Sunday, February 5, 2012
Thursday, January 26, 2012
तोहफ़े
• मदन शर्मा
संजीव और मैं, एक ही सरकारी संस्थान में नौकरी करते थे। हमारे बीच मित्रता का भाव था। जब भी समय या अवसर मिलता, हम इधर-उधर की दिलचस्प बातें करके, अपना और पास बैठे लोगों का दिल बहलाया करते। संजीव, कुछ अर्सा पहले, सरकारी नौकरी छोड़, किस्मत आज़मार्इ के लिये किसी प्राइवेट फ़र्म में जा लगा था। सुना है, वह आजकल दिल्ली में रह कर कारों के कारोबार में, खूब रूपये कमा रहा है।
यहां से जाने से पूर्व, संजीव मुझे दो ऐसी चीज़ें सौंप गया, जिसके कारण, मैं शायद ही उसे कभी भूल पाऊं!
मेरे घर में टी वी तो था, मगर रेडियो या ट्रांसिस्टर नहीं था। आकाशवाणी से प्रसारित अपनी कहानियां या व्यंग्य सुनने के लिये, मुझे इसकी ज़रूरत थी। संजीव ने बताया, कि उसके पास एक बढि़या रेडियो सेट पड़ा है। कहानियां सुनने के लिये वह काफ़ी होगा। नया लेने की क्या ज़रूरत है।
रेडियो सौंपते हुए संजीव ने बताया, कि इसमें मामूली-सा नुक्स है। पांच-सात रूपये में यह अच्छा काम करने लगेगा।
चालीस रूपये ख़र्च करके रेडियो ठीक चलने लगा। अपनी एक-आध रचना भी उस पर सुन ली। घर में रेडियो और मेरी कहानी की प्रशंसा हुर्इ। किंतु सप्ताह भर बाद ही उस रेडियो की मरम्मत का ऐसा सिलसिला चला, कि महसूस होने लगा, कि यह मरम्मत यदि यों ही चलती रही, तो इस बढि़या रेडियो के साथ-साथ, मेरा टी वी और फि्रज भी बिक जायेगा।
संजीव ने वायदा किया, कि वह मुझे कहीं से नया टं्रासिस्टर सस्ते में दिला देगा। मगर उसका मौक़ा ही न आया।
संस्थान में कुछ वर्करों का प्रमोशन हो जाने पर, उन्हें अलग अलग अनुभागों या दफ़तरों में नियुक्त किया जाना था। संजीव ने चुपके से मुझे सुझाया, "आप गुरमीत को अपने स्टाफ में ले लो, बहुत बढि़या आदमी है।"
"मैंने तो सुना है, वह शराब पीता है।"
"तो क्या हुआ? मैं शराब नहीं पीता? यक़ीन मानो, उस जैसा आदमी आपको खोजने पर भी नहीं मिलेगा।"
मैंने ऊपर कहसुन कर, गुरमीत को अपने स्टाफ में ले लिया। लम्बा-चौड़ा मगर ढीला-ढाला और फैला हुआ सा शरीर, उसी तरह की ढीली पगड़ी और दाढ़ी। लिबास तुड़ा-मुड़ा। आंखों में और चेहरे पर सुर्खी, जैसी शराबियों के चेहरों पर तमतमाहट-सी होती है।
"आप यहां मेहनत से काम कर सकेंगे?" मैंने पूछा।
"बिल्कुल जी। आप जैसा भी कहेंगे, वैसा ही करेंगे जी।"
चार-पांच दिन में ही पता चल गया, गरमीत नाम की यह चीज़, उस रेडियो से कुछ अलग नहीं। यह आदमी तो यहां का साधारण कार्य भी सीखने के योग्य नहीं। बड़ी ग़लती हो गर्इ! मगर अब क्या हो! मैंने तो स्वयं ही सिफ़ारिश करके यह बला, अपने सिर पर ले ली है!
उससे कोर्इ भी काम नहीं हो पा रहा था। न उसकी समझ में कुछ आ रहा था। परेशान होकर मैंने उसे रिकार्ड स्पलायर का काम करने को कह दिया।
सुपरवाइज़र के पद पर होकर, रिकार्डस्पलायर का काम सौंपे जाने पर उसने कोर्इ आपति न की। वह बड़े उत्साह में भरकर यह काम करने लगा। बलिक जब अर्दली छुटटी पर होता, तो चाय तैयार करके, पूरे स्टाफ़ को सर्व कर देता।
वह थोड़ा लंगडा कर चलता था। पता चला, कभी फुटबाल खेलते हुए उसका एक्सीडेंट हो गया था। यह भी पता चला, वह अच्छे घर से है। बड़ी बहन डाक्टर है। बच्चे पढ़ने लिखने में तेज़ हैं और इसकी पत्नी किसी अच्छे स्कूल में अंग्रेजी़ पढ़ाती है।
दफ़तर में उससे किसी को कोर्इ शिकायत न थी। वह बड़ी विनम्रता से बात करता। कभी किसी की निंदा वह नहीं करता था।
उसे कभी किसी बात पर क्रोध न आता था। कोर्इ बीमार होता, तो वह पता लेने उसके घर या अस्पताल पहुंचता। कोर्इ मौत हो जाने पर, वह अंतिम कि्रया में शामिल होने के लिये सबसे पहले मौजूद रहता। वह कितने ही ज़रूरतमंद रोगियों को अपना खून दे चुका था और खूबी यह, कि वह ये सब काम हंसते हुए और सहज भाव से करता था। मैं उसे 'संत जी कहने लगा।
शराब तो वह पीता ही था। अब कुछ और अधिक पीने लगा। वह स्वयं पीता और यार-दोस्तों को भी पिलाता और शराब के साथ मछली के पकौड़े भी ज़रूर होते। यही साथ पीने वाले यार भार्इ ही उसे उस खर्च के लिये रूपये सूद पर उधार देते और बड़ी सख्ती से वसूल भी करते।
कई लोग उसे दफ़तर में ही मिलने आने लगे। उसे बाहर ले जाकर मालूम नहीं, कैसे धमकाते रहते। वह वापिस लौटता, तो उसका चेहरा बुझा-बुझा-सा होता।
