Sunday, August 14, 2022

एक पारदर्शी प्रकाशकीय उपक्रम


कुत्ते का आत्म समर्पण
युवा कथाकार मितेश्वर आनन्द की एक ऐसी रचना है जिसका यथार्थ एक ऐसे पिता के चित्र को सामने लाता जो अपने भीतर की नफरत और सनक के लिए अपने पांच साल के बच्चे को इस कदर प्रताड़ित करता है कि अपनी नफरत और घृणा को तार्किक आधार देने के लिए पिता जब अपने बालक को गवाह की लिए इस्तेमाल करता है तो भयातुर बच्चे को एक झूठ को ही सच की तरह रखना होता है. बहुत ही सहजता से लिखी गई इस कहानी को यदि हम इस तरह से करते है कि यह अभी तक के एक अनाम-से लेखक की कहानी है तो तय है कि कहानी हमे इकहरे पाठ सी दिखेगी, और हो सकता है लेखक के निजि रूप से जानने के कारण भी हम उसका सीमित अर्थो वाला पाठ ही करें, लेकिन यदि काव्यांश प्र्काशन से प्रकाशित हुए मितेश्वर आनंद के कथासंग्र्ह हैंड्ल पैंडल की अन्य रचनाओं को भी पढेगे तो पाएंगे कि देश दुनिया की राजनिति को देखने और समझने के लिए इन कहानियों के कथानक खासे सहायक हो रहे हैं और एक रचनकार की मौलिकता के स्पष्ट हस्ताक्षर हो जा रहे हैं.

संग्रह की एक अन्य कहानी, मद्दी का रावण को यहां इसी उद्देश्य के साथ पुन: प्रकाशित किया जा रहा है इस ब्लाग के पाठक एक उर्जावान रचनाकार की रचना से सीधे साक्षात्कार कर सके. इस कहानी की खूबसूरती को देखने के लिए कहानी को पूरा पढ जाने के बाद शीर्षक को दुबारा से पढने की जरुरत है. देख सकते है कि शीर्षक कथापात्र के पुतले की बात कर रहा. कथा पात्र को स्वयं रचनाकार के रूप में रख कर पढ़ें तो लिखी गई कहानी अपने उस औचित्य तक पहुंचने में मद्द कर सकती है जो कहानी के मर्म के रूप में उस अंतिम वाक्य में सिमटा हुआ है, “मेरे ख्याल से संसार में एकमात्र मद्दी ही ऐसा शख्स होगा जिसे रावण के मरने का दुःख मंदोदरी से भी ज्यादा होगा।
 “हे राम! हाय रे मद्दी! हाय रे तेरा रावण!

कहानी से बाहर जा कर रचनाकार के वक्तव्य को भी यहां देखा जा सकता है, “वैसे मुझे हर आम आदमी में मद्दी दिखाई देता है जो न जाने कब से मंगू एंड गैंग के हाथों ठगा जाता रहा है। उसे सब्ज़बाग दिखाकर उसका इस्तेमाल किया जाता है। बार-बार कोई मंगू उसको झूठे सपने दिखाने में कामयाब हो जाता है। मज़े की बात यह है कि हर दफा मद्दी मंगू झांसे में आ जाता है। अपनी मेहनत और विश्वास उस पर लुटाता है और हर बार मंगू उसकी मेहनत का श्रेय ले जाता है। मंगू मन मसोसकर रह जाता है। फिर एक नया मंगू आता है। फिर से मद्दी का रावण बनने लग जाता है।“

मितेश्वर आनंद के इस संग्रह से परिचित होने का अवसर पिछ्ले कुछ समय से ही दिखायी दिये काव्यांश प्रकाशन, ऋषीकेश के मार्फत सम्भव हुआ.

यह देखना दिलचस्प है कि हिंदी प्रकाशन की वर्तमान दुनिया को हाल ही में सामने आये दो प्रकाशकों ने काफी हद तक बदल कर रख दिया है. यह उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय स्तर पर न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने और उत्तराखंड के स्तर पर काव्यांश प्रकाशन, ऋषीकेश ने लेखकों की गरिमा को ससम्मान रखने का जो जेस्चर पोस्चर दिया, उसके कारण लेखक को ही ग्राहक मानने वाली प्रकाशकीय चालबाजियों पर कुछ हद तक लगाम लगी है. लेखक प्रकाशक सम्बंध ज्यादा पारदर्शी हो, हलांकि उस दिशा में यह अभी एकदम शुरुआती जैसी स्थिति है, लेकिन आशांवित कर रही है.



