और महेश किशन के पीछे ही हो लिये। हमारा यह फैसला दूसरी ओर फंसे हुए साथियों को देखने के बाद लिया गया फैसला था। अमरसिंह, अनिल काला एवं आदित्य जिस ओर से चढ़ रहे थे, उसी रास्ते पर होकर आगे निकल चुके साथी चढे थे। सो रास्ता खोजने की जहमत से तो बचा जा सकता था पर पहले गुजर चुके साथियों के पांवों ने वहां टिके पत्थरों और सरकती मिट्टी को भी ढीला कर दिया था।
किशन का रास्ता तो और भी कठिन लगा। लेकिन किशन का साथ हिम्मत बंधाता रहा। आगे-आगे किशन, बीच में महेश और पीछे मैं। महेश को पत्थरों पर चलने में ज्यादा तकलीफ हो रही थी। अभ्यास न होने की वजह से उसका शरीर बार-बार डगमगा रहा था। कंधें में झूलते पिट्ठू की वजह से भी उसके लिए संयत होकर चलना मुश्किल हो रहा था। कई बार उसके पांवों से सरकते पत्थर मेरे पास से निकलते रहे। किशन के लिए भी बढ़ना आसान नहीं हो रहा था। पर वह तो पर्वतारोही था। अगर कहूं कि माऊंटेन मैन (पहाड़-पुत्र) तो ज्यादा ठीक होगा। उसके पांव इतना चुपके से आगे बढ़ते कि पांवों के नीचे से गुजर चुके पत्थरों को आभास ही नहीं होता कि कोई उनके ऊपर से गुजर गया। किशन की एकाग्रता उसे वो सही पत्थर ढूंढ लेने में मद्द करती जो जल्दी से सरकता नही।
जैसे तैसे लमखागा की ऊंचाई पर एक-एक कर पहुंचते रहे। पास पर थोड़ी देर सुस्ताये। नीचे की ओर झांका तो वही सीधी दीवार यहां भी। इस तरफ बर्फ भी ज्यादा। सूरज की रोशनी ठीक से न पड़ने की वजह से बर्फ की पूरी दीवार ज्यों की त्यों। नीचे दिखायी देता वही बर्फीला मैदान इधर भी ।
लमखागा को शंकुवाकार पास कहा जा सकता है। दोनों ओर से कुछ कोणों पर उठती हुई दीवार ऊपर जिस जगह पर मिल रही है वही टॉप। बर्फ की सीधी दीवार पर कुछ दूर रस्सी की मद्द से उतरे फिर फिसलते हुए सीधे बर्फ के मैदान में पहुंचे । बर्फ पर फिसलना निश्चित ही रोमांचकारी है, बशर्ते कोई दुर्घटना न घटे। एक के बाद एक, हर एक का फिसलना देखते रहे।
बर्फिले मैदान पर पांव धंसनं शुरु हो चुके थे। मौसम साफ था। धूप चमक रही थी। पिछले दिन को देखकर अनुमान लगाना कठिन था कि मौसम इस कदर मोड़ ले लेगा। लमखागा पार हो चुका था। धर्म सिंह का चेहर खिल गया। अपनी स्मृतियों पर उसे भरोसा था। साथियों के चेहरे पर थकान के बावजूद चमक दिखायी देने लगी। बर्फ पर ज्यादा देर रुकना ठीक नहीं- सोचकर आगे बढ़ने लगे। कुछ दूर तक बढ़े-बढ़े पत्थर दिखायी दिये। मानो बर्फ के ऊपर किसी ने बड़े ही इतमीनान से उन्हें रखा हो। ग्लेशियरों के नीचे बहते पानी की आवाज कहीं-कहीं सुनायी देती। मिट्टी और बर्फ इस कदर गुंथे हुए थे कि अनुमान मारना कठिन था कि बर्फ है या मिट्टी। ताजे उभरते 'क्रैवासेस" भी दिखायी देते रहे। पत्थरों के आकार बदलने लगे। पतली सलेट-नुमा पत्थर- काले, भूरे रंग के। भूरा रंग ऐसा मानो घड़े का रंग। उनको पार कर ही हल्की-सी घास दिखायी दी। टीन के डिब्बे, जली हुई लकड़ियां उकसा रही थी कि टैन्ट लगा लेना चाहिए। सुबह का सूरज अपनी पूरी रोशनी बिखेरने लगा। जुलाई महीने में लमखागा हिमाचल की ओर वाले बेस पर धूप अच्छी लगी। अब रास्ते की दुर्गमता का कोई खौफ नहीं । आराम से धूप सेंकते रहे।
जब चले तो बस्पा का बांयां छोर पकड़ लिया और सफेद खण्ड के नजदीक दुमती पर रुके। बस्पा के दूसरी ओर आईटीबीपी की चैक पोस्ट दिखायी दे रही थी। सफेद खण्ड से पहले नीथल पर विश्राम किया, जहां रोहणु का गद्दी अपने डेरे में मौजूद था। गद्दी बताता रहा कि नदी पार जो खण्ड है वहां से नेलंग जा सकते हैं। नेलंग में शायद अब कोई नहीं रहता। भारत-चीन युद्ध के दौरान ही नेलंग वालों को वहां से विस्थापित कर हर्षिल के पास बगौरी में बसा दिया गया है। उसी छोर पर यदि थोड़ा पीछे चलें तो गंगोत्री खण्ड है, जहां से हम आगे निकल आये थे। सफेद खण्ड के नजदीक जहां रुके, कैम्प नहीं किया जा सकता था। पत्थर ही पत्थर चारों ओर बिखरे हुए थे। मजबूरी थी- रुकना ही पड़ेगा। सफेद खण्ड पार नहीं होने देगा। बहाव इतना तेज कि लाख सचेत हों तो भी अपने साथ खींच ही लेगा। पानी के साथ बहते पत्थरों की आवाज भी सुनायी दे रही थी। अनुभव कह रहा था कि सुबह के वक्त पार करना ही ठीक रहेगा। उस वक्त पानी कम हो जायेगा और बहाव भी। यदि पहले से मालूम होता कि सफेद खण्ड को पार करना संभव न होगा तो पीछे छोड़ आये मैदान पर ही रुका जा सकता था। पर अब पीछे कौन लौटे और वहीं पत्थरों को खोदकर टैन्ट लगाने भर की जगह को समतल करने लगे। अगले दिन दुमती से आगे बढ़े, सौन्च्यू खण्ड को पार किया तो घास का मैदान और भोज-पत्रों के वृक्ष दिखायी देने शृरु हो गये। रा
नी गण्डा के पुल से बस्पा का किनारा बदल गया। लकड़ी के पुल से नदी को पार किया और दाहिने छोर पर चलने लगे। नदी का बांया छोर भोज-पत्रों के घने जंगलों से घिरा हुआ था। मेरी अभी तक की स्मृतियों में भोज-पत्रों का इतना घना जंगल कहीं और नहीं। वृक्ष के आधार तने का कत्थई रंग और उनकी छाया का सम्मिलित प्रभाव स्मृतियों में दर्ज है। भोज-पत्रों का जंगल उधर बुलाता रहा, पर वहां रास्ता ही नहीं। पत्थरीली चट्टान सीधे बस्पा में उतरती है। बस्पा के इस किनारे ही आगे बढ़ते रहे और नागेस्ती चैक-पोस्ट पहुंचे, जहां से छितकुल दिखायी देने लगा।
पहाड़ों की जिन्दगी ही अपने आप में कठिन है फिर हम तो पहाड़ों के पहाड़ पर चल रहे थे। दरकते पहाड़, फटते ग्लेशियर, उफनते दरिया, पत्थरों भरे रास्ते और कठोर चट्टानों पर चलते हुए यदि दृष्टि की एकाग्रता चूकी तो पहाड़ अपनी गोद में ले लेता और छोड़ता नहीं।
यह सब कहने के लिए मैं पहाड़ों की यात्रा नहीं करता रहा। पहाड़ों की खूबसूरती मेरे लिए सिर्फ इतनी ही है, जितनी एक रेगिस्तानी के लिए रेगिस्तान की। जंगलों में जीवन जीते लोगों के लिए जंगलों की। समुद्र के किनारे बसे लोगों के लिए समुद्र की। रसूल हमजातोव का दागिस्तान मेरे भीतर उत्तराखण्ड बनकर जिन्दा रहे। राज्य का नाम मेरी पहचान को न मिटा सके। अपने दागिस्तान का जिक्र करते हुए रसूल एक कथा सुनाता है:
एक बुजुर्ग पहाड़ी आदमी ने जवान पहाड़िये से पूछा-तुमने अपनी जिन्दगी में आग देखी है, कभी उसमें से गुजरे हो ?
