Tuesday, July 5, 2011

सच सच बताना तुम्हें धूप पसंद है ?


बहुत संकोच से अपने लिखने को बयां करते हुए रेखा चमोली का कहना है कि लिखते पढ़ते हुए मनुष्य बने रहने की संभावना बनी रहती हैं तो लिखना पढ़ना जरूरी लगता है।

रेखा की कविताओं में बिम्ब और प्रतीकों का जो संयोजन है वह एक आम घरेलू स्त्री की जिन्दगी में रोजमर्रा शामिल होती चीजों के मार्फत दिखायी देता है। लेकिन उनकी उपस्थिति स्त्री जीवन की यथास्थिति को तोड़ने के साथ है।  फुर्सत की चाहत, जो अज्ञात यात्रा तक मंसूबे बांधना चाहती है, रेखा चमोली की कविताओं में बार बार सुनायी देने वाला स्वर है। उनकी लगातार की कोशिशों में उनके आसपास की दुनिया का समूचा भूगोल, जीवन का कार्यव्यापार और बेहद तंग होती दुनिया से मुठभेड़ करने की चाह, आकार लेती हुई है। उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में अध्यापिका के रूप में कार्यरत रेखा चमोली की कविताओं ने देश भर की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिकाओं में अपनी उपस्थिति को दर्ज किया है और पाठकों का ध्यान खींचा है। यह ब्लाग इस युवा एंव संभावनाशील कवि को प्रकाशित करते हुए उनका आभार व्यक्त कर रहा है और शुभकानायें भी कि वे सतत रचनाशील रहें। 


वि.गौ.

जाने किन दिनों के इन्तजार में

महानगरीय लोगों को
याद आते हैं
पहाडी लोग
गर्मियों की छुटिटयों की तरह
और उनकी यादें
प्रमुख पर्यटक स्थलों के नामों की तरह
सामान्य ज्ञान का विषय बन जाती हैं
महानगर
सुखा देता है
संवेदनाओं की जडों को
भावनाओं के झरनों को सोख
उसके ऊपर
उगा देता है
कंक्रीट के जंगल
ऐसे में
कहीं दूर किसी पहाडी गॉव में
अल्सुबह से देर रात तक
घर ,खेत ,जंगल ,बाजार
के बीच
कमरतोड मेहनत के बाबजूद
जाने कैसे
दूर किसी महानगरीय जन की याद में
हर समय
झुँझलाती ,बेचैन होती ,अपने में मुस्कुराती रहती है
पहाडी स्त्री
जाने किन दिनों के इन्तजार में।


बरसात की एक शाम छत पर

पूरे दिन घिरे रहने के बाबजूद
बादलों ने कपडे धो कर झटके भर हैं

और अब
एक पहाड को दूसरे से जोडती
बादलों की सीढियों पर चढ फिसल रही हैं किरणें

कुछ दिनों पहले लगी आग में
झुलसे अधजले पेडो की जडे
अपनें अंधेरे किचन में व्यस्त हैं
निराश हैं अपनी जडता पर

तेजी से आता एक पंछी
तार से टकराकर घायल हो गया है ।

हवा को अपना दुपटटा तेजी से लहराता देख
सूरज ने कस कर अपना लाल मफलर लपेट लिया

दस खिडकियों वाले घर से
सूरज की मॉ नें
सूरज को बुलाना शुरू कर दिया है ।


फुर्सत

दाल में नमक जितनी
घर में ऑगन जितनी
सन्नाटे में सरगम जैसी
सुन्दरता में विनम्रता जैसी
मुझे
तुम्हारी
थोडी सी
फुर्सत चाहिए।



सवाल



खूब अच्छी खिली धूप में
बर्फ से भरा-पूरा
हिमालय
चमक रहा है
खुश है बर्फ
धूप से पिघल कर
निकल पडेगी
एक अज्ञात यात्रा पर
हिमालय ! सच सच बताना
तुम्हें धूप पसंद है ?


