Thursday, October 1, 2009

रचना (creation) और संरचना (construction) का फर्क

बात आगे बढ़ गई। थोड़ी भटक भी गई।
साहित्य में आलोचना इतनी वेग क्यों है ? क्यों एक ही तरह की रचना पर पुरस्कार और उसी तरह की दूसरी रचना को तिरस्कार ? यह महत्वपूर्ण सवाल पिछली पोस्ट में उठा। क्या रचना की कोई निधारित कसौटी हो सकती है ? भाई नवीन नैथानी ने तो किसी भी रचना की कसौटी के लिए एक सहृदय पाठक के भीतर मौजूद जो  मानदण्ड गिनाए हैं, उसमें बहुत साफ शब्दों में कहा है कि वह नितांत व्यक्तिगत होने के साथ ही विशिष्ट साहित्यिक पर्यावरण वातावरण भी है। यहां मेरा इससे पूरा इत्तेफाक नहीं।
मैं यहीं से अपनी बात कहूं तो स्पष्टत कहना चाहूंगा कि यह जिसे नितांत व्यक्तिगत माना जा रहा है, वह उस विशिष्ट साहित्यिक पर्यावरण में ही आकार लेता है। यानी वह व्यक्तिगत भी पूरा-पूरा तो नहीं ही होता है। कुछ अन्य वाह्य कारण भी होते हैं, जो बहुधा किन्हीं गैर पर्यावरणीय स्थिति के प्रभाव में भी पनपते हैं।
सामने दिखाई देती स्थितियों से पार तक देखना और उसे भाषा में व्यक्त करना, कविता का वह गुण है जिससे कविता का सहृदय पाठक अपने प्रिय कवि के उस मंतव्य को पकड़ पा रहा होता जो उसके भीतर न जाने कितनी बार हलचल मचा चुका होता है। या उसका प्रथम दर्शन भी उसे समृद्ध करने वाला होता है। उसकी विचार शक्ति को और उसकी दृष्टि को भी। अपने प्रिय कवि की कविता को वह, जिसे वह उसका वक्तव्य भी माने तो गलत नहीं, भाषा में रचे जा रहे स्पेश के साथ ही देख पाने में सक्षम होता है। आलोचना का काम रचना के उस पार को दिखाना ही होना चाहिए। ऐसी कोशिश ही किसी सहृदय पाठक को आलोचक बनाती है। एक आलोचक की दृष्टि जो कई बार अपने सीमित अनुभवों से उसकी पूरी परास को व्याख्यायित न कर पाए या, कई बार अपने विस्तृत अनुभव से रचना का एक नया ही पाठ खोले जिसे कवि ने भी न सोचा हो। रचना का वह दूसरा पाठ और नया पाठ आखिर कहां से आया ? यह प्रश्न विचारणीय होना चाहिए। क्या वह किसी निश्चित तर्क प्रणाली को अपनाते हुए है या, वेग तरह की शब्दावली में उसको व्याख्यायित किया जा रहा है ? लेकिन यहां भाई नवीन नैथानी की उस व्याख्या को नकारा नहीं जा सकता जो एक कविता को अच्छी कविता कहने के लिए बहुत सारे कारणों के साथ-साथ एक पाठक की तात्कालिक मन:स्थिति को भी दर्ज करती है। यानी किसी भी कविता को एक बेहतर कविता कहने के लिए कोई सांख्यिकी मानदण्ड नहीं अपनाए जा सकते। कविता का सम्पूर्ण मल्यांकन ऐसी किसी भी प्रणाली से जब संभव नहीं तो तय है कि एक ही कविता के अनगिनत पाठ हो सकते हैं। यानी अनगिनत पाठक किसी निश्चित समय पर उसे एक बेहतर कविता कह सकते हैं और उतने ही उसी समय पर उसे एक कमजोर कविता भी बता रहे हो सकते हैं। जब कविता के मूल्यांकन में इतनी अनिश्चितता मौजूद है तो फिर किसी कविता के पुरस्कृत होने और किसी के पुरस्कार से वंचित रह जाने का कोई मायने नहीं। इसे और साफ तरह से कहूं तो कविता में पुरस्कार के औचित्य पर सवाल हमेशा लगता रहेगा। कविता के लिए किसी भी तरह के पुरस्कार का कोई औचित्य दिखाई नहीं देता। बावजूद इसके पुरस्कारों के लिए लम्बी से लम्बी दौड़ में कवियों को ही शामिल क्यों होना पड़ता है फिर ? खुद से देखें तो पाएंगे कि मूल्यांकन की यही अनिश्चितता संगीत में भी और पेंटिग में भी दिखाई देती है। मूल्यांकन की ऐसी अनिश्चित प्रणाली वाली विधाओं के लिए पुरस्कार अंधा बांटे रेवड़ी अपने-अपने को देय वाला मुहावरा नहीं तो और क्या है फिर ? तो कविता के लिए दिए जाने वाले पुरस्कार को बाजारू प्रवृत्तियों का आइकन बनाऊ खेल क्यों न माना जाए ?  