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Friday, July 15, 2022

आत्म सम्मान की चेतना

हिन्दी आलोचना का परिदृश्य इस कदर उदार है कि बहुत सामान्य रचना को भी असाधारण साबित कर देने में हर वक्त उपलब्ध रहता है। पाठकों को उसके लिए इंतजार नहीं करना पड़ता । जैसे ही किसी परिचित या दोस्त-रचनाकार की रचना के प्रकाशन की सूचना आती है, रचना के प्रकाशन के अगले दिन ही उसके असाधारण होने के प्रमाणपत्र जारी होने शुरु हो जाते हैं। लेकिन आलोचना की उदारता के ऐसे उपक्रम से जारी प्रमाणपत्र को पाना हर किसी रचनाकार के लिए आसान नहीं। वरना पाठक चंद रचनाकारों और उनकी ही रचनाओं से परिचित होते रहने को अभिशप्तन न होते।          खैर,अभी हम हिंदी के एक लगभग अज्ञात से लेखक की कहानियों से थोड़ा रुबरू होने की कोशिश कर लेते हैं। 85 वर्ष की उम्र से ऊपर के इस लेखक के उस पहले कहानी संग्रह से परिचित हो लेते हैं, जीवन भर लेखक द्वारा 400 से अधिक लिखी गयी कहानियों के बावजूद वह मात्र 22 कहानियों की एक जिल्दा के रूप में ‘’अन्तू से पूर्व’’ होकर देखने में आ रहा है। अलबत्ता इस संग्रह से पूर्व लेखक के आठ उपन्यास,एक लघुकथा संग्रह और आत्मकथा प्रकाशित है। तब भी इस साधारण से लेखक की साधारण-सी कहानियों में से एक असाधारण कहानी को ढूंढना और उस पर बात करना क्यों जरूरी है ? क्या यह कोशिश भी हिंदी आलोचना के उस परिदृश्य की ही तरह की कोशिश है, जिसका जिक्र ऊपर हो चुका है, या, इसके मायने इस धारणा पर निर्भर कर रहे कि आलोचना का कर्म एक जिम्मेदारी का कर्म बन सके ? इन सवालों के हल ढूंढने से पहले ''अन्त से पूर्व'' कथा संग्रह के लेखक मदन शर्मा के नाम से परिचित हो जाना जरूरी है। उम्‍मीद की जा सकती है कि उनके द्वारा लिखे गये बेहद आत्मीय संस्मरणों से इस ब्लाग के पाठक अच्‍छे से परिचित होंगे।                                                    ‘सुबह होने तक’, ‘भीतर की चीज’, ‘बाबर’, ‘चोर’, ‘रफ ड्राफ्ट’, ‘देश’ एवं ‘मिस्टार और मिसेस सिन्हा्’, इस संग्रह में ये सात कहानियां ऐसी हैं जिनके कथ्य ही नहीं, बल्कि उसके ट्रीटमेंट का तरीका और उस ट्रीटमेंट से प्रकट होते कथा के आशय मदन शर्मा को अन्य किसी भी हिंदी लेखक से जुदा कर देते हैं। अपने आशयों के कारण इन कहानियों की मौलिकता अनूठी है। ‘भीतर की चीज’ इस ब्लाभग के पाठकों के लिए यहां बानगी के तौर पर पुन: प्रकाशित की जा रही है।            ‘भीतर की चीज’ का कथ्य इस बात की ताकीद कर रहा है कि आत्म सम्‍मान की रक्षा का पाठ कामगार की चेतना ही नहीं, बल्कि मालिक-दुकानदार की चेतना का भी वारिस हो सकता है। शोषण के प्रतिरोध में शोषित के प्रति सदइच्छााओं वाली रचनाओं के संसार के बीच उल्लेखित कहानी का यह कथ्य उस मौलिकता का स्प्ष्ट साक्ष्य है जिसके जरिये यह देखना संभव हो जा रहा है कि कहानी के मालिक-दुकानदार की शक्ल् ओ सूरत डिजीटल भाषा में संदेशों को दोहराने वाले उस मालिक-दुकानदार से भिन्न है, विकसित होती गयी तकनीक को जिसकी सेवादारी में तत्पर रूप से प्रयोग किया जा रहा है। कहानी का यह पात्र देशी बाजार का वह मालिक-दुकानदार है, बड़ी पूंजी ने जिस पर हमला इतना तीखा किया है कि आज उसको ढूंढना ही मुश्किल है। कहीं कस्बों, देहात में उसके रंग रूप की छटा दिख जाये, बेशक। प्रताड़ना को झेलने के अभ्यास ने कामगार को इस कदर सक्षम बनाया है कि वह तो बद से बदतर स्थितियों के बीच भी जीवन संघर्षों की राह में आज भी नजर आ जाता है, लेकिन बाजार के षडयंत्रों से पस्त हो चुका देशी दुकानदार आज लगभग विलुप्ति के कगार पर है। अपने चरित्र में मुनाफाखौर होते हुए भी कुछ छद्म नैतिकता और आदर्शों से वह खुद को बांधे रहता था। वह झलक कथाकार मदन शर्मा की एक अन्य कहानी, ‘’बाबर’’ में भी अपने तरह से आकार लेती है, जिसमें वह देशी बुर्जुवा, सरकारी कर्मचारी के रूप में मौजूद है। एक ऐसा पिता जो अपने पुत्र की बेरोजगारी के कारण चिंतित है और अनुकम्पा के आधार पर उसे नौकरी मिल सके यह सोचते हुए ही उस गल्प की स्मृति में है जो पाठ्य पुस्तकों में दर्ज होता रहा है कि असाधय रोग की गिरफ्त में पड़े बेटे  हुमायूं के स्वस्थ होने की कामना में ही बाबर यह दुआ मांगते हुए होता है कि बेटे का रोग उसे मिल जाये और रोगी बेटा पूरी तरह स्वस्थ हो जाये। आइये प्रस्‍तुत कहानी के पाठ से कथाकार मदन शर्मा की उस मौलिकता से साक्षात्‍कार करते हैं जो बेहद सामान्‍य होते हुए भी असाधारण हो जाने की ओर सरकती है।                     विगौ 