मैं उसमें कूदा था जैसे पानी में।
बर्फ जैसे ठण्डे पानी से कभी तुम्हारा वास्ता पड़ा है, कभी उसमें कूदे हो ?जैसे आग में।
तुम बालिग हो चुके पहाड़ी आदमी हो अपने घोड़े पर जीन कसो, मैं तुम्हे पहाड़ों में लेचलता हूं।
जलंधरी गाड़ को पार करते हुए लमखागा को पार कर गये। कोरु खण्ड, सफेद खण्ड और सौन्च्यू खण्ड में बहती हुई बर्फ को उसमें उतरकर ही पार किया। बेशक सांगली का रहने वाला पाटील पहली दफा पहाड़ों के इतना करीब गया। बेशक अलीगढ़ और उसके आस-पास रहने वाले आदित्य एवं महेश जिस वक्त पास के एकदम नजदीक पहुंचने-पहुंचने को होते हुए भी हिम्मत छोड़ने लगे हो, पर कमर तक ठोस बर्फ में तो उतर ही चुके थे। अपनी छ: फुटी लम्बाई के बावजूद भी सौन्च्यू खण्ड को पार करते हुए अपने कच्छे को भीगने से वह भी नहीं बचा पाया था।
दागिस्तानी बूढ़ा यदि यह सब देख रहा होता तो काकेशिया की पहाड़ियों से चिल्लाता-अपने वतन का नाम बताओ पहाड़ी युवकों, मैं दागिस्तानी हूं।
हम बालिग हो चुके पहाड़ी थे।
बस्पा नदी के पार दुमती चैक-पोस्ट इस रोमांचक कार्यवाही को देखते जवानों ने हाथ हिलाकर उत्साह बढ़ाया था। पहाड़ की मिट्टी हमारे छिद्रों से हमारे भीतर घुस चुकी थी। कहीं कच्ची और कहीं ठोस होती चट्टानों को हमारे पांवों ने स्पर्श किया थां गाड़, गधेरों में बहती बर्फ हमें आग के नजदीक रहने को मजबूर कर चुकी थी। बुग्यालों की हरी घ्ाास भेड़ वालों की मुस्कराहटों के रुप में हमारे भीतर दर्ज हो चुकी थी। लमखागा के पार बारिस न हो पाने की वजह से बुग्यालों का मटमैलापन रोहणु के गद्दी को ही नहीं हमें बेचैन करता रहा। लमखागा की यह कैसी दीवार है जो बारिस को सोख लेती है ?
लमखागा पर चढ़ते हुए तो बेस तक बारिस की वजह से ही चलना आसान नहीं हो रहा था। पर उसको पार करते ही मात्र एक दिन की दूरी पर ही मौसम इस कदर मोड़ लेगा, आश्चर्य होता।
लमखागा के पार हिमालय की जसकार रेंज शुरु हो चुकी थी। भूरे पहाड़, जहां बारिस यदा-कदा ही होती। हां, बर्फानी हवाएं पूरी मस्ती में बहती, जिसका सूखापन हमारे चेहरे की त्वचा को फाड़ चुका था। जब घर लौटे तो कन्धों पर उचकते बच्चों ने पूछा था-तुम्हारी नाक पर जी खूनी पपड़ी क्या भालू की मार है ?नहीं बच्चों, यह बर्फ के थपेड़ों का असर है।
Monday, June 16, 2008
अपने वतन का नाम बताओ -तीन
विजय गौड
सबसे लम्बा नदी का रास्ता
सबसे ठीक नदी का रास्ता
मानसरोवर सिन्धु का घर है
ब्रहमपुत्र का उद्गम भी
सबसे लम्बा सिंधु का रास्ता
सबसे ठीक सिंधु का रास्ता।
लमखागा वार जलंधरी और लमखागा पार बस्पा। भागीरथी-जलंधरी का संगम छोड़कर चले थे, बस्पा-सतलुज का संगम पार करेगें। नदी का लम्बा रास्ता ही भेड़ चरवाहों का रास्ता है।
भेड़-चरवाहों की सीमा क्यारकोटी से आगे बढ़ लिये। लमखागा भी एक सीमा है। उसे भी तोड़कर आगे बढ़ जायेगें। ये सीमायें किसी धरती-पुत्र ने निर्धारित नहीं की। ये प्राकृतिक सीमायें हैं। इन सीमाओं का अतिक्रमण किसी कानून का उलंघन नहीं होना चाहिए।
जलंधरी के साथ-साथ जलंधरी के उद्गम तक पहुंचेगें । जलंधरी, भागीरथी में मिलकर भागीरथी हो गयी। ढेरों जल-धारायें जलंधरी में मिलकर जलंधरी होती रही। वो जल-धारा कौन सी है जो अपने उद्गम तक भी जलंधरी कहलायेगी? नदियों के उद्गम को लेकर कोई निश्चित हो सकता है ? क्या गंगोत्री ग्लेश्यिर भागीरथी का उद्गम है ? गोमुख ही क्या वह जगह है जहां से भागीरथी निकल रही है ? तो फिर अलकनन्दा का उद्गम अरवा ग्लेशियर क्यों नहीं ? पिढडारी ग्लेशियर क्यों पिण्डर का उद्गम कहलाये जबकि मींग गदेरा पिण्डर में मिल रहा हो। जलंधरी के उद्गम तक पहुंच भी पायेगें क्या ?
