पूर्वी कुमांऊ तथा पश्चिमी
नेपाल की राजी जनजाति (वनरावतों) की बोली का अनुशीलन (अप्रकाशित शोध् प्रबंध) डॉ.
शोभाराम शर्मा का एक महत्वपूर्ण काम है। उत्तराखंड के पौड़ी-गढ़वाल के पतगांव में 6 जुलाई 1933 को जन्मे डॉ। शोभाराम शर्मा
1992 में राजकीय स्नाकोत्तर महाविद्यालय, बागेश्वर से हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। 50 के दशक में डा। शोभाराम शर्मा ने अपना पहला लघु उपन्यास
"धूमकेतु" लिखा था। पेशे से अध्यापक रहे डा.शर्मा ने अपनी रचनात्मकता का
ज्यादातर समय भाषाओं के अध्ययन में लगाया है। सामान्य हिंदी, मानक हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी मुहावरा कोश (दो भाग), वर्गीकृत हिंदी लोकोक्ति कोश (दो भाग) उनके इस काम के रूप में
समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं। पिछलों दिनों उन्होंने संघर्ष की ऊर्जा से
अनुप्राणित कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के अनुवाद भी किए जो जल्द ही प्रकाशन की
प्रक्रिया से गुजरकर पुस्तकाकार रूप में देखे जा सकेंगे। इसी कड़ी में "जब
व्हेल पलायन करते हैं" एक महत्वपूर्ण कृति है। इससे पूर्व 'क्रांतिदूत चे ग्वेरा" (चे ग्वेरा की डायरी पर आधरित जीवनी)
का हिन्दी अनुवाद, लेखन के प्रति डा.शोभाराम
शर्मा की प्रतिबद्धता को व्यापक हिन्दी समाज के बीच रखने में उल्लेखनीय रहा है।
इसके साथ-साथ डॉ. शोभाराम शर्मा ने ऐसी कहानियां लिखी हैं जिनमें उत्तराखंड का
जनजीवन और इस समाज के अंतर्विरोध् बहुत सहजता के साथ अपने ऐतिहासिक संदर्भों में
प्रस्तुत हुए हैं। उत्तराखंड की ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और सामंतवाद के विरोध् की परंपरा पर लिखी उनकी कहानियां
पाठकों में लोकप्रिय हैं। प्रस्तुत है उत्तराखण्ड के इतिहास की पृष्ठभूमि
पर डॉ
शोभाराम शर्मा द्वारा लिखी कहानी- तीलै धारो बोला s
s.. वि.गौ. |
इस कहानी में मौजूद स्थानीय शब्दों के अर्थ
तीलै धारो बोलाः तूने वचन रख
लिया
मकरैणः मकर संक्रांति
गड्वातः गाड़ यानी नदी तट पर
बहने वाली हवा
सेराः सिचिंत भूमि
बगड़ः पथरीला व रेतीला नदी तट
सिसूणः बिच्छू घास, गढ़वाली में इसे कंडाली कहा जाता है
टिमूरः एक कंटीला औषधीय वन्य
पौधा
डाँडीः दो वाहकों वाली शिविका
(पालकी)
दनः ऊनी कालीन का छोटा प्रकार
तीलूः राजा वीरमदेव की मामी
तिलोत्तमा
तुरंखः तुर्क
मालः भाबर
संख्या ढालः वाममार्गी भैरवी
चक्र में पंच मकारों का सेवन (संखिया यानी विष ढालना)
मामी तीलू तीलै धारो बोलाः सुना
है मामी तिलोत्तमा को तूने रख लिया ।
अणवाल- भेड़-बकरी चुगाने वाले
बोरा- कोथले बनाने वाली एक जाति
कोथले- भांग आदि के रेशों से
बनी बोरी
घराटः पनचक्की
धुनार-नदी पार करने वाली जाति
नाली- लगभग दो सेर का वजन
थुलमे- ओढ़ने का मोटा रजाई सा
ऊनी वस्त्र
चुटगे- ओढ़ने-बिछाने का एक उभरा
हुआ ऊनी वस्त्र
आलः शाखा
उड्यारः गुफा
औजीः दर्जी या वाद्य बजाने वाला
छोरा-छोरीः जूठन पर पलने वाले दास-दासियों
हुड़काः डमरू जैसा हाथ से बजाए
जाने वाला वाद्य
हुड़्क्या बौलः हुड़के की थाप
से के साथ रोपणी आदि का काम
बूढ़ाः मुखिया
बोक्साः बाघ का रूप धारण करने
वाला काल्पनिक तांत्रिक, एक जनजाति का
नाम भी
हथछीनाः ठंडे-मीठे पानी का वह
स्रोत , जहां से प्रजा
को राज-दरबार तक पानी ढोने की बेगार करनी पड़ती थी। लोक पंक्तिबद्ध होकर हाथों-हाथ
पानी पहुंचाने को मजबूर होते थे।
कैनीः बैटन के अनुसार
भू-स्वामियों के सेवक व डांडी बोकने वाले दास
हल्याः हल चलाने वाले कृषि दास
जूठन पर पलने वाली दास-दासियां
दाज्यूः बड़ा भाई
भाऊः छोटा भाई
कहानी
मकरैणी का पर्व दो दिन पहले आस-पास की पहाड़ियों पर भारी हिमपात हुआ था। सरयू
और गोमती की निचली घाटियों को छोड़ शेष सारा क्षेत्र जैसे सफेद चादर से ढक गया था।
बागेश्वर के दायें-बायें भीलेश्वर और नीलेश्वर की वर्फ तो गिरते ही पिघल गई थी, लेकिन भुरचुनियाधार के ऊपर
जौलकाण्डै और दूसरी ऊँची पहाड़ियां अभी भी बर्फ की चादर ओढ़े हुए थीं । सूर्यास्त
अभी दूर था। आसमान खुलने से पिघलती बर्फ की छुअन क्या पाई कि हाड़ कंपाती गड्वात
अपना असर दिखाने लगी थी। कठायतबाड़ा के नीचे सूरजकुण्ड पर एक छोटी-सी भीड़ जमा थी।
कुछ लोग अपने बालकों का मुण्डन संस्कार सम्पन्न कराने में संलग्न थे तो कुछ
कौतूहलवश संस्कार सम्पन्न होते देख रहे थे। अभी तक यहाँ के अधिकांश लोगों में
संस्कारों का प्रचलन आम नहीं हो पाया था। बाहर से आकर कुछ गिने-चुने ब्राह्मण और
राजपूत परिवारों तक ही संस्कारों का चलन सीमित था। तमाशबीन, छोटे-छोटे
बालकों को भेड़ों की तरह मुंडा देखकर मुस्करा रहे थे। पुरोहितों के मंत्रादि तो
उनकी समझ से बाहर थे, लेकिन घुटमुण्डे बालकों को काँपते
देखकर कुछ अच्छा भी नहीं लग रहा था भोथरे छुरे से छिल जाने के कारण जगह-जगह सिर पर
खून रिस आने का नजारा तो और भी अरुचिकर था सरयू के वर्फीले पानी से रोते-बिखलते
बच्चों को बलात् स्नान कराने का दृश्य तो पास खड़े बच्चों को भी बेचैन कर बैठा।
किसी ने उँगली पकड़े अपने बच्चे से कहा-"चलो तुम्हारा भी मुण्डन करा दें। और बालक
घबराकर सरयू के दूसरे किनारे मंडलसेरा की ओर भाग खड़ा हुआ, जहाँ गेहूँ, जौ और सरसों के नन्हें-नहें पौधे
खेतों को अपनी हरियाली में सराबोर कर रहे थे।
दुपहरी कब की ढल चुकी थी।
ठण्ड का प्रकोप बढ़ने लगा तो तमाशबीन ही नहीं, संस्कार
सम्पन्न कराने वाले लोग भी अपने-अपने पड़ावों की ओर लौट पड़े। पड़ावों में
जहाँ-तहाँ अलाव जलने लगे उधर संगम के मध्य खुले बगड़ में तीन-चार चिताएँ जल रही
थीं। चिताओं के अधजले कुन्दे इधर-उधर दूर-दूर तक बिखरे पड़े थे। अभी-अभी एक और शव
लेकर कुछ लोग संगम पर उतरे थे चिता चुनी जा रही थी और कुछ लोग सरयू पर बने कठपुल
से लकड़ी देने का अपना धर्म निभाने चले आ रहे थे। कुछ शोकार्थी फूल सिराने हेतु
चिता की आग शान्त होने के इन्तजार में पत्थरों पर बैठे जीवन-जगत की निस्सारता पर
बतिया रहे थे। ठीक वहीं पर गोमती की ओर श्मशान भैरव के एक छोटे से मन्दिर के आगे
सिद्धबाबा के नाम से प्रसिद्ध कराली नामक कापालिक धूनी रमाए था। मन्दिर के छोटे से
आंगन में सिसूण के आसन पर अधलेटा वह किसी की प्रतीक्षा
में था। मानव-अस्थियों के बीच नर-कपाल वाली माला दीवार के सहारे टिकी टिमूर की लाठी पर लटक रही थी। धूनी के दोनों ओर कराली की अपनी भैरवी और कुछ
शिष्य विराजमान थे। पीछे बाघनाथ के बड़े मन्दिर की ओर कुछ हलचल का आभास हुआ। एक
शिष्य ने उधर कान लगाकर कहा- “लगता है कत्यूरी-नरेश पहुँच गए हैं।”
'हुम' का गहरा घोष करते हुए कापालिक
भी उसी ओर घूरने लगा। इतने में कत्यूरी नरेश वीरमदेव हाथ में तलवार लिए सामने
प्रकट हुए। बाघनाथ मन्दिर के अहाते में डाँडी से उतरकर वे सीधे कापालिक के पास
पहुँचे थे दो-अंग-रक्षक भी साथ थे, लेकिन बीरमदेव के
इशारे पर वे वापस अहाते की ओर लौट गए। प्रणाम के प्रत्युत्तर में कापालिक ने 'जय भैरव' के गम्भीर घोष के साथ धूनी के पास
बिछे दन की ओर संकेत किया और वीरमदेव उस पर बैठ गए। ऊनी अँगरखा पहने हुए भी
वीरमदेव बर्फीली हवा के झोंकों से काँप-काँप उठता था। कापालिक ने अपनी लाल-लाल
आँखों से वीरमदेव की ओर घूरा और बोला-" विरमवा, अभी
तेरी साधना कच्ची है। कैसा काँप रहा है रे ! यहाँ देख, एक
लंगोट के अलावा कुछ भी तो नहीं, लेकिन मात्र भस्म पुते
इस शरीर को न शीत सालता है न ताप।”
"गुरुदेव, कहाँ आप और कहाँ मैं,
तन की तो चिन्ता नहीं, लेकिन जिस मनस्ताप से
गुजर रहा हूँ, उससे बच निकलने का कोई उपाय नहीं सूझता।''
“तभी तो कहता हूँ तेरी साधना कच्ची है। निर्मूल शंकाएँ कच्चे
साधक के मन में ही उपजती है। तीलू" के आत्मघात का प्रसंग तुझे खाए जा रहा है।
अरे, वह तो भगवान भैरव के ही इंगित पर तेरी भैरवी बनी।
उसने आत्महत्या कर ली। वह भी दैवी संकेत ही तो था। अगर यह सब नहीं होता तो क्या
तेरा मार्ग इतना निष्कंटक हो पाता? अभयपाल तो बहुत पहले
ही तेरे मार्ग से हट गया। कत्यूर छोड़ अस्कोट चला गया। यह सब भैरव की लीला है। जो
हुआ सो हुआ। सोच-सोच कर जी हलकान मत कर भगत। अरे हाँ, क्या
खेकदास मिला था ?”
