सामान्य भौतिक परिस्थितियां- एक ही काम को करते रहने की उक्ताहट, दुनिया जहान के कलह-झगड़े, ऐसी ही तमाम कठिनाईयां, जो कहीं न कहीं भीतर ही भीतर किसी को भी छीज रही होती हैं औरशरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी समाप्त कर रही होती हैं, जीवन में उत्साह और विश्वास की अनुकूल स्थितियों के विरुद्ध गहरे संत्रास और निराशा को जन्म देती हैं। स्त्री जीवन की ऐसी तमाम कठिनाईयों को और ज्यादा बढ़ाती हुई और उन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल बनाती हुई संसार की उपेक्षाओं का दंश अल्पना मिश्र की रचनाओं की मूल कथा रहा है। नफरत, विक्षोभ, निराशा, कड़ुवाहट जैसे भावों को एकल रूप में प्रस्तुत कर, रचनात्मक ऊर्जा व्यय करने की बजाय अल्पना ने ऐसे सभी भावों को गहन संवेदनाओं में गूंथ कर ऐसा कोलाज तैयार किया है जिसमें आत्म समर्पण की हद तक भरा त्याग और विरोध की विद्रोहात्मक मन:स्थितियों की पर्तों में उलझी हुई ढेरों स्थितियां जब काव्यात्मक सी लगती उनकी कहानियों की भाषा में प्रकट होती है तो गहरे अर्थों से भरी होती हैं। कई बार कहानी के तय मानदण्डों में कैद समझ की सीमायें उन अर्थों तक पहुंचने में चूकने लगती है जिसके लिए वे रची गयीं हैं। कहा जा सकता है कि उनकी कहानियों में छुपे उस अन्तर्निहित कथ्य, जो इनकी बुनावट में जटिल हो गया सा लगता है, को पकड़ने के लिए पाठक को एकाग्रचित होकर उन्हें पढना लाजिमी हो जाता है। विशुद्ध पितृसत्तात्मक समाज के घने कुहरे के बीच वो सब कुछ कह जाना जो स्त्रियों की व्यथा को सहानुभूति की तरह नहीं बल्कि आत्मसम्मान के साथ रख पाये और उस पर नफरत और घ्रणा के भावों की छाया भी न पड़े, कहने के लिए जिस ईमानदारी और प्रतिभा की जरुरत होनी चाहिए, अल्पना की कहानियां उसकी गवाह हैं। अल्पना की कहानियों में स्त्रीपन का लैंगिक प्रभाव ज्यादा स्पष्ट होकर उभरा है। कलछुल पर टंगी पृथ्वी की कल्पना और जीवन के संदर्भों में उसकी अभिव्यक्ति किसी पुरुष मानसिकता के लिए संभव है क्या ? शायद नहीं। ऐसे बिम्ब ओर प्रतिकों को रचते हुए शायद उसे भी चूल्हे चौके में उलझी उसी स्त्री का सहारा लेना पड़ेगा जिसके श्रम को अभी तक प्रभावी मर्दाना मानसिकता ने निरर्थक और बिना मूल्यों का माना है। यहां स्त्री और कथा साहित्य पर वर्जीनिया वुल्फ़ के विचारों का सहारा लेकर कहा जा सकता है कि यह हजारों दुख की बात होगी अगर औरतें मर्दों की तरह लिखने लगें, या मर्दों की तरह रहने लगें, क्योंकि संसार की विशालता और विविधता को देखते हुए अगर दो लिंग भी नाकाफी हैं तो फिर केवल एक लिंग से कैसे काम चलेगा ? क्या शिक्षा का यह कर्तव्य नहीं होता कि समानताएं पैदा करने की बजाय विभिन्नताओं को पैदा करे और मजबूत बनाए? स्त्री के जीवन में छाये अंधकार जो उसके श्रम की निरर्थकता के कारण हैं, आखिर कैसे उसे अपने इतिहास से टकराने और समाजसे जुड़ने में मद्द करेगें। क्या एक स्त्री के जीवन का इतिहास उसके आये दिन