Wednesday, April 14, 2010

माँ

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ,
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ।

बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी-आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ।

चिढ़ियों की चहकार में गूंजे
राधा-मोहन, अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुण्डी जैसी माँ।

बीबी, बेटी, बहन, पड़ोसन
थोड़ी-थोड़ी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ

बांट के अपना चेहरा माथ
आंखें जाने कहाँ गयी
फटे पुराने इक एलबम में
चंचल लड़की जैसी माँ

- निदा फाज़ली

Thursday, April 8, 2010

दिनेश चन्द्र जोशी की कविता


(दिनेश चन्द्र जोशी की कवितायें इस ब्लोग के पाठक पहले भी पढ़ चुके हैं कहानी-संग्रह राजयोग तीन वर्ष पूर्व प्रकशित हुआ था.उनकी कविताएं जीवन की सहज गति के बीच बह्ते हुए उन चीजों को उठाती हैं जो हर वक्त हमारे सामने रहती हैं लेकिन दृष्टि में नहीं आतीं.जीवन के सहज द्र्श्यों और कार्य व्यापारों को उनकी कविता संवेदना का अनिवार्य अंग बना डालती है. यहां हम उनकी ताजा कविता पाठकों के सामने सगर्व प्रस्तुत कर रहे हैं)
दरी

यह दरी विछी थी घर में
जिसमें बैठ कर बेटी की शादी के मौके पर
बन्नी गा रही थीं मुहल्ले की स्वाभाविक व
निपुण नृत्यांगनाएं
खिलखिला रही थीं हास परिहास करके


कई मौकों पर बिछाया गया , घर के फर्नीचर
सोफों कुर्सियों को हटाकर कमरे के चौरस
फ़र्श पर दरी को,
कितने सारे लोग अटा जाते हैं
कमरे में सामुहिक काम काज के मौके पर
’दरी बडी काम की चीज है’ पिता कहते थे बच्चों से


गोष्ठी, मीटिंग,कथा, कीर्तन, भजन के अनेक अवसरों पर
काम आयी दरी, इसे किन अनाम कारीगरों ने बनाया होगा
बनी होगी यह भदोही या चंदौली में या कि जौल्जेबी
गौचर चमोली में, जहां भी बनी हो , देश में ही बनी होगी
देशी किस्म के कामों के वास्ते

बिछती है दरी बडी बडी सभाओं में
गोष्ठियों .सेमिनारों .कार्यशालाओं में
कवि सम्मेलनों में भी बिछती थी दरी पहले सारी रात
अब न वैसे कवि रहे न श्रोता

दरी बिछती है घर मे शोक के अवसरों पर
पिता की मृत्यु के वक्त जिस पर बैठ कर दहाडें मारती है मां
सांत्वना व ढाढस देती हैं मां को दरी पर बैथी हुई स्त्रियां
दरी खुद भी हिम्मत बंधाती है मां की हथेलियों को
छूते हुए अपने अजीवित स्पर्श से