धर्म सिंह तो पूर्ण-रूपा जलंधरी को पार करते हुए ही भटक गया था मार्ग। तो फिर जलंधरी के उद्गम तक कौन पहुंचायेगा ? जलंधरी के उद्गम को कोई जानता है क्या ? सूखा ताल तक पहुंची हैं ढेरों जल-धारायें। तो सूखा ताल ही है क्या उद्गम ? पर वहां तो इतना जल ही नहीं। कुछ जल-धारायें हैं जो वहां से निकलकर अपने-अपने मार्ग पर आगे बढ़ती हैं। इन धाराओं का सम्मिलित रुप ही जलंधरी है।
सूखा ताल से काफी आगे निगाह दौड़ाते हुए जलंधरी को ढूंढ चुका धर्म सिंह चिल्लाया था- वो रही जलंधरी। बर्फ के टुकड़े जो जलंधरी नहीं हो पाये, रास्तों के किनारे-किनारे ग्लेशियरों की शक्ल में मौजूद थे। कहीं-कहीं जिन पर चढ़ कर और कहीं जिनसे बच-बचाकर आगे बढ़े थे। कुछ तो पूरे पहाड़ की शक्ल में जलंधरी पर छाये हुए थे, जिनके नीचे से बहती हुई जलंधरी को देखकर भ्रम होता- मानो यही है उद्गम। किसी भी ऐसी जगह का फोटो पहाड़ों से दूर रहे व्यक्ति के लिए गंगा के उद्गम को देखने की तृप्ति भी दे सकता है। रात भर क्यारकोटी पर भालू का डर, हम एक दूसरे को दिखाते रहे। भालू तो हमने नहीं देखा पर भेड़ वालों से मालूम हुआ, बीती रात भालू ने माल (भेड़) पर हमला बोला। कुत्ते झपड़ पड़े। माल का नुकसान तो नहीं पहुंचा पाया पर एक कुत्ते को घायल कर गया।
घायल झबरा कुत्ता हमारी ओर ताकता रहा। क्यारकोटी की निर्जनता को तोड़ने के लिए शुरु किया गया भालू के डर वाला खेल स्लीपिंग बैग में दुबकने से पहले तक चलता रहा। सुबह के वक्त तेज धूप क्यारकोटी में बिखर गयी थी। पहाड़ों से उतरती जल-धारा को पार किया और लमखागा की ओर बढ़ लिये। जलंधरी के किनारे-किनारे पत्थरों भरा रास्ता शुरु हो चुका था, लमखागा के बेस तक जिसने हमारी हालत पस्त कर दी। रास्ता भी क्या, चारों ओर बिखरे पत्थरों पर, जहां कहीं मार्ग चिन्ह (पत्थरों पर रख हुआ पत्थर) दिखायी देता, उसी ओर बढ़ लेते। एक लम्बी दूरी तय करने के बाद अब न तो कहीं मार्ग चिन्ह और न ही आगे कोई ऐसी जगह शेष थी, जहां से रास्ता बनाया जा सके।
जलंधरी के पार, दूसरी ओर के पहाड़ की ओर निगाह उठायी- खड़ी चट्टान थी, जिस पर मिट्टी सरकती दिखायी दे रही थी। उधर से निकलते तो तय था हम में से कोई भी अपने जीवन की यात्रा का अन्तिम पड़ाव डाल लेता। पहाड़ पर पांव रखने भर की भी जगह नहीं। जिधर चल रहे थे वहीं रास्ता तलाशा जाये। थोड़ा ऊपर की ओर एक बड़ा-सा ग्लेशियर दिखायी दिया, नीचे सरक कर आया हुआ था। दूरी हलांकि ज्यादा नहीं थी तो भी ग्लेशियर के उस छोर तक, जहां से उसे पार करना संभव जान पड़ रहा था, पहुंचने के लिए कुछ क्षणों का विश्राम लिया। स्थिति को ठीक तरह से समझने का प्रयास भी। फिर ग्लेशियर को पार कर गये और जलंधरी के साथ-साथ चलने लगे।आगे ऐसी ही एक स्थिति में धर्म सिंह ने तय किया- जलंधरी को पार कर लेना चाहिए और दूसरी ओर के पहाड़ पर बढ़ लिया। पाट काफी चौड़ा था। देखकर लगता था पार करना आसान होगा। पानी में न तो गहराई होगी और न तेज बहाव। पर जलंधरी में बहती हुइ, त्वचा को चीर देने वाली ठंडक से भरी बर्फ और लुढ़कते पत्थरों ने एक दूसरे के सहारे ही आगे बढ़ने की सलाह दी।
दूसरी ओर का रास्ता पत्थरों का रास्ता था। बारिस की हल्की झड़ी लगी हुई थी। पत्थरों पर फिसलन थी। एक-एक कदम संभल-संभल कर बढ़ाना पड़ रहा था। पत्थरों पर चलते हुए कहीं टांगों को लम्बा खींचना पड़ रहा था और कहीं कदमों को बहुत छोटा कर देना पड़ रहा था, जिसकी वजह से शरीर थककर चूर होने लगे। ऊपर से पड़ती हुई बारिस से पिट्ठुओं को बचाने के लिए लगायी गयी पॉलीथीन की बरसाती भी बार-बार पावों में फंसकर रास्ते की दुर्गमता को ओर ज्यादा बढ़ा रही थी।
कहीं कोई थोड़ा सहज मार्ग दिखे तो उधर ही निकल लें।
नदी का किनारा ही एक मात्र सहारा था। दूसरी ओर के पहाड़ की ओर नजर उठना स्वाभाविक ही था जबकि पीछे उस किनारे को छोड़ते हुए भी यही मन:स्थिति थी। लगा कि उस ओर जगह इतनी है जिस पर चलना शायद आसान होता। मन आशंकाओं से भर गया- कहीं गलत रास्ते पर तो नहीं बढ़ रहे हैं!