की गतिविधियों से अलग हो सकता है ? क्या कोई स्त्री यह बता सकती है कि वो यादगार हल्वा, जिसका स्वाद आपकी जीभ पर आज भी टिका है, उसने किस दिन बनाया था। बर्तनों की वो चमक जिसे देखकर तुम भ्रमित हुए थे कि शायद कलई किये जा चुके हैं, किस दिन साफ किये गये। इतमिनान के क्षणों में भी एक मर्द की शान को चार चांद लगाते वस्त्रो पर की गयी इस्तरी कीतारीख को याद रख जा सकता है क्या ? अपने स्त्रीपन के किन दिनों में दूसरों द्वारा अपवित्र मान लिये जाने पर ही नहीं उस स्थिति में लगातार काम पर खटने की मजबूरी से पैदा होती उक्ताहट वाला दिन कौन सा रहा होगा ? ऐसी ही गतिविधियों में लगी स्त्री के जीवन में यह गतिविधियां क्या इतिहास का हिस्सा हुई हैं कभी ? एक स्त्री के पास ऐसे किसी भी दिन को याद कर लेने की फुर्सत नहीं और न ही उसे याद करने की जरुरत। शायद किसी भी मर्द मानसिकता केपास ऐसे कामों में कला या सृजनात्मकता को खोज लेने की दृष्टिसंभव नहीं। इसे तो कोई स्त्री मस्तिष्क ही संभव कर सकता है। अल्पना की कहानियों में स्त्री लैंगिकता का यह पक्ष खूबसूरत ढंग से उभरता दिखायी देता है। भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा अल्पना मिश्र को आज वर्ष 2008 का हिन्दी का युवा लेखक सम्मान प्रदान किया गया। तीन अन्य युवाओं को भी अन्य भाषाओं के लिए पुरस्कृत किया गया। निर्मला पुतुल को संथाली भाषा के लिए,एस. श्रीराम को तमिल और मधुमित बावा को पंजाबी भाषा के लिए। वरिष्ठ साहित्यकार और पहल के संपादक ज्ञानरंजन को हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान देने के लिए वर्ष 2008 के साधना सम्मान से सम्मानित किया गया। ज्ञानरंजन के अलावा तमिल साहित्य के लिए वेरामुत्थु, उड़िया साहित्य के लिए रामचंद्र बेहरा और पंजाबी साहित्य के लिए डा. महेन्द्र कौर गिल को भी सम्मानित किया गया। उंडिया के चर्चित कवि रमाकान्त रथ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। सम्मान समारोह के अवसर पर दिए गया अल्पना मिश्र का वक्तव्य प्रस्तुत है- |
मेरे साहित्य में मेरा समय और समाज
- अल्पना मिश्र
सबसे पहले मैं भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता को और इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल को धन्यवाद देती हूं कि उन्होंने मुझे इस पुरस्कार के योग्य समझा। वह भी ऐसे समय में, जब साहित्य का परिदृश्य पुरस्कारों के बाजार जैसा दिखाई पड़ रहा है। जिस तरह की होड़ मची है, जोड़ तोड़ के जो किस्से सुनने में आ रहे हैं और स्वार्थों की टकराहट में साहित्यिक आपाधापी और घमासान का जो दृश्य आये दिन दिख रहा है, वह हमारे आज के असहनीय और हिंसक होते समाज का ही प्रतिबिम्ब है। ऐसे में यदि कुछ लोग व संस्थाएं, निष्ठा और ईमानदारी बचाए हुए काम कर रही हैं तो इस आशा और विश्वास को बल मिलता है कि सही के पक्षधर लोग, विवेक और न्याय बचे हुए हैं। यह भी कि आज जो लिखा जा रहा है, उसे पढ़ा और परखा भी जा रहा है।
