कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति
कौन जानता है कि
कब किसका हंसना, बोलना, उठना, बैठना, रूठना, मनाना जैसा तात्कालिक भाव, भविष्य
में जिक्र के साथ व्यक्तित्व का स्थायी मामला जैसा दिखने लगे। घीसू, माधव भी
कहां जानते थे कि उनकी हरकतें इतिहास की किसी ऐसी कथा का हिस्सा हो जाएंगी जिसमें
हिंदी का दलित साहित्य जन्म लेगा। मैं कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी के पात्र
घीसू, माधव की बात नहीं कर रहा। अपने ही तरह के उन दो इंसानों की बात कर रहा जिनके
भोलेपन में भी कितनी ही गंभीर हरकतें शामिल रहती थी। शाम होते ही जिन्हें
कुलबुलाने का रोग था और अपनी उस कुलबुलाहट में ही अक्सर वे गैरजिम्मेदार नजर आने
लगते है। रहे होंगे कभी हरजीत और अवधेश बहुत करीब। रहा होगा कभी अरविन्द इस
तिकड़ी का एकमात्र संयोजक। पर उस वक्त तो जो जोड़ी सबसे ज्यादा अराजक कहलायी जा
रही थी वह अवधेश जी और नवीन भाई की थी। ऐसे ही तो नहीं पडा था दोनों का नाम
घीसू-माधव। पर कौन घीसू, और कौन माधव ? इस
प्रश्न से कभी कोई नहीं उलझा। आप भी तो नहीं उलझे न भाई साहब (वाल्मीकि जी) ।
याद होगा आपको एक दिन पहले ही टिप-टॉप की बैठक में
घीसू-माधव ने सूचना दे दी थी कि आने वाले कल की शाम सारे ‘टंटे’ टिप-टॉप में जमा
हों। याद नहीं आ रहा कि किसी भी बात को पोस्टर बनाकर टांग देने वाले हरजीत ने ऐसी
कोई सूचना सार्वजनिक कर दी थी या नहीं कि ‘हंस’ संपादक राजेन्द्र यादव, कथाकार
गिररिराज किशोर और प्रियवंद को ऋषिकेश आना है। प्रियवंद जी शायद कोई मकान खरीदना
चाहते थे ऋषिकेश में । वह मकान शायद लेखक गीतेश शर्मा जी का था, जो कलकत्ता में
रहते थे। बहुत निश्चित होकर नहीं कह पा रहा कि मकान किसका था। पर सुना था कि वह
ऐसा मकान है जिसका मुंह गंगा की ओर खुलता है और प्रियवंद जी को संगमन के काम के
लिए उपयुक्त लगा है। मालूम नहीं उस मामले का क्या हुआ होगा। देहरादून में लिखने
पढ़ने वालों की जमात तीनों ही लेखकों के लेखन और नाम से परिचित थी लेकिन व्यक्तिगत
परिचय का दायरा घीसू और माधव का ही था। अवधेश एक स्थापित कवि थे। अज्ञेय जी के
द्वारा संपादित चौथे सप्तक के कवि और आर्टिस्ट के नाते उनका एक नाम था। पुरानी
पीढ़ी के सुभाष पंत जी के अलावा दून की नयी पीढ़ी में जितेन ठाकुर के बाद नवीन भाई
की कहानियां उस समय की दो स्थापित पत्रिकाओं ‘हंस’ एवं ‘सारिका’ में प्रकाशित होने लगी थी जिसके कारण नवीन जितेन जी
की तरह ही, अब कवि की बजाय कहानीकार नवीन नैथानी की पहचान को प्राप्त होने लगे
थे। ‘चढाई’ उनकी पहली कहानी थी जो संभवत: 1989 दिसम्बर के ‘हंस’ में छपी थी और ‘हंस’
के उस अंक की यादाश्त हम दूनवासियों के लिए ‘चढ़ाई’ की बजाय उसी अंक में प्रकाशित
आलोकधन्वा जी की कविताओं ‘पतंग’ और ‘भागी हुई लड़कियां’ ही रही। पूरे शहर के एक-एक
व्यक्ति को न जाने कितनी कितनी बार उन कविताओं को सुनना पड़ा। ‘हंस’ नवीन भाई के
थैले में होता था और मोका मिलते ही वे कविताएं पढ़ने लगते थे। यदि कविताओं के पाठ लयात्मक
आवाज में न किये गये होते तो स्पष्ट जानिये देहरादून का हर बाशिंदा उस कवि आलोकधन्वा
का दुश्मन हो गया होता जिसकी कविताओं को उन्हें सजा की हद तक सुनना पड़ रहा था।
यह कहना शायद अतिशयोक्ति न हो कि उन कतिवाओं के बाद हिन्दी की दुनिया में,
शुरूआत में कविताओं में और बाद में कहानियों में भी, जिस तेजी से भागती हुई
लड़कियां प्रवेश करने लगी, उसका कारण नवीन भाई के पाठ ही रहे होंगे। आलोक धन्वा
की उन कविताओं का स्वर- ‘आकाश का नरम और मुलायम बनाते हुए कि बांस की सबसे पतली
कमानी उड़ सके, दुनिया का सबसे पतसे पतला और रंगीन कागज उड़ सके और शुरू हो सके
रोटियों किलकारियों की एक नाजुक दुनिया’ उस समय तक ‘हंस’ में जारी ‘सेक्स और
जनवाद’ की बहस के लफंगेपन को भी भगा देने में प्रभावी हो रही थी। हालांकि आप भी
जानते हैं एक संस्थानिक प्रदूषण का मुकाबला कोई एक अकेली कविता कब तक कर सकती है।
‘हसं’ की लफंगई के प्रभाव तो इतने गहरे रहे कि चाचियों, मामियो, बहनों की छातियों
पर चढ़कर साइकिल चलाने वाली कहानियों से ही हिंदी कहानी को युवा मानने की प्रवृत्ति
ने जोर पकड़ा। यहां तक कि वैचारिक शालीनता का जामा पहनकर निकलने वाली ‘पहल’ भी
उसके प्रभाव से मुक्त नहीं रह सकी और अपना ऐसा युवा खोजने लगी जो रक्त संबंधों
से बचते हुए पड़ोस की आंटियों की बेटियों के भागने में स्त्री विमर्श का नया पाठ
रचे। ‘पहल’ के युवा के लिए जरूरी था कि अन्य युवाओं से हर मायने में जुदा हो और
उस जुदापन में ही ‘पहल’ अपने प्रभाव की वैचारिकता को विदेशी रचनाओं के अनुवाद वाली
उदारता में छुपा सकता था।