विगौ


कहानी


मितेश्वर आनन्द 



मद्दी का रावण



मद्दी एक बहुत ही काबिल, सुसंस्कृत और गुणी लड़का था। यारों का यार। मंगू, मुरारी, बच्ची और लखन उसके जिगरी यार थे। शैतानी में चारों के चारो एक से बढ़कर एक। मद्दी एक शरीफ लड़का था जो अपने दोस्तों के बीच ऐसे ही फँस गया था जैसे कौरवों के बीच कर्ण। मंगू इनका लीडर था। ये चारों बैट-बॉल खेलते रहते तो मद्दी इनके बस्तों की रखवाली करता। दोस्ती के चक्कर में इसे भी पीरियड गोल करना पड़ता। अक्सर इन चारों के चक्कर में बेचारा मद्दी मास्टर जी के हाथों धुना जाता। मगर दोस्ती फिर दोस्ती ठहरी।

 

ये पांचों सरकारी मिडिल स्कूल में पढ़ते थे जिसे तंबू वाला स्कूल कहा जाता था।  सरकारी स्कूल था सो दसियों साल से बिल्डिंग का नक्शा बजट की राह देखते देखते फाइलों में दम तोड़ चुका था। उधर मंगू और गैंग जैसे बदमाश लड़कों ने तंबुओं में नुकीली चीज़े मार मार कर अनेकों छेद कर दिए थे। इन असंख्य छिद्रों में से कुछेक छिद्रों से आने वाली धूप जब गणित के गुप्ता सरजी की गंजी चाँद पर नव्वे अंश का कोण बनाकर पड़ती तो एक अद्भुत खगोलीय घटना घटती। गुप्ता सर गणित पढ़ाने से ज्यादा विद्यालय के दफ्तरी कार्यों में ज्यादा मगन रहते थे। अक्सर क्लास में वे अपनी कुर्सी पर बैठे बैठे फाइलों के पन्ने उलटते पलटते रहते।

 

तो होता कुछ यूँ कि ऊपर तंबू के छेद से उनकी चमकदार चाँद पर पड़ने वाली किरणे उनकी शीतल चाँद को अलग अलग कोणों से गरम करती रहती थी। फाइलों के पन्नों में डूबे गुप्ता सरजी भी उसी हिसाब से अपनी चाँद को खुजाते रहते। उनकी चाँद के दक्षिणी ध्रुव को गरमाती हुई धूप उत्तरी ध्रुव की जमा बर्फ पिघला देती और गुप्ता सरजी की सिर खुजाती उंगलियां भी उसी अनुरूप यात्रा करती। बच्चे रोज घटित होने वाली इस अद्भुत खगोलीय घटना पर मन ही मन वाह वाह कर उठते।

 

दशहरा नज़दीक रहा था और इस दौरान ये लोग रोज रात को रामलीला देखने जाते और लौटते समय रावणलीला करते हुए लौटते। एक दिन सुबह स्कूल से भागकर शैतानों की यह टोली दशहरे पर घूमने की प्लानिंग करने लगी बातों बातों में गैंग के लीडर मंगू ने सुझाव रखा कि क्यों इस बार रावण का पुतला तैयार करके उसे मोहल्ले में ही जलाया जाए। सभी को विचार भा गया। उसी समय मद्दी ने बड़े गर्व के साथ बताया कि उसे पुतले बनाने और फूँकने का पुराना तजुर्बा था क्योंकि उसने अपने पड़ोसी सुक्खी पहलवान की शागिर्दी में कई नेताओं के पुतले बनाये और फूंके थे। मंगू ने मद्दी की पीठ थपथपाई और ऐलान किया कि आज ही से मोहल्ले के सभी घरों से चन्दा इक्कठा करके रावण के पुतले के लिए पैसे जुटा लिए जाएं। दशहरे से एक दिन पहले मद्दी की बनाई लिस्ट के मुताबिक ततारपुर से सारा सामान ले आया गया और दशहरे के दिन सुबह सुबह मद्दी रावण का पुतला बनाने में जुट गया।  

 

मद्दी ने सबसे पहले सारे समान को खुद उठाकर पुतला बनाने वाली जगह पर सहूलियत से रखा फिर पूरे दमखम से बांस चीरने, कागज काटने, गोंद लगाने, रंग लगाने, लोहे के तार से बांस के जोड़ों को बांधने, ढांचे में पटाखे लगाने जैसे काम करने में लगा रहा। मंगू और बाकी दोस्त बहुत तारीफ भरी नजरों से मद्दी को देखते रहते और बीच बीच में 'शाबाश मद्दी, लगा रह। तू तो छिपा रुस्तम निकला बे।' कहकर सिर्फ जुबानी जमाखर्च से उसकी होंसला अफ़ज़ाई करते मगर मजाल क्या किसी एक ने भी मद्दी की सुई उठाने जितनी मदद की हो। इधर मंगू ने ऐलान किया कि उसे भूख लग गयी है सो वह घर जाकर नाश्ता पानी करके आएगा। साथ ही उसने बाक़ियों को निर्देश दिया कि मद्दी पर पैनी नज़र बनाये रखी जाए ताकि वो इधर उधर होने पाए।

 