“उसी ने तो बताया कि राजमाता अप्रसन्न हैं।”
-"अरे, वह पगली जिया ! हेदमी
तुरंख" की भैरवी बनने से तो बच गई. लेकिन उसका अब कत्यूर लौटना संभव नहीं।
हमारी भैरवी से पूछ देखो। इनके दिव्य-चक्षु तो भूत-भविष्य सभी कुछ देख लेते हैं
।"
संकेत पाकर एक ओर बैठी भैरवी ने कहा-“ बिरमू ! दुनिया में जो भी होता है, सब भगवान भैरव और भगवती के इंगित पर ही होता है। जिया को बचाने में
तुम्हारे मामा और भतीजा हंस कुँवर तुरंखों से लड़ते हुए चित्रशिला के पास मारे गए
ये तुम्हारे लिए संकट बन सकते थे। भैरव ने उन्हें ऊपर तीलू के पास ही पहुँचा दिया।
तुम भाग्य लेकर आए हो-यह मैं स्पष्ट देख रही हूँ। जिया तेरा मुँह नहीं देखना चाहती, लेकिन उसे क्या पता कि स्वयं उसके भाग्य में यहाँ लौटना नहीं लिखा है। वह
चौघाणपाटा से हर की पैडी और वहाँ से ज्योतिर्मठ के लिए प्रस्थान कर चुकी है। उसका
लाड़ला धामदेव तुरंखों का पीछा करता हुआ जंगलों की खाक छानता फिर रहा है। तेरा मुख
तो वह नहीं देखना चाहती पर संसार छोड़ने से पहले वह अपने लाड़ले का मुख भी नहीं
देख पाएगी। धामदेव भी अब कत्यूर नहीं लौट पाएगा। माल के
बीहड़ जंगल उसे निगल जाएँगे। पश्चिम की ओर गया है, समझ
लो डूबता सूरज है।“
भैरवी के कथन पर वीरमदेव को विश्वास-अविश्वास के झूले में झूलते देख कापालिक
कराली ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा-" सुना वीरमदेव ! ये सब तुम्हारे भाग्योदय के
लक्षण हैं। अब कत्यूरी सिंहासन किसी और की थाती नहीं, तेरा
अपना हो चुका है। हाँ, पिछले संख्याढाल में तूने वचन
दिया था, याद है ?"
“ क्यों नहीं गुरुदेव, लेकिन
राजगुरु, महामात्य और भीम कठायत जैसे सामन्त विरोध पर
उतर आए है वे नहीं चाहते कि बैजनाथ के राजमन्दिर किसी वाममार्गी साधक को सौंप दिए
जायें ।"
“शासक तुम हो या वे? समझ में नहीं
आता कि हमारा विरोध क्यों ? अरे ! वे जिस परम तत्व
को शिव-शक्ति के नाम से जानते हैं, हम उसी को
भैरव-भैरवी कहते हैं हाँ, विदूषक ब्राह्मणों का आडम्बर
हमें नहीं रुचता । मूढ़ परमतत्व की अनिवर्चनीयता से आक्रान्त मात्र रहते हैं और हम
इसी विग्रह में उसे आत्मसात कर लेते हैं। भैरवी-चक्र के तंत्र-विधान की सम्पूर्ति
में उसी अनिवर्चनीय परमतत्व की साक्षात् अनुभूति होती है। लौकिक जीवन में
भैरवी-चक्र की निरन्तर साधना सम्भव नहीं, इसीलिए हमने
संख्याढाल के रूप में उसे विशेष अवसरों पर करने की परम्परा डाली है। अब तो
गोरखपंथी कनफड़े भी इसके रंग में रंग चुके हैं।"
"लेकिन भैरवी ने
आत्महत्या क्यों की ? क्या उसे उस तत्व की अनुभूति
नहीं हो पाई ? अगर होती तो उसे लोकापवाद का भय
क्यों सताता? राजमहल की छत से लटक कर उसने अपनी जान दे
दी। मुझे ही नहीं, उसने तो पूरे कत्यूरी वंश को शाप
दिया है। लोग कहते हैं कि सती का शाप व्यर्थ नहीं जाता। क्या करूँ ? मेरी तो बुद्धि काम नहीं करती।”
"क्या कहा ? सती का शाप
मुझे तो तेरी बुद्धि पर तरस आता है। भैरवी-तंत्र का साधक सती-यती की थोथी धारणाओं
पर विश्वास करें, यह तो तर्कसंगत नहीं । वैसे भी भैरवी
बन चुकी सती, सती कहाँ रही। उसका शाप फले या न फले पर
भैरवी-चक्र की साधना पर तेरी शंका कहीं किसी बड़े अनर्थ का कारण न बने, क्यों भैरवी तुम्हें क्या लगता है ?”
कापालिक के इस प्रश्न के उत्तर में भैरवी ने सारा दोष वीरमदेव के सिर मढ दिया, बोली- “वह तेरी दुर्वलता थी बिरमू ! तू पशु का पशु ही बना रहा। उसके नारी-सुलभ
सौन्दर्य के वशीभूत होकर लौकिक वासना के पाप-पंक से मुक्त नहीं हो पाया भैरवी
इसीलिए तुझ पर कुपित हो बैठी। यह सब तेरी पाप-भावना और अविश्वास का ही परिणाम है।”
“हो सकता है, लेकिन मैं अब क्या करूं ?” वीरमदेव ने निराश होकर कहा।
“करना क्या है रे ! साधना में कमी रह गई तो उसे पूरा कर।
लोकापवाद का जो परिताप तुझे हैं, उसे बिल्कुल भूल जा।
हमारी साधना का मार्ग तो नदी-प्रवाह की उल्टी दिशा में तैरना जैसा है। लौकिक
यम-नियमों के खूँटे से सच्चे साधक नहीं बँधे रहते। हमारा मानना है कि हर पुरुष
भैरव है और हर स्त्री भैरवी। इस संख्याढाल के सम्पन्न होने पर तेरी साधना भी पूरी
हो जाएगी। लोक-निन्दा या लोक-स्तुति की दुर्बलता से तू भी ऊपर उठ जाएगा।”
उनमें यह वार्ता चल ही रही थी कि सरयू-पार से किसी कोकिल-कंठी का स्वर कानों
में पड़ा-‘ मामी तीलै
धारो बोला।’ सुनते ही वीरमदेव का मुरझाया मुख और भी
पीला पड़ गया, उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे गाया जा रहा हो ‘ मामी तीलै धारो बोला’ (कहते हैं कि तूने
अपनी मामी तीलू को रख लिया)। लेकिन कराली और भैरवी मुस्करा उठे। कराली हँसते हुए बोल उठा-“ हो गया रे, हो गया ! आज की भैरवी का चुनाव हो
गया।” और फिर पास बैठे एक चेले को निर्देश दिया-“बैताली, जाकर देख तो वह सौभाग्यवती कौन है, हाथ से न जाने पाए।”
निर्देशानुसार चेले ने टिमरू का डंडा हाथ में लेकर एक ओर प्रस्थान किया तो
दूसरी ओर से कत्यूरी सरदार पीथु गुंसाई एक व्यक्ति को पकड़ लाए। उसे वीरमदेव के
चरणों में पटककर बोले- “महाराज, हमने पटवास बनाने के लिए इनसे चटाइयों की माँग की, तो
यह विरोध पर उतर आया। यह नरसिंह दाणो है। दाणो लोगों का मुखिया।”
“अच्छा, तो चींटी के भी पर उग आए। क्यों
रे दाणो तेरा इतना साहस।” वीरमदेव गरजा ।
“महाराज, हमने एक-एक चटाई तो
खुशी-खुशी दे दी थी। लेकिन ये तो सारी चटाइयाँ ले जाने पर उतारू हो गए यह तो
अन्याय है महाराज। हम गरीबों के पेट पर तो लात न मारिएं। साल भर का गुड़, नमक और कपड़ा तो हम चटाइयों के बदले ही जुटा पाते हैं। हम पर दया कीजिए
महाराज।”
“नरसिंह की विनती के जवाब में तो तुम्हारी प्रकृति में ही है।
संख्याढाल साथ बाँध नहीं ले जाएँगे। अनुष्ठान खुले में तो हो नहीं सकता। इतनी सी
बात तुम्हारे भेजे में क्यों नहीं घुसती? ”
“ महाराज तो नहीं ले जाएँगे पर इनके लोग हमें हाथ भी लगाने
देंगे, मुझे तो विश्वास नहीं होता। जबर मारे और रोने भी
न दे, यह तो न्याय नहीं है महाराज।”
बार-बार न्याय-अन्याय की बात सुनकर वीरमदेव खीझ उठा। बोला- “न्याय-अन्याय की सीख हमें तुमसे
नहीं सीखनी है रे दाणो ! राजाज्ञा का उल्लंघन तुम्हारे सिर वज्र बनकर न गिरे, पहले इसकी चिन्ता कर।”
"लेकिन हमारी चटाइयाँ महाराज ! ”
"मूर्ख चटाइयाँ कोई चट नहीं कर जाएगा-मैंने कह दिया। जा, पटवास खड़ा करने में सहायता कर।”
कापालिक कंकाली बोल उठा-"दानव-वंशी है न ! धार्मिक अनुष्ठानों में विघ्न-बाधा डालना का अनुष्ठान
पूरा होने पर तुम अपनी चटाइयों वापस ले जा सकते हो।
नरसिंह दाणो सिर झुकाकर एक ओर बैठ गया । कापालिक कराली ने फिर पीथु गुसांई से
कहा- “गुसाई जी, अनुष्ठान में मांस, मछली. मदिरा, मुद्रा और मधुरादि पंच मकारों का ठीक-ठीक अनुमान कर लें। इतना बड़ा मेला
है, साधक-साधिकाओं की संख्या कम नहीं होगी।”
“जो आज्ञा गुरुदेव ! ” और पीथु
