Sunday, February 14, 2010

चाहिए एक और संत वेलेन्टाइन



बाजार में मंदी की मार ने जहां कई क्षेत्रों के प्रतिभावानों को अपने रोजगार से हाथ धोने को मजबूर किया वहीं पत्रकारिता से जुड़े लोग जानते हैं कि उनके कई संगी साथियों के जीवन में इस मंदी ने ऐसी हलचल मचाई है कि लाला की नौकरी के मायने क्या होते हैं, वे इसे भली प्रकार समझने लगे हैं। प्रीति भी उसी मंदी के दौर की मार को झेलने के बाद अपने रोजगार से हाथ धोने के बाद आज एक सामान्य घरेलू महिला का जीवन बिताने को मजबूर हुई है। प्रीति को उसकी रिपोर्टिंग से जानने वाले पाठक जानते हैं कि बहुत ही जिम्मेदारी से प्रीति किसी भी रिपोर्ट को तैयार करती रही है। प्रीति जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा , हरिभूमि आदि अख़बारों में विभिन्न सामाजिक आर्थिक और स्त्री अधिकार के मुद्दों पर संपादकीय आलेख लिखती रहीं हैं। कृषि और महिला मुद्दों पर विभिन्न शोध परियोजनाओं पर काम किया है।
हम प्रीति के आभारी है कि वेलेंटाइन डे के समर्थन और विरोध के हल्ले के बीच  उन्होंने इस ब्लाग के पाठकों को एक सार्थक और बेबाक टिप्पणी से रूबरू होने का  अवसर दिया है:


प्रीति सिंह
 सदियों पहले जब संत वेलेन्टाइन ने रोम के राजा क्लॉडियस द्वितीय की आज्ञा को चुनौती देते हुए अपने चर्च में गुपचुप किसी जोडे की शादी करवाई होगी तो उन्हें सपने में भी गुमान न होगा कि सत्ता की जबरदस्ती के खिलापफ संघर्ष की उनकी इस अभिव्यक्ति को भुनाकर एक दिन बाजार के सौदागर करोड़ों रुपयों के वारे न्यारे करेंगे। आज किसी को इस बात से लेना-देना नहीं है कि उस सामंती युग में संत वेलेन्टाइन का यह कदम कितना दुस्साहसिक था जब राजा की आज्ञा ही कानून थी। और उसे तोड़ने की सजा मौत भी हो सकती थी। मौत से भी खेलकर संत वेलेन्टाइन ने शादियां करवाना जारी रखा और जैसी कि उम्मीद थी सामंती युग की क्रूरता के शिकार हुए।
    भारत में दो तरह के लोग इस दिन का विरोध् करते हैं। एक तो, शिव सेना जैसे कुछ राजनीतिक दल, खाप व जाति पंचायतें तथा सामंती मूल्यों को प्रश्रय देने वाले कई और तरह के संगठन व संस्थाएं। दूसरे, बाजारवाद का विरोध् करने वाले। प्यार जैसी स्वाभाविक मानवीय भावनाओं को बाजारू बना दिए जाने का विरोध् तो होना ही चाहिए। प्यार की सच्ची भावना को किसी सुंदर ग्रीटिंग कार्ड, गिफ्रट या एसएमएस की जरूरत नहीं होती। हर दिन प्यार का दिन है लेकिन प्यार का कोई एक दिन मनाने में दित भी क्या है? यदि शिक्षक दिवस और शहीदी दिवस मनाए जा सकते हैं तो वेलेन्टाइन डे क्यों नहीं? क्या शिक्षक दिवस के अलावा बाकी दिन हम शिक्षकों की इज्जत नहीं करते। आज 21वीं सदी में पहुंचकर भी भारतीय समाज सामंती युग में करवटें बदल रहा है। हमारे देश में व्यक्ति की स्वतंत्राता कागज के चंद पन्नों पर जरूर उकेर दी गयी है लेकिन समाज के बड़े हिस्से ने व्यक्तिगत स्वतंत्राता के इस अधिकार को स्वीकार नहीं किया है। समाज में खाप पंचायतों, परिवार के मुखिया और बड़े जमींदारों का दबदबा बना हुआ है। यहां आज भी प्यार करना जनवादी अधिकार नहीं बल्कि अपराध् है। प्यार करना सामाजिक मान्यताओं और पारिवारिक मूल्यों के विरूद्ध् बगावत है। उत्तर भारत के बड़े हिस्से में अपने जीवन साथी का चुनाव लोकतांत्रिक अधिकार नहीं बल्कि सदियों पहले स्थापित अमानवीय सामंती मूल्यों को चुनौती माना जाता है जिसकी सजा मौत भी हो सकती है। हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समय-समय पर ऐसी घटनाएं अखबारों में छपती हैं जिसमें अपनी मर्जी से शादी करने वाले युवक-युवती को मारा-पीटा जाता है या उनकी मौत का फतवा जारी कर दिया जाता है। परिवार की इज्जत के नाम पर शादी तुड़वाने की कोशिश तो लगभग हर मामले में की जाती है। इन ताकतों से लड़ने के लिए आज हमारे देश को एक ऐसे संत वेलेन्टाइन की जरूरत है जो अपनी पसंद से शादी करने जैसे लोकतांत्रिक और मानवीय अधिकारों की रक्षा करने में मदद कर सके। कोई ऐसा संत जो उन दुर्गंधयुक्त सड़ी-गली मान्यताओं के खिलापफ संघर्ष कर सके जो परिवार की इज्जत के नाम पर लाखों-करोड़ों लड़कियों के सपनों और इच्छाओं का गला घोंट देती हैं। ऐसा संत जो प्यार करने वालों को अपराधियों की नजर से नहीं बल्कि सम्मान की नजर से देखने का दृष्टिकोण पैदा करवा सके।
     वेलेन्टाइन डे के नाम पर चांदी कूटने वाले बाजार के सौदागरों को इस बात की परवाह नहीं कि समाज आगे जा रहा है या पीछे। उन्हें सिर्फ अपने मुनाफे की फ़िक्र होती है जिसे बढ़ाने के लिए वे सती को महिमा-मंडित कर सकते हैं और संत वेलेन्टाइन के नाम का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। बाजार करवा चौथ को "हस्बैंड डे" बना देता है और प्रेम जैसी निजी भावना को भी उत्पाद बनाकर बेच सकता है। यहां तक कि वे पूंजीवाद के धुर विरोधी क्रांतिकारी चे ग्वेरा के नाम व छवि को भी भुना सकते हैं।
     वेलेन्टाइन डे पिछले 10-15 सालों में बड़े शहरों के इलीट वर्ग के दायरे से निकलकर छोटे शहरों और कस्बों के स्कूल-कॉलेजों में सेंधमारी कर चुका है। लेकिन यह संत वेलेन्टाइन की तरह समाज की बुराइयों से नहीं लड़ रहा बल्कि मानवीय भावनाओं को बेचकर अपनी तिजोरियां भर रहा है। यह युवा दिलों को अपनी भावनाओं का इजहार करने के लिए बाजार का सहारा लेने के लिए आकर्षित कर रहा है। स्वाभाविक है कि इस दिन के पहले या बाद में उस लड़के-लड़की को समाज किस तरह प्रताड़ित कर रहा है, यह देखना बाजार का काम नहीं। न ही यह देखना इसका मकसद है कि प्रेम जैसी भावनात्मक क्रिया कब और कैसे इसी बाजार की शक्तियों के द्वारा यौन उच्छृंखलता की ओर धकेली जा रही है। आज युवाओं में ऐसी विकृत प्रेम भावना पैदा हो रही है जहां शरीर मुख्य है, भावनाएं गौणऋ यौन आकर्षण मुख्य है मानसिक संतोष गौण है। इस विकृत प्रेम की प्रतिक्रिया में ही ऐसे सामंती समूहों को समर्थन मिल रहा है जो इसका विरोध् करने के नाम पर दूसरी घोर विकृति पैदा कर रहे हैं। वे वेलेन्टाइन डे का विरोध् करने के नाम पर ऐसे दकियानूसी सामंती मूल्यों को स्थापित करना चाहते हैं जहां प्रेम करना अपराध् है।
    क्या इन दोनों अतिवादियों के बीच कोई ऐसी जगह नहीं, जहां बाजार के नियंत्राण के बिना सच्ची मानवीय भावनाओं के साथ प्रेम को अभिव्यक्त करने की आजादी हो। जहां पे्रम करना अपराध् न हो बल्कि मनुष्य का निजी मामला और उसका निजी अधिकार हो जिसका उल्लंघन करने की इजाजत किसी खाप पंचायत, किसी धर्म, किसी मठाधीश या समाज के किसी ठेकेदार के पास न हो।