पता चला, गुरमीत के सिर पर भारी कर्ज चढ़ चुका है। वे लोग दफ़तर में आकर ही उसे धमकाने लगे। मैंने उन लोगों का दफ़तर में आना बंद करा दिया, तो कर्ज वसूल करने वाले, उसे बाहर सड़क पर घेरने लगे। जेब में जो कुछ होता, वे छीन लेते। जेब खाली होती, तो उसके दो-चार हाथ जड़ देते।
शराब पीने के लिये गरमीत जो रूपये उधार लेता, वह दस के बारह रूपये वाला होता था। वह तीन सौ उधार लेता, जो कुछ ही दि्नों में दो हज़ार हो जाता। बढ़-बढ़ कर क़र्ज़ की यह राशि साठ हज़ार तक पहुंच गर्इ थी। पूरा वेतन, ओवर टाइम और एरियर के पैसों में से, उसके पास कुछ भी हाथ में न रहता। घर खाली हाथ पहुंचता, तो वहां भी अच्छी आवभगत होती। खाने को कुछ न दिया जाता। दिन में भी भूखा रहता। छुटटी के बाद फिर कोर्इ मिल जाता, जो उधार रूपये देता और उसके साथ ठेके पर चल कर शराब पीता और मछली के पकौड़ों का मज़ा लेता।
गुरमीत कई दिन से दफ़तर नहीं आ रहा था। पता चला, वह घर से भी ग़ायब है। बीस दिन बाद, दफतर वाले, उसे सड़क पर घूमते हुए को पकड़ कर ले आये।
उसके कपड़े फटे और बेहद गंदे थे। नहाना तो क्या, उसने शायद कर्इ दिन से मुंह भी नहीं धोया था। आंखों में कीच भरी थी। दाढ़ी उलझी हुई। मुंह से गंदा-सा पानी बाहर को आ रहा था। उसके शरीर से बदबू आ रही थी। हाथ में छुटटी का आवेदन लिये, वह मेरे सामने सहमा-सा खड़ा था।
"बैठिये संत जी।" मैंने कहा।
वह बैठ गया।
"छुटटी की अर्जी बाद में देखेंगे। पहले यह बताइये, बीस दिन तक कहां ऐश उड़ाते रहे?"
वह रोने लग पड़ा। थोड़ा शांत हुआ, तो बोला, "कौन सी ऐश साहब, बीस दिन से धक्के खाता फिर रहा हूं। किसी की सब्ज़ी की दुकान पर, आलुओं के ढेर पर सोता रहा हूं। कमर बुरी तरह दर्द कर रही है।"
"मगर घर से भागे क्यों?"
"भागा कहां, धक्के मार कर निकाला गया। वरना अपना घर छोड़कर जाने को किसका मन होता है!"
"जब घर पर कुछ दोगे नहीं, तो धक्के ही मिलेंगे। वह बेचारी प्राइवेट स्कूल की नौकरी करके घर चला रही है और तुम्हें शराब पीने से फर्सत नहीं। शरम आनी चाहिये!"
वह फिर रोने लग पड़ा। चुप हुआ, तो कहने लगा, "यह बात नहीं सर! कभी किसी ने यह नहीं सोचा, गुरमीत शराब क्यों पीता है।"
"क्यों पीता है?" मैंने जानना चाहा।
"मैं आप को अब क्या बताऊं!... मेरा जब से एक्सीडेंट हुआ है, मैं तब से... वह दरअसल अपने स्कूल के एक टीचर के साथ ... बच्चे स्कूल जाते हैं और वह घर में जमा रहता है...।"
"तुमने मना नहीं किया?"
"वह तो उसे ही भला मानती है। दोनों ने मिलकर ही तो मुझे घर से बाहर निकाला था।"
मगर मिसेज गुरमीत ने किसी को बताया कि उसका पति एक नम्बर का झूठा है। वह अपनी मर्जी़ से घर छोड़ कर गया है। यह घर तो उसी का है। जब चाहे, लौट कर आ सकता है।
कुछ दिन के बाद मिसेस गुरमीत ने महाप्रबंधक के पास अपील कर दी, कि उसका पति घर में बाल बच्चों की परवरिश के लिये, एक पैसा भी नहीं देता, लिहाज़ा घर में गुज़र के लिये, वेतन की राशि, बेदी के बजाय, स्वयं उसे देने की व्यवस्था कर दी जाये।
महाप्रबंधक ने मुझे अपने दफ़तर में बुलाकर कहा, "आपके स्टाफ़ का कोर्इ गै़र जि़म्मेदार आदमी है, जिस की बीवी ने अपील की है। आप इस केस को जल्दी निबटाइये।"
मैंने श्रमकल्याण अधिकारी और कैशप्रभारी से मिलकर, व्यवस्था करा दी, जिससे गुरमीत का वेतन हर मास, उसकी पत्नी को फैक्टरी गेट पर दिया जा सके।
गुरमीत रोनी सूरत लिये मेरे पास आकर बोला, "सर, यह आपने क्या कर डाला! अब मेरा क्या होगा?"
मैंने उसे सांत्वना दी, "मेरी बात हो चुकी है। तुम्हें घर से दोनों वक़्त का खाना और नाश्ता मिलेगा। धुले कपड़े और बस का किराया भी मिलेगा। और क्या चाहिये?"
"साहब मेरे पीने का क्या होगा?"
मन हुआ, जूता निकाल कर, इसके सिर पर दे मारूं! मगर उस मरदद की शक्ल ही कुछ ऐसी थी, कि पहले देखते ही मुंह पर दो थप्पड़ मारने की इच्छा होती थी। मगर उसके चेहरे पर पसरी बेबसी देख, फिर उसके लिये कुछ करने का कर्तव्य बोध होने लगता था।
मैंने बार बार कोशिश की, कि गुरमीत नाम की इस बीमारी को अपने दफ़तर से भगा दूं। मगर कोर्इ सुनने को तैयार ही न था। उपमहाप्रबंधक हंसकर कहते, "यह हीरा तो आपने अपनी मर्जी से ही चुनकर लिया है। इसे अपने पास ही रखिये। कोई और इसे लेने को तैयार भी नहीं । वैसे मुझे आपसे पूरी हमदर्दी है!"
