कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं,
स्मृति में जिनके प्रभाव बहुत गहरे जाकर धंस जाते हैं और गाहे-बगाहे वे याद आती
ही रहती हैं। खास तौर पर कोई भिन्न घटना]
दृष्टा
की पूर्व कल्पना में जिसका कोई चित्र न हो, स्मृति के किसी कोने में यदि कोई
प्रतिछाया हो भी लेकिन वह पहले से भिन्न हो। ऐसी घटनाओं की विशेषता होती है कि वे
भिन्न अनुभवों से समृद्ध कर रही होती हैं। किसी फिल्म को देख कर या, साहित्य के
जरिये भी कितने ही भिन्न अनुभावों को संजोना हो जाता है। कहन के नये अंदाज,
घटनाओं के सम्मिश्रण और विचार की बुनियाद पर खड़ी ऐसी रचनाएं, जो हमारे भीतर दर्ज पूर्व अनुभवों के प्रभाव को ही
बदल दें, अविस्मरणीय रूप से प्रभावकारी हो जाती हैं। इस वक्त ऐसी ही तीन
कहानियों का जिक्र करना चाहता हूं जिनके गहरे प्रभाव में मैं तब ही से हूं जब उन्हें
पहली-पहली बार क्रमश: अकार, हंस और कथादेश में पढ़ना हुआ था। ये कहानियां हमारे
अनुभव संसार को इस कदर समृद्ध करती हैं कि तय कर पाना ही मुश्किल हो जाता है, आखिर
कौन सी कहानी है जिसकी घटना का जो अभी स्मृतियों के कोठार से बाहर आ गई। अरूण
कुमार असफल की कहानी 'पांच का सिक्का' का निनकू कई बार अपने 'टिमकी' से पेट के
साथ याद आता है तो वहीं दूसरी ओर पेट में बना दिये गये छेद के जरिये लेट कर फारिग
होता, अखिलेश की कहानी 'ग्रहण' का पात्र, राजकुमार भी हर वक्त गू से लिसड़ा हुआ
ही दिखता रहता है। उदय प्रकाश की 'मोहन दास' के मोहन दास की मासूमियत भी ऐसी है कि
'धूसर सलेटी' रंग के
सवाल है कि ये कहानियां
हमारी रचनात्मक दुनिया की अन्य रचनाओं की तफसील से भिन्न हैं या, उनके बीच ही
जगह पाती हैं ? साम्य है तो उनके आधार क्या हैं और भिन्नता है तो उसका स्तर क्या
है एवं उसके संभावित कारण क्या हो सकते हैं ? कहानियों के प्रभाव नायकों की शारीरिक
विकलांगता एवं भय के रंग में रंगे उनके चेहरों से गहरे हुए हैं या कथ्य की
बारीकियों, बुनावट और वंचित वर्ग के प्रति लेखकीय प्रतिबद्धता जैसे कारकों में
मौजूद हैं ?
डरावने वातावरण में हमेशा
घिरे रहना होता है। तीनों ही कहानियों को कई बार पलटते हुए मैं इन कहानियों में
आने वाले मोड़ों पर अटकता रहा हूं। लम्बे
समय तक मेरी स्मृतियों में बनी रहने वाली और बार बार परेशान करने वाली इनकी
उपस्थिति के हवाले से कह सकता हूं कि ये तीनों ही कहानियां गहरे पाठकीय प्रभाव की
कहानियां हैं, न सिर्फ इनका कथ्य बल्कि इनके पात्रों की त्रासदी भी चलचित्र का सा
प्रभाव छोड़ती है । कई बार तो यह याद करना भी मुश्किल हो जाता है कि वह जो अपने
दुश्मनों पर वार करके जंगल के भीतर भाग गया है, मोहन दास था कि राजकुमार । यह याद
करना भी मुश्किल है कि चाऊमनी का स्वाद निनकू की जीभ पर अटका हुआ था या, राजकुमार
ही मास्टरों की गालियां और बेंत खाने के बाद भी चाऊमनी के लिए मचल रहा था। मोहन
दास के साथ छल करने वालों की टोली ही तो कहीं नाली के अंदर कीच निकाल कर पांच का
सिक्का ढूंढने का उपक्रम करते निनकू को वहीं डुबोये रखना चाहती थी !! मुर्गी को
बेचकर धन उपार्जन करने की योजना बताते राजकुमार के प्रति उमड़ता मां का प्रेम
आंसूओं से भरा है या, ''मोर बाबू के धोंदा तो सच्चुल के खाली है'', कहते हुए लाड़
लड़ाती मां की आंखें गीली हो जाती हैं, यह याद करना ही मुश्किल है। भारतीय समाज की
आधुनिकता में सेंध लगाती गंवईपन की ये कोमल अनुभूतियां उल्लेखनीय कहानियों को
महतवपूर्ण बना रही हैं। सामाजिक यथार्थ और उसकी जटिलता को समेटते हुए, तीनों
कहानियों का संयुक्त प्रभाव सम्पूर्ण हिन्दी कथा साहित्य के औपन्यासिक चित्र
को प्रस्तुत करने वाला है और गंवई आधुनिक रंग में मिथकीय अवधारणाओं की
सूत्रबद्धता के रास्ते आगे बढ़ता है। विचार की तरलता यहां गांधी से लेकर सशस्त्र
इंक्लाब का स्वर साधती है। दलित संघर्ष के प्रति सकारात्मकता भी एक पक्ष के रूप
में स्पष्ट होती है। लेकिन हिन्दी की दलित धारा की रचनाओं के बीच रखकर इन पर बात
करना ठीक न होगा। क्योंकि विचार के स्तर पर दया, करूणा का गांधीयन दर्शन यहां
कथ्य में ही नहीं, अपितु कहानी के नैरेटर के माध्यम से विवरणों को भी घटना का
हिस्सा बना देने वाला है, जिसका कि दलित चेतना हमेशा से ही मुखर विरोध करती रही
है। गांधी की साक्षात उपस्थिति में यह पकड़ना भी मुश्किल है कि क्या वह मोहन दास
का परिवार ही है जिसके जिक्र के साथ गांधी के जीवन के प्रयोगों से भरी आत्मकथा से
पाठक का परिचय कराया जाता है याकि विपद राम, जिसकी पत्नी का नाम कस्तूरी बाई है
और कस्तूरबा गांधी की याद दिलाती है। पता नहीं रसूखदार लोग अपने मातहतों के सामने
उदाहरण के तौर पर विपदराम का जिक्र करते हैं या मोहन दास का, और कहते रहते हैं, ''एक
तुम हो महाहरामी और तुम्हारी बिरादरी में वह है--- गऊ सरीखा।'' खुद की चौधराहट को
कायम करती उनकी आवाज दोनों में से न जाने किसको गांधी के नाम से पुकारते हुए हल्के
व्यंग्य और हल्के आदर के साथ भरी रहती है। ताउम्र की वंचनाएं पात्रों को 'निनकू'
ही बनाये रहती है। जीवन की व्यवहारिक हलचलों से भरी उम्र में 'राजकुमार' या 'मोहन दास'
सिर्फ नाम भर की संज्ञा ही हो पाते
हैं। बल्कि बेरहम जमाना तो नाम को भी छीन लेना चाहता है और मोहन दास को मजबूर होकर
कहना ही पड़ता है कि उसका नाम मोहन दास नहीं है।
सवाल है कि ये कहानियां
हमारी रचनात्मक दुनिया की अन्य रचनाओं की तफसील से भिन्न हैं या, उनके बीच ही
जगह पाती हैं ? साम्य है तो उनके आधार क्या हैं और भिन्नता है तो उसका स्तर क्या
है एवं उसके संभावित कारण क्या हो सकते हैं ? कहानियों के प्रभाव नायकों की शारीरिक
विकलांगता एवं भय के रंग में रंगे उनके चेहरों से गहरे हुए हैं या कथ्य की
बारीकियों, बुनावट और वंचित वर्ग के प्रति लेखकीय प्रतिबद्धता जैसे कारकों में
मौजूद हैं ?
