ओम प्रकाश वाल्मीकि
भविष्य की कल्पना करने से पूर्व वर्तमान और बीते हुए कल का आकलन जरुरी लगता है। बीता हुआ यानि अतीत। हिन्दी कथा-साहित्य का शुरुआती दौर भारतीय संस्कृति की महानता के यशोगान का दौर था। जिससे अतीत के गौरवशाली पक्ष को पुन: स्थापित करने की चिन्ताऐं मौजूद थी। वहॉं जनतांत्रिक मूल्यों का कोई स्वरुप दृष्टिगोचर नहीं होता। बीच-बीच में राष्ट्रप्रेम, जिसे धर्म संस्कृति तक ही सीमित रखा गया था, को ऊंचे स्वर में बखाना गया हिन्दी कथा-साहित्य अनेक उतार चढ़ाव से होता हुआ आगे बढ़ा है। 'उसने कहा था' की लोकप्रियता से होते हुए प्रसाद प्रेमचंद, जैनेंद्र और नयी कहानी की महीन कताई बुनाई से होते हुए, अकहानी, जनवादी कहानी, समांतर कहानी, सेक्स बनाम जनवादी कहानी और फिर दलित कहानी आदि के रुपों में हमारे सामने आती है। कुछ विद्धानों का मानना है कि आठवें दशक और उसके बाद कहानी का क्षितिज काफी व्यापक हुआ है। समकालीन कहानी अपने समय और समाज की जटिलताओं को अधिक विश्वसनीय और सहज रुप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। जो पाठकों के सामने जीवन अनुभवों को शब्दबद्ध कर रही है।
लेकिन एक प्रश्न बार-बार उठता है कि कथा-साहित्य के आलोचकों के पास कहानी के भीतर घुसकर उसे खंगालने, विश्लेषित, व्याख्यायित करने का समय नहीं है। वजह चाहे जो भी हो, सबके अपने-अपने तर्क हैं, सीमायें हैं, आरक्ष्सण हैं, गठबंधन हैं।
हिन्दी कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं - 'साहित्य की जनतांत्रिकता इस बात पर है कि वह विपक्षी को पराजित नहीं करती, वह उसकी वेदना को समझती, यथासंभव उसकी वेदना को उसी के भावबोध के ढांचे में चित्रित करती है।" (वसुधा, कहानी विशेषांक, अंक 33-34, दिस। 1995, रीवा, पृष्ठ -16)
1950 के आसपास आलोचकों ने एक सवाल उठाया था कि कहानी की संभावनायें समाप्त हो गयी हैं और प्रेमचंद्र पर भी कई तरह के आक्षेप लगाये थे। उनके साहित्य को द्वितीय कोटी का कहा गया था, यह भी कहा गया था कि कहानी ही नहीं बल्कि साहित्य की मुख्यधारा के सहज-स्वाभाविक विकास को कभी प्रयोग, कभी आधुनिकता, कभी अनुभववाद, कभी व्यक्ति स्वातंत्रय और कभी शिल्प-कला के नाम पर अवरुद्ध करने की कोशिशें भी जारी रही। यानि कुल मिलाकर कथा साहित्य के विकास में कई प्रकार के टोटके अपनाये गये। पश्चिमी पूंजीवादी देशों के साहित्यिक मूल्यों को हिन्दी कहानी में ज़्बरन स्थापित करने की कोशिशें की गयी। भारतीय जीवन के विषमतापूर्ण सामाजिक वर्चस्व को लगातार अनदेखा किया जाता रहा। साधारण जन-मानस की आशा-निराशा, आकांक्षा, सुख-दुख, चिन्तायें, सरोकार आदि को साहित्यक अभिव्यक्ति में शामिल करने की बजाये, आयातित जीवन मूल्यों को रुपायित करने की कोशिश की जाती रही। और कहानी का वस्तुगत ढांचा खड़ा करने की तमाम कोशिशें बिखरती रही। ये कोशिशें बदलते सामाजिक मूल्यों और संघर्ष की पेचीदिगियों को समझने के बजाये सम्वेदना का वाहय रूप ही अभिव्यक्त करती रहीं। इस संघर्षशील तबके की उदात्त भावनाओं, संघर्षों, प्रेम और भाई चारे की सम्भावनाओं को दरकिनार करके, बौद्धिकता और दार्शनिकता से लबरेज़ कहानियां सिर्फ कला और शिल्प की अभिव्यक्ति बनकर रह गयीं। जिसका आम आदमी के जीवन-संघर्ष से सीधे-सीधे कोई संबंध नहीं था। इसमें उस मध्यवर्गीय