पिछ्ले लगभग 70 वर्षो से के लेखकीय जीवन में सतत सक्रिय कथाकार सुभाष पंत ने हाल ही में अपने नये उपन्यास “एक रात का फासला” के अंतिम ड्राफ्ट को पूरा कर लेने की घोषणा फरवरी माह में की थी. वह दिन कथाकार के जीवन एक मह्त्वपूर्ण दिन था. जीवन के 84वें वसंत से 85वें वसंत प्रवेश करने का दिन. ब्लाग का मार्च महीना अपने प्रिय कथाकार
के लेखकीय जीवन में सतत सक्रिय रहने की शुभकामनाओ के साथ ही उंनकी अभी तक की लेखकीय
यात्रा को उत्खनन करने और उससे गुजरने की कोशिश है. आज पढते हैं अभी लिखे गए नये उपन्यास
“एक रात का फासला” का एक छोटा सा अंश. |
ससुराल की महापंचायत
शरीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ और
तीन घंटे बैलगाड़ी की यात्रा से थकी चम्पा अपने ससुराल की पंचायत में हाज़िर हुई। वह
अपने बड़े भाई के साथ आई थी, जिसकी
जिम्मेदारी उसे यात्रा में संरक्षण देना था। वह गवाह नहीं था लेकिन चम्पा को नैतिक
बल प्रदान करना और पंच फैसले को कार्यरूप में परिणित करना उसकी जिम्मेदारी थी।
वह सूती कमीज, लट्ठे का
पैजामा और सिर पर गुलाबी पगड़ी पहने था। उसकी मूँछों की ऐंठ और आँखों की चमक वैसी
नहीं थी जैसी अमूमन रहा करती थी। उसका आत्मविश्वास डिगा हुआ था क्योंकि सारी
स्थिति का विश्लेषण करने के बाद वह इस नतीजे पर पहुँचा था कि दोष चम्पा का ही है।
अपना ही सिक्का खोटा हो तो चाहने के बाद भी सिर उठा नहीं रह सकता।
चम्पा ने देखा। कई बुजुर्ग आसन पर बैठे थे। वे वक़्त से पिछड़े, लेकिन सम्मानित और ताक़तवर लोग थे
जिनके हाथों उसके भाग्य का फ़ैसला होना था। तप्पड़ में चार गाँवों के उत्सवप्रिय लोग
एक ऐसे दिलचस्प मामले को सुनने आए थे जैसा मामला उनके सुने और देखे इतिहास में
अनोखा था। वे पतन की पराकाष्ठा पर खड़ी उस स्त्री को देखने आए थे जिसने डोली से
उतरते ही अपने पति को पति मानने से इनकार कर दिया। उन्हें उम्मीद थी कि पंचायत सजा
के तौर पर उसे नंगा करके घुमाएगी। एक लड़की को, जिसके बारे
मे चर्चा थी कि वह बहुत खूबसूरत है, सरेआम नंगा
देखने का उन्माद उनकी नसों में दौड़ रहा था।
वादी पक्ष दर्शकदीर्घा के दायीं ओर खड़ा था। भूरे, राजेसुरी और किसन। उनके पीछे कुछ और
लोग भी थे जिन्हें चम्पा नहीं जानती थी। भूरे ने वे ही बाटा के पीटी शू पहन रखे थे
जिन्हे विवाह के समय पहनने से उसे लगा था कि उसकी नाक कट गई है। अब वे उसे रास आ
गए थे क्योंकि उनमें उछलना और भागना आसान था। राजेसुरी के सिर पर आधा पल्ला था।
उसका चेहरा इतना सपाट था कि उस पर कुछ भी लिखा जा सकता था। किसन उसी पोशाक में था
जो पोशाक उसने शादी में पहनी थी और उसकी कमर में वह तलवार लटक रही थी, जिस तलवार को लटकाकर वह उसे ब्याहकर
लाया था। उसकी पसली की टूटी हड्डियों की मरम्मत की जा चुकी थी और अब वह चाकचौबन्द
था।
जनसमूह को देख कर चम्पा दहल गई, जो उसे सज़ा
देने के लिए उत्सवभाव से वहाँ एकत्रित था। वक़्त के हर दौर में ऐसा ही हुआ है।
अपराधियों ने सज़ाएँ तय की हैं और उन्होंने उसे भुगता है जिन्होंने कोई अपराध नहीं
किया।
सारी आँँखें उसी पर टिकी हुई थी और सिर के ऊपर निष्ठुर आसमान तना हुआ था।
हवा बेचैन थी और पेड़ों के पत्ते हताशा में लड़खड़ा रहे थे। राहत की बात बस यही थी कि
उसका चेहरा घूँघट में था जिसने उसकी सारी दुर्बलताओं को सार्वजनीन होने से बचा रखा
था।
मुकदमा शुरु भी नहीं हुआ था कि दर्शकदीर्घा से एक प्रबुद्ध किस्म के आदमी
ने, जो नारी
समर्थ्ाक व्यक्ति था और विरल था, चिल्लाकर
व्यवस्था का प्रश्न खड़ा कर दिया, ‘वर की कमर
में तलवार बंधी है....पंच परमेश्वर बताएँ कि क्या पंचायत में हथियार लाने की इजाजत
है?’
