कथाक्रम के जुलाई-सितम्बर 2008 के अंक में प्रकाशित अल्पना मिश्र की कहानी सड़क मुस्तकिल यहां पुन: प्रकाशित की जा रही है। युवा रचनाकरों पर केन्द्रित कथाक्रम के इस अंक में ब्लाग जगत में सक्रिय रूप से रचनारत प्रत्यक्षा, पंकज सुबीर की भी कहानियां हैं और गीत चतुर्वेदी,हरे प्रकाश उपाध्याय एवं शिरीष कुमार मौर्य की कविताऐं भी। अल्पना मिश्र की कहानी सड़क मुस्तकिल अपने मिजाज के कारण एक उल्लेखनीय रचना है। अल्पना के दो कहानी संग्रह अभी तक प्रकाशित हुए हैं - भीतर का वक्त और छावनी में बेघर। अल्पना के पहले कथा संग्रह पर टिप्पणी करते हुए मैंने अन्यत्र लिखा था, "सामान्य भौतिक परिस्थितियां- एक ही काम को करते रहने की उक्ताहट, दुनिया जहान के कलह-झगड़े, ऐसी ही तमाम कठिनाईयां, जो कहीं न कहीं भीतर ही भीतर किसी को भी छीज रही होती हैं और शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी समाप्त कर रही होती हैं, जीवन में उत्साह और विश्वास की अनुकूल स्थितियों के विरुद्ध गहरे संत्रास और निराशा को जन्म देती हैं। स्त्री जीवन की ऐसी तमाम कठिनाईयों को और ज्यादा बढ़ाती हुई और उन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल बनाती हुई, संसार की उपेक्षाओं का दंश अल्पना मिश्र के पहले कथा संग्रह, 'भीतर का वक्त’ की मूल कथा है।
पहले कथा संग्रह की कहानियों में जहां आम घरेलू स्त्री के जीवन के चित्र बिखरे पड़े हैं वहीं दूसरे कथा संग्रह, छावनी में बेघर की कहानियां में घरेलू और बाहरी दुनिया के तनाव में उलझी स्त्री की तस्वीर, स्पष्ट तौर पर दिखायी देती है। एक रचनाकार के विकासक्रम में अल्पना की प्रस्तुत कहानी वर्गीय दृष्टिकोण को सामने रखती है। अल्पना की रचना यात्रा एक सचेत कहानीकार की यात्रा है। यह अनायास नहीं है कि उनकी कहानी अपने मिजाज में लगातार अपने बदलाव के साथ है। यदि इसी मिजाज की कहानियां पहले संग्रह में होती तो उनके लेखन का मंतव्य शायद उतना स्पष्ट न हुआ होता। बिना किसी जल्दबाजी ओर बिना किसी हड़बड़ी के, अल्पना, समाज के बुनियादी चरित्र में बदलाव के लिए आवश्यक लम्बे संघर्ष के साथ, अपने लेखन को जोड़ते हुए, सतत रचनारत हैं। प्रस्तुत कहानी एक रचनाकार के रचनात्मक सरोकारों को रखने के लिए एक साक्ष्य भी है। |
सड़क मुस्तकिल-
अल्पना मिश्र 09412055662, alpana.mishra@yahoo.co.in
भीड़ थी ही।
और बढ़ गयी है।
अचानक।
नदी उमड़ आयी है।
आदमियों की नदी।
गाड़ियों में लदे आदमियों की नदी।
एक मोटरसाईकिल वाला जैसे तैसे उसे चीर कर निकलने की कोशिश कर रहा है। किसी बच्चे की एक हवाई चप्पल सड़क के बिल्कुल बीच में छूटी पड़ी थी। भीड़ ने उसे खिसका कर इधर उधर कर दिया है। तरह तरह की गाड़ियॉ ठक् से आकर भीड़ के पीछे रूक गयी हैं। भीड़ के केंद्र में एक औरत चिल्ला कर कुछ कह रही है। औरत नाटे कद की है। आटे की लोई जैसी गोरी है और थोड़ी मोटी। उसकी उम्र का अंदाज किया जाए तो यही कहा