Sunday, August 10, 2008

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो

चिट्ठाजगत की इस दुनिया में प्रवेश करने के बाद से ही मेरा परिचय महेन से हुआ। विभिन्न अंतरालों की बातचीत में जो थोड़ा बहुत मैं महेन के बारे में जान पाया हूं कि वे जर्मन भाषा-साहित्य के छात्र रह चुके हैं। बाकी उनके ब्लाग की पोस्टों के आधर पर कह सकता हूं कि संवेदनशील हैं। और उनके बातचीत के ढंग के अधार पर कहूं तो इसमें मेरे भीतर कहीं द्वविधा नहीं कि दोस्तबाज हैं, खिलंदड हैं और अपनी जानकारी को बांटने वाले भी। कम्प्यूटर संबंधी अपनी समस्याओं के हल के रूप में मैं उन्हें याद करता हूं। अपने बारे में कुछ भी कहने से महेन हमेशा बचे है। बस, बेहद सादगी से ही जो कुछ फूटा आज तक वह यही -


अपने बारे में तो मैं कुछ कह नहीं पाऊंगा।


जर्मन भाषा पर उनकी पकड़ कैसी है, मैं इससे भी परिचित कहां हो पाया हूं। वह तो आज ऑन- लाइन था, मैंने पकड़ लिया और छेड़-खानी की तो मालूम हुआ कि ब्रेख्त को पढ़ रहे हैं महेन। जर्मन में। पढ़ ही नहीं रहे कुछ कविताओं के अनुवाद भी कर डाले हैं। मैं मचल उठा उन अनुवादों को पढ़ने के लिए।
जर्मन मूल से ब्रेखत के अनुवाद वरिष्ठ कवि विष्णु खरे ने भी किये हैं। मोहन थपलियाल द्वारा किए गये ब्रेख्त के अनुवादों की पुस्तक परिकल्पना प्रकाशन ने छापी है। उत्तरकाशी के रहने वाले एक सज्जन, नाम याद नहीं, ब्रेख्त की रचनाओं का मूल जर्मन से हिन्दी अनुवाद करते हुए एक पत्रिका भी निकालते रहे हैं। हिन्दी का पाठक जगत जिस तरह से ब्रेख्त से परिचित है, मैं भी उतने में से सीमित ही परिचित हूं। महेन के अनुवादों से मैं उन्हें और जान रहा था। महेन के अनुवाद को पढ़ते हुए मुझे लगा कि मैं शायद अनुवाद तो पढ़ ही नहीं रहा हूं। यह तो मूल है। जी हां, ऐसा ही है महेन का अनुवाद।
फरवरी 1898 में जर्मनी के बावेरिया प्रान्त के ऑगसबुर्ग कस्बे में ब्रेख्त का जन्म हुआ और अगस्त 1956 में ब्रेख्त इस दुनिया को विदा कह गए। अगस्त माह में ही महेन जैसे युवा रचनाकार ब्रेख्त को बेशक अनायास याद आ रहे हों पर इसे अनायास नहीं कहा जा सकता। दौर के हिसाब से ब्रेख्त की प्रासंगिकता को वे बखूबी जानते हैं। उनके इन अनुवादों से हिन्दी का पाठक जगत ब्रेख्त की उन बहुत सी ऐसी रचनाओं से परिचित हो पाए जो अभी तक हिन्दी में नहीं आ पाई है, इस उम्मीद और शुभकामाना के साथ यहां प्रस्तुत हैं महेन के अनुवाद जो मूल जर्मन से किए गए हैं। जर्मन मूल को भी यह ध्यान में रखते हुए प्रस्तुत किया जा रहा है कि जर्मन जानने वाले पाठक महेन की क्षमताओं पर यकीन भी कर पाए ओर उम्मीद भी।


बर्तोल ब्रेख्त

Der Radwechsel

Ich sitze am Straβenrand
der Fahrer wechselt das Rad
ich bin nicht gern, wo ich herkomme
ich bin nicht gern, wo ich hinfahre
warum sehe ich denn den Radwechsel
mit ungeduld?