पुरस्कारों के निहितार्थ क्यों षडयंत्रों के दायरे में न आएं ? वे षडयंत्र जो रचनाकारों के भीतर झूठी श्रेष्ठता को स्थापित कर एक फांक पैदा कर रहे हों ।
यह सवाल आज की पीढ़ी ही नहीं अपने वरिष्ठों ओर आदरणीयों से भी है कि साहित्य में पुरस्कारों के सवाल पर वे मुक्कमल तौर पर विचार करें। दलित, स्त्री विमर्शों के साथ-साथ युवा रचना शीलता, फिल्म, प्रेम विशेषांकों के बीच क्या पुरस्कार विशेषांक जैसी किसी योजना को कार्यान्वित करने की जरूरत नहीं ?       
अशोक भाई ने बहुत साफ और स्पष्ट शब्दों में कहा कि चर्चित होना कोई अपराध नहीं और न अचर्चित रह जाना महानता का प्रतीक। यहां इसका एक अन्य अर्थ भी है कि कविता चाहे किसी नामी कवि की हो चाहे अनाम रह गए कवि की, सबसे पहले उसे कविता होना चाहिए। यह एक दुरस्त बात है। लेकिन चलताऊ तरह से सिर्फ चंद वे शब्द जिनको बहुत स्पष्ट न करते हुए आज की आलोचना जब किसी रचना को स्थापित या उखाड़ने के लिए कर रही होती है, उसी के आधार पर कैसे कहा जा सके कि जिस कविता पर बात हो रही है वह वाकई एक कवि के भीतर से आवेग बनकर फूटी है या नहीं ? पैशन भी ऐसा ही एक चलताऊ शब्द और मुहावरा हो जाता है जब हम उसे बहुत गैर जरूरी तरह से इस्तेमाल कर देते हैं तो। गैर जरूरी इसलिए कि पैशन यानी आवेग के बिना कोई भी रचना संभव नहीं, बेशक वह बहुत खराब तरह से लिखी गई हो या फिर बहुत कुशल तरह से अपनी कलात्मकता के साथ। हां, आवेग की धुरियां हो सकती हैं जो किसी महत्वांकाक्षा के तहत हो चाहे सचमुच किसी रचने की पीड़ा के तहत। यानी बिना आवेग के कोई खराब रचना भी संभव नहीं। ऐसे चलताऊ शब्दों का इस्तेमाल करने वाली आलोचना ने ही एक ही तरह की कविता को पुरस्कृत और उसी तरह की कविता को खारिज करने की कार्रवाइयां की है, यह अशोक खुद स्वीकारते हैं। साहित्य में गिरोहगर्दों की जबरदस्त पकड़ ने रचना की व्याख्या के ये टूल अपने मंतव्य को साधने के लिए ही गढ़े हैं। खास शब्दावलियों के ये ऐसे टूल हैं जिनमें रचना और संरचना के फर्क को भी समझना मुश्किल है। हम कब रचना को संरचना मानने की गलती कर बैठते हैं और कब संरचना को रचना, इसको ठीक-ठीक जान नहीं रहे होते हैं। मेरी समझ में यही उत्तर आधुनिकता है। जिसमें जो कहा गया उसका भी कोई मायने नहीं होता। पैशन रचना या मात्र कुछ शब्दों में कैसे हो सकता है ? पैशन तो रचनाकार में होता है या पाठक में होता है। रचनाकार का पैशन उससे रचना करवा रहा होता है या, संरचना भी बिना पैशन के संभव नहीं। हां, वहां उसका पैशन भविष्य की जुगत, मसलन प्रकाशन से लेकर पुरस्कारों तक पहुंचने की कवायद को संरचना में आकार दे रहा होता है। पाठक का पैशन उसे पढ़ने को मजबूर कर रहा होता है। अच्छी रचनाओं को तलाश लेने की कोशिश उसे न जाने किन-किन भाषाओं के साहित्य तक ले जाती है।