गुसांई दाणों को साथ लेकर एक ओर निकल गया। इसी बीच एक अन्य कत्यूरी सरदार ने
प्रवेश किया। हाथ जोड़कर बोला-“महाराज
की जय हो ! मुझे कटायतबाड़ा भीमा जी के घर भेजा गया था कठायत मिले तो सही, लेकिन बड़े भाई का स्वर्गवास होने से
अशौच में हैं वे तो इस अनुष्ठान में भाग नहीं ले पाएँगे-ऐसा उन्होंने कहला भेजा। ”
"यह तो बुरा हुआ। अनुष्ठान का दारोमदार तो उन्हीं पर
निर्भर था, इसीलिए उन्हें पहले भेजा था। कुछ प्रबन्ध
उन्होंने किया या नहीं, कुछ तो बताया होगा।”
“महाराज, वे तो कह रहे थे कि हर काम
में अडचन आ रही है। अणवालों ने एक-एक बकरा तो प्रसन्नता से दे दिया, लेकिन बाकी के लिए सख्ती बरतनी होगी। मछलियों का प्रबन्ध धुनारों को सौपा
है। कुछ सैनिकों को आस-पास की चक्कियों और गाँवों से आटा जमा करने भेजा था, वे अभी लौटे नहीं हैं। रास्ते में किसी ने बताया कि कुथलिया बोरे जंगलों
में भाग गए हैं। उन्हें कोथले भर-भर कर आटा लाना था। घराट वाले भी आना-कानी कर रहे हैं। सैनिकों ने गुस्से में कुछ पनचक्कियाँ भी
तोड़-फोड़ डाली हैं। गाँव वाले भी एक-आध नाली से अधिक देने को तैयार नहीं हैं। और
तो और वे सैनिकों से उलझने का साहस भी कर रहे हैं। गुसांई जी ने कुछ और सैनिक उधर
भेज दिए हैं।”
सरदार ने इतना बताया ही था कि स्वयं पीथु गुसांई बदहवास आ टपके। चेहरे पर
हवाइयाँ उड़ रही थीं। कापालिक कराली ने उसकी ओर ध्यान न देकर वीरमदेव से कहा-“बिरमवा, मैं
यह क्या सुन रहा हूँ ? देखो ! संख्याढाल में कोई
अपशकुन नहीं होना चाहिए।”
पीथु गुसाई ने कराली को अनसुनाकर आवेश में वीरमदेव से कहा-"महाराज, क्या आपने किसी सौक-कन्या को
पकड़ लाने का आदेश दिया है?"
“सिद्ध बाबा ने कहा तो आदेश ही समझो।”
“आदेश का पालन तो हो गया महाराज। लेकिन आगे क्या होगा? कुछ समझ में नहीं आता। सौके विद्रोह पर उतर आए हैं। ऊपर से बादल फिर से
घिरने लगे हैं कहीं बारिश हो गई तो रिंगाल की चटाइयों से बने पटवास चूने लगेंगे।
सोचा था सौकों से थुलमे, चुटगे, पंखी
और दन आदि लेकर कुछ बचाव तो हो ही जाएगा, लेकिन अब यह
भी सम्भव नहीं लगता। मदिरा की आपूर्ति भी उन्हीं से होनी थी, लेकिन वे तो गुस्से में उबल रहे हैं गुप्तचरों ने बताया है कि स्थानीय
खस-प्रजा भी उनका साथ देने को तैयार है। कहीं उपद्रव खड़ा हो गया तो लेने के देने
पड़ जाएँगे महाराज हमारी छोटी-सी सैनिक टुकड़ी कुछ कर पाएगी, मुझे
तो सन्देह है।”
गुसांई के कथन में हताशा का स्वर भाँपकर कापालिक कराली उत्तेजित होकर बोल उठा-“ गुसांई जी, लगता है तुम्हें अपने बाहु-बल पर भरोसा नहीं रहा। लेकिन हमारे तंत्र-मंत्र
तो अमोघ हैं। भगवान भैरव का जहाँ आह्वान किया नहीं कि सारी बाधाएँ छूमन्तर। आप लोग
निश्चिन्त रहें, भगवान भैरव भक्तों का कल्याण ही
करेंगे।”
“सो तो है गुरुदेव, लेकिन अगर सारे लोग
बिगड़ खड़े हुए तो सम्भालना कठिन होगा। शायद आप कुछ कर सकें।”
गुसाई इतना ही कह पाया था कि बाघनाथ मन्दिर के पीछे से जोरदार कोलाहल कानों
में पड़ा और वे सभी चौंक उठे। कई लोग विरोध की मुद्रा में सामने प्रकट हो गए।
गुसाई जी और सैनिक राजा वीरमदेव की सुरक्षा में सतर्क हो गए। ऊनी वस्त्र पहने एक
सौक पुरुष हाथ में तकली लिए आगे बढ़कर बोला-“महाराज की जय हो ! महाराज मेरी बेटी को आपके सैनिक और कोई साधु
पकड़ लाए हैं। हमें हर ओर से लूटा जा रहा हैं। आपके सैनिक हमारा नमक और मदिरा पहले
ही छीन ले गए। अब ऊनी माल भी लूट, जा रहा है। और तो और
हमारी कुल ललनाओं की इज्जत पर भी हाथ डाला जा रहा है। अन्याय की हद हो गई महाराज।
मेरी बेटी वापस मुझे सौंप दीजिए।”
यह सुन कर कापालिक कराली ने नर-कपाल पर आघात करते हुए कहा-“जय भैरव ! अरे मूढ ! अनुष्ठान के लिए
अगर तुम्हें कुछ बलिदान करना पड़े तो इसे अन्याय की संज्ञा नहीं दे सकते। फल तो
तुम्हें भी मिलेगा। यह तो अपना सौभाग्य समझ कि तुम्हारी कन्या आज के संध्या ढाल
में प्रमुख भैरवी बनेगी। तुम्हें तो अपने पर अभिमान होना चाहिए।”
“हम तो सीधे-सादे लोग हैं महाराज। संख्याढाल, अनुष्ठान, भैरवी और न जाने आप क्या-क्या कह रहे
हैं। बाप के सामने उसकी अबोध कन्या छिन जाय, ऐसा
सौभाग्य मैं नहीं चाहता महाराज। मेरी बेटी मुझे सौंप दी जाय, बस यही विनती है।”
“मूर्ख की तरह क्या रट लगाए बैठा है ? एक रात ही की तो बात है. अगर भैरवी खरी उतरी तो सौभाग्य तुम्हारे चरण
चूमेगा। क्यों महाराज, साधना की सफलता पर आप इन्हें
एक-दो गाँव भेंट-स्वरूप देंगे न? ”
"आज्ञा शिरोधार्य है गुरुदेव।“ बीरमदेव
ने कराली के सम्मुख सिर नवाते हुए कहा।
“नहीं महाराज, मुझे कुछ नहीं चाहिए।
मेरी बेटी को छोड़ दीजिए. नहीं तो...।”
“नहीं तो ! नहीं तो क्या कर लेगा तू? तेरी लाड़ली राज-बन्दिनी है। हमारे सम्बन्ध में जो अपवाद फैलाया, उसका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा।”
“नहीं महाराज, वह अवोध
तो बिल्कुल निर्दोष है। दूसरों से जो कुछ सुना, गा
दिया। हमारी तो भाषा-बोली भी अलग है । गीत का अर्थ भी तो नहीं जानती वह। सभी गाते
हैं तो उसने कौन-सा अपराध कर दिया। ? उस पर दया
कीजिए महाराज।”
“मैं कुछ सुनना नहीं चाहता। मैंने स्वयं कानों से सुना है। लगता है तुम भी
अपवाद फैलाने में पीछे नहीं हो तुम तो अर्थ जानते हो न? गुसांई जी इस बदजात को भी बन्दी
बनाओ।”-बीरमदेव क्रोध में चिल्लाया
गुसांई ने उसे पकडना चाहा, लेकिन महामात्य के साथ राजगुरु के सहसा-आ जाने से संकोच में पड़ गया।
राजगुरु ने कहा-“गोसांई जी रुको । कहाँ तो
संक्रान्ति का पवित्र स्नान करने आए थे और कहाँ यह सब देख-सुन रहे हैं। आए थे
हरि-भजन को, ओटन लगे
कपास। यहाँ जो कुछ हो रहा है, गले नहीं उतरता। इस झंझट
को किसी बड़े संकट का रूप धारण करने से पहले ही निपटा दें तो अच्छा है। इसी में हम
सबका कल्याण है महाराज ।"
राजगुरु के इस कथन पर वीरमदेव ताव खा गए, बोले-"लेकिन गीत के पीछे मुझे बदनाम करने की जो
साजिश है, वह कुछ नहीं। आप दखल न दें राजगुरु। अपनी
पूजा-पाठ से मतलब रखें तो यही आपके हक में अच्छा है।
"किस-किस को दण्ड देते फिरेंगे महाराज ? मैं तो जहाँ भी गया, लोगों को रस ले-लेकर गाते
पाया। रोकने का प्रयास करेंगे तो और भी प्रचार-प्रसार होगा। बेहतर है कि उस पर कान
ही न दें महाराज।”
राजगुरु की इस सलाह पर वीरमदेव ने कहा- “वाह ! कैसे अनुसना कर दूँ जब कि बेवजह मुझे बदनाम
किया जा रहा है। अरे, उसने तो
पति-शोक में आत्मघात किया था। रही संख्या ढाल में शामिल होने की बात, तो वह अपने सुहाग की कल्याण-कामना की खातिर स्वेच्छा से शामिल हुई थी।
लेकिन लोग तो कुछ और ही कहते हैं। आपकी दलील में दम नहीं लगता महाराज। हाँ, झूठ के पाँव भी तो नहीं होते। जो होना था। हो चुका। अच्छा है इस सब पर मिट्टी डालो।”
यह सुनना था कि वीरमदेव आपा खो बैठा। भड़ककर बोला-"तुम्हारा इतना साहस !
