साहित्य और यथार्थ पर लिखे गये हावर्ड फास्ट के निबंध के हवाले से कहा जा सकता है, ''अगर यथार्थ की प्रकृति तात्कालिक और स्पष्ट समझ में आने वाली होती तो जीवन के प्रति सहज बोधपरक और अचेतन दृषिट रखने वाले लेखकों का आधार मजबूत होता।"
हावर्ड फास्ट का उपरोक्त कथन लेखकीय दृषिटकोण की पड़ताल करते हुए कुछ जरूरी सवाल उठाता है लेकिन आजादी की कल्पनाओं में डूबी देश की उस महान जनता के सपनों पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, जो 1947 के आरमिभक दौर में आजादी के तात्कालिक स्वरूप को स्पष्ट तरह से पूरा देख पाने में बेशक असमर्थ रही। बलिक एक लम्बे समय तक इस छदम में जीने को मजबूर रही कि सत्ता से बि्रटिश हटा दिये गए हैं और देश आजाद हो चुका है। आजादी उसके लिए एक खबर की तरह आर्इ थी। व्यवहार में उसे परखे बगैर कोर्इ सवालिया निशान नहीं लगाया जा सकता था। वैसे भी खबर के बारे में कहा जा सकता है कि वह घटना का एकांगी पाठ होती है। सत्य का ऐसा टुकड़ा जो तात्कालिक होता है। इतिहास और भविष्य से ही नहीं अपने वर्तमान से भी जिसकी तटस्थता, तमाम दृश्य-श्रृव्य प्रमाणों के बाद भी, समाजिक संदर्भों की प्रस्तुति से परहेज के साथ होती है। देख सकते हैं कि बहुधा व्यवस्था की पेाषकता ही उसका उददेश्य होती है।
तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुक्ति, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है
अपने इरादों में नेक और राष्ट्र के प्रति अपने कर्तव्य से बंधी जनता की समझदारी में आजादी, अवधारणा नहीं बलिक व्यवहार का प्रसंग रहा है और होना भी चाहिए ही। तकनीक के विकास और उसके सांझा उपयोग की कामना हमेशा ही उसके लिए आजादी का अर्थ गढ़ते रहे है। तमाम कुरीतियों और अंधविश्वासों से मुकित, शिक्षा का प्रसार और स्वास्थय की गारंटी जनता के सपनों में उतरने वाली आजादी के दृश्य है। रोजी-रोजगार और दुनिया के नक्शे में अपनी राष्ट्रीयता को चमकते देखना उसकी चेतना का पोषक तत्व रहा है। संसाधनों का समूचित उपयोग और प्राकृतिक सहजता में सांस लेना, काल्पनिक नहीं बलिक वह आधारभूत सिथति हैं, जनतांत्रिकता के मायने जिसके बिना अधूरे हो जाते हैं। जीवन की प्राण वायु का एक मात्र तत्व भी कहा जाये तो अतिश्योकित नहीं। देख सकते हैं कि नियम कायदे कानून के औपनिवेशिक माडल पर देशी सामंतो और मध्यवर्ग के स्थानापन मात्र की प्रक्रिया ही आजादी कहलायी जाती रही। परिणमत: एक खास वर्ग के लिए, जिसमें नौकरी पेशा सरकारी कर्मचारियों का एक बड़ा तबका भी समा जाता है, और रोजी रोजगार से वंचित एक बड़े वर्ग के लिए, आजादी के मायने एक ही नहीं रहे हैं। नियम कायदों के अनुपालन के लिए जुटी खाकी वर्दियों का डंडा भी वर्गीय आधारों से संचालित है। जनतंत्र के झूठे ढोल के बेसुरेपन में कितने ही राडिया प्रकरण, बोफोर्स घोटाले, हर्षद मेहता कांड और हाल-हाल में बहुत शौर करते 2-जी स्पेक्ट्रम, कामनवेल्थ, आदर्श सोसाइटी घोटाले, कौन बनेगा करोड़पति नामक धुन के साथ मद मस्त