विजय गौड़

अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।

Wednesday, September 23, 2009

हिमालय की यात्रायें



रामनाथ पसरीचा (1926-2002) पांच से अधिक दशकों तक हिमालय की यात्रायें करते रहे। अपने पिट्ठू पर कागज, रंग और ब्रश लिये उन्होंने 65 शिखरों के चित्र 10,000 फुट से 20,500 फुट की उंचाई पर बैठ कर बनाये हैं।

पसरीचा जी ने कई राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में हिस्सा लिया। ललित कला अकादमी द्वारा उन्हें श्रेष्ठ कलाकार का सम्मान दिया गया। भारत सरकार के सांस्कृतिक विभाग ने उन्हें सीनियर फैलोशिप प्रदान की। आज भी उनके बनाये चित्र देश-विदेश के संग्रहालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं।


रामनाथ पसरीचा ने जितने सुंदर चित्र बनाये उतने ही सीधे और सरल भाषा में अपनी यात्राओं को लिखा भी है। यहां उनकी मसूरी में की गई यात्रा का यात्रा वृतांत दिया जा रहा है। यह यात्रा वृतांत उनकी पुस्तक हिमालय की यात्रायें से लिया गया है।

मसूरी

1947 की बात है। मुझे चित्रकला को अपनाये तीन साल हुए थे। अपने चित्रों के लिये नई प्ररेणा लेने मैं मसूरी गया। हम देहरादून से बस में सवार हुए। बस छोटी और टूटी-फूटी थी, लगता था जैसे पहाड़ी चढ़ाई पर उसका दम फूल रहा हो। अभी हम 6 मील भी नहीं गये होंगे कि हमें बादलों और धुंध ने आ घेरा। ऐसा लगा जैसे बस किसी शून्यता में चढ़ाई चढ़ती जा रही है।



रास्ता केवल 25 मील था मगर उसे पार करने में तीन घंटे लग गये। उस जमाने में मसूरी का बस अड्डा शहर से काफी नीचे की ओर था। बस अड्डे पर बोझा उठाने वाले बीसियों नेपाली ठंड में यात्रियों की प्रतीक्षा में बैठे रहते। वहीं मैंने एक बोझी से सामान उठवाया और लंढौर बाजार के एक छोटे से होटल में कमरा किराये पर ले लिया। खाना खाने के लिये होटल के आसपास कई पंजाबी ढाबे थे जिनमें अच्छा खाना मिल जाता था।