  

कहानी

भीतर की चीज़

                                             मदन शर्मा

      वह मेरे मुंह पर तमाचा-सा मारकर चला गया। चेहरा अभी तक तमतमा रहा है। दिल की धड़कन तेज़ है। शायद भीतर बनियान भी पसीने से तरबतर हो गई है।

 थोड़ा संतुलित होता हूं और याद करने की कोशिश करता हूं, कि बार-बार क्यों ऐसा हो जाता है।

 वह तीन महीने पहले मेरे पास आया था। उससे पहले मेरे बचपन के दोस्त रामदयाल का फोन आया था। कहा था, ‘‘एक मेहनती और जहीन लड़के को तुम्हारे पास भेज रहा हूं। आस-पास किसी दुकान पर इसे रखवा देना। यह काम करना ज़रूर है।’’

 मैंने उसे देखा। बातचीत से वह अच्छे घर का मालूम पड़ा। बी0 एस0 सी0 सैकेण्ड डिवीजन में किया था। नौकरी कहीं नहीं लगी थी। पिता जी पिछले साल चल बसे, घर की हालत खस्ता है।

 मैंने कहा, ‘‘चाहो तो मेरी दुकान पर ही रह जाओ, जब तक कोई और काम नहीं मिलता, मैं समझता हूं, साढ़े चार सौ रूपये, कुछ बुरा नहीं रहेगा।’’

 मैं तुरन्त मान गया।

तीन में से एक सेल्समैन दो सप्ताह पूर्व बिना नोटिस दिये ही ग़ायब हो गया था। अब तक उसका पता नहीं था। इसलिये मुझे एक आदमी चाहिये ही था।

‘‘मुझे क्या काम करना होगा?’’ उसने भोलेपन से पूछा, मेरी हंसी निकल गई। कहा,‘‘इस की चिंता तुम क्यों करते हो? साढ़े चार सौ दूंगा, तो नौ सौ का काम लूंगा ही। यह सरकारी नौकरी तो है नहीं कि...’’

 ‘‘फिर भी..’’

  ‘‘बस, दुकान का हिसाब-किताब बनाना है और शाम को दो-ढाई घंटे काउंटर पर खड़े होकर, ग्राहकों क्राॅकरी दिखानी है और उनकी जेब से पैसे निकलवा कर मेरी जेब में डालने हैं। भई, तुम बी0 एस0 सी0 हो, मेरे कोई लेबार्टरी तो है नहीं, जहां तुम्हें खड़े कर सकूं।’’

  ख़ैर, वह काम सीखने लगा। सभी रजिस्टर और कैशबुक का काम उसे बहुत जल्द समझ में आ गया। मगर मैंने महसूस किया, कि काउंटर पर खड़े उसे कुछ परेशानी हो रही है। सोचा, थोड़ा शर्मिला है दो-चार दिन में ठीक हो जायेगा।

  एक दिन, वह किसी ग्राहक को लेमनसेट दिखा रहा था। अचानक फ़र्श पर, कांच के टूटकर बिखरने की आवाज़ सुनकर मैं चैंका। दुकान पर, उस तरह का एक ही सेट था। मुझे बेहद अफ़सोस हुआ। उससे भी बढ़कर अफ़सोस इस बात का था, कि उसका कहना था, गिलास ग्राहक के हाथ से छूटा है और ग्राहक इसका उल्ट बता रहा था। जो भी था, नुकसान मेरा हुआ था। और मुझे बुरी तरह ताव आ रहा था। ग्राहक के जाते ही, मैंने आदतन, उसकी तबीयत हरी कर दी।

 लताड़ खाकर वह काफी सुस्त हो गया था। कुछ देर बाद मेरा पारा उतरा, तो मैंने उसे पास बुलाया और सस्नेह दुकानदारी की दो-एक बातें समझाने के बाद कहा, मेरी बात का बुरा मत माना करो, मेरे दिल में कुछ नहीं है।’’

  वह संतुष्ट हो गया। मैंने भी सोच लिया, लड़का भावुक है, ज़रा-सी बात का भी बुरा मान जाता है। मगर मेरी तरह शायद वह भी दिल का बुरा नहीं।

  किन्तु कुछ ही दिन बाद, एक अठारह-उन्नीस साल की गोरी-सी लड़की दुकान पर आई और उससे हंस-हंस कर बातें करने लगी। उसे क्रॉकरी खरीदनी थी इसलिये मुझे, उनकी जान-पहचान या हंसी पर कोई आपत्ति न थी। किन्तु जैसे ही वह क्रॉकरी का बंधा पैकेट संभाल दुकान से बाहर हुई, मैंने श्रीमान जी को दबोच लिया।

 ‘‘यह घाटे का सौदा किस खुशी में तय किया?’’

 ‘‘मेरे चाचा की लड़की थी।’’

 चचा की थी या मामा की, थूक तो मुझे लगा गई?