गिरिराज चक्र चूड़ामणियों के वंशज को तुम झूठा कहते हो। याद रखो, ब्राह्मण के पैर पूजे जाते हैं, सिर नहीं।”
मरना तो एक दिन सभी को है महाराज। यहाँ कोई अमरौती खाकर तो आता नहीं। मेरी मौत
आपके हाथों लिखी हो तो वही सही। लेकिन जिस वंश की रोटियों पर मेरा वंश फूला-फला, उसके सम्मान को ठेस पहुँचे, यह मुझसे नहीं देखा जाता।”-राजगुरु बोले।
"अच्छा तो तुम समझते हो कि गिरिराज चक्र चूड़ामणियों की
कीर्ति और मर्यादा के संरक्षक तुम हो? अपनी सीमा से
बाहर आने का साहस मत करो राजगुरु, नहीं तो पर कुतर दिए
जाएँगे। लगता है यह आग तुम्हीं ने लगाई है। तभी तो इतने लोग विद्रोह की मुद्रा में
मेरे सामने खड़े हैं। तुम राज्य के विरुद्ध षडयंत्र रचने के अपराधी हो। गुसाई जी
राजगुरु को भी बन्दी बना लो।"- वीरमदेव ने आदेश दिया।
वीरमदेव और राजगुरु की तीखी नोक-झोंक से महामात्य में कोई हरकत होते न देख, कापालिक राजगुरु से बोल उठा-“बूढ़े ब्राह्मण तुम्हारे बुढ़ापे ने मुझे आज तक रोके
रखा, वर्ना एक
फूंक में उड़ गया होता। राज-मन्दिरों का प्रसाद खाते-खाते चरबी चढ़ गई है न,
जो अपने को राज्य का नियामक मान बैठा है। चाहूँ तो तेरी खोपड़ी का
भी ऐसा ही खप्पर बना डालूँ।" नर-कपाल को
नचाते देख उपस्थित लोग सिहर उठे।
राजगुरु बोले-"अपनी झूठी सिद्धि से आतंकित करना चाहता है कराली? ऐसा बड़ा सिद्ध है तो मेरे
जैसों की सोच पर ही क्यों अंकुश नहीं लगा देता? लोगों
को चकमा देने के लिए सिसूण का आसन जमा कर बैठा है। छोटे-मोटे जादू दिखाकर लोगों की
आँखों में धूल झोंकता है। तेरे तंत्र-मंत्रों और अभिचारों का रहस्य मैं अच्छी तरह
जानता हूँ। राजमन्दिरों के चढ़ावे पर तेरी नजर है और संख्याढाल के नाम पर पाप की
फसल बो रहा है। इन्हें प्रभाव में लाकर नियामक तो तू बन ही गया। जा पाप का अन्न तू
ही खा। मैं राजगुरु का पद छोड़ रहा हूँ। तेरे भैरवी-चक्र के चक्कर में पड़े इस
राजा का राजगुरुत्व तुझे ही शोभा देगा।”
अब तक शान्त बैठे महामात्य अब और चुप नहीं रह सके, बोले-“नहीं राजगुरु, कत्यूरी राजवंश और आपके कुल के राजगुरुत्व का सम्बन्ध
इतनी आसानी से नहीं टूट सकता। इसका निर्णय राजमाता महारानी जिया के लौटने पर होगा
और महाराज वीरमदेव, आप तो दूसरी आल से हैं। सही माने
में कत्यूर आपका है भी नहीं। महारानी जिया ने इच्छा व्यक्त की थी कि महाराज धामदेव
के विजय-अभियान से लौटने तक सिंहासन खाली न रहे, इसलिए
पाली-पछाऊँ से आपको बुला भेजा। राजमाता को आपकी योग्यता और सदाशयता पर पूरा भरोसा
था। वे समझती थीं कि आप कत्यूरी राज्य को विघटित होने से बचा लेंगे। तुर्को के
पिछले हमले को आपने जिस वीरता और साहस के साथ विफल किया था, उसका लोहा सभी मानते हैं लेकिन इधर सारे किए-घरे पर पानी फिर गया है
महाराज। इस जोगटे के प्रभाव में आकर जब से आप वीरमदेव से बिरमवा बने, चारों ओर थू-थू होने लगी है। मेरी मानिए महाराज, संख्याढाल के इस अनुष्ठान को बन्द कीजिए, और
सौक-कन्या को तुरन्त माँ-बाप को सौंप देने का आदेश दीजिए, अन्यथा
आप जानें। ”
“महामात्य आप भी..! लेकिन यह तो अच्छा नहीं कि कोई अनुष्ठान का
संकल्प ले और फिर बीच में ही छोड़ दें।” -वीरमदेव ने
उद्विग्न होकर कहा।
इसी बीच कुछ और लोग भी शोर मचाते वहाँ पर जमा हो गए। घेरा जैसे और कसता चला
गया। किसी ने पीछे से चिल्लाकर कहा-“ये दोनों अपराधी हैं। यह जोगटा और चेला वीरमदेव भी। इन्हें
जनता जनार्दन को सौंप दें। इनका संख्याढाल जनता ही पूरा कर देगी।”
वह और कोई नहीं खेकदास था-रानी जिया का मुँह लगा गुलाम, लेकिन सर्वसाधारण में उसकी बड़ी
इज्जत थी । सुनकर वीरमदेव आगबबूला हो उठा। उसने आदेश दिया कि वहाँ पर जमा भीड़ को
मार भगाया जाय, लेकिन महामात्य के संकेत पर सैनिक हिले
तक नहीं।
वीरमदेव आवेश में उठ खड़ा हुआ और दाँत पीसकर बोला-“अच्छा तो तुम सभी विद्रोहपर उतारू हो गए हो। एक-एक को देख लूँगा। तुम राजा
के चाकर हो महामात्य के नहीं मै फिर से आदेश देता हूँ कि महामात्य को भी निहत्था
कर पकड़ लो और वह खेकदास, उसे तो मैं अभी यमलोक
पहुँचाता हूँ।”
वीरमदेव
का हाथ तलवार के हत्थे पर जाने से पहले ही महामात्य ने उसकी तलवार छीन ली। अपनी
दुर्वलता भांपकर वह सिर के बाल नोचने लगा और चीखने-चिल्लाने लगा। गुस्से में मुँह
से झाग भी निकलने लगा कुछ लोग यह देखकर- ‘ राजा
पागल हो गया ! राजा पागल हो गया !’ चिल्लाते हुए
मेला-स्थल की ओर दौड़ पडे और उधर मेले में पहले से ही कुहराम मचा हुआ था। वातावरण
इतना गरम हो उठा कि अलाव तापते बूढे-बूदियों तक श्मशान भैरव की ओर दौड पडे। अलाव
की जलती लकड़ियों उनके हाथों में थी। नृत्य-संगीत में खोयी युवा मंडलियों भी उसी
ओर दौड़ पड़ी। तो और जीवन-साथी की खोज में जो विधुर-विधवाएं गीतों के माध्यम से
प्रश्न उछालने में और उत्तर देने में मगन थे। उनका भी ध्यान बंट गया और वे भी भीड़
का अंग बनकर उसी ओर चल पड़े। जन-सैलाब इस तरह आगे बढ़ा जैसे सरयू की अनियंत्रित
बाढ़ अपने कूल-कगारे तोड़कर बह निकली हो। उपद्रव और लूट की आशंका में दुकानें
धड़ाधड़ बंद हो गईं और उनके मालिक भी उस भीड़ में शीमिल हो गए। भीड़ ने सबसे पहले
अधूरे बने पटवासों को अपना निशाना बनाया। कत्यूरी सैनिकों ने उन्हें रोकने का
प्रयास किया तो चारों ओर से पत्थर बरसने लगे। भीड़ ने सबसे पहले अधूरे बने पटवासों
को अपना निशाना बनाया कत्यूरी सैनिकों ने उन्हे रोकने का प्रयास किया तो चारों ओर
से पत्थर बरसने लगे। घायल सैनिकों को जान के लाले पड़ गए और वे भाग खड़े हुए। उसके
बाद भीड़ उस मकान की ओर बढी जहाँ सौक-कन्या को दो सैनिकों और एक साधु की देख-रेख
