मनोरमा नौटियाल
राजा
शाह जी का जमाना था।
टिहरी रियासत वाले राजा
शाह जी का जमाना।
आज की राणी जी
वाली टिहरी रियासत के
राजा शाह जी का
जमाना।
किस्सा
रियासत के किसी गाँव
का सुना गया है।
मने हमारे ही पूर्वजों
का। मने हमारा ही
समझिए।
गाँव
से प्रत्येक माह
दरबार को टैक्स जाता
था एक रुपया।
टका और आना
वाले युग में एक
रुपया बहुत बड़ी रकम
थी। कई-कई रोज़
ध्याड़ी करने, ढेंके तोड़ने
के बाद एक-दो आना
मजूरी मिलती थी।
इस
टैक्स को ‘मामलु (माबला)’ कहा जाता
था। माबला
राजशाह जी द्वारा प्रजा पर लगाए जाने वाले डेढ़ दर्जन प्रकार के करों में एक था। यह
भूमिकर था जो भूमि के स्वामी ‘भूपति’ यानी राजा शाह जी को नकद दिया जाता था।
भूमिकर का ही एक दूसरा प्रकार ‘बरु(बरा)’ अनाज के रूप मे भूपति के कारिंदों
द्वारा किसानों से वसूला जाता था। मोटे अनाज को तब आज जैसा ‘सुपर फूड’ वाला सम्मान
नसीब न था। गेहूं और धान फसलों में वही रसूख रखते थे जो आम प्रजा के बीच शाह राजा
जी के माफ़ीदारों का हुआ करता था। इसलिए बरा के रूप में गेहूं चावल यदि एक टोफरी
जाता तो इन अनाजों की जगह पर कोदा-झँगोरा देने पर मात्रा दोगुनी हो जाती- दो
टोफरी।
राजा शाह जी की महानता की अनेक कथाओं में एक यह भी है कि यदि कोई सम्पन्न
पुरुष बेऔलाद मृत्यु को प्राप्त हो जाता तो उसकी जोरू-जमीन की जिम्मेदारी राजा शाह
जी अपने कंधों पर ले लेते और वह जोरू-जमीन राजा शाह जी की हो जाती। इसे ‘औताली’ कर
कहा जाता था। गाँव-घरों में आज भी जब किसी के पशु आवारा चरते दिखाई दे जाते हैं तो
यही कहकर आवाज लगाई जाती है- हे लो ! कैकी औताली होईं या?
इसी से मिलते-जुलते ‘गयाली’ और ‘मुयाली’ भी थे। अर्थात सबका मालिक एक था-
राजा शाह जी। कुछ उसी तरह जैसे झाँसी के
राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद आततायी अंग्रेजों ने झाँसी पर अपने आधिपत्य का
ऐलान कर दिया था। हालांकि राजा शाह जी कोई आततायी नहीं बल्कि हमारे प्रभु थे।
बहरहाल, गाँव
से पाँच लोग माबला लेकर टिहरी दरबार को चले
बाई फुट। गाड़ी-मोटर तब थे नहीं।
पालकी में इधर अंग्रेज चलते
थे,
उधर राजा शाह। पालकी
ढोने वाले हम- ‘प्रभु
सेवा’ में सदैव उपस्थित।
न केवल प्रभु सेवा बल्कि प्रभु के दरबारी, अधिकारी, कर्मचारी, दलाल, मेहमान,
मेहमानों की मेमों, उनके बच्चों, कुत्तों, मुर्गों की सेवा भी हम पूरी वफादारी से
करते थे। उन्हें पालकियों में बैठाकर मैदान, पहाड़, नदी, घाट, एक राज्य से दूसरे
राज्य में अपने कंधों पर ढोया करते थे। हमारी इन वफ़ादारियों को रसूखदार लोग ‘छोटी
बरदाईश’-’बड़ी बरदाईश’ कहा करते थे। जहाँ
तक मेरी अक्ल के खच्चर दौड़ पा रहे हैं, ये ‘बरदाईश’ शब्द ‘बर्दाश्त’ की
पालकी से निकला होगा। यूँ तो प्रभु सेवा हम टीर्यालों का जन्मसिद्ध कर्तव्य था और
इसमें बर्दाश्त जैसा शब्द नहीं जोड़ा जाना चाहिए। खैर...!
माबला
पहुंचाने वाले के लिए
दरबार की तरफ़ से
रात टिहरी रुकने की
व्यवस्था थी। इस व्यवस्था
के
अन्तर्गत
एक ओबरे में खटोली(चारपाई) उपलब्ध
होती।
हम
टाट-बोरों
के गुदड़ों में सोने वालों के लिए
वह खटोली किसी कमल विभूषण से
कम न थी ।
कौन जाने एक रात
उस खटोली में
सोने का अरमान दिल
में पाले ही हम
माबला लेकर जाने को
राजी होते हों।
किंतु, समस्या
तब खड़ी हुई जब
देखा खटोली एक और
सोने वाले पाँच। गहन
विमर्श हुआ। सीनियरता-जूनियरता पर
भी विचार किया गया।
इतिहास का भी सिंहावलोकन
किया गया कि पाँचों
में से किसी को
क्या पहले यह स्वर्णिम
अवसर प्राप्त हुआ है!
आधी
रात बीत गई लेकिन
फैसला न हो सका।
सुबह सिर नवाए हुए
दरबार में माबला भेंट
करने भी जाना था
और उसके बाद वापस
गाँव भी।
अंत
में तय हुआ कि
सोएँगे सब जमीन पर
ही,
पैर खटोली के ऊपर
रखेंगे। इस निर्णय में
सबका हित था। आख़िर
दूर जौनपुर से गाड-धार
पार करके आए थे।
किसी एक के साथ
भी अन्याय बोलांदा बदरी
की अवहेलना होती।
अब
सब के सिर, धड़, हाथ, और रीढ़
खटाई के नीचे थे; पैर
ऊपर खटाई में। आराम
की नींद आई। इतनी
गहरी कि अब तक
भी उसका असर नहीं
जाता।
तो
साहिबान! उपरोक्त कथा का सारतत्व यह है कि हम उस
देस के वासी
बाद में हैं जिस में गङ्गा बहती है। उससे भी पीढ़ियों पहले से हम उस टिहरी रियासत
की फ़रमाँ-बरदार, होशियार प्रजा हैं जिस में भागीरथी-भिलंगना
का संगम है। वही
संगम जिसकी तलहटी में श्रीदेव सुमन
की कंबल में लिपटी सड़ी-गली हुई देह के अवशेष शायद आज भी क्रांति की अग्नि की
प्रतीक्षा करते होंगे।