Wednesday, February 10, 2010

उत्तराखण्ड में पत्रकारिता की परम्परा

उत्तराखण्ड के समाजिक, राजनैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में युगवाणी उत्तराखण्ड की एक मासिक पत्रिका ही नहीं है बल्कि उत्तराखण्ड में पत्रकारिता का एक ऐतिहासिक सच भी है। अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्र की स्थापना टिहरी राजशाही के विरोध में जन्में आंदोलन का एक रूप था। उत्तराखण्ड में जनआंदोलनों के साथ अपनी प्रतिबद्धता की परम्परा को युगवाणी ने बखूबी निभाने का प्रयास किया है। युगवाणी के संस्थापक आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती पर एक कार्यक्रम का आयेाजन किया जा रहा है जिसमें पत्रकारिता की नयी चुनौतियों पर विचार विमर्श किया जाएगा। 13 फरवरी 2010 को युगवाणी द्वारा देहरादून में आयोजित होने वाले इस कार्यक्रम में लीलाधर जगूड़ी, पंकज बिष्ट, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, समर भण्डारी, शेखर पाठक, राजेन्द्र धस्माना, शमशेर बिष्ट, राजीव लोचन शाह के साथ साथ कई लेखक पत्रकार हिस्सेदारी कर रहे हैं। उम्मीद करते हैं कि कार्यक्रम उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन, चिपको आन्दोलन, टिहरी राज्य आन्दोलन, नशा नहीं रोज़गार दो आन्दोलन, विश्व विद्यालय के लिए आन्दोलन, बाँध विरोधी आन्दोलन, बाँध विस्थापितों के हितों व उनके जनतान्त्रिक अधिकारों को समर्पित आन्दोलनों के कार्यकर्ताओं, पूर्व सम्पादकों, पत्राकारों और बुद्धिजीवियों की विरासत को भी अच्छे से स्थापित करेगा साथ ही उत्तराखण्ड की पत्रकारिता की प्रवृतियों और स्मृतियों का ब्यौरा भी संजो सकेगा।