में रखा गया था। भीड़ को देखते ही दोनों सैनिक और साधु अपनी जान बचाकर न जाने कहाँ
चम्पत हो गए। कन्या को मुक्त कर लिया गया । भीड़ में उसकी माँ उपस्थित थी और बेटी
माँ की बांहों में समा गई।
किसी ने अफवाह फैला दी कि यही एक लड़की नहीं, बल्कि बहुत सारी दूसरी लड़कियां भी पकड़ी गई हैं। क्या पता जवान लड़कों को
भी पकड़ने का इरादा हो। संख्यादाल जैसे अनुष्ठानों के लिए धन चाहिए और वह धन
दास-दासियों को बेचने से प्राप्त होना है। अफवाह एक कान से दूसरे कान तक पहुँची।
लोग भीड़ में अपनी-अपनी बहन, बेटियों और बहुओं की सुरक्षा को
लेकर चिन्तित हो उठे। इसी बीच कत्यूरी सैनिक पीथ गुसांई के नेतृत्व में एकत्र हो
चुके थे। भीड़ के गुस्से को देखकर तो यही लगता था कि कत्यूरी नरेश वीरमदेव, राजगुरु और महामात्य का जीवन खतरे में है। कत्यूरी सैनिक तलवारें खींचकर
प्रतिरोध के लिए आगे बढ़े। लेकिन जहाँ चारों ओर से पत्थरों की वर्षा हो रही हो और
विरोधी पहुँच से बाहर हो तो तलवारें क्या कर सकती थी। भीड़ चिल्ला रही थी-“राजा पागल है। राजा पागल है मारो मारो। सिद्ध को भी मारो।”
कोलाहल इतना बढ़ा कि संगम पर बैठे शोकार्थी तक फूल सिराने की परम्परा भूल गए
और जो कुछ हाथ लगा, उसी को
लेकर भीड़ का साथ देने लगे। पत्थरों की मार से लहू-लुहान सैनिकों के पैर उखड़ने
लगे। पीथु गुसाई ने उन्हें पीछे हटकर राज-पुरुषों की सुरक्षा सुनिश्चित करने का
आदेश दिया। परिणाम यह हुआ कि भीड़ बाघनाथ के मन्दिर तक पहुँच गई। इस अफरा-तफरी में
कापालिक कराली, उसकी भैरवी और चेले-चाँटे सरयू किनारे
उगी झाड़ियों और पत्थरों की आड़ लेकर खिसक गए। सभी को अपनी-अपनी जान बचाने की लगी
थी। उनकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। जाता भी तो उन्हें धर-दबोचना सम्भव नहीं था,
क्योंकि भीड़ के सारे पत्थर अब उसी ओर बरसने लगे थे। श्मशान भैरव के
अहाते को भीड़ ने चारों ओर से घेर लिया था। महामात्य ने पीथु गुसांई को आदेश दिया
कि वह कुछ सैनिकों को साथ ले गोमती के बायें किनारे के जंगली रास्ते से वीरमदेव को
सकुशल कत्यूर पहुँचाने का प्रयास करे। दायीं ओर से द्यांगड़ और रवांईखाल होकर जो
आम रास्ता था, उधर से जाना खतरे से खाली नहीं था।
उत्तेजित भीड़ कुछ भी कर गुजरने को तैयार बैठी थी। लोग माँग कर रहे थे कि
अनाचारी वीरमदेव को उन्हें सौंप दिया जाए। इसी तकरार के चलते पीथु गुसाई वीरमदेव
को लेकर गोमती के पार खिसक गए। हालत विस्फोटक होती देख राजगुरु एक ऊँचे से चौरस
पत्थर पर खड़े होकर अपनी धीर-गम्भीर आवाज में लोगों को सम्बोधित करने लगे उनकी झक
सफेद दाढ़ी और गरिमामय व्यक्तित्व का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि अनियंत्रित भीड़
शान्त होकर सुनने को तैयार हो गई। राजगुरु ने कहा -“प्यारे भाइयों और बहिनो ! मैं मानता हूँ कि आपका गुस्सा बेवजह
नहीं है। अनाचारी जो भी हो, उसे अपने किए का फल
देर-सबेर तो भोगना ही है। लेकिन बिना सोचे-समझे क्रोध में आकर कुछ कर बैठना भी
समझदारी नहीं है। वीरमदेव का यह अकेला अपराध नहीं है। और भी कई संगीन मामले हैं।
जिनका हिसाब उसे राज-परिषद में देना है, याद रखिए, वह कोई सामान्य अपराधी नहीं है, जो यहीं पर
उसका फैसला कर दिया जाता। राज-परिषद को उसके अपराधों पर विचार करना है। इसीलिए उसे
कत्यूर सुरक्षित पहुँचाने का दायित्व पीथु गुसांई को सौंपा गया है। विचारोपरान्त
महादण्डनायक जो भी तय करेंगे, वह तो उसे भोगना ही
पड़ेगा। हाँ, एक बात और है, जिसे
आप लोगों के ध्यान में लाना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। शायद आप जानते होंगे कि
वीरमदेव पहले ऐसे नहीं थे। पाली-पछाऊँ के शासक के रूप में तुर्कों के आक्रमण का
उसने जिस वीरता से मुँह तोड़ उत्तर दिया था, उसे भुलाया
नहीं जा सकता। इधर कत्यूर के शासन की बागडोर हाथ में आने पर उसका ऐसा अधःपतन क्यों
हुआ, इसकी छानबीन करना भी हमारा धर्म है लगता है इस
अधःपतन की जड़ कहीं और है और उस तक पहुँचना भी न्याय के लिए आवश्यक है। ”
राजगुरु कुछ रुके तो भीड़ से आवाज आई- “राजगुरु, वीरमदेव के पिछले
इतिहास का हवाला देकर आप क्या सिद्ध करना चाहते है ? हमें तो उसके वर्तमान को देखना है। भूत के पीछे भागकर भूत नहीं बनना है
हमें। आज तो वीरमदेव एक अनाचारी ही नहीं, घोर अत्याचारी
भी है। उसका वर्तमान तो चीख-चीख कर यही कह रहा है। आप जिस जड़ की ओर इशारा कर रहे
हैं। वह कापालिक कराली है और उसे भाग निकलने का अवसर देकर मामले की गम्भीरता को कम
करने का अपराध किया गया है।”
“यह अपराध जानबूझकर नहीं हुआ है खेकदास! अफरा-तफरी के इस माहौल में पता ही नहीं चला कि वह पाखण्डी सिद्ध कब और
कैसे खिसक गया ? राजगुरु के कहने का भी वह अर्थ
नहीं जो तुम समझ बैठे हो। हाँ, दण्ड निर्धारण से पहले
जाँच-पड़ताल तो जरूरी है। जहाँ तक कापालिक का सम्बन्ध है, मैं कठायतबाड़ा, आरे, पन्दरपाली और हरबाड़ के मुखिया लोगों को आदेश दे रहा हूँ कि वे अपने
आस-पास के जंगलों और गुफाओं की छानबीन करें। हो सकता है वह बालीघाट, गौरी उड़यार या उनके समीप कहीं छिपने चला गया हो। विश्वास कीजिए। वह जल्दी ही पकड़ लिया जायेगा और राज-परिषद दोनों गुरु-चेलों को एक साथ
कठघरे में खड़ा करेगी। मैं वचन देता हूँ। ”-महामात्य ने
भीड़ में खड़े खेकदास से कहा।
"अगर जल्दी कोई कार्रवाई नहीं हुई तो हम लोग चुप नहीं
बैठेंगे और उसका सारा दायित्व कत्यूर में बैठे अधिकारियों पर होगा।” किसी नौजवान ने हाथ उठाकर कहा।
"बिल्कुल सही, बिल्कुल सही!
