Monday, April 13, 2009

एक कप काफी पांच पानी




देहरादून १३ अप्रैल २००९
दिल्ली में मोहन सिंह पैलेस का कॉफी हाऊस अड्डा था कथाकार विष्णु प्रभाकर जी का। विष्णु जी और भीष्म साहनी वहीं बैठते थे। कवि लीलाधर जगूड़ी की स्मृतियों में विष्णु प्रभाकर के उस कॉफी हाऊस में बैठे होने का दृश्य उतर गया।

कथाकार विष्णु प्रभाकर को विनम्र श्रद्धाजंली देते हुए देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना की गोष्ठी में जब उनके अवदान को याद को याद किया गया था तो जो किस्सा कवि लीलाधर जगूड़ी की जुबान से सुना उसका तर्जुमा करके भी रख पाना संभव नहीं हो रहा है।
जगूड़ी कह रहे थे -
दिल्ली का वह कॉफी हाऊस था ही ऐसी जगह जहां जुटने वाले साहित्यकारों के बीच आपसी रिश्तों में एक ऐसा अनोखा जुड़ाव था कि विष्णु प्रभाकर उसकी एक कड़ी हुआ करते। वे किसी भी टेबल पर हो सकते थे। एक ऐसी टेबल पर भी जहां उसी वक्त पहुंचा हुआ कोई कॉफी पीने की अपनी हुड़क को इसलिए नहीं दबाता था कि सबको पिलाने के लिए उसके पास प्ार्याप्त पैसे नहीं है। टेबल पर उसके समेत यदि छै लोग हों तो एक कप कॉफी और पांच गिलास पानी मंगाते हुए उसे हिचकना नहीं पड़ता था। वहीं कॉफी हाऊस के पानी को पी-पीकर उस दौर के युवा और आज के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी और प्रभाति नौटियाल सरीखे उनके अभिन्न मित्र उस समय तक, जब तक कि किसी एक दिन का प्ार्याप्त भोजन जुटा पाना उनके लिए संभव नहीं हुआ था, अपने शरीर में उसी पानी की ऊर्जा को संचित करते थे। बाद में जब उन तीनों ही मित्रों का जे.एन.यू. में दाखिला हो गया हो गया और रहने ठहरने के साथ-साथ खाने का जुगाड़ भी तो पहले दिन छक कर खाना खा लेने के बाद वे तीनों ही बीमार पड़ गए। मोहन सिंह पैलेस, कॉफी हाऊस के अड्डे वालों को जब पता लगा कि बहुत दिनों से खाना न खा पाने के बाद ठीक से मिल गए खाने ने उन तीन युवाओं की तबियत बिगाड़ दी तो हंसी ठठों से कॉफी हाऊस गूंजने लगा। विष्णु प्रभाकर और भीष्म साहनी की हंसी के बुलबुले भी उठने लगे।
शब्दयोग के संपादक, कथाकार सुभाष पंत ने विष्णु प्रभाकर के रचनाकर्म पर विस्तार से बात करते हुए इस बात पर चिन्ता जाहिर की कि हिन्दी आलोचना की खेमेबाजी ने उनके रचनाकर्म पर कोई विशेष ध्यान न दिया।
वरिष्ठ कवियत्री कृष्णा खुराना ने शरत चंद की जीवनी आवारा मसिहा को विष्णु जी के रचनाकर्म का बेजोड़ काम कहा।
विष्णु प्रभाकर की कहानी धरती अब भी घूम रही है का पाठ इस मौके पर किया गया। गोष्ठी में डॉ जितेन्द भारती, गुरुदीप खुराना, नितिन, प्रेम साहिल आदि भी उपस्थित थे।

Wednesday, April 8, 2009

इस शहर मे कभी अवधेश ऒर हरजीत रहते थे(२)

बहुत छोटी जगहों से गुजरती बहुत सी जल धारायें आपको मिल जायेंगी जिनका नाम जानने को आप उत्सुक होते हैं. आस-पास किसी को खोजते हैं: कोई है जो इस वेगवती जल-राशि की संञा से मुझे परिचित करायेगा! अक्सर कोई मिलता नहीं है और जब कोई मिलता है तो प्यास नहीं बुझती!