दर्शकदीर्घा में हल्ला मच गया। मुकदमा शुरु होने से पहले किसन को अपनी कमर
में बंधी तलवार खोलकर पंचों के पास जमा कर देनी चाहिए ताकि कल कोई यह न कहे कि
फ़ैसला हथियार से डरकर लिया गया।
इससे पहले कि पंच कमर से तलवार खोलने का हुक्म देते भूरे ने कहा, ‘यह हमारा रिवाज है कि कमर में तलवार
बांधकर लड़का शादी करता है और वह तब तक कमर से नहीं खोली जाती जब तक दूल्हा मंढे की
बत्ती खोल कर दुल्हन को सकुशल घर के भीतर नहीं पहुँँचा देता। मामला यही है, जिसके लिए हमने पंचायत में गुहार
लगाई कि मंढे की बत्ती नहीं खुली और बहू ने घर में परवेस नहीं किया, इसलिए तलवार कमर से नहीं खोली गई।
तब भी, जब किसन की
पसली की हड्डियाँ टूट गई और, यहाँ तक कि
दिशा-मैदान के समय भी इसे नहीं खोला गया। पंचपरमेसुर से गुजारिश है कि जब तक कोई
फैसला नहीं हो जाता इसे किसन की कमर में बंधे रहने की इजाजत दी जाए।’
पंचायत उलझन में फँस गई। दोनों ही तर्क सही थे। न्याय की आचार संहिता के
लिए तलवार कमर में बंधी नहीं रहनी चाहिए
और रिवाज के हिसाब से उसे कमर में बंधे रहना चाहिए।
एक पंच ने कहा, ‘पंचायत में
हथियार लाने की इजाजत नहीं है, लेकिन यह
रिवाज का मामला है और, रिवाज कैसा
भी हो, उससे
छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए। फिर भी हम इसे स्त्री पक्ष पर छोड़ते हैं। अगर उसे
ऐतराज न हो तो इस बार पंचायत वादी को कमर में तलवार बंधी रहने की इजाजत दे सकती
है।’
चम्पा घबराई हुई थी लेकिन जब उससे पूछा गया तो उसमें हौसला आ गया। उसने
महसूस किया कि उसकी यातनाएँ अबूझ शक्ति में बदल गई हैं। एक ऐसी तलवार को, जो जंग खाई हो, म्यान से बाहर निकलती ही न और जो
दूसरे पर नहीं खुद पर हमला करती हो, कमर में
बंधे रहने देने में उसे क्या आपत्ति होती। उसने सिर हिला कर स्वीकृति प्रदान कर
दी।
स्वीकृति के बाद वादी पक्ष से पंचायत से सामने अपनी बात रखने को कहा गया।
किसन को सभ्य समाज में बात करने का सलीका नहीं आता था। वह हड़बड़ा गया और
दयनीय दृष्टि से अपने पिता की ओर देखने लगा जिसे उसने अपनी शादी के वक़्त बाटा का
पेटेंट शू पहनने के काबिल भी नहीं समझा था।
बेटे की करुणा से विगलित भूरे ने गला खँखार कर कहा, ‘पंचपरमेसुरों को मेरी राम राम।
मामला है कि सामने खड़ी यह लड़की, जिसने अपना
मूँ घूँघट में छिपा रखा है, बिरौड़ गाँव
की चम्पा है। विधि-विधान के साथ मेरे बेटे किसन से इसका ब्याह हुआ। फेरे हुए।
