कृष्णा खुराना वरिष्ठ कवियत्री हैं। देहरादून में रहती हैं। अपने युवा काल के उस दौर में जब देहरादून का साहित्य जगत कथाकार शशिप्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी जैसी महिला रचनाकारों से गुंजायमान था, वे कविता लिख रही थीं। स्वभाव में अपनत्व और खुलेपन के बावजूद प्रकाशन का संकोचपन उनमें उस वक्त भी रहा। फिर सामाजिक गतिविधियों में अपनी बढ़ती सक्रियताओं के चलते एक रचनाकार के रूप में भी प्रकट हो जाने को वे छुपाए रहीं। अपने रचनाकार की पहचान को एक पाठक की पहचान में ही बदलकर भी वे पिछले लगभग 30 वर्षों से चली आ रही देहरादून की साहित्य संस्था संवेदना और दूसरी साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी जीवन्त उपस्थिति के रूप में रहीं। उनके निकट के मित्र जानते हैं कि कविताएं तो वे लगातार ही लिखती रहीं। उनकी रचनाओं के उसी पुलिंद से, जो संग्रह के रूप में बंध जाने की स्थितियों के बीच डोल रहा है, प्रस्तुत हैं उनकी दो कविताएं।
कृष्णा खुराना
उड़ान से पहले
नयी उड़ान भरने को आतुर
तुम्हारे ताज़े पंख फ़डफडा रहे हैं!
तुम्हारी आंखो में अनगिनत
जिज्ञासाओं के बेचैन प्रश्न
मुझे देख रहे हैं एकटक
झिलमिलाते सितारों की तरह!
तुम्हारी तनी हुई ग्रीवा
दौड़ लगाने को आतुर
युवा अश्व से विकल तुम्हारे पैर
नयी-नयी दूरियां नापने को
निकल जाना चाहते हैं फ़ौरन!
तुम बहुत व्याकुलता से
इतंजार कर रहे हो मेरे उत्तर का!
उलझन की कंटीली झाड़ियों में
अटक गयी हूँ मैं!
कैसे बोलू पूरा सच या पूरा झूठ
दोनो ही आशिव हैं तुम्हारे लिये!
जीवन के आकाश में
नहीं हैं केवल सुख के बादल,
विच्च्वास के महकते फूल ही
नहीं हैं हर तरफ!
नुकीले पंजों वाले खूनी बाज़ भी हैं राहों में!
हरे मैदान जितने दीखते हैं
उतने समतल, निरापद हैं नहीं
तुम्हारी चाल को निगल सकते हैं
तुम्हे विकलांग कर सकते हैं
अदेखा खड्ड और खाईयां
झपट सकते हैं कहीं भी
कोने में छिपे इन्सानी जानवर!
लेकिन कैसे कहूं ये सत्य
जो उड़ने से, दौड़ने से पहले ही
भयग्रस्त कर देगा तुम्हे!
तुम्हारी दिपदिपाती आंखो के स्वपन तोड़ना नहीं चाहती
तुम्हे दहशत से भरना नहीं चाहती मैं!
बस इतना ही कहती हूं
बच कर रहना, स्वार्थ
अन्याय और शोषण की
कंटीली झाड़ियो से।
पाप पुण्य, आस्था अनास्था से परे
प्यार की किरणें जगमगाती हैं
हर अंधेरे को चीरती
धारण करना इन किरणों को
कवच की तरह!
मुझसे मत पूछो जीवन के सत्य को
दूसरों से सुना सत्य अपनी नहीं होता,
अपना सत्य स्वयं ही खोजना होता है।
खोज लोगे तुम भी गिरते संभलते
अपने समय के अपने सत्य को एक दिन!
झील
पर्वत की बाहों में बंध गयी है झील
हरे-हरे रंगो में रंग गयी है झील।
घने-घने पेड़ो की गर्म-गर्म सांसो से
इस तट से उस तट तक सिहर रही झील!
नीली-पीली नावें हैं, रंगे-रंगे लोग
किस-किस का बोझा उठाती है झील!
सुबह-सुबह सोना है, सांस ढले नीलम है
रातों को स्याह खुले गेसू है झील!
सूरज का ताप पिये, बूदों की चोट सहे
लहर-लहर हंसती है, रोती है झील!
एक नयन शबनम है, एक नयन धूप
हलचल में जीती है औरत है झील!
दिया-दिया रोच्चन है, तल-तल अंधेरा
इनका भी, उनका भी दर्पण है झील!
3 comments:
दोनों बहुत सुंदर कविताएं हैं, एक सोचने को बाध्य कर देती है दूसरी प्रकृति का सौन्दर्य बिखेर रही है।
कॄष्णा भाभी के लिये दो पंक्तियां
चिडि़या के उड जाने पर बचा रहा पंख
उडा़न से पहले चिडिया का फड़फड़ना था
कृष्णा भाभी के लियए दो पंक्तियां
चिड़िय के उड़ जाने पर बचा रहा पंख
उड़ान से पहले चिड़िया का फड़फड़ाना था
द
Post a Comment