मिसेस गुरमीत हर महीने मेनगेट पर आकर, गुरमीत का वेतन ले जाती। मेरी सिफ़ारिश पर गुरमीत को तफ़रीह के लिये भी थोड़ा-बहुत मिल जाता। सभी कुछ सामान्य हो चला। किंतु गुरमीत से जो क़र्ज वसूल करने वाले थे, वे तो परेशान हो चले थे। एक दो बिफरे हुए से आकर मुझे भी कह गये थे... शर्मा साहब, आपने हमें मुशिकल में डाल दिया है...।
गुरमीत के वेतन का एक भाग, हम उसके बैंक के खाते में डालते जा रहे थे। पास बुक हम लोगों ने अपने पास सम्भाल ली थी और बैंक वालों से कह रखा था, कि गुरमीत को बिना पास बुक, रूपया न निकालने दें। दरअसल हम दफ़तर वाले यह चाहते थे, कि यह रूपया इकटठा करके गुरमीत की बेटी के विवाह पर दे देंगे।
किंतु एक दिन सभी यह जान कर चकित रह गये, कि गुरमीत के एकाउंट में कुछ भी नहीं है। पता भी न चला, वह कब से, बैंक के किसी कर्मचारी को पटा या पिला कर अपना कार्य सम्पन्न करने लग पड़ा था।
गुरमीत की फिर पिटार्इ हो गई। इस बार अच्छी खासी धुनाई हुई थी। पूरा मुंह सूजा पड़ा था। ठीक से चला भी नहीं जा रहा था। कपड़े फटे पडे़ थे। बराबर रोये चला जा रहा था। दफ़तर वालों ने आपस में मिलकर रूपये इकटठे किये और संडे मार्किट से उसके लिये कपड़े ख़रीद कर लाये। मैंने स्वयं अपने घर में वे कपड़े धो, सुखा और प्रेस करके उसे पहनने को दिये।
मैं बार बार संजीव की जान को रो रहा था।
मिसेस गुरमीत को नियमित रूपये मिल रहे थे। गुरमीत का अपना काम चल ही रहा था। किंतु क़र्ज़ वसूल करने वाले तो बराबर तिलमिला रहे थे। वे क्या करें, मार पिटार्इ से उनके हाथ में कुछ भी नहीं पड़ रहा था। उन्हीं में से एक ने जाकर मिसेस गुरमीत को कह डाला, "गुरमीत के दफ़तर वाले, आपके स्कूल के किसी टीचर के साथ, आपके सम्बन्धों की चर्चा करते रहते हैं। वहां का इंचार्ज मदन शर्मा नाम का आदमी, इस बारे में कोर्इ कहानी लिख कर अख़बार में देने वाला है।"
मिसेस गुरमीत ने तुरंत लिख कर, महाप्रबंधक के पास शिकायत भेज दी, कि दरअसल गुरमीत के दफ़तर वाले ही उसे तबाह और बर्बाद कर रहे थे। इसलिये उसकी किसी अन्य अनुभाग में बदली कर दी जाये।
गुरमीत भागता हुआ मेरे पास आया और बोला, "सर, मेरा यहां से ट्रांसफर हो रहा है। मैं साफ़ कहे देता हूं, मैं यहां से कहीं नहीं जाउंगा। आप किसी तरह मुझे यहीं रूकवा लें।"
मैंने कहा, "मैं भला कैसे रूकवा सकता हूं! जी. एम. का आर्डर है। तुम्हें यहां से जाना होगा।"
"नहीं सर, मैं यहीं रहूंगा। ऐसे लोग मुझे कहां मिल सकेंगे, जो मेरा इतना ध्यान रखें। आप जैसे इंचार्ज को मैं कभी छोड़कर नहीं जा सकता, भले ही मुझे अपने बाल बच्चों को छोड़ना पड़ जाये।"
"मगर अब तो बहुत देर हो चुकी है।"
"कोई देर नहीं हुई जी, मैं अभी जनरल मैनेजर के पास जा रहा हूं। मैं उन्हं बता देता हूं। मैं उन्हें बता देता हूं, किस किसने हमारे खि़लाफ़ साजि़श की है।"
संजीव ने एक बात तो ठीक ही कही थी... गुरमीत जैसा आदमी खोजने पर भी नहीं मिलेगा!