पहिये का बदलना

मैं सड़क के किनारे बैठा हूँ
ड्राईवर पहिया बदल रहा है
कोई उत्साह नहीं मुझे कहाँ से आया हूँ मैं
कोई उत्साह नहीं कहाँ जाना है मुझे
क्यों देखता हूँ मैं पहिये का बदलना
इतनी उत्सुकता से?

_________________________________________________________




Als Lenin ging

Als Lenin ging, war es
als ob der Baum zu den Blätttern sagte:
ich gehe.

जब लेनिन गए

लेनिन का जाना
ऐसा था जैसे
पेड़ ने पत्तों से कहा
मैं जाता हूँ



_________________________________________________________




Sag ihm, wer den Wagen zieht

Sag ihm, wer den Wagen zieht
er wird bald sterben
sag ihm wer leben wird?
der im Wagen sitzt
der Abend kommt
jetzt eine Hand voll Reis
und ein gutter Tag
ginge zu Ende

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो

जो गाड़ी खींचता है उसे कहो
वह जल्द ही मर जाएगा
उसे कहो कौन रहेगा जीता
वह जो गाड़ी में बैठा है
शाम हो चुकी है
बस एक मुठ्ठी चावल
और एक अच्छा दिन गुज़र जाएगा

_________________________________________________________


अनुवाद - मूल जर्मन महेन

Saturday, August 9, 2008

बारिस में भीगती लड़की को देखने के बाद


विजय गौड


एक


झमाझम पड़ती
वर्षा की मोटी धारों के बीच
लड़की चुपचाप
सिर पर छाता ताने चलती है

छाते से चेहरे को
इतना ढक लेती है लड़की
कि आस-पास से गुजरने वाला
चेहरा भी न देख पाये
यह कविता १९९५ के आस पास लिखी थी.

छाते से ढकी लड़की
होती है आत्म केन्द्रित;
सड़क में बहते गंदे पानी को देख
लड़की सोचती है,
कितना फर्क है नदी और नाले में
जबकि, पानी की नियति
सिर्फ बहना ही है

चप-चप करती
चप्पल की आवाज के साथ ही
लड़की गर्दन को पीछे घुमा
देखती है कपड़ों को ;
यह ख्याल आते ही
कि कपड़े तो पूरी तरह से
गंदे हो चुके हैं
लड़की कुढ़ने लगती है

बारिस है कि लगातार
बढ़ती जा रही है
लड़की चाहे जितना कोशिश कर ले
बचने की
पर सामने से आता ट्रक
नहीं छोड़ता
लड़की को भिगोये बगैर

ऊपर से नीचे तक
पूरी तरह से भीग चुकी है लड़की
यही कारण है कि
लड़की ने छाता बंद कर लिया है

बारिस के बीच ठक-ठक करती
चल रही है लड़की

दो

चाय की चुस्कियों के बीच
लड़की का ख्याल आते ही
बाहर वर्षा की मोटी-मोटी धारें
दिखायी देने लगती है
मोटी-मोटी धारों के बीच
लड़की दौड़ रही है
घंटाघर के चारों ओर

तीन

भीगी हुई लड़की को देखने के बाद
ऐसे कितने लोग हैं
जो यह सोच पाते हैं
कि लड़की का भीगना
खतरनाक हो सकता है
उसके लिए भी
और देश के लिए भी ।