मसूरी के माल पर तब भी भीड़ होती मगर इतनी नहीं जितनी अब होती है। तब भी माल पर नौजवान युवक-युवतियों के जमघट लगे रहते और मौज-मस्ती रहती। मगर प्रकृति के शौकीनों के लिये मसूरी के चारों ओर पगडंडियों जाती, जिन पर घूमने में बहुत आनंद आता। मुझे टिहरी जाने वाली पगडंडी बहुत अच्छी लगी। मैं उस पगडंडी पर हर रोज प्रात:काल निकल जाता और खूब घूमता। पौंधों, जंगलों और पहाड़ों के चित्र बनाता। बारिश में धुलकर पेड़-पौंधों पर निखार आ जाता था। धूप से उनके रंग चटख हो जाते और गीली मिट्टी की सुगंध तथा पक्षियों की चहचहाहट से तबीयत खुश हो जाती। खच्चरों के गलों में बंधी हुई घंटियों की दूर से आती आवाज कानों को मीठी लगती है। धीरे-धीरे वह आवाज पास आ जाती और खच्चरों का काफिला पास से गुजर जाता। लाल टिब्बा अथवा गनहिल की चढ़ाई कठिन है। उस पर चढ़ने से शरीर की अच्छी खासी वर्जिश हो जाती। यहां से बंदरपूंछ, केदारनाथ, श्रीकंठ, चौखंबा और नंदादेवी शिखरों के दर्शन होते तो चढ़ाई चढ़ना सार्थक हो जाता। उन शिखरों पर सूर्योदय की लालिमा ने मुझे मोहित किया, अपनी ओर आकषिZत किया और उनके चित्र बनाने की प्रेरणा दी।


मसूरी में मौसी फौल के नाम से एक प्रसिद्ध झरना है। वहां जाने का रास्ता किसी की निजी जमीन से होकर जाता था। जमीन का मालिक अपना पुरान हैट पहने अपने मकान की खिड़की में बैठा रहता और एक अठन्नी लिये बिना किसी को वहां से निकलने न देता। झरने के आसपास शांति थी, मैं कई बार वहां, लेकिन हर बार जोंके शरीर पर चिपट जाती और जी भरकर खून चूसती। रात को किसी बैंच पर बैठकर शहर की बत्तियों को आसमान में खिले सितारों में घुलते-मिलते देखना अच्छा लगता। मैं यह दृश्य उस समय तक देखता रहता जब तक ठंड बढ़ नहीं जाती।


देहरादून से मसूरी जाने वाली पुरानी सड़क राजपुर से होकर निकलती। राजपुर से मसूरी तक एक पगडंडी भी जाती है। लगभग चार घंटे का पैदल रास्ता है। राजपुर से थोड़ा ऊपर जाने पर दून घाटी दिखाई देती है। दूर क्षितिज में गंगा और यमुना नदियों के भी दर्शन हो जाते हैं। आधे रास्ते में कुछ पुराने में कुछ पुराने समय से चली आ रही चाय की दुकानें हैं। पहाड़ी लोग वहां सुस्ताने बैठ जाते हैं और चाय पीते हैं। यहां रुककर चाय पीने में बड़ा मजा आता है। यहां से आगे पहले फार्म हाउस, फिर सड़क के दोनों ओर ऊँची-ऊँची इमारतें और फिर मसूरी दिखाई देने लगती है।


अब तो मसूरी एक बड़ा शहर हो गया है। जहां होटलों की भरमार है, जहां शनिवार और रविवार को मौज मस्ती के लिये लोगों की भीड़ देहरादून और दिल्ली से पहुंच जाती है। गनहिल पर भी चाट पकौड़ी वालों ने दुकानें बना ली हैं। अब वहां लोगों की भीड़ `केबल कार´ में बैठकर पहुंचती है। लोग चाट पकौड़ी खाते हैं, तरह-तरह के ड्रेस पहनकर फोटो खिंचवाते हैं और मस्ती करते हैं। इन दुकानों में हिमालय के वास्तविक सौंदर्य को ढक लिया है। पर्यटक नजर उठाकर उन्हें देखने का प्रयास भी नहीं करते। लेकिन `कैमल बैक वयू´ वाले रास्ते पर अभी भी शांति है। वहां ईसाइयों का पुराना कब्रिस्तान है और रास्ता बलूत और देवदार के पुराने जंगलों में से होकर निकलता है। लंढौर बाजार भी ज्यादा नहीं बदला है। उस बाजार के साथ पुराने लोगों की कुछ यादें अभी भी जुड़ी हैं।