संवैधानिक सुधारों की मांग और उसके लिए ही ऊर्जा खपा देने की राष्ट्रीय समझ अस्मिता के प्रश्न को भी ठीक से व्याख्यायित कर सकने में अधूरी रही है और सवालों के घेरे में है। संविधान सभा के अध्यक्ष और राष्ट्रीयता को वर्षों के शोषण उत्पीड़न से उबारने की कल्पना करने वाले नायक अम्बेडकर इस सीमा को जानते थे हुए ही खुद उस संविधान की आलोचना करते हुए दिखते हैं जिसका प्रारूप उनकी अध्यक्षता में तैयार हुआ। ऐसे आधे अधूरे संविधान का परित्याग करने वालों में वे खुद को पहला मानने वाले हुए। वह भी तब, जबकि शासकीय नियंत्रणकारी भूमिका के अवसरों को दलित वर्ग के हक में करवा पाने में सक्षम होते हुए आरक्षण की एक सीमित स्थिति को हांसिल कर पाये थे। लेकिन देखेंगे कि गंवई आधुनिक स्थितियों ने प्रसफुटित हुई दलित चेतना को भी अम्बेडकारवाद के वास्तविक निहितार्थ तक पहुंचने में बाधा पहुंचाई और आज भी संषर्घ के मूर्त रूप को रख पाने में उस मध्यवर्गीय आधुनिकता से आगे जाती हुई नहीं है, जो पहले से ही गंवईपन में धंसी हुई थी। लोकतंत्र के नाम पर झूठ को फैलाते ठिकानों में ही वह भी शरण पाती हुई है। उम्मीद की किरणों का प्रस्फुटन मुश्किल हुआ है और दलित मुक्ति के संघर्ष का मूर्त चेहरा भी आकार लेता हुआ दिख नहीं रहा है।
जहां तक हिन्दी की अन्य
कहानियों से साम्यता का सवाल है तो स्पष्ट है कि तीनों ही कहानियां अपने मिजाज
में उनका हिस्सा बनती हैं। बल्कि लेखकीय कौशल के उच्चतम रूप में हिन्दी रचना
संसार की गंवई आधुनिकता को ही आत्मसात करती हैं और गहरे उतरकर समाज का उत्खन्न करती
हैं। पात्रों को जातिगत आधार पर पहचान कराते मोड़ पर खड़ी हिन्दी कहानियों की
दलित धारा का प्रभाव उनके समसामयिक होने का बोध कराता है और रचनकारों की वैचारिक
प्रतिबद्धता के प्रति आश्वस्त भी करता है। यद्यपि दलित चेतना के मूल स्वर के बारिक
अंतर के मापदण्ड पर, जो दया, करूणा से परहेज करने वाले हैं, कहानियों की सीमा को
चिह्नित भी किया जा सकता है। यह बिन्दु इसलिए भी चिह्नित किया जाना जरूरी है कि
गंवई आधुनिकता की सतत् गति का यह विक्षेप उन नकारात्मक प्रवृत्तियों का प्रस्थान
बिन्दु जैसा है जो भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता के लिए भूमिका तैयार कर दे रहा
है। कथित विक्षेप का यह बिन्दु किन कारणों से जन्म लेता है और क्यों उसकी गति
भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता का हिस्सा होने की ओर होती है, यह आलेख उन्हीं
विक्षेपों को समझने की एक छोटी सी कोशिश है।
स्पष्ट है कि हमारे
साहित्य में जगह पाते वंचित वर्ग के व्यक्ति की जातिगत पहचान करने में दलित विमर्श
की मुख्य भूमिका है। हिन्दी में दलित धारा के उदय से पहले के पात्रों की जातिगत
पहचान करना हमेशा ही मुश्किल है। आजादी से पूर्व के साहित्य में तो उसकी उपस्थिति
दिख जाती है लेकिन आजादी के बाद जाति विषमता को खत्म करने के लिए जातिगत पहचान को
न दर्शाने की मुहिम ने हिन्दी कहानियों में भी पात्रों को उनकी जातिगत पहचान के
साथ दर्शाना उचित नहीं माना। यह बहस का विषय हो सकता है कि जाति विषमता को मिटाने
में यह रास्ता कितना कारगर हुआ। लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि आंदोलन की
नेतृत्वकारी ताकतों को पहचानने में इस रास्ते ने जनता की कोई विशेष मद्द नहीं
की बल्कि मेहनतकश आवाम के बीच भी एकजुटता की मुक्कमल स्थितियों तक पहुंचना संभव
नहीं हुआ।
जरूरी है कि पहले एक
सरसरी निगाह उस गंवई आधुनिकता पर डाल ली जाए, जिसके प्रभाव का जिक्र हिन्दी के
रचना संसार के साथ किया जा रहा है और जिसकी संगति में इन कहानियों को उल्लेखनीय
माना जाना चाहिए । आलेख के लेखक ने पूर्व में भी हिन्दी रचना संसार में व्याप्त
गंवई आधुनिक स्थितियों को देखने-समझने की कोशिश में पाया है कि आधुनिकता का गंवईपन
भारतीय समाज की एक विशिष्ट प्रवृत्ति के तौर पर रहा है और यह भी कि उसके प्रभाव
में ही रचनात्मक साहित्य की प्रवृत्तियां भी गंवई आधुनिक हुई हैं। एक बार पुन:
दोहराना हो तो कहा जा सकता है कि औपनिवेशिक गुलामी से पूरी तरह मुक्त न हो पाए भारतीय
समाज में वंचित जन का पक्ष चुनती आधुनिकता और प्रगतिशीलता की लहर के बावजूद गंवईपन को पूरी तरह से झटक कर दूर
नहीं फेंक पायी स्थितियों से निर्मित समाज के प्रभाव हिन्दी के रचनात्मक संसार
पर गहरे तक असरकारी रहे। यथार्थ के इस रूप को रख देने की प्रबल चेष्टाएं रचनाओं
में हुई । आधुनिकता और पिछड़ापन का सामाजिक साथ हमारी रचनात्मक दुनिया का भी अक्श
गढ़ता रहा। एक दूसरे के प्रति निर्मम होने की जरूरत हमें रचनाएं में भी नहीं हुई
और नैतिकता एवं आदर्श के मानदण्डों से भरी विसंगति हमारी चारित्रिक विशेषता हुई ।
गंवई आधुनिक मानदण्डों पर खड़ी हमारी रचनात्मकता की विशेषता और गुण रहा कि उसने विस्तार
लेती आधुनिकता को सीधे भिड़ंत से बचाते हुए गंवईपन के लिए दाएं-बाएं से रास्ता हमेशा
बनाए रखा, जिसके कारण कई बार आधुनिकता का मार्ग बहुत तंग हुआ तो कई बार अपेक्षाकृत
थोड़ा खुला नजर आता है।
गंवई-आधुनिकता की उपरोक्त
विशेषताएं, जो हिन्दी कहानियों में भी जगह पाती रही, संसाधनों पर नियंत्रणकारी
शक्ति को ही महत्वपूर्ण और श्रैष्ठ स्वीकारती रही है। उसका पूरा जोर इसी बात पर
रहा है कि जैसे भी हो सत्ता को हासिल किया जाए और उस पर काबीज रहने की हर जुगत
अपनायी जाए । अनजाने में ही नहीं, जान बूझकर भी, व्यवहार की गलत समझ के साथ, जन
संघर्षों के दमन और साथ ही सामंती अकड़ वाले गंवईपन में शासकीय टोली का हिस्सा
होती वैचारिकता भी उससे मुक्त न रही-
विचार का उजाला ओढ़कर भी उसके ऊपर लगे निर्दोष हिंसा के दागों को मिटाया
नहीं जा सकता है। बेहतर सामाजिक स्थिति की व्याप्ति के लिए वर्गीय अवधारणा के
'अधिनायकी' विचार को लागू करने के ठस बुद्धिवाद ने न तो तंत्र की वर्गीय फितरत को पूरी
तरह से जानना उचित समझा न और नेतृत्व को वास्तविक वंचित के हाथों सौंपने की
स्थितियों को सुनिश्चित होने दिया। मुनाफाखौर चाहत के सामंती मिजाज वाले पिछलग्गूपन
को स्थानिक पूंजी मान लेने वाली गलत समझ भी गंवई आधुनिकता का पार्ट रही जिसके कारण
वास्तविक मुक्तिदाता और तानशाहा को ही पहचानना मुश्किल हुआ। सामाजिक श्रैष्ठता
को संसाधनों पर नियंत्रण के हिस्से के अनुपात में मान लिया गया। निश्चित तौर पर
दुनिया के दूसरे भूगोल में अवस्थित समाजों के विश्लेषण पर यह बात सच होते हुए भी
भारतीय सामाजिक चरित्र में सच साबित नहीं हो पाई और न आज भी पूरी तरह से कोई स्पष्ट
मार्ग तलाशे हुए है। भारतीय समाज की विशेषता है कि यहां तो जातिगत आधार ही श्रेष्ठता
की भूमिका रचता रहा है। आज तक के तमाम दुनियावी बदलावों के बावजूद भी वह अपना वजूद
कायम किए है। उसका चरित्र चातुवर्णय ढांचे में ही संसाधनों पर काबिज हुआ है।
दिक्कत गंवई आधुनिकता
में उभरती दलित चेतना के साथ भी रही। सामाजिक जटिलता को समझने, सुलझाने और
यथास्थिति को बनाए रखने वाली नियंत्रक शक्तियों से निपटने में उसका रूप भी सीमित ही
रहा और सीमित ही दिखाई पड़ता है। सामाजिक बदलाव के संघर्ष में वह भी लुकाव-छिपाव
के साथ जैसे तैसे भी सत्ता पर काबीज हो जाने वाली राजनीति से संबंध बनाए रखना
चाहती है। वर्षों की दासता से मुक्ति की छटपटाहट के लिए तरसती जनता को संघर्ष के
लिए प्रेरित करने का कोई मूर्त उसकी प्राथमिकता में भी जगह पाता हुआ, दिखता नहीं। सत्ता
के क्षेत्रों तक पहुंचने के रास्ते के लिए आरक्षण के सिद्धांत को ही सत्य मानने
वाली समझ के साथ आर्थिक समृद्धि को हासिल कर लेने की चाहत ने उसे भी अपनी लपेट में
लिया है। जैसे भी सत्ता तक पहुंच जाने की चाहत में ही उसने भी वर्षों की दासता से
निजात पाने का रास्ता बनाया हुआ है। अवधारणा के स्तर पर दलित चेतना का यह रूप प्रत्यक्ष
ब्रिटिश दौर में ही उभार लेने लगा था। समाज और साहित्य की दुनिया में उसके प्रभाव
जाति सूचक शब्दों के विलोपिकरण के साथ रहे। सामाजिक बदलाव की यह भोली अदा किसी भी
तरह के बुनियादी परिवर्तन की पक्षधर नहीं हो पाई। बल्कि नामों के साथ से विलुप्त
कर दिए गए जाति सूचक शब्द की भी खोजी पहचान को भी रोकने में असमर्थ रही।
90 के आस पास साहित्य के
भीतर उभार लेती दलित चेतना का एक हद तक रूप पूर्वधारणाओं से बदला हुआ नजर आया था।
साहित्य के स्तर पर आधुनिकता की यह थोड़ी व्यवहारिक ब्यार थी/है। प्रताडि़त