‘‘आप मेरे वेतन से काट लीजियेगा।’’

 ‘‘क्या कहा?’’

  मेरे लिये इतना पर्याप्त था। मेरा अपना लड़का होता, तो ऐसी बात कहने पर मैं मुक्के मार-मारकर उसकी पीठ तोड़ डालता। इसकी यह मजाल, कि मेरे सामने ऐसी बात कह जाये। उठा कर अभी दुकान से बाहर दे मारूंगा। समझता क्या है आपने को।

  तब मैं पिल ही पड़ा उस पर। बच्चू को दिन में ही तारे नज़र आ गये। उसकी आंखों में लगातार आंसू बह रहे थे। मुझे पछतावा हो रहा था, मैं क्यों इस तरह बेकाबू हो जाता हूं। डाक्टरों ने कितना समझाया है! खाने-पीने के कितने परहेज़ बताये हैं। जिनको मैं कभी नहीं भूलता। मगर यह दूसरा परहेज़, इस पर तो मैं बिल्कुल ध्यान नहीं दे पाता। डाक्टर कहता है, ऐसी हालत में कभी कुछ भी हो सकता है। मगर अपने इस स्वभाव का क्या करूं? पता ही नहीं चलता, अचानक क्या हो जाता है।

  उसकी आंखें अब खुश्क थीं। किन्तु अभी तक उनमें गहरी उदासी मौजूद थी। मैंने उसे पास बुलाया और समझाया, ‘‘तुम मेरे बेटे जैसे हो। मैंने तुम्हें पहले भी बताया था, मेरी बात का बुरा नहीं मानना चाहिये। तुम मुझे समझने की कोशिश करो। तुम तो पढ़े-लिखे हो। सब कुछ समझ सकते हो। मैं ज़बान का थोड़ा सख्त हूं। मगर इतना बता दूं, कि जो लोग जबान के मीठे होते हैं, वे भीतर से तेज़ छुरी होते हैं। समझ गये न?’’

   वह कुछ नहीं बोला, जैसे मुझे एक अवसर और देना चाहता हो। मैंने भी सोच लिया, आगे के लिये अपना क्रोध अन्य दो सैल्समैंनों पर निकाल लिया करूंगा। वे दोनों समझदार हैं। मेरी किसी भी बात का बुरा नहीं मानते। इसीलिये मज़े भी उड़ा रहे हैं। इसे कुछ भी नहीं कहा करूंगा। भले ही यह काउंटर पर कुछ ख़ास योग्य सिद्व नहीं हुआ। मगर हिसाब-किताब में काफी माहिर है। इसके यहां होते, सैल्सटैक्स और इन्कमटैक्स का कोई लफड़ा नहीं हो सकता।

   मगर थोड़े ही दिन बाद की बात है। दुकान पर एक अन्य लड़की आई। काफी गम्भीर लग रही थी। एक मिनट, दोनों के बीच धीरे-धीरे कुछ बात हुई। फिर पांच मिनट की छुट्टी लेकर, वह उस लड़की के साथ चला गया और लौटा पूरे चालीस मिनट बाद।

 ‘‘चली गई वह लड़की?’’ मैंने पूछा।

 ‘‘जी’’, उसने बिना मेरी ओर देखे सपाट-सा उत्तर दिया।

मैंने सोचा, छोड़ो, क्यों बात बढ़ाई जाये। किन्तु दो दिन बाद वही लड़की फिर चली आई। उसी तरह धीरे-धीरे बात हुई और अभी आ रहा हूं कहकर वह उसके साथ चला गया और काफी देर बाद लौटा।

आज भी वह पच्चीस मिनट बाद लौटा था, मैं देखते ही भड़क उठा।

‘‘यह अब हर रोज यहां आया करेगी?’’

‘‘जी?’’ वह तनिक गुर्राया।

‘‘जी क्या! यह दुकानदारी का टाइम है, या लड़कियों को बाज़ार घुमाने का?’’

उसके बाद कुछ याद नहीं, मैं क्या-क्या बोल गया। वह सुनता रहा। किन्तु इस बार वह रोया नहीं, बल्कि ग़ौर से मेरी ओर देखता रहा।

कुछ देर बाद मैं नार्मल हुआ। एक गिलास पानी पिया। चार चाय मंगवाई। एक स्वयं ली अन्य तीनों सैल्समैनों के पास पहुंच गई।

देखा, चाय उसके सामने पड़ी है और वह कुछ सोच रहा है। पूछा, ‘चाय क्यों नहीं पीते?’

उत्तर में वह मुस्करा दिया।

दुकान बढ़ाते हुए देखा, वह बेहद गम्भीर है

मैंने कहा, ‘‘सुनो’’।

‘‘जी’’

‘‘आज मैं तुम्हें बहुत कुछ कह गया। मुझे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये थी। बहुत चाहता हूं, ऐसा न किया करूं। मगर पता नहीं, इच्छा के विरूद्व ज़रा-सी बात हो जाने पर मुझे क्या हो जाता है। मेरी इसी आदत की वजह से, मेरे दोनों लड़के और बहुएं, अपने बच्चों सहित अलग मकानों में रहने लगे हैं। पत्नी कभी मेरे पास आती है, तो कभी लड़-झगड़ कर बच्चों के पास चली जाती है। मगर तुम तो बहुत अच्छे लड़के हो। कोई बात दिल पर मत लाया करो। मैं स्पष्टवादी हूं, मगर भीतर से....’’