” भीड़ एक साथ चिल्ला उठी।
उसके बाद भीड़ धीरे-धीरे छँटने लगी। लोग अपने घावों को सहलाते हुए सरयू में
स्नान करने लगे। व्यापारी सबसे अधिक दुखी थे। उस सारे उपद्रव में उनके सामान की
अदला-बदली ना के बराबर हुई थी। निराश होकर वे सभी अपना-अपना सामान समेटने लगे।
मकरैणी का वह पवित्र पर्व एक दुःखद स्मृति का दंश छोड़कर चला गया।
उधर कत्यूर और उसके आस-पास के इलाके
में विद्रोह के स्वर और भी मुखर होने लगे थे 'मामी, तीलू तीलधारो बोला-' इस गीत की गूंज यदा-कदा
राजमहल तक पहुँचने लगी थी। वीरमदेव को लगता कि जैसे उसके कानों में उबलता सीसा
उड़ेला
जा रहा हो। लेकिन करे तो क्या करे ? अधिकारी भी उससे कन्नी काटने लगे थे। उसके अपने
दास-दासी तक भी उपेक्षा करने लगे थे। चौकोट से पत्नी का सन्देश आया था कि वह उसका
कालिख-पुता मुँह नहीं देखना चाहती। जितने भी सगे बनते थे, वे सभी किनारा करने लगे थे। और तो और, उस भाई
से भी कोई आशा नहीं रही, जिसे वह पाली-पछाऊँ का भार
सौंप आया था। सच है. दो दिन जब आते हैं तो कोई अपना नहीं होता।
वीरमदेव मकड़जाल में फंसा मक्खी की तरह फड़फड़ा रहा था। निजात पाने की कोई राह
नहीं सूझी तो उसने होनी के आगे हथियार डाल देने में ही कुशल समझी। इस मकड़जाल का
ताना-बाना बुनने में सबसे बड़ा हाथ खेकदास का था। औजी परिवार में जनमा खेकदास
बचपन से ही विलक्षण प्रतिभा का धनी था। बाल-सुलभ खेलों में उसकी चपल निपुणता देखते
ही बनती थी। सवर्ण बालक-बालिकाएँ मात खा जाते तो मिलकर उसे पीटते। लेकिन वह था कि
हँसता ही चला जाता और उसकी निश्छल हँसी में सारा मनमुटाव न जाने कहाँ काफूर हो
जाता। होश सम्भालने पर उसने खुद को जिस बेरहम दुनिया में पाया, उसे उसका विद्रोही मन कभी स्वीकार नहीं कर पाया। उसके ममेरे भाई-बहिन को
एक कत्यूरी सामन्त ने पहले तो छोरा-छोरी के रूप में अपने पास रखा और फिर उकताकर न
जाने कहाँ बेच दिया। वे लोग फरियाद लेकर वीरमदेव के पास गए तो दुत्कार खाकर
अपना-सा मुँह लेकर लौट आए। खेकदास के मन में तभी से प्रतिशोध की गाँठ निरन्तर
कसकती रही। ढोल और हुड़का बजाने में उसका कोई सानी नहीं
था। ढोल-सागर का उससे बड़ा जानकार भी उस इलाके भर में दूसरा नहीं था कहते हैं कि
वह प्रतिपक्षी के बाजों को ही नहीं, उनकी आवाज को भी
कैद कर लेता था। अपनी इसी योग्यता के कारण वह अपने समाज में काशंबरी गुरु नाम ,
जाना जाने लगा। राज परिवार से
संबंध जुड़ने में उसका यही हुनुर काम आया। कला-पारखी महारानी जिया ने उसे अपना
निजी दास मान लिया, तो सवर्ण समाज में उसकी इज्जत बढ़
गई। लोग उसे अब खेकू की जगह दासजी कहकर पुकारने लगे थे। वीरमदेव भी
पर्व-त्यौहारों पर उसे बुला भेजता और दान-दक्षिणा देकर सम्मानित करता। जजमानी
बढ़ी तो वह अपने वर्ग की एक ऐसी सशक्त आवाज बनकर उभर आया, जिसकी अनदेखी करना सरल नहीं था।
इधर राज-परिषद की बैठक होने वाली थी। खेकदास गोमती के किनारे बैजनाथ के
मन्दिरों के पास लोगों के बीच हुड़के पर थाप देते हुए कत्यूरी-प्रताप का गायन इस
प्रकार कर रहा था -
बलाण में चालौ खनी, उठन म
चाली खनी।
चाल जास चमकनी, भूचाल जास
हिलनी।।
जोत राजा कत्यूरां की।।
जै बिरमा ज्यू को आल बांको, ढाल बांको ।
तसरी कमाण बंकी, जीरो सेरो
बांको।
नवाण को सेरो बांको, दखणपुर
बाँको
लखनपुर बांको, आसन बाँको, सिंहासन बांको ।
सेज की कटरिया राणी बाकी!
खोली का भीखा पहरी बाँका।
गोदी का खिलान सात ललिया बांकी ।
(हिन्दी अनुवाद)
वे बोलते हैं तो बिजली चमकती हैं,
उठत है तो आँधी गरजती है,ये चाल (बिजली)
जैसे चमकते है, भूचाल
जैसे हिलते है
कत्यूरियों के तेज का यही प्रभाव है।
वीरमदेव की जय हो ! जिसकी आल टेटी है ढाल टेढ़ी है
कमान टेढञी है, धानों के खेत
टेढे हैं
आसन टेढा है. सिंहासन भी टेढ़ा है।
उसकी रानी बाँकी है,
पहुरुए बांके हैं और गोदी में खेलने वाली सात बेटियाँ भी बाँकी है।
और फिर
जो बिरमा को घट बौया छी।
जतिया-मारखुली छी।
जतिया-मारली छी, कुकरा खदुवा
छी।
सुल्ट नाई लै लिनी पैंचा, उल्ट नाई लै दिनी।
सात खावा बतूनी चालनैल चाइ लिनी।
बाँजा घराट की भाग उंधूनी ।
माल मली सौकाण तली की दसौत उंधूनी ।
गरम पानी, चौसिंग्या
लाखा, भोटियाल
कामला लिनी।
अचार करनी, बिबी
ढंकूनी।
तरुणी तिरिया, हिटन नी
दिनी।
बरड़ो बाकरो चरन नी दिनीं।
झड़िया लाखड-पातड़ लोगन नी
उठान दिनी।।
वीरमदेव की जय हो
जिसके अत्याचार की बावली चक्की
बन्द होने का नाम नहीं लेती।
जिसके भैसे मरखने और कुत्ते कटखने हैं।
उसने सुलटी नाली से पैंचा (उधार) लिया
और उलटी नाली से लौटाया।
सात खलिहानो मे फटककर और छलनी से छानकर अन्न बसूला।
बंजर पड़ी पनचक्की की पिसाई वसूली।
माल (भाबर) से लेकर भोट तक की
दसौंत (दश्मांश) वसूली।
गरम पंखियों, चौसिंगे
बकरे और भोटिया कम्बल
कर के रूप में लिए। अनाचार-अत्याचार किया।
तरुण स्त्रियों को रास्ते में चलने नहीं दिया।
मोटी बकरियों चरने नहीं दी।
झड़ी हुई पत्तियों और गिरी हुई लकड़ियां तक
प्रजा को नहीं उठाने दी।।
वीरमदेव की यह यशोगाथा अभी पूरी भी नहीं हो पाई कि राज-परिषद से बुलावा आ गया
। समाज के निचले तबके का प्रतिनिधित्व भी वहाँ आवश्यक समझा गया था। द्वाराहाट, लखनपुर,रामपुर
हाट और पाली-पछाऊँ आदि के सारे कत्यूरी शासक
और सामन्त उपस्थित थे । प्रजा-जनों की ओर से बोरा लोगों के बूढ़ा, दानपुर के दाणों, आस-पास के महरा, कैड़ा, गढ़िया,
हरड़िया और किर्मोलिया आदि के मुखिया लोगों को भी आमन्त्रित किया
गया था। जोहार-मुन्स्यार के सौकों के भी दो प्रतिनिधि परिषद में उपस्थित थे।
महामात्य ने सबसे पहले सरयू-घाटी के गढ़िया और हरड़िया सरदारों से पूछा कि वे लोग
कापालिक को पकड़ लाने में क्यों विफल रहे। उन्होंने जवाब में एक ग्वाले को परिषद
के सामने उपस्थित कर दिया। ग्वाले ने बताया कि उसने सिद्ध को गौरी उडयार में घुसते
हुए देखा था। लेकिन जब वह गुफा के दरवाजे पर पहुँचा तो सिद्ध बघेरा बनकर उस पर टूट
पड़ा। वह अपनी जान बचाने सिर पर पैर रखकर नीचे पन्दरपाली की ओर भागा। तेजपात के एक
पौधे की आड़ से जब गुफा की ओर मुँह किया तो गुफा में सिद्ध को हँसते हुए पाया।
सिद्ध तो बोक्सा निकला। वह भला उससे कैसे पार पा सकता था?