पात्र को जातिगत रूप में पहचानने की स्पष्ट कोशिशें इसके मूल में रही। लेकिन गंवई
मिजाज में डूबी मानसिकता ने यहां भी अपना घेरा डाला है। परिणाम स्वरूप पात्रों को
जाति नाम से पहचाचने की पहलकदमी भर को ही दलित चेतना मान लेने की गलती और दलित
साहित्य आंदोलन मान लेने की जल्दबाज घोषणाएं भी सामने आईं। गंवई आधुनिकता की
सीमाओं का परित्याग कर भ्रष्ट आधुनिकता की ओर बढ़ जाने की चाहत और अवसरों को लपक
लेने की जल्दबाज कोशिशें यहां भी हावी रही। परिणामस्वरूप यह जानने की कोशिश
बाधित हुई कि एक दलित व्यक्ति के भीतर भी सामाजिक श्रैष्ठता का पैमाना क्यों
सत्ता पर पकड़ और आर्थिक मजबूती हासिल करके ही प्राप्त किया जाने वाला बना रहता
है। जाति के दंश से सम्पूर्ण मुक्ति में आड़े रहे इस रास्ते की सीमाएं क्या हैं
और उनसे कैसे निपटा जा सकता है, इस पर विचार करके गंवईपन को चिह्नित करने तक की भी
कोई कोशिश नहीं हुई, उस पर निशाना साधना तो दूर की बात थी। संभवत: ऐसी किसी पहल के
साथ ही आगे बढ़ती गतिविधियां समाज को अपनी लपेट में लेने की कोशिश करती भ्रष्ट आधुनिकता
को वक्त रहते ही पहचानना आसान हो गया होता। लगातार मध्यवर्ग के भीतर किए जा रहे उसके
अंकुरण और पौधे से वृक्ष तक की अवस्थाओं को वक्त रहते ही पहचानना आसान हुआ होता।
लड़ाकू चेतना की बजाय प्रतिरोध का भ्रम रचति वह भ्रष्ट आधुनिकता जो अतिदावों के
साथ हमारी रचनाओं का हिस्सा हो जाती है, उसको भी पहचानना तब मुश्किल न हुआ होता
और दिनों, महीनों और सालों के हिसाब से विस्तार करते वंचित वर्ग के घेरे के बीच
भी अवसरों की बारम्बारता को क्षैतिज विस्तार देने की बजाय विकास के ऊर्ध्वाधर स्तम्भ
खड़े करने में मशगूल ढांचें के भीतर जन्म लेती शासकीय 'कुलीनता' को हासिल कर लेने
वाली चेतना की चीरफाड़ भी संभव हो सकती थी।
गंवई आधुनिकता की व्यापक रूप से पड़ताल की जाये तो देख सकते हैं कि मध्यवर्गीय विस्तार में अभिजात्यपन एक मूल्य की तरह स्वीकार्य होने के साथ है। यह अभिजात्यता पुरातन के प्रति मोह से उपजती है। बेशक वर्तमान को परखने और उसे बेहतर बनाने की चेतना इसका उद्देश्य होता हो, लेकिन बेहतरी के मानदण्ड यहां पुरातन नैतिक मूल्यों और उन्हीं आदर्शों में संतुष्टी पाना चाहते है जिनके वजह से विद्रोह की स्थितियां जन्म लिये होती है। विद्रोह के दौरान नये मूल्यों और आदर्शों की चिन्ताओं से बेखबर रहना परिस्थितिजन्य भी हो सकता है। स्पष्ट है कि सामाजिक चेतना के ऐसे प्रभावों की संगति में ही रचे जाने वाले साहित्य और कला में यह व्याप्ति लगातार लगातार मौजूद रहते हुए, बदलाव के बुनियादी परिवर्तनों में अवरोध होती चली जाती है। मसलन छायावादी मूल्यों के बरक्स प्रगतिवाद से लेकर आगे के कथा साहित्य में व्यापक रूप से मौजूद अभिजात्यता यहां संदर्भ हो सकती है। साठोतरी कथा साहित्य इस अभिजात्यता का ही प्रतिपक्ष बनता है पर पूरे तरह से प्रहार कर पाने में यहां भी चूक तो रह ही जाती है।
संवैधानिक
सुधारों की मांग और उसके लिए ही ऊर्जा खपा देने की राष्ट्रीय समझ अस्मिता के
प्रश्न को भी ठीक से व्याख्यायित कर सकने में अधूरी रही है और सवालों के घेरे
में है। संविधान सभा के अध्यक्ष और राष्ट्रीयता को वर्षों के शोषण उत्पीड़न से
उबारने की कल्पना करने वाले नायक अम्बेडकर इस सीमा को जानते थे हुए ही खुद उस
संविधान की आलोचना करते हुए दिखते हैं जिसका प्रारूप उनकी अध्यक्षता में तैयार
हुआ। ऐसे आधे अधूरे संविधान का परित्याग करने वालों में वे खुद को पहला मानने
वाले हुए। वह भी तब, जबकि शासकीय नियंत्रणकारी भूमिका के अवसरों को दलित वर्ग के हक
में करवा पाने में सक्षम होते हुए आरक्षण की एक सीमित स्थिति को हांसिल कर पाये
थे। लेकिन देखेंगे कि गंवई आधुनिक स्थितियों ने प्रसफुटित हुई दलित चेतना को भी
अम्बेडकारवाद के वास्तविक निहितार्थ तक पहुंचने में बाधा पहुंचाई और आज भी संषर्घ
के मूर्त रूप को रख पाने में उस मध्यवर्गीय आधुनिकता से आगे जाती हुई नहीं है, जो
पहले से ही गंवईपन में धंसी हुई थी। लोकतंत्र के नाम पर झूठ को फैलाते ठिकानों में
ही वह भी शरण पाती हुई है। उम्मीद की किरणों का प्रस्फुटन मुश्किल हुआ है और
दलित मुक्ति के संघर्ष का मूर्त चेहरा भी आकार लेता हुआ दिख नहीं रहा है।
यह कहने में हिचक नहीं कि
हिन्दी की दलित धारा का एक खेमा तो नयी आर्थिक नीतियों के उस निजाम को ही अपना
सहोदर मानने के साथ वाचाल है, जिसके मंसूबे तो भारतीय अस्मिता के प्रश्न को ही
अंधराष्ट्रवाद में डूबो देना चाहते हैं। दलित मुक्ति की इस धारा को भारतीय समाज
की भ्रष्ट आधुनिकता की ओर खिसकते मध्यवर्गीय रूझानों के रूप में भी समझा जा सकता
है । भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता की विशेषता है कि वह मुक्ति के मिथ को गढ़ने
में उन अतार्किक अवधारणाओं का सहारा लिये होती है जिसे दुनिया को समझने की
प्रक्रिया में वैज्ञानिक जानकारियों के चरण के रूप में देखा जा सकता है। डार्विन
का विकासवाद उत्तरजीविता के संघर्ष में उत्कृष्ट के बचे रहने की प्राकल्पनाओं
के साथ 'प्रतियोगितामूलक' पूंजीवाद के दर्शन में ही वैज्ञानिक हुआ जाता है। यह
सिद्धांत मारकाट वाली आधुनिकता के उस मिथ को
गढ़ता है, जो समाज की संरचना को
लम्पट तबके के पक्ष में तार्किक बनाती है और यह स्थापित करती है कि 'सज्जन' लोग
ही सक्षम लोग है। यहां सज्जनता की परिभाषा भी संसाधनों पर नियंत्रण से पैदा हुई
चाल-ढाल, बातचीत का चालूपन, वस्त्र विन्यास में साफ सुथरा दिखना आदि मानक पैमाने
होते हैं। देख सकते हैं कि भारतीय शासन- प्रशासन की गतिविधियां अपराध के निधार्रण
में ही नहीं, सामान्य दिनचर्या में भी वंचित वर्ग के व्यक्ति पर कैसे जुल्म का
फंदा कसती है ।
यद्यपि आर्थिक रूप से
वंचित रह गये समूहों को चिह्नित करने में रची गई हिन्दी कहानियों की महत्वपूर्ण
भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन यह साफ देखा जा सकता है कि गंवईपन की
स्थितियों में जाति-श्रैष्ठ-प्रभुता वाले धर्म-दर्शन से घिरी उनकी आधुनिकता,सहज
संतुलन के उस रुख का ही हिस्सा रही जिसकी निरन्तरता भटकाव वाली थी। वे मध्यवर्गीय
उभार, जिनका प्रगतिशील झुकाव जहां एक ओर संविधान में वर्णित धमनिरपेक्षता का
पक्षधर हुआ तो वहीं दूसरी ओर उसका दक्षिण पंथी रूप साम्प्रदायिक हिंसा तक विस्तार
करता रहा। भारतीय मध्यवर्ग के वामपक्ष के होठों के किनारे भी दक्षिणपंथी विचारों के साथ खुलते रहे। योग से लेकर भोग तक को
आधुनिक और 'उसमें हर्ज क्या है' वाली समर्थन की शब्दावलियों को इक्टठा करना आज
मुश्किल भी नहीं। आधुनिक तकनीक का उच्चतम रूप चाहे तो मित्र यारों की नीजि
बातचीतों के दौरान छूट गई ऐसी उच्छवासों को भी पकड़ने में सक्षम हो सकता है। धर्म
से पूरी तरह विलगाव न बना पायी गंवई आधुनिकता ही उसकी प्राथमिकता का सबब हुई। सरकारी
महत्व की सी गतिविधियों में उसके सीमित धर्मनिरपेक्ष चरित्र के दर्शन तो किए जा
सकते हैं, जबकि न्याय की चौहद्दी पर गवाह होती प्रतिज्ञाएं भी उससे मुक्त नहीं,
पर गैर सरकारी गतिविधियों में तो मृत्यू से लेकर जीवन के उल्लास, क्षोभ और अन्य
किसी भी भावों की अभिव्यक्ति में भी, यहां तक कि वैज्ञानिक उपलब्धियों की
प्रयोगात्मक उपलब्धियों के परीक्षण पर भी रीति रिवाजों की कर्मकाण्डीय पद्धतियों
को खुलेआम सहारा देते उसके 'प्रगतिशील' रूप का वामपंथी संस्करण ही भ्रष्ट मध्यवर्गीय
आधुनिकता का आधार स्तम्भ है।
धर्म की व्याप्ति निरन्तर
अति की ओर रही है, जिसके कारण प्रगतिशील मूल्य भी पूरी तरह से स्थापित नहीं हो
पाए और स्थानिक विशिष्टता के साथ सामाजिक असंतुलन कायम रहा।
गंवईपन के मध्यवर्गीय
चेहरे को पहचानने की यह कोशिश जो आलेख के माध्यम से संभव की जा रही है, लगातार के
सामाजिक बदलाव को नकारना नहीं चाहती है, बल्कि बुनियादी परिवर्तन की प्रक्रिया के
रास्ते में आने वाली दिक्कतों को समझना चाहती है और इसे नाते यह रखने में भी
हिचक नहीं है कि सामाजिक बदलाव की उपरोक्त चिह्नित की गई गति को यदि एक बड़ी
मुहिम के दौरान आ जाने वाले भटकाव भर मान लिया जाए तो भी कहा सकता है कि ऐसे भटकाव
के कारणों के पीछे मुनाफे की हवस वाली मानसिकता में डूबी स्थानीय पूंजी के उस
चरित्र को पहचाना मुश्किल हुआ जो वैश्चिक पूंजी की दलाली में ही अपने हितों को