कन्यादान और पाणिग्रहण हुआ। गवाह वे साठ सज्जन हैं जो इस ब्याह में बाराती की तरह
बिरौड़ गाँव गए, जिनमें से
कुछ इस बखत यहाँ भी मौजूद हैं। इसके अलावा कन्या पक्ष का शाहपट्टा मेरे पास है जो
इस ब्याह का दस्तावेज है। याने लड़की के साथ कोई जोरजबडदस्ती नहीं की गई। उसे
बहकाया, फुसलाया या
उठाया नहीं गया। विधिवत ब्याह किया गया। पंचपरमेसुर लड़की से मालूम कर सकते हैं, मैने जो कहा वह सच है कि गलत है।’
‘भूरे ने जो कहा क्या वह सच है?’ पंचों ने पूछा।
चम्पा ने जवाब दिया कि भूरे ने जो कहा वह सच है।
‘तुझे इस विवाह से कोई आपत्ति थी और
तूने यह ब्याह अपने पिता के दबाव में किया?’
चम्पा ने जवाब दिया कि उसे इस विवाह से कोई आपत्ति नहीं थी और उसके पिता ने
इस विवाह के लिए उस पर कोई दबाव नहीं डाला।
‘तो फिर जब चम्पा को विवाह से कोई
ऐतराज नहीं?’
‘यहाँ तक गणेशजी की किरपा से सब
ठीकठाक निबट गया,’ भूरे ने
कहा,
। श्री गणेशाय नमः ।
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्य कोटि सम्प्रभः।
निर्विघ्न कुरु में देव सर्व कार्येषु
सर्वदा।
‘लेकिन जब बहू की डोली हमारे आँगन
में उतरी पंचपरमेसुरों तो सारा खेल बिगड़ गया। उसने डोली से उतरते ही ऐलान कर दिया
कि किसन की माँ उसकी सास नहीं, किसन का घर
उसका घर नहीं, और किसन
उसका पति नहीं। उसे उसके घर वापिस भेज दो, नहीं तो वह
खाई में कूदकर जान दे देगी। और बेहोश हो कर गिर पड़ी।’
‘हमारे पास इसे उस बखत इसके घर वापस
भेजने के अलावा कोई चारा नहीं रह गया था।’
‘क्या यह सच है?’ पंचों ने चम्पा से पूछा।
उसने सिर हिलाकर हामी जताई कि वह जो कह रहा है वह सच है।
पंच परेशान हो गए और दर्शकदीर्घा हैरान रह गई।
‘तूने किसन को अपना पति मानने से
क्यों इनकार किया जब कि इस ब्याह से तुझे कोई ऐतराज नहीं था?’
‘इसका जवाब इसके पास है।’ उसने अपनी
थरथराती उंगली किसन की ओर उठाई।
किसन बौखला गया, ‘मैं इसके
मन की बात कैसे जान सकता हूँ पंचपरमेसुरों। कोई यार रहा होगा इसका। आसनाई होगी
किसी के साथ....तिरिया चरित को तो बरमा, बिसनू, महेस भी नहीं जान सके। मैं तो
सीधे-सच्चे इनसानों में भी सीधा-सच्चा हूँ। मुझे तो सिरफ हल जोतना, बीज डालना और फसल उगाना आता है....’
दर्शकदीर्घा फुसफुसाहट में बदल गई किसन ठीक कहता है। यह लड़की कोई खेल खेल
रही है।
‘भला किसन कैसे जान सकता है कि तूने
उसे अपना पति मानने से क्यों इनकार किया?’
‘क्योंकि इसे कमर में तलवार बांधना
आता है लेकिन तलवार को म्यान से बाहर निकालना नहीं आता....’