Sunday, January 22, 2012
वोट मांगने की विविध शैलियां
दिनेश चन्द्र जोशी
dcj_shi@rediffmail.com
09411382560
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जैसे गायकी की विविध शैलियां होती हैं,घराने होते हैं, वैसे ही वोट मांगने की भी विविध शैलियां और घराने होते हैं। चुनावी मौसम में इन शैलियों की अदायगी और प्रदर्शन का उत्सवनुमा माहौल होता है। यहां कलाकार नेता होते हें और दर्शक मतदाता, यानी मतदाता के लिए चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात। सो, जनता इस चार दिन की चांदनी के उत्सव में नेताओं की विभिन्न याचक मुद्राओं का दर्शन करती है, आनन्दित होती है और जूते,चप्पल,झापड़,टमाटर,अंडों से परहेज रख कर नेता का अपमान नहीं करती तथा उससे स्वयं का सम्मान करा कर धन्य धन्य हो जाती है। आधुनिक दौर में जिसे देह भाषा ( बाडी लेंग्वेज) कहते हैं, उसका प्रयोग भी 'मार्डन' किस्म के नेता वोट मांगने हेतु करने लगे हैं। एक ऐसे ही युवा नेता ने तय कर रक्खा था, अगर मतदाता साठ साल से उपर का होगा तो, उसके पांव छू कर वोट मांगूगा, अगर प्रौढ़ होगा, चालीस से पचास के बीच का, तो उसके समक्ष हाथ जोड़ूंगा, अगर बीस से चालीस के बीच का होगा तो उसे 'सहारा प्रणाम' कहूंगा, बीस से नीचे का होगा तो 'फ्लाइंग किस' दूंगा। और सचमुच उसकी इस अन्तिम अदा पर फिदा होकर ,फ्लाइंग किस' के कारण यंग इंडिया ने उसे जिता दिया।
वोट मांगने की देह भाषा (बाडी लेंग्वेज) के प्रयोग व विश्लेषण हेतु प्रबन्धन संस्थानों ने स्पेशल पैकेज तैयार कर लिये हैं। उनके अनुसार अगर नेता जी की परम्परागत शैली वोट बटोरने में नाकाम साबित हो रही है तो उन्हें तत्काल आधुनिक बाडी लेंग्वेज का प्रदर्शन सीखना चाहिए। यानी 'कीप स्माइलिंग' 'बी पाजीटिव', 'लुक कान्फीडेन्ट' 'आई टू आई कांटेक्ट' 'फोल्डिंग हैंड्स नाट नेसेसरी'( हाथ जोड़ना जरूरी नहीं) आदि आदि।
महानगरों और शहरी क्षेत्रों में यह मार्डन शैली काफी लोकप्रिय हो रही है।
ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में अलबा अभी वही पुरानी शैली से वोट मांगे जा रहे हैं। घिघियाते हुए, झुक कर हाथ जोड़ते हुए, बेशर्म शरारती मुस्कान के साथ थोड़ा लाचार, थोड़ा भिखारी विनम्रता ओढ़ी हुई अकिंचन शैली में।
इधर, मतदाता को भावुकता के चरम पर लाने हेतु नेताओं द्वारा रुदन क्रन्दन शैली का प्रयोग किया जाने लगा है।
भावुक मतदाता विवेकशून्य हो जाता है तथा दयाभाव की वर्षा कर वोट, क्रन्दन शैली के नेता के पक्ष में डाल देता है। इस चुनाव में यह शैली रिले रेस की तरह प्रयुक्त हो रही है। एक नेता का रुदन क्रन्दन इतना स्थाई भाव हो गया कि उसकी देखादेखी दूर दूर के कई अन्य नेताओं ने रो धो कर, आंसू टपका कर, दहाड़े मार कर, बुक्का फाड़ कर उस शैली को आलम्बन भाव की तरह गले लगा लिया।
कुछ नेता अभी भी अपनी अकड़ शैली के लिए विख्यात होते हैं। इनमें भूतपूर्व राजा,उजड़े हुए नरेश किस्म के नेता होते हैं। ये अपनी अकड़ शैली के बावजूद भी चुनाव में बाजी मार ले जाते हैं। एक ऐसे ही राजा के वंशज
वोट मांगते वक्त जनता के समक्ष कभी भी हाथ नहीं जोड़ते थे। मतदाता को स्वयं ही इज्जतवश हाथ जोड़ने पड़ते थे। नबाबजादे ने हाथ जोड़ने के लिए दो कारिन्दे किराये पर ले रक्खे थे। वे, नबाबजादे की ओर से हाथ भी जोड़ते थे और पांव भी छूते थे। नबाबजादे, बीच बीच में अपनी मूछें ऐंठते रहते थे और आखों से ऐसी आग उगलते थे जैसे मतदाता को भस्म कर देंगे। लेकिन मतदाता नबाबजादे को उनके राजसी खानदान और क्षेत्र में की गई धन वर्षा के कारण हर बार जिता देते थे। एक बार कुछ मतदाताओं ने गल्ती से पूछ लिया, हजूर, आपने संसद में कभी क्षेत्र के विकास हेतु कोई मांग नहीं रक्खी।
वे बोले, 'राजा कभी किसी से कुछ मांगता नहीं है, देता है। आपको क्या चाहिये बोलिये प'
मतदाता बोले, 'सरकार, रेलवे लाइन चाहिए,रेलवे लाइन के आने से क्षेत्र का विकास होगा।'
नबाबजादे बोले, 'मेरी टांसपोर्ट कम्पनी की जीप टोयेटा,बुलेरो गाड़ियां दौड़ती रहती हैं उनमें यात्रा किया करें आप लोग, रियायती पास मुझसे ले जाया करें। मैं रेल मंत्री से रेलवे लाइन नहीं मांग सकता,, वरना राजा किस बात का! उनको अगर रेल कर इंजन चहिये तो खरीद कर दे दूंगा,उनसे मांग नहीं सकता।'
ऐसे अकड़ू नेताओं की शैली अकड़ शैली कहलाती है।
कुछ नेता आते हैं,, ध्यानावस्था में आंखें बन्द किये हुए जैसे जनता के दुख कष्टों के निवारण हेतु जप तप योग कर रहे हों। वे जनता के समक्ष हाथ नहीं जोड़ते उल्टा आशीर्वाद देते हैं, जनता उनके आशीर्वाद से अभिभूत हो कर उनके पैर छूने लगती है। ऐसे सन्त बाबा किस्म के नेताओं की वोट मांगने की द्रौली 'स्थितप्रज्ञ शैली' कहलाती है।
अब ये जनता का अपना अपना नसीब है कि उसके क्षेत्र के भूतपूर्व, अभूतपूर्व,भावी, प्रभावी निष्प्रभावी नेता वोट मांगने की किस शैली में सिद्धथस्त हैं।