बेचारा मद्दी जो घर से केवल एक कप चाय पीकर काम पर लग गया था उसको किसी ने कुछ नही पूछा। तकरीबन एक घण्टे बाद मंगू वापिस लौटा। लौटते ही उसने पुतला निर्माण में धीमेपन की शिकायत करते हुए मद्दी को फटकारा और उसे तेजी  काम करने की हिदायत दी। मंगू को नाराज़ देखकर मद्दी की नाश्ता करने की प्रबल इच्छा दब गई। इसी बीच एक एक कर मद्दी के बाकी दोस्त भी अपने अपने घर जाकर खा पीकर लौट आये पर किसी नामुराद ने मद्दी को एक गिलास पानी तक पूछा। वो तो भला हो सामने वाले शंटी चोखे की मम्मी का जिन्होंने एक बार उसे चाय पिलाई।

 

होते करते मद्दी ने भूख प्यास और बीच बीच में मंगू की फटकार झेलते झेलते दोपहर के साढ़े चार बजे तक शानदार पुतला तैयार करके खड़ा कर दिया। सात फुट का शानदार रावण का पुतला बना था। पुतले को बांधकर अंतिम रूप से गली के बीचोंबीच खड़ा कर दिया गया। गैंग लीडर मंगू ने चमक भरी आंखों से पुतले को देखा और शाम को सात बजे पुतला फूँकने का समय मुकर्रर किया। मद्दी को 'शाबाश मद्दी' के अलावा कोई दूसरा शब्द तारीफ का सुनने को नही मिला जैसे दिनभर में उसे शंटी चोखे की मम्मी से मिली चाय के अलावा एक दाना तक नसीब हुआ था। अब मद्दी को जबरदस्त भूख सताने लगी। पुतला दहन में ढाई घण्टे का समय शेष था। वो घर की ओर दौड़ पड़ा।

 

इधर मंगू और बाकी दोस्त पुतले के सामने ही खड़े रहे। गली से आते जाते आंटी, अंकल, भैया आदि पुतला देखकर मंगू और टोली की तारीफ करते। उधर मद्दी ज्यों ही घर पहुंचा, उसकी माताजी उस पर टूट पड़ी। दिन भर बिना बताए घर से बाहर रहने पर उसे तमांचे जड़े और जी भरकर डांट पिलाई। समय-समय पर अपने ऊपर होने वाले माँ के बाहुबल और वाणी के आक्रमणों का मद्दी अभ्यस्त हो चला था। सो उसे कोई फर्क नही पड़ा। दिनभर काम करते रहने से पसीने और धूलमिट्टी से उसके कपड़े बास मारने लगे थे। मद्दी पहले नहाने चला गया उधर ईजा ने मद्दी पर बड़बड़ाते दिन के बने खाने को गर्म किया। नहाधोकर मद्दी ने जमकर खाना खाया और लेट गया। लेटे लेटे उसकी आँख लग गयी।

 

अचानक आँटी ने उसे झकझोड़ कर उठाया। उठते ही उसके कानों में अपनी माँ के कटु वचनों के साथ-साथ पटाखे फूटने की आवाज़े सुनी। घड़ी देखी, संतुष्टि हुई कि अभी साढ़े छह ही बज रहे थे। आधा घण्टा शेष था। सो मद्दी इत्मीनान से उठकर पुतले की ओर चल पड़ा। जैसे ही वह पुतला स्थल पर पहुँचा, उसके कदमों तले जमीन खिसक गई। पुतला फूंका जा चुका था उसके अवशेष जमीन पर बिखरे पड़े थे। मंगू और टोली मोहल्ले के लोगों के साथ वही पर मौजूद थी। लोग मंगू की तारीफ कर रहे थे। मंगू और बाकी दोस्तों की नज़र मद्दी पर पड़ी उन्होंने उसे कोई खास भाव नही दिया। उल्टे उसे हड़काते हुए कहा, 'कहां मर गया था रे! सबने जल्दी जल्दी पुतला जलाने पर जोर दिया इसलिए हमने साढ़े छह बजे ही पुतला जला दिया।

 

हाय राम! मद्दी के दिल के भयानक टीस उठी। सारा दिन भूखे प्यासे रहकर उसने पुतला बनाया। दिनभर काम कर करके उसके सभी अंग प्रत्यंग दुख रहे थे। तारीफ के दो शब्द तो छोड़ो मगर इन कमीनों ने रावण फूंकते समय उसे बुलाया तक नही। हे ईश्वर! ऐसे दोस्त तो दुश्मन तक को मत देना। हाय! मैं अपने बनाये रावण को एक बार ठीक से देख तक पाया। मंगू, मुरारी, बच्ची और लखन की शैतानियों के किस्सों पर कभी बाद में बात करेंगे मगर आज मद्दी एक बड़ी विदेशी कम्पनी में बड़ा अफसर है। तब का दिन है और आज का दिन है अगर कोई बन्दा गलती से भी मद्दी से दशहरे और रावण के पुतले की बात करता है तो मद्दी उसको मारने उसके पीछे दौड़ पड़ता है। उसके जख्म हरे हो जाते हैं। बेचारे मद्दी की किस्मत, हर साल कोई कोई नामुराद उसके जख्मों को हरा कर ही देता है। मेरे ख्याल से संसार में एकमात्र मद्दी ही ऐसा शख्स होगा जिसे रावण के मरने का दुःख मंदोदरी से भी ज्यादा होगा।

 

हे राम! हाय रे मद्दी! हाय रे तेरा रावण!