जाएगा कि होगी कोई चालीस पैंतालीस के आस पास। माथे पर उसने एक छोटी सी नीली बिंदी लगा रखी है। बाल काले हैं। इतने काले कि उनका कालापन किसी भी कालेपन को मात दे सकता है। शायद किसी सस्ते डाई से काले बनाए गए हैं। होठों पर चटक लाल लिपिस्टिक है। उसने गहरे नीले रंग का चमकदार सा पीली बुंदियों वाला, सौ प्रतिशत सिंथेटिक सलवार कुर्ता पहना है और गहरे नीले रंग का चमकता सा दुपट्टा गले में डाले हुए है। उसका एक हाथ उठा हुआ सा भीड़ की तरफ है और दूसरा, उसके ठीक पीछे खड़े स्कूटर की तरफ।
औरत हाथ उठा कर जिस स्कूटर की तरफ इशारा कर रही है, वह आसमानी रंग का है। उसकी आगे की हेडलाइट टूट गयी है, जिसके कुछ टुकड़े इधर उधर बिखरे हुए हैं, जो गवाह हैं कि ये टूटना एकदम ताजा है। इसी आसमानी स्कूटर पर एक मरियल सा बुड्ढा बैठा हुआ औरत को बिना पलक झपकाए पीछे से देख रहा है। उसका लम्बा चेहरा सूखी लौकी की तरह लटका हुआ है। गाल पिचके हैं। उसने पूरी बॉह की हल्की धारियों वाली, हल्की पीली बुच्चर्ट पहनी है और स्कूटर की हैंडल को ड्राइवर वाले अंदाज में पकडे खड़ा हो गया है। लेकिन स्कूटर और औरत को देख कर कोई भी कह सकता है कि इस आसमानी स्कूटर की असली ड्राइवर ये औरत ही है।
जब मोटी औरत ने चिल्ला कर लोगों को बताया कि स्कूटर बुड्ढा चला रहा था तो एक पल को लोग चौंक से गए। लेकिन औरत के इस हंगामेदार ऐलान ने बूढ़े को पूरे जोश से भर दिया और उसने एकदम बॉंके छोरे वाली अदा से स्कूटर को सहलाया।
''मेरे मालिक से बात करो। मैं क्यों दूं पैसे? मेरी गलती नहीं हैं।"
टाटा सूमो से सट कर खड़े पिद्दी से लड़के ने गुस्सा कर कहा।
''तेरे मालिक को कहॉ पाउंगी कि लड़ूंगी, जो सामने मिलेगा उसी से हिसाब करूंगी।"
यह कहते हुए औरत ने भीड़ को चीरा और सड़क किनारे से ईटे का एक अद्धा उठाया और गाड़ी की तरफ लपकी।
''अरे, अरे, क्या कर रही हो? मेरी गाड़ी नहीं है। छूना मत। डेंट पड़ जाएगी।"
लड़के ने अधीरता से कहा।
''तू ऐसे नहीं मानेगा। यही है तेरा ईलाज। मेरा पैसा ठीकरा नहीं है कि बेकार जाने दूं! पाई पाई जोड़ा है। कोई कारू का खजाना नहीं है रे कि रोज कोई हेडलाइट तोड़े तो रोज बनबाउं।" यह आखिरी वाक्य औरत ने अद्धा उठाए उठाए पूरी भीड़ को कहा। अचानक ही पिद्दी से लड़के के साथ साथ पूरी भीड़ गुनहगार हो गयी।
इसी बीच अधेड़ उम्र के एक सज्जन ने, जिन्हें व्यवस्था और प्रशासन जैसी चीजों पर कुछ भरोसा था, जोर से चिल्लाए- '' ट्रैफिक पुलिस कहॉ है? बुलाओ भई उसे।"
"बुलाओ, पुलिस बुलाओ। हम भी छोड़ने वालों में से नहीं हैं। "
औरत ने ललकार कर कहा और अपने पास खड़ी टाटा सूमो से सट कर खड़े सूखे से लड़के की तरफ गरदन मोड़ कर चिल्लायी -
''साले, दूध का दूध पानी का पानी यहीं कर के जायेंगे।"
''अद्धा तो फेंक!" किसी ने जोर से कहा।
औरत ने अपने सामने अद्धा जोर से पटक दिया। सड़क हल्की सी वहॉ पर खुद गयी। लड़के ने सांस लिया।
'' ट्रैफिक पुलिस किधर है?"