वह कहक़हा लगा कर हंसा और फिर पहले की तरह गम्भीर हो गया।

   अकस्मात ही वह निर्मम होकर बोला, ‘‘ठीक से सुन लीजिये मुझे स्पष्टवादी लोगों से सख्त नफरत है। आदमी, जो दूसरों के प्रति अपना व्यवहार ठीक न रख सके, वह आदमी नहीं पशु है। आप बार-बार दिल का रोना क्यों रोते रहते हैं? आपके दिल का किसी को क्या करना है?’’

‘‘यह तुम क्या कहे जा रहे हो!’’ मुझे जैसे अपने कानों पर विश्वास नहीें हो पा रहा था।

‘‘वही, जो बहुत पहले कह देना चाहिये था। मैं जा रहा हूं। मेरे जितने पैसे आपकी और निकलते हों, उनसे आंवले का मुरब्बा खरीद, उसे चांदी के वर्क लगाकर खाइयेगा, ताकि आपकी यह दिल नाम की चीज़, और भी मज़बूत और मुकम्मल बन जाये!’’

  वह चला गया। कोई अन्य सैल्समैन मुझे मिल ही जायेगा। किन्तु सोचता हूं, यह व्यक्ति, जो किसी की मामूली-सी बात भी सहन करने में असमर्थ है, जीवन में मेरी ही तरह धक्के खायेगा।                           

Friday, March 24, 2017

गरीब का नंगापन उसकी आर्थिक दरिद्रता है तो अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता

पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ-साथ अध्‍ययन-अध्यापन के क्षेत्र से जुड़ी गीता दूबे मूलत: कवि हैं। कोलकाता के साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी बेबाक आलोचनाओं के साथ सक्रिय रहने वाली गीता दूबे, प्रगतिशील लेखक संघ (हिन्दी इकाई) कोलकाता की सचिव भी हैं। अपनी बातों को साफ तरह से रखने का बौद्धिक साहस गीता दूबे के लेखन की ही नहीं, व्‍यवहार की भी एक विशेषता है। रचनाओं को प्रकाशन के लिए भेजने का संकोच गीता दूबे के भीतर मौजूद आलसपन को भी दिखाता है। कई बार के आग्रह के बाद गीता दूबे ने अपने मन से ‘आपहुदरी’ पर लिखी समीक्षात्माक टिप्पणी भेजकर इस ब्लाग को अनुग्रहित किया है। इस आशय के साथ कि आगे भी उनके सहयोग से यह ब्लाग आगे भी समृद्ध होता रहेगा, उनकी लिखी समीक्षा प्रस्तुत है। हमें उम्मीद है कि गीता दूबे की बेबाक समीक्षा पर पाठकों की बेबाक राय भी इस ब्लाग को समृद्ध करेंगी। 

वि.गौ.

'आपहुदरी' (रमणिका गुप्ता की आत्मकथा) के हवाले से


गीता दूबे 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी चाहिए लेकिन फिलहाल कुछ बातें मैं 'आपहुदरी' के बहाने स्त्री आत्मकथाओं पर करना चाहती हूं। 

इस समय आत्मकथाएं खूब लिखी जा रही हैं और उनके प्रकाशन के साथ साथ विवाद भी चलते रहते है। शायद ही कोई आत्मकथा ऐसी होगी जिसके प्रकाशन के बाद बहस का तूफान न उठा हो या आरोपों प्रत्यारोपों के दौर न चले हों। सवाल यह है कि आत्मकथाएं क्यों लिखी जानी चाहिए ? आत्मकथाओं का उद्देश्य किसी रचनाकार के सिर्फ और सिर्फ व्यक्तिगत अनुभवों से रूबरू करवाना ही है या तत्कालीन इतिहास की अनुगूंज भी उसमें सुनाई देनी चाहिए। इस संदर्भ में गांधी और नेहरू द्वारा लिखित आत्मकथाओं का जिक्र जरूरी है जिनमें सिर्फ उनके निजी अनुभव ही नहीं हैं बल्कि उनके समय का इतिहास भी झांकता है। कुछ वर्षों पूर्व प्रकाशित कुलदीप नैय्यर की आत्मकथा भी कई मायने में इतिहास की तरह पढ़ी और संजोई जा सकती है। स्त्री आत्मकथाओं के संदर्भ में बात करें तो पहले पहल जब स्त्रियों ने अपनी कहानी अपनी जुबानी सुनाने का फैसला किया तो लोगों को यह सहज उत्सुकता हुई कि ये औरतें भला कहना क्या चाहती हैं ? और कहेंगी भी तो आखिर क्या वही घर गृहस्थी के घरेलू किस्से और कहानियां। रही बात उनके सामाजिक अवदान या भूमिका की तो वह तो साहित्य में कहा और लिखा ही जा रहा है।पुरूष रचनाकार बड़े अनुग्रहपूर्ण ढंग से भारतीय स्त्रियों के त्याग और बलिदान को महिमामंडित करते हुए यदा कदा उनके दुख दर्द, शोषण और संघर्ष को भी वाणी दे ही रहे थे। लेकिन इसके बावजूद स्त्रियों ने तय किया कि अपने देखे और भोगे यथार्थ को वह खुद पूरी प्रामाणिकता से पाठकों के सामने रखेंगी। हालांकि प्रेमचंद द्वारा संपादित हंस के आत्मकथा विशेषांक में यशोदा देवी और शिवरानी देवी के आत्मकथ्य प्रकाशित हो चुके थे लेकिन पुस्तकाकार रूप में प्रतिभा अग्रवाल की दो खंडों में प्रकाशित आत्मकथा 'दस्तक जिन्दगी की' (1990) और मोड़ जिन्दगी का(1996) से स्त्री आत्मकथा लेखन की शुरुआत हुई । इसी क्रम में क्रमश: 'जो कहा नहीं गया'(1996) कुसुम अंसल, 'लगता नहीं है दिल मेरा'(1997) कृष्णा अग्निहोत्री, 'बूंद बावड़ी' (1999) पद्या सचदेव, 'कस्तूरी कुण्डल बसै'(2002)मैत्रेयी पुष्पा आदि ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। चंद्रकिरण सौनरेक्सा की 'पिंजरे की मैना' (2005) छपकर आई तो पाठकों ने उसे हाथों हाथ लिया क्योंकि पराधीनता की जंजीरों में जकड़ी नारी की मुक्ति कामना के साथ ही उसकी पीड़ा और संघर्ष को लेखिका ने बड़ी शिद्दत से उकेरा था। जानकी देवी बजाज की 'मेरी जीवन यात्रा'(2006) में मारवाड़ी परिवार की स्त्रियों का जीवन ही नहीं वर्णित हुआ बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के कई कोलाज भी बड़ी ईमानदारी से अंकित हुए हैं। मन्नू भंडारी की 'एक कहानी यह भी'(2007) , प्रभा खेतान की 'अन्यार से अनन्या'(2007) मैत्रेयी पुष्पा की 'गुड़िया भीतर गुड़िया'(2008), कृष्णा अग्निहोत्री 'और और औरत' (2010) इस सिलसिले की अगली कड़ियां थीं। इसे उर्मिला पंवार के 'आयदान' (2003) कौशल्या बैसंत्री के 'दोहरा अभिशाप' (2009) और सुशीला टांकभौरे के 'शिकंजे का दर्द' (2011) ने एक नया आयाम दिया। 