‘यह लड़की सबको भरमा रही है
पंचपरमेसुरों।’ भूरे ने कहा, ‘ये भी कोई
बात हुई....क्या कोई औरत अपने पति को इसलिए पति मानने से इनकार कर देगी कि उसे
म्यान से तलवार निकालना नहीं आता? और जहाँ तक
मैं समझता हूँ, किसन अगर
कोशिश करे तो वह तलवार म्यान से बाहर निकाल सकता है। उसकी पीठ इतनी मजबूत है कि वह
उस पर मणभर बोझ को एक फर्लांग तक ढो सके।’
‘अब इसका कोई मतलब नहीं,’ चम्पा ने स्थिर स्वर में कहा, ‘इसने उस बखत तलवार म्यान से बाहर
नहीं निकाली, जब इसकी
जरूरत थी....ये नामर्द है।’
अपने को नामर्द कहे जाने से किसन बौखलाकर उछला और चिल्लाया, ‘मेरे साथ सोई नहीं हरामजादी और मुझे
नामर्द कह रही। अभी गला रेत दूँँगा, इसी बखत।
सबके सामने फिर चाहे मुझे फन्दे पर लटकना पड़े। फन्दे की परवाह नहीं मुझे।’ और
चम्पा की ओर दौड़ा।
उधर चम्पा का भाई भी आस्तीने गुलटकर तैयार हो गया कि किसन चम्पा पर झपटे तो
वह उसके हाथ-पैर तोड़ दे।
पंचपरमेसुर घबराकर अपने आसनों से उठ कर खड़े हो गए।
दर्शकदीर्घा के शान्तिप्रिय लोगों ने किसन और चम्पा के भाई को थाम लिया।
आक्रामक क्षण टल गया तो पंचपरमेसुर यह कहते हुए अपने आसनों पर बैठ गए कि
आगाह किया जाता है किसी ने कोई गड़बड़ की तो इसका नतीजा बुरा होगा। यह न्याय का
मंदिर है, दंगल का
अखाड़ा नहीं।
इस चेतावनी के बाद लोग शान्त हो गए और आगे की कार्यवाई फिर शुरु हो गई।
‘चूंकि अब जमाना बदल रहा है।
स्त्रियों का आचरण और लोकलाज भी बदल गया है। वे औरतें अब नहीं रही जो सबकुछ सहकर
कभी मुँह नहीं खोलती थीं। ऐसी महान औरते भी रहीं हैं इस देश में, जो अपने कोढ़ी पति को कंधें पर उठाकर
वेश्यालय ले गई, क्योकि वह
ऐसा चाहता था। उन्हें देवियों के आसन पर बैठाया जाता था। बदली हवा में पंचायत उस
औरत पर दबाव नहीं डाल सकती कि वह उस आदमी को अपना पति मानें जो नामर्द हो। चम्पा
को भी यह छूट है बशर्ते कि वह साबितकर सके कि किसन नामर्द है। हालांकि वह अपने पति
के साथ सोई नहीं तो वह कैसे कह सकती है कि उसका पति नामर्द है। चम्पा को बताया
जाता है कि अगर वो ये बात साबित नहीं कर सकी तो इसका नतीजा बहुत बुरा होगा।’
‘ब्याह के बाद मेरी डोली जिस दिन
पहुँचनी थी, उससे एक
दिन बाद पहुँची, और यह आदमी
चुपचाप देखता रहा। इससे साबित होता है....’
