1920 में कैथरीन जीन मेरी रुस्का के नाम से जनमी उद्जेरू नूनुक्कल ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासियों के अधिकारों के लिए जीवन पर्यन्त संघर्ष करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता,कवि कलाकार थीं.तेरह वर्ष की उमर में उन्होंने स्कूल त्याग दिया और घरेलू नौकरानी का काम भी किया.दूसरे विश्व युद्ध के दौरान आस्ट्रेलियन सेना में भरती हो गयीं,यहीं इन्होने टाइपिंग सीखी और लेखन की ओर प्रवृत्त हुईं.पर यहाँ रहते हुए उन्होंने जातिगत और रंग भेद के कटु अनुभव किये.बाद में आस्ट्रेलिया की कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गयीं पर वहाँ भी भेदभाव की संस्कृति देख निराश हुयीं.1964 में उनका पहला कविता संकलन प्रकाशित हुआ जो आस्ट्रेलिया में किसी मूल निवासी कवि की पहली प्रकाशित पुस्तक थी.इसको घनघोर सफलता मिली तो अनेक स्थापित आलोचकों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि ये कवितायेँ उनकी नहीं बल्कि किसी और की लिखी हुई हैं.बाद में उनके अनेक संकलन प्रकाशित हुए...देश विदेश के प्रतिष्ठित सम्मान,पुरस्कार और अलंकरण उन्हें मिले.उनपर फिल्म भी बनी और उनको केंद्र में रख कर नाटक भी लिखे गए.मूल निवासियों को गोरे देश वासियों के बराबर संवैधानिक अधिकार दिलाने की लड़ाई में वे शीर्ष भूमिका निभाती रहीं. आस्ट्रेलिया के दो सौ साला समारोह में उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत द्वारा दिया गया सबसे बड़ा अलंकरण देश में मूल निवासियों की दुर्दशा पर विरोध दर्ज कराने के लिए लौटा दिया.आस्ट्रेलिया में मूल निवासियों की अस्मिता की राष्ट्रीय प्रतीक उद्जेरू नूनुक्कल ने 1993 में अंतिम साँसें लीं.
प्रस्तुति:: यादवेन्द्र
तोहफाप्रस्तुति:: यादवेन्द्र
-उद्जेरू नूनुक्कल
"मैं तुम्हारे लिए लेकर आऊंगा ढेर सारा प्यार"...जवान प्रेमी ने कहा...
"साथ में तुम्हारी उदास आँखों में
भर दूंगा मैं ख़ुशी की रौशनी का सैलाब...
सफ़ेद हड्डियों से बना पेंडेंट लाऊंगा तुम्हारे लिए
और उल्लसित तोते के पंख लाऊंगा
कि उनसे सजा सको तुम अपनी लटें ."
पर वह थी कि सिर्फ अपना सिर हिलाकर रह गयी.
"तुम्हारी गोद में ले आऊंगा मैं एक नवजात"...उसने आगे कहा...
"जो बनेगा अपने कुनबे का सरदार
और बारिश का आह्वान करने वाला मशहूर गुणी
मैं ऐसे गीत रचूंगा कि तुम उनसे हो जाओगी नाशमुक्त
जिन्हें अथक सारा कुनबा
गाता रहेगा अनंत काल तक."
वह थी कि फिर भी नहीं रीझी.
"मैं इस टापू पर सिर्फ तुम्हारे लिए
ले आऊंगा शीतल चांदनी की नीरवता
और चुरा चुरा कर इकठ्ठा करूँगा दुनिया भर के परिंदों की कूक
जन्नत में जगमग करने वाले सितारे तोड़ लाऊंगा
और हीरों की चमक वाला इन्द्रधनुष
ला कर रख दूंगा तुम्हारी हथेली पर."
"इतने सब की दरकार नहीं"...उसके होंठ हिले...
"तुम बस ला दो मेरे लिए पेड़ों की जड़ों में पैदा नरम नरम कंद."
तब और अब
अपने सपनों में मैं सुनती हूँ अपने कबीले की आवाज
कैसे हँसते हैं वे जब करते हैं शिकार..या तैरते हुए नदी में
पर यह स्वप्न ध्वस्त कर देती है धक्के मारकर तेजी से बीच में पहुँचती
दनदनाती हुई कार,धकेलती हुई ट्राम और फुफकारती हुई ट्रेन.
अब मुझे दिखते नहीं हैं कबीले के बूढ़े बुजुर्ग
जब मैं अकेले निकलती हूँ शहर की सड़कों पर.
मैंने देखी वो फैक्ट्री
जो दिन रात उगलती रहती है काला धुंआ
लील गयी है वह उस स्मृतियों में बसे पार्क को भी
जहाँ कभी कबीले की स्त्रियों ने खोदे थे गड्ढे शकरकंद के लिए:
जहाँ कभी हमारे गहरे रंगों वाले बच्चे खेला करते थे
अब वहाँ पसरा हुआ है रेल का यार्ड
और जहाँ हमारे ज़माने में हम लड़कियों को
ललकारा जाता था नाचने और नाटक करने को
अब वहाँ ढेर सारे आफिस हैं ...निओन लाइटों से पटे हुए
बैंक हैं..दुकानें हैं..इश्तहारी बोर्ड लगे हुए हैं..
ट्रैफिक और व्यापार से भरा पूरा शहर.
अब न तो वूमेरा* हैं , न ही बूमरैंग*
न खिलंदड़ी के साधन , न पुराने तौर तरीके.
तब हम प्रकृति की संतानें थे
न घड़ियाँ थीं न ही भागता ही रहने वाला भीड़ भक्कड़.
अब मुझे सभ्य बना दिया गया है,गोरों के ढब में काम करने लगी हूँ
खास तरह का ड्रेस पहनती हूँ..जूतियाँ चमक दमक वाली
"कितनी खुश नसीब है , देखो तो अच्छी सी नौकरी है ".
इस से बेहतर तो तब था जब
मेरे पास ले दे के एक ही पिद्दी सा बैग हुआ करता था
कितने अच्छे थे वे दिन जब
मेरे पास कुछ नहीं था सिवाय ख़ुशी के.
* आदिवासी आस्ट्रेलियन लोगों का देसी हथियार