आज का समय साहित्य के क्षेत्र में विस्फोट के साथ साथ सनसनी का भी समय है। अधिकांश रचनाकार शायद इसलिए लिख रहे हैं कि छपते ही छा जाएं। न भी छाएं तो एक सनसनी जरूर पैदा कर दें। सुजाता चौहान लिखित 'पतनशील पत्नियों के नोट्स' या फिर क्षितिज राय लिखित 'गंदी बात' जैसे किताबों ने इस क्षेत्र में नयी धारा का सूत्रपात किया है। अब यह धारा कितनी दूर जाएगी और इसमें क्या क्या बहेगा या बचेगा ,यह मुद्दा गौरतलब है और इस पर बहस जरूर होनी
अब बात करना चाहूंगी 2016 में सामयिक प्रकाशन से प्रकाशित रमणिका गुप्ता की आत्मकथा 'आपहुदरी' की । चूंकि यह शब्द पंजाबी भाषा का है संभवत इसी लिए नीचे एक पंक्ति में इसका आशय भी भी साफ कर दिया गया है , एक जिद्दी लड़की की आत्मकथा'। यहां यह बताना जरूरी है कि इसके पहले रमणिका अपनी एक और आत्मकथा 'हादसे'(2005) लिख चुकी हैं जिसमें मजदूर नेता के रूप में उनके एक्टिविस्ट और उसके साथ राजनीतिक जीवन की झलक मिलती है और उसे पढ़कर पाठक उनके जुझारू व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । उनके जीवन संघर्ष से उपजा यथार्थ , उनकी स्त्रीवादी विचार धारा और बेबाक व्यक्तित्व पाठकों के मन पर निस्संदेह गहरी छाप छोड़ता है। उनके निष्कर्षों से सहमत भी होता है कि, " पुरूष नारी को उसी हालत में बर्दाश्त करता है जब उसे यकीन हो जाए कि वह पूरी तरह उसी पर आश्रित है और खुद कोई निर्णय नहीं ले सकती या वह स्वयं उस औरत से डरने लगे तो उसे सहता है।" चूंकि इस आत्मकथा में उनके व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों को अभिव्यक्ति नहीं मिली थी शायद इसी वजह से उन्होंने 'आपहुदरी' रचना की। किताब के फ्लैप पर लिखी घोषणा बरबस ध्यान खींचती है, "विविधता भरे अनुभवों की धनी रमणिका गुप्ता की आत्मकथा की यह दूसरी कड़ी 'आपहुदरी' एक बेहद पठनीय आत्मकथा है।उनकी आत्मकथा की पहली कड़ी हादसे से कई अर्थों में अलग है। सच कहें, तो यही है उनकी असल आत्मकथा....।" जाहिर है कि इस घोषणा से आकर्षित या प्रेरित होकर पाठक बड़े चाव से इस रचना से मुखातिब होता है कि उसे कुछ नया जानने या समझने को मिलेगा। निस्संदेह मिलता है । रमणिका या रमना या रम्मो के परिवार का संक्षिप्त इतिहास , देश- विभाजन के एक आध चित्र और मजदूर आंदोलन के साथ साथ भारतीय राजनीति की कुछ झलकियां भी। पर सबसे अधिक पन्ने इस जिद्दी लड़की ( ?) ने अपनी प्रेमकथा के वर्णन में खर्च किए हैं। बचपन में हुए यौन शोषण और परिवार वालों द्वारा की गयी अपनी उपेक्षा के कारण वह आजीवन प्रेम की तलाश में भटकती रही और यौनेच्छाओं की पूर्ति के साथ साथ अपने विलास पूर्ण जीवन के खर्चों को पूरा करने के लिए वह लगातार एक के बाद एक साथी बदलती रहीं। रमणिका की तारीफ इस बात के लिए तो होनी ही जानी चाहिए कि वह अपने इन भटकावों , विचलनों को ईमानदारी से स्वीकारती हैं और बिना किसी अफसोस के लिखती हैं, "पीछे मुड़कर देखती हूं तो महसूस होता है, मैंने जिंदगी को भरपूर जिया। तुमुल कोलाहल के बीच भी मैंने अपने मन को कभी बनवास नहीं दिया।मेरी प्रेम यात्राएं कभी रुकी नहीं।.... कुछ ग्रंथियां और कुछ हादसे मेरे अंतर्मन में ऐसे पैठ गये थे कि मैं उनसे उबर नहीं पा रही थी। उनसे पीछा छुड़ाने के लिए मैं रास्ते तलाशने लगी और रास्ते की खोज में मैंने तय कर डाली कई यात्राएं।.....कितनी यात्राएं गिनाऊं।" इसके आगे वह लिखती हैं, "कई सच्चे और वक्ती मित्र आए और गये पर मेरी यात्रा जारी रही। दर असल तब तक मैं यह समझ न पाई थी कि यह जद्दोजहद मेरी अस्मिता की ललक का अंग है।.... बहुत बाद में मुझे स्त्री की अलग पहचान का विमर्श समझ में आया।" मेरी दिक्कत यहीं से शुरू होती है जब रमणिका अपनी यौनाकांक्षा को स्त्री मुक्ति के साथ जोड़कर देह विमर्श को ही स्त्री विमर्श के रूप में स्थापित करना चाहती हैं। स्त्री मुक्ति के साथ साथ देह पर उसके अधिकार की बात तो उठती रहती है पर जहां देह ही मुख्य हो जाती है और बाकी चीजें गौण तो माफ कीजिएगा इस मुक्ति से स्त्री हो पुरूष दोनों अर्थात् पूरे देश और समाज की भी कोई बहुत ज्यादा तरक्की होनेवाली नहीं। और डर इस बात कार्यक्रम भी है कि इस देह विमर्श की आंधी में स्त्री विमर्श के जरूरी मुद्दे कहीं उड़ न जाएं। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात जो मेरी समझ में आती है कि आत्मकथा लेखन सच में जोखिम और साहसभरा काम है क्योंकि खुद को लोगों के बीच उघाड़ने और उधेड़ने के लिए साहस की जरूरत तो पड़ती ही है पर जब इसमें सनसनी वाला तत्व भी जुड़ जाता है तो यह जोखिम मजे या प्रचार के लिए उठाए जोखिम में जरूर बदल जाता है । और साहित्य या समाज के लिए यह स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती है। एक गरीब का नंगापन जहां उसकी आर्थिक दरिद्रता को दर्शाता है तो वहीं अमीर का नंगापन उसकी प्रदर्शन प्रियता या फैशन को। रमणिका ने जिस तरह से रस लेते हुए अपने प्रेम प्रसंगों या देह गाथा को उकेरा है उसे प्रेम कथा के रूप में तो पढ़ा जा सकता है पर उसे स्त्री मुक्ति का आख्यान मानने में मुझे आपत्ति है। कुछ पाठकों को इस तरह की कथा में रस भले ही मिले पर सिर्फ और सिर्फ यही पढ़ना हो तो इस विषय पर प्रचुर साहित्य सहज ही उपलब्ध है। आश्चर्य होता है कि देह की भूख क्या इतनी प्रबल है कि ट्रेन में सफर के दौरान एक अजनबी के साथ भी बड़ी सहजता से निसंकोच उसे तृप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही एक ही समय में एकाधिक साथियों के साथ अपने संबंधों को भी लेखिका ने गर्व के साथ स्वीकारा है। लगता है लेखिका सिर्फ देह का उत्सव मनाते हुए , उसे गरिमा मंडित करते हुए हर हाल में सही ठहराना चाहती हैं। हालांकि अपनी कमजोरियों को रमणिका सहज भाव से स्वीकारती हैं, " सत्य तो यह है कि मुझे खुद ही खुद से मुक्त होना है । मैं अपनी ही कमजोरी काम शिकार होकर फिसल जाती रही हूं ।जिन कमजोरियों के खिलाफ मैं झंडा बुलंद करती रही, उन्हीं कार्यक्रम शिकार मैं खुद होती रही। पुरुष मेरी ग्रंथि है।औरत को खुद अपने को ही मुक्त करना है पुरुष ग्रंथि से।" पता नहीं लेखिका इस ग्रंथि से मुक्त हो पायीं या नहीं पर अपनी प्रेम कथाओं के साथ साथ उन्होंने अपने पारिवारिक सदस्यों की कथाओं का भी खुलकर वर्णन किया है। ऐसा लगता है कि संसार की एकमात्र सच्चाई देह ही है और दैहिक तृप्ति ही वास्तविक तृप्ति है। 