नवीन नैथानी

मेरी तरह जो तूने अगर देखना हो सब
मेरी तरह ही खुद को बदलने की बात कर

हरजीत का यह शे’र उसके मिजाज को तो बताता ही है बल्कि देहरादून की फ़ितरत को भी बहुत कुछ बयान करता है.दोहराव के लिये मित्रों से क्षमा मांगते हुए कहना पड़ रहा है कि कमबख्त यह शहर ही कुछ ऎसा है , कि इसकी कानाफूसियों में लोगों की कमज़र्फियों , बदकारियों , मक्कारियों ऒर गुनाहों की फुसफुसाहटें जगह नहीं पातीं बल्कि वहां आगत रचनाओं की संभावनायें टटोली जाती हैं.

यहां मैं उन लम्हों को आपके साथ बांटना चाहूंगा जहां अवधेश ऒर हरजीत शहर का अनुसंधान करते थे. कुछ शामों का जिक्र होगा, कुछ उनींदी सुबहों के बयां होंगे,चन्द दुपहरों की तपिश में सुलगते हुए मॊन का निःशब्द पाठ होगा.मित्रों के बीच घटित होती हुई स्वप्न सी किसी दुनिया की रचना-प्रक्रिया का अहेतुक साक्षात्कार होगा, ऒर हां! मानव-मन को जानने समझने कोई व्याकुल छटपटाह्ट होगी.

देहरादून से मसूरी जाते हुए तब राजपुर से गुजरना ही होता था.प्रसिद्ध शायर दीवान सिंह ’मफ़्तून’ पर लिखे लाजवाब संस्मरण में मदन शर्मा राजपुर का जिक्र इस ब्लोग में पहले भी कर चुके हैं. योगेंद्र आहूजा भी राजपुर की बाल्कनी को यहीं याद कर चुके हैं. अब मसूरी जाते हुए राजपुर जाना जरूरी नहीं रह गया है. पहले ही रास्ता कट जाता है. यह जगह डाइवर्जन कहलाती है. यह नाम मुझे बहुत प्रतीकात्मक लगताहै. इस जगह से लोग बहुत तेजी से गुजर जाते हैं - मसूरी की तरफ. जिनमें तेजी नहीं होती वे राजपुर की तरफ चले जाते हैं. आजकल एक दूसरा शब्द भी प्रचलन में आ गया है-बाईपास. इस शब्द में किसी जगह से कतरा कर निकल जाने का भाव है. डाइवर्जन में आपके पास चुनाव की स्वतंत्रता होती है.
इस डाइवर्जन पर एक बार शेखर जोशी मिल गये थे-अनायास.यह १९८९ या ९० की बात है. मेरे साथ अवधेश ऒर हरजीत थे. हम राजपुर से लॊट रहे थे-पैदल. वे मेरे साहित्याचार के शुरुआती दिन थे-उन दिनों में प्रथम प्रेम की सी मादकता , उल्लास ऒर पागलपन सब एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हुए जाते थे. वह शायद जून या सितंबर की कोई शाम थी.यह देहरादून में ही संभव है कि आप जून ऒर सितंबर की शाम में फ़र्क महसूस नहीं कर सकें. जून में भी अक्सर इस तरह का मॊसम हो जाता कि आप टिप-टोप में बैठे हैं( यह उन दिनों का मशहूर साहित्यिक अड्डा था, इस रेस्त्रां के मालिक श्री प्रदीप गुप्ता बडे़ शान्त भाव से लेखकों को झेलने का माद्दा रखते हैं. अब नये वक्त की मज़बूरियां उस जगह पर नये उत्पाद खपा रही हैं . इस पर कभी विस्तार से बातें होंगी.) तो अचानक बादल चले आये!
"राजपुर का मॊसम हो गया"हरजीत कह जाता ऒर लोग समझ जाते कि अब हम तीन आदमी चुपचाप वहां से खिसक लेंगे. राजेश सकलानी के अन्दर अद्भुत प्रेक्षण -क्षमता है. उन क्षणों के बारे में राजेश ने मुझसे कई बार आंखों के ईशारे के बारे में कहा है. तीन जोडी़ आंखें आपस में ईशारे करती हुईं ; चेहरे पर कोई जुम्बिश नहीं, थोडी़ पलकें झुकीं , जरा पुतलियां हिलीं और कार्य-क्रम तय हो गया.
सितंबर में तो वैसे भी बादल रहते हैं.तो यह ठीक- ठीक याद नहीं पड़ रहा कि वह बादल कौन से थे ? हां, डाइवर्जन पर शेखर जोशी का मिलना याद है. डाइवर्जन के पास एक ठेले पर हम भुट्टा खोज रहे थे-शायद वह सितंबर की ही शाम थी कि सामने से शेखर जोशी हमारे पास चले आये. इससे पूर्व मैं उनसे IIT कानपुर मे मिला था- गिरिराजजी ने वहां एक कार्य-क्रम करवाया था. IIT समवाय और रचनात्मक लेखन केंद्र के बैनर तले. यह संगमन श्रंखला की शुरुआत से पहले की बात है. वहां एक सत्र की अघ्यक्षता शेखर जोशी
और राजेंद्र यादव कर रहे थे और आपका खाबिन्द वहां जोश में बहुत कुछ कह गया था जिसकी ध्वनी कुछ यूं निकलती थी कि संपादकों को साहित्य के प्रवाह में बाधा नहीं डालनी चाहिये. विचार-धारा के नाम पर चल रही बहसों पर भी कुछ सवाल उठाये थे. संदर्भ उन दिनों चल रही बहस "सेक्स और जनवाद" का था. तो डाइवर्जन में हम जब भुट्टा ढूंढ रहे थे अचानक शेखर जोशी सामने दिखायी दिये. मैं उन्हें पहचान नहीं पाया. एक नये लेखक के लिये यह बात कल्पनातीत थी कि इतने बडे़ कथाकार बीच सड़क पर इस आत्मीयता से मिल सकते हैं. हरजीत ऒर अवधेश भी उनसे पहले नहीं मिले थे. शेखर जोशी उन दिनों अक्सर देहरादून आते जाते रहते थे. उस शाम उनसे बहुत देर तक बातें होती रहीं. अवधेश अक्सर इस तरह के अवसरों पर नहीं बोलता था और मेरे लिये तो बस शेखर जोशी के साथ होना ही बहुत था.हरजीत ही ज्यादातर बातें करता रहा. घण्टाघर के पास लोकल बस -स्टैण्ड में हमने जोशी जी को विदा किया.
यहां डाइवर्जन से घण्टाघर तक का सफ़र किस तरह तय किया गया, यह बात महत्वपूर्ण है. हमने शायद बस ली थी फिर आधे रास्ते में उतर लिये थे.बारिश से बचने की कु्छ कोशिशें थीं
और शहर की तारीफ में कहे गये हरजीत के कुछ शे’र थे.यह याद नहीं कि हरजीत ने उस शाम क्या सुनाया था लेकिन राजपुर की ऊंचाईयों से देहरादून का जिक्र वह अक्सर करता था-
नक़्शे सा बिछ गया है, हमारा नगर यहां
आंखें ये ढूंढती हैं, कहीं अपना घर मिले