Friday, August 12, 2022

कहने और सुनने का बोध

कानपुर में रहने वाले युवा कवि योगेश ध्यानी की ये कविताएं यूं तो शीर्षक विहीन है. लेकिन एक अंतर्धारा इन्हें फिर भी इतना करीब से जोड्ती है मानो खंडों मे लिखी कोई लम्बी कविता हो. एक ऐसी कविता, जिसका पाठ और जिसकी अर्थ व्यापति किसी सीमा में नहीं रहना चाह्ती है. अपने तरह से सार्वभौमिक होने को उद्यत रहती है, वैश्विक दुनिया का वह अनुभव, पेशेगत अवसरों के कारण जिन्होंने कवि के व्यक्तित्व में स्थाई रूप से वास किया हो शायद. कवि का परिचय बता रहा है पेशे के रूप में कवि योगेश ध्यानी मर्चेंट नेवी मे अभियन्ता के रूप मे कार्यरत है. अपनी स्थानिकता के साथ गुथ्मगुथा होने की तमीज को धारण करते हुए वैश्विक चिंताओं से भरी योगेश ध्यानी की ये कविताएँ एक चिंतनशील एवं विवेकवान नागरिक का परिचय खुद ब खुद दे देती है. पाठक उसका अस्वाद अपने से ले सके, इस उम्मीद के साथ ही इन्हें प्रकाशित माना जाये.

परिचय:

आयु – 38 वर्ष

मर्चेंट नेवी मे अभियन्ता के रूप मे कार्यरत

साहित्य मे छात्र जीवन से ही गहरी रुचि

कादम्बिनी, बहुमत, प्रेरणा अंशु, साहित्यनामा आदि पत्रिकाओं तथा पोषम पा, अनुनाद, इन्द्रधनुष, कथान्तर-अवान्तर, मालोटा फोक्स, हमारा मोर्चा, साहित्यिकी आदि वेब पोर्टल पर कुछ कविताओं का प्रकाशन हुआ।

कुछ विश्व कविताओं के हिन्दी अनुवाद पोषम पा पर प्रकाशित हैं।



कविताएं


योगेश ध्यानी


1

किसी के पूरा पुकारने पर
थोड़ा पंहुचता हूँ
ढूंढता हूँ कहाँ हूँ
छूटा बचा हुआ मैं

होने और न होने के बीच
वह क्या है जो छूट गया है
जिसमें पूर्णता का बोध है

पूरा निकलता हूँ घर से
और आधा लौटता हूँ वापस
थोड़ा-थोड़ा मन मार आता हूँ
इच्छाओं पर
खाली मन में
अनिच्छाएं लिये लौटता हूँ

कोई दाख़िल नहीं होता
समूचा भविष्य में
अतीत में छूटता जाता है थोड़ा
मैं छूटता जा रहा हूँ थोड़ा सा
स्वयं से हर क्षण

जीवन जब आखिरी क्षण पर होगा
सिर्फ सार बचेगा
उससे ठीक पहले पिछले क्षण में
छूट चुका हूंगा सारा मैं ।

 

2

अधूरी पंक्ति के पूरा होने तक
लेखक के भीतर रहता है
कुछ अधूरा

हर लेखक के भीतर रहते हैं
कितने अधूरे

हर अधूरा दूसरे अधूरों से
इतना पृथक होता है
कि सारे अधूरे मिलकर भी
नहीं हो पाते पूर्ण

एक लेखक
जीवन भर ढोता है अपूर्णताएं
और दफ्न हो जाता है
मृत्यु पश्चात
उन सारे अधूरों के साथ
जिनके भाग्य में नहीं थी पूर्णता ।

 

3

एक आदमी कुछ कह रहा है
बाकी सब समवेत स्वर में कहते हैं
"सही बात"

बतकही चलती रहती है
कुछ समय बाद
दूसरा आदमी कहता है
पहले से ठीक उल्टी बात
बाकी सब फिर कहते हैं समवेत
"सही बात"

ये सब किसी मुद्दे के हल के लिए नहीं बैठे
अपने-अपने सन्नाटों से ऊबकर
सिर्फ साथ बैठने के सुख के लिये
बैठे हैं साथ ।

4

गेंहू और पानी जितने अलग हैं,
बाहर से
तुम्हारे और मेरे दुख

मगर भीतर से इतने समान
कि यकीन जानो
गूंथा जा सकता है उन्हें,
बेला जा सकता है
और बदला जा सकता है
खूबसूरत आकार की
रोटियों में ।


5

कब चाही मैंने हत्या,
रक्त के पक्ष में कब सुनी
तुमने मेरी दलील

मैंने तो रोपना चाहा जीवन,
चाहा सदा फूलों का सानिध्य

किस सांचे में ढाली
तुमने मेरी धार

तुम तो समझ सकते थे
कुल्हाड़ी और कुदाल का फर्क

मेरे मन की क्यों नहीं सुनी
तुमने लोहार !

