दुख अपनी संरचना में जितना मजबूत
होता है,प्रेम की छत जीवन की दीवारों को उतना ही लचीला बना देने को
उकसाती हैं। निर्मिति की प्रौद्योगिकी का यह वस्तु सत्य इल्म की इबारत होने से पहले अनुभव के
जोर की परख का परिणाम होना चाहता है। कविताओं में सुख और प्रेम को पर्यायवाची की तरह संयोजित करने
के आग्रह बहुत आम दिखते हैं। लेकिन सपना भट्ट की कविताओं में यह संयोजन संकोच के
तार से स्वाभिमान की एडियों को बांधे हुए रहता है। प्रेम के बारे में प्रिय कथाकार राजेन्द्र दानी कहते हैं,’’ प्रेम
नहीं कहना चाहिए , प्यार कहना चाहिए । प्रेम कहने से अभिजात महसूस होता है ।
प्यार ही सर्वांगीण है और सार्वभौमिक है । यह अभी भी विद्यमान है और भरोसा है कि
रहेगा । किसी दार्शनिक ने कहा था कि आपकी हर हरकत में "सेक्स" है । अब
इसका स्थानापन्न प्यार हो सकता है प्रेम नहीं । खुशहाली प्यार में निहित है ।‘’ देह से मुक्त हुए बगैर, प्रेम एक भुलावा ही है। देह के
बंधन जीवन की आपाधापी से निपटने नहीं देते,
दुख के बादलों से घेरने लगते हैं।
कुछ दिखाई नहीं देता। जीवन में आड़े आ रहे दुखों से लड़ने में प्रेम एक ताकत की तरह है।
सपना भट्ट की कविताओं से गुजरते यह और भी साफ दिखाई देता हैं। सामाजिक महौल में बहुत
करीब मौजूद बिम्बों का जैसा इस्तेमाल सपना भट्ट अपनी कविताओं में करती हैं, उसके
कारण ही अपने समकालीनों में उनकी कवितायें अलग से पहचानी जाती हैं। प्रस्तुत हैं सपना भट्ट की कुछ चुनिंदा कवितायें वि.गौ. परिचय: सपना भट्ट का जन्म 25 अक्टूबर को कश्मीर में हुआ। शिक्षा-दीक्षा उत्तराखंड में सम्पन्न हुई। सपना अंग्रेजी और हिंदी विषय से परास्नातक हैं और वर्तमान में उत्तराखंड में ही शिक्षा विभाग में शिक्षिका पद पर कार्यरत हैं। साहित्य, संगीत और सिनेमा में गम्भीर रुचि। लंबे समय से विभिन्न ब्लॉग्स और पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित। बोधि प्रकाशन से पहला कविता संग्रह 'चुप्पियों में आलाप' 2022 में प्रकाशित । |
1
चिंताएं हैं इस विपुला पृथ्वी पर
और
मुझ पर अपनी
उम्र से अधिक सालों का ही कर्ज़ नहीं
अपने छोटे बच्चों और अपनी ही
रुग्ण देह से असीम काम लेने का भी निर्दयी कर्ज़ है
मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ...
जबकि दुनिया में सुलग रही है
अन्याय की राजनैतिक सामाजिक आग
तिस पर जब एक भीषण महामारी का
प्रकोप सह रही है यह दुनिया
मैं प्रेम कविताएँ लिखती हूँ
कितनी निर्लज्ज हूँ
मेरे अस्तित्व से समाज को क्या लाभ !
फिर सोचती हूँ
पैरों से लिपटी माटी भी
ढल जाती है भांडे बर्तनों,
मूर्तियों खिलौनों और दीपदानो में एक दिन
बेढंगे अटपटे पत्थर भी
एक दिन सहारा देते हैं
किसी मकान की गहरी नींव में पैठकर
काम आते हैं
ऊखल जांदर सिलबट्टों और घराटों में ढलकर
लोहा लोखर
से चाहें तो गढ़ सकते हैं
चिमटे सरिए हथियार
या कुदाल गेंती फावड़े जैसे औजार ही
ईंधन के बाद बची राख से भी
मले और घिसे जा सकते हैं बासन
बनाई जा सकती है भभूत माथे और देह के लिए
और तो और
कांटा भी कभी काम आता है कांटा निकालने के
विष भी औषधि के काम आता है ।
इतना व्यर्थ नहीं होता
दुनिया मे किसी का भी अस्तित्व
जितना तुमने मेरा मान लिया है ....