ईमानदारी से कहना चाहती हूं कि रमणिका की यह आत्मकथा पढ़ते हुए मुझे तसलीमा याद आती रहीं जिन्होंने 'द्विखंडित' (2004) में अपने पुरुष मित्रों के साथ अपने संबंधों को खुल कर स्वीकारा था और यौन प्रसंगों का सतही और उत्तेजक वर्णन भी किया था। और शायद उसपर लगे बैन और विवादों के कारण लोगों ने उसे खूब पढ़ा भी था पर पसंद शायद ही किया था। और एक किताब का नाम लेना चाहूंगी वैशाली हलदणकर की 'बारबाला' (2009)। उसमें भी ऐसे प्रसंग भरे पड़े हैं। प्रश्न यह भी है कि ऐसी आत्मकथाएं क्या सिर्फ इसीलिए पढ़ी जानी चाहिए कि इनमें यथार्थ के नाम पर मुक्त यौन चित्र हैं भले ही इनसे स्त्री मुक्ति की रूपरेखा बने या न बने । या फिर इससे किसी को प्रेरणा मिले न मिले। एक जिद्दी लड़की क्या सिर्फ पैसों , शोहरत, ऐशो आराम या सत्ता के गलियारे में पैठ बनाने के लिए अपने शरीर को इस्तेमाल करने में ही अपनी जिद और स्वाभिमान की इंतहा मानती है ? उसका स्वाभिमान क्या छोटे छोटे सुखों पर न्योछावर किया जा सकता है,? क्या पेट की भूख और शरीर की भूख में कोई अंतर नहीं है ? और इस भूख की आग में रिश्ते नाते भी जला दिए जाएं ? आखिर हमें कहीं तो रुकना पड़ेगा, या इस भूख या छद्म मुक्ति की तलाश में हम यूं ही भटकते रहेंगे ? इस तरह के कई सवाल इस आत्मकथा को पढ़ते हुए मन में उपजते हैं। सच में अगर स्त्री का संघर्ष और उसकी उपलब्धियों से रूबरू होना ही है तो क्यों न हम एक विकलांग पर जुझारू महिला नसीमा हुरजूक की आत्मकथा 'कुर्सी पहियों वाली' (2010) जैसी किताब पढ़े जो पूरे समाज को उद्वेलित ही नहीं प्रेरित भी करती हैं। और अगर देह गाथा ही पढ़नी है तो उसके लिए एक दूसरी तरह काम साहित्य सहज ही उपलब्ध है।