Monday, August 8, 2022

नमक की बूंदें


स्वाद की सबसे आधारभूत जरुरत की जब भी बात होगी, नमक के जिक्र के बिना वह बात पूरी नहीं हो सकती. बल्कि ऐसी कोई भी बात तो नमक का जिक्र करते हुए ही शुरु होगी. इस तरह से देखें तो जीवन के सत को यदि कोई परिभाषित कर सकता है तो निश्चित ही वह तत्व नमक हो सकता है. ॠतु डिमरी नौटियाल की कविता में यह नमक बार बार प्रकट होता है. उदासी के हर क्षण में स्त्री मन की भाव दशा को रेखांकित करने के लिए ॠतु उसको सबसे सहज और सम्प्रेषणीय प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करती है. अपनी उपस्थिति से स्त्री और पुरुष के भीतर को प्रभावित कर देने की क्षमता संपन्न नमक की यह भी विशेषता है कि वह अपने सबसे करीबी के कंधों में टंगे थैलों में कुछ गैर जरुरी किताबों के साथ बैनर पोस्तर हो जाना चाहता है. प्रस्तुत है ॠतु की कुछ कविताएँ.

 
ऋतु डिमरी नौटियाल
शिक्षा : स्नातकोत्तर (सांख्यिकी) 
कृतित्व :

समर प्रकाशन द्वारा (प्रकाशानाधीन) सौ कवियों की कविताओं के साझा संग्रह में कविताएँ सम्मिलित

आजकल पत्रिका के जून अंक में कविताएँ प्रकाशित

इंदौर समाचार दैनिक पत्र में कविताएँ प्रकाशित 
मोबाइल नंबर : 9899628430


 

ॠतु डिमरी नौटियाल 




भार 

 

 जब तक हवा रही भीतर

 फेफडों में  आक्सीजन बनकर

 उड़ती रहीं गुब्बारे के मानिंद,

 

अब शून्य है

लेकिन भारी  इतना

कि उठने ही न दे

मानो कैद हो गयी देह

कोठरी में

 


निशान

 

नदी!!

मरने के बाद

गहराई छोड़ जाती है;

 

आंसू!!

ढुलकने  के बाद

लकीर छोड़ जाते हैं;

 

भाषा!!

विलुप्‍त कर दिये जाने के बाद भी

इतिहास छोड़ जाती है;

 

विछोह !! 

छोड जाता है स्मृतियाँ

उस घाव की तरह

जिसे कुरेद कुरेद के

हरा किया जा सकतता है प्रेम

 

कहाँ खतम हो पाता है सब कुछ यूंही  

 

   

पूरक

 

मेरा तुमको देखना

तुम्हारा मुझको देखना

कभी एक सा नहीं

 

मेरे भीतर के जंगल में

तुम बोन्साई ढूंढते हो,

कतरते हो एक एक टहनी

संभावित बाग के लिए

 

जब तुम पतझड़ बनते हो

मैं पेड़ बन जाने की कामना करती हूँ

जिसमें तुम अपना बसंत आना भी देख सको

 

 

जब मैं रेगिस्तान में 

ढूढती हूं प्‍यास

छायाएं भ्रम खडा कर देती हैं

तुम भी उस वक्‍त मेरे भीतर

बो देते हो कैक्टस

 

जब तुम अपने भीतर के समन्दर में

मोती होने का दावा करते हो

मुझे मिलती हैं सिर्फ नमक की बूंदें

प्यास बुझाने की झिझक में

जिन्‍हें मीठा कर देती हूँ मैं

 

 


 नमक

 

उतर गया शरीर का

सारा नमक

बचा रह गया

फिर भी आंसुओं में,

एक कतरा

सहेज लेना चाहती है

फिर से अपने भीतर

Saturday, July 30, 2022

गैट अप, स्टेंड अप, ग्रो अप

पिछले दिनों अपनी निजी यात्रा से लौटे कथाकार और आलोचक दिनेश चंद जोशी के मुताबिक जुलाई 2022 के शुरुआती सप्ताह में आस्ट्रेलिया जोशो-खरोश से मनाये जाने वाले दृश्य व खबरों से रंगा रहा। 4 जुलाई से 11 जुलाई तक एबओरिजनल और टौरिस स्ट्रेट आइसलेंडर समुदाय की कमेटी ने सप्ताह भर के कार्यक्रमों से सराबोर एक उत्‍सव का आयोजन किया। बल्कि, उस पूरे सप्ताह आस्ट्रेलिया के समस्त आदिवासी समुदाय की संस्कृति,कला,सभ्यता एवं उनकी उपलब्धियों के प्रचार प्रसार और उनके संघर्षों के प्रति सम्मान जताने हेतु सरकारी,गैर-सरकारी तौर पर संचेतना कार्यक्रम आयोजित किए गये। कार्यक्रमों के श्रृंखला की वर्ष 2022 की थीम था," गैट अप, स्टेंड अप,और ग्रो अप"। साथ ही आस्ट्रेलियन ब्राडकास्टिंग कारप़ोरेसन (ए.बी.सी) का 90 वां बर्ष मनाये जाने की धूम टी वी पर थी। इस रेडियो स्टेशन की शुरुआत 1932 में हुई थी।