मैं कभी गंगा नहीं बनूंगी


तुम चाहते हो
मैं बनूं
गंगा की तरह पवित्र
तुम जब चाहे तब
डाल जाओ उसमें
कूडा-करकट मल अवशिष्ट
धो डालो
अपने
कथित-अकथित पाप
जहॉ चाहे बना बॉध
रोक लो
मेरे प्रवाह को
पर मैं
कभी गंगा नहीं बनूंगी
मैं बहती रहूंगी
किसी अनाम नदी की तरह
नहीं करने दूंगी तम्हें
अपने जीवन में
अनावश्यक हस्तक्षेप
तुम्हारे कथित-अकथित पापों की
नहीं बनूंगी भागीदार
नहीं बनाने दूंगी तुम्हें बॉध
अपनी धाराप्रवाह हॅसी पर
मैं कभी गंगा नहीं बनूंगी
चाहे कोई मुझे कभी न पूजे।

Monday, July 4, 2011

याद आया "विचारधारा वाला पत्रकार"

अभिनव श्रीवास्तव की यह रिपोर्ट एक मित्र के मार्फ़त मेल से प्राप्त हुई। राजस्थान पत्रिका जयपुर में काम करने वाले अभिनव भारतीय जनसंचार सस्थान से पास आऊट हैं। पत्रकारिता के साथ साथ साहित्य में उनकी गहरी अभिरूचि है। अभिनव का आभार।
गाँधी शांति प्रतिष्ठान में शनिवार 2 जुलाई को दोपहर एक बजे से ही छात्रों,नौजवानों और मानवधिकार कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटनी शुरू हो गयी थी. धीरे धीरे सभागार भरने लगा था और २ बजते बजते लगातार आ रहे  लोगों के लिए सभागार में खड़े  होने की जगह नहीं बची थी. यह मौका था उस पत्रकार को याद करने का जिसने बदलाव के सपने और चट्टानी इरादों  के साथ अपनी पूरी जिन्दगी को जिया. जिसने आदिलाबाद के जंगलों में फर्जी मुठभेड़ में आंध्र प्रदेश पुलिस द्वारा मारे जाने से पहले  दमनकारी होते राज्य की  नीतियों पर अपनी बेबाक कलम से लगातार हमले  किये . बात हो रही है पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय की जिनकी पहली बरसी पर हेम चन्द्र पाण्डेय मेमोरियल लेक्चर सीरीज की शुरुआत की गयी. यह शुरुआत जनता के पत्रकार हेम चन्द्र पाण्डेय के सपने को जिन्दा रखने का प्रयास भी था और गंभीर चर्चा के माध्यम से हेम जैसे मीडिया एक्टिविस्टों की लड़ाई को समझने का भी.यही कारण था कि सीरीज का पहला लेक्चर जनपक्षीय पत्रकारिता और मीडिया एक्टिविजम के रिश्ते जैसे विषय पर आधारित था. प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता सुमंता बनर्जी ने अपनी मुख्य वक्तृता में हेम चन्द्र पाण्डेय की हत्या का उदहारण लेकर भारतीय राज्य में पत्रकारों की सुरक्षा, पुलिसिया राज के  कारण लगातार प्रभावित होती पत्रकारीय स्वतंत्रता जैसे मुद्दों के माध्यम से कई महत्वपूर्ण सवाल उठाये. उन्होंने यह भी कहा कि वर्तमान मीडिया का आर्थिक ढांचा  ऐसा है कि यह  पूरी तरह  लाभ लेने वाली संस्था बन गयी है.जब एक संचार मीडिया का उद्देश्य ज्यादा ज्यादा लाभ कमाना हो तो वह लोगो को राजनीतिक रूप से शिक्षित करने की भूमिका  से बहुत दूर होती चली जाती है. इस तरह का मीडिया  सरकारी योजनाओ की पोल खोलने वाले पत्रकारों को सुरक्षा नहीं दे सकता.  भारत में  मीडिया एक्टिविजम के भविष्य पर
बोलते हुए बनर्जी ने कहा कि मीडिया एक्टिविजम के स्वरूप को और अधिक संगठित बनाने की जरुरत है. इसके बिना कोई व्यापक हस्तक्षेप नहीं हो सकता.अरुंधती रॉय ने भारतीय राज्य के लगातार होते सैनिकीकरण पर चिंता जताते हुए बोला  कि बेशक हम सैधांतिक तौर पर लोकतंत्र हैं लेकिन आज भारतीय राज्य  में एक भी ऐसी लोकतान्त्रिक संस्था नहीं है जिसमे जाकर एक आम आदमी
न्याय की उम्मीद कर सके. अरुंधती के विचार में लोकपाल बिल को पास कराने की आड़ में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को छिपाया गया.