आप सबने यह सम्मान देकर मेरे सिर पर जिम्मेदारी की जो दुधारी तलवार टांग दी है, उसका अहसास भी मुझे हो रहा है। मेरी जितनी समझ है, उसके मुताबिक मेरी पूरी कोशिश होती है कि अपने समय और समाज को ईमानदारी, निर्भयता और गंभीरता से अपने लेखन में व्यक्त कर सकूं और अपने जीवन में भी सामाजिक सरोकारों के प्रति अधिक सक्रिय हो सकूं, क्योंकि जितना जरूरी है जिम्मेदारी का अहसास, उतना ही जरूरी है उसके निर्वहन का साहस। और लेखक के लिए अभिव्यक्ति के साहस से बड़ा कोई अस्त्र नहीं।
जब मैं इस लेख को लिखने बैठी तो मेरे मन में बार बार यह आ रहा था कि पहले प्रेशर कुकर धोकर आलू उबाल लेती, तब लिखने बैठती तो अच्छा रहता। लेकिन आलू उबाल लेने के बाद लगातार दूसरे काम उससे जुड़ते चले जाते और लिखना, कई बार की तरह इस बार भी स्थगित हो जाता।
मैं जानती हूं कि इस छोटी सी गैरजरूरी लगने वाली बात से जो मैंने अपने लेख की शुरूआत की है तो यह बौद्धिक वर्ग को बहुत अटपटा लग सकता है। लेकिन सच यही है। यह छोटी सी बात यह बताती है कि स्त्री के दिमाग को किस हद तक अनुकूलित किया गया है। पढ़ने, लिखने, विवेक और समझ के साथ स्त्री को पहले अपने आप से लड़ना पड़ता है, अपने ही दिमाग के उस अनुकूलन से, जिसे भारतीय स्त्री की लुभावनी छवि के भीतर चौबीसों घंटे के अथक परिश्रम में बॉध दिया गया है और जिसमें जरा सी कमी रह जाने पर स्त्री अपने ही भीतर की ग्लानि से त्रस्त हो जाए। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि खाना बनाना एक अनावश्यक काम है। साफ सुथरा भोजन पकाना और संतुलित भोजन खाना सबके लिए जरूरी है, पर यह किसी एक की अनवरत जिम्मेदारी नहीं है। यह सबकी सहभागी जिम्मेदारी है। समय ऐसा है कि यहॉ घर बाहर कहीं भी, किसी भी समय एक बच्ची से लेकर बूढ़ी स्त्री तक को बेइज्जत किया जा सकता है, फिर उसके बनाए भोजन का अपमान करना कितना आसान होगा! घर के भीतर वैसे भी नियंत्रण के तरीके बाहर से कम हिंसक नहीं हैं। तमाम राजनैतिक, सामाजिक उथल पुथल के बावजूद यह आज भी हो रहा है। यहॉ लेनिन का वाक्य याद आ रहा है कि - "महिलाओं को मुक्त करने के सारे कानूनों के बावजूद वह एक घरेलू गुलाम बनी हुई है, क्योंकि घर का छोटा छोटा काम उसे दबाता है, मूर्ख बनाता है और बेइज्जत करता है। उसे रसोई और नर्सरी से बॉधता है और वह अपने श्रम को ---छोटे छोटे, दिमाग खराब करने वाले, बेतुके और दबाने वाली घरेलू चाकरी पर बर्बाद करती है।"
इसलिए इस पर विचार करना जरूरी लगता है कि स्त्री के लिए लेखन सबसे आखिरी में क्यों आ पाता है और आलू उबालने की चिंता सबसे पहले? आलू उबालना भूल जाने से होने वाली गड़बड़ियों की चिंता भी सबसे पहले? ऐसा क्यों?
क्या लिखना छूट जाने से गड़बड़ नहीं होगी?
हम, जो कुछ कहना, बताना चाहते हैं।
हम, जो दुनिया बदलने का स्वप्न देखते हैं।
हम, जो न्यायपरक दुनिया की बात करते हैं।
व्यवहारिक रूप में हमारा ही ये काम प्राथमिकता में क्यों नहीं आ पाता?