Saturday, April 3, 2010

हाइजेनबर्ग और बम

(आजकल विजय भाई नीड़ के निर्माण में व्यस्त हैं। घर शिफ़्ट किया है. फ़िलहाल इण्टरनेट नहीं है. कुछ दिनों में वे लौटेंगे । तब तक बीच - बीच में आपकी खिदमत में कुछ टिप्पणियां पेश करता रहूंगा-नवीन कुमार नैथानी)
वर्नर हाइजेनबर्ग उन गिने -चुने भौतिक -विदों में हैं जो अपने अनुशासन की हदों के बाहर आम जन में खूब चर्चित रहे। उनका अनिश्चितता का सिद्धांत आज भी विझान के और दर्शन के मूलभूत प्र्श्नों से ट्कराने के लिये एक अनिवार्य प्रसंग बना हुआ है।द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब परमाणु बम बनाने की होड़ शुरू हुई तो मित्र-शक्तियो से जुडॆ वैझानिकों (जिनमें जर्मनी से भागे लोगो की अच्छी तादाद थी) को चिंता हुई कि जर्मन कहीं बम बनाने में बाजी न मार जायें।संदेह, अविश्वास, दुरभिसंधियों और षड्यंत्रों से भरे उस समय को डाइना प्रेस्टन ने बेहद पठनीय पुस्तक बिफोर द फाल आउट में प्रस्तुत किया है।
सभी लोग इस बात पर एकमत थे कि जर्मनी में इस काम को हाइजेनबर्ग ही अंजाम दे सकते हैं।१९४२ में जब यह खबर आयी कि हाइजेनबर्ग बम बनाने के जर्मन प्रोजेक्ट से जुड चुके हैं तो अमेरिका में मेनहट्टन प्रोजेक्ट से जुडॆ वैझानिकों में चिन्ता की लहर दौड़ गयी। कहा जाता है कि विक्टर वैस्कोफ ने प्रोजेक्ट के अगुआ रोबर्ट ओपेन्हाइमर ( भारतीय दर्शन से प्रभावित और गीता के अनन्य प्रशंसक) के पास एक नोट भेजा जिसमें हाइजेनबर्ग को अगुआ करने का प्रस्ताव था। इस काम को अंजाम देने के लिये वैस्काफ ने खोद की सेवाओं की पेशकश की थी।ओपेनहाइमर ने इसे एक मजाक भर समझा लेकिन दो वर्ष बाद इस पर गंभीरता से काम हो रहा था। योजना हाइजेनबर्गकी ह्त्या तक बन चुकी थी।
दिसंबर 1944 में सीक्रेट एजेण्ट मोए बर्ग को ज्यूरिख भेजा गया .उसे यह निर्देश दिये गये थे कि वह हाइजेनबर्ग के व्याख्यान सुने और यदि इस बात का आभास हो जाये कि जर्मन बम बनाने के नजदीक हैं तो तुरंत उनकी हत्या कर दी जाये. ज्यूरिख के व्याख्यान से मोए बर्ग किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका. उसने किसी तरह हाइजेनबर्ग से मुलाकात का जुगाड़ बैठा लिया.हाइजेनबेर्ग को इस बात का कतई अन्दाजा नहीं था कि उनकी जिन्दगी अब उन शब्दों पर टिकी है जो वे कहने वाले हैं.हाइजेनबर्ग ने बम के बारे कुछ भी नहीं कहा. उनकी बातों से बर्ग को लगा कि वे शायद इस बात से दुखी हैं कि जर्मन युद्ध हारने जा रहा है.
आप हाइजेनबर्ग और मोए बर्ग के बीच उस वर्तालाप की कल्पना कीजिये. मुझे यह स्तिथी किसी अस्तित्ववादी नाटक के दृश्य की तरह लगती है.आखिर वह युद्ध भी तो एक महाभारत ही था.वैझानिक समुदाय में यह बात युद्ध के शुरू होते ही साफ हो गयी थी कि सब्से पहले सूचनाओं का निर्बाध प्रवाह इस युद्ध की भेंट चढ़ जायेग.

Friday, April 2, 2010

जहां दरिया बहता है

यह कविता वियतनामी कवि वो कू ने लिखी है। वो कू को वियतनाम में युद्ध का  विरोध करने के कारण लम्बे समय तक कारवास में रहना पड़ा जहां इन्होंने अनगिनत यातनायें झेली। वो कू का शहर क्वांग त्री सिटी को कई बार युद्ध झेलना पड़ा। अपने इसी शहर के लिये वो कू ने यह कविता लिखी।

 जहां दरिया बहता है

एक बहुत दूर की दोपहर
जब दरिया अपने किनारे लांघ गया था,
उस स्मृति के साथ पहुंचा
मैं अपने शहर, जो तुम्हारा और मेरा शहर था
चमकता है मेरे मन में वही स्वर्णिम दिन
तुम्हारा गोल सफेद टोप, उस संकरी गली में
दोपहर की रोशनी  में चमक रहा था
तुम्हारी जामुनी फ्राक, हवा में उड़ते लम्बे बाल
और चर्च की लगातार आवाजें लगाती, हज़ारों बार
बजती घंटिया याद आयी मुझे।
वह शहर जो पूरा बरबाद हो गया था युद्ध में
उस शहर की हर गली एक दर्द की तरह
उभरती है मेरे ज़हन में।
मेरा कोई हिस्सा हर गिरती हुई पंखरी के साथ
गिरता है धरती पर
उन चमकदार फूलों का आर पार
दर्द की तरह लहराता हुआ गिरता है धरती पर।
लेकिन मेरे सपनों में वो शहर अछूता है,
बरबादी के पहले सा अछूता
जब गलियां जिन्दा थी, बलखाती लहरों की तरह
जब तुम्हारी स्मित खिलने से पहिले गुलाब जैसी थी
जब तुम्हारी आंखें तारों की तरह सुलगती थी।
कैसी तेज याद आती है उन बहते पानियों की।
सर्दी की कमजोर रोशनी में कैसी दीखती थी तुम
जब लम्बी घास दरिया के दूसरे किनारे
पर झुका होता था।
हमारे पुराने शहर से अब भी भरा है हमारा होना
मेरे बाल पक गये हैं उस नदी किनारे घास की तरह
या तुम्हारे इतने पुराने प्यार की तरह।