जलंधरी को पार कर उस ओर जाने की हिम्मत किसी के पास भी शेष नहीं थी। पत्थरों भरा रास्ता हमारी मजबूरी हो गया। पस्त हो चुकने के बाद भी बढ़ते रहना हमारी मजबूरी थी।
पत्थरों भरा रास्ता पार हुआ तो खूबसूरत मैदान दिखायी दिया। रास्ते की नीरसता को उस ऊपर-नीचे लहराते छोटे से मैदान ने तोड़ दिया। पत्थरों के साम्राज्य में हरे घास की उपस्थिति जो सुकून दे सकती है उसे शब्दों में कह पाना संभव नहीं। जाने किसकी पंक्तियां है- 'मैं तो दूब घास हूं", याद आती रही। घास का यह मैदान ही लमखागा को बेस होना चाहिए- पर लमखागा की झलक भी वहां से दिखायी नहीं दे रही थी। अनुभव के आधार पर अनुमान मारा जा सकता था कि यहां रुकने पर अगले दिन बहुत सुबह चलने पर भी लमखागा को पार करना आसान न होगा।
ऊपर उठती हुई तीखी धार पर बढ़े चलो।
शरीर जवाब दे चुके थे। खाने की वो चीजें, जिन्हें रास्ते की नीरसता को तोड़ने के लिए जेबों में रखा हुआ था, को भी देखने का मन नहीं था। सिर्फ पानी था, जो राहत देता। पीछे रास्ता भटक चुके धर्म सिंह पर से विश्वास उठता रहा- कहीं फिर गलत दिशा की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं! पर कोई नया रास्ता, जो जल्दी से हमें उस जगह पहुंचा दे जहां से लमखागा दिखायी देने लगे, उसे खोजने में भटक जाने का खतरा ज्यादा। इसीलिए मजबूरी वश, रास्ते भटक जाने की आशंका को धर्म सिंह के सामने रखते हुए भी उसके पीछे चलते रहना हमारी मजबूरी थी।
तीखी धार को पार कर चुका धर्म सिंह ऊपर से हाथ हिलाता रहा। धर्म सिंह जहां मौजूद था, उससे थोड़ी दूरी पर नीचे उतरना था। दूसरी धार पकड़नी थी। जहां से उतरे, दांये किनारे पर ही बहुत थोड़ी-सी समतल कही जा सकने लायक भूमि दिखायी दी। पहले कभी कोई यात्री दल संभवत: उस जगह पर रुका हो- एक पत्थर पर हरे रंग से 5, जुलाई 1998 लिखा था। आस-पास पैक फूड के टूटे हुए डिब्बे और कुछ ऐसा ही सामान पड़ा हुआ था। पहाड़ के उन निर्जन हिस्सों में, जहां कभी न कभी कोई ऐसा दल पहुंचा हो- पहाड़ जिनके लिए सिर्फ ऐशगाह हो, उनकी एय्याशी के इन निशानों से जाना जा सकता है कि यह कैम्पिंग जगह है ।
सभी बुरी तरह थक चुके थे। रास्ते भर बारिस में भीगते हुए ही चले। पॉलीथीन की बरसातियां भी पिट्ठुओं में रखे सामानों को भीगने से बचा न पायी। अभी तक की यात्रा का यह सबसे लम्बा दिन था। सुस्ताने क्या बैठे कि लमखागा की ओर से बहने वाली हवाओं ने कंपी-कंपी छुटा दी। तय किया गया कि आज का पड़ाव यहीं डाल दिया जाये। पास तो दिखायी नहीं दे रहा था पर मौसम को देखकर अनुमान मारा जा सकता था कि पास के नजदीक ही हैं। ठंडी हवाऐं और बीच-बीच में कहीं आस-पास टूटते बर्फीले पहाड़ों की आवाज खामोशी को तोड़ती रही। चूंकि पास दिखायी नहीं दे रहा था, इसलिए निश्चित किया कि जितना जल्दी हो, अगले रोज सुबह-सुबह ही निकल लेगें। पास न जाने कितना लम्बा हो ? बर्फ न जाने कितनी हो ? धर्म सिंह भी ठीक से कुछ खास नहीं बता पाया। सुबह की बजाय शौच आदि से शाम को ही निवृत हो लिया जाये। शौच की कोई उपयुक्त जगह दिखायी नहीं दी। जहां रुके, वहां से थोड़ी दूरी पर ही एक जलधारा पास की दिशा से बहती आती दिखायी दी जो आगे बहुत नीचे उतरती थी-सूखा ताल में। सूखा ताल नीचे गहरी खाई में था। उसके साथ-साथ ही पहाड़ की यह खड़ी दीवार थी, जिसके किनारे पर खड़े होने की हिम्मत नहीं की जा सकती थी। बहुमंजिला इमारतों की छत के किनारे जैसा खोफ पैदा करते हैं उससे भी कहीं ज्यादा। हम दो विपरीत दिशाओं में बढ़ती धारों के बीच थे। एक जा हमारे दक्षिण-पश्चिम में थी उसमें चढ़कर ही यहां तक पहुंचे थे। दूसरी जो हमारे उत्तर-पूर्व में थी उस पर ही आगे बढ़ना है। इन दोनों की फांक से ही दिखायी दे रहा था सूखा ताल। उत्तर-पूर्व दिशा से ही बढ़ी चली आ रही थी वो जलधारा। दोनों धारों की इस फांक से ही नीचे उतरती हुई सूखा ताल तक। दोनों धारों के कटाव पर ही सरक कर आयी हुई शिलाओं का ढेर। इन शिलाओं पर ही फैलाये थे पांव और सूखा ताल की ओर पीठ कर बैठ गये। सूखा ताल में बिखरा सलेटी रंग मुड़-मुड़ कर देखने को मजबूर करता रहा। बारिस रुक चुकी थी। सूखा ताल का जल उस सलेटी आभा के बीच, बीच-बीच में कहीं-कहीं ऐसा चमकता मानो किसी स्त्री के वस्त्रों पर टंके शीशे चमक रहे हों। सूरज की रोशनी मौजूद ही रही होगी- उस वक्त यह नोटिस ले पाने की जरुरत ही नहीं समझी, शायद स्थिति की भयावता ने इस ओर सोचने का अवकाश ही नहीं दिया हो। पहाड़ के टूटने की आवाजें दहशत भर देने वाली थी। सिर्फ चमकते हुए पानी का बिम्ब ही स्मृतियों में दर्ज है। कच्चे पहाड़ में अटके हुए पत्थरों पर टिकी निगाहें, निगाहों को कहीं ओर स्थिर करने दे ही नहीं सकती थी- अब गिरा कि तब। पानी बेहद ठंडा था। शौच के बाद हाथ पूरी तरह से धो भी पाये या नहीं, कहा नहीं जा सकता।
महेश पर हंसी आती रही, जो सामान्यत:, तम्बाकू बनाने से पहले हाथ को कई बार धोता हो, ऐसी ही हथेलियों पर रगड़ा हुआ तम्बाकू होंठों के नीचे दबाता रहा। यह पहाड़ का सौन्दर्य बोध था। दिन में दो बार नहीं तो एक बार नहाने वाला पिछले तीन दिनों से आंखों पर भी पानी न लगा पाया था। ग्लेशियर से निकलती जलधारा का जल ही पीने में इस्तेमाल होता रहा।
--- जारी
अपने वतन का नाम बताओ -दो
विजय गौड
सुबह 9.00 बजे के आस-पास ही धर्म सिंह हर्षिल पहुंच गया। धर्म सिंह झाला का रहने वाला है। लमखागा का रास्ता उसका देखा हुआ है। एक बार आईटीबीपी के जवानों के साथ, माल ढुलाई के वक्त लमखागा को पार कर चुका है। इसीलिए हमारा पोर्टर भी ओर हमारा गाइड भी।
तिरेपन ओर किशन भी हमारे सहयोगी ही थे, जो उत्तरकाशी से ही साथ चले थे लेकिन लमखागा का मार्ग नहीं जानते थे। किशन की सलाह पर ही झाला से धर्म सिंह को तय किया। साफ था कि कम से कम कोई तो हो जिसे थोड़ा बहुत ही सही, रास्ते का अंदाजा हो। धर्म सिंह के पहुंचते ही पिट्ठू कंधें पर लादे और निकल पड़े।