भूरे ने हवा में हाथ उछालकर कहा, ‘यह हमारे
गाँव की रीत है, बहू की
डोली एक दिन बाद आती है।’
पंचों के चेहरे बेचैन हो गए। उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी कि कोई बहू भरी
पंचायत में यह सवाल उठा सकती है। यह डोली के एक दिन बाद पहुँचने का मामला नहीं था।
यह एक रवायत के खि़लाफ़ खुला विद्रोह था।
‘अपनी ससुराल के सब रिवाजों को
निभाना हर बहू का फरज है। इस बात से क्या फरक पड़ता है कि डोली एक दिन पहले आई की
एक दिन बाद आई।’
‘बहू की डोली एक दिन पहले आएगी तो
उसे कोई बहू नहीं मानेगा और एक दिन बाद आएगी तो वह पति को पति कबूल नहीं करेगी।’
चम्पा ने मजबूती से कहा।
‘जब से यह गाँव बसा डोली एक दिन रुक
कर आसीरवाद लेती है। इसी आसीरवाद से घर फलता फूलता है।’ भूरे ने कहा। इसी के साथ
उसे बीड़ी पीने की हुड़क हुई लेकिन पंचायत के सम्मान में उसने बीड़ी नहीं सुलगाई और
पंच परमेसुरों की ओर ऐसे भाव से देखा कि उन्हें पता चल जाए कि बीड़ी की तलब के बाद
उसने बीड़ी नहीं पी।
‘लेकिन एक दिन की डोली की देर में
औरत की जिंदगी में क्या हो जाता है....यह ठाकुर बताएगा। पंचों से हाथ जोड़कर बिनती
है कि ठाकुर को पंचैत में बुलाया जाए।’
दर्शकदीर्घा में सन्नाटा फैल गया। यह ठाकुर की प्रजा थी। उसके बंधुआ मजदूर, हलिए, गुलाम, मातहत, कृपापात्र, कर्जदार, आतंकित, डरे, सहमें, कुचले, खरीदे हुए
और वफादार....
तप्पड़ जिसमें वे बैठे थे, पंचायतघर, पंच, बावड़ी, कुएं, स्कूल सब
ठाकुर के थे। ठाकुर के पास सिपाही थे, कारिन्दे
थे। ठाकुर के हाथ में जिन्दगियाँ थीं, ठाकुर के
हाथ में हत्याएँ थीं। देश आज़ाद हो चुका था लेकिन गाँव गु़लाम थे।
ठाकुर को पंचायत में तलब नहीं किया जा सकता था।
भूरे को ठाकुरों की ओर से पाँच बीघे की माफी मिली थी और अब वह हलिया नहीं
किसान था।
‘ठाकुर मालिक हैं। वे फैसले करते हैं
उन्हें पंचैत में गवाह की हैसियत से नहीं बुलाया जा सकता।’ उसने कहा।
दर्शकदीर्घा से ठाकुर का मुख्यकारिन्दा और उसके सिपाही चिल्लाए, ‘किसी ने भी ऐसी जुर्रत की तो उसे
गोली से उड़ा दिया जाएगा। लड़की तू अपनी औकात में रह। और पंचैत भी पहले ही सँभल
जाए।’
विरोध में खड़े जनसमूह ने चम्पा को चेता दिया कि उसे न्याय मिलने की उम्मीद
नहीं करनी चाहिए। पंचायत नौटंकी है और उसकी सजा तय है। औरतों की सजाएँ तभी तय हो
जाती हैं जब वे जन्म लेती हैं। जो चुपचाप उन्हें सह लेती हैं, वे देवियाँ हैं। जो नहीं सहती वे
कुल्टाएँ हैं। देवी और कुल्ट के बीच औरत की कोई जगह नहीं है। उसका उठा हुआ सिर
किसी को बर्दाश्त नहीं होता।
‘ठाकुर पंचायत में नहीं बुलाया जाता
तो वह फैसला सुना दिया जाए जो मेरे लिए तय है।’ चम्पा ने कहा।
‘तेरी बात सुने बिना कोई फैसला नहीं
किया जाएगा। यह छूट का मामला है। ऐसी छूट जिसकी कोई वाजिब वजह भी नहीं है। किसन के
साथ सोए बगैर उस पर नामर्दी का आरोप लगाया जाना सरासर गलत है।’
‘छूट के अलावा यह मामला हत्या का भी
है। मुझे मारने की कोशिश की गई।’ चम्पा ने कहा।
‘यह झूठी और बदजात औरत है,’ भीड़ में से कोई चिल्लाया, ‘मैं वाकए पर मौजूद था। वहाँ ऐेसा
कुछ भी नहीं हुआ जैसा यह कह रही.....औरत की बात पर कभी यकीन मत करो। मरते हुए भी
वह सच नहीं बोलेगी।’
‘हल्लागुल्ला नहीं,’ पंचायत ने कहा, ‘चम्पा को अपनी बात कहने दो।’
‘मैं डोली से उतरते ही गिर पड़ी और
बेहोश हो गई,’ चम्पा ने
कहा, ‘लेकिन मैं
बीमार नहीं थी, टूटी हुई
थी और वहाँ तक टूटी हुई थी जहाँ तक कोई लड़की टूट सकती है। बस एक जिन्दा लाश। इस
गाँव की बहू बनने से मैंने इनकार किया और अब भी मैं इनकार करती हूँ। एक लाश क्या
किसी घर की बहू बन सकती है?’