दिनेश जोशी कहते हैं कि दिसम्‍बर और जनवरी माह के आस-पास उत्‍तर भारत में रिमझिम बारिश का जो मौसम होता है और जैसी कड़क ठंड होती है, जुलाई माह का आस्ट्रेलिया लगभग उसी रिमझिम बारिश के गीले मौसम सा होता है। उसी दौरान, स्कूलों में तीन सप्ताह का अवकाश रहा। भ्रमण व सैर-सपाटे की गहमागहमी चारों ओर थी। मौसम की वजह से ही नहीं बल्कि जाड़ों की लगातार बारिश के कारण आसपास के निचले इलाकों में बाढ़ व घरों में पानी भर जाने के जो दृश्य वहां दिख रहे थे, उस वक्‍त आट्रेलिया उन्‍हें हूबहू अपने भारतीय शहरों की बरसात के मंजर जैसे लग रहा था। यह प्रश्‍न उनके भीतर उठ रहे थे, 'जल निकासी की व्यवस्था यहां भी विश्वसनीय नहीं है क्या?' इन उठते हुए प्रश्‍नों के साथ जिस आस्‍ट्रेलिया से वे हमें परिचित कराते हैं, मेरे अभी तक के अनुभव में वैसा आस्‍ट्रेलिय शाश्‍द ही कहीं दर्ज हो। आइये पढ़ते हैं जोशी जी का वह संस्‍मरण।

विगौ

दिनेश जोशी 


आस्ट्रेलिया हमारे इतिहासबोध में सुदूर स्थित पृथ्वी के नक्शे से अलग एक बेढंगे गोल शरीफे जैसे भूखंड के आकार का महाद्वीप है। रोचक तथ्य यह भी है कि आज यही महाद्वीप एकमात्र ऐसा भूखंड है जिसमें सिर्फ एक ही देश है। हमारी मिथकीय जानकारी और कल्पना के अनुसार दुनिया की सबसे पुरातन जनजातियों के लोग कभी यहां रहते थे। ब्रिटिश उपनिवेश के प्रारम्भिक दौर से पहले तक उन मूल जनजातियों की संख्या लाखों करोड़ों में बताई जाती है।
लेकिन अब इस महाद्वीप में समायी पचानबे प्रतिशत आवादी ब्रिटिश,आइरिस,ग्रीक,यूरोपीय,चीनी,
जापानी,कोरियाई,ईरानी लेबनानी, वियतनामी तथा अपने भारत,पाकिस्तान, बंग्लादेश,श्रीलंका, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि दक्षिण एशियाई देशों के मूल नागरिकों से अटी पड़ी है।

यहां अब मिश्रित व मूल आदिवासी समुदाय की जनसंख्या लगभग आठ लाख है जो महाद्वीप की कुल,ढाई तीन करोड़ की आबादी का चार प्रतिशत बैठता है।
इस आवादी से थोड़ा कम लगभग तीन प्रतिशत तो यहां भारतीय मूल के लोग ही रहते हैं।
तो,तीन करोड़ की कुल आवादी में इतने कम मूल निवासियों का बचा होना क्या दर्शाता है! निश्चित रूप से यह आंकड़ा हैरतअंगेज​ करने वाला भले ही न हो पर विचारणीय व विमर्श के लायक तो है ही।
यहां के महानगर व उपनगरों में शक्ल सूरत से पहचान में आने वाले मूल निवासी तो बिल्कुल नजर नहीं आते,हां,बताया जाता है कि सुदूर दक्षिण व उत्तरी क्षेत्र के भीतरी इलाकों में वे पहचान में आ जाते हैं। इतने वर्षों बाहरी लोगो के सम्पर्क में आने से,यूं भी शुद्ध जनजातीय रक्त वाले वंशजों का मौजूद होना नामुमकिन है। अभी पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त हुए,पहले आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले सज्जन की फोटो टीवी पर देखी थी। वे रंग में गोरे,पर नाक नक्श से जरूर जनजातीय अन्वार लिए लग रहे थे।
मौसम के बरसाती तेवर के बीच बारिश के थोड़ा थमते ही बिल्कुल नीचे प्रतीत होते आसमान में बादलों के धुंए जैसे छल्ले हवा के वेग से चरवाहे की हांक से भागते भेड़ों के रेवड़ जैसे प्रतीत हो रहे हैं। प्रशान्त महासागर के इतने करीब के बादल ऐसे चलायमान नहीं होंगे तो कहां के होंगे,सोचता हुआ मैं यहां के औपनिवेशिक काल के शुरुआती इतिहास के प्रति जिज्ञासु हो उठा।