जलंधरी गाड़ के किनारे-किनारे ही आगे बढ़ने लगे। रास्ता चढ़ाई भरा था। चढ़ाई ऐसी कि घुटनों पर हाथ खुद-ब-खुद ही पहुंच जाते । सीधे लाल देवता पहुंचे । एक पेड़ के मुख्य तने पर पुराने कपड़े बंधें थे। जानवरों के सिंग भी पेड़ पर धंसाये गये थे। पेड़ के नजदीक पहुंचकर ही अनिल काला रुक गया। उसका अनुमान सही था- यही लाल देवता है।
लाल देवता से सीधा ढाल उतरता गया। ऊंची चट्टानों से रिपटकर आये हुए पत्थरों भरा इलाका। हर्षिल से जब चले तो धूप तेज थी। देवदार के घने जंगलों के बीच ही चढ़ाई भरे रास्ते पर चले थे। देवदार की ठंडी छांव तेज धूप से बचाती रही। निर्मम हाथ छायाओं को कम नहीं कर पाये थे। प्रकृति की महानता है कि वृक्षों के नृशंस कत्लेआम के बावजूद भी उनका उगना जारी रहा। जगह-जगह कटे हुए वृक्षों के ठूंठों को, देवदार की घनी झाड़ियां मुंह चिढ़ाती रही।
पहले दिन ही बर्फ रास्ते के किनारे दिखायी देने लगी। रपटा पार कर मोरा सोर का मैदान दिखायी देने लग, जहां धूप जानवरों की शक्ल में मौजूद थी। कुछ साथियों ने भोज-पत्रों की छाल स्मृतियों को बचाये रखने के लिए पिट्ठुओं में रख ली। किशन, तिरेपन, विमल और सतीश टैन्ट लगाने लगे। हम कुछ साथी इधर-उधर बिखरी लकड़ियों को रात में आग सेंकने के लिए इक्ट्ठा करते रहे। धूप ढलती जा रही थी। हवा में ठंडक थी।
सुबह जब उठे तो किशन चाय बना चुका था। दाल की बड़ियों को उबालकर नाश्ता किया जाये, यह रात ही तय हो चुका था। अन्य साथी टैन्ट खोलकर सामानों की पैकिंग करने लगे। मैं और किशन नाश्ता तैयार करते रहे। पैकिंग निबटाकर नाश्ता किया और मोरा सोर से आगे बढ़ लिये। मोरासोर से जब चले, जलंधरी हमारे बांयें हाथ पर थी। गंगनानी के नजदीक ही लकड़ी के पुल से जलंधरी को पार किया और जलंधरी हमारे दांयें हाथ पर। भोज पत्रों के वृक्ष जो मोरा सोर से दिखने शुरु हुए थे, क्यारकोटी से थोड़ा पहले तक दिखायी देते रहे। यानी लगभग 12000 फुट की ऊंचाई पर हम चल रहे थे। मोरा सोर से मैं कभी किशन के साथ तो कभी धर्म सिंह के साथ चलता रहा। झाला में सुनी गयी बीरासिंह की कथा मेरी बातचीत का विषय बनी हुई थी।
बीरा सिंह झाला का सयाणा, थोकदार था। झाला में उसकी पांच मंजिला इमारत आज भी मौजूद है। झाला वाले उसका नाम आदर से लेते हैं। औजी उसके गीत गाते हैं। पर बड़ासू! बड़ासू बीरा सिंह का दुश्मन है- धर्म सिंह बताता रहा।
धर्म सिंह की बातों में आने वाले संदर्भों के हिसाब से बीरा सिंह को विलसन का समकालीन ही होना चाहिए। उस समय पहाड़ के इस पार झाला और दूसरी ओर की घाटी में यमुना के पार बड़ासू वाले अपनी भेड़ बकरियों को पहाड़ की दोनों ओर की ढलानों पर चुगाने के लिए बर्फ के गल जाने के पर पहुंचते थे। वहीं वक्त-बे-वक्त एक दूसरे की भेड़ बकरियों को बल पूर्वक हांक लेजाने पर दोनों ही ओर के लोगों के बीच ठनी रहती थी। वैसे नाते-रिश्तेदारियां भी झाला और बड़ासू वालों के बीच आम थी।
धर्म सिंह के ही मुताबिक बीरा सिंह की एक बहन बड़ासू में ब्याही हुई थी। बीरा सिंह के बारे में धर्म सिंह का कहना था कि वह झाला का ऐसा सयाणा था जिसने झाला वालों की खातिर बड़ासू वालों से दुश्मनी मोल ली। बीरा सिंह के रहते बड़ासू वालों की हिम्मत नहीं होती थी कि झाला वालों की बकरियों को हांक ले जायें। बस इसीलिए बड़ासू वालों ने एक दिन - जब बीरा सिंह अपनी बहन को सुसराल खेदने बड़ासू पहुंचा तो वहां घेर कर उसे खत्म कर दिया। हालांकि अपने ऊपर एकाएक हुए हमले का बीरा सिंह ने अपनी पूरी ताकत से प्रतिरोध किया पर अन्तत: वह मारा गया। बड़ासू में आज भी बीरा सिंह का स्मारक है। धर्म सिंह की इस कथा की सत्यता पर से पर्दा तो शायद बड़ासू जा कर ही उठे। कभी वक्त निकल पाया और जाना संभव हुआ तो अवश्य जाना चाहूंगा। देखना चाहूंगा बड़ासू में बीरा सिंह का स्मारक जैसे देखना चाहूंगा तिब्बत में लदृदाख के सामंत जोरावर सिंह का स्मारक, जो तिब्बत वालों की जीत का प्रतीक है।
बीरा सिंह की बहादुरी को लेकर जो कथा धर्म सिंह ने सुनायी, उसे सुनकर मुझे लगता है, बड़ासू और झाला वालों के बीच यदि वाकई कोई ऐसी दुश्मनी रही हो तो उसके कारणों को उस कथा में ढूंढा जा सकता है। बीरा सिंह बड़ासू की किसी स्त्री से प्रेम करने लगा था जो विधवा थी। बड़ासू वाले बीरा सिंह और उस स्त्री के बीच पनप रहे संबंधों को नाजायज मानते थे। इस बाबात उन्होंने बीरा सिंह तक अपनी नाराजगी उसकी बहन के मार्फत भी पहुंचायी। बहन ने भी एक विधवा से बीरा सिंह को संबंध न बनाने के लिए बार-बार कहा पर बीरा सिंह का मन उससे जुड़ता चला गया और बड़ासू वालों की नाराजगी जो लगातार धमकियों में बदलती चली गयी, उसने उसकी भी परवाह नहीं की। एक दिन सरेआम उस महिला को अपने साथ झाला लेकर निकल गया और अपनी पत्नी बना लिया। उसके बाद ही वह एक दिन गुस्से से उबल रहे बड़ासू वालों के बीच घिरकर मारा गया। उस स्त्री को लेजाने वाले दिन की घटना, जैसा धर्म सिंह ने बताया, बड़ी ही दिलचस्प है।
एक दिन बीरा सिंह जब अपनी बहन की सुसराल बड़ासू पहुंचा तो उसकी बहन ने बीरा सिंह को सूचना दी कि बड़ासू वाले बुरी तरह से खार खाये बैठे हैं और तेरी जान के दुश्मन बन गये हैं। मैं तुझ सरिखे भाई को अपने सुसरालियों के हाथों मरते नहीं देख सकती बीरा। तू उस स्त्री से अपने संबंध तोड़ दे बीरा। पूरी तरह से तोड़ दे बीरा। बीरा सिंह चुपचाप बहन को सुनता रहा। प्रेम जीवन का कोई ऐसा कार्य-व्यापार तो नहीं जिसे जब मन में आया जमा लिया और जब मन में आया उजाड़ दिया। बीरा सिंह ने कोई जवाब नहीं दिया बल्कि अपने भीतर ही भीतर बड़ासू वालों द्वारा दे दी गयी चुनौति का जवाब देने की तरकीब सोचता रहा। बहन ने बताया कि आज तेरे आने की खबर पर पूरा बड़ासू चौकन्ना है। गांव का हर मर्द तेरी जान का दुश्मन है। यह तय है कि यदि आज की रात तू उस ओर को गया भी तो चारों ओर हाथों में पाठल लिये तेरी फिराक में घूम रहे बड़ासू के मर्द तुझे जिन्दा न छोड़ें। तुझे मेरी कसम है बीरा, तू आज कतई नी जाना वहां।