Friday, August 8, 2008

हमें गहरी उम्मीद से देखो

विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र जी का मुख्य काम भू-स्खलन और भूकम्प संबंधी विषय पर है। लेकिन सामाजिक बुनावट के उलझावों पर भी उतनी ही शिद्दत से सोचते हैं और उसे भी परिभाषित करने के लिए बेचैन रहते हैं। विज्ञान विषयों पर पठन-पठन के साथ-साथ सामाजिक बदलाव के साहित्य में उनकी गहरी रुचि है।
इस ब्लाग के माध्यम से हमारा अपने उन सभी साथियों से अनुरोध है जो शुद्ध रुप से साहित्य के छात्र न होते हुए साहित्य कर्म में जुटे है कि वे अपने मूल विषय को केन्द्र में रखकर समकालीन समाज की व्याख्या करते हुए ऐसी रचनाओं के साथ भी प्रस्तुत हों जो कहानी कविता से इतर अन्य विधाओं में भी उन मूल विषयों पर आधारित हो। यानी वे तमाम विषय जिनका मानवीय मूल्यों से, ऊपरी तौर पर, यूं तो कोई सरोकार दिखायी नहीं देता लेकिन जिनके प्रभाव ही समकालीन दुनिया पर बहुत गहरा असर डालते हैं, उन विषयों में कार्यरत रहते हुए हम कितना मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हैं या उसके अपनाने में किस तरह की दितें आती हैं। हिन्दी में ऐसा लेखन बहुत ही सीमित रुप में है। यदि ब्लाग जगत में सक्रिय रचनाकार, जो भिन्न विषयों में दखल रखते हैं, इस जिम्मेदारी को समझते हुए सक्रिय हो तो इससे हिन्दी ब्लाग की एक अलग छाप भी पड़ेगी और विविधता भी बनी रहेगी जो हिन्दी पाठ्कों को आकर्षित भी करेगी।

यादवेन्द्र जी ने हमारी इस तरह की बातचीत पर यकीन दिलाया है कि वे अपने मूल विषय को ध्यान में रखकर जल्द ही कुछ ऐसा लिखेगें। इससे पहले हमारे आग्रह पर
कथाकार नवीन नैथानी, जो भौतिक शास्त्र के अध्येता हैं, ने एक छोटा सा आलेख लिखा था। यादवेन्द्र एक समर्थ रचनाकार है। उनसे ऐसे लेखन की उम्मीद करना जायज भी है। अभी प्रस्तुत है उनके द्वारा अनुदित कविताएं।


1926 में नार्वेजियन मूल के माता पिता से जन्में रॉबर्ट ब्लाई आधुनिक अमेरिकी कविता के शिखर पुरुषों में शुमार किए जाते हैं। दो वर्ष नेवी में काम किया, फिर अनेक विश्वविद्यालयों में पढ़ाया। 40 से ज्यादा काव्य संकलन प्रकाशित, विभिन्न भाषाओं के अनेक प्रसिद्ध कवियों के अंग्रेजी में अनुवाद किए - पेब्लो नेरूदा, रिल्के से लेकर फ़ारसी के कवियों के। हाफिज और रुसी तक और कबीर, मीराबाई से लेकर बंगाल के अनेक आधुनिक कवियों के अनुवाद। अंग्रजी में गजलें लिखते हैं।

1966 में वियतनाम युद्ध का विरोध करने वाले
संगठन अमेरिकन राइटर्स अगेंस्ट वियतनाम वॉर के संस्थापक। 1969 में नेशनल बुक अवार्ड से नवाजे जाने पर सम्पूर्ण पुरस्कार राशि वियतनाम युद्ध के अभियान को दान दे दी। इस अवसर पर उन्होंने कहा : "हम अमेरिकियों के पास सब कुछ है। हम अनुभूतियों भरा जीवन जीने की कामना तो करते हैं पर किसी प्रकार का कष्ट उठाकर नहीं । हम भूरापूरा जीवन।।। निरंतर विजयी होते रहना चाहते हैं। हम अपेरिकियों ने हमेशा ही कष्टों से दूर-दूर बने रहने की काशिशें की हैं।।। और इसी कारण वर्तमान से हमारा नात नजदीक का नहीं बन पाता।" अपने हाल के इंटरव्यू में राबर्ट ब्लाई ने बेबाकी से कहा कि वियतनाम युद्ध के दौरान जो बात सही थी - आज इतने वर्ष बीत जाने के बाद इराक युद्ध के दौरान भी उतनी ही सही है।