साहित्यकार मंगलेश डबराल ने इस बात जोर दिया कि जब तक छोटे छोटे स्तर पर चल विरोधों को संगठित  नहीं किया जायेगा तब तक  कोई भी विचार हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं पहुंचेगा . बाजार के ही विचार माने जाने वाली मान्यता पर भी उन्होंने सवाल उठाये. उन्होंने कहा कि  मीडिया का आकार में लगातार विस्तार होने के बावजूद फलक पर सच दिखाई नहीं देता.यह अफ़सोस जनक
स्थिति है. मीडिया विश्लेषक आनंद प्रधान ने भारतीय राज्य के दमनकारी चरित्र पर जमकर बरसे और मीडिया की वर्तमान आर्थिकी में विलुप्त होते पत्रकार संघो को पत्रकारों की खराब हालत के लिए जिम्मेदार बताया. उन्होंने  अखबार के मालिको  द्वारा इस बात का प्रचार किये जाने पर  आश्चर्य व्यक्त किया कि वेज बोर्ड लागू होने के बाद आर्थिक भार के कारण अखबार बंद हो जायेंगे.  कवी और पत्रकार नीलाभ ने माना कि पत्रकारों की आर्थिक स्थिति का खराब होना उनको सच कहने और लिखने से रोकता है.सत्ता और संरचना जान-बूझकर ऐसी स्थितियां बनाती है जिससे पत्रकार सच लिखने में असमर्थ हो जाये. संजय काक ने वैकल्पिक पत्रकारिता को मजबूत बनाये जाने पर जोर दिया. काक ने मुख्य धारा पत्रकारिता के समान्तर खड़ी हो रही वैकल्पिक पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे उठाने का सशक्त माध्यम बताया. संजय ने वैकल्पिक पत्रकारिता की ताकत को नए सिरे से समझने की जरुरत पर बल दिया.  हेम के याद करते हुए पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता भूपेन सिंह द्वारा सम्पादित किताब "विचारधारा वाला पत्रकार" का विमोचन भी किया गया.
विमोचन हिंदी मासिक हंस के संपादक  राजेंद्र यादव ने किया. किताब के एक लेख में हेम चन्द्र पाण्डेय की पत्नी बबिता उप्रेती ने हेम को याद करते हुए लिखा है कि कुछ लोगों की मौत पर्वत से भी ज्यादा भारी और कुछ की पंख से भी हलकी होती है. जनता के पत्रकार हेम की मौत वाकई पर्वत से भी ज्यादा भारी थी

Saturday, June 25, 2011

क्या बनोगे बच्चे

भौतिक जगत की एक छोटी सी मुलाकात और आभासी दुनिया की आवाजाही में युवा कवि सुषमा नैथानी का संग साथ एक ऐसी मित्रता के रूप में है जिसमें एक संवेदनशील और लगातार लगातार एक अपनी ही किस्म की धुन में रमी स्त्री को देखा है। पिछले दिनों सुषमा ने अपना काव्य संग्रह भेजा था पढ़ने को जिसे भविष्य में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होना है। डिजिटल रूप में प्राप्त संग्रह को माउस की क्लिक के सहारे पढ़ना दिक्कत भरा तो था लेकिन कविताओं में जो ताजगी थी वह पढ़ने के उत्साह को गाढ़ा करती रही। बहुत से अनजाने अनुभवों से गुजरते हुए सुषमा के उस मूल स्वर को पकड़ना चाहता रहा जो उन्हें कविता कहने को प्रेरित या मजबूर करता होगा। यूं अपने तई दूसरी बहुत सी कविताएं हो सकती हैं जिनमें उस स्वर को पकड़ा जा सकता है। मैं जिन कविताओं में उनके स्वर को पकड़ पाया हूं उनमें बेहद आत्मीयता से भरी लेकिन लिजलिजेपन वाली भावुकता से परहेज करती युवा कवि की छवी दिखाई देती है। विस्मृतियों की गहन खोह से वे अपनी काव्य यात्रा का शुभारंभ करती हैं। देश दुनिया की भौगोलिक सीमाएं ही नहीं भाषायी बंधनों से भी मुक्त जीवन की चाह में वे रास्ते की मुलाकात के अवसरों में भी स्त्री जीवन के कितने ही घने एकान्त के पार हो आती हैं। यहां प्रस्तुत है उनकी दो कविताएं। 
वि.गौ.
बच्चे और माँ की कहानी