2
मेरी देह इन दिनों
अक्सर अपने पते पर नहीं मिलती
क्षितिज पर
अहर्निश टँगे सुरंगे दृश्यों
और मतवाले चैत का अखूट सौंदर्य मुझे पुकारता है
मैं घाटी के
निचाट रस्तों पर भटकती रहती हूँ
मेरी तरसी हुई दीठ
केवल पहाड़ बादल नदी
और बांज देवदारों के लकदक पेड़ ही नहीं देखती
मौल्यार के धानी वैभव का आह्लाद भी देखती है
चाय की छोटी धूसर दुकानों पर
सस्ते बिस्कुट और मैगी के पैकेट ही नहीं देखती ,
थके हारे लोगों की तृप्ति भी देखती है
इधर मैं एक दृश्य में
ठिठक कर प्रवेश करती हूँ
चौरंगीनाथ के मुख्य द्वार पर
चार हमउम्र बूढ़ों की चमत्कृत करती फसक सुनती हूँ,
देर तक मुस्कुराती हूँ
किसी कुल देवी की
फिरकियों चर्खियों और
फ्योंली बुरांश से सजी वह डोली देखती हूँ
जिसके शीर्ष पर
मनौती वाली चिट्ठियां बंधी हैं
क्षमता से अधिक
घास लकड़ियाँ ढोती स्त्रियों का
मुझ देसवाली को देख
खिस्स करके हँस देने का कौतुकपूर्ण उल्लास देखती हूँ
उन मृदुल मीठे ठहाकों पर न्योछावर होती हूँ।
चैत में मायके आई
बेटियों के अछोर सुख की तरह
एक निश्चिंतता मेरी पूरी आत्मा में पसर जाती है
फेफड़ों में ख़ूब गहरी सांस भरकर
मैं इस कविता के सहारे
धीरे धीरे अपने एकांत में लौट आती हूँ।
3
देखती हूँ
कि यह बैरन शीत
इन दिनों मेरे कमरे में ही आकर रहने लगी है ।
माघ का क्रूर तुहिन
दुःख की खपरैलों से टपकता हुआ
सीधे मन की उन्मन भीत पर झिरता है
ज्वर का भीषण ताप
खोखली देह की ठठरी सुलगाता है
प्राणों की धौंकनी को
श्वास का ईंधन पूरा नहीं पड़ता
आंखें अश्रु ही बनाती है
याद का बीज याद ही उपजाता है
यह धड़
बेवजह एक उदास चेहरा उठाए फिरता है
प्रीत का सुख
इतना बेढब और विविक्त है
कि अब अपने पर्यायों में भी नहीं मिलता
दुःख इतना सुघड़ और सलीकेदार
कि अंधेरे में हाथ बढ़ाने पर भी
अपनी नियत जगह पर रखा मिलता है
फूलों के नाम याद रह जाते हैं
उनका सौरभ भूल जाती हूँ
तुम्हे बिसराने की जुगत में
तुम्हे और अधिक याद करने लगती हूँ
स्मृतियों के विलोम में
बरसों पीछे लौटती हूँ
वहां भी विस्मृति नहीं मिलती
किसी और के लिए लिखी हुई
तुम्हारी विह्वल और रुआँसी कविताएँ मिलती हैं
4
धैर्य के चूकने से निमिष भर पहले
शिराओं में घुले
दुःख की लयात्मकता टूट जानी चाहिए ।
जिस तरह
पुराने बूढ़े दुःख की जगह
कोई मीठा तरुण दुःख
कातर अनुभूतियों को कांधा दे देता है,
ठीक उसी तरह,
एक निश्चित अंतराल पर
स्मृतियों की निर्मम चोट मंथर हो कर
फूलमार में बदल जानी चाहिए।
चुम्बन का अन्वेषण किसी अधीर प्रेमी ने नहीं