उसकी बात किसी की समझ में नहीं आई। वह खड़ी थी, साँस ले
रही थी, बोल रही थी
और अकेले पंचायत का सामना कर रही थी। वह लाश कैसे हो सकती है।
एक औरत कैसे लाश हो जाती है? कोई औरत ही
यह समझ सकती थी।
वहाँ औरतें नहीं थी, राजेसुरी
के सिवा और वह दूसरी ओर खड़ी औरत थी।
‘और फिर उस लाश की भी हत्या करने की
कोशिश की गई....’
‘चम्पा तू पंचैत को गुमराह कर रही
है। हमने किसी ऐसी लाश को नहीं देखा जो बोलती हो और फिर उसकी हत्या करने की कोशिश
कैसे की जा सकती हो जो खुद एक लाश हो।’
‘ठाकुर लाश बनाता है और, लाश कुछ बोलती है तो ठाकुर का
सिखाया ओझा उसकी हत्या करता है। ओझा ने कहा मेरे भीतर परेत है। परेत भगाने के लिए
मिर्चो की धूनी दी। कमची से मेरी पीठ की खाल उधेड़ी। मुझे गरम सलाख से दगने से बचा
न लिया जाता तो मैं मार दी जाती। इसकी गवाह सामने खड़ी ये औरत है जिसने कहा कि वह
मेरी सास है। और जिसे मैंने सास मानने से इनकार किया....’
चम्पा के दूसरी ओर खड़ी औरत को अपने गवाह के रूप में चुनने से लोगों को
आश्चर्य हुआ और पंचायत को भी। उसकी गवाही एक निर्णायक मोड़ दे सकती थी। इधर या उधर।
पंचों ने राजेसुरी से पूछा, चम्पा जो
कह रही वह सही है। और राजेसुरी ने कहा, जिसे सबने
दिल थामकर सुना, ‘चम्पा ने
जो कहा, वह सही है।
अगर मैं उसे बचा न लेती तो वह सुर्ख चिमटे से दाग दी जाती। और उस समय वह इतनी
दुर्बल थी कि मर भी सकती थी।’
‘औरत के भीतर परेत बैठा हो तो उससे
मुकति के लिए क्या औरत को दागा नहीं जाएगा।’ भूरे ने उछल कर कहा, ‘अब सुनलो इसकी बात....कितनी औरतें
दागी गईं, सुना कि
कभी कोई औरत दागने से मरी हो। इसे उस टैम दागने से बचाया न गया होता तो ये पंचैत
में खड़े होने की जगह किसन की बगल में खाट पर सोई होती।’
‘परेत मेरे भीतर नहीं, ठाकुर के भीतर है। ओझा से पूछो क्या
वह ठाकुर को गरम सलाख से दाग सकता है। और क्या पंचैत में ठाकुर और ओझा को सजा देने
की हिम्मत है। अगर वह उन्हें सजा नहीं दे सकती तो उसे कोई हक नहीं कि मुझे सजा
दे।’ चम्पा ने ललकारती आवाज़ में कहा।
इसी के साथ दर्शकदीर्घा में खलबलाहट मच गई और उस खलबलाहट से पत्थर फेंके
जाने लगे। एक पत्थर चम्पा के सिर पर लगा और खून के फव्वारे के साथ वह ज़मीन पर गिर
पड़ी। उसके गिरते ही भगदड़ मच गई।