इसी फरवरी में उन्हें अमेरिका के मिनिसोटा स्टेट का पोएट नियुक्त किया गया हे। यहां प्रस्तुत है राबर्ट ब्लाई की दो कविताएं जिनमें से पहली (सवाल और जवाब) इराक युद्ध के दोरान लिखी गई युद्ध विरोधी कविताओं में अग्रणी मानी जाती है। - यादवेन्द्र।




रॉबर्ट ब्लाई


सवाल और जवाब


बताओ तो कि आजकल हम
आसपास होती घटनाओं पर चीखते क्यों नहीं
आवाज क्यों नहीं उठाते
तुमने देखा कि
इराक के बारे में योजनाएं बनाई जा रही हैं
और बर्फ की चादर पिघलने लगी है



अपने आपसे पूछता हूं: जाओ, जोर से चीखो!
यह क्या बात हुई कि जवान शरीर हो
और इसकी कोई आवाज न हो ?
बुलंद आवाज से चीखो!
देखो जवाब कौन देता है
सवाल करो और जवाब हासिल करो।

खासतौर पर हमें अपनी आवाज में दम लगाना पड़ेगा
जिससे ये फरिश्तों तक पहुंच सकें -
इन दिनों वे ऊंचा सुनने लगे हैं।
हमारे युद्धों के दौरान
खामोशी से भर दिये गए पात्रों में
गोता लगाकर गुम हो गए हैं वे।

क्या इतने सारे युद्धों के लिए अपने आपको तैयार कर चुके हैं हम
कि अब खामोशी की आदत-सी हो गई है ?
यदि हम अब भी अपनी आवाज बुलंद नहीं करेंगे
तो काई न कोई (हमारा अपना ही) हमारा घर लूट ले जाएगा।

ऐसा हो गया कि
नेरूदा, अख्मातोवा, फ्रेडरिक डगलस जैसे
महान उदघोषकों की आवाज सुनकर भी
अब हम गौरैयों जैसे झाड़ियों में दुबक कर
अपनी अपनी जान की खैर मना रहे हैं ?

कुछ विद्धानों ने हमारा जीवन महज सात दिनों का बताया है।
एक हफ्ते में हम कहां तक पहुंचते हैं ?
क्या आज भी गुरुवार ही है ?
फुर्ती दिखाओ, अपनी आवाज बुलंद करो।
रविवार देखते-देखते आ जाएगा।


ठिगनी लाशों की गिनती


आओ एक बार फिर से लाशों की गिनती करें।
यदि हम इन लाशों को छोटा कर पाते-
खोपड़ी के आकार जैसा
तो इन्हें इक्टठा करके
श्वेत धवल एक चिकना चबूतरा निर्मित कर लेते
चांदनी रातों में।
यदि हम इन लाशों को छोटा और छोटा कर पाते -
तो साल भर में किए गए शिकार को
बड़ी आसानी से सजाकर रख देते
अपने सामने पड़ी छोटी-सी मेज पर।
यदि हम इन लाशों को छोटा कर पाते -
तो नग की तरह गढ़वा लेते एक अदद शिकार
यादगार के वास्ते सदा सदा के लिए
अपनी अंगूठी में ।




अंग्रेजी से अनुवाद - यादवेन्द्र

हमें गहरी उम्मीद से देखो - कवि राजेश सकलानी की कविता की पंक्ति

Wednesday, August 6, 2008

एक रचना का कविता होना

एक साथी ब्लागर ने अपने ब्लाग पर प्रकाशित कविता के बारे में मुझसे अपनी बेबाक राय रखने को कहा. पता नहीं जो कुछ मैंने उन्हें पत्र में लिखा बेबाक था या नहीं. हा समकालीन कविता के बारे में मेरी जो समझदारी है, मैंने उसे ईमानदारी से रखने की कोशिश जरूर की. उस राय को आप सबके साथ शेयर करने को इसलिए रख रहा हूं कि इस पर आम पाठकों की भी राय मिल सके और मेरी ये राय कोई अन्तिम राय न हो बल्कि आप लोगों की राय से हम समकालीन कविताओं को समझने के लिए अपने को सम्रद्ध कर सकें.