सोचना यह भी है कि घर के ये सारे काम, जो परम्परागत रूप से स्त्री के हिस्से माने जाते हैं, उन पर स्त्री का वास्तविक अधिकार कितना है? यह शुरू से रहा है कि ये घरेलू काम भी, जैसे ही अर्थिक लाभ के साथ जुड़ते हैं, उन पर पुरूषों का एकाधिकार हो जाता है। स्त्री बाहर कर दी जाती है। जिस सिलाई, कढ़ाई, भोजन पकाने, कपड़े धोने आदि काम को स्त्री का काम माना गया और जिसमें उसके श्रम और दिमाग को लगातार झोंका गया, वे स्त्री के लिए लाभ का सा्रेत, आर्थिक आजादी के आधार नहीं बन पाए। लेडीज टेलर, हलवाई, लांड्री आदि पर बाहर, पुरूषों का कब्जा रहा। यह कैसी विरोधाभासी स्थिति है कि जो पुरूष अपने कपड़े अपनी पत्नी से धुलवाता है, वही बाहर आजीविका के नाम पर दूसरों के कपड़े बिना किसी संकोच के धोने को तैयार है! इस सामंती सोच के विध्वंस के बिना ही आज की बदली परिस्थितियों ने और मुश्किलें खड़ी की हैं, जिनका विध्वंसकारी प्रभाव स्त्री और समाज के कमजोर तबके पर सबसे ज्यादा पड़ा है।
यहॉ एंगेल्स को याद किया जा सकता है कि "उद्यमों में समूचे महिला समुदाय का प्रवेश महिला मुक्ति की पहली बुनियाद है।"
आज की स्थिति यह है कि मुक्त बाजार तंत्र ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। इस मुक्त बाजार से उपजे सामाजिक, आर्थिक दबाव की मार सबसे अधिक स्त्रियों और समाज के इसी कमजोर तबके पर पड़ी है। कुछ वर्ष पहले तक तीसरी दुनिया की स्त्रियॉ इस बड़े बाजार को श्रम शक्ति के रूप में उपलब्ध नहीं थीं। वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में शामिल जरूर थीं, पर न तो उन्हें किसान के रूप में मान्यता प्राप्त हुई और न ही घरेलू उत्पाद के उद्यम को बढ़ावा मिला, बल्कि उल्टा हुआ, बाजार तंत्र ने छोटे घरेलू उत्पाद्य के उद्यम और उनकी संभावनाएं समाप्त कीं। उसने स्त्रियों के श्रम की सही कीमत दिए बिना, उन्हें सस्ता श्रम की आसान उपलब्धता में बदल जाने की परिस्थितियॉ सृजित कीं। बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा तैयार की गयी फैक्ट्रियों में मजदूरी कर रही स्त्रियों को न तो ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार है और न ही स्वास्थ्य, सुरक्षा व अन्य जरूरी सुविधाएं हासिल हैं। इस तरह के असंगठित श्रम में वे अपने हक की लड़ाई भी नहीं लड़ पातीं। यही हाल मजदूरों का भी है। इसके साथ पारिवारिक तनावों और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार होना भी स्त्री के साथ जुड़ जाता है और पुरूषों के साथ जुड़ती है कुंठा, जिसकी मार अंतत: स्त्री को ही झेलनी होती है।
अब चूंकि परिवार के भीतर पुरानी परिस्थितियॉ बनी हुई हैं और बाहर का परिदृश्य बदल गया है। ऐसे में जिन कुछ स्त्रियों ने शिक्षा, आर्थिक स्वालम्बन से कुछ जगह बनाई है, या कह लें कि थोडा समृद्ध और ताकतवर दिखाई पड़ती हैं, वहॉ भी सिर्फ दिखने वाला भ्रमात्मक सच है। उनकी स्थिति इतनी विकट है कि वे पहले से कहीं ज्यादा अकेली हुई हैं और वर्गीय अलगाव की शिकार भी। इन स्थितियों ने उनके लड़ने की ताकत कम की है। उनकी व्यापक एकता, जो बन सकती थी, उसे कमजोर किया है। बाजार ने ऐसी स्त्रियों के लिए जो आर्थिक आजादी के क्षेत्र खोले हैं, वे भी सेवाक्षेत्र ही हैं। चाहे वह एयर होस्टेस हों, बी पी ओ कर्मचारी, दुकानों पर सेल्स का काम या किसी कम्पनी के प्रबन्धन में सहयोग सम्बंधी रोजगार। यह सभी किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी को अपनी सेवाएं देना ही है और सेवाक्षेत्र इतना टिकाउ नहीं है। क्योंकि आजादी तो उत्पादन पर निर्भर है। जब सेवा क्षेत्र टिकाउ नहीं है, तो यह दिखने वाली आर्थिक स्वतंत्रता टिकाउ कैसे हो सकती है?