राजपुर के ऊपर -शहन शाही आश्रम नाम की जगह है. उस जगह तक पहुंचने से पहले मुझे उसका नाम आकर्षित करता था. इस नाम में एक जादू है. शुरू -शुरू में मुझे शहन शाही की शाही धज नहीं दिखायी पड़ती थी बल्कि एक शहनाई मैं वहां सुना करता था. तो जब पहली बार शहनशाही आश्रम देखा तो अच्छा नहीं लगा. मुझे वह एक वीरान जगह दिखायी पडी़ थी. वह हरजीत और अवधेश से मुलाकात से कुछ वर्ष पूर्व की बात है. तब मैं लोकल बस में बैठ जाता था और आखिरी पडा़व का टिकट लेकर कुछ नयी जगहों के बीच से गुजर जाता था. उन दिनों लोकल बस बहुत कम जगहों के लिये जाती थीं और बहुत कम संख्या में. लिहाजा , उसी बस से वापस लौटना मेरी मजबूरी होती थी.यह वक्त काटने का शगल तो नहीं था पर अनदेखी जगहों को जानने की भूख जरूर थी.इस जानने की शुरूआत जगहों के नाम से ही होती थी.
उन जगहों के नामों मे अद्भुत आकर्षण होता है. देखने या जानने - बूझने से पहले ही एक छवि बस जाती है.
(कुछ नाम जो इस वक्त याद आ रहे हैं,लगे हाथ उन्हें भी दर्ज करता चलूं; हर्षिल-गंगोत्री
और उत्तरकाशी के बीच एक जगह. मंडल-गोपेश्वर से आगे चौपता जाते हुए एक प्यारी सी ठांव. अल्मोडा से कौसानी जाते हुए एक जगह आती है: रन-मन . बहुत छोटी जगहों से गुजरती बहुत सी जल धारायें आपको मिल जायेंगी जिनका नाम जानने को आप उत्सुक होते हैं. आस-पास किसी को खोजते हैं: कोई है जो इस वेगवती जल-राशि की संञा से मुझे परिचित करायेगा! अक्सर कोई मिलता नहीं है और जब कोई मिलता है तो प्यास नहीं बुझती! यह तो अनाम है. जाति-बोधक संञा से काम चला लिया गया है.
"अरे! यह गधेरा है"
"कौन सा गधेरा ?"
"मच्छी-ताल का गधेरा."
"मच्छी-ताल कहां है?"
"आप जहां खडे़ हैं,जरा बांई बाजू की तरफ देखिये. एक रास्ता ऊपर चढ रहा है. वहीं है मच्छी - ताल"
गधेरे का अपना नाम नहीं है.अपनी पहचान नहीं है. प्यास बुझती नहीं. ऐसे में मिल जाता है कोई रेडा़ खाला. एक बरसाती कुनदिका! जब भरकर आती है तो बडी़ चट्टानें टूट - टूट जाती हैं, वहां पिसे हुए पत्थरों का पाट है- रेडा़ फ़कत. रेडा़ खाला.
कभी- कभी कोई खूबसूरत नाम भी मिल जाता है. गंगा की सहायक नदियों में मिलने वाली बहुत सी जलधाराओं के नाम जानने की बडी़ ईच्छा हरजीत के मन में थी. जब मैं ग्वालदम के पास तलवाडी़ रहा तो पिण्डर का सौन्दर्य मुझे बहुत आकर्षित करता रहा. वहां थराली के पास प्राणमति नाम की एक नदी पिंडर में जा मिलती है.)
हम तो शहनशाही की बात कर रहे थे! हरजीत के साथ मैंने शहनशाही आश्रम के आस-पास साल के वृक्षों का जादू जाना.
"यह जीवन जादू हुआ जाता है!"