वोट मांगने की देह भाषा (बाडी लेंग्वेज) के प्रयोग व विश्लेषण हेतु प्रबन्धन संस्थानों ने स्पेशल पैकेज तैयार कर लिये हैं। उनके अनुसार अगर नेता जी की परम्परागत शैली वोट बटोरने में नाकाम साबित हो रही है तो उन्हें तत्काल आधुनिक बाडी लेंग्वेज का प्रदर्शन सीखना चाहिए। यानी 'कीप स्माइलिंग' 'बी पाजीटिव', 'लुक कान्फीडेन्ट' 'आई टू आई कांटेक्ट' 'फोल्डिंग हैंड्स नाट नेसेसरी'( हाथ जोड़ना जरूरी नहीं) आदि आदि।
महानगरों और शहरी क्षेत्रों में यह मार्डन शैली काफी लोकप्रिय हो रही है।
ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों में अलबा अभी वही पुरानी शैली से वोट मांगे जा रहे हैं। घिघियाते हुए, झुक कर हाथ जोड़ते हुए, बेशर्म शरारती मुस्कान के साथ थोड़ा लाचार, थोड़ा भिखारी विनम्रता ओढ़ी हुई अकिंचन शैली में।
इधर, मतदाता को भावुकता के चरम पर लाने हेतु नेताओं द्वारा रुदन क्रन्दन शैली का प्रयोग किया जाने लगा है।
भावुक मतदाता विवेकशून्य हो जाता है तथा दयाभाव की वर्षा कर वोट, क्रन्दन शैली के नेता के पक्ष में डाल देता है। इस चुनाव में यह शैली रिले रेस की तरह प्रयुक्त हो रही है। एक नेता का रुदन क्रन्दन इतना स्थाई भाव हो गया कि उसकी देखादेखी दूर दूर के कई अन्य नेताओं ने रो धो कर, आंसू टपका कर, दहाड़े मार कर, बुक्का फाड़ कर उस शैली को आलम्बन भाव की तरह गले लगा लिया।
कुछ नेता अभी भी अपनी अकड़ शैली के लिए विख्यात होते हैं। इनमें भूतपूर्व राजा,उजड़े हुए नरेश किस्म के नेता होते हैं। ये अपनी अकड़ शैली के बावजूद भी चुनाव में बाजी मार ले जाते हैं। एक ऐसे ही राजा के वंशज
वोट मांगते वक्त जनता के समक्ष कभी भी हाथ नहीं जोड़ते थे। मतदाता को स्वयं ही इज्जतवश हाथ जोड़ने पड़ते थे। नबाबजादे ने हाथ जोड़ने के लिए दो कारिन्दे किराये पर ले रक्खे थे। वे, नबाबजादे की ओर से हाथ भी जोड़ते थे और पांव भी छूते थे। नबाबजादे, बीच बीच में अपनी मूछें ऐंठते रहते थे और आखों से ऐसी आग उगलते थे जैसे मतदाता को भस्म कर देंगे। लेकिन मतदाता नबाबजादे को उनके राजसी खानदान और क्षेत्र में की गई धन वर्षा के कारण हर बार जिता देते थे। एक बार कुछ मतदाताओं ने गल्ती से पूछ लिया, हजूर, आपने संसद में कभी क्षेत्र के विकास हेतु कोई मांग नहीं रक्खी।
वे बोले, 'राजा कभी किसी से कुछ मांगता नहीं है, देता है। आपको क्या चाहिये बोलिये प'
मतदाता बोले, 'सरकार, रेलवे लाइन चाहिए,रेलवे लाइन के आने से क्षेत्र का विकास होगा।'
नबाबजादे बोले, 'मेरी टांसपोर्ट कम्पनी की जीप टोयेटा,बुलेरो गाड़ियां दौड़ती रहती हैं उनमें यात्रा किया करें आप लोग, रियायती पास मुझसे ले जाया करें। मैं रेल मंत्री से रेलवे लाइन नहीं मांग सकता,, वरना राजा किस बात का! उनको अगर रेल कर इंजन चहिये तो खरीद कर दे दूंगा,उनसे मांग नहीं सकता।'
ऐसे अकड़ू नेताओं की शैली अकड़ शैली कहलाती है।
कुछ नेता आते हैं,, ध्यानावस्था में आंखें बन्द किये हुए जैसे जनता के दुख कष्टों के निवारण हेतु जप तप योग कर रहे हों। वे जनता के समक्ष हाथ नहीं जोड़ते उल्टा आशीर्वाद देते हैं, जनता उनके आशीर्वाद से अभिभूत हो कर उनके पैर छूने लगती है। ऐसे सन्त बाबा किस्म के नेताओं की वोट मांगने की द्रौली 'स्थितप्रज्ञ शैली' कहलाती है।
अब ये जनता का अपना अपना नसीब है कि उसके क्षेत्र के भूतपूर्व, अभूतपूर्व,भावी, प्रभावी निष्प्रभावी नेता वोट मांगने की किस शैली में सिद्धथस्त हैं।
Wednesday, January 4, 2012
साहेल घनबरी इरान की एक दस साल की छोटी बच्ची है जिसके पिता डा. अब्दोलरजा घनबरी अपनी सांस्कृतिक,राजनैतिक और यूनियन गतिविधियों के कारण दिसम्बर 2009 से जेल में बंद हैं और इरान की अदालत ने उन्हें खुदा की शान में गुस्ताखी करने के लिए मृत्यु दंड दिया है.इरान के पिछले राष्ट्रपति चुनाव में धांधली को लेकर वहाँ विशाल प्रदर्शन हुए थे और कहा जाता है कि जिस समय ये प्रदर्शन हो रहे थे उस समय अब्दोलरजा अपनी बेटी का हाथ थामे सड़क पर उपस्थित थे.42 वर्षीय अब्दोलरजा फारसी साहित्य में पी.एच.डी. हैं,सोलह सालों से अध्यापन करते रहे हैं और उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं.जेल में अपने पिता से मिलने जाने पर साहेल को पिता ने ही मौत की सजा की बाबत जानकारी दी.साहेल की माँ का कहना है कि इस घटना के बाद से ही उसकी सेहत बिगडनी शुरू हुई और जब भी वो अपने पिता के बारे में कुछ सुनती है उसको भावनात्मक और बेहोशी के दौरे पड़ने लगते हैं. यहाँ प्रस्तुत है फरवरी 2011 में सालेह की अपने अब्बा को लिखी चिट्ठी:--
यादवेन्द्र
प्यारे अब्बा,यादवेन्द्र