पांच साल का बच्चा
देखादेखी में पाल लेना चाहता है कुत्ता
एक हरे रंग का...बिन दांतों वाला
माँ सुकूं से है...मिले तो पालने को तैयार
बच्चा लाना चाहता है एक सांप
माँ मछली पर राज़ी है
बच्चे को याद है साल भर पहले पाली गयी मछलियाँ
छूट गयी जो पीछे छूटे शहर में
अब किसी कोने बचा है अनमना मन.....


बच्चे के मन बहलाव में माँ को याद आया
एक प्यारा...भूरा...भोटिया कुत्ता
पीछे दूर...बहुत दूर छूटा
किसी दूसरे जन्म का किस्सा
बच्चा पलटकर कहता है
"दिस इस नोट फेयर...यू हेड अ डोग एंड आई डोंट"
माँ पलटकर कहती है
“यू हेव सो मेनी कारस एंड टीवी...आई हेड नन"
बच्चा माँ के बिन टीवी
बिन रिमोट कंट्रोल वाले बचपन में
उलझता है कुछ दूर
फिर पसीजकर कहता है
"कोई बात नहीं, पर अब तो खेल सकती हो"
बच्चा माँ के साथ खेलना चाहता है
माँ को निपटाने है कई ज़रूरी काम
खीज़कर बच्चा कहता है
"तुम खेलना नहीं चाहती
पापा को नए खिलौने ख़रीदने पर गुस्सा करती हो"


माँ रंग बिरंगे बाज़ार के फंसाव को याद करती है

कि कितना मुश्किल है ढूंढना बच्चे की उम्र का खिलौना
अचानक मॉल में मिली दो औरते बिफ़रकर कहती है
"कहाँ है वे खिलौने
जो बाप के लिए नहीं बच्चे के लिए बने हैं?"
खिलौना कंपनी की मार्केटिंग टीम खूब जानती है कि
खिलौना कुछ बाप और कुछ बच्चे के लिए बनाये
बाप के पास है ज़ेब और बच्चे का बहाना
रोशनी आवाजों वाला इलेक्ट्रोनिक गेजेड्स सलोना
भरता होगा बाप के बचपन का कोई खाली कोना
माँ खिलौने के जंगल से बेज़ार
बचपन के कई संभवना भरे दिनों में से कुछ
चुराना चाहती है बच्चे के लिए.....


बच्चा फिर घूमकर चिड़िया पर लौटा है
और हरियल तोते को लेकर है फिक्रोफिराक में
कि तोते पर न चढ़ जाय छोटे भाई की ज़बान
फिर फिर मन के फेर में घूमता है बच्चा
माँ अब डरती है दूकान से
देखना नहीं चाहती पेटको में
मकड़ी...कुछ रंग बिरंगे चूहे...छिपकली
कछुए...सांप और ऐसे ही तमाम चित्र विचित्र
महीनेभर तौलमोल के बाद तय हुआ
कि कुछ केंचुए एक बोतल में दो दिन मेहमान बनकर आयें
फिर वापस अपने घर... भुरभुरी मिट्टी में
फिलहाल बच्चा और माँ दोनों सहमत....



 बच्चे क्या बनोगे तुम?

जिज्ञासावश नहीं आता सवाल
हमेशा मुखर हो ये ज़रूरी नही
उत्तर की आरज़ू में नही पूछा जाता
कुछ ज़रूरी ज़बाब है
जिन्हें चुपके से...चालाकी से उकेर दिया जाता है
कोमल कोरे मन की तहों पर अचानक
खिलौनों के बीच खेलते हुए
किसी रंगीन लुभावनी किताब को पलटते हुए
सीधे नहाकर कपडे पहनते हुए भी
एक बड़े की आशीष के बीच
कि कुछ एक होने के लिए
कुछ एक बनने के लिए ही है जीवन…..