जैसे ही पुलिस का नाम आया, लड़का सिटपिटा कर कुछ कहने लगा।
'' एक्सिडेंट का केस है।"
पीछे से नई आती भीड़ ने झॉक कर अपने से और पीछे को सूचना दी।
इसी में धकमपेल मची थी। लोग अपनी गाड़ी निकालने की जल्दी में थे। दुपहिया वाले तो जैसे तैसे निकाल भी रहे थे।
पुलिस की बात आयी तो सामने से सबकी निगाह उठ कर वहॉ गयी। वहॉ सामने। सामने के सड़क को पार करती, उसकी बॉयी ओर सट कर बनी चाय गुमटी की ओर। वहॉ तक, जहॉ भूतपूर्व नौजवान सा दिखता एक दुबला पतला आदमी हाथ में चाय का गिलास थामे इधर की तरफ ही देख रहा था। देखते हुए आदमी एकदम इत्मीनान से चाय पी रहा था। उसका घिसा हुआ खाकी रंग का शर्ट और पैंट उसकी नाप से बड़ा था। शायद उस समय सिलाया गया हो, जब वह कुछ तंदरूस्त रहा हो। एक काला बेल्ट भी था। कुल मिला कर उसका यह पहनावा वर्दी कहलाता था और लोग इसी से डर जाते थे।
इतने इत्मीनान से उसका चाय पीना भीड़ को अच्छा नहीं लगा।
''महाराज चाय पी रहे हैं।" किसी ने कहा।
भीड़ बने एक दो लोग उसकी तरफ लपके। उन्हें अपनी तरफ आता देख कर भी घ्ािसी हुई खाकी पैंट द्रार्ट के भीतर फॅसे आदमी ने कोई हैरानी या तत्परता नहीं दिखाई। जैसे कि उसने माना ही नहीं कि कोई उसे खोजने भी आएगा। क्यों आएगा भला? भीड़ तो अक्सर लगती छंटती रहती है। और अगर आएगा भी तो क्या? देख लिया जाएगा। सिपाही इस आत्मविश्वास की अद्भुत आभा से दमक रहा था। दो लोग उसके बिल्कुल नजदीक आ गए, वह तब भी चाय पीता रहा।
''अब चलेंगे हवलदार साहब! रणचंडी देवी सड़क सिर पर उठाए हैं।"
''कौनो महिला का मामला है क्या?"
सिपाही ने बिना चौंके पूछा और एक अजीब इत्मीनान से चाय का आखिरी घूंट लेकर कप रख दिया।
''चलो भई। चैन से चाय भी नहीं पी सकते।"
इस तरह कह कर उसने अपने साथ चलते लोगों से इस नौकरी में 'चाय भी न पी पाने की फुर्सत" की निहायत परेच्चानी के बावत बताया। लेकिन लोग थे कि उसके इस दर्द को जानने के बिल्कुल इच्छुक नहीं थे। सिपाही भी इस लोक चेतना का ज्ञाता था शायद। इसीलिए उसने इस बात को ज्यादा नहीं खींचा।
सिपाही को देखते ही पैदल भीड़ काफी छंट गयी। तब भी सिपाही ने अपनी छड़ी उठा कर किसी बड़ी भीड़ में रास्ता बनाने की अपनी किसी पुरानी ट्रेनिंग के हिसाब से रास्ता बनाया।
''चलिए हटिए, हटिए।" कहते हुए सिपाही जी सीधे जाकर उस महिला, उस पिद्दी से लड़के और उस बॉके छोरे जैसा नखरा दिखाते बूढ़े के पास खड़े हो गये।
''हल्ला मत मचाइए।" भीड़ की तरफ मुड़ कर सिपाही ने कहा। उसके इतना कहते पिद्दी लड़का दौड़ने की तरह दौड़ा। जगह इतनी नहीं थी कि वह पूरा दौड़ पाता। वह दो तीन कदम दौड़ा और सिपाही के दो लकड़ी जैसे पैरों को अपने दो मरियल हाथों से जकड़ लिया। इस दौड़ने में उसने औरत के दौड़ने और झपटने को मात दे दिया। सिपाही ने तत्काल ही उससे पैर छुड़ाने की कोच्चिच्च की। इस पर वह भहराते हुए भी पूरी ताकत से रोने जैसा चीखा -