साम्रज्यवाद ने मुक्त बाजार के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों पर एकतरफा कब्जा किया है। उसकी नीयत साफ नहीं है और उसका उद्देश्य संसाधनों पर कब्जा जमाना और अपना मुनाफा है, तीसरी दुनिया के देशों में गरीबी और बेरोजगारी दूर करना नहीं। ऐसा पहले भी रहा है, पर तब औपनिवेशिक व्यवस्था साफ दिखाई पड़ती थी। दूसरे का शासन दिखता था। उसे स्थानीय आदमी समझ पाता था, पर आज वह दिखता हुआ नहीं है। वह बहुत व्यापक और छिपे हुए रूप में है। इस बड़े बाजार ने रोजगार की संभावनाओं के नाम पर सेवाक्षेत्रों का विस्तार किया है। उत्पादन न होने की स्थिति मे ये सेवा क्षेत्र समाप्त हो जायेंगे। आज इसी आधार पर दुनिया की बड़ी मंडी में लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। उसमें स्त्री भी बेरोजगार हुई है।
कुल मिला कर उत्पादन में हिस्सेदारी के बिना मुकम्मल आर्थिक स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती।
आज जरूर अमेरिका द्वारा बनाए गए पूंजी के साम्राज्य में आर्थिक मंदी का दौर आया है, पर इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि पूंजीवाद चरमरा गया है। अभी हाल में सम्पन्न हुआ योरोपीय देशों का जी 20 सम्मेलन तो ऑख खोलने वाला है। इस सम्मेलन का ब्रिटिश नागरिकों द्वारा विरोध किया गया। अमेरिका के प्रति नागरिकों का प्रत्यक्ष विरोध और जनता व शासक वर्ग के बीच का फासला खुल कर दिखाई पड़ा। परंतु साम्राज्यवादी ताकतों ने लगभग पूरे विश्व में आजमाई जा रही दमन की राजनीति के सहारे जनता के इस छोटे से विरोध की आवाज दबा दी। इस सम्मेलन में जो उपाय खोजे गए, उन पर गौर करें। जी 20 सम्मेलन में भाग लेने वाले देश इस आर्थिक मंदी से निपटने के लिए सम्मिलित रूप से अरबों, खरबों का धन लगायेंगे। प्रश्न यह है कि यह धन किसका है? बाहर विरोध करती जनता का! जनता की पूंजी कारपोरेट सेक्टर को सौंप देना कैसा उपाय है? अमेरिका तो ऐसे संकट में पहले ही जनता के खून पसीने की कमाई टैक्सों के रूप में लगा चुका है। और जरा अपने देश को देखिए - किस प्रेम के चलते भारत इस सबके बीच अंतरराष्ट्रीय बैंकों यानी आई एम एफ, विश्व बैंक और ऐशियाई विकास बैंक के नाम पर बीस अरब डालर यानी लगभग एक लाख करोड़ रूपए दे आता है? यह दान का पैसा किसका है? और भारत के प्रधानमंत्री को बिना किसी सार्वजनिक सम्मति, सूचना या जानकारी दिए बगैर ऐसा निर्णय करने का अधिकार कैसे है?