हमारे समय में आचार्य जी

संजय कोठियाल

आचार्य गोपेश्वर कोठियाल की जन्मशती मनाने का विचार अचानक ही नहीं आया। उनके समय के टीन की छत वाले युगवाणी के दफ्रतर में कोई खास बदलाव नहीं आया है। सिर के ऊपर लकड़ी की कड़ियाँ अभी भी मौजूद हैं। एक ट्रेडल प्रेस जरूर अब यहाँ नहीं है, लेकिन मशीन मैन की जगह कभी खुद अखबार की छपाई करते, अखबार के बण्डल को कन्धों पर रखकर पोस्ट ऑफिस ले जाते हुए और सम्पादक की कुर्सी पर बैठकर सुदूर पहाड़ी गाँवों से मिलने आये लोगों से ध्यान पूर्वक हाल-समाचार लेते हुए आचार्य जी अपनी व्यक्तित्व की पूरी आभा के साथ यहाँ बराबर मौजूद लगते हैं। छोटे-बड़े सभी उम्र के लोगों के साथ वे सामान लगाव से मिलते थे, लेकिन उनसे बात करते समय खुद-ब-खुद एक जिम्मेदारी का भाव पैदा हो जाता था। बातें अर्थपूर्ण होनी चाहिए और शब्दों का उच्चारण ठीक होना चाहिए। देश की राजनीति की हलचलें उद्वेलित कर रही हैं या विभिन्न जनपदों में आन्दोलन की खबरें आ रही हैं। कहने-सुनने की बेचैनी के लिए सोचने-विचारने वाले लोग दस बाई दस के आचार्य जी के कार्यालय में जरूर आना चाहते हैं।
50 वर्षों से ज्यादा समय तक उन्होंने युगवाणी को गम्भीरता, सादगी और परिवर्तन की जन आकाँक्षाओं का केन्द्र बनाया था। वर्ष 1999 में उनके देहावसान के बाद आचार्य जी की कुर्सी की महत्ता का बोध हुआ। यह भी कि बड़े संघर्ष सरल जीवन और सरल विचारों से सम्भव होते हैं। अपने लोक और परिवेश से एकता और हर तरह की संकीर्णता से स्वाभाविक विरोध उनकी वैचारिकी का आधार था। टिहरी की राजशाही से मुक्ति संघर्ष को गति देने के लिए स्वर्गीय श्री भगवती प्रसाद पान्थरी और स्व। श्री तेजराम भट्ट के साथ मिलकर अगस्त 15, 1947 को युगवाणी साप्ताहिक पत्रा की स्थापना की थी। बाद के वर्षों में चुनौतियों की विकट शक्लें थी। पहाड़ों में सड़कों, स्कूल-कॉलेजों और अन्य विकास कार्यों के लिए अपनी चुनी हुई सरकारों से जद्दोजहद करना था। सामन्ती प्रवृतियों और निहित स्वार्थों से संघर्ष करना था।
आज के दौर में देश में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों पर जनता का भरोसा नष्ट हो चुका है। उत्तरदायित्व विहीन पूँजी हमारे जीवन को संचालित कर रही है। सूचना और संचार माध्यमों पर कारपोरेट जगत ने कब्ज़ा कर लिया है और हमारे सांस्कृतिक, राजनैतिक जीवन को छिन्न-भिन्न करने की कोशिशें तेज हो रही हैं। छोटे क्षेत्राीय प्रकाशन केन्द्रों की जिम्मेदारियाँ बढ़ गयी हैं। हमें इस बात से ताकत मिलती है कि उत्तराखण्ड में क्षेत्रीय एकजुटता व्यापक राष्ट्रहितों के साथ तारतम्यता बनाते हुए विकसित हुई है। समय विनोद (1868), अल्मोड़ा अखबार(1871), गढ़वाल समाचार (1902), गढ़वाली (1905), पुरुषार्थ (1907), विशाल कीर्ति(1907), क्षत्रिय वीर (1922), तरुण कुमाऊँ (1923), गढ़देश (1926), शक्ति (1928), स्वाधीन प्रजा (1930), कर्मभूमि (1938) के बाद युगवाणी (1947) इस परम्परा को जिम्मेदारी के साथ निभाने को यत्नशील हैं।
"जनधारा" आचार्य जी की सीख व प्रेरणा है। नमन्
                                       
                                                                           

Thursday, February 4, 2010

शोषण के अभयारण्य

वैश्वीकरण की इस बीच जितनी चर्चा हुई है उस लिहाज से हिंदी में उस पर अर्थशास्त्रीय अनुशासन के तहत लगभग नहीं के बराबर काम हुआ है। विशेष कर ऐसा काम जो सामान्य पाठक को उसकी सैद्धांतिकी के साथ व्यवहारिक पक्षों से भी परिचित करवा सके।

अशोक कुमार पाण्डेय, कवि होने के बावजूद, उन बिरले लेखकों में से हैं, जिन्होंनें साहित्य की चपेट में सिमटी हिंदी में ऐसे विषयों पर भी लेखन किया है जो समकालीन समय, उसकी चुनौतियों और संकटों को समझने-समझाने में मददगार साबित होता है। अर्थशास्त्र जैसे महत्वपूर्ण विषय पर लगातार हिंदी में किया गया उनका लेखन कई दृष्टियों से प्रशंसनीय है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह लेखन पाठ्यक्रमीय लेखन नहीं है जैसा कि अक्सर होता है। वैश्वीकरण के विभिन्न पक्षों पर विगत कुछ वर्षों में लिखे गए इस संग्रह के लेखों में दृष्टि संपन्नता, मानवीय सरोकार और विषय की गहरी पकड़ साफ देखी जा सकती है।