रहे हैं। खेती बाड़ी और दूसरे लघु उधोगों को पूरी तरह से खत्म कर देने वाले राक म्यूजिकों ने जो समा बांधा है, देश का युवा वर्ग उसकी उत्तेजक धुनों में ज्यादा चालू होने के नुस्खे सीखने के साथ है। प्रतिगामी विचारों को यूरोपिय और पाश्चात्य संस्कृति के साथ फ्यूजन करने वाले, धार्मिक उन्मांद को भड़का कर, सत्ता की अदल बदल में ही अपनी चाल का इंतजार करते रहे हैं। विनिवेशीकरण और भूमण्डलीकरण के समानान्तर सस्वर मंत्र गायन से गुंजित होता पूंजी का विभत्स पाठ मंदिरों के गर्भ ग्रहों में वर्षों से छुपा कर रखे गये धन पर इठला रहा है। आर्थिक जटिलताओं के ताने बाने में औपनिवेशिक और आन्तरिक औपनिवेशिक अवस्थाओं ने मुनाफे की दृषिट से विस्तार लेती कुशल व्यवस्था के पेचोखम को अनेकों घुमावदार मोड़ दिये हैं। यह आजादी के अभी तक के दौर की ऐसी कथा-व्यथा है जिसमें व्यवस्था का मौजूदा ढांचा आजादी के वर्गीय आधार वाला साबित हो रहा है।
अवधारणा के स्तर पर नियम कायदों की लम्बी फेहरिस्त में समानता बंधुत्व और छोटे-बड़े के भेद-भाव के बावजूद व्यवहार में उनके अनुपालन न करने वाली सरकारी मशीनरी के कारणों की पड़ताल बिना सामाजिकी को पूरी तरह से जाने और जनतंत्र को सिर्फ ढोल की तरह पीटते रहने से संभव नहीं है। सिद्धान्तत: ताकत का राज खत्म हो चुका है लेकिन व्यवहार में उसकी उपसिथति से इंकार नहीं किया जा सकता है। जनतंत्र का ढोल पीटते स्वरों की कर्कशता को देखना हो तो सुरक्षा की दृषिट से जुटी वर्दियों के बेसुरे और कर्कश स्वरों में कहीं भी सुनी और देखी जा सकती है। भ्रष्टाचार की बहती सरिता में डूबे बगैर हक हकूकों की बात कितनी बेमानी है, योजनाओं के कार्यानवयन में जुटे अंदाजों को परख कर इसे जाना जा सकता है। जनता की धन सम्पदा को भकोस जाने वाली व्यवस्था की खुरचन पर टिका सामान्य वर्ग का नौकरी पेशा कर्मचारी भी कैसे आम जन पर कहर बनता है, इसे सिविल सोसाइटीनुमा आंदालनों के जरिये न तो पूरी तरह से जाना जा सकता है और न ही उससे निपटने का कोर्इ मुक्कमल रास्ता ढूंढा जा सकता है। आजादी की वर्षगांठ का पर्व ऐसे सवालों से टकराये बिना नहीं मनाया जा सकता। रस्म अदायगियों की कार्यवाहियों में आजादी का कर्मकांड तो संभव है लेकिन आजादी के वास्तविक मायनों तक पहुंचना संभव नहीं। मुनाफे की दृषिट से संचालित व्यवस्था के सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया को आजादी मानने की समझ को अब मासूमियत कहना भी ठीक नहीं।
1947 के बाद विकसित हुए औधोगिक ढांचे ने उत्पादन के केन्द्रों को शहरी क्षेत्रों में स्थापित कर विकास के चंद टापुओं का निर्माण किया है। कृषि आधारित उधोगों की अनदेखी के चलते विकास का जो माडल खड़ा हुआ है वह शहरी क्षेत्र के पढ़े लिखे वर्ग के लिए ही अनुकूल साबित हुआ। यधपि उसकी भी अपनी एक सीमा रही है। दलाली और ठेकेदारी उसके प्रतिउत्पाद के रूप में सामने हैं। शहरी क्षेत्रों में आबादी का बढ़ता घनत्व उसका दीर्घ कालीन परिणाम है, जो न सिर्फ पारिसिथतिकी