क्या बनना है बच्चे को?
बच्चा अभी कहाँ जान पायेगा कि
ये कुछ एक बनने की लहरदार सीढ़ी
चुनाव और रुझान से ज्यादा
कब एक जुए की शक्ल ले लेगा
जो भाग्य...भविष्य
और बदलते बाज़ार की ज़रुरत के दांव से खेला जाएगा
बच्चा दूसरे के देखे सपने में दाखिल होगा
कभी डॉक्टर बनकर घिरा रहेगा दिन भर
बीमारी...बेबसी...के व्यापार के बीच
डेंटिस्ट की शक्ल में होगा बदबू मारती साँसों के बीच
कभी एक फटेहाल टीचर की शक्ल में दिखेगा
जो अपने जीवन के सबसे ज़रूरी पाठों को पढने से रह गया
कभी नींद में बौखलाए पायलेट की तरह
जो बिन मंजिल की यात्रा में बदल गया है
कभी किसी एयरहोस्टेस की शक्ल में

जिसके लिए रोमान और ग्लैमर की जगह
जूठी प्लेटों के ढ़ेर में है जीवन…..


कभी इन्ही सपनों में दाखिल होंगे
निर्वासित वैज्ञानिक...इंजीनियर
जो बस हाथ बनकर रह गए है
जिनका दिमाग भी हाथ का ही विस्तार है
कुछ ज्यादा कठिन कसरतों के लिए
ये दिमाग खांचे से बाहर
जीवन से ज़िरह के लिए नहीं
सवाल के लिए नहीं है
बिन रुके एक प्रोजेक्ट से दूसरे को निपटाने के लिए है
कभी आयेगा एक पत्रकार की शक्ल में
टीवी पर लहकते लड़के लड़कियों के लिए

विद्रूप से विद्रूपतर शक्लों में आयेगा जीवन
बहुत से बच्चों के लिए
जिनसे कोई पूछ न सका कि
क्या बनोगे बच्चे?

Thursday, June 16, 2011

हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं

 

यह हमारे लिये अत्यन्त खुशी की बात है कि राजेश सकलानी का दूसरा कव्य संग्रह पुश्तों का बयान हाल ही मे प्रकाशित हुआ है. प्रकाशन के प्रति बेहद लापरवाह राजेश सकलानी की कवितायें अभी तक समुचित मुल्यांकन की प्रतीक्षा कर रही हैं. अपसंस्कृति और बाजार की आपाधापी की हलचलों से भरपूर इस समय में राजेश मनुष्य की गरिमा के लिये प्रतिरोध का विरल पाठ रचते हैं.
राजेश  प्रकाशन-भीरु कवि हैं.निपट अकेली राह चुनने की धुन उन्हे समकालीन कविता के परिद्र्श्य  में थोडा बेगाना बानाती है-उनकी कविताओं का शिल्प इस फ़न के उस्तादों की छायाओं से भरसक बचने की कोशिश करते हुए नये औजारों की मांग करता है.अपने लिये नये औजार गढ़ना किसी भी कवि के लिये बहुत मुश्किल काम है. राजेश वही काम करते हैं.अस्सी से ज्यादा कविताओं के इस संग्रह से कोई प्रतिनिधि कविता चुनना दुरूह है।
उनके इस संग्रह से कुछ कवितायें यहां सगर्व प्रकाशित की जा रही हैं|
- नवीन नैथानी



दुल्हन

सपनों की त्वचा में रंगभेद नहीं होता
और दुल्हन की साड़ी की कोई कीमत नहीं होती

नंगे पैर गली में भटकने से
कैसे धरती तुम्हारे चेहरे पर निखरती है और
कितनी प्यारी हैं तुम्हारे श्रंृगार की गलतियाँ
चन्द्रमा की तरह दीप्त
अपनी बालकनी से दबे-दबे मुस्करातीं हैं मालकिनें
तुम्हारी खुशियों को नादानी समझतीं
उनकी आँखों में तुम मछली की तरह
लहराती हुई निकलो

भले ही जल्द टूट जाएँ वे चप्पलें जो
त्ुमने जतन और किफ़ायत से खरीदी हैं,
उन्हें इतराने दो और खप जाने दो मेहँदी
अपनी खुरदरी हथेलियों में

कुछ-कुछ ज्यादा है वे रंग जो तुम
अपने चेहरे पर चाहती हो
एक वह है जो दूसरे में दखल किए जाता है