जीवन की अनेक अनछुई स्थितियां तो निर्मित हुई, लेकिन कहानी का जो सामाजिक परिदृश्य उभरना चाहिए था, वह कहीं गुम होता गया। इस दौर में साहित्यिक क्षितिज पर उभरे जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय आदि अलग-अलग घ्रुवों पर खड़े थे। प्रेमचंद्र की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले रचनाकारों में यशपाल का नाम आता है, जिन्होंने भारत विभाजन की त्रासदी पर 'झूठा-सच" जैसी कृति की रचना की और अपने समय की सच्चाई को बयान किया। जो भारतीय जीवन के एक दुखद अध्याय का जीवंत दस्तावेज बना, लेकिन प्रेमचंद्र की सामाजिक सम्वेदनां की जो गहनता थी, उसका यहां भी अभाव दिखायी देता है, इसके बावजूद भी यशपाल ने अपने समय और समाज के विघटनकारी तत्वों के साथ जो द्वंदात्मक टकराव किया, वह बेजोड़ हैं। उन्होंने वर्तमान को जिया। अतीत को वर्तमान से जोड़कर, जीवन-संदर्भों की गहरी पड़ताल की।
भारतीय जीवन में मौजूद साम्प्रदायिकता, जातिवाद, ब्राहमणवाद, सामंतवाद की छाया में हिन्दी कथा-साहित्य परवान चढ़ा है। इसीलिए आदर्शोन्मुखी है। और कथनी करनी का भेद मौजूद है। लेकिन इन विसंगतियों, अंतर्द्वंद्वों के बावजूद हिन्दी कथा-साहित्य ने स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों को स्वीकार किया। नयी कहानी के दौर में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, परसाई, मनु भण्डारी की कहानियों में जो भारतीय जीवन का फलक उभरा वह हिन्दी कहानी की विकास यात्रा का एक अहम पड़ाव था। जिसमें जीवन-संघर्ष था, विडम्बनाओं की त्रासदी थी।
बदलते जीवन की सच्चाई को पकड़ने की ललक ने हिन्दी कहानी को सामाजिक परिवर्तनों से जोड़ने के प्रयास किये। लेकिन इन प्रयासों में लुका-छिपी का खेल जैसी प्रवृत्ति भी दिखायी देती है। काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, स्वंयप्रकाश, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर आदि ने हिन्दी कहानी को समय से जोड़ने, उसे गम्भीर सरोकारों के प्रति उत्तरदायी बनाने, अपने समय की गम्भीर ज्वलंत चिंताओं को विषयवस्तु में शामिल करने की कोशिशें की। इनमें से कुछ विचारधारा के समर्थक रहे तो कुछ बाहयतौर पर विशिष्ट धारा से जुड़ने का भ्रम दिखाते रहे, लेकिन उनकी कहानियों में विचार गायब था, सिर्फ स्थितियां थी।
यही स्थिति 'स्त्री-विमर्श" को लेकर भी रही है। आंतरिक द्वंद्वों से टकराने और वर्तमान की दारूण विसंगतियों को कथा-कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में रचनाकार गहरे अंतर्द्वंद्वों में उलझे रहे। यह हिन्दी कथा साहित्य का एक पक्ष है जिसे शिल्प की , भाषा की तमाम उत्कृष्टताओं के बावजूद वैचारिक विचलन ही कहा जायेगा।
च्रित्रों की बौद्धिकता को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की प्रवृत्ति भी रही है, 'शेखर-एक जीवनी" में साफ-साफ देखी जा सकती है। जो अपनी बौद्धिकता से लबरेज है। व्यक्ति की आंतरिकता को तात्विक ढंग से विश्लेषित तो किया जाता है, लेकिन द्वंद्व का यह खेल दार्शनिकता घेरे में बांधकर मानवीय अवधारणाओं को अमूर्तता प्रदान करता है।
