राम प्रसाद ’अनुज’
चीड़ का पेड़
तुम चीड़ का पेड़ हो
प्यार और ममता की ऊंचाई में
जो पैदा होता है/ पलता है, बढ़ता है
और जवान होने से पहले ही
तने से रिसते
लीसे की तरह
किश्तों की मौत मरता है।
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तुम चीड़ का पेड़ हो
नयी कोंपल उगने से पहले
जो गिराता रहता है
सूखी पत्तियां
और जमीन पर छोड़ जाता है
ढेर-सा पुराल
जंगल जले
या खाद बने खेतों की
सवाल पुराल के इस्तेमाल का है।
- भाई अनाम रह गये कविओं के प्रति पूर्ण श्रद्धा के बावज़ूद मै इस कविता के आधार पर कुछ बेहतर कह पाने की स्थिति में नहीं हूं। सवाल अच्छी और सार्थक कविता का है चाहे कवि अनाम हो या जाना माना।
- हाशिए..... बड़े ही प्रासंगिक मुद्दे हैं. लेकिन किस की शामत आई है कि इन मुद्दों पर एक सिंसेयर बहस करे.मेरा तो यह मानना है विजय भाई, कि पुरस्कार उसे मिलना चाहिए, जिस मे जुनून हो महनत करने का माद्दा हो, लेकिन अभी तक अलक्षित हो .या उसे जो इतना गरीब हो कि लिखना अफोर्ड न कर सकता हो. कि बन्दा मोटिवेट हो कर रचना कर्म के प्रति गम्भीर हो सके. चर्चित और सुविधा सम्पन्न आदमी को पुरस्कार देना बेमानी है. उसे सम्मानित करना भी बेमानी है.ऐसे लोग स्वयम ही ऐसी आकांक्षाएं न पालें तो कितने ही अनाम रह गए लोग अपनी पूरी ऊर्जा के साथ रचनाशील हो पाएंगे ! पर यहां तो चूहा दौड़ है. प्रतिष्ठितों और स्थापितों को शर्म आनी चाहिए इस होड़ मे शामिल होते हुए.जब कि आप इन्ही लोगों को सब से अधिक इस मारामारी और उठापटक में लिप्त पाएंगे. तीन कॉलमो मे लिखी गयी कविता के मामले में आप से हल्का सा मत्भेद रखता हूं. निस्सन्देह मैं मानता हूं कि प्रयोगधर्मिता के नाम पर हर् कुछ को स्थापित करने की ज़िद नाजायज़ है, लेकिन हिन्दी कविता की मोनोटनी को तोड़्ने के लिए हर प्रयोग का हमे खुले दिल से स्वागत करना चाहिए. हर प्रयोग पर बिना पूर्वाग्रहों के बह्स होनी चाहिए. यह बड़ा हस्यास्पद है कि हम किसी कवि पर बात करने से भी गुरेज़ करते हैं कहीं वह "चर्चित" न हो जाए! खैर, अनुज जी के "चीड़" के पेड़ ने मुझे अपनी "ब्यूंस" की टहनियों की याद दिला दी. मार्मिक कविता.
- कहते है कविता विधा जो समझने के लिए एक अलग अनुभूति लेनी पड़ती है .....अशोक जी ने ठीक कहा है... सवाल अच्छी और सार्थक कविता का है चाहे कवि अनाम हो या जाना माना।....
कविता को पोस्ट करते हुए सिर्फ एक बात ध्यान में थी कि अपनी उस बात को पुष्ट कर सकूं कि साहित्य की गिरोहगर्द स्थितियों ने कैसे विविधता को खत्म किया है, जो जीवन को सम्पूर्णता में जानने के लिए जरूरी है। भाषा के विकास की दृष्टि से भी और स्थानिकता की दृष्टि से भी हिन्दी कविताओं के अध्ययन की कोई ठोस पहल शायद इसीलिए नहीं हो पाती क्योंकि हिंदी की ज्यादातर कविताएं अपने विन्यास और जीवन अनुभवों में कमोबेश एक जैसी ही दिखाई देती है। इसके बीच अच्छी ओर बुरी कविता मात्र कहन के अंदाजों से ही अलग की जा सकती है। अभिव्यक्ति की कुशलता जो शिल्पगत प्रयोगों के चलते दिखाई दे रही है, वह ठेठ, कला कला के लिए जैसे सिद्धांतों की ही पक्षधर हो जाती है। तीन-तीन कॉलमों में, हाशिए के इधर और उधर, लिखी जाती कविताओं को भी इसीलिए उसी ढांचे पर मानने की मेरी समझ अजेय से भी मतभेद रखती है।