असंतुलन को जन्म दे रहा है बलिक अविकसित रह गये एक बड़े भारत में निवास कर रही जनता को जो निराश और पस्त करता है। प्रतिरोध की आवाजों को जातीय और क्षेत्रीय पहचान के आंदोलनों की ओर धकेलने की राजनीति का सहयोगी हो जाने में उसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सूचना प्रौधोगिकी का बढ़ता तंत्र ऐसी ही राजनीति का प्रस्तोता हुआ है। मुनाफे की संस्कृति उसकी प्राथमिकता में रही है और इस अंधी दौड़ में अव्वल आ जाने की चाह में घटनायें सिर्फ खबरों का हिस्सा हो रही हैं। खबरों का कोलाहल मचाते हुए मूल मुददे को एक ओर कर देने की चालाकियां स्पष्ट दिखायी देने के बावजूद भी उस पर पूरी तरह से अंकुश लगाना जनता के हाथ में नहीं है। बलिक एक बड़े हिस्से के बीच यह सवाल बार-बार बेचैन करने वाला है कि क्या नैतिक, ईमानदार और कर्तव्यपरायण रहते हुए व्यवस्था के बुनियादी चरित्र में कोई बदलाव लाया जा सकता है ? उत्तराखण्ड राज्य की मांग के सवाल पर सामाजिक चिंतक पूरन चंद जोशी के विश्लेषण को दोहराना यहां ज्यादा न्यायोचित लग रहा है जिसमें वे स्पष्ट कहते हैं, ''....हमें यह स्पष्ट रूप में स्वीकार करना चाहिए कि भारत का पिछले पाच दशकों का विकास स्थानीयता के विघटनकारी विकास क्रम ने क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर भयंकर असंतोष और आक्रोश को जन्म दिया है। जिसका विस्फोट हम आज देश के कर्इ भागों में देख रहे हैं। इस असंतोष और आक्रोश का मूल हमारे विकास क्रम की विकृतियों और हमारे विकास दर्शन और कार्यक्रम की अपूर्णता में है, इस कटु सत्य को न कभी हमारा शासक वर्ग ईमानदारी से स्वीकार करता है, न मुख्यधारा के आर्थिक और सामाजिक चिन्तक और विचारक।
देश के तमाम क्षेत्रों में किसान और ज़मीन के सवाल खड़े हैं। विशेष आर्थिक क्षेत्रों के नाम पर वैशिवक पूंजी की पैरोकारी ने जो अफरा तफरी मचायी है, उसने जनतंत्र को लूट तंत्र में बदल दिया है। नंदीग्राम का मामला अभी कोर्इ बहुत पुरानी बात नहीं। उड़ीसा में पास्को परियोजना के दुष्प्रभावों के विरुद्ध आदिवासियों के विरोध प्रदर्शन पर गोली-बारी की घटना एकदम ताजा ही है। गुजरात में कच्छ का समुद्र तट, मैसूर की परियोजना, हरियाणा में रिलायंस परियोजना और गाजियाबाद का मामला तो बहुत ही ताजा है। ढेरों उदाहरण हैं जो कहीं से भी देश के तमाम नागरिकों को आजाद देश का नागरिक होने के सबूत नहीं छोड़ रहे हैं। हां एक खास वर्ग की आजादी को यहां भले तरह से देखा जा सकता है। बलिक प्रतिरोध की बहुत धीमी सी पदचाप पर भी हिंसक आक्रमणों की छूट वाली उस वर्ग की आजादी का नजारा तो कुछ और ही है। उसके पक्ष में ही तमाम प्रचार तंत्र माहौल बनाना चाहता है। सरकारी अमला उसके हितों के लिए ही कानूनों की किताब हुआ जाता है। जनतांत्रिकता का तकाजा है कि कानून के अनुपालन में सीट पर बैठे व्यकित की कलम से निकला कोर्इ भी वाक्य कानून है। किसी एक ही मसले पर लागू होते कानूनों की भिन्नता सीट पर बैठे व्यकित की समझदारी ही