गहन काली रात थी। बीरा की आंखों में नीद नहीं थी। प्रेमिका से मिलने की इच्छा उसे बेचैन किये हुए थी। चोर कदमों से उठते हुए किवाड़ खोल वह बाहर निकल आया। सामने यमुना का उछाल मारता जल शोर कर रहा था। बीरा सिंह के भीतर भी बहुत तेज उछल रहा था कुछ। बस जा पहुंचा अपनी प्रेमिका के पास। किवाड़ खड़खड़ाये।कौन ?बीरा सिंह।
भड़भड़ाकर खुल गये किवाड़। झट हाथ पकड़ उसने बीरा सिंह को भीतर खींच लिया।
तू क्यों आया बीरा। चला जा, चला जा। तुझे मार देगें वो। तू अभी निकल जा बीरा। मेरी खातिर तू अभी यहां से चला जा बीरा।
मंद मंद मुस्कराता रहा बीरा, निगाहों से शरारत करते हुए।
तू चला जा बीरा। तुझे मेरी सों। देख, तू अभी निकल जल्दी।
बीरा नहीं माना। तुझे भी मेरे साथ चलना होगा।
कहां ?
झाला।
क्या---!
हां, मेरी पत्नी बनकर।
लेकिन चारों ओर पहरा है। हमारा यहां से बाहर निकलना ही संभव नहीं।
उसके लिए तू निसफिक्र हो जा। बस बोल मेरे साथ चलेगी कि नहीं ?
क्षण भर को ही ठहरा होगा मौन कि ओबरे की दीवार फोड़ दी उस पहाड़ी स्त्री ने। खेत में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाली उस पहाड़ी स्त्री का शरीर ही नहीं उसका दिमाक भी दुगनी शक्ति से चल रहा था। नीचे गयी और गाय का मौल उस जगह लाकर ढोलने लगी जहां से दीवार फोड़ी गयी थी। घनी काली रात थी। अपने शिकार बीरा सिंह की फिराक में चौकीदार करते बड़ासू के बांकुरे कैसे अनुमान लगाते थे कि बीरा सिंह उसके पास पहुंचा हुआ है जबकि वह तो इस रात में भी जानवरों की गोठ में जुटी है।
जब गोबर का अच्छा खासा ढेर खड़ा हो गया और उसने निश्चित कर लिया कि इस पर छलांग लगाने के बाद भी बीरा सिंह के शरीर को कोई क्षती नहीं पहुंचेगी तो उसने ओबरे में बैठे बीरा सिंह को छलांग लगा देने को कहा। उसके इस तरह एकाएक गायब हो जाने और उसकी प्रतिक्षा में बैठे बीरा सिंह ने जब उसकी आवाज के इशारे पर ओबरे की टूटी हुई दीवार से झांका तो गोबर से सनी उस खूबसूरती पर उसकी निगाह अटकी की अटकी रह गयी, जिसकी निगाहों में उल्लास की चमक थी। बस, बीरासिंह ने छलांग लगा दी। गोबर में धंसी टांगों के कारण बीरा सिंह का बदन ज्योंही डगमगाने को हुआ गोबर सनी बांहों ने उसे थाम लिया। उसकी बांहों में अपनी संभली हुई देह को हटाने की इच्छा बीरा सिंह को हुई ही नहीं। उसके वश में होता तो इन क्षणों को गुजरने ही न देता। रात से पहले ही झाला की सरहद को छू लेना चाहिए। और सामने बहती यमुना को पार करने के लिए वे दोनों दबे कदमों से बढ़ने लगे। बीरा सिंह जब खुद कायर नहीं था तो किसी कायर स्त्री से प्रेम भी कैसे करता।
अपनी प्रेमिका को यूंही चुपके से उसे लेजाना गंवारा नहीं हुआ। एकाएक उसको न जाने क्या हुआ। दुबारा ओबरे में गया और लम्बे समय से एक कोने में गुमसुम पड़े उस ढोल को उसने उठा लिया जिसके बजाये जाने के लिए परम्परा के अनुसार एक मर्द की दो मजबूत भुजाओं की जरुरत होती है और फिर से उसने ओबरे के नीचे लगाये गये गोबर के ढेर पर छलांग लगायी।
अब वे दोनों यमुना के उस कच्चे पुल पर थे जिसे पालसिंयों ने भेड़ और बकरियों को पार ले जाने के लिए डाला हुआ था। नदी के बहाव से पैदा होती कम्पन और शरीर के भार से झूलते पुल को पार कर दोनों ही उस पहाड़ की तलहटी में पहुंच गये थे जहां से खड़ी चढ़ाई शुरु होती थी। लकड़ी का कच्चा पुल उन्होंने तोड़ दिया। जिस वक्त बीरा सिंह पुल की बल्ली को निकाल कर यमुना में बहा रहा था ढोल उसने अपनी साथिन को पकडा दिया था। तभी बीरा सिंह ही नहीं पूरा बड़ासू चौंक गया जब उसने एकाएक ढम-ढमाते ढोल की आवाज सुनी। गले में टंगे ढोल को पूरे उल्लास के साथ वह ढम ढमा रही थी। नदी के उस पार से ताकते बड़ासू वालों को चुनौति देकर दो युवा प्रेमी एकदम सामने खड़े थे और यमुना का तेज बहाव उनके दुश्मनों के होंसले पस्त कर रहा था।
धर्म सिंह की कथा समाप्त होने तक हमारे सभी साथी क्यारकोटी निकल चुके थे। धर्म संह के मुताबिक वे आज के पड़ाव पर पहुंच चुके होगें। क्यारकोटी खूबसूरत बुग्याल है जहां भेड़े चुग रही थी। साथी टैन्ट लगा चुके थे। क्यारकोटी में बारिस पड़ रही थी। ठंड ज्यादा थी। एक बार तो बादल इतना नीचे तक घिर आये कि हमारे टैन्ट भी ढक गये। कुछ दिखायी नहीं दे रहा था। लेकिन ऐसा ज्यादा देर नहीं रहा और बादल छंटने लगे। रात के वक्त क्यारकोटी का हरापन, अंधेरे के बीच ढक गया। अपने टैन्टों में दुबके हुए हम भेड़ों की आवाज सुनते रहे। भले ही भेड़-चरवाहे भी अपनी कम्बलों के भीतर दुबक चुके थे पर स्मृतियों में भेड़ों को पुकारती उनकी सीटियां स्वप्न बुनती रही।
--जारी
Sunday, June 15, 2008
अपने वतन का नाम बताओ
विजय गौड
(22 जून को लददाख के अंदरुनी इलाके जांसकर की यात्रा पर अपने चार अन्य मित्रों के साथ निकल रहा हूं। जून और जुलाई के मध्य पिछले कई वर्षों से हम मित्र ऐसी यात्राओं पर निकलते रहे हैं। ऐसी ही एक यात्रा का विवरण प्रस्तुत है। तीन चार कड़ियों में ही यह संस्मरण पूरा होगा। जांसकर की यात्रा पहले भी कर चुका हूं। दुर्गम पहाड़ी यात्राओं के अनुभव से जो रचनायें लिख पाना संभव हुआ, उसे कहानी और कविता के रुप में भी ढालता रहा हूं। उस श्रृंखला की कुछ कहानियां इधर-उधर प्रकाशित भी हुई हैं। पहल 72 में प्रकाशित उसी श्रृंखला की एक कहानी "जांसकरी घोडे वाले" इस संस्मरण के उपरांत, यात्रा में निकलने से पूर्व, यहां पुन: प्रकाशित करने का मन है। अभी प्रस्तुत है हर्षिल से छितकुल तक की यात्रा की प्रथम कड़ी। )