अफ्रीकी महाद्वीप से पुराआदि काल में हुए एकमात्र मानव प्रवास के प्रमाणिक सूत्र,आस्ट्रेलियाई​ जनजातीय समुहों के डी.एन.ए में पाये गये हैं,जोकि इसको विश्व की प्राचीनतम सभ्यता साबित करते हैं। आज से पचास साठ हजार वर्ष पुरानी जीवित संस्कृति के कस्टोडियन कहे जाने वाले लगभग तीन सौ विभिन्न भाषाई व रीति रिवाजों से भरे जन समूह वाले इस द्वीप के पूर्वी तट,यानी वर्तमान शिडनी में में जेम्स कुक नामक अंग्रेज नाविक ने सन् 1770 में कदम रख कर ब्रिटिश राज की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया था। सुदूर सागर के मध्य ऐसी खुली धरती पाकर ब्रिटिश उपनिवेशकों ने द्वीप पर कब्जे की योजना बना ली।शुरुआत में इंग्लैंड की जेलों में बढ़ी हुई कैदियों की संख्या को इस धरती पर बैरक बना कर,यहां भेज देने के साथ ही आगामी कब्जे का शिलान्यास कर दिया गया।इसीलिए आस्ट्रेलिया को ब्रितानी अभियुक्तों का ठिकाना कहा जाता है।
सन 1788 में कैप्टन आर्थर फिलिप अपने जहाज में अभियुक्तों, नाविकों व कुछ अन्य नागरिकों से भरे 1500 लोगों के साथ शिडनी कोस्ट में उतरा। उसके बाद,साल दर साल विधिवत अंग्रेजों की रिहाइशों का यहां के भिन्न-भिन्न तटों पर बसना प्रारंभ हो गया।मूल निवासियों के साथ हुए संघर्ष व हिंसा के अगले दस वर्षों में आदिवासियों की आवादी घट कर काफी कम हो गई। जिसके लिए जिम्मेदार, मुख्यतया बाहरी लोगों के आने से फैली नई बीमारियों,स्माल पाक्स,मिजिल्स, दिमागी बुखार व अन्य महामारियों के साथ उनकी जमीनों को हड़पने में हुए खूनी संघर्ष के दौरान हुई मौतें हैं।
जनजातीय लोग निर्ममता पूर्वक साफ कर दिये गये, उनको खाने हेतु आर्सेनिक जैसे जहरीले रसायनों से युक्त भोजन तक दिये जाने की बातें पढ़ने को मिलती हैं ।इन वर्षों में हुए संघर्षों में लगभग 20000 आदिवासियों तथा दो ढाई सौ यूरोपीय लोगों के मारे जाने के आंकड़े मिलते हैं।औपनिवेशिक काल के संघर्षों के बाद कुल सात आठ लाख मूल लोगों के बचे होने का अनुमान लगाया जाता है।
उत्तरोत्तर,औपनिवेशिक बसावट के बाद अगले सौ वर्षों में मूल निवासियों की जनसंख्या घट कर डेड़ लाख से भी कम आंकी जाती है। सन 1900 तक इनकी संख्या डेड़ लाख तक रह गई।
आखिरी शुद्ध रक्त वाले तस्मानियाई ,'एबओरिजनल' शख्स की मौत 1876 में हुई बताई जाती है।मतलब कि मिश्रित वर्णसंकरता पहले ही काबिज हो चुकी थी।
1850 के आसपास सोने की खानों के पता चलने तथा उसकी खुदाई के तरीके जान लेने के बाद तो इस द्वीप का आर्थिक रूप से कायाकल्प हो गया। यहां की अपार खनिज सम्पदा की भनक यूरोप,चीन,यू.एस.ए तक पंहुची। हजारों चीनी मजदूर गोल्ड माइंस में काम करने आये,जो प्रथम चायनीज सैटिलमैंट के कारक बने। उनके वंशज आज,यहां की आवादी में बहुतायत के रूप में मौजूद हैं।
इस गोल्ड रस परिघटना के कारण ही यहां बहुभाषी,बहुधर्मी,विविधतापूर्ण संस्कृति की शुरुआत होने लगी,जो आज परिपक्व हो कर एक आदर्श जनतांत्रिक देश के रुप में पल्लवित नजर आती है,इस देश का कोई सरकारी संवैधानिक धर्म नहीं है, पचासों भाषाओं व दर्जनों धार्मिक मान्यताओं के लोग यहां जितने अमन चैन सहकार व सहअस्तित्व के साथ रहते हैं, वैसे अन्य देश विरले ही होंगे। नागरिकता यानी 'सिटीजनशिप' ही यहां का परम नागरिक धर्म है।
बहरहाल,औपनिवेशिक शासकों ने बाद में मूल निवासियों के संरक्षण संवर्धन व उनकी सभ्यता संस्कृति कला को बचाये रखने हेतु सहानुभूति पूर्वक काम किये,क्योंकि इस महादेश में निर्विवाद रूप से उनका राज था।उन्हें हमारे देश,भारत जैसे किसी स्वतंत्रता संग्राम का सामना भी नहीं करना पड़ा। अगर इतनी पुरानी आस्ट्रेलियाई जनजाति की हमारे यहां जैसी,वैदिक,रामायण,महाभारतकालीन सभ्यतायें,राज्य साम्राज्य,सल्तनत,सूबे व शिक्षा,कला संस्कृति होती तो आजादी की मांग भी उठती तधा औपनिवेशिक शासकों को लौटना
पड़ता । दुर्भाग्य से यहां के समस्त आदिवासी समुदाय का बाहरी सम्पर्क से अभाव,व विशाल सागर के मध्य स्थित द्वीप में अलग थलग पड़े पड़े रहने के कारण ऐसा हुआ होगा।