एक युवा अर्थशास्त्री के ये लेख आम पाठक के लिए भी उतने ही ज्ञानवर्द्धक और पठनीय हैं जितने कि विषय के अध्येताओं और विशेषज्ञों के लिए हो सकते हैं। यह दोहराने की जरूरत नहीं है कि अगर किसी भी दौर को समझना हो तो यह काम उसकी आर्थिक प्रवृत्तियों को बिना जाने नहीं हो सकता। आज के दौर के लिए तो यह और भी महत्वपूर्ण है।

एक संपादक के रूप में ही नहीं बल्कि एक आम पाठक के तौर पर भी मैंने इन लेखों को पढ़ा है और मैं चाहूंगा कि इसे वे सब लोग अवश्य पढ़ें जो अपने दौर को सही परिप्रेक्ष्य में समझना चाहते हैं।

ये लेख हिंदी में साहित्येत्तर लेखन की चुनौती को तो स्वीकारते ही हैं साथ में सभी भारतीय भाषाओं के पक्ष को ऐसे दौर में मजबूत करते हैं जब कि अंग्रेजी ने शायद ही ज्ञान का कोई पक्ष छोड़ा हो जिस पर एकाधिकार न जमा लिया हो।
- पंकज बिष्ट  

पुस्तक : शोषण के अभयारण्य
लेखक : अशोक कुमार पाण्डेय
प्रकाशक: शिल्पायन प्रकाशन, दिल्ली (मो.  09810101036)
कीमत : 200 रु
              