यह अवधेश की एक कविता की पंक्ति है. इस जादू को हमने जिया. शुरुआत टिप-टाप से हुई थी. वह एक बादल भरी दुपहरी थी.बादल अचानक चले आये थे-ठेठ देहरादूनी मिजाज की तरह! हरजीत की आंखें चमक उठीं.
"राजपुर का मौसम बन गया है" हम तीनों चुपके से सरक लिये. सिटी-बस में बैठे
और राजपुर पहुंच कर सामान हासिल किया. उस दिन हरजीत का झोला साथ नहीं था! (यह होता नहीं था. कोई आठ वर्ष मैंने हरजीत के साथ गुजारे हैं, इतने बरसों में कोई दो या तीन मौके आये होंगे जब वह बिना थैले के निकला होगा. उस थैले में क्या नहीं होता था!)
अब गिलास की समस्या आयी. हम साल - वन में थे ऒर बादल बरस रहे थे.
मित्रों! अवधेश ऒर हरजीत के साथ उस दुपहरी को शाम में तब्दील किया साल के पत्तों ने. हमने पत्तों का दोना बनाया, थोडा़ आबे-हयात मिलाया ऒर साल वृक्षों की छतनार शाखों से टपकती बूंदों की अंजुरियां दोने में छलका दीं. इस मामले में हरजीत पूरा उस्ताद था. अब किस्से को जरा आराम कर लेने दीजिए.तब तक हरजीत का यह शे’र साथ लिये जायें
ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह,शेख,वाहिद,जाहिद हैं हम-प्याला