''साहेब, बड़े मालिक, मेरी गलती नहीं है मालिक। गाड़ी मेरी नहीं है। मैं कहॉ से भरपाई कर पाउंगा? मैं तो आगे था, पीछे से आकर ये खुद ही भिड़ गए हैं। वो तो मेरी गाड़ी धीमी थी, वरना---"
''वरना क्या?" महिला पूरी तेजी से झपटी। लगा कि वह कुछ आर पार की लड़ाई लड़ कर रहेगी, पर उसने सिर्फ हल्का सा धा देकर लड़के को पीछे ढकेला।
''वरना क्या? मैं मर जाती ? मेरा बूढ़ा मर जाता? यही न? तू बैठा है बड़ी गाड़ी में, तेरा क्या बिगड़ता। हं। इसकी बात सुनोगे सिपाही जी? मैं क्या जानूं कि गाड़ी इसकी है कि इसके मालिक की? मुझे तो अपने नुकसान के पैसे चाहिए, बस।"
'' लेकिन मैडम, आपकी स्कूटर पीछे थी।"
पीछे से किसी लड़के ने हॅस कर कहा। लेकिन न ही उसने इस बात पर जोर दिया और न ही भीड़ से निकल कर सामने आया। बल्कि हॅस कर उसने एक तरह से इस दृश्य की सत्यता को टाल दिया।
लेकिन लड़के की हॅसी और मजे में उछाले गए इस वाक्य की सत्यता से पिद्दी लड़का चौकन्ना हो गया। उसने सिपाही का पैर छोडा और भीड़ के पैरों की तरफ बढा। ऑखों ही ऑखों में उसने हॅसने वाले लड़के को खोजा भी।
''आप ही लोग बताइए हमारी कौनो गलती है? आप सब लोग देखे हैं। देखे हैं न! जरा कहिए सरकार से। समझाइए माई बाप। बताइए इनसे। आप नहीं बोलेंगे तो कौन न्याय करेगा हम गरीबों का? बोलिए, बताइए।"
भीड़ से कोई आवाज नहीं आयी। आवाजें थीं, पर वे उनकी आपसी परेशानियों की थीं। आवाजें हार्न की भी थीं, जो उनके बेहद जल्दी में होने का संकेत दे रही थीं। आवाजें पैरों की भी थीं, जो इधर से उधर मुड़ रहे थे।
लड़का फिर खाकी पैंट शर्ट की तरफ मुड़ा- '' मालिक , हम सच कह रहे हैं--- छोटे छोटे बच्चे हैं हमारे।"
''चुप बे!" खाकी पैंट शर्ट के भीतर फॅसे आदमी के डंडे से तेज आवाज आयी। हॅलाकि डंडा केवल फटकारा गया था।
लोगों का ध्यान न सिपाही के डंडे की फटकार की तरफ था, न लड़के के रिरियाने पर। न ही उसी समय मौका देख कर गुब्बारा बेचने पॅहुच आए लड़के की तरफ और न ही 'शनिदान" जैसी आवाज निकालने वाले उस आदमी की तरफ, जिसके हाथ के कटोरे में थोडा सा सरसों का तेल था और जिसने कुछ कुछ साधु जैसा वेश बनाया था। उनको लग रहा था जैसे यह किसी फिल्म का दृश्य है, जिसे थोड़ी देर में बीत जाना है। वे टेलीविजन पर लगातार देखते हुए ऐसे द्र्श्यों आदी हो चुके थे और फिर उनकी खुद की भी परेशानियॉ बहुत थीं।
'अरे भई, जल्दी मामला खत्म करो!’
जनरल पब्लिक ओपीनियन।
''अरे यार, क्या बेहूदगी है, इतनी देर से जाम लगा रखा है?"
कार के भीतर बैठे एक सज्जन बड़बड़ाए।
'' उफ्, लोग भी, सड़क पर तमाशा करते रहते हैं!"
उसी कार में बैठी एक सजी धजी गुडियानुमा महिला बुदबुदायी।
''एक तो पतली सड़के उपर से इतना ट्रेफिक!"
