Monday, June 16, 2008
अपने वतन का नाम बताओ -तीन
विजय गौड
सबसे लम्बा नदी का रास्ता
सबसे ठीक नदी का रास्ता
मानसरोवर सिन्धु का घर है
ब्रहमपुत्र का उद्गम भी
सबसे लम्बा सिंधु का रास्ता
सबसे ठीक सिंधु का रास्ता।
लमखागा वार जलंधरी और लमखागा पार बस्पा। भागीरथी-जलंधरी का संगम छोड़कर चले थे, बस्पा-सतलुज का संगम पार करेगें। नदी का लम्बा रास्ता ही भेड़ चरवाहों का रास्ता है।
भेड़-चरवाहों की सीमा क्यारकोटी से आगे बढ़ लिये। लमखागा भी एक सीमा है। उसे भी तोड़कर आगे बढ़ जायेगें। ये सीमायें किसी धरती-पुत्र ने निर्धारित नहीं की। ये प्राकृतिक सीमायें हैं। इन सीमाओं का अतिक्रमण किसी कानून का उलंघन नहीं होना चाहिए।
जलंधरी के साथ-साथ जलंधरी के उद्गम तक पहुंचेगें । जलंधरी, भागीरथी में मिलकर भागीरथी हो गयी। ढेरों जल-धारायें जलंधरी में मिलकर जलंधरी होती रही। वो जल-धारा कौन सी है जो अपने उद्गम तक भी जलंधरी कहलायेगी? नदियों के उद्गम को लेकर कोई निश्चित हो सकता है ? क्या गंगोत्री ग्लेश्यिर भागीरथी का उद्गम है ? गोमुख ही क्या वह जगह है जहां से भागीरथी निकल रही है ? तो फिर अलकनन्दा का उद्गम अरवा ग्लेशियर क्यों नहीं ? पिढडारी ग्लेशियर क्यों पिण्डर का उद्गम कहलाये जबकि मींग गदेरा पिण्डर में मिल रहा हो। जलंधरी के उद्गम तक पहुंच भी पायेगें क्या ?
धर्म सिंह तो पूर्ण-रूपा जलंधरी को पार करते हुए ही भटक गया था मार्ग। तो फिर जलंधरी के उद्गम तक कौन पहुंचायेगा ? जलंधरी के उद्गम को कोई जानता है क्या ? सूखा ताल तक पहुंची हैं ढेरों जल-धारायें। तो सूखा ताल ही है क्या उद्गम ? पर वहां तो इतना जल ही नहीं। कुछ जल-धारायें हैं जो वहां से निकलकर अपने-अपने मार्ग पर आगे बढ़ती हैं। इन धाराओं का सम्मिलित रुप ही जलंधरी है।
सूखा ताल से काफी आगे निगाह दौड़ाते हुए जलंधरी को ढूंढ चुका धर्म सिंह चिल्लाया था- वो रही जलंधरी। बर्फ के टुकड़े जो जलंधरी नहीं हो पाये, रास्तों के किनारे-किनारे ग्लेशियरों की शक्ल में मौजूद थे। कहीं-कहीं जिन पर चढ़ कर और कहीं जिनसे बच-बचाकर आगे बढ़े थे। कुछ तो पूरे पहाड़ की शक्ल में जलंधरी पर छाये हुए थे, जिनके नीचे से बहती हुई जलंधरी को देखकर भ्रम होता- मानो यही है उद्गम। किसी भी ऐसी जगह का फोटो पहाड़ों से दूर रहे व्यक्ति के लिए गंगा के उद्गम को देखने की तृप्ति भी दे सकता है। रात भर क्यारकोटी पर भालू का डर, हम एक दूसरे को दिखाते रहे। भालू तो हमने नहीं देखा पर भेड़ वालों से मालूम हुआ, बीती रात भालू ने माल (भेड़) पर हमला बोला। कुत्ते झपड़ पड़े। माल का नुकसान तो नहीं पहुंचा पाया पर एक कुत्ते को घायल कर गया।
घायल झबरा कुत्ता हमारी ओर ताकता रहा। क्यारकोटी की निर्जनता को तोड़ने के लिए शुरु किया गया भालू के डर वाला खेल स्लीपिंग बैग में दुबकने से पहले तक चलता रहा। सुबह के वक्त तेज धूप क्यारकोटी में बिखर गयी थी। पहाड़ों से उतरती जल-धारा को पार किया और लमखागा की ओर बढ़ लिये। जलंधरी के किनारे-किनारे पत्थरों भरा रास्ता शुरु हो चुका था, लमखागा के बेस तक जिसने हमारी हालत पस्त कर दी। रास्ता भी क्या, चारों ओर बिखरे पत्थरों पर, जहां कहीं मार्ग चिन्ह (पत्थरों पर रख हुआ पत्थर) दिखायी देता, उसी ओर बढ़ लेते। एक लम्बी दूरी तय करने के बाद अब न तो कहीं मार्ग चिन्ह और न ही आगे कोई ऐसी जगह शेष थी, जहां से रास्ता बनाया जा सके।