Monday, March 21, 2016

वह तो एक नन्हा कैक्टस है, जड़े जिसकी हैं सबसे लम्बी

क्‍या कभी लौटा लेकर दिशा मैदान जा‍ती स्‍त्री का चित्र बनाया है किसी चित्रकार ने ? हिन्‍दी की दुनिया में ऐसे प्रश्‍न अल्‍पना मिश्र की कहानी में उठे हैं।
ऐसे प्रश्‍नों की गहराईयों में उतरे तो कहा जा सकता है कि ये प्रश्‍न स्‍त्री को मनुष्‍य मानने और तमाम मानवीय कार्यव्‍यापार के बीच उसकी उपस्थिति को दर्ज करने के आग्रह हैं। नील कमल की कविता ‘’कितना बड़ा है स्‍त्री की देह का भूगोल’ ऐसे ही प्रश्‍न को अपने अंदाज में उठाती है। पहाड़, पठार, नदी, रेगिस्‍तान, भौगोलिक विन्‍यास की ऊंचाईयों वाले उभार, या झील सी गहराइयों वाली नमी के ऐसे यथार्थ हैं जिनकी उपस्थितियों का असर भूगोल विशेष के भीतर निवास करने वाले व्‍यक्ति के व्‍यक्तित्‍व को आकार देने में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन उन प्रभावों को नापने का कोई यंत्र शायद मौजूद नहीं। यदि ऐसा कोई यंत्र हो भी तो क्‍या अनुमान किया जा सकता है कि लैंगिक अनुपात का ऐसा कोई ब्‍यौरा प्राथमिकता में शामिल होगा, जिसमें स्‍त्री मन की आद्रता, तापमान और रोज के हिसाब से टूटती आपादओं के असर में क्षत विक्षत होती उसकी देह के आंकड़े होंगे ? यह सवाल निश्चित ही उन स्थितियों को याद करते हुए जहां स्‍त्री जीवन को इस इस स्‍तर पर न समझने की तथ्‍यता मौजूद है। पृथ्‍वी की ऊंचाईयों वाले उभारों, या झील की गहराइयों वाली नमी पर तैरने वाले भावों से भरी काव्‍य अभिव्‍यक्तियों के बरक्‍स नील की कविता सीधे-सीधे सवाल करती है- बताओ लिखी क्‍यों नहीं गई कोई महान  कविता/ अब तक उसकी एडि़यों की फटी बिवाइयों पर।‘’
विज्ञान के अध्‍येता नील कमल के यहां सीली हुई दीवार को सफेद धूप सा  खिला देने वाला भीगा हुआ चूना नरेश सक्‍सेना की कविता के क‍लीदार चूने से थोड़ा अलग रंग दे देता है। उसकी खास वजह है कि शुद्ध तकनीकी गतिविधियों को कहन के अंदाज में शामिल करके शुरू होती नील की कविता बस शुरूआती इशारों के साथ ही तुरन्‍त आत्‍मीय दुनिया में प्रवेश कर जाना चाहती है। सामाजिक विसंगतियों की घिचर-पिचर में अट कर रास्‍तों को तलाशने की मंशा संजोये रहती है। लेकिन कई बार प्रार्थना के ये स्‍वर भाषा के उस सीमान्‍त पर होते हैं जहां इच्‍छायें बहुत वाचाल हो जाना चाहती हैं। वे जरूरी सवाल जिन्‍हें हर भाषा की कविता ने अपने अपने तरह से उठाने  की अनेकों कोशिशें की हैं, लेकिन तब भी जिन्‍हें अंतिम मुकाम तक पहुंची हुई दुनिया का हिस्‍सा होने के लिए बार बार दर्ज किया जाना जरूरी है, अच्‍छी बात है कि नील की कविताओं के भी विषय है लेकिन उनका स्‍वर कहीं कहीं थोड़ा वाचाल है। यह आरोप नहीं बल्कि एक इशारा है, इसलिये कि नील कमल के यहां कविता के बीज अपनी धरती पर उगने की संभावना रखते हैं। सलाह के तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसी कवितायें जो काव्‍य-स्‍पेश तो कम क्रियेट कर रही हो और बयान ज्‍यादा हो जाना चाहती हों, उनसे बचा जाना चाहिए। यहां कविता में आ रही दुनिया और उन जरूरी मुद्दों से नाइतिफाकी न देखी जाये, क्‍योंकि जरूरी मुद्दों की तरह उन्‍हें पहले ही चिह्नित किया जा चुका है। स्‍पष्‍ट है कि उन जरूरी सवालों से टकराते हुए ही नया बिमब विधान रचते हुए किसी भी तरह की पुरनावृत्ति से बचा ही जाना चाहिये। फिर वह चाहे खुद की हो या अन्‍य प्रभावों की हो।  