अमेरिकी राजनीति के शिकार, विकास के भ्रम में परेशानहाल तीसरी दुनिया के देच्चों पर भी आप नजर डाल सकते हैं।
आज प्रतिरोध की शक्ति की जितनी ज्यादा जरूरत है, उतना ही आम आदमी जीवन की जटिलताओं में उलझ कर इस सोच से निष्क्रिय होने लगा है। जन आन्दोलनों की गति धीमी हुई है। बाजार की चकाचौंध, प्रभुत्व और कठिन जीवन की थकान, उलझाव, समयाभाव व शो्षण की बारीक होती चालों ने भ्रमात्मक प्रगति के नाम पर बेहतर दुनिया के स्वप्न की धार कम कर दिया है। इस भयावह समय को अभ्यास की सुप्तावस्था में ही सहन किया जा सकता है।
स्वप्न और आकांक्षा का गुम जाना खतरनाक स्थितियों की ओर संकेत करते हैं। इसे ही पाश ''सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना---" कहते हैं। यह व्यवस्था आम जन के लिए किस हद तक निष्ठुर और अमानवीय है। इसी के बीच स्त्री भी है, जिसकी पुरानी परिस्थितियॉ तो हैं ही, आज की परिस्थितियों ने रहा सहा भी उससे छीना है। औद्योगिक विकास ने उसका समाज उससे छीन कर उसे अकेला और अलगावग्रस्त बनाया है। यह अलग बात है कि इस जूझने में कौन कितना बचा रह जाता है?
आलू उबालने की चिंता से लेकर, आलू के बाजार चिप्स आदि आदि से होते हुए जी 20 सम्मेलन तक का जो पूरा परिदृच्च्य है, उसी के बीच से स्त्री जीवन के सामाजिक सरोकारों को भी देखा जाना चाहिए। पूरे समाज पर बात किये बिना अकेले स्त्री जीवन पर बात नहीं की जा सकती। उसकी समस्याओं को आज के समय के भीतर, बाजार, व्यवस्था, राजनीति या जीवन के किसी भी पहलू से काट कर नहीं समझा जा सकता।
कई गुना जिम्मेदारी के बोझ से दबी स्त्री फिर भी च्चिक्षा और आर्थिक स्वालम्बन के लिए जद्दोजहद करती हुई मुक्ति के बारे में सोचने का साहस करती है। परिवार में दिन रात होने वाली छोटी छोटी बातें, घटनाएं, स्त्री जीवन को नियंत्रित करने के हथकंडे उसे कितना असामान्य और दिमागी तौर पर किस तरह विक्षिप्त बनाते हैं। इसे देखने , समझने की कोशिश भी जरूरी है। प्राय: उच्च शिक्षित परिवारों तक में स्त्री को निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं मिली है। यहॉ तक कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी उसके हिस्से नहीं है। यह सच कितनी स्त्रियॉ खुल का स्वीकार करने का साहस कर सकती हैं कि आज भी परिवार के भीतर तर्क, बहस करने पर सिर काट लिए जाने की धमकीभरी परम्परा हमारी भारतीय संस्कृति के रूप में गर्व के साथ उपस्थित है। उपर से यह समय, जो स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखलता को बढ़ावा देता है। घुमा फिरा कर स्त्री को उसी राह ले जाता है, जिससे मुक्त होने की सारी को्शिश है। स्वतंत्रता की समझ के लिए विवेक बुद्धि की जरूरत है, उच्छृंखल हो जाने की नहीं।
यह दु:खद घटना आपको बताना चाहती हूं कि अपनी 'मिड डे मील" कहानी पूरी करने के बाद यह खबर मुझे मिली कि उत्तर प्रदे्श में किसी गॉव के ग्राम प्रधान ने स्कूल के हेड मास्टर की गला दबा कर हत्या इसलिए कर दी कि वह स्कूल में 'मिड डे मील" के पैसों के लिए विद्यार्थियों की उपस्थिति सौ प्रतिशत दिखाने को तैयार नहीं था और शायद पैसों की बंदरबाट के लिए भी नहीं। इस जिद की कीमत उसकी जान हो सकती है। सरकारी अस्पतालों का हाल दयनीय है और चमकते हुए प्राइवेट अस्पताल आम आदमी की जेब के बाहर की चीज हैं। जीवन की अत्यंत आवश्यक सामूहिक आवश्यकताओं के प्रति हमारी सरकारों का रवैया ऐसा ही है। हर सार्वजनिक आवश्यकताओं की चीजों का प्राइवेटाइजेशन। यह निजीकरण की व्यवस्था यद्धपि विकल्प के रूप् में है, पर यह इतनी आक्रामक है और प्राय: विकल्प की बजाय सिर्फ और सिर्फ वही बची रहती है, जिसकी चपेट में आम आदमी पैसों से लुट कर बेकार सिद्ध किया जाता है।