दुल्हनें इसलिए भी शरमाती हैं कि चाहती
भी हैं दिखना लेकिन तुम ऐसे शरमाती हो
जैसे धीमे-धीमे दुनिया से टर लेती हो
जैसे तुमने जान ली है थोड़ी-सी लज्जा और
थोड़े से भरोसे के साथ दिख जाने की कला

जैसे तुम पहली बार उजाले में आई हो
कोई तेरी पलकों के ठाठ देखकर
चौंक पड़ेंगे
कुछ भले लोगों की तरह सँभलेंगे
कुछ इंतजार करेंगे बेचैनी से
मेहँदी के घटने के दिन

कुछ ऐसे देखेगें लापरवाही से जैसे नहीं देखते हो
अच्छा हो तुम उन्हें भी ऐसे ही देखो
जैसे न देखती हो
जैसे तुम समझ गई हो अपना होना
समय की कठिनाइयों में यह भी काम आएगा
अपने टूटे-फूटे बचपन की किताब को
तुम बंद कर देती हो
जैसे शाम होते ही दिन खत्म हो जाता है

ऐसे ही गुज़रो तुम बहुत समय तक
मचल-मचल कर इस जीवन को गाढ़ा कर दो।

अमरूद वाला

लुंगी बनियान पहिने अमरूद वाले की विनम्र मुस्कराहट में
मोटी धार थी, हम जैसे आटे के लौंदे की तरह बेढब
आसानी से घोंपे गए

पहुँचे सीधे उसकी बस्ती में
मामूली गर्द भरी चीजों को उलटते-पुलटते
थोड़े से बर्तन बिल्कुल बर्तन जैसे
बेतरतीबी में लुढ़के हुए
बच्चे काम पर गए कई बार का उनका
छोड़ दिया रोना फैला फ़र्श पर

एक तीखी गंध अपनी राह बनाती,
भरोसा नहीं उसे हमारी आवाज़ का।



पुश्तों का बयान

हम तो भाई पुश्तें हैं
दरकते पहाड़ की मनमानी
सँभालते हैं हमारे कंधे

हम भी हैं सुन्दर, सुगठित और दृढ़

हम ठोस पत्थर हैं खुरदरी तराश में
यही है हमारे जुड़ाव की ताकत
हम विचार और युक्ति से आबद्ध हैं

सुरक्षित रास्ते हैं जिंदगी के लिए
बेहद खराब मौसमों में सबसे बड़ा भरोसा है
घरों के लिए

तारीफ़ों की चाशनी में चिपचिपी नहीं हुई है
हमारी आत्मा
हमारी खबर से बेखबर बहता चला आता
है जीवन।

पुश्ता : भूमिक्षरण रोकने के लिए पत्थरों की दीवार। पहाड़ों सड़कें, मकान और खेत पुश्तों पर टिके रहते हैं।


     