अनुवाद: कृष्ण किशोर

Friday, March 26, 2010

इब्नबतूता की यात्रायें

मोरक्कन यात्री इब्नबतूता का जन्म 24 फरवरी 1304 ई. को हुआ था। इनका पूरा नाम अबू अब्दुल्ला मुहम्मद था। इब्बनबतूता इनके कुल का नाम था पर आगे चलकर इनकी पहचान इसी नाम से बनी। यह 22 वर्ष की अवस्था में ही माता-पिता और जन्म भूमि को छोड़कर मक्का आदि सुदूर पवित्र स्थानों की यात्रा करने की ठान ली थी आक्र 14 जून 1325 को मक्का मदीना की पवित्र यात्रा पर निकल पड़े। यहां बतुता सिर्फ हज यात्रा के उद्देश्य से ही आया था पर एक संत की भविष्यवाणी की - तू बहुत लम्बी यात्रा करेगा, ने बतूता पर ऐसा जादू किया कि बतुता सीधे काहिरा की ओर चल दिया और वहां से मिश्र होता हुआ सीरिया और पैलेस्टाइन में गजा, हैब्रोन, जेरूशलम, त्रिपोली, एण्टिओक और तताकिया आदि नगरों से सैर की। उसके बाद 9 अगस्त 132 को दमिश्क जा पहुंचा। वहां से बतुता बसरा होता हुआ पहले मदीने पहुंचा और यहां से इराकी यात्रियों के साथ बगदाद चला गया। वहां से मक्का की ओर वापस लौटा। बिमारी की अवस्था में ही काबा की परिक्रमा की और मदीना चला गया। वहां स्वस्थ होकर मक्का वापस आया।

उसको बाद बतुता ने पूर्व अफ्रिका की यात्रा की और वहां से लौट कर भारत यात्रा पर निकलने की सोची। लगभग नौ वर्ष तक बतूता दिल्ली में ही रहा। इसके बाद चीन देश की यात्रा के लिये निकल गया। उसके बाद मालद्वीप चला गया। जहां से 43 दिन की यात्रा कर बंगाल पहुंचा और वहां से मुसलमानों के जहाज़ में बैठ कर अराकनन, सुमात्रा, जावा की यात्रा पर चला गया। समस्त मुस्लिम मेें से केवल दो ही देश शेष रह गये थे - अंदू लूसिया और नाइजर नदी के तट पर बसा नीग्रो -देश। अगले तीन वर्ष बतूता ने इन जगहों की यात्रा में व्यतीत किये। मध्यकालीन मुसलमानों और विधर्मियों के देश की इस प्रकार यात्रा करने वाला सबसे पहला और अंतिम यात्री बतूता ही था। एक अनुमान के अनुसार इसकी यात्रा का विस्तार कम से कम 75000 मील लगभग है।

750 हिजरी को यह मोरक्को वापस लौट गया। स्वदेश पहुंचने से पहले बतूता को यह पता चल गया था कि उसके पिता का देहांत 15 वर्ष पूर्व और कुछ दिन पूर्व माता का देहांत हो चुका है। 73 वर्ष की आयु में सन् 1377-78 ई. में बतूता ने अपने ही देश में अपने प्राण त्यागे।