आपने टिप्पणी देने के लिए कहा था. बंधु कविता में जो प्रसंग आया है वह निश्चित ही मार्मिक है जैसा की सभी पाठकों ने, जिन्होंने भी अपनी टिप्पणियां छोडी, कहा ही है. पर यहां इससे इतर मैं अपनी बात कहना चाह्ता हू कि किसी भी घटना का बयान रिपोर्ट और रचना में जो फ़र्क पैदा करता है, उसका अभाव खटकता है. फ़िर कविताओं के लिए तो एक खास बात, जो मेरी समझ्दारी कहती है कि वह काव्य तत्व जो भाषा को बहुआयामी बनाते हुए एक स्पेस क्रियेट करे, होने पर ही कविता पाठक के भीतर बहुत दूर तक और बहुत देर तक गूंजती रह सकती है. भाषा का ऎसा रूप ही कविता और गद्य रचना के फ़र्क को निर्धारित कर सकता है वरना तो कुछ पंक्तियों को मात्र तोड-तोड कर लिख देने को ही कविता मानने की गलती होती रहेगी. समकालीन कविताओं को समझने के लिए यह एक युक्ति हो सकती है हालांकि इसके इतर भी कई अन्य बातें है जो एक रचना को कविता बना रही होती हैं.



(इस ब्लाग को अप-डेट करने वालों में दिनेश जोशी हमारे ऐसे साथी हैं जो कहानी, कविता के साथ-साथ व्यंग्य भी लिखते हैं और यदा कदा पुस्तकों पर समीक्षात्मक टिप्पणियां भी। यहां प्रस्तुत है उनकी एक ताजा कविता।)

दिनेद्रा चन्द्र जो्शी

अंधेरी कोठरी


खरीदा महंगा अर्पाटमैन्ट बहू बेटे ने
महानगर में,
प्रमुदित थे दोनों बहुत
मां को बुलाया दूसरे बेटे के पास से
गृह प्रवेश किया,हवन पाठ करवाया।
दिखाते हुए मां को अपना घर
बहू ने कहा, मांजी सब आपके
आशीर्वाद से संभव हुआ है यह सब
इनको पढ़ा लिखा कर इस लायक बनाया आपने
वरना हमारी कहां हैसियत होती इतना मंहगा घर लेने की
मां ने गहन निर्लिप्तता से किया फ्लैट का अवलोकन
आंखों में चमक नहीं / उदासी झलकी
याद आये पति संभवत: / याद आया कस्बे का
अपना दो कमरे, रशोई,एक अंधेरी कोठरी व स्टोर वाला मकान
जहां पाले पोसे बढ़े किये चार बच्चे रिश्तेदार मेहमान
बहू ने पूछा उत्साह से ,कैसा लगा मांजी मकान !
'अच्छा है, बहुत अच्छा है बहू !
इतनी बड़ी खुली रशोई,बैठक,कमरे ,गुसलखाने कमरों के बराबर
सब कुछ तो अच्छा है ,पर इसमें तो है ही नहीं कोई अंधेरी कोठरी
जब झिड़केगा तुम्हें मर्द, कल को बेटा
दुखी होगा जब मन,जी करेगा अकेले में रोने का
तब कहां जाओगी, कहां पोछोगी आंसू और कहां से
बाहर निकलोगी गम भुला कर, जुट जाओगी कैसे फिर हंसते हुए
रोजमर्रा के काम में ।'