30 जून 2002 को हम देहरादून से चले और 8 जुलाई 2002 की शाम हिमाचल की किन्नौर घाटी के एक छोटे से गांव छितकुल पहुंच गये। छितकुल में लकड़ी के बने हुए घर बेहद खूबसूरत लग रहे थे। लेह-लद्दाख और कश्मीर के घरों की मानिंद छितकुल के मकानों के ऊपर के हिस्से में कांच की खिड़कियां ही दिखायी देती हैं जिनके ऊपर छज्जे जैसा, जो बारिस के पानी को रोक सके, नहीं था। छत का रूप उत्तरकाशी और हिमाचल के बीच पड़ने वाले लमखागा दर्रे की तरह- शंकुवाकार। वैसा ही दो बांहों में फैलता हुआ। कोई चित्रकार जैसे अपने चित्र में दूर उड़ते पक्षी को स्केच करते हुए सिर्फ दो रेखाओं से पक्षी की आकृति दिखा देता है। ठीक वैसे ही पंख खोलकर उड़ता पक्षी- छितकुल की छतें। किसी-किसी मकान के पीलरों पर, किनारियों पर नाशी की गयी। उत्तरकाशी की ओर से आते हुए लमखागा दर्रे को पार कर लगभग दो दिन के रास्ते पर आईटीबीपी की चैक-पोस्ट पड़ती है- नागेस्ती, जहां से छितकुल दिखायी देने लगता है। थोड़ा आगे बढ़ो तो खेतो में निराई-गुड़ाई करती किन्नरियां भी दिखने लगती हैं। दूसरे पहाड़ी इलाकों की तरह यहां भी ज्यादातर काम स्त्री के ही जिम्मे हैं। पहाड़ की स्त्रियां दुनिया के वे सभी काम बड़ी ही सहजता से करती हैं जिन्हें मैदानी इलाकों में पुरुष निबटाते हैं। मसलन घास के बड़े-बड़े पूले सिरों पर उठाये उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलना, जंगलों से लकड़ी लाना। तीखी ढलानों पर खड़े हुए पेड़ भी पहाड़ी स्त्री के भीतर वैसा खोफ पैदा नहीं कर सकते। शरीर को हल्का-सा उछाला और दनादन-दनादन ऊपर चढ़ती चली गयी। इस सबके बावजूद घर के चूल्हे चौके से लेकर बच्चों की देखभाल तक उन्हीं के जिम्मे। फाफर छितकुल की मुख्य फसल है। गेहूं उगाया जाता है पर धान नहीं। घरों के आस-पास हरी सब्जी, मूली और गोभी आदि भी गांव वाले बोते ही हैं। नागेस्ती चैक-पोस्ट से गांव की ओर बढ़ते हुए गांव के द्वार पर बौद्ध कला का नुमाना दिखायी देता है- द्वार पर लामाओं की रंगी आकृतियां उकेरी गयी हैं। द्वार को देखकर छितकुल वालों को बैद्धिष्ट माना जा सकता है। लेकिन गोव में पहुंचकर मालूम हुआ कि छितकुल वाले न तो पूरी तरह से बैद्धिष्ट हैं और न पूरी तरह से हिन्दू। गांव में गोम्पा है जिसमें वर्ष 2000 में चोरी हुई। चोर बुद्ध की कांस्य प्रतिमा चुरा ले गये, अन्तराष्ट्रीय बाजार में जिसकी अच्छी-खासी कीमत मिल सकती है। गोम्पा से उत्तर-पूर्व दिशा में लकड़ियों से बने देवी के मन्दिर को भौगोलिक रुप से गांव का केन्द्र कहा जा सकता है। लकड़ियों का यह मन्दिर इतिहास में छितकुल के राजा का महल था, ऐसा गांव के एक युवक ने बताया। मन्दिर कौन-सी देवी का है ? कोई स्पष्ट जवाब नहीं। सिर्फ देवी। देवी के मन्दिर में पुजारी है। गोम्पा की जिम्मेदारी लामा पर। हमारी यात्रा के दौरान कोई भी लामा वहां नियुक्त नहीं था। गांव का ही एक लड़का जो शास्त्रीय रुप से लामा नहीं था पर अस्थायी तौर पर लामा का काम देख रहा था। मन्दिर में सुबह-सुबह पुजारी पूजा करता है। पूजा के वक्त ढोल, दमाऊ और थाली को जोर-जोर से बजाया जाता है। गांव के कुछ लोग अपने को हिन्दू मानते हैं और कुछ बौद्ध। मन्दिर और गोम्पा सभी के तीर्थ है। मालूम हुआ कि छितकुल की ही तरह एक गोम्पा और एक मन्दिर किन्नौर के हर गांव में है। ऐसा छितकुल से करछम आते हुए बस में बैठे सहयात्री ने बताया, जो छितकुल का ही रहने वाला था और ऐसा दिखायी भी देता रहा। सहयात्री अपने को पहले हिन्दू बता रहा था फिर बौद्ध, जबकि गांव में ही मिला एक युवक अपने को पहले बौद्ध बता रहा था फिर हिन्दू। यानी हिन्दू और बौद्ध साथ-साथ। दोनों धर्मों को स्वीकारना दोनों की बातचीत में था। किन्नौर में एक ही जाति नाम है- नेगी। नेगी ही पूजारी, नेगी ही राजपूत और नेगी ही बाजी। इसे बौद्ध धर्म का ही प्रभाव माना जा सकता है कि वर्ण व्यवस्था यहां मौजूद नहीं है। फिर भी कहीं भीतर छुपा बैठा हिन्दू धर्म है जो उन्हें आपस में बांटे हुए है। जिस गेस्ट हाऊस में रुके, वहां खाना पहुंचाने वाला तो अपने को गर्व से कुंवर नेगी कह रहा था। वह यह भी कह रहा था कि हमारे पूर्वज मूल रुप से माणा के हैं जो किन्नौर में विस्थापित हुए। ऐसी ही बात गांव के अन्य लोगों से भी सुनने को मिली पर इसका ऐतिहासिक प्रमाण किसी के पास भी नहीं था।
विलसन जहां रुका, हम वहां से चले। हमें कहीं भी नहीं रुकना था। सिर्फ चलते जाना था। तो फिर हर्षिल में ही क्यों रुकें ?मोनाल पक्षी के पंखों का व्यापार हमें नहीं करना। देवदार वृक्षों को काटकर हमें मुद्रा इक्टठी नहीं करनी है । कस्तूरी का आकर्षण- हम उसे देख भर लें, बस। उसे मारने की हमें कोई जरुरत नहीं। हमें, कस्तूरी, मोनाल दिख भर जायें तो धन्य हो जायें।
हमारा कोई उपनिवेश नहीं और न ही उपनिवेश बनाने की खवाइश। जबकि दुनिया को उपनिवेश बनाने वाले आज नये से नये कुचक्र रच रहे हैं। हमारी निगाहें भी जिन्हें देख पाने में असमर्थ हैं।
चूंकि हमें कहीं नहीं रुकना था, इसीलिए तो 30 जून 2002 की सुबह जब देहरादून से चले तो कहीं भी नहीं रुके। सीधे उत्तरकाशी में ही बस से उतरे थे। मौसम बारिस का होने की वजह से बादल छाये हुए थे। अगले दिन पोर्टर आदि की व्यवस्था हो जाने के बाद हर्षिल की ओर बढ़ लिये। किन्नौर का एक छोटा-सा गांव- छितकुल, जहां पहुंचना था हमें। लेकिन रुकना वहां भी नहीं। हर्षिल से ही शुरु होता है वो मार्ग जो पांवों के जोर पर लमखागा पास को पार करते हुए छितकुल पहुंचायेगा।
कहां तक जाना है आज ?