अकेलेपन से घबराए
ईश्वर ने किया होगा ।
उधर स्वप्न में तुम मुझे चूमते हो
इधर मंगसीर का तीव्र ज्वर
निर्विघ्न इस देह की सांकलें बजाता है।
एक ठंडी आंच आठो पहर आत्मा के भीतर सुलगती है।
तुम्हारा नाम पुकारती हूँ
एक आदिम प्यास से जिव्हा जलती रहती है।
इस दरिद्र तलहटी में
नशे से बेसुध होने के लिए भांग भी है, मदिरा भी
मैं मगर हर बार अपनी प्यास
तुम्हारे कंठ में भूल आती हूँ।
तुम ठहरे कवि
कविता में आलोचना का पक्ष देखते हो ।
प्रेमी होते तो बूझते
कि प्रेम से च्युत कवित्व आख़िर किस प्रयोजन का।
मैं कोई कवि ववि नहीं,
नियम और बंधन
मुझमें असम्भव अचरज भरते हैं।
मेरे पास तुम तक अपने दुःख पहुंचाने का
अन्यंत्र कोई मार्ग होता
तो कोई कविता कदापि सम्भव न होती।
रात के इस पहर
देह इस देह के ऋण से मुक्त हो भी जाए
स्मृतियों का एक अर्धनष्ट टुकड़ा
मन को मुक्त नहीं होने देता।
भीड़ में ठहाके लगाता
मेरा नीरव एकांत मेरे भीतर बेतरह रोता है ।
तुम जो मांगते हो मुझसे
मुठ्ठी भर मेरा जूठा संताप
तुम्हे कैसे दे दूं!
यह प्रेम का दुःख
मेरी बरसों की पूँजी है जिसे
अबोध कामनाओं को
रेहन पर रख कर खरीदा है मैंने।
5
कि सुख लौट आएंगे ।
उसी क्षण व्यग्रता सर उठाती है
कि आख़िर कब ?
जो कहीं नहीं रमता वह मन है,
जो प्रेम के इस असाध्य रोग
से भी नहीं छूटती वह देह ।
अतृप्त रह गयी इच्छाएं
आत्मा के सहन में अस्थियों की तरह
यहां वहां बिखरी पड़ी हैं,
जिनका अन्तर्दन्द्व तलवों में नहीं
हृदय में शूल की तरह चुभता है ।
अपनी देह में तुम्हारा स्पर्श
सात तालों में छिपा कर रखती हूँ।
मेरी कंचुकी के आखिरी बन्द तक आते आते
तुम्हे संकोच घेर लेता है।
हमारा संताप इतना एक सा है
ज्यों कोई जुड़वां सहोदर।
जानते हो न
बहुत मीठी और नम चीजों को
अक्सर चीटियाँ लग जाती हैं,
मेरे मन को भी धीरे धीरे
खा रही हैं तुम्हारी चुप्पी अनवरत।
प्रेम करती हूं सो भी
इस मिथ्या लोक लाज से कांपती हूँ ।
जबकि जानती हूं कि
लोग घृणा करते भी नहीं लजाते।
किसी को दे सको तो अभय देना
मुझ जैसे मूढमति के लिए
क्षमा से अधिक उदार कोई उपहार नहीं।
पहले ही कितनी असम्भव यंत्रणाओं से
घिरा है यह जीवन।
सौ तरह की रिक्तताओं में
अन्यंत्र एक स्वर उभरता है।
देखती हूँ इधर स्वप्न में कुमार गन्धर्व गा रहे हैं
उड़ जाएगा हंस अकेला।
मैं एकाएक अपने कानों में
तुम्हारी पुकार पहनकर
हर ऋतु से नङ्गे पांव तुम्हारा पता पूछती हूँ।
कैसी बैरन घड़ी है
किसी दिशा से कोई उत्तर नहीं आता।
तुम कहाँ हो ?