सुरक्षित मानने के साथ है। परिणाम स्पष्ट हैं कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में
श्रैष्ठता को मजबूत आधार देने वाली जातिगत असमानता पहले निशाने पर नहीं आ सकी और
आर्थिक श्रैष्ठता को ही ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया।
कथाकार उदय प्रकाश की
कहानी के पात्र मोहन दास की त्रासदी, 'ग्रहण' के नायक राजकुमार का जीवन और 'पांच
का सिक्का' के कथानायक निनकू का संघर्ष, हिन्दी की अन्य कहानियों के उन
कथापात्रों से भिन्न नहीं जिनकी उत्पति संवेदना के गंवई आधुनिकता रूप के साथ साथ
दलित धारा कहलाई जाती रही। यद्यपि घोषित
रूप से ये कहानियां 'दलित धारा' की रचनाएं नहीं हैं। लेकिन हिन्दी कथा साहित्य
में पिछले पन्द्रह-बीस सालों पहले शुरू हुई उस प्रक्रिया से भिन्न नहीं जो
पात्रों की पहचान को उनकी जाति से स्थापित करते हुए दलित धारा के रूप में स्थापित
है।
मिथक बनाम मनुष्यता के
सवाल पर विचार करते हुए दर्शन शास्त्री बैरो डनहम सामाजिक स्थितियों का जिस शब्दावली में जिक्र
करते हैं, उन शब्दों को उधार लेते हुए कहना चाहता हूं कि यथार्थ की अतिव्याप्ति
से मुक्त होने की छटपटाहट के रास्ते तलाशती रचनात्मक दुनिया में हिन्दी कहानी
अतिव्याप्ति और अव्याप्ति के दो छोरों पर डोलती रही है और संतुलन की चाह में पात्रों की
भाषा, उनके रूप-लक्षण आदि को असमान्य बना देने वाली रचनात्मक प्रतिभा की राह के
साथ ही मध्यवर्गीय आधुनिकता के जिस किनारे पर पहुंच रही है, वहां खड़े होकर स्पष्ट
देखा जा सकता है कि सामाजिक सवालों पर ढुलमुल व्यवहार बरतने वाली उस चालाकी को
अपनाने के साथ है, जिसका एक रूप तो खुदगर्ज परिस्थितियों पर बिना सोचे-विचारे,
तुरत-फुरत राय देने में वाचाल हो जाता है तो दूसरी ओर निर्णायक स्थितियों पर कुछ
भी न कहने वाली खामोशी बरतने की भूमिका वाला होता है। व्यवहार की इस असहजता का
असर न सिर्फ अतिदावों के साथ पेश आती गद्य भाषा का हिस्सा होना चाहता है बल्कि
कविताओं में तो उसके असर ज्यादा साफ है। मूल्यांकन की सीमित दृष्टि वाली आलोचना
और उसके प्रभवा से घिरी सम्पादकीय अहम भरी टिप्पणियां, रचनाओं के उन्ही रूपों
पर रीझकर साहित्य की दुनिया को भी किंचित चमकीला और फिल्मी दुनिया सरीख स्टार
चेहरा बना देना चाहती है। इसीलिए सम्पादक, आलोचक और प्रकाशकों की दादागिरी का
अराजक माहौल भी हिन्दी की रचनात्मक दुनिया पर दबदबा कायम किये है।
दिलचस्प है कि तीनों ही
कहानियां अपने अपने विन्यास में जहां एक ओर पात्रों को सामान्य से मिथक बना दे
रही हैं, वहीं जनमानस में के बीच पहले से स्थापित मिथकों की संगति में अपने कथ्य
का विस्तार भी करती जाती है। तथ्यों और मिथकों की संगति-सम्मीश्रण के आनुपातिक
क्रम में 'मोहन दास' पहले स्थान पर, 'ग्रहण' उसके बाद एवं 'पांच का सिक्का' सबसे
अंत में रखी जा सकती है। परिस्थितिजन्य संवेदना की व्युपत्ति की पड़ताल करने पर मिथकों
की स्थापना के प्रभाव का असर व्युत्क्रमानुपाति नजर आता है। यानि संवेदना के स्तर
पर 'पांच का सिक्का' की आत्मीयता का रूप ज्यादा सहज और स्वाभाविक नजर आता है
एवं 'ग्रहण' और मोहन दास की तुलना में गहरे पाठकीय प्रभाव छोड़ता है। यूं आंकलन का
यह तरीका और जाहिर किए जा रहे परिणाम बेशक किसी सिद्ध पद्धति (जो कि वैसे तो है ही
नहीं) की निष्पति से प्राप्त नहीं हैं, लेकिन निरा मनोगत भी इन्हें नहीं माना
जा सकता। जांचने के लिए किसी सुस्पष्ट पाठकीय सर्वेक्षण पद्धति को अपनाया जा
सकता है। हां, पाठकीय स्मृतियों को पूर्व आलोचनाओं की स्थानाओं के प्रभाव से पूरी
तरह मुक्त और निरपेक्ष भी नहीं मानी जा सकता है, तब भी पाठकीय स्मृतियों में
दर्ज पात्रों के हुलिये से कहानी के पात्रों की छवियों को तलाशा हो जाती है और यह
साबित हो ही जाता है कि कहानियों ने अपने पाठक को कितनी ही बार परेशान किया होगा।
कहानियों की उपलब्धियों का बक्सा ऐसे भी भरा हुआ है।
तीनों ही कहानियों के
ताने बाने में गल्प का जो संसार दिखायी देता है, वह उस यथार्थ की उपज माना जा
सकता है जिनके प्रभाव रचनाकारों को गल्प के रूप में उन्हें दर्ज कर देने को
मजबूर करते रहे होंगे या, किन्ही वास्तविक पात्रों की स्मृतियां भी कहानी का
कारण बनी हों। इस तरह से विचार करें तो व्याख्या के निम्न बिन्दु सहज ही प्रकट
हो जाते हैं। यथा,
1 रचनाकार पर पृष्ठभूमि का मनोवैज्ञानिक प्रभाव
2
कथा पात्रों की असमान्यता, जमाने की
चालाकी एवं कथापात्रों का भोलापन
3
गल्प का विशेष घटनाक्रम और सत्य घटना के
अनुभव
तीनों ही कहानियों में
दर्ज होता हुआ सामाजिक परिवेश गंवई आधुनिकपन की कस्बाई एवं शहरी स्थितियों से भरा
है। भाषा एवं भूगोल के विवरण ही नहीं अपितु पाठक के भीतर संवेदना जगाने के लिए चहूं
ओर व्याप्त परिवेश की विशिष्टताएं भी चिह्नित की जा सकती है। गुदा विहीन
विचित्र पात्र के जीवन को फोकस में रखने के बावजूद 'ग्रहण' में त्रासदी का फोकस राजकुमार
के जीवन की बजाय विपदराम की विपदाओं पर केन्द्रीत रहता है। गुदाविहीन राजकुमार तो
शैशव अवस्था में ही चिकित्सकीय उपचार की तात्कालिक राहत को प्राप्त कर लेता है।
पेट में बना दिये गये कृतिम गुहाद्वार के जरिये भले ही मल त्याग करते हुए गू से
लिसड़ जाना उसकी मजबूरी है लेकिन जीवन की हलचलों का ताना बाना, जो पैदाईश के समय
ही बुझ जाने वाला था, उसको पा जाना एक अप्रतिम सा उपहार है। जबकि सर्वांग सही सलामत होते हुए भी विपदराम की
त्रासदी तो ऐसे पुत्र का पिता होने के समय से ही उसकी विपदाओं के घेरे को और बड़ा
कर दे रही है। पहले से रची जा चुकी सामाजिक विसंगतियों का संसार उसे कतई परेशान
नहीं करता है, स्वीकारोक्ति की मानसिक अवस्था में वे सारी स्थितियां उसके जीवन
के उपक्रम की मुक्ति गाथा का केन्द्र बिन्दु नहीं बन पाती हैं, सिर्फ कथा की
पृष्ठभूमि ही बनी रहती हैं। जबकि उसकी छटपटाहटों के केन्द्र ब्रिन्दु उन कृत्रिम
जंजालों में उलझे रहते है जो कभी पुत्र के इलाज के लिए और कभी उसके विवाह की चिन्ताओं
के साथ किये जाने वाले उपकर्म हैं और वे ही विपदराम को पस्त किये हैं। राजकुमार
पिता की चिन्ताओं का सहारा बनना चाहता है। ईंट के भट्ठे में खटने के बाद जमा की
गयी पूंजी के दम पर मुर्गी के अण्डे बेचेने का व्यवसाय करना चाहता है। पहली बार
मुर्गीयां खरीदकर लाता है तो व्यवसाय जैसी किसी कल्पना का सपना भी न बुन सकने
वाली मन-स्थिति में बटुली का घबरा जाना स्वाभाविक है, वे उन्हीं चिन्ताओं की
शिकार होती है, हमारा सभ्य समाज आर्थिक रूप से विपन्न लोगों को जैसे आरोपों से
हमेशा जकड़े रहता है- चोर, उचक्के। लेकिन मां की आशंकाओं पर पुत्र के द्वारा
स्थितियों का साफ करने पर संवेदना के गहरे बिन्दु जाग उठते हैं। कहानी के हवाले
से ही देखते है,
''माई हम खाने के वास्ते
मुर्गी नहीं लाए हैं। इनका अण्डा बेच-बेचकर हम पैसा जुटाएंगे माई।'' कुछ बात हुई
कि राजकुमार की आवाज की सुई फंस गई, वह आगे बोल न पाया। इस समय उसका चेहरा एक साथ कातर, खिसियाया,
पवित्र, दयनीय और सुन्दर लग रहा था। उसकी बातें सुनकर बटुली और तेज रोने लगी
लेकिन यह दूसरी तरह की रुलाई थी। इस रुलाई की ध्वनि, संगीत और भाषा भिन्न थी।
मां को रोत देखकर राजकुमार दिग्भ्रमित सा हो गया। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि
क्या करे। वह कहने लगा, ''माई एक रुपया का एक अण्डा बिकता है। रोज दो रुपए की ज्यादा
कमाई हो जाएगी, यही सोचकर मुर्गीयां खरीदी हैं…। पर तू रो रही है...।''
बटुली आंसू पोछकर चुप हो गई, ''मैं रो नहीं रही हूं।'' यह कहकर वह फिर रो पड़ी और
पुन: उसी तरह आंसू पोंछकर बोली, ''बड़ा अक़लवाला हो गया है।''
गंवईपन की इस खूबी को
चिह्नित किया जाना जरूरी है कि उसकी मौजूदगी में प्रेम, दया, संवेदना की लहर जागृत
करने वाले करूण भाव एक ओर मुख्य भूमिका में होते हैं तो वहीं दूसरी ओर उन्हीं
भावों की उपस्थिति में तर्क और आदर्शों का यथार्थ आधुनिक होना चाहता है। विपदा की
मार ही नहीं उसके प्रतिकार में भी तर्क का गंवई आधुनिकपन हमें ऐसे सामाजिक वातावरण
के निर्माण के लिए प्रेरित करता रहा जो गुस्से और प्रेम के योग से उपजता है। संवेदना
की लहर जागृत करने में 'ग्रहण' कहानी का उपरोक्त हिस्सा हिन्दी कहानी की
इसी मूल प्रवृत्ति के साथ है। दुनिया बदलावों के संघर्ष में ऐसे आवेगों की उस
भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता जो वर्षों से बदलाव का वातावरण निर्माण करने
वाली ताकतों को स्पार्क दे देता है, लेकिन बदलाव के वातावरण की पूर्व स्थितियों
के नदारद रहने या, बहुत सक्रिय न रहने पर उसके प्रभाव गहरे आवेगों के साथ चरम गुस्से
या चरम प्रेम के साथ घटती घटनाओं में तब्दील हो जाते हैं। गुस्से और प्रेम के
योग से उपजने वाले भावों के आवेग की तीव्रता का आंकलन करना अंसभव है। असीमित
तीव्रता के आवेग से उपजे ऐसे गुस्से का चरित्र अस्थायित्व रंग में रंगा होता है
और किसी लम्बी लड़ाई का हिस्सा नहीं हो पाता है। बहुत छोटे अंतराल के साथ ही गायब
हो जाता है। उसकी समाप्ति पर वातारण पहले की सी पस्ती में फिर डूबा हुआ होता है। स्थितियां
इस कदर सामान्य हो जाती हैं कि पूर्व में घट चुकी घटना के अंश भी नहीं तलाशे जा
सकते। 'पांच का सिक्का' में घटनाओं का वातावरण ज्यादा तीव्रता भरा है और ज्यादा
मासूम भी। चाऊमनी नामक चीज के लिए ललचाने के बाद पांच के सिक्के को खर्च चुके
निनकू की असलियत पकड़ में आ जाने के बाद माई का गुस्सा सातवें आसमान पर है। अपने
भीतर के उन भावों की अभिव्यक्ति में किया जाने वाला माई का स्वांग जारी है।
निराशा, पस्ती और सामने वाले पर हावी हो जाने
के लिए इनसेफिलटिस की बीमारी की चपेड़ में जान गंवा चुके छोटे बेटे की
यादों भरी रूलाई में उसका रोना जारी है। ऐसी विकराल स्थिति में पहुंची माई से कोई
नहीं निपट सकता। निनकू भी नहीं। कहानी का मूल हिस्सा ही यहां ज्यादा सार्थक हो
सकता है,
'उधर उसकी माई ने बिलखना
शुरू किया और इधर उसके दिल का यह हाल हुआ जैसे अमचक से चिरने के बाद अमिया का एक
टुकड़ा यहां गया, एक वहां। जरा माई की चालाकी तो देखो। उसके हलक पर छूरी फेरकर खुद
रोने बैठ गई। अब अगर रोना था तो रोने की बारी निनकू की थी। दिन भर में कई बार
रोने-रोने को हुई लेकिन माई ने हर बार मौका हथिया लिया। हर चीज की हद होती है। वह
कब तक अपने को जब्त रखे। ऐसे तन गया जैसे गेहुंअन तनता है और उसी तरह फुंफकारा
भी, 'सुन माई...' ।
माई की धारोधार रूलाई पर
उसका कोई असर नहीं पड़ा तो तैश में आकर उसने माई की ठुड्ढी पकड़ी और अपनी ओर
मोड़ा। माई के चेहरे पर उसकी पकड़ इतनी मजबूत न थी कि बावलों की तरह सिर हिलाती,
वह एकबेग रुक जाती। यह तो उसका बदला हुआ तेवर था जिसने माई को स्थिर बनाया था।
'तू पहले बता माई कि फिन
बारिस आई कि नाहीं ।', माई जवाब तो तब दे न, जब सवाल का मतलब बूझे।
'तू पहिले बता ... फिनो
बारिस आई कि नाहीं ... आई न।।' लग रहा था
कि माई की अक़ल की बत्ती अब भी गुल है। लेकिन वह इस कदर हावी था कि माई को गर्दन
हिलाकर हामी भरनी पड़ी।
'तब तो बाढ़ भी अइहे ।... अइहे न ।' माई की गर्दन पहले की
भांति 'हां' में हिलती है।
'तो इनसेफिलटिस फिनो नाही
फैली का ।। बोल फैली न...।' निनकू इतना खदबदा रहा था कि माई की पल भर की चुप्पी
भी बर्दाश्त न हुई। उसे हिला कर पूछा, 'बोल तू कि फिनो बीमारी फैली कि नाहीं...।'
'फैली रे फैली।।' माई झल्ला
कर बोली। रोना धोना तो वह कब का भूल चुकी थी। 'तूहे मालूम नइखे कि इनसेफिलेटिस हर
सालिहे कत्लेआम मचावत है।'
'तब येह दफा बच गए तो
काहे आंसू बहावत हउ।।... हम उमर का पट्टा लिखवा के आये हैं का माई ।।' निनकू ने
अपनी फ़लसफ़ी झाड़ने के बाद माई की ठुड्ढी छोड़ दी। लेकिन माई इस कदर बुत बनी हुई
थी कि उसे लगा कि ठुड्ढी छोड़ी न हो बल्कि ठुड्ढी पर से अपना हाथ हटाया हो। माई की
परछाई दीवाल पर पड़ रही थी। ढिबरी की हिलती जोत में माई की परछाई हिल रही थी। माई
इस तरह जड़ थी कि उसकी तुलना में निनकू को माई की परछाई में ही ज्यादा प्राण नजर
आ रहा था। अचानक माई ने जैसे देह धारण किया और वह अकुलाई-बकुलाई सी थी, निनकू को
अपनी ओर खींच लिया। निनकू इसके लिए न तो तैयार था और न अनिइच्छुक। वह खुद बा खुद
माई की ओर खिंचता चला गया। माई ने उसे अपनी छाती से चिपटाया तो उसने ऐसा भी हो
जाने दिया- जैसे कोई बेल थोड़ा सहारा मिलते ही अपने आप चढ़ती लिपटती जाती है।'
कहानियों के उपरोक्त हिस्से इस बात की
ताकीद करते हैं कि संवेदना के प्रबल पक्ष को स्वीकारती हिन्दी कहानी सादगी के साथ वंचित
वर्ग के प्रति पाठकीय संवेदना जागरण में संलग्न रही। 'पांच का सिक्का' का उल्लेखनीय
पक्ष हिन्दी कहानी की उसी प्रबल छवी में ही महत्वपूर्ण हो जाता है। 'ग्रहण' में संवेदना
के जागरण की तीव्रता का आवेग अपेक्षाकृत कमतर है। तुलनात्मक स्थिति के परिणाम को
परखने के लिए कहानियों की पृष्भूमि की पड़ताल की जा सकती है। 'ग्रहण' की पृष्ठभूमि 'पांच का सिक्का' से थोड़ा भिन्न
है। 'पांच का सिक्का' का घटनाक्रम ऐसी
पृष्ठभूमि में घटता है, जहां चाकरी के एवज में मिलने वाले धन के बावजूद भी गंवई
अंदाज की बेगारी का वातावरण मौजूद रहता है । जबकि 'ग्रहण' में वह एक ओर कस्बाई कथा
के तौर पर जोड़ता है तो दूसरी ओर वहां मिथकीय मान्यताओं पर यकीन और पिछड़ेपन की
कई अन्य स्थितियां भी दिखायी पड़ती है। 'मोहन दास' की पृष्ठभूमि दोनों ही कथाओं
से भिन्न नजर आ रही है। शहरीकरण के साथ विस्तार करती गई आधुनिकता के वे प्रस्थान
बिन्दु जो समाज के भीतर जड़ जमाती जा रही वैचारिक भ्रष्टता का साक्ष्य हो सकते
हैं, कोई भी पाठक उन्हें 'मोहन दास' में खुद छू सकता है। आज की हिन्दी कहानी,
खास तौर पर युवा कहानी की संज्ञा से नवाजी गयी कहानी, जिस रास्ते से भ्रष्ट
आधुनिकता की ओर बढ़ी है, उसकी पहचान करना भी आसान है- वैचारिक प्रतिबद्धता के अति दावों के साथ
संवेदनात्मक जागरण की आवाजें यहां स्त्री एवं दलित विमर्श के भी अपने अनोखे पाठ
प्रस्तुत करते हैं। हर क्षण यौनिक छवियों का साथ होती उनकी भाषा को काव्यात्मक
कहने की आलोचना पर टिप्पणी करने का यह वक्त नहीं। बल्कि प्रसंगवश जिक्र हो जा
रहे स्त्री विमुक्ति वाले दर्शन के उस युवा स्वर को समझने की कोशिश है, जिसके
बारे में आलेख के लेखक की मान्यता स्पष्ट है कि वे भ्रष्ट आधुनिकता के संसार
में गोते लगाती स्थितियां है ; 'हू...तू...तू...तू' की आवाजों के स्वर में वैचारिकता के अतिदावे की
कॉल बेल क्यों और कैसे बजायी जाती है, यह समझने की कोशिश भी। आत्मीयता से भरे यादगार
क्षणों की उपस्थितियों के टुकड़े इधर की ज्यादातर कहानियों के एक आवश्यक घटक के
रूप में दिखाई दिये हैं। विषयगत सीमाओं के चलते अन्य कहानियों को तथ्य के तौर पर
रखने की बजाय ‘मोहन
दास’ से ही एक हिस्से को
यहां तथ्य के तौर पर रखा जा सकता है,
''रात
आधी से ज्यादा बीत गई थी। टिटहरी और पनकुकरी की आवाज कभी-कभी सुनाई दे जाती।
कठिना नदी की नम हवा के भारीपन में कस्तूरी की देह से उठने वाली पसीने की गंध ने
मोहन दास को चारों ओर से घेर लिया। इस स्त्री ने उससे विवाह करते हुए क्या सपना
देखा था और उसे क्या मिला ? सुबह से लेकर
रात तक, हर रोज, बिना नागा, हर सुख-दुख, हारी-बीमारी, भूख-प्यास में वह संग खड़ी
रही। मोहन दास के मन में कस्तूरी के लिए गहरी सहानुभूति और आत्मीयता पैदा हुई।
वह उसे एकटक निहार रहा था। कस्तूरी ने मटका रेत पर टिकाया और खड़ी होकर अपना
जूड़ा बांधने लगी। मोहन दास उठके उसके पास आया। कस्तूरी चुप थी।
'ए
कस्तूरी कबड्डी खेलिहे ? मोहन दास ने मुस्कराते हुए कहा- 'हू...तू...तू...तू
...।'
उसने
कस्तूरी की बांह को पकड़ लिया था और उसकी बगलों और पेट में गुदगुदी मचाने लगा था।
कस्तूरी उससे छूटने के लिए छटपटा रही थी- 'अरे...अरे...। देवदास जाग जई...। का
करत हस ? छोड़...मोर ल छोड़ ।...छोड़।' कस्तूरी ने देखा कि मोहन दास उसे छोड़ने
वाला नहीं तो उसने उसे धक्का दिया और छूटते ही कठिना नदी की ओर भागी। वह किसी उल्लसित
स्वतंत्र हिरणी की तरह कुलांचे मार कर नक्षत्रों के धुंधले सलेटी उजाले के नीचे
दूर तक फैली नदी के रेत पर दौड़ रही थी।
'आ...आ...आ...।
मोर ल छू...तो जानों....। आ....जा ...।' उसकी आवाज हर पल दूर होती जा रही थी और वह
हर पल छाया बनती हुई अंधेरे में बिलाती जा रही थी।
'हू...तू...तू...तू
... तू...तू...तू ...।' कहता हुआ मोहन दास पूरी तेजी से उसकी ओर दौड़ा।
कस्तूरी
ने और दम लगाया। मोहन दास हर पल उसके करीब आता जा रहा था। उसने अपनी रफ्तार बढ़ाई
और कठिना के किनारे-किनारे, पानी में छप-छप करती हुई पूरी जी जान से भागती चली गई।
'आ...आ...आ...। मोर ल छू...तो जानों....।' उसका दम फूलने लगा था। वह हांफने लगी
थी। मोहन दास की 'हू...तू...तू...तू ...'