Sunday, June 12, 2011

सपने में भी जागने का आग्रह


रोहित जोशी 

 सपने में खुद से संवाद होता है। जापानी फिल्मकार 'अकीरा कुरूशावा' की लघु
फिल्मों की एक सीरीज ‘ड्रीम्स्‘ भी यूं ही संवाद करती है। यह संवाद एक ओर
निर्देशक का खुद से है तो वहीं दूसरी ओर यह संवाद उसके समय का भी स्वयं
से है, जिसके केन्द्र में मानवता के विमर्श की चुनौतियां हैं। सही अर्थों
में यह फिल्म श्रृंखला यहीं पर सबसे अधिक सफल है। 10-20 मिनट की कुल
छोटी-छोटी 8 फिल्मों में निर्देशक ने एक सपने का सा अहसास लगातार बनाकर
रखा है। लेकिन इन सपनों में ‘जागने’ का आग्रह भी निरन्तर मिलता है।
‘क्रोज़’ के अतिरिक्त अन्य फिल्मों में जापानी पृष्ठभूमि पर ही फिल्मांकन
है। दूसरे विश्वयुद्ध की विभीषिका से अब तक न उबर पाऐ जापानी समाज की
युद्ध के प्रति घृणा फिल्मों में बार बार उभर कर आती है। ‘माउण्ट फ्यूजी
इन रेड’,‘द टनल’ और ‘द वीपिंग डिमोन’ रासायनिक हथियारों के दुष्परिणाम को
चित्रित करते हुए सहज मानवीय संवेदनाओं को स्पन्दित कर युद्ध के खिलाफ
खड़ी होती हैं। ‘द ब्लिजार्ड’ फिल्म प्रकृति पर मानव की निरन्तर विजय की
कहानी को आगे बढ़ाती है। बर्फीले तूफान में फंसे कुछ पर्वतारोहियों के दल
का मृत्यु पर जिजिविषा के दम पर विजय पा लेना फिल्म की मूल कहानी है।
फिल्म में छिटपुट संवाद है।
‘सन साइन थ्रू द रेन’ जापान की किसी लोक कथा पर आधारित फिल्म है। यह
फिल्म मेरे लिए इसलिए भी रोचक है कि यह लोक कथा जापान से कई दूर मेरे
अंचल ‘कुमाऊॅ’ में भी इसी रूप में प्रचलित है। फिल्म की कहानी का आधार
लोक मान्यता के अनुसार यह है कि रिमझिम बरसात और धूप जब एक साथ निकलते
हैं तो लोमड़ियों की शादी होती है। यहां ऐसे ही एक मौसम में एक बच्चे को
लेकर कहानी चलती है जिसकी मां ने उसे डराया हुआ है कि जंगल में अभी
लोमड़ियों की शादी हो रही होगी इसे देखना ख़तरनाक है। लोमड़ियां इससे
नाराज होती हैं। बच्चे का बच्चा होना उसे जंगल की ओर धकेल देता है। कहानी
का खूबसूरत फिल्मांकन है और जंगल के दृश्य में जिन रंगों को फिल्मकार ने
पकड़ा है वह अद्भुत् हैं।
‘विलेज आफ वाटर मिल्स्’ विकास के वर्तमान ढ़ाचे पर सवाल उठाती फिल्म है।
जहां आवश्यकता उत्पादन के आधार पर तय की जा रही है। यह एक खूबसूरत गांव
है। जहां हरे भरे जंगल के बीच बहती शांत छोेटी नदी के बीच कुछ पनचक्कियां
लगी हुई हैं। पर्याप्त दूरी पर घर हैं। एक गांव से बाहर का युवक गांव को
देखकर लगभग चकित सा गांव में घूम रहा है। वह गांव में घूमता हुआ एक घर
में एक वृद्ध से मिलता है और गांव के बारे में पूछता है। वृद्ध और युवक
के बीच में हुआ यह संवाद, वर्तमान समय तक हो चुके हमारे विकास की समीक्षा
कर देता है और विकास के वर्तमान ढ़ांचे से दर्शक के मन में असंतुष्टि
पैदा करता है।
सीरीज की अगली फिल्म ‘क्रोज़’ है। यह अकीरो कुरूशावा की वह फिल्म है जो
उन्हें उनके निर्देशन और फिल्म कला की समझ के लिए सलामी देती प्रतीत होती
है। यह फिल्म महान चित्रकार विन्सेन्ट वान गॉग के जीवन पर आधारित है।
सिर्फ दस मिनट और पन्द्रह सेकन्ड की इस फिल्म में वॉन गॉग सामने आ उतरते
हैं। कहानी वान गॉग की आर्ट गैलेरी से शुरू होती है जहां एक नया चित्रकार
उनके चित्र देख रहा है। वह चित्रों में जा उतरता है। फिर चित्रकार को उसी
के चित्रों में खोजते-खोजते गेहूं के उन खेतों में जा पहुंचता है जो
वानगॉग ने खूब चित्रित किए हैं। वहां वह वान गॉग से मिलता है। एक छोटा
संवाद है जो वान गॉग की आत्म कथा से प्रेरित है। आखिरी दृश्य में ढेर
सारे कौवों का गेहूं के खेत में से उड़ने का वही दृश्य चित्रित किया गया
है जो वान गॉग की आखिरी पेंटिंग है। यह फिल्म संभवतः इसलिए महान बन पाई
है कि कुरूशावा खुद भी एक चित्रकार रहे हैं। वे टोकियो फाइन आर्ट कालेज
के विद्यार्थी रहे हैं और वान गॉग से बहुत प्रभावित भी।
‘ड्रीम्स्‘ सीरीज की यह फिल्में विश्व सिनेमा के एक पूरे अध्याय की तरह
हैं। जिसे सिनेमा के विद्यार्थियों को जरूर पढ़ना चाहिए।