''अरे, निपटाओ भई नौटकीं।"
बेताबी से अपनी जीप से झॉकते एक नेतानुमा आदमी ने कहा।
उधर महिला, जो आटे के लोई के रंग की थी, जिसके बाल रंग रोगन से काले थे, जो पिद्दी लड़के के कुछ भी कहने पर झपट कर उसे हल्का सा धक्का दे देती थी। धकियाने में उसका दुपट्टा गिर जाता था तो वह उसे झपाटे से उठा कर वापस कंधे पर डाल लेती थी। वह कुछ इस तरह चिल्लाने लगी-
''हाय, मुझे झूठी कह रहा है। इतनी सी बात के लिए मैं झूठ बोलूंगी? इतनी सी बात के लिए कोई औरत झूठ बोलेगी? सड़क पर हल्ला मचायेगी? हॉ, तुम्ही बोलो सिपाही जी, औरत की कोई इज्जत होती है कि नहीं?" यह कहते हुए औरत पूरी भीड़ को संबोधित करने लगी। बुड्ढे ने पूरी तान के साथ सिर हिलाया। सिपाही अपनी छड़ी अपने हाथ पर हौले हौले पटकने लगा, मानो किसी पुरानी धुन पर ताल दे रहा हो। भीड़ में एक दो लोगों ने 'बेचारी" कहा तो किसी किसी ने 'नाटकबाज" जैसा भी कहा।
''इज्जत!" हल्का सा हॅस कर नेतानुमा आदमी जीप में बैठे बैठे बड़बड़ाया।
इस बीच औरत ने पूरी चुनौती के साथ अपना परिचय हवा में लहराया।
''मेरे बारे में जान लो। यहीं सरकारी अस्पताल में काम करती हूं। ड्यूटी पर देर हो रही है और तुम सब यहॉ भीड़ लगाए खड़े हो! सरकारी कर्मचारी हूं। रिपोर्ट लिखवाउंगी। हूं, सोच ले तू। पैसा निकालता है कि चलूं थाने? औरत के साथ ऐसा करता है!"
'' दिखाओ कितना टूटा है?"
कह कर सिपाही ने उसे बॉह से पकड़ा और स्कूटर की तरफ मुड़ा।
बुड्ढा पूरी तत्परता से स्कूटर की टूटी हेडलाइट दिखाने लगा।
''देखिए जी, ये देखिए जी, इधर डेंट लग गया है।"
''ये कौन है तेरे साथ?" सिपाही ने बूढ़े को घूरा।
''ये बेचारा बूढ़ा मुझे अस्पताल छोड़ने जा रहा था। इसकी कहानी तो और भी दुखभरी है भाई जी। इसकी बीबी अस्पताल में मर रही है और ये बेचारा यहॉ मुसीबत में उलझ गया। मेरा रिश्तेदार है। अब मुसीबत में आदमी अपने को ही तो बुलायेगा। क्यों भाइयों !"
औरत ने आखिरी वाक्य किसी जोरदार फिल्मी डायलाग की तरह कहा।
बूढ़े ने अपने लटके मुंह को और लटका लिया।
''लेकिन ये तो पीछे से अपने आप---मेरी गलती नहीं है।"
पिद्दी लड़का एक बार फिर अपने बचाव में आगे आया। लेकिन इस बार उसकी तरफ किसी ने नहीं देखा। भीड़ के ज्यादातर लोग या तो झुकी हुयी महिला के गोल गले वाले कुर्ते से बाहर ढलक पड़ते आधे तरबूजों को देखने में लगे थे या फिर इस दृश्य को देख पाने में नाकाम अपनी गाड़ियों में खीझ रहे थे। महिला ने इस बीच नाक सिकोड़ते हुए सिपाही की हथेली से अपनी बॉह मुक्त करा ली और अपना मुंह सिपाही के भूतपूर्व नौजवान मुंह के पास ले जा कर बोली- ''आप ही बताओ सिपाही जी, बेवजह की मुसीबत हो गयी। खर्चा अलग सिर पर। तुम्हारे रहते अन्याय नहीं हो सकता।" आखिरी वाक्य महिला ने बहुत धीरे से कहा। सिर्फ और सिर्फ सिपाही के लिए।
सिपाही का ध्यान अचानक ही तरबूजों से हटा और उसने पाया कि उसके हाथ में टूटी हुई हेडलाइट की किरचें हैं। उसने उन्हें सड़क पर फेक कर हाथ झाड़ा और एकदम से लड़के की तरफ झपटा।
''पैसे निकालता है कि थाने ले चलूं?"