हर पल उसके कान के करीब आती जा रही थी। कस्तूरी जानती थी कि अब वह मोहन
दास का और छका नहीं पाएगी फिर भी उसने आखिरी जोर लगाया। लेकिन तब तक एक ही उछाल
में मोहन दास ने उसे पकड़ लिया। दोनों कठिना के पानी में छपाक से गिर पड़े।
'छोड़...। ए...छोड़...।' वह झगड़ रही थी और मोहन दास के ऊपर पानी उलींच रही
थी लेकिन मोहन दास उसे छोड़ने के बजाय
उससे और लिपटता जा रहा था। नदी की नम हवा में दोनों की सांसें एक-दूसरे में समा
रही थीं। वह जिस तरह उसकी देह में उंगलियों से गुदगुदी मचा रहा था, उससे कस्तूरी
के गले से निर्बंध किलकारी और हंसी फूट रही थी। उसका छद्म प्रतिरोध शिथिल पड़ता जा
रहा था और वह स्वंय भी मोहन दास को दूर धकेलने के दिखावे के बीच उसकी देह से सटती
जा रही थी। जैसे लोहे का कोई टुकड़ा किसी चुम्बक से सटता है।
मोहन
दास ने कठिना के पानी में उसे गिरा लिया और ऊपर सरकते हुए कहा- ''तैं बहुतै निकहा
अऊ बहुतै सुंदर हस कस्तूरी...। दे मोर करउंदा।' और उसे चूम लिया। वैशाख की उस
गर्म रात में दूर आकाश में टिमटिमाते तारों की मद्धिम सलेटर रोशनी में, कठिना नदी के
शीतल जल में दो जवान गोंछ या पाढि़न मछलियों की तरह वे दोनों उद्दाम और निर्बंध
छपाछप कर रहे थे। बीच-बीच में कस्तूरी के कंठ से उठती हंसी और किलकारी के साथ
मोहन दास की भारी सांसों से निकलती 'हू...तू...तू...तू ...' रात की निस्तबधता को
भेद जाती थी।'
क्रमवार तरह से प्रस्तुत
और टिप्पणी के दायरे में आए तीनों ही कहानियों के उपरोक्त हिस्से पूंजीवादी
विकास की विकृतियों की लपेट में फंसे,हिन्दी के हमारे रचनात्मक संसार की मानसिक
बुनावट का भी पता दे देते हैं। इनसे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि विकास के सकारात्मक
रूप के शहरीकरण में ही हमारे व्यवहार की नफासत वह रूप भी जगह पाता है जो चालाकी और
चापलुसी भरा हो जाता है। अक्सर इसे ही हम मध्यवर्गीय होना स्वीकार लेते हैं और
उसके साथ ही वंचितों का पक्ष चुनती वैचारिकता में लगातार के क्षरण के साथ होते
हैं। परिणमत: उपजने वाली संवेदना का वह गंवईपन भी बरकरार नहीं रह पाता है जिससे
उम्मीद की जा सकती थी कि वह बेहतर मूल्यों की स्थापना को अपनाती आधुनिकता को स्थापित
होने देने में सहायक होगा। संवेदना को उपजाने की लेखकीय कोशिश आधुनिक जीवन शैली की
तार्किक प्रणाली के दायरे में स्वत: आती रहती है। यानि गंवई आधुनिकता का विकास
नकारात्मक मूल्यों की स्थापना की राह पकड़ते हुए भ्रष्ट आधुनिकता की स्थापना
का रास्ता तैयार करने लगता है। आधुनिकता और गंवईपन की अवस्थिति को ग्राफिकल
दर्शाया जाऐ तो लम्बवत कोणीय बिन्दुओं की श्रृंखला में दिखायी देगी। जिसके आधार
पर यह विश्लेषित कर पाना मुश्किल नहीं कि संवेदना को जागृत करने वाले तत्वों के
प्रभाव की तीव्रता का गिरता ग्राफ आधुनिकता के विकास के व्युतक्रमानुपाति क्रम
में रहता है। गांव से शहर की ओर विस्तार करती पृष्ठभूमि के क्रम में गिरती हुई संवेदना
'मोहन दास' को पहले स्थान में और 'पांच का सिक्का' को अंतिम पायेदान पर रख देती है।
यह चर्चा 'मोहन दास' से आगे की हिन्दी कहानियों को अपने दायरे में रखने के साथ
नहीं, तब भी उपरोक्त विश्लेषण की रोशनी में पाठक स्वंय देख सकते हैं कि उनमें
संवेदना के क्षरण की गति ही कितनी युवा है।
यद्यपि 'मोहन दास' का पाठ
इतना इकहरा भी नहीं कि उसे किसी तात्कालिक टिप्पणी में समेट जा सके। कथा का घटनाक्रम
पाठक को द्वंद्व से भर देने वाला है। सबके साथ न्याय की सैद्धान्तिक समझ पाठक को मोहन
दास के प्रति सह्रदय बनाती है। लेकिन कठोर तरह से तर्क करने पर एक स्थिति ऐसी भी
बनती है कि पाठक के भीतर उपजने लगता है कि उच्च शिक्षा प्राप्त किसी व्यक्ति को
क्या आज के जमाने में भी व्यक्तिगत दस्तावेजों की मूल प्रतियों का अर्थ नहीं
मालूम होगा, जो बिना किसी ठोस आधार के उन्हें किसी सरकारी कार्यालय में यूंही जमा
करा देता है । फिर कैसा तो वह कार्यालय, जहां दस्तावेजों की प्राप्ति रसीद जैसा
भी कोई तंत्र नहीं और जब चाहे धडल्ले से
उनका दुरूपयोग होने लगे। घटी हुई किसी सत्य घटना की ऐसी स्थितियों को ठीक से जांच
कर गल्प में पिरोने के लिए जितनी तैयारी की जरूररत होनी चाहिए, उसे दरकिनार करके
सिर्फ संवेदना के जागरण भर से प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह एक लेखक पर आरोप
नहीं बल्कि हिन्दी के उस मिजाज को समझना है, जो हमारे भीतर गंवईपन के रूप में
मौजूद रहकर हमें आधुनिक दिखाये रखना चाहता है; सामाजिक रूप से व्यपाप्त गैर
जनतांत्रिक व्यवहार और श्रेष्ठताबोध के झूठे मनोभावों के साथ मौजूद रहने वाली
अतार्किक निष्पतियों तक पहुंचे रहने वाली स्थितियां।
अतिदावों वाली वैचारिकता
के छोरों पर खड़ी राजनीति ने माहौल को भ्रष्ट आधुनिकता के रंग से रंगा है। दिलचस्प
है कि भारतीय राजनीति का दक्षिणपक्ष हो चाहे 'वामपक्ष', जनता को ही दोष देने की
प्रवृत्ति उनका सबसे पहला दर्शन है। अपने विश्लेषण की पुष्टी में उनके पास जनता
के भीतर व्याप्त शिथिलताओं भरे तथ्यों का अतियथार्थ हमेशा मौजूद रहता है। उनको
बार बार सामने रख कर वे बदलाव की किसी चेतना के विकास और प्रेरणा की बजाय जनपस्ती,
निराशा एवं हताशा के माहौल को ही पसरने देने में सहायक होते हैं। सामाजिक रूप से
व्याप्त गंवई मिजाज को ठीक से न पहचान सकने वाले माहौल और चालाक
मंसूबों से भरा हमारे राजनैतिक व्यवहार ही रचनाओं में भी अतिदावों वाली वैचारिकता
के दो छोरों को बांधता रहा है।
'मोहन दास' कहानी के
विवरणों के बताते हैं कि ढेरों ठोकरें खाने के बाद भी बेरोजगारी की मार को झेलते
कथा पात्र मोहन दास के पास डाक से पहुंचा नौकरी का प्रस्ताव उसके जीवन के बादलाव
का एक विचित्र संयोग हो जाता है। नौकरी का प्रस्ताव सेवा योजन कार्यालय के मार्फत
है। दिलचस्प है कि जिस पद के लिए लिखित और मौखिक परीक्षा होनी है वह सुपरवाइजर का
पद है। यह विवरण मोहन दास की जगह नौकरी कर रहे बिसनाथ के साथ दर्ज है। बहुत दावे
के साथ तो यह नहीं कहा जा सकता कि सुपरवाइजर पद पर नियुक्ति के लिए सेवा योजन से
नाम मांगे जाने की प्रक्रिया अपनायी जाती रही या नहीं पर सरकारी महकमे के कायदों
के सीमितत अनुभवों में ऐसा इस लेखक ने देखा नहीं और लेखकीय जानकारी को ही सत्य
मान लिया जाना मजबूरी है। यह भी कि हो सकता है कि कोलमाइन्स जैसे उपक्रम में
सुपरवाइजर पद के लिए अभ्यर्थी को न सिर्फ लिखित एवं मौखिक परीक्षा से गुजरना होता
है बल्कि शारीरिक शक्ति की उस दक्षता पर भी खरा उतरना होता हो जिसमें दौड़ना,
भागना और शारीरिक क्षमताओं के अन्य कायदे भी हो। यूं कहानी कोई सत्य घटना नहीं
है, वह गल्प है और ऐसे मानदण्ड उस पर लादने से शायद साहित्य के सौन्दर्य शास्त्रीय
मानदण्डों की अवहेलना हो जाने का खतरा मौजूद हो पर हिन्दी की रचनात्मक दुनिया
के मिजाज को समझने के लिए यह रखना मजबूरी है और यह कहने में कोई हिचक नहीं कि ऐसे
ही विवरणों के रास्ते रचनात्मक प्रतिबद्धता को तलाशने की कोशिश भी की जा रही है।
सवाल है कि हिन्दी कहानी में विवरणों का ऐसा भ्रम जाल क्यों है ?