1901में 6 विभिन्न ब्रिटिश उपनिवेशों,न्यू साउथ वेल्स,क्वींसलैंड, विक्टोरिया, तस्मानिया,साउथ कोस्ट व पश्चिमीआस्ट्रेलिया को मिला कर 'कामनवेल्थ आफ आस्ट्रेलिया' नाम से इस देश का संवैधानिक जन्म हुआ।उसके पश्चात आधुनिक राष्ट्र के सभी गुण यहां की सरकारों ने अंगीकार करने प्रारम्भ किये।
जनजातियों की घटी हुई जनसंख्या में भी संरक्षण संवर्धन नीतियों से वृद्धि होना प्रारम्भ हुई।उनके सम्मान व अधिकारों हेतु बने सुधारवादी ग्रुपों​ ने समय समय पर अपने पूर्वजों के साथ हुए अत्याचारों व वर्ताव पर नाराजी जाहिर की,आवाज उठाई तथा प्रतिकर व पश्चाताप की मांग के साथ भूमि अधिकारों सहित तमाम रियायतों व सुविधाओं के हक प्राप्त किये।
'आस्ट्रेलिया दिवस',जो कि 26 जनवरी 1788 को प्रथम औपनिवेशिक जहाज के इस धरती पर उतरने की स्मृति में मनाया जाता है,उस के विरोध में जनजातीय ग्रुपों ने 1938 से 1955 तक लगातार विरोध,बहिष्कार किये इस दिन को 'शोक दिवस' के रूप में मनाया। जनजातीय संगठनों के संघर्षों व मानव अधिकार समितियों के प्रयास के साथ ही
इशाई मिशनरियों के हस्तक्षेप के कारण सरकार के साथ सुलह समझौते के प्रयास फलीभूत हुए।रिकन्सीलियेसन कमेटी व विभाग बने।
1972 में सरकार ने अलग से 'डिपार्टमेंट आफ एबओरिजनल अफेयर्स' का गठन किया।
आज वे लोग शिक्षित,सम्पन्न व सरकारी नौकरियों में हैं। सरकारी व रिजर्व जमीनें,पार्क,फार्मलैंड आदि उनके निजी नाम पर भले ही न हों पर प्रतीकात्मक रुप से उनके पूर्वजों की मानी जाती हैं।
उनसे कोई हाऊसटैक्स,लगान,आदि नहीं ली जाती।
हां,कामनवैल्थ देश होने के कारण ब्रिटिश महारानी के क्राउन का सम्मान व परंपरा का पालन अवश्य किया जाता है।
सार्वजनिक स्थानों पर आस्ट्रेलियाई झंडे के साथ एबओरिजनल,व टौरिस स्ट्रेट द्वीप के प्रतीक दो और झंडे और फहराये जाते हैं। टौरिस स्ट्रेट,क्वींसलैंड और पापुआ न्यू गुइना के मध्य स्थित द्वीप है। जहां के मूल निवासी आस्ट्रेलियाई एबओरिजनल आदिवासियों से भिन्न माने जाते हैं।जगह जगह पार्कों ,भवनों आदि में "देश का आभार" शीर्षक से स्मृति पटों पर लिखा मिलता है,
'हम एबओरिजनल तथा टौरिर स्ट्रेट आइसलैंडर जातियों के अतीत,वर्तमान व भविष्य का सम्मान करते हैं,हम इस धरती पर उनकी जीवित संस्कृति,गाथाओं व परंपराओं को आत्मसात करते हुए साथ साथ मिल कर इस देश के उज्जवल भविष्य के निर्माण हेतु प्रतिबद्ध हैं।'
इशाई धर्म की मिशनरियों के प्रभाव व वैचारिक सोच वाले राष्ट्रों की यह खूबी है कि वे पश्चाताप व कन्फैशन वाली उदारता दर्शाने में पीछे नहीं हटते तथा समझौता,सुलह या 'रीकन्सलियेसन'जैसी नीति के माध्यम से पीड़ित,प्रताड़ित जनों के घावों पर मरहम फेर कर द्वंद से बचते हुए भविष्य को उज्जवल बनाने में यकीन रखते हैं।इसी कारण उनकी सरकारों में अलग से रीकन्सीलियेसन विभाग' बनाये जाते हैं।
यह नीति भले ही कूटनीति हो,अगर राष्ट्रों में अमन चैन और समुदायों के बीच भाईचारा बढ़ता हो तो क्या नुकसान है!
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