जलंधरी के पार, दूसरी ओर के पहाड़ की ओर निगाह उठायी- खड़ी चट्टान थी, जिस पर मिट्टी सरकती दिखायी दे रही थी। उधर से निकलते तो तय था हम में से कोई भी अपने जीवन की यात्रा का अन्तिम पड़ाव डाल लेता। पहाड़ पर पांव रखने भर की भी जगह नहीं। जिधर चल रहे थे वहीं रास्ता तलाशा जाये। थोड़ा ऊपर की ओर एक बड़ा-सा ग्लेशियर दिखायी दिया, नीचे सरक कर आया हुआ था। दूरी हलांकि ज्यादा नहीं थी तो भी ग्लेशियर के उस छोर तक, जहां से उसे पार करना संभव जान पड़ रहा था, पहुंचने के लिए कुछ क्षणों का विश्राम लिया। स्थिति को ठीक तरह से समझने का प्रयास भी। फिर ग्लेशियर को पार कर गये और जलंधरी के साथ-साथ चलने लगे।आगे ऐसी ही एक स्थिति में धर्म सिंह ने तय किया- जलंधरी को पार कर लेना चाहिए और दूसरी ओर के पहाड़ पर बढ़ लिया। पाट काफी चौड़ा था। देखकर लगता था पार करना आसान होगा। पानी में न तो गहराई होगी और न तेज बहाव। पर जलंधरी में बहती हुइ, त्वचा को चीर देने वाली ठंडक से भरी बर्फ और लुढ़कते पत्थरों ने एक दूसरे के सहारे ही आगे बढ़ने की सलाह दी।
दूसरी ओर का रास्ता पत्थरों का रास्ता था। बारिस की हल्की झड़ी लगी हुई थी। पत्थरों पर फिसलन थी। एक-एक कदम संभल-संभल कर बढ़ाना पड़ रहा था। पत्थरों पर चलते हुए कहीं टांगों को लम्बा खींचना पड़ रहा था और कहीं कदमों को बहुत छोटा कर देना पड़ रहा था, जिसकी वजह से शरीर थककर चूर होने लगे। ऊपर से पड़ती हुई बारिस से पिट्ठुओं को बचाने के लिए लगायी गयी पॉलीथीन की बरसाती भी बार-बार पावों में फंसकर रास्ते की दुर्गमता को ओर ज्यादा बढ़ा रही थी।
कहीं कोई थोड़ा सहज मार्ग दिखे तो उधर ही निकल लें।
नदी का किनारा ही एक मात्र सहारा था। दूसरी ओर के पहाड़ की ओर नजर उठना स्वाभाविक ही था जबकि पीछे उस किनारे को छोड़ते हुए भी यही मन:स्थिति थी। लगा कि उस ओर जगह इतनी है जिस पर चलना शायद आसान होता। मन आशंकाओं से भर गया- कहीं गलत रास्ते पर तो नहीं बढ़ रहे हैं!
जलंधरी को पार कर उस ओर जाने की हिम्मत किसी के पास भी शेष नहीं थी। पत्थरों भरा रास्ता हमारी मजबूरी हो गया। पस्त हो चुकने के बाद भी बढ़ते रहना हमारी मजबूरी थी।
पत्थरों भरा रास्ता पार हुआ तो खूबसूरत मैदान दिखायी दिया। रास्ते की नीरसता को उस ऊपर-नीचे लहराते छोटे से मैदान ने तोड़ दिया। पत्थरों के साम्राज्य में हरे घास की उपस्थिति जो सुकून दे सकती है उसे शब्दों में कह पाना संभव नहीं। जाने किसकी पंक्तियां है- 'मैं तो दूब घास हूं", याद आती रही। घास का यह मैदान ही लमखागा को बेस होना चाहिए- पर लमखागा की झलक भी वहां से दिखायी नहीं दे रही थी। अनुभव के आधार पर अनुमान मारा जा सकता था कि यहां रुकने पर अगले दिन बहुत सुबह चलने पर भी लमखागा को पार करना आसान न होगा।
ऊपर उठती हुई तीखी धार पर बढ़े चलो।
शरीर जवाब दे चुके थे। खाने की वो चीजें, जिन्हें रास्ते की नीरसता को तोड़ने के लिए जेबों में रखा हुआ था, को भी देखने का मन नहीं था। सिर्फ पानी था, जो राहत देता। पीछे रास्ता भटक चुके धर्म सिंह पर से विश्वास उठता रहा- कहीं फिर गलत दिशा की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं! पर कोई नया रास्ता, जो जल्दी से हमें उस जगह पहुंचा दे जहां से लमखागा दिखायी देने लगे, उसे खोजने में भटक जाने का खतरा ज्यादा। इसीलिए मजबूरी वश, रास्ते भटक जाने की आशंका को धर्म सिंह के सामने रखते हुए भी उसके पीछे चलते रहना हमारी मजबूरी थी।