स्पष्ट है कि वैचारिक
प्रतिबद्धता और राजनैतिक व्यवहार के गैर तार्किक मिजाज के साथ विस्तार करती गंवई
आधुनिकता के दोष से मुक्त नहीं। तथ्यों के उत्खनन के बजाय अतिदावों के साथ उसको
रखने का चलन गंवई आधुनिकता के उस भ्रूण में ही मौजूद है जो भ्रष्ट आधुनिक पौधे के
रूप में पनप रहा है। विशलेषण की इस खराब आदत को व्यक्तिगत अटेक मानने के कारण
संवाद हीनता कायम किये अपने अजीज और करीबी मित्र योगेन्द्र आहूजा की कहानियों के
हवाले से कहूं तो उनकी कुछ कहानियों में ये लक्षण ज्यादा साफ है। 'एक्यूरेट
पैथोलॉजी', 'खाना' और 'पांच मिनट' उनकी ऐसी कहानियां है। तथ्यों के उत्खनन में ये
कहानियां अचम्भित करने वाली जानकारियों से भरी होते हुए भी उन तथ्यों से आंखें
मूंदे हुए हैं जिनके उत्खनन बदलाव के वास्तविक संघर्षों को जानने समझने के जरूरी
हो सकते हैं। यह सिर्फ अनावश्यक जहमत से से बच निकलना भर नहीं कहा सकता। बल्कि
इसे स्रोत उसी गली में पहुंचाते हैं जहां एक ओर बाजारू संस्कृति के प्रति लपलपाहट
भरा व्यवहार और प्रतिरोध की राजनीति के प्रति सैद्धान्तिक समर्थन साथ साथ
प्रेमालाप करते हैं।
पैकिंग और बाईंडिंग के
नये नये से रुप वाला फूला-फूला अंदाज इस दौर के बाजार का ऐसा चरित्र है जिसमें
ग्राहक के लिए उत्पाद की गणवत्ता को जांचना भी संभव नहीं रह गया है। तैयार माल किस मैटेरियल का बना है, लाख
जतन के बाद भी यह जानना एक सामान्य व्यक्ति के लिए असंभव सा ही है। मैटेरियल पर
कोटिंग की नयी से नयी तकनीक के इस्तेमाल से ऐसा संभव हो रहा है। स्क्रेप मैटेरियल
से तैयार उत्पाद में दर्ज पैबंदों को भी चमचमाती पैकिंग में आकर्षक बनाकर पेश कर
दिया जाता है। कथाकार योगेन्द्र आहुजा के रचना संसार से गुजरने पर हम जान सकते हैं
कि उनका रचनात्मक कारखाना बाजार की ऐसी ही भ्रमित करने वाली स्थितियों को उघाड़ने
के लिए हमेशा ही तत्पर रहता है। उनकी रचनाओं का कच्चा माल सुनी सुनायी घटनाओं के
स्क्रेप की बजाय, विश्वसनीय स्रोतों से जानकारी जुटाने का श्रम होता है। 'पांच
मिनट' एक ऐसी कहानी है जिसकी रचना के लिए उस स्पेसिफाईड मैटेरियल को ढूंढा गया है
जिससे सिलिकॉन चिप बनाया जाता है। एक ऐसा मैटेरियल जो अपने से निर्मित उत्पाद के
जोड़ कहीं दिखने भी नहीं देता। फिर भी यदि कहीं कुछ दिखने लगता है तो खटाक के साथ खुलते
चाकू की आवाज दुनिया को सहम जाने के लिए मजबूर कर देती है और घड़ियों की सुईंयां स्थिर
हो जाती हैं। कविता की तरह कहानी में घड़ी का यह बिम्ब बार-बार उभरता है। कविता के
लिहाज से यह खूबसूरत बिम्ब है। घड़ी की टिक-टिक से दर्द और दहश्त फैलाने वाले समय
की यथास्थिति का एहसास पाठक हर क्षण करता रहता है। मक्खी मूछों वाली आक्रामक फौजी
कार्यवाही का विरोध करते हुए वैश्विक एकता की मिसाल और राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक
सीकिंया बूढ़े का जिक्र करते हुए इतिहास की अनुगूंजों के साथ गुलामी के खिलाफ
संघर्ष को निर्णायक मोड़ तक पहुंचाने की अभिष्ट कामना कहानी के मूल में दिखायी देती
है। गोपाल इस कहानी का ऐसा पात्र है जो मजदूर,
चौकीदार, रिक्शा
चलाने वाले, सब्जीफरोश,
कबाड़िये
और इसी तरह का छोटा-मोटा काम करते हुए जीवन के संघर्ष में जुटे तबके का
प्रतिनिधित्व करता है।
कहानी का उपरोक्त पक्ष न
सिर्फ हाशिये पर रह रहे लोगों के प्रति लेखकीय पक्षधरता का समर्थन करता है बल्कि
पुरजोर तरह से इस बात को स्थापित करता है कि आधुनिक तकनीक के चमत्कारों से विकासमान
दुनिया को सम्भव बनाने में भी इतने ही सामान्य लोगों की भूमिका है। साथ ही एक सामन्य
लेकिन हुनरमंद घड़ीसाज के लम्पट और उच्चके बेटे के होनहार बेटे की कहानी कहते हुए
योगेन्द्र उसे दुनिया के सबसे हुनरमंद आदमी का दर्जा दे देना चाहते हैं। श्रमिक
वर्ग के प्रति अपनी पक्षधरता को रखने में वे कतई कोताई नहीं बरतते। दिल्ली के
नेहरू प्लेस में कम्यूटरों की यांत्रिकी को आत्मसात कर चुके होनहारों को वे अंतरिक्ष
की घड़ियों को दुरस्त कर लेने की दक्षता हांसिल कर लेने तक पहुंचा देते हैं। कहानी
के मार्फत हम दुनिया में कायम हो चुके जनतंत्र के यथार्थ से वाकिफ होते हैं। घटनाक्रम
की ऐसी अतिरंजना पर बिना कोई सवालिया निशान लगाते हुए कहा जा सकता है कि अतियथार्थ
की यह प्रस्तुति उस ठोस वस्तुगत यथार्थ से मुंह मोड़ लेती है जो वास्तविक राष्ट्रीय
चेतना का संवाहक होकर अन्तरराष्ट्रीय बिरादराना भी स्थापित कर पाए। यहीं से उस गलत
तरह की अवधारणा को भी पुष्ट होते हुए देखा जा सकता है जिसके प्रति लेखकीय सहमति
नजर आती है- व्यकितगत रुप से उपलब्धियों
को हांसिल करने वाले किसी एक महान व्यक्ति
की उपस्थिति पर ही सामूहिक संघर्ष अन्तिम निर्णय तक पहुंच सकता है।
अपने निष्कर्षों तक
पहुंचने के लिए योगेन्द्र जिन रास्तों से गुजरते हैं, वहां किसी खराब पड़ी हुई घड़ी
पर उसके निर्माण के वर्ष तक का जिक्र है। घड़ी का मॉडल नाम मौजूद है- रोलेक्स 6204,।
निर्माणकर्ता कम्पनी फेवर ल्यूबा और उसके
सर्वेसर्वा के नाम, जैफर्सन से पाठक परिचित हो जाता है। लेकिन इतनी सारी
जानकारियों से भरी कहानी में खराब घड़ियों को ठीक करने के हुनर का वास्तविक चेहरा
कहीं नहीं रहता। वह हुनरमंद घड़ी साज आखिर उन्हें कैसे ठीक करता है, इसका
पता पूरी कहानी से कहीं नहीं लगता है। घड़ी ठीक हो जाती है पर उसे ठीक किये जाते
वक्त न तो कोई स्प्रिंग छिटक कर कहीं खो जाता है,
जिसे
ढूंढने के लिए घड़ी साज को आंखों से खुर्दबीन भी उतारनी पड़ती ही होगी, न कोई जुवैल जैसा पुर्जा अन्य पुर्जे के नीचे
जाकर फंस जाता है, जिसे ढेरों मश्कत के बाद भी ठीक से पकड़ न पाने के कारण घड़ी
साज के भीतर उपजने वाली वह झल्लाहट जिसका वैचारिक उन्नयन ही संघर्ष के किसी
निर्णायक रूप में सहायक हो, दिखायी देता है। जबकि ऐसी स्थिति में अन्तत: यह निर्णय
ले लेने की पीड़ा कि मात्र जरा से काम के लिए किसी घड़ी साज को कब पूरी घड़ी को खोल
कर ही उसका पुर्जा-पुर्जा अलग कर देना होता है और फिर हर धूलकणों तक को हटाकर, हर
पुर्जे को धो पोंछ कर घड़ी को री-एसेम्बल करना बेगार का काम हो जाता है, दिखता
नहीं। बस, वो खराब घड़ी जिसे ठीक करने वाला दुनिया
में कोई न मिला उसे कथा पात्र ने ठीक कर दिया है, इतने कहने भर से जब पक्षधरता स्थापित
हो जाती हो तो फिर क्योंकि जाए इतनी मेहनत की एक कहानी लिखने के लिए पूरी घड़ीसाजी
सीखनी पड़ जाए। योगेन्द्र की इन कहानियों पर विस्तार से बात फिर कभी अभी तो
सिर्फ एक छोटी सी टिप्पणी ही की जा सकती है कि आज अमेरिका एक ऐसे अर्थ को व्यंजित
कर रहा है जिससे आतंकित होना न सिर्फ तीसरी दुनिया के नागरिकों की मजबूरी है बल्कि
उन अमेरिकियों की भी मजबूरी है जो खुशहाली के झूठ को रचने वाले उसी अमेरिका के
सामान्य और दलित शोषित नागरिक है।
योगेन्द्र एक जिम्मेदार
लेखक हैं। वे खुद जानते होगें कि यथार्थ के सहज, सरलीकरण को अपने मनोगत कारणों से
प्रस्तुत करते हुए भावनात्मक पक्षधरता की कलात्मक अभिव्यक्ति से न तो एक रचनाकार
अपनी प्रतिबद्धता को स्पष्ट कर सकता है और न ही जनपक्षधर-उन्नत कला साहित्य का
सर्जन कर सकता है। स्पष्ट है कि समाजिक, आर्थिक ढांचे का सतही विश्लेषण
प्रतिपक्ष को ही मजबूत करता है और यथार्थ से पलायन भी करवाता है। साहित्य ओर
यथार्थ पर लिखे गये हावर्ड फास्ट के निबंध के हवाले से कहा जा सकता है, ''अगर
यथार्थ की प्रकृति इतनी तात्कालिक और स्पष्ट समझ में आने वाली होती तो जीवन के
प्रति सहज बोधपरक और अचेतन दृष्टि रखने वाले लेखकों का आधार मजबूत होता।" वर्तमान
दौर की जटिलता, मुनाफे की दृष्टि से विस्तार लेती कुशल
व्यवस्था में इतनी एक रेखीय नहीं है कि किसी की सदइच्छा और सहानुभूतियों के
प्रकटिकरण भर से ही उसका क्रूर चेहरा दिख जाये। उसके विश्लेषण में खुद को भी
कटघरे में रखकर देखना आवश्यक है। उन मनोगत कारणों की पड़ताल भी जरूरी है जिनकी वजह
से हम प्रतिरोध के किसी जरूरीर संघर्ष से न सिर्फ व्यवहारिक जीवन में दूरी बनाए
रखना चाहते हैं, अपितु अपने लेखन में भी उसके प्रति वास्तविक पक्षधरता के लिए
पाठक को प्रेरित करने से बचते हैं। यही रचनात्मक ईमानदारी भी है।
'मोहदन दास' से इतर 'ग्रहण'
घटनाक्रम की सहजता में तथ्यों के उत्खन्न की विसंगति के लिए परेशान नहीं करती
है। मिथकीय आख्यानों की संरचना यहां तार्किक संतुष्टि का कारण बन जाती है। प्रतीकात्मक
अर्थ छवियों को गढ़ते हुए कहानी जिस बिन्दु पर खत्म होती है, उसका तार्किक अंत
संघर्ष के रास्ते में व्यापक एकजुटता का स्वर होना चाहता है। लेकिन यहां भी एक
दिक्कत सामने है कि कहानी इस अर्थ को बहुत सीधे सीधे प्रक्षेपित नहीं कर पा रही
है। अर्थ छवियों को रचना के मार्फत आत्मसात
करना मुश्किल है, यदि पाठक रचनाकार के सामाजिक सरोकारों से परिचित न हो तो। जीवन
के दूसरे कार्यव्यापार से बनती रचनाकार की सामाजिक छवी और स्वंय पाठक के भीतर
मौजूद प्रगतिशील चेतना का अभाव भी कहानी को किसी तार्किक अंत तक पहुंचने में बाधा
हो सकता है। उल्लेखनीय है कि 'पांच का सिक्का'
किसी भी तरह के बाहरी तर्कों से अपनी परिणति को प्राप्त नहीं होती, अपितु