यही हाल शिक्षा जगत का है। व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर जो कुछ आम आदमी के हित में था,उसे उपलब्ध था, वह उससे छीन कर निजी हाथों में सौंप दिया गया है। सरकारी कॉलेजों में टीचर्स ट्रेनिंग कोर्स खोलने की बजाय निजी संस्थानों को ये कोर्स बॉटे गए हैं और अब ये इतने मॅहगे हैं कि आम आदमी की पॅहुच से बाहर हो चुके हैं। लड़कियों के लिए ये एक महत्वपूर्ण कोर्स हुआ करते थे, खर्च की दृष्टि से भी और आर्थिक संबल चुनने की दृष्टि से भी। उनका बड़ा नुकसान हुआ है। नुकसान छात्रों का भी हुआ है। जीविका के माध्यम की एक बड़ी तैयारी को पैसों के खेल में बदल दिया गया है। अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रम तो वैसे भी बड़े मॅहगे हैं।
एक तरफ सांस्कृतिक संकट के हाहाकार के बावजूद तमाम सांस्कृतिक अवधारणाएं चूर हुई हैं और सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद ने तीव्र उभार पाया है। आर्थिक उदारीकरण की नीति के साथ पूंजी के वर्चस्व का विकराल स्वरूप और विकास का भ्रमात्मक दृश्य सामने है। इस दिखने वाले आर्थिक विकास के पीछे बेरोजगारी, भुखमरी, अन्याय, अत्याचार, जल, जंगल, जमीन से बेदखली, सार्वजनिक हितों की अनदेखी और सार्वजनिक उपयोग के निजीकरण पर बल, आतंकी गतिविधियों से लेकर प्रगति के प्रतीकों के लिए भयावह विस्थापन तक भयानक तरीके से उपलब्ध हुआ है।
पूंजीवादी वर्चस्व से नियंत्रित इस समय ने जीवन को उपर से भ्रमात्मक और भीतर अधिक जटिल, अधिक मुच्च्किल बनाया है। हिंसा का आनंदीकरण इसी समय की देन है। दूसरी तरफ इस समय ने इतिहास, परम्परा, मूल्यों और अस्मिता का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए भी विवश किया है। इस पुनर्मूल्यांकन की जरूरत ने साहित्य का परिदृ्श्य भी बदला है। वह पहले से अधिक मुखर हुआ है। उसकी तकनीक भी पहले से बदली है। आज के कथा साहित्य ने तो कविता की तकनीक के प्रयोग के साथ साथ गद्य के लगभग सभी रूपों को समाहित कर लिया है। समय के इस निरन्तर फिसलते भ्रमात्मक यथार्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहे आज के साहित्य को पुराने औजारों से नहीं मापा जा सकता।
साम्राज्यवादी ताकतों का असली चेहरा और पूंजीवाद के प्रबलतम दु्ष्परिणाम के निशान बहुत साफ आम आदमी की जिंदगी में दिखाई पड़ते हैं। इस तरह सारी चकाचौंध के पीछे के ये सच, जिन्हें बेदखल मान लिया जाता है, उपस्थित होते हैं और इन्हें देखने, समझने और दिखाने की बेहद जरूरत है। आज के समय में सबसे बड़ी बेदखल कर दी गयी चीज इंसानियत है।
मेरे दौर के साहित्य में इसी समय और समाज को रचनाकारों ने अलग अलग तरह से पकड़ने की कोशिश की है। एक जिम्मेदार लेखक समाज, व्यवस्था, राजनीति, धर्म, विश्व की गतिविधियों आदि आदि कारक तत्वों को नजरअंदाज करके कैसे लिख सकता है? अब यह जो समय और समाज है, वह मेरे साहित्य में कितना अभिव्यक्त हो पाया है, इसका मूल्यांकन पाठक ही बेहतर कर सकता है, फिर भी मैने यहॉ कोशिश की है कि अपने लेखन में प्रकट किए गए अपने मंतव्य को आपके सामने स्प्ष्ट कर सकूं।
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