लेखक द्वारा बनाया गया मसूरी का एक स्कैच

Friday, September 18, 2009

वे हत्या को बदल देते हैं कौशल में

नवीन नैथानी

कोई कविता मुझे क्यों अच्छी लगती है?
इसके कई कारण हो सकते हैं- मसलन
कविता पढ़ने के मेरे संस्कार, मेरी अभिरुचियां, साहित्य पढ़ने की प्रक्रिया से उपजा मेरा मूल्य-बोध, दुनिया और समाज को देखने- जांचने की मेरी युक्ति-मेरी वैचारिक बुनावट, मेरे आग्रह और मेरी तात्कालिक मनःस्थिति.
इन में से कुछ कारण समय के साथ बदलते नहीं हैं (बचपन के संस्कार जिस तरह नहीं बदलते बल्कि उन्हेंप्रयत्नपूर्वक बदलना पद़ता है ) या उनके बदलाव की प्रक्रिया बहुत धीमी होती है. कुछ चीजें परिवर्तनशील हैं. कुछ तेजी से बदलती हैं और कुछ जरा धीरे से.
तो किसी भी कविता के अच्छे लगने या न लगने का मामला नितान्त व्यक्तिगत होने के साथ ही एक विशिष्ट साहित्यिक पर्यावरण से भी जुडा़ हुआ है जिसमें हम पले बढे़ हैं. मुझे जब भी ब्लोग्स देखने का मौका मिलता है तो सुखद लगता है कि हिन्दी कविता के इतने प्रेमी हैं. लेकिन यह भी इतना ही सच है कि लगभग सारे प्रेमीजन कवि भी हैं या कविता लिखने का प्रयास कर रहे हैं. यहां कविता के प्रति एक रूमानी द्रष्टिकोण भी अक्सर नजर आता है. सामान्यतः देखा गया है कि या तो लोग कुछ तुकान्तों को कविता समझने लगते हैं या फिर किसी वाक्य से सहायक क्रियाओं को हटाकर ऊपर नीचे रख देने की प्रवृत्ति पायी जाती है.
मुझे य़ह बात समझ नहीं आती कि बिना छन्द को जाने आप उसे तोड़ने की युक्ति कैसे निकाल सकते हैं? आजकल की कविता हो सकता है कहे कि उसके संस्कार छन्द-मुक्ति के पर्यावरण में बने हैं इसलिये उसे छ्न्दों की तरफ जाने की जरूरत नहीं है.वहां संवेदना को काव्यात्मक पंक्तियों में व्यक्त कर देना भर पर्याप्त है. यह भी कह सकते हैं कि छ्न्दों को तोड़ने का दावा हम नहीं करते.
लेकिन सभी बडे़ कवि छन्दों को साधकर ही आगे बढे हैं. बडी़ कवितायें एक दिन में नहीं होतीं और रोज नहीं रची जाती हैं.
बल्कि कोई भी बडी़ साहित्यिक रचना हमेशा नहीं लिखी जाती. इसके लिये पाठकों को लम्बा इन्तजार करना पड़ता है और लेखक को जिन्दगी भर मेहनत करनी होती है फिर भी तय नहीं है कि कोई बडी़ रचना निकल ही आये.
जिस तरह दुनिया में हर व्यक्ति संत नहीं हो सकता उसी तरह हम साहित्यिक संसार से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि हर रचना महान हो. हां जब तक औसत रचनाओं की आमद है तब तक हम बडी़ रचनाओं की भी उम्मीद कर सकते है.
इस पृष्ठ्भूमि में जब मैं सोचता हूं कि मुझे कोई कविता क्यों अच्छी लगती है तो कई वजहें सामने आती हैं
असंदिग्ध रूप से वे शब्द होते हैं जिनका नया आविष्कार वह कविता कर लिया करती है. देखें -
                 वे हत्या को बदल देते हैं कौशल में (राजेश सकलानी)
यहां हत्या और कौशल के बीच का संबंध मनुष्य के तकनिकी विकास के साथ छिपे विनाश की स्तिथियों की तरफ तो है ही ,इस हत्यारे समय में जी रहे लोगों की नियति पर टिप्पणी भी है.
कोई साठ वर्ष पूर्व लिखी गयी ये छ्न्द- बद्ध पंक्तियां मुझे इतनी ज्यादा पसन्द हैं कि मैं इन्हे एक उद्बोधन की तरह अक्सर गुन्गुनाता हूं -