Tuesday, April 7, 2009

गोदान को फिर से पढ़ते हुए

दिनांक 20 मार्च को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के राधाकृष्णन सभागार में साखी के नये अंक "गोदान को फिर से पढ़ते हुए" का लोकार्पण हुआ। इस अंक का लोकार्पण विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो0 धीरेन्द्र पाल सिंह ने किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि साखी एक महत्वपूर्ण पत्रिका है और मुझे यह जानकर अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि प्रेमचन्द की 125 वीं जयन्ती के अवसर पर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में गोदान को फिर से पढ़ते हुए तीन दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हुआ था। इसमें देश-विदेश कई प्रतिभागियों ने भाग लिया था। कबीर और प्रेमचन्द भारतीय साहित्य के अग्रणी लेखक हैं। गोदान विश्व साहित्य की प्रमुख कृतियों में से एक है। साखी के इस अंक से प्रेमचन्द और गोदान को समझने की एक नई दृष्टि मिलेगी। युवा पीढ़ी को अपनी परंपरा एवं संस्कृति को जानने और समझने का अवसर मिलेगा। इस अवसर पर साखी के संपादक एवं प्रेमचन्द साहित्य संस्थान के निदेशक प्रो0 सदानन्द शाही ने बताया कि प्रेमचन्द साहित्य संस्थान के स्थापना की प्रेरणा उन्हे सोवियत संघ के गोर्की संस्थान से मिली। उन्होंने कहा कि कबीर और प्रेमचन्द एक ही परंपरा से जुड़े हुए हैं और साखी उसी परंपरा के प्रति प्रतिबद्ध है। संचालन करते हुए प्रो0 अवधेश प्रधान ने कहा कि अपने सीमित संसाधनो के बावजूद साखी ने समकालीन जीवन और साहित्य पर कई महत्वपूर्ण कार्य किए हैं। इसके नायपॉल और एडवर्ड सईद विशेषांक की चर्चा हिन्दी के बाहर भी हुयी है। अध्यक्षता करते हुए कला संकाय प्रमुख प्रो0 सूर्यनाथ पाण्डेय ने कहा कि साखी ने सईद और नायपॉल पर जितना काम किया है उतना अंग्रेजी में भी नहीं हुआ है। धन्यवाद ज्ञापन करते हुए प्रो0 बलराज पाण्डेय ने कहा कि साखी मात्र एक पत्रिका नहीं बल्कि एक आन्दोलन है। और इस आन्दोलन में वह पूरी प्रतिबद्धता के साथ खड़ी है।
साखी के इस अंक में नामवर सिंह, पी।सी। जोशी, पी।एन।सिंह, मारियोला आफरीदी, डाग्मार मारकोवा, शंभुनाथ, विजेन्द्र नारायण सिंह, कंवल भारती, कर्मेन्दु शिशिर, परमानंद श्रीवास्तव, ए। अरविंदाक्षन, गोपाल प्रधान आदि लेखकों के गोदान पर केन्द्रित लेख हैं। इस अवसर पर कई साहित्यकार उपस्थित थे।

यह रिपोर्ट उदयपुर के युवा रचनाकार पल्लव के मार्फत पहुंची है। हम पल्लव जी के आभारी है, जो लगातार ऐसी महत्वपूर्ण खबरों को पाठकों तक पहुंचाने में अपनी पूरी सक्रियता के साथ हैं।

Sunday, April 5, 2009

पुतुल आमार जीबोन साथी

मैं जयपुर में था, जयपुर मेरे रास्ते में न था। पूर्वोत्तर के द्वार गुवाहटी से देहरादून लौटते हुए दिल्ली के बाद जयपुर निकल गया। मेरा मित्र अरुण (कथाकार अरुण कुमार असफल) यदि जयपुर में न होता तो सीधे देहरादून ही लौटता। जब से अरुण स्थानान्तरित होकर जयपुर गया, मैं जयपुर को उसके बहाने से ही याद करने लगा हूं। हां, अरुण की पहचान अभी जयपुर से उस रूप में नहीं और न ही जयपुर की पहचान को अरुण के साथ देखा जा सकता है अभी। वैसे जयपुर मुझे कृति ओर और उसके सम्पादक विजेन्द्र जी के कारण ही याद आता रहा है।