इन तमाम विरोधाभासों के बीच कुछ ऐसे उपन्यास भी आये हैं, जो भारतीय ग्रामीण जीवन अल्पसंख्यक समुदाय की उन आंतरिक सच्चाईयों से परिचय कराते हैं, जिन्होंने जीवन की तमाम सम्भावनाओं, विश्वासों, मान्यताओं को जकड़ कर रखा हुआ था। श्री लाल शुक्ल का 'राग दरबारी" , राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव" , रेणु का 'मैला आंचल" , ये तीनों ऐसे उपन्यास हैं , जो हिन्दी कथा-साहित्य को समय सापेक्ष ही नहीं बनाते बल्कि समाज की विषमताओं से भी टकराते हैं।
हिन्दी कहानी यदि अपने वर्तमान से बचकर, उसकी जटिलताओं को बाहय रूप में ही पकड़ती है, तो वह अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख होती हैं। कहानी की सार्थकता भी इसी में है कि वह भविष्य के लिए अपनी भूमिका तय करे। अपने समाने खड़ी चुनौतियों और खतरों का समाना करे।
कहानी में समाज और चरित्र अधिक स्पष्ट और ठोस रूप में रेखांकित होते हैं। इसीलिए उसका उत्तरदायित्व भी ज्यादा गहरा होता है। उसकी आंतरिक चिंताऐं भी ज्यादा घनीभूत होनी चाहिये।
दुनिया के कथा-साहित्य पर एक दृष्टि डालें तो दक्षिण अमेरिका के कथा-साहित्य में गार्सिया मार्क्वेज, रिचर्ड राईट ने भविष्य निर्माण किया है, और कथा-साहित्य को गरिमा देकर भविष्य की महत्वपूर्ण विधा की विश्वसनीयता उसकी द्वंद्वात्मकता के कारण बनती है। जब हम भविष्य की बात करते हैं तो हमारे सामने वर्तमान ही होता है।
वर्तमान को जब साहित्य से जोड़कर देखते हैं तो एक शब्द बार-बार सामने आता है, जिसे सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक संदर्भों में 'मुख्यधारा" कहते हैं। मुख्यधारा का साहित्य, समाज की मुख्यधारा, राजनीति की मुख्यधारा या फिर राष्ट्र की मुख्यधारा, जो भी इस धारा से बाहर रहा उसे जबरन इस धारा में लाने के प्रयास हुए। मुख्यधारा यानि वर्चस्व की धारा। तो न हमारे वर्तमान को दिशा देती है, न भविष्य को। कुछ मुठ्ठी भर लोग जो सत्ता केन्द्रित वर्चस्व थामें हुए है। यह उनकी धारा है, जो न दूसरों को समझना चाहती है, न जानना। अपने ही निर्मित प्रभामण्डल में जीती है और परिधि में गोल-गोल चर काटती है। इस मुख्यधारा ने यथास्थिति बनाये रखने में अहम भूमिका निभायी है। जब भी भारतीय जीवन में कोई संकट आया, या कोई उथल-पुथल हुई, कोई सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की सम्भावनायें बनी, तब-तब इस मुख्यधारा ने चुप्पी साध ली या फिर दर्शन, आध्यात्मिक या प्रकृति प्रेम या फिर धार्मिक नायको के यशोगान आदि में डूबे रहे या समय आने का इंतज़ार करना, चीजों को पकाने का इंतज़ार करना ही ज्यादा रहा। जबकि मुख्यधारा से बाहर छिटके लोगों ने ज्यादा तत्परता दिखायी। वे ज्यादा जागरुक और उत्तरदायित्व के साथ वर्तमान के निष्कर्षों के साथ भविष्य की सीमायें निर्धारित करने में जुटे रहे। उनका कथा सहित्य इस बात की जद्दोजहद करता है, न कि जड़ता की।
भविष्य का निर्माण वर्तमान से जुड़कर होता है, उससे तटस्थ रह कर नहीं। कथा-सात्यि के भविष्य पर चिन्ता करते समय वर्तमान और उससे जुड़े सरोकारों, सम्वेदनों पर विचार करना निहायत ही ज़रुरी है। कथा-साहित्य का भविष्य इसी तथ्य पर निर्भर करता है कि वह वर्तमान के संघर्षों में कितनी हिस्सेदारी निभाता है।