                           तुम ले लो अपने लता-कुंज,सब कलियां और सुमन ले लो
                           मैं नभ में नीड़ बना लूंगा तुम अपना नन्दन-वन   ले लो
                        
                           मेरा धन मेरी दो पांखें , उड़ कर अम्बर तक जाउंगा
                           तारों से नाता जोडू़गा,    मेघों को मीत बनाउंगा

                         
                           नभ का है विस्तार असीम और मेरे पंखों में शक्ति बहुत
                           तुम अपनी शाखा पर निर्मित तिनकों के क्षुद्र भवन ले लो
                              (शालिग्राम मिश्र)
 और मेरी सर्वाधिक प्रिय कविता तो आलोक धन्वा की भागी हुई लड़्कियां है जो कोई बीस बरस बाद भी चेतना पर केस में रखे  सन्तूर की तरह गूंजती रह्ती है.इस कविता का आवेग ,हाहाकारी व्याकुलता और  पुरूषवादी वर्चस्व  पर  कठोर भर्त्सना  इसे एक विलक्षण पाठ्यानुभव  बना देते हैं. 


अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।

 

Wednesday, September 16, 2009

अच्छी कविता का पैमाना क्या है


राम प्रसाद ’अनुज’
चीड़ का पेड़
तुम चीड़ का पेड़ हो
प्यार और ममता की ऊंचाई में
जो पैदा होता है/ पलता है, बढ़ता है
और जवान होने से पहले ही
तने से रिसते
लीसे की तरह
किश्तों की मौत मरता है।
--------
तुम चीड़ का पेड़ हो
नयी कोंपल उगने से पहले
जो गिराता रहता है
सूखी पत्तियां
और जमीन पर छोड़ जाता है
ढेर-सा पुराल
जंगल जले
या खाद बने खेतों की
सवाल पुराल के इस्तेमाल का है।