खेकदास को छोड़ शेष सभी ने मान लिया कि
कापालिक शायद कोई बोक्सा अथवा रूपधारी बेताल है खेकदास का कहना था कि या तो ग्वाले
की आँखें कापालिक की चाल समझने में धोखा खा गई या वह स्वयं कापालिक के प्रभाव में
है और इसीलिए कहानी गढ़ लाया है। अधिकांश कत्यूरी सरदार भी जब यह कहने लगे कि
कापालिक को पकड़े बिना मामले को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता तो जन-प्रतिनिधि भड़क
उठे। उनका कहना था कि सिद्ध जाए भाड़ मे। हम तो महाराज बीरमदेव के कारनामों
सेपरेशान हैं, उनसे निजात मिले तो गंगा नहाएं । इस पर
कत्यूरी सरदारों की भौंहें तन गई। तीन कौड़ी के खसिया, कत्यूरी-नरेश
के भाग्य का फैसला करें-यह उनसे कैसे सहा जाता। मामले को तूल पकड़ता देख, राजगुरु ने बीच-बचाव की मुद्रा में कहा- “देखिये, यह सच है कि अपराधी से अपराध का प्रेरक भी कम अपराधी नहीं होता। वीरमदेव
के अनाचार के पीछे उसी पाखण्डी सिद्ध का हाथ है, इसमे
कोई शक नहीं। लेकिन कत्यूर के लोग महाराज के दूसरे कारनामों से भी कम परेशान नही
है। इसलिए मामले को यों ही टाल देना न्यायसंगत नहीं है। ” महामात्य ने आगे कहा- “अमानत में खयानत का एक मामला
भी सामने आया है। गोपालकोट के कोषपाल ने बताया है कि उसकी आँख बचाकर राजकोष का आधा
सोना, कुछ चाँदी और बहुत से जेवरात भी गायब कर दिए गए
हैं उसका शक है कि संख्यादाल के खर्चे की पूर्ति के लिए यह अपराध हुआ है। ”
महामात्य के इस रहस्योदघाटन से कत्यूरी सरदार भी सकते में आ गए और
एक-दूसरे के मुंह पर ताकने लगे। पाली-पाछाऊँ के सामन्त को भीतर ही भीतर यह भय
खाए जा रहा था कि अगर वीरमदेव को कत्यूर से हटा देने का फैसला हुआ तो उसका अपना
क्या होगा उसने कहा-“अगर कोषपाल का
शक सही है तो इस अपराध में भी दोनो गुरु-चेले शरीक है। लेकिन मेरी समझ में तो मामी
के सतीत्व से खेलने का मामला अधिक संगीन है । मै जानता हैं कि भाई वीरमदेव,
परिहार-कुल में व्याही जाने से पहले उसके प्रति आकर्षण रखते थे ।
उसके लावण्य पर इतने लट्टू थे कि ब्याह का प्रस्ताव भी किया था, लेकिन जीवन-संगिनी की जगह मामी बन जाने पर चुप्पी साध गए। उनमें चाहे
जितनी कमियां हो, पर रिश्ते की पवित्रता भंग करने का
साहस उनमें नहीं था। यह साहस आया कैसे? मेरी तो समझ से
बाहर है। ”
इस पर राजगुरु बोले-“यह कोई अबूझ
पहेली नहीं है सामन्त। कराली की करामात है । तुम कहते हो कि आकर्षण पहले से ही था।
कराली ने हवा दी और आग भड़क उठी। सिद्ध के चोले में बसे उस पशु ने कहा होगा-“सुन विरमवा,
जिमि बिस भक्खहिं बिसहिं पलुत्ता।
तिमि भुव भुजहिं, भवहिं न
जुत्ता।
अर्थात् विष-भक्षण से जैसे विष का प्रभाव मिट जाता है, वैसे ही सांसारिक भोग भोगने से
लौकिक बन्धनों से भी मुक्ति मिल जाती है।”
“ आप सही कह रहे होंगे राजगुरु लेकिन इससे इनका अपराध कम
तो नहीं हो जाता। कहा गया है-यथा राजा तथा प्रजा। रिश्ते-नातों की मान्यता के पीछे
तो हमारे युगों-युगो का अनुभव है। अगर यह मान्यता ही नष्ट हो गई तो समाज का क्या
होगा? इस पर तो गम्भीरता से सोचने की जरूरत है। एक बार
के अपराध को भले ही नजरअंदाज कर लें, लेकिन यहाँ तो उसी
अपराध को खुलेआम दुहराने का प्रयास था।”
यह सुनना था कि खेकदास खड़ा हुआ और बोला- “”दुहराए नहीं, ठाकुरों, तिहराने का प्रयास था। इस नेक काम की शुरुआत तो शायद मेरी चचेरी बहिन के
अपहरण के साथ हुई जो इनके चंगुल से छूटते ही पागल होकर मर गई । बहनोई ने छुडाने का
प्रयास किया तो धक्का देकर चट्टान से लुढ़का दिया गया, ताकि
दुनिया समझे कि फिसलकर मर गया। यह सारा काण्ड गुरु-चेले के इशारे पर हुआ था। ये
तीनों कारनामे तो छिप नहीं पाए। लेकिन कई ऐसे मामले और भी है, जिन्हें परिवार और कुल की बदनामी के डर से प्रकाश में नहीं आने दिया गया
पीड़ित लोग खून के आंसू का घूंट पीकर चुप्पी साध गएष अनाचार परिणाम है कि आज
गाँव-घरों में औरत-बच्चे साधु-सन्तों को देखते ही भीतर छिप जाते हैं। वीतराग
सन्यासियों का ऐसा आतंक कैसी विडम्बना है ! ”
खेकदास इतना ही कह पाया था कि एक जन-प्रतिनिधि खड़ा हुआ और बोला-“अनाचार के मामले तो खुलकर सामने आ ही
गए, लेकिन उन अत्याचारों पर अभी तक कोई कुछ नहीं बोला
जिनके चलते हम लोगों का जीवन दूभर हो गया है । यहाँ उल्टी नाली से अन्न उधार दिया
जाता है और उल्टी नाली से वापस लिया जाता है। करों के बोझ से तो हमारी कमर टूट गयी
है। बच्चों का पेट काटकर घी-दूध राजमहल पहुँचाना पड़ता है। हथछीना का ठण्डा पानी
ढोते-ढोते सिर के बाल उड़ गए हैं। बकरा हो या बेटी, जिस
पर भी नजर पड़ी। वह राजा या उसके अधिकारियों की। बंजर पड़ी चक्की की पिसाई तक देनी
पड़ती है। गिरी-पड़ी लकड़ियाँ और पत्तियाँ तक बिना कुछ दिए, हम
उठा नहीं सकते हमें तो डर है कि अगर यही सब चलता रहा तो एक दिन हमारे उठने-बैठने
और साँस लेने पर भी कर थोप दिया जाएगा। लगता है हम आदमी नहीं, बेजान माल हैं, जिसका ये जैसा चाहें उपयोग कर
सकते हैं।”
"यही तो रोना है भाई। यहाँ आदमी कम, कैनी, हलियों या छोरे-छारे' ही अधिक हैं अपने को आदमी समझने का भ्रम पालना तो हमारी मूर्खता है। सूरज
और चन्द्रमा में अपने मूल की खोज करने वाले थोड़े से लोग ही तो यहाँ आदमी हैं।
उनका मानना है कि ईश्वर ने उन्हें ही दुनिया पर राज करने के लिये पैदा किया है। ”-खेकदास फिर से कह उठा।
“ देखिये, कर लगाना और उसे
उगाहना तो राज्य व्यवस्था का पहला आधार है। प्रजा अगर कर चुकाने से मना करे तो
कैसे काम चलेगा? हाँ, कर के
प्रकार, मात्रा और उगाहने के तौर-तरीकों पर विचार किया
जा सकता है। लेकिन कर तो प्रजा को चुकाने ही पड़ेंगे। इस मामले पर आगे ठण्डे दिमाग
से विचार किया जा सकता है। इस समय तो कुछ उन बेजा हरकतों पर विचार किया जाना है, जिनके कारण लोगों में आक्रोश पैदा हुआ है।”-महामात्य
ने बहस को सीमा के भीतर समेटने के उददेश्य से कहा।
राजगुरु उठे और बोले-"महामात्य का कहना सही है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए
कि राजा धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि होता है। वह जो भी चाहता या करता है, ईश्वरीय प्रेरणा ही उसके मूल
में होती है, शास्त्रों का तो यही कहना है गाहे-बगाहे
कोई अपराध हो जाता है तो उसके निवारण के उपाय भी शास्त्रों में हैं। राजगुरु होने
के नाते मैं व्यवस्था देता हूँ कि महाराज वीरमदेव यदि पाखण्डी कापालिक से सम्बन्ध
तोड़ने का वचन दें और पाप-विमोचन के लिए एक विशाल यज्ञ का आयोजन करें तो
प्रायश्चित हो जाएगा। संकट की इस घड़ी में कोई बड़ा उलट-फेर खतरे से खाली नहीं है।
पश्चिम से पंवार ताक में बैठे हैं तो पूरब से चन्द सब कुछ हड़प जाने की फिराक में
हैं। ऐसी स्थिति में राजमाता का जब तक स्पष्ट निर्देश नहीं आ जाता, वीरमदेव कत्यूर पर राज करते रहें, यही सबके हित
में है। अगर कुछ कष्ट भी हो तो राज्य के हित में उसे सहन कर लेना हमारा कर्तव्य
है।”
"वाह, राजगुरु महाराज ! खोदा
पहाड़ और निकली चुहिया। एक मुँह में कितनी-कितनी जवान रखते हैं लोग? पहले तो बहुत उछल रहे थे और अब ? मोटी
दक्षिणा मिल गई होगी शायद । यज्ञ में तो बचे-खुचे राजकोष के भी खाली हो जाने का डर
है। मेरी मानिए । गंगा नहाने की व्यवस्था देकर छुट्टी पाइए। सारे कुकर्म धुल
जाएँगे।” -यह खेकदास था। .