मैं यहां पर इब्नबतूता के कुछ यात्रा संस्मरण दे रही हूं।


हन्नौल, वजीरपुरा, वजालस और मौरी

कन्नौज से चलकर हन्नौत, वजीपुरा, वजालसा होते हुए हम मौरी पहुंचे। नगर छोटा होने के पर भी यहां के बाजार सुन्दर बने हुए हैं। इसी स्थान पर मैंने शेख कुतुबुदीन हैदर गाजी के दर्शन किये। शैख महोदय ने रोग शय्या पर पड़े होने पर भी मुझे आशीर्वाद दिया, मेरी लिये ईश्वर से प्रार्थना की और एक जौ की रोटी मेरी लिये भेजने की कृपा की। ये महाशय अपनी अवस्था डेढ़ सौ वर्ष बताते थे। इनके मित्रों ने हमें बताया कि यह प्रायः व्रत और उपवास में ही रहते हैं और कई दिन बीत जाने पर कुछ भोजन स्वीकार करते हैं। यह चिल्ले में बैठने पर प्रत्येक दिन एक खजूर के हिसाब से केवल चालीस खजूर खाकर ही रह जाते हैं। दिल्ली में शैख रजब बरकई नामक एक ऐसे शैख को मैंन स्वयं देखा है जो चालीस खजूर लेकर चिल्ले में बैठते हैं और फिर भी अंत में उनके पास तेरह खजूर शेष रह जाते हैं।

इसके पश्चात हम ‘मरह’ नामक नगर में पहुँचे। यह नगर बड़ा है और यहाँ के निवासी हिंदु भी जिमी हैं (अर्थात धार्मिक कर देने वाले)। यहाँ यह गढ़ भी बना हुआ है। गेहूँ भी इतना उत्तम होता है कि मैंने चीन को छोड़ ऐसा उत्तम लम्बा तथा पीत दाना और कहीं नहीं देखा। इसी उत्तमता के कारण इस अनाज की दिल्ली की ओर सदा रफ्तनी होती रहती है।

इस नगर में मालव जाति निवास करती है। इस जाति के हिंदु सुंदर और बड़े डील डौल वाले होते हैं। इनकी स्त्रियां भी सुंदरतया तथा मृदुलता आदि में महाराष्ट्र तथा मालद्वीप की स्त्रियों की तरह प्रसिद्ध हैं।

अलापुर
इसके अंनतर हम अलापुर नामक एक छोटे से नगर में पहुँचे। नगर निवासियों में हिुुंदुओं की संख्या बहुत अधिक है और सब सम्राट के अधीन हैं। यहां के एक पड़ाव की दूरी पर कुशम नामक हिन्दू राजा का राज्य प्रारंभ हो जाता है। जंबील उसकी राजधानी है। ग्वालियर का घेरा डालने के पश्चात राजा का वध कर दिया था...

इसके पश्चात हम गालियोर की ओर चल दिये। इसको ग्वालियर भी कहते हैं। यह भी अत्यंत विस्तृत नगर है। पृथक चट्टान पर यहां एक अत्यंत दृढ़ दुर्ग बना हुआ है। दुर्गद्वार पर महावत सहित हाथी की मूर्ति खड़ी है। नगर के हाकिम का नाम अहमद बिन शेर खां था। इस यात्रा के पहले मैं इसके यहां एक बार और ठहरा था। उस समय भी इसने मेरा आदर सत्कार किया था। एक दिन मैं उससे मिलने गया तो क्या देखता हूँ कि वह एक काफिर (हिन्दू) के दो टूक करना चाहता है। शपथ दिलाकर मैंने उसको यह कार्य न करने दिया क्योंकि आज तक मैंने किसी का वध होते नहीं देखा था। मेरे प्रति आदर-भाव होने के कारण उसने उसको बंदी करने की आज्ञा दे दी और उसकी जान बच गयी।

बरौन
ग्वालियर से चलकर हम बरौन पहुंचे। हिन्दू जनता के मध्य बसा हुआ यह छोटा सा नगर मुसलमानों के आधिपत्य में आता है और मुहम्मद बिन बैरम नामक एक तुर्क यहां का हाकिम है। यहां हिंसक पशु बहुतायत में मिलते हैं...

चंदेरी
इसके पश्चात हम चंदेरी पहुंचे। यह नगर भी बहुत बड़ा है और बाजारों में सदा भीड़ लगी रहती है। यह समस्त प्रदेश अमील-उल-उमरा अज्जउदीन मुलतानी के अधीन है। ये महाशय अत्यंत दानशीन और विद्वान हैं और अपना समय विद्वानों के साथ ही व्यतीत करते हैं।

इब्नबतूता की भारत यात्रा या चौदहवीं शताब्दी का भारत’ पुस्तक से साभार