पूर्वोत्तर की यात्रा के बावजूद यदि जयपुर को ही यहां दर्ज कर रहा हूं तो उसकी खास वजह है, जयपुर की वे दो शाम (30 एवं 31 मार्च 2009) जो जवाहर कला केन्द्र में बिताई। वही जवाहर कला केन्द्र जहां फरवरी माह में मित्र रवीन्द्र व्यास की पेंटिग प्रदर्शनी लगी थी। जवाहर कला केन्द्र स्थित कॉफी हाऊस में कुछ क्षण बिताने के लिए ही पहुंचे थे सुकीर्ति आर्ट गैलरी में टंगे चित्रों को निहारने लगे। कला के फलक पर सृजन का संसार, जी हां यही शीर्षक ज्यादा उपयुक्त है श्रीमती पूनम के चित्रों की उस प्रदर्शनी का, जो उन्होंने खुद ही दिया था। राज महलों की गुलाबी नगरी में भी क्षतिग्रस्त दीवारों वाले घर, झरोखे और ऐसा ही वो सब चित्रित हुआ था कि जयपुर नगरी का वह रूप भी देखा जा सका जिसे हवा-महल, जल-महल, आमेर के किले में देखना संभव ही न था। चित्रों को पेंसिल, चारकोल एवं मार्डन ब्लैक पेंटिग कलर से उकेरा गया था।

यह संयोग ही था कि जवाहर कला केन्द्र में चल रहे संगीत नाटक अकादमी के पांच दिवसीय पुतुल यात्रा उत्सव का आनन्द भी उठा पाए। 30 मार्च की शाम मुक्ताकाशी मंच पर दिल्ली के पूरन भाट और उनके साथियों की प्रस्तुति स्वागत के उस केन्द्रिय भाव जो विजयोल्लास के रंग में रंगे थे, अग्नी दृश्य, कालबेलिया का आनन्द अदभुत अनुभव था। उसी दिन आसाम के कलाकारों द्वारा सती बिहुला की कथा-रूप को पुतुल कला के मार्फत देख पाए। मिलन यादव एवं प्रदीप नाथ के निर्देशन में उत्तर प्रदेश की प्रस्तुति थी गुलाबो सिताबो
31 मार्च की शाम समकालीन दुनिया का चित्र खींचती प्रस्तुति प्रोसियम ऑफरिंग देर से पहुंचने के कारण देखने से वंचित रह गए। लेकिन उसी दिन बंगाल के गणेश गोराई के निर्देशन में राधा-कृष्ण नाच और बंगाल के ही जदुनाथ के निर्देशन में गांधारी की प्रस्तुति को देखना संभव हुआ।
समय को दर्ज करने के लिए मेरे पास जो कैमरा था उसके मार्फत पुतुल यात्रा के कुछ क्षणों को कैद कर पाया हूं, जिसे सभी के साथ बांटने का मन हुआ तो यहां प्रस्तुत कर दे रहा हूं।
यहां क्लिक करें बस-

विद्यासागर नौटियाल के नाम

वरिष्ठ कथाकार विद्यासागर नौटियाल ने 29 सितम्बर 2008 को 76वें वर्ष में प्रवेश किया है।
शिरीष कुमार मौर्य युवा हैं। इस दौर के महत्वपूर्ण कवि हैं। एक युवा कवि का अपने समकालीन और वरिष्ठ रचनाकार को दर्ज करना कोई अनायास घटी हुई घटना नहीं हो सकता। बल्कि कहा जा सकता है कि उन आदर्शों, विश्वासों और उन जीवन-मूल्यों के प्रति यकीन ही होता है ।


शिरीष
कुमार मौर्य



काली फ्रेम के चश्मे के भीतर
हँसती
बूढ़ी आँखें

चेहरा
रक्तविहीन शुभ्रतावाला
पिचका हड़ियल
काठी कड़ियल

ढलती दोपहरी में कामरेड का लम्बा साया
उत्तर बाँया
जब खोज रही थी दुनिया सारी
तुम जाते थे
वनगूजर के दल में शामिल
ऊँचे बुग्यालों की
हरी घास तक

अपने जीवन के थोड़ा और
पास तक

मैं देखा करता हँू
लालरक्तकणिकाओं से विहीन
यह गोरा चिट्टा चेहरा
हड़ियल
लेकिन तब भी काठी कड़ियल

नौटियाल जी अब भी लोगों में ये आस है
कि विचार में ही उजास है !

बने रहें बस
बनें रहें बस आप
हमारे साथ
हम जैसे युवा लेखकों का दल तो विचार का
हामी दल है

आप सरीखा जो आगे है
उसमें बल है !

उसमें बल है !