''साहब मेरे पास इतने पैसे कहॉ हैं? नौकरी नई है। गाड़ी मालिक की है। सुनेंगे तो अलग मारेंगे मुझे। मुझ पर रहम करो। गलती होती तो भी कहॉ से पैसे लाता? हुजूर, अन्याय न करो।"
लड़के ने गिड़गिड़ाते हुए कहा।
''पॉच सौ दे इन्हें।"कह कर झपट कर सिपाही ने लड़के की कमीज और पैंट की पॉकेट खंगाली। पैंट के पीछे की पॉकेट से भूरे रंग का एक वॉलेट मिला, जो शायद लम्बे समय से वहॉ पड़े रहने के कारण या शायद पसीने में भीगते रहने के कारण या शायद बारिश में बार बार भीग जाने के कारण या शायद तीनों या इनमें से किसी एक कारण से अजीब तरह से घिस चुका था। उसकी त्वचा जगह जगह से निकल गयी थी और असके भीतर का हल्का मटमैला भूरापन प्रकट हो गया था। उसी के साथ तम्बाकू का एक पॉउच भी बरामद हुआ और एक सेल फोन भी। पॉउच जितना चमक रहा था, सेल फोन उतना ही निस्तेज था। उसकी बटन की जगह उचड़ गयी थी और उसके स्टील के शरीर को आसानी से पहचाना जा सकता था।
''हूं, तो ये भी।" सिपाही ने पिद्दी लड़के की तरफ ऐसे देखा मानो यह छोटा सा पाउच और यह सेल फोन बड़ी बड़ी गुनहगार शौकों का प्रमाण हो।
सिपाही ने जब उस भूरे रंग के घिसे हुए वॉलेट में अपनी अंगुलियॉ फॅसायीं तो लगा कि वॉलेट फट जायेगा। वॉलेट के फटने की गुंजाइश के साथ ही पिद्दी लड़का तड़प उठा-
'' साहब, मेरी गलती नहीं है। इसे मत लो।"
''चुप बे। चोरी और सीनाजोरी।"
सिपाही ने उसमें से गीली सीली सी जो नोटें निकालीं, वे कुल मिला कर दो सौ पॉच हुयीं।
''लो जी।" कहते हुए सौ रूपये सिपाही ने आटे की लोई जैसी हथेली पर इत्मीनान से छूते हुए रखा, जैसे कहा हो 'तुझे तो मैं देख लूंगा।’
औरत ने भी झट से पैसे अपने छोटे से पर्स में डाले, जो लड़के के वॉलेट से थोड़ा गनीमत हालत में था। फिर उसने मुंह बनाया, जैसे कहा हो 'तेरे जैसे बड़े देखे।’
सेल फोन के साथ बाकी की नोट सिपाही ने अपने खाकी पैंट के पीछे पुट्ठे की पॉकेट में खोंस दिया।
भूरे रंग के उस वॉलेट को सिपाही ने घृणा के साथ नीचे गिर जाने दिया।
''चलो, चलो, जाओ, जाओ।" कह कर वह अपने भूतपूर्व जवान चेहरे के साथ हॅसा।
''थाने आ जइयो।"" सिपाही ने डंडा अपने हाथ पर बजाते हुए लड़के से कहा।
लड़का कुछ गुस्से से, कुछ घृणा और कुछ दुख से घूरता खड़ा रहा।
अपने आटे की लोई जैसे गोरे चेहरे और रंग रोगन से काले किए बालों और माटापे के साथ थोड़ा सा विजय का गर्व मिला कर औरत मुड़ी। गाड़ियॉ चल पड़ीं। भीड़ गतिमान हो गयी। लोग अपनी अपनी तरह से अपनी अपनी जल्दबाजी के भीतर चले गए। पिचके हुए गालों वाला बूढ़ा आदमी आसमानी स्कूटर पर ड्राइवर की तरह बैठ गया। औरत घोड़े पर चढ़ कर उसके पीछे बैठी।
अस्पताल के पास पॅहुच कर औरत आसमानी रंग के जहाज से उतरी।
'' हम उनसे तो लड़ नहीं पाते। गाड़ीवालों से।" तब बूढ़े ने धीरे से कहा।
बूढ़े की तरफ देख कर नरम आवाज में औरत बोली-''बूढ़ा हो गया है, संभल कर चला कर। रोज कहॉ तक बचाउंगी तुझे। उस बेचारे लड़के की जेब बेवजह खाली करा दिया। गलती तेरी, भुगते दूसरे।"
''जिससे लड़ पायेंगे, उसी से तो लड़ेंगे।"
औरत ने फिर कहा और अपने छोटे सस्ते से पर्स से पचास की नोट निकाल कर बुडढे की हल्की धारीदार हल्की पीली बुशर्ट की पॉकेट में डाला और मुड़ कर अस्पताल के गेट के अंदर चली गयी।
संवेदना पर लिखा जा रहा गल्प बीच-बीच में जारी रहेगा। संस्था से समय बे समय जुडे रहे अन्य रचनाकार भी संभवत: इसमें शिरकत करें। |