Tuesday, August 5, 2008

कुत्ते का काटना

पहल-89 । गीत चतुर्वेदी मेरे पसंदीदा लेखकों में से हैं। इधर तेजी से उभरे ऊर्जावान युवा रचनाकारों के बीच गीत की रचनाओं तक पहुंचना मेरी प्राथमिकता में रहता है। मुझे उनकी भाषा में समकालीन दुनिया के तनाव और उन तनाव भरी स्थितियों के कारकों के खिलाफ एक गुस्सा हमेशा प्रभावित करता है। गीत को मैं सिर्फ उनकी रचनाओं से जानता हूं, कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं। होता तो कह सकता कि कभी-कभी कुछ असहमतियों के साथ भी रहता हूं मित्र। सतत रचनारत गीत दुनियाभर की साहित्यिक हलचलों के साथ भी जुड़े रहते हैं और हिन्दी पाठक जगत को उससे अवगत कराने के लिए भी उत्सुक रहते हैं, ऐसा उन्हें पढ़ने के कारण कह पा रहा हूं। अभी पहल का नया अंक प्रकाशित हुआ है। पहल-89 । हाल ही में कनाडा के छोटे से शहर रॉटरडम में सम्पन्न हुए कविता समारोह की एक अच्छी रिपोर्ट गीत ने तैयार की है जो पहल के इस अंक में प्रकाशित हुई है। साथ ही गीत द्वारा अनुदित अरबी मूल की कवि ईमान मर्सल की डाायरी का अनुवाद भी पहल के इसी अंक में है। युवा कवि ईमान मर्सल वर्ष 2003 में रॉटरडम कविता समारोह में आमंत्रित थी। उसी समारोह के उनकी डायरी में दर्ज अनुभवों का अनुवाद पहल ने प्रकाशित किया है। यहां प्रस्तुत है उसका एक छोटा सा हिस्सा।


ईमान मर्सल

जब मैं कॉलेज में पढ़ती थी, तब एक बार गली में कुत्ते ने मुझे काट लिया। इक्कीस दिनों तक लगातार हर सुबह मैं अल-मंसूरा अस्पताल के नर्स कार्यालय के सामने लगने वाली कतार में खड़ी रहती थी, ताकि एंटी-रैबीज इंजेक्शन ले सकूं। इंतजार करते हुए मैं अक्सर सबको एक-दूसरे से यह पूछते सुनते थी - किसने काटा ? कुत्ते, बिल्ली या घोडे ने ? यह मुझे बहुत बाद में पता लगा कि इनमें से किसी ने भी काटा हो, इंजेक्शन तो एक ही लगेगा। लेकिन यह पूछताछ इसलिए होती थी ताकि इंतजार करते हुए लोग एक-दूसरे से बात कर सकें। हर किसी की कहानी में एक अलग किस्म की नाटकीयता और अलगाव होता था। जबकि कतार से खड़े पुराने मरीज बताते थे कि जिस समय पेट में सुई लग रही हो, उस समय कैसे दर्द को संभालना चाहिए।

यहां आमंत्रित इन सारे कवियों को सुनते हुए मुझे वह दृश्य बरबस याद आता रहा। ये सारे कवि एक-दूसरे को अपना परिचय देते हुए बताते रहे थे कि उन्होंने इतने साल जेल में काटे हैं या इस-तरह की यातनाओं से गुजर चुके हैं। ऐसा नहीं कि जेल या यातना के अनुभवों को न सुना जाए या हमदर्दी न जताई जाए, बल्कि एक कवि या लेखक के तौर पर ये बातें एक किस्म की भूमिका के रूप में होती हैं, कि यह उनक लेखन के अलावा एक सकारात्मक गुण है। पच्च्चिमी संस्थाएं जब लेखकों को उनके जेल या यातना के अनुभवों के आधार पर चुनती हैं, तो उनका उद्देश्य यह बताना होता है कि फलां देश में अभिव्यक्ति स्वातंत्रय न होने की वजह से लेखक कितना असहाय है। हो सकता है कि यह उस भूमिका के प्रति एक किस्म का नकार हो, जो कि पश्चिम कुछ खास क्षेत्रों जैसे मिडिल-ईस्ट, में स्वतंत्रता को न उभरने देने में निभाता है।

अनुवाद - गीत चतुर्वेदी