नहीं बलिक आग्रहों का भी नतीजा है। भिन्नताओं का आलम यह है कि हर बेसहारा व्यकित के लिए अपने पक्ष को सही साबित करने की लम्बी कानूनी प्रक्रिया का थकाऊपन झुनझुना हुआ जा रहा है। सूचना के अधिकार अधिनियमों या कितने ही लोकपाल अधिनियमों के आजाने पर भी जो वास्तविक लोकतंत्र को परिभाषित करने में अधूरा ही रह जाने वाला है। जो कुछ भी दिखायी दे रहा है वह उसी वैशिवक पूंजी के इशारों पर होता हुआ है जो मुनाफे की अंधी दौड़ में इस कदर फंसती नजर आ रही है कि आज अपने संकटों से उबरने के लिए सैन्य बलों के प्रयोग के अलावा कोर्इ दूसरा विकल्प जिसके पास शेष न बचा है। उसका अमेरिकीपन अहंकार की काली करतूत के रूप में तीसरी दुनिया के नागरिकों पर कहर बन रहा है। पूंजीवादी लोकतंत्र के आभूषणों (राजनैतिक पार्टियां) की लोकप्रिय धाराओं की नीतियां कुछ दिखावटी विरोध के बावजूद ऐसे ही अमेरिका को रोल माडल की तरह प्रस्तुत कर रही हैं। सारा परिदृष्य इस कदर धुंधला गया है कि विरोध और समर्थन की अवसरवादी कार्रवार्इयां, किसी भी जन पक्षधर मुददे को दरकिनार करने के लिए तुरुप का पत्ता साबित हो रही है। उसी साम्राज्यवादी अमेरिका के आर्थिक हितों के हिसाब से चालू आर्थिक और विदेश नीति ने एक खास भूभाग में निवास कर रहे अप्रवासियों के लिए दोहरी नागरिकता का दरवाजा खोला है और आजादी के एक वर्गीय, धार्मिक एवं जातीय रूप को सामने रखा है। आंतक के देवता, विश्व पूंजी के स्रोत, हथियारों के सौदागर, अमेरिका की प्रशसित में, बड़े-बड़े विस्थापनों को जन्म देने वाली नीतियों के पैरोकार डालर पूंजी की जरुरत पर बल देते हुए अंध राष्ट्रवाद की लहर पैदा कर रहे हैं। आम मध्यवर्गीय युवा के भीतर, उसी अमेरीकी आदर्शों स्वीकार्यता को भी ऐसी ही अवधारणाओं से बल मिल रहा है और आतंक की परिभाषा अपना आकार गढ़ रही है। संपूर्ण गरीब पिछड़े देश वासियों के सामने एक भ्रम खड़ा करने की यह निशिचत ही चालक कोशिश है कि विदेशी धन संपदा से लदे फदे अप्रवासियों का झुंड आयेगा और देश एवं समाज की बेहतरी के लिए कार्य करेगा।
झूठे जनतंत्र की दुहार्इ देते विश्व बाजार का सच आज की वास्तविकता है जो घरेलू उधोगों और उनके विकास में संलग्न बाजार को भी अपनी चपेट में लेता जा रहा है। उसके इशारों पर दौड़ती किसी भी व्यवस्था को आज आजाद व्यवस्था मानना, मुगालते में रहना ही है। आजादी का जश्न मनाते हुए सदइच्छा और सहानुभूतियों के प्रकटिकरण भर से उसके क्रूर चेहरे को नहीं देखा जा सकता। तीसरी दुनिया के देशों को गुलाम बनाने के लिए लगातार आक्रामक होती विश्व पूंजी की गति इतनी एक रेखीय नहीं है कि किसी एक सिथति से उसके सच तक पहुंच सके। उसके विश्लेषण में खुद को भी कटघरे में रखकर देखना आवश्यक है कि कहीं अपने मनोगत कारण की वजह से, उसे मुक्कमल तौर पर रखने में, वे आड़े तो नहीं आ रही। देशी बाजार का मनमाना पन भी कोर्इ छुपी हुर्इ बात नहीं। यह सोचने वाली बात है कि तमाम चौकसियों के लिए सीना फुलाने वाली व्यवस्था क्यों उत्पादों के