Friday, January 29, 2010

और बुक हो गये उसके घोडे़- 6

पिछले से जारी-

तांग्जे में गेंहू, मूली, शलजम और गोभी की खेती हो रही है। गांव लगभग खाली खाली से हैं। ज्यादातर गांव वाले डोक्सा में हैं। जवान लड़के पार्टी को तला्शते या तो दारचा, मनाली में भटक रहे हैं या फिर पदुम और लामायुरू में। कोई घोड़ों पर रारू से डिपो का माल गांव गांव तक पहुचाने में जुटा है। जांसकर में पैदा होने वाला ज्यादातर अनाज छंग बनाने में इस्तेमाल हो जाता है। अर्क यानी देशी शराब भी बनायी जाती है। तांग्जे में एक प्राइमरी स्कूल भी है जिसमें तीन कमरे हैं। स्कूल की आज छुट्टी है। सुनते हैं मास्टर अपने इलाज के लिए दिल्ली गया हुआ है। स्कूल के नजदीक ही कारगियाक नदी पर लकड़ी का एक नया पुल बना है। नदी के दूसरे पार से कुरू और त्रेस्ता जाने का यह नया रास्ता है। हमें तांग्जे में छोड़ नाम्बगिल अपने घर कारगियाक गांव जाएगा जो यहां से घोड़े पर चढ़ कर जाने में सिर्फ दो घन्टे का रास्ता है। घर में किस किस चीज की जरूस्त है वह सब लकर लौटना है उसे।
हमें पुरनै जाना है। कुरू, त्रेस्ता होते हुए याल के नीचे से ही मलिंग वाली धार पर होते हुए। परनै पर चढ़ाई और उतराई ज्यादा है। इससे अच्छा तो कारगियाक नदी को नीचे ही बने कच्चे पुल से पार कर निकलने में ठीक रहेगा। सर्प छू के किनारे बसा पुरनै गांव जांसकर घाटी का महत्वपूर्ण गांव है। यूं मात्र तीन घर ही हैं इस गांव में पुख्ताल गोम्पा जाने के लिए पुरनै पहुचंना होगा। यहीं से सर्प छू के किनारे किनारे लगभग 7 किमी आगे नदी के दूसरे ओर है पुख्ताल गोम्पा। पुरनै से पुख्ताल जाते हुए लगभग 1 किमी दूर खनकसर गांव है जिसमें एक ही घर है। जांसकर घाटी में पुरनै पदुम से इधर के सभी गांवों में महत्वपूर्ण स्थान रखता ह। खेती बाड़ी उन्नत अवस्था में है। दुकानें हैं। दुकनों में बजता संगीत है। सैलानियों के रूकने के लिए कमरा और बिस्तर भी है। नहीं तो टैन्ट लगाने के लिए गांव वालों ने खेत खाली छोड़े हुए हैं। जिस पर 35 रू कैम्पिंग चार्ज की दर से पर टैन्ट का किराया लेते हैं पुरनै वाले।
पुख्ताल से आती सर्प छू यहां कारगियाक नदी से मिल रही । यहां से फिर पहली वाली दिशा में ही कारगियाक नदी के किनारे किनारे चलते हूए हम पदूम पहुंचेंगे। पदुम में कारगियाक नदी जांसकर नदी में मिल जाएगी। जांसकर बढ़ेगी आगे और लेह के नजदीक कैलाश मानसरोवर से आती सिन्धु नदी में मिल जाएगी। पुरनै से रारू तक लगभग पांच सात किमी तक कई गांव हैं नदी के दोनों ओर। रारू तक बस रोड़ कट चुकी हैं कभी कभार जीप या ट्रक पदुम से रारू आते है।
रारू से पदुम लगभग 20 किमी होगा। पदुम में बौद्ध, मुस्लिम - दोनों धर्मों के लोग रहते हैं। जांसकर के प्रति विदेशियों का आकर्षण सहज रूप् से देखा जा सकता है। जुलाई, अगस्त, सितम्बर में विदेशी यात्रियों का मानो सैलाब सा उमड़ता है। अपनी इस यात्रा के दौरान लगभग 35-40 टीमें हमें विदेशियों की जगह जगह मिली। यूं व्यक्तियों की संख्या लगभग दो सौ के आस पास होगी। इससे कहीं अधिक विदेशी अभी और आने हैं। या आ चुके होंगे।
कुछ हैं जो बस रूट तक ही आते हैं। विदेशियों का यह आकर्षण लेह लद्दाख को देखने का है या ---?
दरअसल जब हम रारू में पहुंचे तो वहां एक स्कूल का वार्षिक कार्यक्रम चल रहा था। विदेशी मेहमानों के साथ साथ वहीं जम्मू कश्मीर के प्रतिनिधि भी मौजूद थे। पूछने पर मालूम चला कि अमुक स्कूल जर्मनी की शाम्बला कम्पनी द्वारा खोला गया है। जिसका देख रेख का जिम्मा भी कम्पनी के ही पास है। ऐसा ही एक स्कूल पदुम में फ्रांस की कम्पनी ने खोला है। पदुम में जम्मू कश्मीर के गेस्ट हाउस में रूकना हुआ। यहीं पर दो लामाओं से भेंट हुई जो किसी विदेशी महिला को खोज रहे थे। उन्हीं से मालूम हुआ वह महिला गोम्पाओं के लिए कुछ आर्थिक मदद देने वाली है। यहां विदेशियों के साथ स्थानीय लोगों या लामाओं को यूही घूमते देखा जा सकता है। वे लोग विदेशियों के साथ अक्सर विदेशि भाषा में ही बातें करते भी सुने जा सकते हैं। यहां पदुम में ही नहीं बल्कि जांसकर घाटी में जो देखने में आया वह यह कि जांसकरी व्यक्ति जितनी आसानी से Hurry up, Come here, Get up या ऐसे ही छोटे वाक्य आसानी से समझ लेते हैं वैसे तसे किसी और भारतीय भाषा के बारे में जानते तक नहीं। उत्तराखण्ड के तमाम पहाड़ों में और देश भर के भीतर जिस तरह से NGO के मार्फत विदेशी मुद्रा इस देश में पहुंच रही है, यहां तो उससे भी आगे का रूप् देखने में आया । जर्मन, फ्रांस, इंग्लैण्ड से सीधा सैलानी के रूप में विदेशी यहां अपने रूपये के साथ पहुंच रहा है और उस पर नियंत्रण भी रख रहा है।
बस से कारगिल और लेह आते लददाख के सुखे पहाड़ मुझे फिर आकर्षित कर रहे हैं। नाम्बगिल दोरजे की वो आंखें जिनमें भीतर ही भीतर हमसे बिछुड़ने पर छलक रहा था पानी याद आ रहा है। आखिर ऐसा क्या था जो इन 10-11 दिनों में नाम्बगिल को हमारे इतना करीब ले आया। नाम्बगिल ने जब हमें पदुम में छोड़ा तो उसकी आंखों में बेचैनी साफ दिखायी दे रही थी। हमें गेस्ट हाउस में छोड़ वह पदुम बाजार की ओर निकल गया था। बाद में लौटकर उसने बताया कि कल वह रारू चला जायेगा, वहां से डिपो का माल कारगियाक तक छोड़ने के लिए बुक हो गये हैं उसके घोड़े।