अशोक कुमार पाण्डेय said...
भाई अनाम रह गये कविओं के प्रति पूर्ण श्रद्धा के बावज़ूद मै इस कविता के आधार पर कुछ बेहतर कह पाने की स्थिति में नहीं हूं। सवाल अच्छी और सार्थक कविता का है चाहे कवि अनाम हो या जाना माना।
अजेय said...
हाशिए..... बड़े ही प्रासंगिक मुद्दे हैं. लेकिन किस की शामत आई है कि इन मुद्दों पर एक सिंसेयर बहस करे.मेरा तो यह मानना है विजय भाई, कि पुरस्कार उसे मिलना चाहिए, जिस मे जुनून हो महनत करने का माद्दा हो, लेकिन अभी तक अलक्षित हो .या उसे जो इतना गरीब हो कि लिखना अफोर्ड न कर सकता हो. कि बन्दा मोटिवेट हो कर रचना कर्म के प्रति गम्भीर हो सके. चर्चित और सुविधा सम्पन्न आदमी को पुरस्कार देना बेमानी है. उसे सम्मानित करना भी बेमानी है.ऐसे लोग स्वयम ही ऐसी आकांक्षाएं न पालें तो कितने ही अनाम रह गए लोग अपनी पूरी ऊर्जा के साथ रचनाशील हो पाएंगे ! पर यहां तो चूहा दौड़ है. प्रतिष्ठितों और स्थापितों को शर्म आनी चाहिए इस होड़ मे शामिल होते हुए.जब कि आप इन्ही लोगों को सब से अधिक इस मारामारी और उठापटक में लिप्त पाएंगे. तीन कॉलमो मे लिखी गयी कविता के मामले में आप से हल्का सा मत्भेद रखता हूं. निस्सन्देह मैं मानता हूं कि प्रयोगधर्मिता के नाम पर हर् कुछ को स्थापित करने की ज़िद नाजायज़ है, लेकिन हिन्दी कविता की मोनोटनी को तोड़्ने के लिए हर प्रयोग का हमे खुले दिल से स्वागत करना चाहिए. हर प्रयोग पर बिना पूर्वाग्रहों के बह्स होनी चाहिए. यह बड़ा हस्यास्पद है कि हम किसी कवि पर बात करने से भी गुरेज़ करते हैं कहीं वह "चर्चित" न हो जाए! खैर, अनुज जी के "चीड़" के पेड़ ने मुझे अपनी "ब्यूंस" की टहनियों की याद दिला दी. मार्मिक कविता.
डॉ .अनुराग said...
कहते है कविता विधा जो समझने के लिए एक अलग अनुभूति लेनी पड़ती है .....अशोक जी ने ठीक कहा है... सवाल अच्छी और सार्थक कविता का है चाहे कवि अनाम हो या जाना माना।....
कवि राम प्रसाद अनुज की कविता को पोस्ट करते हुए मैं जिन कारणों से उसकी व्याख्या नहीं करना चाहता था, उसके पीछे स्पष्ट मत था कि यह मुगालता मुझे नहीं था कि चीड़ का पेड़ कोई अतविशिष्ट कविता है। हां एक अच्छी कविता है, यह जानता था। अच्छी इन अर्थों में भी कि अपनी पहली खूबी में तो वह हिंदी कविता के भूगोल को विस्तार देती है। दूसरी, उस स्थानिकता से चीड़ के पेड़ का जो बिम्ब रखती है उसमें पहाड़ी जीवन के उस अनुभव को समेट लेती है जिसमें लीसे की तरह निचोड़ ली जाती वह जवानी दिखाई देती है जो पलायन की कथा का नायक बनने को मजबूर है। 
कविता को पोस्ट करते हुए सिर्फ एक बात ध्यान में थी कि अपनी उस बात को पुष्ट कर सकूं कि साहित्य की गिरोहगर्द स्थितियों ने कैसे विविधता को खत्म किया है, जो जीवन को सम्पूर्णता में जानने के लिए जरूरी है। भाषा के विकास की दृष्टि से भी और स्थानिकता की दृष्टि से भी हिन्दी कविताओं के अध्ययन की कोई ठोस पहल शायद इसीलिए नहीं हो पाती क्योंकि हिंदी की ज्यादातर कविताएं अपने विन्यास और जीवन अनुभवों में कमोबेश एक जैसी ही दिखाई देती है। इसके बीच अच्छी ओर बुरी कविता मात्र कहन के अंदाजों से ही अलग की जा सकती है। अभिव्यक्ति की कुशलता जो शिल्पगत प्रयोगों के चलते दिखाई दे रही है, वह ठेठ, कला कला के लिए जैसे सिद्धांतों की ही पक्षधर हो जाती है। तीन-तीन कॉलमों में, हाशिए के इधर और उधर, लिखी जाती कविताओं को भी इसीलिए उसी ढांचे पर मानने की मेरी समझ अजेय से भी मतभेद रखती है।       
 अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।