मुझे पूरी उम्मीद है कि आप सकुशल और सेहतमंद होंगे.कई सालों बाद आज ऐसा दिन है जब आप फादर्स डे के मौके पर मेरे पास नहीं हो. मैं जब भी आप को शिद्दत से याद करती हूँ तो या तो आपको चिट्ठी लिखती हूँ...या उस नीली घड़ी को चुपचाप निहारती हूँ जो अपने मुझे जन्मदिन पर तोहफे में दिया दिया था.उसको देख के मुझे समझ आता है कि मेरा वक्त आपकी ना मौजूदगी में कितनी जल्दी जल्दी बीत जाता है.हर रोज मैं थोड़ा थोड़ा बढ़ जाती हूँ...अब मैं पहले से लम्बी भी हो गयी हूँ. आज फादर्स डे है...आपके बगैर ही हमने इसको मनाया और आपके लिए तोहफे ख़रीदे...हमारे बीच से गए हुए आपको छह महीने से ज्यादा बीत गए.आप नहीं हो तो मैंने अपनी मेज पर आपकी एक फोटो लगा रखी है...उससे मैं अक्सर बातें करती हूँ...और अदम्य साहस दिखाने के लिए शाबाशी देती हूँ.मुझे पूरा यकीन है कि प्यारे फ़रिश्ते फादर्स डे की मेरी दुआएं आपतक जरुर पहुंचा देंगे. प्यारे अब्बा, आज जिस वक्त हम त्यौहार मना रहे थे तो अम्मी के आंसुओं से सारा माहौल गमगीन हो गया.टी वी पर आज के दिन ढेर सारे प्रोग्राम आते हैं पर मैं इन्हें देखने का हौसला नहीं जुटा पाई...इनमें सभी बच्चे आपने अब्बा को फूलों का गुलदस्ता तोहफे में देते हैं और उनकी लम्बी उम्र के लिए दुआ करते हैं...इन सब को इकठ्ठा हँसता बोलता देख कर बहुत अच्छा लगता है....मुझ जैसी अभागी बच्ची की किसी को फ़िक्र नहीं होती जिसके अब्बा उस से बहुत दूर हैं.यही सब सोच के मैं आज बहुत उदास हो गयी थी और इसी लिए मैंने बिना कोई प्रोग्राम देखे टी वी बंद भी कर दिया. मेरे प्यारे अब्बा,मेरी एक ही ख्वाहिश है...मुझे और कुछ नहीं चाहिए बस आप मेरे पास वापिस लौट आओ ...और हमेशा मेरे साथ बने रहो....मैं बेसब्री से आपका इंतज़ार कर रही हूँ ...आप जल्द से जल्द मेरे पास आ जाओ...
आपकी बच्ची
साहेल
Sunday, December 25, 2011
दलित साहित्य के पुरोहित
हिन्दी दलित साहित्य में कुछ ऎसी बहस करते रहने की परम्परा विकसित की जा रही है जिसका कोई औचित्य नहीं रह गया है .ये बहसे मराठी दलित साहित्य में खत्म हो चुकी हैं.लेकिन हिन्दी में इसे फिर नये सिरे से उठाया जा रहा है .वह भी मराठी के उन दलित रचना कारों के सन्दर्भ से, जो मराठी में अप्रासंगिक हो चुके हैं.उनकी मान्यताओं को मराठी दलित साहित्य में स्वीकार नहीं किया गया ,उन्हें हिन्दी में उठाने की जद्दोजहद जारी है.मसलन ‘दलित’ शब्द को लेकर ,’ आत्मकथा ‘ को लेकर .मराठी के ज्यादातर चर्चित आत्मकथाकार,रचना कार ‘दलित ‘ ,शब्द को आन्दोलन से उपजा क्रांति बोधक शब्द मानते हैं. बाबुराव बागूल. दया पवार,नामदेव ढसाल ,शरणकुमार लिम्बाले, लोकनाथ यशवंत, गंगाधर पानतावणे, वामनराव निम्बालकर, अर्जुन डांगले, राजा ढाले,आदि. इसी तरह आत्मकथा के लिए ‘आत्मकथा’ शब्द की ही पैरवी करने वालों में वे सभी हैं जिनकी आत्मकथाओं ने साहित्य में एक स्थान निर्मित किया है.चाहे शरण कुमार लिम्बाले (अक्करमाशी),दयापवार (बलूत),बेबी काम्बले (आमच्या जीवन), लक्ष्मण माने ( उपरा), लक्ष्मण गायकवाड (उचल्या), शांताबाई काम्बले ( माझी जन्माची चित्रकथा),प्र.ई.सोनकाम्बले ( आठवणीचे पक्षी),ये वे आत्मकथायें हैं जिन्होंने दलित आन्दोलन को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निर्मित की. इन आत्मकथाकारों को ‘आत्मकथा’ शब्द से कोई दिक्कत नहीं है. लेखकों को कोई परेशानी नही हैं.यही स्थिति हिन्दी में भी है. लेकिन हिन्दी में ‘अपेक्षा’ पत्रिका के सम्पादक डा. तेज सिंह् को ‘दलित‘ शब्द और ‘आत्मकथा’ दोनों शब्दों से एतराज है. उपरोक्त सम्पादक को दलित आत्मकथाओं में वर्णित प्रसंग भी काल्पनिक लगते हैं.कभी –कभी तो लगता है कि ये सम्पादक महोदय दलित जीवन से परिचित हैं भी या नहीं ?क्योंकि दलित आत्मकथाओं में वर्णित दुख –दर्द ,जीवन की विषमतायें,जातिगत दुराग्रह,उत्पीडन की पराकाष्टा,इन महाशय को कल्पनाजन्य लगती हैं..उनके सुर में सुर मिला कर आलोचक बजरंग बिहारी तिवारी को भी आत्मकथाओं के मूल्यांकन में मुश्किलों का सामना करना पड रहा है.वे कहते हैं कि ’आत्मकथन क्योंकि आपबीती है,जिए हुए अनुभवों का पुनर्लेखन है,इसलिए उनकी प्रामाणिकता का सवाल प्राथमिक हो जाता है..क्या आत्मवृतों (आत्मकथाओं) की प्रमाणिकता जांची जा सकती है? क्या उन्हें जांचा जाना चाहिए? अगर हां तो क्या ये आत्मवृत (आत्मकथा) खुद को जांचे जाने को प्रस्तुत हैं? क्या अभी तक कोई आंतरिक मूल्यांकन प्रणाली विकसित हो पाई है? हम कैसे तय करें कि कोई अनुभव –विशेष ,कोई जीवन –प्रसंग कितना सच है और कितना अतिरंजित? ’ (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
बजरंग बिहारी तिवारी के ये सवाल कितने जायज हैं कितने नहीं ? इसे पहले तय कर लिया जाये तो ज्यादा बेहतर होगा. क्योंकि यह सिर्फ लेखक की अभिव्यक्ति पर ही आक्षेप नहीं है,बल्कि इस विधा को भी खारिज करने का षडयंत्र दिखाई दे रहा है.साथ ही यहां एक ऎसा सवाल भी उठता है कि क्या एक आलोचक लेखक का नियंता हो सकता है? इस सवाल के सन्दर्भ में कथाकार, सम्पादक महीप सिंह का यह कथन प्रासंगिक लगता है.