कथा-साहित्य में वर्तमान की मात्र छाया या संकेत, या प्रतीक ही काफी नहीं है, उसकी सम्वेदना संघर्ष, जिजीविषा, उसकी वेदना का आकलन जरुरी लगता है। इसलिए मुख्यधारा के तथाकथित कथा-साहित्य को अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, स्त्रियों, दलितों, कमज़ोर पिछड़े, दबे-कुचले लोगों की और ध्यान देना होगा उन्हें मुख्यधारा के दिशाहीन भुलावे में खींच कर लाने के विमर्श की जगह, उन्हें समझने-जानने के विमर्श को तरज़ीह देने की आवश्यकता है। क्योंकि वे ही इस देश की अस्मिता की लड़ाई लड़ हैं। इस लड़ाई में मुख्यधारा को उनके साथ जुड़ना होगा। तभी हिन्दी कथा-साहित्य का भविष्य ठोस रूप में और अधिक सुदृढ़ होगा।
आज हिन्दी प्रांतों में कहीं भी कोई ऐसा आंदोलन दिखाई नहीं पड़ता जो मानवीय गरिमा को बचाये रखने की चिंता कर रहा हो। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, आतंकवाद, अमेरिकावाद, बाज़ारवाद के विरुद्ध खड़ा हो। जो यह विश्वास जगाये कि सामाजिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोई जद्दोजहद जारी है। हमारी आस्थायें, मूल्य किस रूप में और कैसे एक बेहतर इन्सान बनने में हमारी मद्द कर सकती है, इस तरह की चिंतायें नयी कहानी के दौर में भी उठीं थी। जब भोगा हुआ यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता जैसे मुहावरे बहुत जोर शोर से उठे थे। आज दलित साहित्य भी कुछ इसी तरह की चिंताओं के साथ बदलाव की कामना करता है, और अतीत को वर्तमान के साथ जोड़कर एक रास्ता चुनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। कुछ आलोचक दलित साहित्य पर आरोप लगाते हैं कि बीती बातों का रोना रोते रहना ही साहित्य नहीं है। आज कहां है जातिवाद, उत्पीड़न शोषण, लेकिन ये आरोप लगाते समय वे भूल जाते हैं कि 'मील का पत्थर" बनी हिन्दी कृतियां अतीत पर ही रची गयी हैं। वर्तमान की सच्चाई को वे शिल्प के आवरण में ढंक कर रास्ता बदल लेते हैं। बौद्धिक विवरण, आध्यात्मिक, दार्शनिक नुक्ते उनकी मद्द नहीं करते।
इन स्थितियों में हिन्दी कथा-साहित्य को आत्म्श्लाघा से बाहर आकर आत्म्विश्लेष्ण की जरूरत है, ताकि भविष्य की ओर जाते-जाते कही अन्धेरे काल्खन्ड मे ही तो चक्कर नही काट रहे है. वर्तमान से पलायन और कलात्मक शिल्प, समकालीनता के साथ बौदधिक विमर्श हिन्दी कथा-साहित्य के भविष्य के निर्माण में कितनी मद्द कर पायेगें, इस पर विचार भी ज़रुरी लगता है। वरना कथा-साहित्य की भी वही स्थिति होगी - 'अंधा बांचे बहरा सुने" ।
(हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि ने यह आलेख उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं कथाक्रम, लखनऊ द्वारा आयेजित संगोष्ठी - हिन्दी कथा-साहित्य, दिनांक 11 फरवरी 2008, में प्रस्तुत किया था। आज हिन्दी की दलित धारा समकालीन रचना जगत को न सिर्फ अपनी रचनाओं से बल्कि आलोचना से भी समृद्ध कर रही है। यह आलेख उसकी एक बानगी है। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन 2008, जो कि 11 अप्रैल 2008 को चंद्रपुर, महाराष्ट्र में होने जा रहा है, ओम प्रकाश वाल्मीकि वहां आमंत्रित है और कार्यक्रम की अध्यक्षता करेगें। इसी कड़ी में उनका अध्यक्षीय भाषण 11 अप्रैल को हमारे ब्लाग पर आप देख पायेगें।)
ब्लाग पर
अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - मजबूत घेरे की सघनता के विरुद्ध बेघर हा जाने की कथा, क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौड की लघु-कथा .