Monday, September 14, 2009

हाशिए पर लिखे को पाओ तो छोड़ देना

विशिष्टताबोध से घिरी हिन्दी की कविता पुरस्कारों के मकड़जाल की शिकार रही है। यदि पिछले कुछ समय को छोड़ दे, जब से यह बीमारी दूसरी अन्य विधाओं तक भी सक्रंमित हुई, तो देखेंगे कि जो भी पुरस्कार घोषित थे उनमें कविता को ही प्रमुखता मिली। यहां आग्रह यह नहीं कि अन्य विधाओं के लिए भी पुरस्कारों की घोषणा होनी चाहिए थी। बल्कि उन कारणों की पड़ताल करना है कि आखिर वे कौन से कारण थे जिनके कारण पुरस्कृत होते कवियों की कविताएं भी कोई पाठक वर्ग न तैयार कर पाई। बल्कि कहें कि जो पाठक था भी उससे दूर होती रही। क्या इसे इस रूप में नहीं समझा जा सकता कि कला की दूसरी विधाएं, जैसे पेटिंग और संगीत आम जन से दूर हुआ वैसे ही कविता भी दूर होती गई। कविता की यह दूरी एक खास वर्ग के बीच यदि उसे अटने नहीं दे रही थी तो उसके पीछे सीधा सा कारण था कि बहुत साफ शब्दों में वह उस वर्ग की बात तो नहीं ही कहती थी। जबकि पेटिंग और संगीत अपनी रंगत में ज्यादा अमूर्त रहे और आज भी उनके ड्राईंगरूमों की शोभा बने हुए हैं। बल्कि कहीं ज्यादा। यह तो कविता की सकरात्मकता ही हुई कि वह उस रूप में अमूर्तता से बची रही। पर इस अमूर्तता को बचाने की कोई सचेत कोशिश हुई, ऐसा कहना इसलिए संभव नहीं हो पा रहा है कि पुरस्करों के मोह से वह उबर न पाई थी। यदि उबर गई होती तो हमारे दौर के प्रतिष्ठित आलोचक विष्णु खरे जी को उनकी दुबारा पड़ताल करने की जरूरत न पड़ती, शायद। वह भी तब जबकि वे कविताएं खुद उनके भी हस्ताक्षरों से पुरस्कृत होती रही। गिरोहगर्द स्थितियों  में रहस्यों से घिरी कविताओं की व्याख्या बिम्ब-विधान और शिल्प-सौष्ठव के ऐसे काव्य प्रतिमानों को ओढ़े रही जिसमें सहज सरल भाषा को हेय मानते हुए न सिर्फ उसको पाठक वर्ग से दूर किया बल्कि कविता के स्वाभाविक विकास की गति को भी असंभव कर दिया। पिछले ही दिनों तीन-तीन कॉलमों में लिखी कविता की ऐसी ही कोशिश इसका ताजा उदाहरण है, जिसे हाशिये की कविता के रूप में स्थापित करने की एक असफल कोशिश आज भी जारी है। 
   

यहां अनाम से रह गए एक कवि की कविता प्रस्तुत है, जो गिरोहगर्द होती गई साहित्य की दुनिया में पत्र-पत्रिकाओं में भी स्थान न पाती रही। उन पर नोटिस लिया जाना तो दूर की बात होती। 1988 में कुछ मित्रों के साथ मिलकर स्थानीय स्तर पर एक कविता फोल्डर फिल्हाल निकालने की कोशिश की थी। यह कविता फिल्हाल-4, जो सितम्बर 89 में प्रकाशित हुआ था,  के पृष्ठों से साभार है।   


राम प्रसाद ’अनुज’

चीड़ का पेड़

तुम चीड़ का पेड़ हो
प्यार और ममता की ऊंचाई में
जो पैदा होता है/ पलता है, बढ़ता है
और जवान होने से पहले ही
तने से रिसते
लीसे की तरह
किश्तों की मौत मरता है।

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तुम चीड़ का पेड़ हो
नयी कोंपल उगने से पहले
जो गिराता रहता है
सूखी पत्तियां
और जमीन पर छोड़ जाता है
ढेर-सा पुराल
जंगल जले
या खाद बने खेतों की
सवाल पुराल के इस्तेमाल का है।



अनाम से रह गए कवियों की कविताओं की प्रस्तुति टिप्पणी के साथ आगे भी जारी रहेगी।