समाप्त

Tuesday, January 26, 2010

उनकी टोपी इनके सिर


अरविंद शेखर 



कहते हैं संस्कृति की कोई सरहद नहीं होती। सच भी है, क्योंकि हिमाचल के किन्नौर की हरी पट्टी वाली किन्नौरी टोपी अब उत्तराखंड के लोगों के सिरों पर भी खूब सज रही है। दून में तो आपको किन्नौरी टोपी पहने बहुत से लोग दिख जाएंगे, लेकिन उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले के सुदूरवर्ती के हरकी दून ट्रैक के क्षेत्र में तो हर दूसरा आदमी हरे रंग की पट्टी वाली किन्नौरी टोपी पहने दिखता है। हम जिन टोपियों को आम तौर पर हिमाचली टोपियां कहते और समझते हैं, वे क्षेत्रवार तीन प्रकार की हैं- कुल्लू टोपी, बुशहरी टोपी और किन्नौरी टोपी। कुल्लू टोपी स्लेटी रंग के ऊनी कपड़े पर रंग बिरंगी सुनहरे रंग की वी डब्लू जैसी डिजाइन वाली ऊन की कढ़ाई वाली होती है।

अमूमन इसीको हिमाचली टोपी के रूप में जाना जाता है। दूसरी बुशहर टोपी में लाल या मैरून वेलवेट लगा होता है। यह सफेद वैलवेट पर हरे किनारे की पट्टी वाली टोपी भी हो सकती है। तीसरे किस्म की टोपी है-किन्नौर जिले की पहचान किन्नौरी टोपी। शेष अन्य टोपियों से महंगी इस टोपी की खासियत यह है कि इसे किन्नौर में पुरुष और महिलाएं दोनों पहनते हैं। हलके स्लेटी रंग के ऊनी कपड़े से बनी इस टोपी में हरी वैलवेट की पट्टी होती है। कहा जाता है कि हरे रंग का यह वैलवेट एक जमाने में तिब्बत से तस्करी कर लाया जाता था। इस वैलवेट की पट्टी के तीन किनारों पर नारंगी, लाल या केसरिया पट्टी होती है। ज्यादा सर्दी पड़ने पर वैलवेट की पट्टी को खोलकर कान ढंके जा सकते हैं। किन्नौर में इस टोपी को दलित नहींपहन सकते, लेकिन उत्तराखंड में पहुंचते ही यह गलत धारणा खत्म हो जाती है। बहुपति प्रथा वाले किन्नौर क्षेत्र में एक पति अगर पत्नी के साथ हो तो वह संकेत के तौर पर दरवाजे के बाहर खूंटी में अपनी टोपी टांग देता है, ताकि उनका एकांत भंग हो। ट्रैकिंग के शौकीन युवा रंगकर्मी साहित्यकार विजय गौड़ कहते हैं कि हरकी दून का इलाका हिमाचल जिले से लगा हुआ है। यहां के लोग अक्सर किन्नौर चले जाते हैं और वहां से किन्नौरी टोपियां ले आते हैं। हरकी दून के पूरे इलाके में आपको क्या पोर्टर, क्या दुकानदार, सभी किन्नौरी टोपी में नजर आते हैं। लगता है जैसे हरी टोपियों के संसार में कदम रख दिए हों। उत्तरकाशी निवासी डीपी उनियाल बताते हैं किन्नौरी टोपी कितनी लोकप्रिय हो चुकी है, यह बात पिछले साल रिलीज हुए गढ़वाली के एक म्यूजिक एलबम टिकुलिया मामा के लूण भरी दूण फुंदू लूण भरी दूण गाने में सभी कलाकारों ने किन्नौरी टोपी पहनी है।