डा. महीप सिंह का कहना है कि ‘हिन्दी संसार के दो जातीय गुण हैं- जैसे ही कुछ सफलता और महत्ता प्राप्त करता है,वह एक मठ बनाने लगता है.कानपुर की भाषा में ऎसा व्यक्ति ‘गुरू’ कहलाता है.साहित्य क्षेत्र भी इसका अपवाद नहीं है.थोडी –सी आलोचना शैली ,थोडा –सा वक्तृत्व कौशल ,थोडा सा विदेशी साहित्य का अध्ययन ,थोडी सी अपने पद की आभा और थोडी –सी चतुराई से इस ‘गुरूता’ की ओर बढा जा सकता है.कुछ समय में ऎसा व्यक्ति फतवे जारी करने के योग्य हो जाता है.एक दिन वह किसी के अद्वितीय का ‘अ’ निकाल कर और किसी के नाम के साथ जोड देता है.’ ( हिन्दी कहानी : दर्पण और मरीचिका ‘ ,हिन्दुस्तानी जबान,,अंक –अप्रैल-जून,2011,पृष्ठ- 15)
बजरंग बिहारी तिवारी के सन्दर्भ में यहां बात की जा रही है, वे सिर्फ इतने भर से ही नहीं रुकते वे और भी गम्भीर आरोप लगाने लगते हैं, .आरोपों की इस दौड में वे बेलागाम घोडे की तरह दौडते नजर आते हैं.वे कहते हैं –‘विमर्श को चटकीला बनाने का दबाव,अपनी वेदना को ‘खास’ बनाने की इच्छा किन रूपों में प्रतिफलित होंग़े?’
बजरंग बिहारी तिवारी अपनी अध्ययनशीलता और उद्दरण देने की कला का दबाव बनाते हुए लुडविंग विट्गेंस्टाईन का सन्दर्भ देते हुए अपने तर्क को मजबूत करने की कोशिश करते हैं.अपने ही पूर्व लेखन और स्थापनाओं को खारिज करने का नाटक करते हैं.. दलित साहित्य की महत्त्वपूर्ण विधा को यह आलोचक एक झटके में धाराशायी करने का आखिरी दांव चलता है . दलित आत्मकथाओं की बढती लोकप्रियता और सामाजिक प्रतिबद्धता को किस दबाव के तहत नकार ने की यह् चाल है, यह जानना जरूरी लगने लगता है.वे अपनी ‘गुरूता ‘, जो बडी मेहनत और भाग दौड से हासिल की है,से आखिर फतवा जारी करने की कोशिश करते हैं – ‘एक अर्थ में आत्मकथन अनुर्वर विधा है.वह रचनाकार को खालीपन का एहसास कराती है.अनुभव वस्तुत: रचनात्मकता के कच्चे माल के रूप में होते हैं.....आत्मकथन में रचनात्मक दृष्टि के ,विजन के निर्माण की न्यूनतम गुंजाईश होती है......एक विभ्रम की सृष्टि की आशंका भी इस विधा में मौजूद है.’ (अपेक्षा,जुलाई-दिसम्बर,2010,पृष्ठ-37)
यहां बजरंग बिहारी तिवारी तथ्यों का सामान्यीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं.दलित आत्मकथाओं ने समस्त भारतीय भाषाओं में अपनी रचनात्मकता से यह सिद्ध कर दिया है कि आत्मकथा अनुर्वर विधा नहीं है.न ही वह रचनाकार को खालीपन का एहसास ही कराती है .और इस बात को भी ये आत्मकथाएं सिरे से नकारती हैं कि इस विधा में रचनात्मक दृष्टि के विजन की न्यूनतम गुंजाईश है.
आत्मकथाओं के सन्दर्भ में दया पवार कहते हैं,-‘ वर्तमान समय में मराठी की आस्वाद की प्रक्रिया एक जैसी नहीं है .सांस्कृतिक भिन्नता के कारण आस्वाद प्रक्रिया भी भिन्न –भिन्न हो रही है.यह दलित आत्मकथाओं का समय है; जिनकी काफी चर्चा रही है.परंतु इन आत्मकथाओं के मूल में जो सामाजिक विचार है ,उसे सदैव नजर अन्दाज किया जाता है. केवल व्यक्ति और व्यक्तिगत अनुभव – इसी बिन्दु के चारों ओर इसकी चर्चा होती है.’आगे वे कहते हैं,-‘दलितों का सफेदपोश पाठक अपने भूतकाल से बेचैन हो गया है.उसे खुद से शर्म महसूस होने लगी है.कचरे के ढेर में से कचरा ही निकलेगा? इस प्रकार के प्रश्न भी उन्होंने उपस्थित किये.वास्तविकता तो यह है कि यह केवल भूतकाल नहीं है.बल्कि आज भी दलितों का एक बडा समुदाय इसी प्रकार का जीवन जी रहा है.दलितों के सफेद पोश वर्ग को इसी की शर्म क्यों आ रही है?वास्तव में संस्कृति के सन्दर्भ में बडी-बडी बातें करने वाली व्यवस्था को इसकी शर्म आनी चाहिए........कुछ लोगों को ये आत्मकथाएं झूठी लगती हैं.सात समुन्दर पार किसी अजनबी देश की आत्मकथाएं,जिस जीवन को उन्होंने कभी देखा नहीं है,उनकी आत्मकथाएं इन्हें सच्ची लगती हैं.परंतु गांव की सीमाओं के बाहर का विश्व कभी दिखाई नहीं देता.इस दृष्टि भ्रम को क्या कहें.(दलितों के आन्दोअलन जब तीव्र होने लगते हैं,तब जन्म लेता है दलित साहित्य ,अस्मितादर्श लेखक-पाठक सम्मेलन सोलापुर,1983)
अक्सर देखने में आता है कि हिंन्दी आलोचकों की यह कोशिश रहती है कि दलित साहित्य के सामाजिक सरोकारों से इतर मुद्दों को ज्यादा रेखांकित किया जाये ताकि भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो .यह भटकाव कभी अपरिपक्वता के रूप में आरोपित होता है ,तो कभी भाषा की अनगढता के रूप में,तो कभी वैचारिक विचलन के रूप में आरोपित किया जाता है. कभी विधागत , तो कभी शैलीगत होता है.