तीखी धार को पार कर चुका धर्म सिंह ऊपर से हाथ हिलाता रहा। धर्म सिंह जहां मौजूद था, उससे थोड़ी दूरी पर नीचे उतरना था। दूसरी धार पकड़नी थी। जहां से उतरे, दांये किनारे पर ही बहुत थोड़ी-सी समतल कही जा सकने लायक भूमि दिखायी दी। पहले कभी कोई यात्री दल संभवत: उस जगह पर रुका हो- एक पत्थर पर हरे रंग से 5, जुलाई 1998 लिखा था। आस-पास पैक फूड के टूटे हुए डिब्बे और कुछ ऐसा ही सामान पड़ा हुआ था। पहाड़ के उन निर्जन हिस्सों में, जहां कभी न कभी कोई ऐसा दल पहुंचा हो- पहाड़ जिनके लिए सिर्फ ऐशगाह हो, उनकी एय्याशी के इन निशानों से जाना जा सकता है कि यह कैम्पिंग जगह है ।
सभी बुरी तरह थक चुके थे। रास्ते भर बारिस में भीगते हुए ही चले। पॉलीथीन की बरसातियां भी पिट्ठुओं में रखे सामानों को भीगने से बचा न पायी। अभी तक की यात्रा का यह सबसे लम्बा दिन था। सुस्ताने क्या बैठे कि लमखागा की ओर से बहने वाली हवाओं ने कंपी-कंपी छुटा दी। तय किया गया कि आज का पड़ाव यहीं डाल दिया जाये। पास तो दिखायी नहीं दे रहा था पर मौसम को देखकर अनुमान मारा जा सकता था कि पास के नजदीक ही हैं। ठंडी हवाऐं और बीच-बीच में कहीं आस-पास टूटते बर्फीले पहाड़ों की आवाज खामोशी को तोड़ती रही। चूंकि पास दिखायी नहीं दे रहा था, इसलिए निश्चित किया कि जितना जल्दी हो, अगले रोज सुबह-सुबह ही निकल लेगें। पास न जाने कितना लम्बा हो ? बर्फ न जाने कितनी हो ? धर्म सिंह भी ठीक से कुछ खास नहीं बता पाया। सुबह की बजाय शौच आदि से शाम को ही निवृत हो लिया जाये। शौच की कोई उपयुक्त जगह दिखायी नहीं दी। जहां रुके, वहां से थोड़ी दूरी पर ही एक जलधारा पास की दिशा से बहती आती दिखायी दी जो आगे बहुत नीचे उतरती थी-सूखा ताल में। सूखा ताल नीचे गहरी खाई में था। उसके साथ-साथ ही पहाड़ की यह खड़ी दीवार थी, जिसके किनारे पर खड़े होने की हिम्मत नहीं की जा सकती थी। बहुमंजिला इमारतों की छत के किनारे जैसा खोफ पैदा करते हैं उससे भी कहीं ज्यादा। हम दो विपरीत दिशाओं में बढ़ती धारों के बीच थे। एक जा हमारे दक्षिण-पश्चिम में थी उसमें चढ़कर ही यहां तक पहुंचे थे। दूसरी जो हमारे उत्तर-पूर्व में थी उस पर ही आगे बढ़ना है। इन दोनों की फांक से ही दिखायी दे रहा था सूखा ताल। उत्तर-पूर्व दिशा से ही बढ़ी चली आ रही थी वो जलधारा। दोनों धारों की इस फांक से ही नीचे उतरती हुई सूखा ताल तक। दोनों धारों के कटाव पर ही सरक कर आयी हुई शिलाओं का ढेर। इन शिलाओं पर ही फैलाये थे पांव और सूखा ताल की ओर पीठ कर बैठ गये। सूखा ताल में बिखरा सलेटी रंग मुड़-मुड़ कर देखने को मजबूर करता रहा। बारिस रुक चुकी थी। सूखा ताल का जल उस सलेटी आभा के बीच, बीच-बीच में कहीं-कहीं ऐसा चमकता मानो किसी स्त्री के वस्त्रों पर टंके शीशे चमक रहे हों। सूरज की रोशनी मौजूद ही रही होगी- उस वक्त यह नोटिस ले पाने की जरुरत ही नहीं समझी, शायद स्थिति की भयावता ने इस ओर सोचने का अवकाश ही नहीं दिया हो। पहाड़ के टूटने की आवाजें दहशत भर देने वाली थी। सिर्फ चमकते हुए पानी का बिम्ब ही स्मृतियों में दर्ज है। कच्चे पहाड़ में अटके हुए पत्थरों पर टिकी निगाहें, निगाहों को कहीं ओर स्थिर करने दे ही नहीं सकती थी- अब गिरा कि तब। पानी बेहद ठंडा था। शौच के बाद हाथ पूरी तरह से धो भी पाये या नहीं, कहा नहीं जा सकता।
महेश पर हंसी आती रही, जो सामान्यत:, तम्बाकू बनाने से पहले हाथ को कई बार धोता हो, ऐसी ही हथेलियों पर रगड़ा हुआ तम्बाकू होंठों के नीचे दबाता रहा। यह पहाड़ का सौन्दर्य बोध था। दिन में दो बार नहीं तो एक बार नहाने वाला पिछले तीन दिनों से आंखों पर भी पानी न लगा पाया था। ग्लेशियर से निकलती जलधारा का जल ही पीने में इस्तेमाल होता रहा।
--- जारी
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