बहुत संकोच से अपने लिखने को बयां करते हुए रेखा चमोली का कहना है कि लिखते पढ़ते हुए मनुष्य बने रहने की संभावना बनी रहती हैं तो लिखना पढ़ना जरूरी लगता है।
रेखा की कविताओं में बिम्ब और प्रतीकों का जो संयोजन है वह एक आम घरेलू स्त्री की जिन्दगी में रोजमर्रा शामिल होती चीजों के मार्फत दिखायी देता है। लेकिन उनकी उपस्थिति स्त्री जीवन की यथास्थिति को तोड़ने के साथ है। फुर्सत की चाहत, जो अज्ञात यात्रा तक मंसूबे बांधना चाहती है, रेखा चमोली की कविताओं में बार बार सुनायी देने वाला स्वर है। उनकी लगातार की कोशिशों में उनके आसपास की दुनिया का समूचा भूगोल, जीवन का कार्यव्यापार और बेहद तंग होती दुनिया से मुठभेड़ करने की चाह, आकार लेती हुई है। उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में अध्यापिका के रूप में कार्यरत रेखा चमोली की कविताओं ने देश भर की महत्वपूर्ण हिन्दी पत्रिकाओं में अपनी उपस्थिति को दर्ज किया है और पाठकों का ध्यान खींचा है। यह ब्लाग इस युवा एंव संभावनाशील कवि को प्रकाशित करते हुए उनका आभार व्यक्त कर रहा है और शुभकानायें भी कि वे सतत रचनाशील रहें।
वि.गौ.
जाने किन दिनों के इन्तजार में
महानगरीय लोगों को
याद आते हैं
पहाडी लोग
गर्मियों की छुटिटयों की तरह
और उनकी यादें
प्रमुख पर्यटक स्थलों के नामों की तरह
सामान्य ज्ञान का विषय बन जाती हैं
महानगर
सुखा देता है
संवेदनाओं की जडों को
भावनाओं के झरनों को सोख
उसके ऊपर
उगा देता है
कंक्रीट के जंगल
ऐसे में
कहीं दूर किसी पहाडी गॉव में
अल्सुबह से देर रात तक
घर ,खेत ,जंगल ,बाजार
के बीच
कमरतोड मेहनत के बाबजूद
जाने कैसे
दूर किसी महानगरीय जन की याद में
हर समय
झुँझलाती ,बेचैन होती ,अपने में मुस्कुराती रहती है
पहाडी स्त्री
जाने किन दिनों के इन्तजार में।
बरसात की एक शाम छत पर
पूरे दिन घिरे रहने के बाबजूद
बादलों ने कपडे धो कर झटके भर हैं
और अब
एक पहाड को दूसरे से जोडती
बादलों की सीढियों पर चढ फिसल रही हैं किरणें
कुछ दिनों पहले लगी आग में
झुलसे अधजले पेडो की जडे
अपनें अंधेरे किचन में व्यस्त हैं
निराश हैं अपनी जडता पर
तेजी से आता एक पंछी
तार से टकराकर घायल हो गया है ।
हवा को अपना दुपटटा तेजी से लहराता देख
सूरज ने कस कर अपना लाल मफलर लपेट लिया
दस खिडकियों वाले घर से
सूरज की मॉ नें
सूरज को बुलाना शुरू कर दिया है ।
फुर्सत
दाल में नमक जितनी
घर में ऑगन जितनी
सन्नाटे में सरगम जैसी
सुन्दरता में विनम्रता जैसी
मुझे
तुम्हारी
थोडी सी
फुर्सत चाहिए।
सवाल
खूब अच्छी खिली धूप में
बर्फ से भरा-पूरा
हिमालय
चमक रहा है
खुश है बर्फ
धूप से पिघल कर
निकल पडेगी
एक अज्ञात यात्रा पर
हिमालय ! सच सच बताना
तुम्हें धूप पसंद है ?
मैं कभी गंगा नहीं बनूंगी
तुम चाहते हो
मैं बनूं
गंगा की तरह पवित्र
तुम जब चाहे तब
डाल जाओ उसमें
कूडा-करकट मल अवशिष्ट
धो डालो
अपने
कथित-अकथित पाप
जहॉ चाहे बना बॉध
रोक लो
मेरे प्रवाह को
पर मैं
कभी गंगा नहीं बनूंगी
मैं बहती रहूंगी
किसी अनाम नदी की तरह
नहीं करने दूंगी तम्हें
अपने जीवन में
अनावश्यक हस्तक्षेप
तुम्हारे कथित-अकथित पापों की
नहीं बनूंगी भागीदार
नहीं बनाने दूंगी तुम्हें बॉध
अपनी धाराप्रवाह हॅसी पर
मैं कभी गंगा नहीं बनूंगी
चाहे कोई मुझे कभी न पूजे।