भविष्य की कल्पना करने से पूर्व वर्तमान और बीते हुए कल का आकलन जरुरी लगता है। बीता हुआ यानि अतीत। हिन्दी कथा-साहित्य का शुरुआती दौर भारतीय संस्कृति की महानता के यशोगान का दौर था। जिससे अतीत के गौरवशाली पक्ष को पुन: स्थापित करने की चिन्ताऐं मौजूद थी। वहॉं जनतांत्रिक मूल्यों का कोई स्वरुप दृष्टिगोचर नहीं होता। बीच-बीच में राष्ट्रप्रेम, जिसे धर्म संस्कृति तक ही सीमित रखा गया था, को ऊंचे स्वर में बखाना गया हिन्दी कथा-साहित्य अनेक उतार चढ़ाव से होता हुआ आगे बढ़ा है। 'उसने कहा था' की लोकप्रियता से होते हुए प्रसाद प्रेमचंद, जैनेंद्र और नयी कहानी की महीन कताई बुनाई से होते हुए, अकहानी, जनवादी कहानी, समांतर कहानी, सेक्स बनाम जनवादी कहानी और फिर दलित कहानी आदि के रुपों में हमारे सामने आती है। कुछ विद्धानों का मानना है कि आठवें दशक और उसके बाद कहानी का क्षितिज काफी व्यापक हुआ है। समकालीन कहानी अपने समय और समाज की जटिलताओं को अधिक विश्वसनीय और सहज रुप में प्रस्तुत करने में सक्षम है। जो पाठकों के सामने जीवन अनुभवों को शब्दबद्ध कर रही है।
लेकिन एक प्रश्न बार-बार उठता है कि कथा-साहित्य के आलोचकों के पास कहानी के भीतर घुसकर उसे खंगालने, विश्लेषित, व्याख्यायित करने का समय नहीं है। वजह चाहे जो भी हो, सबके अपने-अपने तर्क हैं, सीमायें हैं, आरक्ष्सण हैं, गठबंधन हैं।
हिन्दी कहानी पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं - 'साहित्य की जनतांत्रिकता इस बात पर है कि वह विपक्षी को पराजित नहीं करती, वह उसकी वेदना को समझती, यथासंभव उसकी वेदना को उसी के भावबोध के ढांचे में चित्रित करती है।" (वसुधा, कहानी विशेषांक, अंक 33-34, दिस। 1995, रीवा, पृष्ठ -16)
1950 के आसपास आलोचकों ने एक सवाल उठाया था कि कहानी की संभावनायें समाप्त हो गयी हैं और प्रेमचंद्र पर भी कई तरह के आक्षेप लगाये थे। उनके साहित्य को द्वितीय कोटी का कहा गया था, यह भी कहा गया था कि कहानी ही नहीं बल्कि साहित्य की मुख्यधारा के सहज-स्वाभाविक विकास को कभी प्रयोग, कभी आधुनिकता, कभी अनुभववाद, कभी व्यक्ति स्वातंत्रय और कभी शिल्प-कला के नाम पर अवरुद्ध करने की कोशिशें भी जारी रही। यानि कुल मिलाकर कथा साहित्य के विकास में कई प्रकार के टोटके अपनाये गये। पश्चिमी पूंजीवादी देशों के साहित्यिक मूल्यों को हिन्दी कहानी में ज़्बरन स्थापित करने की कोशिशें की गयी। भारतीय जीवन के विषमतापूर्ण सामाजिक वर्चस्व को लगातार अनदेखा किया जाता रहा। साधारण जन-मानस की आशा-निराशा, आकांक्षा, सुख-दुख, चिन्तायें, सरोकार आदि को साहित्यक अभिव्यक्ति में शामिल करने की बजाये, आयातित जीवन मूल्यों को रुपायित करने की कोशिश की जाती रही। और कहानी का वस्तुगत ढांचा खड़ा करने की तमाम कोशिशें बिखरती रही। ये कोशिशें बदलते सामाजिक मूल्यों और संघर्ष की पेचीदिगियों को