मानवीय संवेदना की सघन उपस्थिति में निनकू के प्रति माई का उमड़ आया प्रेम ही पाठक
के भीतर संवेदना के जागरण का सहारा बनता है। गंवई आधुनिक मिजाज की हिन्दी कहानी
यह ज्यादा स्वाभाविक गति हो सकती है। लेकिन गंवईपन के ऐसे संवेदनों को कुचलकर विस्तार
करती गयी आधुनिकता की अनियंत्रित गति, न सिर्फ सामाजिक ताने बाने को तोड़ रही है,
बल्कि रचनाकारों को भी अपनी गिरफ्त में लेकर भ्रष्ट आधुनिकता की ओर बढ़ने के
लाभकारी अवसरों के साथ है। संवेदना के जागरण के लिए विकृत्तियों के विभत्सपन या,
असमान्य मानसिक स्थिति वाले नायकत्व औजार नहीं हो सकते। गंवई आधुनिकता का यह
प्रगतिशील रूप पूंजीवादी प्रभावों में घर बनाती भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता का
ही आरम्भिक चरण है। विकृतियों की उपज के ऐसे नायक पाठक के लिए प्रेरणास्रोत नहीं
हो पाते। रचनाएं भी बस माहौल की किसी विशिष्टता पर तंज टिप्पणी ही कर पाती हैं। यानि
आधुनिकता के रास्ते आ रही और व्याप्त हो चुकी ह्रदय हीनता अनचाहे ही आक्रमकता
के चक्र को अनवरत जारी रखने वालों की बहुत स्पष्ट पहचान नहीं करने देती और उसे
बेखटके विस्तारित होते रहने की स्वतंत्रता प्रदान करती रहती है। मासूमियत और
निर्दोषपन के भावों से भरा मोहन दास हो और चाहे हाल में प्रदर्शित हुई फिल्म 'पी
के' तक का विस्तार, जिनमें बेशक सीधे तौर पर विकृतियों में जन्म लेती स्थितियों
वाले भाव नहीं हैं, लेकिन स्पष्ट प्रेरक तत्वों का अभाव यहां भी खटकने वाला है।
यह कहने में कोई अस्पष्टता नहीं कि जिस तरह 'पी के' फिल्म के मार्फत धर्म के
प्रति आस्थावान बने रहने का संदेश दर्शकों को लगातार दिया जाता रहता है, 'मोहन दास'
में भी ठीक उसी तरह अप्रसांगिक हो चुके
तंत्र को बचाये रखने की ही वकालत के साथ है।
गंवई आधुनिकता में रंगी कथा-कहानियों
के ऐसे निर्दोषपन निरन्तर प्रवाहित होती गयी प्रगतिशीलता में ही संभव हुए हैं, जिनका
अंतिम लक्ष्य अप्रसांगिक होते जा रहे तंत्र को बचाये रखने की वकालत होता रहा है। हमारे
दौर की सबसे लोकप्रिय विधा फिल्म न सिर्फ इसमें अव्वल है बल्कि उसके मंतव्य तो
हमेशा मनोरंजनकारी ही हैं। नचबलिये नुमा टी वी कार्यक्रमों में जीत हासिल करके
पुरस्कृत होती स्थितियों में खुशियों के आंसू बिखरती संवेदनाएं भी गंवईपन का
सहारा पकड़ते हुए ही भ्रष्ट मध्यवर्गीय आधुनिकता की ओर बढ़ते जा रहे समाज का ही
चित्र है। दर्शकीय मनोभावों को उच्छवास में बदलने के लिए नादानी और वैचित्र्य की
स्थितियां, मुनाफाखौर चाहत से भिन्न नहीं हैं। हिन्दी कहानी ने अभी तक गंवई
आधुनिकता में रहते हुए भी लोकप्रियता की इस 'ऊंचाई' से यूं अभी दूरी बनायी है और
वंचित का पक्षधर होने की कोशिश की है। लेकिन संत्रास भरी स्थितयों से निपटते हुए हार
में ही जीत के सपने दिखाती दुर्बल वैचारिकी के साथ कई बार उसके मंतव्य भी
पूंजीवाद की अनचाही सेवा वाले हो जाते हैं।
क्रूरता के दर्प को नैतिक
मूल्य बनाकर पेश करती राजनीति, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को ढकोसला बना देती है।
फासीवादी बढ़त के प्रभाव ऐसी ही प्रव़त्ति में देखे जा सकते हैं। कारणों को सिर्फ
पूंजीगत प्रभाव की जड़ता भर से विश्लेषित करना, मामले को इस कदर सरलीकृत कर देना
है कि वैश्विक भूगोल में व्याप्त सामाजिक अन्तरविरोध दरकिनार हो जाते हैं।
पूंजी एक कारक है, इससे इनकार नहीं, लेकिन पूंजी ही एक मात्र कारक है, इससे असहमति
है। पूंजी बहुत से भौतिक कारको की उपस्थिति के बीच एक मूर्तवत उपस्थिति ही है।
गंवई आधुनिकता की व्यापक
रूप से पड़ताल की जाये तो देख सकते हैं कि मध्यवर्गीय विस्तार में अभिजात्यपन
एक मूल्य की तरह स्वीकार्य होने के साथ है। यह अभिजात्यता पुरातन के प्रति मोह
से उपजती है। बेशक वर्तमान को परखने और उसे बेहतर बनाने की चेतना इसका उद्देश्य होता
हो, लेकिन बेहतरी के मानदण्ड यहां पुरातन नैतिक मूल्यों और उन्हीं आदर्शों में
संतुष्टी पाना चाहते है जिनके वजह से विद्रोह की स्थितियां जन्म लिये होती है।
विद्रोह के दौरान नये मूल्यों और आदर्शों की चिन्ताओं से बेखबर रहना
परिस्थितिजन्य भी हो सकता है। स्पष्ट है कि सामाजिक चेतना के ऐसे प्रभावों की
संगति में ही रचे जाने वाले साहित्य और कला में यह व्याप्ति लगातार लगातार मौजूद
रहते हुए, बदलाव के बुनियादी परिवर्तनों में अवरोध होती चली जाती है। मसलन
छायावादी मूल्यों के बरक्स प्रगतिवाद से लेकर आगे के कथा साहित्य में व्यापक
रूप से मौजूद अभिजात्यता यहां संदर्भ हो सकती है। साठोतरी कथा साहित्य इस
अभिजात्यता का ही प्रतिपक्ष बनता है पर पूरे तरह से प्रहार कर पाने में यहां भी चूक
तो रह ही जाती है। इस दौर के कथा साहित्य में अन्यों की अपेक्षा कथाकार
ज्ञानरंजन की कहानियों में विद्रोह का तीखापन आश्वस्तकारी रहा। यद्यपि प्रतिरोध
की साठोतरी शुद्धता के लिए उनकी कहानियों की सीमायें भी आलोचय दायरे में हैं। अपने
समकालीन दौर में ही नहीं, परवर्ती दौर के कथा साहित्य मे भी जिसे जनवादी,
प्रगतिशील आदि भिन्न नामों से पुकारा गया, उनमें भी अभिजात्यता के प्रतिकार की
वही साठोतरी सीमित स्थितियां बनी। समांतर कहानी आंदोलन के दौर में प्रतिकार के कलात्मक
रूपों का विकास भी हुआ जिसका प्रभाव एक ओर नैतिकता और आदर्श के साथ ही जनपक्षीय होने
के की प्रवृत्ति दिखायी देती है तो दूसरी ओर ठेठ कलावादी रूझानों का रास्ता भी साफ
हुआ। अभिजात्यत संस्कारों में दैहिक नग्नता भी आदर्श होने लगी। कला और पक्षधरता
के वास्तविक अंतर को खेमोंबंदी से नहीं जाना जा सकता। सिद्धान्त के स्तर तक ही
नहीं बल्कि व्यवहार के स्तर पर भी कलावाद को पहचानने की जरूरत है। वरना जनपक्षधरता
के नाम पर भी कलावादी व्यवहार का हिस्सा होती रचनाओं को पहचनना मुश्किल है। हिन्दी
फिल्म जगत का सारा लोकप्रिय ढांचा कलावादी रूझानों की जद में ही फलता-फूलता बाजार
है। गटर के भीतर उतरकर मैला ढोने वाले घटनाक्रमों के जरिये पात्रों के प्रति
दर्शकीय संवेदना जागृत करना उसी सैद्धान्तिकी की उपज है, जो व्यवहार में कलावादी
होते हुए भी जनपक्ष के साथ दिखती है। फिल्मी हस्तियों का वास्तविक जीवन उसका
दूसरा पहलू होता है। संवेदना के व्यवसाय का यह उच्च कलावादी रूप है। इस फिल्मी
यथार्थ का अनुवाद साहित्य की दुनिया (भाषा) में करें तो सामाजिक रूतबेदारी की
अतिमहत्वाकांक्षा में जन्म लेती अभिजात्यत-ललक के साथ जन्म लेती पुरस्कार-लोलुपता
मानवता के दुश्मनों तक के साथ दोस्तानेपन में दिखती है। पुस्तकों के विमोचन
करती नामवरी गतिविधियों का यथार्थ होने लगता है। हिडन एजेण्डों के तहत जारी आमंत्रणों को स्वीकार लेने पर कहर बरसा
देने वाली स्थितियां भी चालूपन के साथ होती है। वहां व्याख्या के सरलीकरण का
कलावाद आरोप-प्रत्यरोपों को जन्म देते हुए तो मौजूद रहता है लेकिन कलावादी
रूझानों को सही तरह से पहचानने और उससे दृढ़ निश्चय के साथ परहेज करने की अभिजात्यता
में गंवई संकटों से घिरा नजर आता है।
कहानियों पर बात करने की
बजाय, दूसरे सामाजिक मसलों और हिन्दी की रचनातमक दुनिया के प्रसंगों को याद करना
विषयांतर तो लग सकता है, पर है नहीं। रचनात्मक संसार का मानस आए दिन के
घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में से मुक्त नहीं होता। फिर हिन्दी की रचनात्मक
दुनिया की निर्मिति तो वैसे भी सम्पादकों की सक्रियता के साथ ही आंदोलनों वाली
हुई है। किसी भी साहित्यिक आंदोलन का उफान और अवसान सम्पादक की सक्रिय उपस्थिति
तक ही सीमित रहा। यहां तक कि सबसे ज्यादा युवा ही सबसे कम समय
में बुढ़ा गया। बाकी आंदोलनों की उम्र का अनुमान लगाना या उनकी सीमाओं को पहचानना
तो वैसे भी मुश्किल नहीं। दलित धारा की संघर्षशील दलित चेतना का ही विकास अवरूद्ध
होता हुआ नहीं है, अपितु स्त्रीपन की आजाद ख्याली की अवधारणा भी सीमित होती गयी
है।
आलोचय कहानियों की ओर
लौटते हुए देख सकते हैं कि तीनों ही कहानियों में समकालीन यथार्थ अपने सम्पूर्ण
वजूद के साथ है। मोहन दास का भोलापन, राजकुमार का पेटहगन रूप और निनकू के टिमकी
जैसे पेट की छवियां तो यथार्थ के भी यथार्थ का दस्तावेज हो जा रही हैं। अतियथार्थ
की ये स्थितियां दलित शोषित समाज के प्रति रचनाकारों की प्रतिबद्धता का एक पक्ष
होते हुए भी विचार और व्यवहार के असंतुलन को ही दर्शाता है। यथार्थ की निरन्तरा
में कहानियों के पात्र मिथकीय सीमाओं को छूते तो हैं लेकिन उनकी स्वीकार्यता
सार्वभौमिक नहीं हो पाती। न तो मोहन दास की त्रासदी पूरी तरह से स्थापित हो पाती
है और न ही राजकुमार का पेटहगन रूप । हां, अपने निजी दुखों की वजह से वे चौंकाऊ
जरूर हैं। यद्यपि 'पांच का सिक्का' कहानी का प्रभाव कतई चौकाऊ नहीं लेकिन जमाने
की चालाकियों की मार, वर्गीय अन्तरविरोध को पूरी तरह से परिभाषित कर सके, उससे
पहले ही निनकू का टिमकी जैसा पेट निजी दुख का पहाड़ बन जाता है। विशिष्ट पात्रों
वाली इन कहानियों से गुजरते हुए कई बार लगता है कि समकालीन स्थितियों के ये मिथकीय
पात्र हैं। लेकिन दूसरे ही क्षण वे स्थितियों का अतियथार्थ उन्हें निरीह मनुष्य
में बदल देता है।
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