मूल्य निर्धारण की कोर्इ तार्किक पद्धति लागू नहीं करना चाहती। मनमाने एम आर पी मूल्यों के अंकन की छूट क्या एक खास वर्ग को उपभोक्ता सामानों में भी अघोषित सबसीडी की व्यवस्था नहीं कहा जाना चाहिए (?), जबकि किसानों और आम जनों को सबसीडी के सवाल पर यही वर्ग सबसे ज्यादा नाक भौं सिकोड़ने वाला है। दो पेन्ट खरीदने पर दो शर्ट मुफ्त बांटते इस बाजार की आर्थिकी क्या है ? यह सवाल आजादी के दायरे से बाहर का सवाल नहीं। दिहाड़ी मजदूरी करने वाले कारीगर और नौकरीपेशा आम कर्मचारियों को उपभोक्ता मानकर निर्धारित उत्पादकता लक्ष्यों के बाद के अतिरिक्त उत्पादन की मार्जिनल कास्ट का लाभ एक खास वर्ग को देता यह बाजार आजादी के वास्तविकता को ज्यादा क्रूरता से प्रस्तुत करता है। उत्पाद को खरीदने की स्वतंत्रता भी अधिकाधिक पूंजी वालों के लिए ही अवसर के रूप में है। ऐसे मसले पर आजादी जैसे शब्द को उचारना भी मखौल जैसा ही हो जाता है।
पैकिंग और बाईंडिंग के नये नये से रुप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र हुआ है जिसमें ग्राहक के लिए उत्पाद की गुण़वत्ता को जांचने की आजादी की भी जरूरत को नजर अंदाज कर दिया जा रहा है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, छुपाने के लिए नयी से नयी तकनीक की कोटिंग के प्रयोगों को चमकीली गुलामी ही कहा जा सकता है।
इस चमकीली गुलामी के असर से बचना भी आजादी को बचाने का ही सवाल है। यह मानने में कोई गुरेज नहीं कि औधोगिकरण की ओर बढ़ती दुनिया ने भारतीय समाज व्यवस्था को अपने खोल से बाहर निकलने को मजबूर किया है। बेशक उसके बुनियादी सामंती चरित्र को पूरी तरह से न बदल पाया हो पर सामाजिक बुनावट के चातुर्वणीय ढ़ांचे को एक हद तक उसने ढीला किया है। लेकिन दलित आमजन की मुकित के लिए वैशिवक पूंजी की दुहार्इ देने का औचित्य दलित चेतना के संवाहक अम्बेडकर द्वारा चलाये गये मंदिर आंदोलन या दूसरे चेतना आंदोलन की राह फिर भी नहीं बन पा रहा है। स्त्री विमुकित का स्वप्न भी आजादी की चमकीली तस्वीर में जकड़बंदी के ज्यादा क्रूरतम रूप का पर्याय हुआ है। चंद कागजी कानूनों से व्यवस्था के वर्तमान स्वरुप को अमानवीय तरह के कारोबार के खिलाफ मान लेना उस असलियत से मुंह मोड़ लेना है जिसमें निराशा, हताशा में डूबी बहुसंख्यक आबादी को निकम्मा और नक्कारा करार देने का तर्क गढ़ लिया जाता है।
1947 से आज तक का भारतीय समय जिन कायदे कानूनों की व्यवस्था में पोषित और विकसित हुआ है, उसके विशलेषण को दुनिया के दूसरे मुल्कों से निरपेक्ष मानकर मूल्यांकन किया जाये तो ही आजादी के वास्तविक अर्थों तक पहुंचा जा सकता है। देख सकते हैं कि आजाद भारत में भी 1947 से पहले के सामंती शोषण और उसकी संस्कृति को पूरी तरह से नष्ट नहीं किया जा सका है। बलिक उसी वजह से विश्व पूंजी का पिछलग्गू बनने को ही एक मात्र रास्ता स्वीकार करने की मानसिकता को आधार मिला है और संवैधानिक स्वीकार्यता के बावजूद समाजवाद सिर्फ सपना ही बना हुआ है।
-विजय गौड़