मुझे तुम्हारे पास आना है
6
इधर इस बूढ़े पहाड़ पर
पावस ढुलता है मेरी पीठ पर धारासार
उधर विस्मृति के देवता
मधुर स्मृतियों के सब चिह्न धो देते हैं
कपास से भी हल्का तुम्हारा चुम्बन
मेरे माथे पर दीपक सा जलता तो है
आलोक नहीं देता
तुम्हारे घुटने की तिकोनी अस्थि पर
टिके सामर्थ्य का सूर्य
पच्छिम में ऐसे डूबता है
कि कोमल आश्वस्ति का एक समूचा शहर
पृथ्वी के नक़्शे से भटक जाता है
प्रणय के मुरझाए फूलों को
निःश्वास भरकर देखती हूँ
तुम्हारे पीछे जाती हूँ
तो संकोच का एक तारा
मेरे स्वाभिमान की एड़ियों में गड़ता है
स्पर्श और गन्ध के अलंकार
स्मृतियों में ठिठकते हैं
मेरे एकांत की मिट्टी में
तुम्हारी छाया छूने की कामनाएँ उगती हैं
अप्रासंगिक हो चुके उदाहरणों में
विवेक और करुणा नहीं
बस शोक बचता है
अकूत धैर्य बरतकर भी
बार-बार आत्मा के घावों की
गिनती भूल जाती हूँ।
देह का नमक
नए आँसू ईजाद करता है
क्षण भर का संवाद
अपरिमित चुप्पियाँ बनाता हैं
तुम्हे भूलने की
कोई तरक़ीब काम नहीं आती
तुम ज़रा देर को चश्मा क्या हटाते हो
मेरी बिसरी कामनाओं को
तुम्हारी आंखों की भाषा
फिर फिर कंठस्थ हो जाती है
7
आत्मालाप का उन्मादी अभ्यास ही है
इस घाटी के माइनस तीन डिग्री पर
ज्वर में मेरा बड़बड़ाना
अधकच्चे स्वप्न में देखती हूँ
इत्र में भीगी एक नीली अंतर्देशीय चिठ्ठी
अपने नाम वाली
सोचती हूँ
इस वन सरीखे गांव में ही होना था स्थानांतरण
जहाँ डाकखाना तो क्या
कोई नीली लाल डाकपेटी भी नहीं आसपास
जहां डाकिए
साइकिल की घण्टी बजाते हुए न गुज़रते हों
ऐसे अभागे स्थान पर रह कर क्या लाभ
आत्मा 'प्रिय' जैसे मृदुल
सम्बोधनों को तरसती हो जहां
ऐसी अप्रिय जगह हरगिज़ न रहना चाहिए
कैसा अटपटा है यह गांव
जहां पुरखे तो स्वप्न में
पाप पुण्य की कहकर कान खाते हैं
आदमी आदमी से मगर
दिल की बात नहीं कह सकता
वैचारिकी और विमर्शों के लिए
अखबार पहुंच ही जाते हैं तीसरे दिन मुझ तक
कोई चिठ्ठी मगर नहीं आती
यह लोभ आख़िरी इच्छा की तरह
मर्मान्तक संताप बनकर
मन के अभावों में पैठ गया है
ज्वर में देह का
आवां धधकता रहता है
मन चिठ्ठी की आहट पोसता रहता है
अचेतन मन स्वप्न में
तुम्हारी चिठ्ठियों के आखर चुगता है
न चिठ्ठी आती है
न ज्वर उतरता है ....
8
निद्रा
दयार्द्र ईश्वर का
सबसे करुण उपहार है
जो मैं बेध्यानी में कहीं रख कर भूल गयी हूँ ।
पुरानी स्मृतियाँ
आंखों को इस तरह काटती हैं
ज्यों काटता हो कोई नया जूता सुकोमल पांव को
मैं रात भर जागती हूँ
पलकों के क्षितिज पर
नींद का रुपहला तारा टिमटिमाता रहता है
किसी दिन
अचानक चौंकाती है यह बात
कि उसकी सूरत भूल रही हूं
लाज से गड़ती हूँ कि
अब स्वप्न में उसे नहीं
स्वयं ही को सुख से सोते हुए देखना चाहती हूँ
रोज़ रात गुलाबी पर्ची पर
लिखती हूँ अपनी एकशब्दीय कामना 'नींद'
सुबह तक उसका रंग उड़ कर सफ़ेद हो जाता है
अपने खुरदुरे स्वर से
अपनी बंजर पलकों पर
बेग़म अख़्तर की ठुमरी का मरहम रखती हूं
"कोयलिया मत कर पुकार
करेजवा लागे कटार"
जब पूरा गांव
निस्तब्धता में खो जाता है
मैं उनींदी आत्मा लिए
मन ही मन बुदबुदाती हूँ एक निर्दोष प्रार्थना
कि हे ईश्वर !
मेरी सब प्रेम कविताओं के बदले
मुझे बस एक रात की गाढ़ी और मीठी नींद दे दो !