किसी भी आन्दोलन की विकास यात्रा में अनेक पडाव आते हैं.दलित साहित्य के ऎसे आलोचक दलित मुद्दों से हटकर वैश्विकता को ही दलित का सबसे बडा मुद्दा घोषित करने में लग जायें तो इसे क्या कहा जाये? क्या यह असली मुद्दों से बहकाने की साजिश नहीं होगी.क्योंकि ऎसे आलोचक इससे पूर्व भी यह काम बखूबी करने की कोशिश में लगे रहे हैं.लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.कभी दलित साहित्य में रोमानी रचनाओं की कमी का रोना रोते हैं,तो कभी प्रेम का,तो कभी दलित साहित्य को स्त्री विरोधी कहने में भी पीछे नहीं रहे हैं.उनकी ये घोषणायें नये लेखकों को भरमाने की कोशिश ही कही जायेंगी.क्योंकि हजारों साल का उत्पीडन नये-नये मुखौटे पहन कर साहित्य को भरमाने का काम पहले भी करता रहा है.ये लुभावने और वाक चातुर्य से भरे हुए जरूर लगते हैं,लेकिन इनके दूरगामी परिणाम क्या होंगे इसे जानना जरूरी है.आन्दोलन की इस यात्रा में भी ये पडाव आये हैं.इस लिए यदि नयी पीढी अपनी अस्मिता और संघर्षशील चेतना के साथ दलित चेतना का विस्तार करती है तो दलित साहित्य की एक नई और विशिष्ट निर्मिति होगी.
यहां यह कहना भी आवश्यक हो जाता है कि दलित साहित्य में आत्मकथाओं ने जिस वातावरण का निर्माण किया है.वह् अदभुत है.जिसे चाहे विद्वान आलोचक जो कहें, लेकिन दलित जीवन की विद्रुपताओं को जिस साहस और लेखकीय प्रतिबद्धता के साथ दलित आत्मकथाओं में प्रस्तुत किया है,वह भारतीय साहित्य में अनोखा प्रयोग है.जिसे प्रारम्भ से ही आलोचक अनदेखा करने की कोशिश करते रहे हैं.क्योंकि आत्मकथाओं ने भारतीय समाज –व्यवस्था और संस्कृति की महानता के सारे दावे खोखले सिद्ध कर दिये हैं.साथ ही साहित्य में स्थापित पुरोहितवाद,आचार्यवाद् और वर्णवाद की भी जडें खोखली की हैं.साहित्यिक ही नहीं भारतीय संस्कृति की महानता पर भी प्रश्नचिन्ह लगाये हैं और जिस गुरू की महानता से हिन्दी साहित्य भरा पडा है उसे कटघरे में खडा करने का साहस सिर्फ दलित लेखकों ने किया है जिसे बजरंग बिहारी तिवारी जैसे आलोचक सिरे से नकार कर अपनी विद्वता का परचम लहराकर आचार्यत्व की ओर बढने की कोशिश कर रहे हैं. आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर भी आक्षेप करके पाठकों को दिग्भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं.क्या उनकी साहित्यिक प्रतिबद्धता बदल गयी हैंया ‘गुरूता’ भाव में लेखक का नियंता बनने की कोशिश की जा रही है?यह शंका जेहन में उभरती है.
यहां मेरा बजरंग जी से सीधा सवाल है, दलित साहित्य स्त्री विरोधी नहीं है.यदि कोई लेखक इस तरह के विचार रखता है तो आप उसे किस बिना पर दलित साहित्य कह रहे हैं ? सिर्फ इस लिए कि वह जन्मना दलित है.मेरे विचार से दलित साहित्य की अंत:चेतना को पुन: देख लें. डा. अम्बेडकर की वैचारिकता में कहीं भी स्त्री विरोध नहीं है. और दलित साहित्य अम्बेडकर विचार से ऊर्जा ग्रहण करता है. जिसे सभी दलित रचनाकारों ने, चाहे वे मराठी के हों या गुजराती ,कन्नड,तेलुगु या अन्य किसी भाषा के .यदि कोई जन्मना दलित स्त्री विरोधी है और जाति –व्यवस्था में भी विश्वास रखता है,तो आप उसे एक दलित लेखक किस आधार पर कह रहे हैं? यह दलित साहित्य की समस्या नहीं है,यहा तो उस मानसिकता की समस्या है जो आप जैसे आचार्य विकसित कर रहे .
समाज में स्थापित भेदभाव की जडें गहरी करने में साहित्य का बहुत बडा योगदान रहा है.जिसे अनदेखा करते रहने की हिन्दी आलोचकों की विवशता है.और उसे महिमा मण्डित करते जाने को अभिशप्त हैं.ऎसी स्थितियों में दलित आत्मकथाओं की प्रमाणिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने की एक सोची समझी चाल है.बल्कि यह साहित्यिक आलोचना में स्थापित पुरोहितवाद है जो साहित्य में कुंडली मारकर बैठा है.हिन्दी साहित्य को यदि लोकतांत्रिक छवि निर्मित करनी है तो इस पुरोहितवाद और गुरूडम से बाहर निकलना ही होगा. यदि वह ऎसा नहीं करता है तो उस पर यह आरोप तो लगते ही रहेंगे कि हिन्दी साहित्य आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता से भरा हुआ है.अपने सामंती स्वरूप को स्थापित करते रहने का मोह पाले हुए है.
● ओम प्रकाश वाल्मीकि
09412319034
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ओम प्रकाश वाल्मीकि,
दलित धारा,
बहस
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