"राजकोष खाली हो या न हो, लेकिन
हमारे घर जरूर खाली हो जाएँगे। मार तो हमीं पर पड़नी है। वाह पण्डित जी ! अपने
भाई-भतीजों के खाने-पीने की क्या अच्छी तरकीब सोची है। यज्ञ में माल उड़ाओगे तुम
और भूखे मरेंगे हम। चाहे जो हो। चन्द आएँ या पंवार लेकिन इनसे तो छुटकारा मिले। ”-बोरों के बूढ़े ने अपनी तीखी आवाज में कहा।
लोगों के ऐसे तेवर देखकर एक को
छोड़ शेष कत्यूरी सामन्तों का धैर्य चुक गया। एक ने तलवार नचाते हुए कहा-“ तो अब तुम तय करोगे, कि कत्यूर के सिंहासन पर कौन
रहे और कौन नहीं। और यह खेकदास, जुबान बहुत चलती है मन
करता है,
काटकर फेंक दूँ। मुँह लगाई डोमनी, नाचे ताल-बेताल। राजमाता की आड़ क्या पाई कि अपने को राज्य का नियन्ता मान
बैठा है, नीच कहीं का।”
उसी क्षण वीरमदेव अपने चार अंगरक्षकों के साथ राज-परिषद में पधारे । कत्यूरी
सामन्तों को अपने पक्ष में खड़े देखकर उसका साहस लौट आया। आते ही बोला-“यहाँ जो कुछ कहा गया और मुझ पर जो-जो
आरोप मढ़े गए। मैं उन्हें सिरे से खारिज करता हूँ। मैंने तो राजधर्म निभाया है और
राज-धर्म कठोर होता है। संख्याढाल में पंच मकारों का सेवन तो कोई पाप नहीं और उसी
को मेरा अपराध गिना जा रहा है। मैंने कोई पाप नहीं किया। वह तो स्वेच्छा से मुद्रा
बनी थी। साधना कच्ची निकली तो आत्महत्या कर बैठी। लोग नाराज हैं कि उनसे जबरन कर
वसूले जाते हैं। अगर चन्द या पंवार आ गए तो क्या वे बिना करों के राज-काज चलाएँगे? आँखें खोलकर अपने चारों ओर देखिए। जंगल में बड़े पेड़, छोटे पौधों को पनपने नहीं देते। बड़े जानवर, छोटों
पर निर्भर हैं। बड़ी मछली, छोटी मछलियों को निगल जाती है।
ईश्वरीय नियम ही जब यही है तो मनुष्य की क्या विसात जो इससे अलग आचरण करे। हाँ, यह कत्यूर अब तुम लोगों को मुबारक ! राजमाता का आदेश मुझ तक पहुँच चुका
है। वे मेरा मुँह नहीं देखना चाहतीं। वे नहीं चाहती कि मैं धामदेव के लौटने की
प्रतीक्षा कत्यूर में बैठकर करूँ। उन्हें शक हो गया है कि मैं कत्यूर को हड़पने की
फिराक में हूँ। मैं वापस अपनी पाली लौट रहा हूँ। महामात्य और राजगुरु जैसा चाहें
यहाँ की व्यवस्था करें। मैं अब एक क्षण के लिए भी यहाँ नहीं रुकना चाहता। वीरमदेव
का यह कहना था कि राज-परिषद में सन्नाटा छा गया। कत्यूरी सामन्तों ने उसके इस अनपेक्षित
निर्णय का विरोध किया, लेकिन वीरमदेव टस से मस नहीं
हुआ।
सभी चुप थे पर खेकदास चुप नहीं रह सका, बोला-“महाराज क्षमा करें। मनुष्य
पेड़-पौधा या जानवर नहीं है। उसका दिल और दिमाग भी होता है, लेकिन अफसोस, डण्डों और पोथों के आगे दिल-दिमाग
की नहीं चलती। डण्डे का काम है सख्ती बरतने का और पोथों का काम है उसे सही ठहराना।
पोथे कहते हैं-अपना-अपना भाग्य है भाई, कर्मों का फल तो
सभी को भोगना पड़ता है, फिर किसी का क्या दोष ? भाग्य और कर्मों के इस चक्रव्यूह से मनुष्य कभी मुक्त भी हो पाएगा, कौन जाने? ”
वाद-विवाद ने फिर उग्र रूप धारण कर लिया।
कत्यूरी सामन्त तलवारें खींचकर खड़े हो गए। राज-परिषद को एक तरह से बन्दी बना लिया
गया, वीरमदेव ने आदेश दिया कि जिन लोगों ने उसे अपराधी बताने
का दुस्साहस किया, वे ही उसे अपने कन्धों पर पाली
पहुँचाएँगे। उपस्थित प्रतिनिधियों में से दो तगड़े नौजवान छाँटे गए और शेष को
चेतावनी के साथ छोड़ दिया गया। उन दो जवानों की जलती आँखें देखकर वीरमदेव भीतर से
सहम गया। उसे लगा कि वे डांडी से गिराकर उसे मार डालने का प्रयास कर सकते हैं। अतः
कुछ ऐसा उपाय सोचा गया कि डाँडी-वाहक अपनी जान जोखिम में डाले बिना कोई शरारत न कर
सकें। उनकी काँख छेदकर रस्सी डालने का निर्णय लिया गया। निर्णय लिया गया महामात्य
और राजगुरु ने हल्का-सा विरोध भी जताया किन्तु वीरमदेव किसी की कब सुनने वाला था।
दोनों को एक अँधेरी कोठरी में ले जाया गया और तलवारों के साये में काँख-छेदन का
अमानवीय कृत्य सम्पन्न कर दिया गया, वे बहुत चीखे-चिल्लाए, हाथ जोड़े, पैरों पड़े लेकिन सब अरण्य-रोदन
सिद्ध हुआ। खून रिसते छेदों में रस्सी डालते समय इतनी पीड़ा हुई कि बेचारे बेहोश
होते-होते बचे। वीरमदेव की डाँडी पाली के लिए चल पड़ी। बोझ के कारण रस्सी का तनाव
मरणान्तक पीड़ा देने लगा। कलपते-कराहते डाँडी-वाहक रास्ते पर चल तो पड़े, लेकिन एक-एक पग उठाना दूभर हो रहा था। बेचारे मौत की कामना के सिवाय और कर
भी क्या सकते थे। तलवार , कोड़े लिए दो अंगरक्षक डौंडी के
आगे और दो पीछे। ऊपर से वीरमदेव की फटकार कि वे मरी चाल से क्यों चल रहे हैं।
घावों से लगातार खून रिस रहा था और वे हथछीना की खड़ी चढ़ाई चढ़ने लगे। आधी चढ़ाई
पार करते-करते पीड़ा की तीव्रता में कमी आने लगी। कहते हैं कि जब दर्द हद से गुजर
जाता है तो दवा बन जाता है। शारीरिक यातना पर अब मानसिक यातना भारी पड़ने लगी।
डाँडी में बैठे-बैठे वीरमदेव को प्यास सताने लगी थी। अंगरक्षक भी बेहाल थे।
उन्होंने विनती की कि उन्हें आगे हथछीना जाने की आज्ञा मिले तो वे महाराज के लिए
भी पानी लेकर आ सकेंगे। वाहक डाँडी से जिस तरह बँधे थे, उससे किसी खतरे की आशंका नहीं लगी। अतः आगे जाने की आज्ञा मिल गई।
अंगरक्षक हथछीना पहुँचे और पानी पीकर कुछ देर के लिए पेड़ों की छाया में पसर गए।
दूर जंगल से पहले तो बाँसुरी की धुन सुनाई पड़ी और फिर किसी नवयौवना का स्वर गूंज
उठा-'मामी तीलू, तीलै धारो बोला।' डाँडी अब तक एक भयानक तंग चट्टान के पास रुक गई थी। कानों में गीत के बोल
पड़े तो वीरमदेव चौक उठा। इधर-उधर देखा तो घबरा गया। ऊपर की ओर भयानक चट्टान, नीचे गहरी खाई और ऊपर से डाँडी-वाहकों की भेदभरी फुसफुसाहट। एक कह रहा था- “दाज्यू ! अपना तो इहलोक-परलोक सब गया। मुझे नहीं लगता कि हम पाली तक
जिन्दा भी पहुँच पाएँगे।”
“हां, भाऊ। ”-दूसरे ने कहा- “इतना दर्द है कि पापी प्राण उड़
जाने की फिराक में हैं। बच भी गए तो किस काम के हाथ तो सड़-गल कर बेकार हो जाएँगे।
इस पापी का नाश हो, जिसने हमें यह दिन देखने पर मजबूर
किया।”
“ एक बात कहूँ दाज्यू।”-पहले ने कुछ
आवेश में आकर कहा-“ हम तो बर्बाद हो ही गए, फिर इस पापी को क्यों छोड़ दें। धरती का बोझ हल्का होगा तो दुनिया आशीष
देगी।”
फुसफुसाहट का अन्तिम अंश कानों में पड़ा तो वीरमदेव बच निकलने की राह ढूँढने
लगा। कुछ नहीं सूझा तो हारकर डाँडी-वाहकों को सिर काट गिराने की धमकी दे बैठा। इस
पर एक डाँडी-वाहक ने कहा-“महाराज, वे तो देर-सबेर गिरेंगे ही, लेकिन आपका सिर कब
तक अपनी जगह बना रहता है, हम इसी सोच में पड़े हैं।”
दूसरे ने कहा-“अपना-अपना भाग्य
है महाराज । बुरे कर्म किए होंगे तो भोग रहे हैं। काँख में घाव और ऊपर से आपका बोझ
। सोच रहे हैं कि हमारा तो जो हुआ सो हुआ। लेकिन अगले जनम में आपका क्या होगा, बस इसी सोच में मरे जा रहे हैं।”
पहले ने प्रसंग आगे बढ़ाया, बोला-“महाराज, मामी ने तो
आत्महत्या कर अपना वचन पूरा कर दिखाया, लेकिन आपने कुछ
नहीं किया। सोचते हैं क्यों न हम ही इस पुण्य का श्रेय लूट लें।”
"तो तुम मेरी हत्या करोगे ? वीरमदेव ने घबराकर पूछा।
"हरे राम ! हरे राम ! हम दो टके के खसिया कत्यूरी नरेश की हत्या करेंगे, यह आपने कैसे सोच लिया ? हम तो अपनी हत्या की सोच रहे हैं महाराज। तलवार आपके हाथ में है, कर दीजिए हमारे सिर कलम और छलांग लगाकर निकल भागिए। कौन रोकता है आपको? ”
“दुष्टो ! तुम जान-बूझकर इस चट्टान पर रुके हो। छलांग लगाऊँ तो
कहाँ ? ” वीरमदेव ने रोनी आवाज में कहा।
"तो ठीक है, फिर हमारा
साथ दीजिए महाराज। नीचे खाई कबसे प्रतीक्षा में है। अपने इष्ट को भी याद कर ले
पापी।"
और दोनों वाहक डाँडी सहित खाई में कूद पड़े। वीरमदेव के मुँह से एक तीखी चीख
निकली और फिर सब शान्त। उधर हथछीना से पानी लेकर अंगरक्षक नीचे उतरे, लेकिन रास्ते में न डाँडी मिली, न डाँडी-वाहक और न डाँडी-सवार । एक ने कहा-आकाश खा गया या धरती निगल गई।
आखिर गए तो गए कहाँ ?
इतने में नीचे खाई से गिद्धों की फड़फड़ाहट कानों में पड़ी। नीचे झाँका तो
सन्न रह गए तीन लाशें खाई के पत्थरों पर छितरी पड़ी थीं।