मोरा सोर।
आज का पड़ाव मोरा सोर।
हमें यूंही रुकना है और चलते जाना है। तभी पहुंचेगें छितकुल।
छितकुल तो हम बस से भी जा सकते थे। बस का रास्ता तो शिमला होकर है। बस में ही लदकर शिमला होकर लौटना है देहरादून। तो फिर हर्षिल से ही क्यों जा रहे, पैदल! वो भी ऐसे इलाके से जो निर्जन है। जीव तो दूर वनस्पिति भी नहीं। मौजूद है तो सिर्फ मौरेन, बर्फ, पत्थर और जली हुई चट्टाने ही। आखिर क्या चीज है जो हमें आकर्षित करती है और जिसके पीछे भागे चले जाते हैं ?
पहाड़ों पर घूमना इसलिए शुरु नहीं किया कि पहाड़ी जीवन का हिस्सा हो जांऊ। चमकीला, हरहराता मौसम, पहाड़ों की ऊंचाई, बर्फ, पहाड़ों के लोग, एक तरह के जोखिम से गुजरने की इच्छा कहीं न कहीं भीतर तैरने लगी। मुसिबतों के पहाड़ हमारी जिन्दगी का हिस्सा न हो जायें, तभी तो भागे थे पिता पहाड़ छोड़कर। उनका भागना सही था या गलत, इस बात पर कभी नहीं उलझा। इधर बचचपन छूटा तो पहाड़ी 'कज्जाकों " का जीवन आकर्षित करने लगा। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि अपने भीतर के जंगलों से बाहर निकलने का क्रम ही मेरी यात्रायें हैं। जिसकी स्मृतियां हर वक्त मथती रहती हैं और जीवन को गति देती हैं। पहाड़ों की यात्रायें मेरे लिए मुक्ति की कामना भी नहीं। यात्राओं के बहाने ही तो मैं अक्सर अपने अतीत में झांकने की कोशिश करता हूं। मां, पिता, चाचा, चाची और ढेरों पहाड़वासियों की उस जिन्दगी में झांकना चाहता हूं जो उन्हें पहाड़ छोड़ने को मजबूर करती रही है। मुझे लगता है इसे जानने के लिए दुनियाभर के पहाड़ों से पलायन करते लोगों की जिन्दगी में झांकना होगा। किसी भी देश का पहाड़ी जीवन तो उस देश के कुलीन जीवन से अलग है।
हर्षिल में ही रुका था विल्सन। नालापानी-खलंगा के युद्ध में अंग्रेज जीत गये। गोरखे हारे थे। राजा सुदर्शन शाह ने अंग्रेजों की मद्द की। तोहफा तो मिलना ही था। अंग्रेज व्यापारी थे। चालाक थे। टिहरी राजा के स्वतंत्र अस्तित्व को कैसे स्वीकार करते। श्रीनगर राजधानी वापिस नहीं दी जा सकती थी। पर वफादारी का तोहफा क्या हो ? लिहाजा अन-उपजाऊ ढंगारों वाला हिस्सा, जो अलकनन्दा के दांये तट पर पड़ता है, सुदर्शन शाह को दे दिया गया। राजधानी श्रीनगर नहीं रही। नई राजधानी कहां हो ? और भागीरथी-भिलंगना का तट टिहरी रियासत की राजधानी बना। पूर्व दिशा में सीमा मंदाकनी नहीं रही। मंदाकनी के दांयें तट का उपजाऊ भाग भी अंग्रेजों ने अपने पास ही रखा। रवांई अभी राजा को नहीं सोंपा गया था। बाद में प्रशासनिक दितों की वजह से राजा को सोंपना पड़ा। यूं, राज तो राजा का ही रहा पर ब्रिटिश हस्तक्षेप भी जारी रहा। उसी दौरान अपनी बीमारी को ठीक करने विलसन टिहरी पहुंचा और हर्षिल के नजदीक मुखवा-धराली में ही रुक गया। मालूम नहीं शारीरिक बीमारी ठीक हुई या नहीं पर आर्थिक बीमारी को तो वह ठीक करने ही लगा। कस्तूरी मृगों को ढूंढ-ढूंढ कर मारा और उनकी कस्तूरी निकाल ली। हांका लगाने के लिए स्थानिय लागों का इस्तेमाल किया। लट्ठों को नदीयों के बहाव के साथ मैदानों तक पहुंचाने वाला वह पहला व्यक्ति कहा जा सकता है। पेड़ों के लट्ठे नदी के बहाव के साथ हरिद्वार पहुंचने लगे। मुखवा-धराली के पास जब उसकी समानान्तर सत्ता चलने लगी तो "हुल सिंह साहब" या 'हुल सिंह राजा" के नाम से जाना जाने लगा। मुखवा के एक बाजी की लड़की से विवाह किया। हम जहां से निकल रहे हैं उसके दांयें हाथ पर विलसन कॉटेज। जो अब उजाड़ हो चुका है। सुनते हैं पिछले कुछ वर्ष पूर्व उसमें आग लग गयी थी। इसीलिए अभी वो रुप नहीं।
--जारी