रोमन लिपि के पच्‍चीसवें वर्ण का एक बिम्‍ब गुलेल से बन जाता है। तनी हुई विजयी प्रत्‍यंचा की धारों पर पांव बढ़ते जाते हैं। इस छवी के साथ एक उत्‍सुकता जागने लगती है। लेकिन निशाने पर  गोपियों की मटकी है। पके हुए आम के फल हैं। जबकि प्रत्‍यंचा के तनाव पर सारा आकाश आ सकता था। यदि ऐसा हुआ होता तो शायद तब इस खबर का कोई मायने नहीं रह जाता कि अपने निर्दोषपन की छवी में भी गुलेल बेहद खतरनाक हथियार है। रचना की प्रक्रिया को जानने की कोई मुक्‍कमल एवं वस्‍तुनिष्‍ठ  पद्धति होती तो जिस वक्‍त गुलेल एक बिम्‍ब के रूप में कवि के भीतर अटक गयी होगी, उसे जाना जा सकता था, कि उसके निशाने कहां सधे थे। कविता की अंतिम पंक्तियों में उसको खतरनाक बताने वाली खबर अनायास तो नहीं ही होगी। अनुमान लगाया जा सकता है कि उभरे हुए बिम्‍ब और कविता के उसके दर्ज होने में जरूर कहीं ऐसा अंतराल है जो कवि की पकड़ से शायद छूट रहा है। इस बात को तो कवि स्‍वंय जांच सकता है। यदि यह सत्‍य है तो कहा जा  सकता है कि कविता को लिखे जाने से पहले उस वक्‍त का इंतजार किया जाना था जहां फिर से वही स्थितियां और मन:स्थिति कवि की अभिव्‍यक्ति का सहारा बनना चाह रही होती। सामाजिक, सांस्‍कृतिक ओर मानसिक स्थितियों की ऐसी छवियां जो एक समय में कोंध कर कहीं लुक गयी हों, एक कवि को उन्‍हें पकड़ने के लिए फिर से इंतजार करना चाहिये। नील कमल की बहुत सी कविताओं में वह इंतजार न करना खल रहा है। जबकि नील की कविताओं का बिम्‍ब विधान अनूठे होने की हद तक मौलिक है। ‘पेड़ पर आधा अमरूद’, ‘पेड़ो के कपड़े बदलने का समय’, ‘‍स्‍त्री देह का भूगोल’, ‘ईश्‍वर के बारे में’ आदि ऐसी कवितायें है जिनमें नील जिन अवधारणाओं के साथ हैं, वे आशान्वित करती हैं। उनके सहारे कहा जा सकता है – हे ईश्‍वर ! तुम रहो अपने स्‍वर्ग में, तुम्‍हारा यहां कोई काम नहीं। मुसीबतों में फंसे होने पर सिर्फ ‘आह’ भर का नाम नहीं होना चाहिये ईश्‍वर। यहां-  पिता नाम है, इस पृथ्‍वी पर/दो पैरों पर चलते ईश्‍वर का। ईश्‍वर के बारे में रची गयी अवधारणाओं का यह ऐसा पाठ हे जो मुसिबत की हर कुंजी को अपने पास रखने वाली ताकत को ईश्‍वर के रूप में पहचान रही है।
भावुक मासूमियत से इतर नील कमल की कविताओं का मिजाज उसी तरह से तार्किक है जैसे कवि नरेश सक्‍सेना के यहां दिखायी देता है। वहां बहुत सी ऐसी धारणायें ध्‍वस्‍त होती हैं जो अतार्किक तरह से स्‍थापित होना चाहती है। सबसे गहरी जड़ो वाला पौधा  न तो बूढ़ा बरगद है न पीपल, बल्कि वह तो एक नन्‍हा कैक्‍टस है जिसकी जड़ें धरती में उस गहराई तक उतरती हैं, पानी की बूंद होने की संभावाना जहां मौजूद हो। धरती की अपनी सतह पर के सूखे के विरूद्ध हार कर पस्‍त नहीं हो जाना चाहती। कई कवितायें इतनी सहज होकर सामने आती हैं कि हैरान कर देती। जीवन के जाहिल गणित को सुलझाने में नील की कवितायें न भूलने  वाली कवितायें हैं। अपनी पंक्तियों को वे सह्रदय पाठक के भीतर जिन्‍दा किये रहती है। दो को पहाड़ा दोहराने के लिए उन्‍हें ताउम्र भी याद रखा जा सकता है।    
- विजय गौड़