समझने के बजाये सम्वेदना का वाहय रूप ही अभिव्यक्त करती रहीं। इस संघर्षशील तबके की उदात्त भावनाओं, संघर्षों, प्रेम और भाई चारे की सम्भावनाओं को दरकिनार करके, बौद्धिकता और दार्शनिकता से लबरेज़ कहानियां सिर्फ कला और शिल्प की अभिव्यक्ति बनकर रह गयीं। जिसका आम आदमी के जीवन-संघर्ष से सीधे-सीधे कोई संबंध नहीं था। इसमें उस मध्यवर्गीय जीवन की अनेक अनछुई स्थितियां तो निर्मित हुई, लेकिन कहानी का जो सामाजिक परिदृश्य उभरना चाहिए था, वह कहीं गुम होता गया। इस दौर में साहित्यिक क्षितिज पर उभरे जैनेन्द्र, यशपाल, अज्ञेय आदि अलग-अलग घ्रुवों पर खड़े थे। प्रेमचंद्र की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले रचनाकारों में यशपाल का नाम आता है, जिन्होंने भारत विभाजन की त्रासदी पर 'झूठा-सच" जैसी कृति की रचना की और अपने समय की सच्चाई को बयान किया। जो भारतीय जीवन के एक दुखद अध्याय का जीवंत दस्तावेज बना, लेकिन प्रेमचंद्र की सामाजिक सम्वेदनां की जो गहनता थी, उसका यहां भी अभाव दिखायी देता है, इसके बावजूद भी यशपाल ने अपने समय और समाज के विघटनकारी तत्वों के साथ जो द्वंदात्मक टकराव किया, वह बेजोड़ हैं। उन्होंने वर्तमान को जिया। अतीत को वर्तमान से जोड़कर, जीवन-संदर्भों की गहरी पड़ताल की।
भारतीय जीवन में मौजूद साम्प्रदायिकता, जातिवाद, ब्राहमणवाद, सामंतवाद की छाया में हिन्दी कथा-साहित्य परवान चढ़ा है। इसीलिए आदर्शोन्मुखी है। और कथनी करनी का भेद मौजूद है। लेकिन इन विसंगतियों, अंतर्द्वंद्वों के बावजूद हिन्दी कथा-साहित्य ने स्वतंत्रता के बाद की चुनौतियों को स्वीकार किया। नयी कहानी के दौर में राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, भीष्म साहनी, मार्कण्डेय, परसाई, मनु भण्डारी की कहानियों में जो भारतीय जीवन का फलक उभरा वह हिन्दी कहानी की विकास यात्रा का एक अहम पड़ाव था। जिसमें जीवन-संघर्ष था, विडम्बनाओं की त्रासदी थी।
बदलते जीवन की सच्चाई को पकड़ने की ललक ने हिन्दी कहानी को सामाजिक परिवर्तनों से जोड़ने के प्रयास किये। लेकिन इन प्रयासों में लुका-छिपी का खेल जैसी प्रवृत्ति भी दिखायी देती है। काशीनाथ सिंह, ज्ञानरंजन, स्वंयप्रकाश, रवींद्र कालिया, दूधनाथ सिंह, गिरिराज किशोर आदि ने हिन्दी कहानी को समय से जोड़ने, उसे गम्भीर सरोकारों के प्रति उत्तरदायी बनाने, अपने समय की गम्भीर ज्वलंत चिंताओं को विषयवस्तु में शामिल करने की कोशिशें की। इनमें से कुछ विचारधारा के समर्थक रहे तो कुछ बाहयतौर पर विशिष्ट धारा से जुड़ने का भ्रम दिखाते रहे, लेकिन उनकी कहानियों में विचार गायब था, सिर्फ स्थितियां थी।
यही स्थिति 'स्त्री-विमर्श" को लेकर भी रही है। आंतरिक द्वंद्वों से टकराने और वर्तमान की दारूण विसंगतियों को कथा-कहानियों के माध्यम से अभिव्यक्त करने में रचनाकार गहरे अंतर्द्वंद्वों में उलझे रहे। यह हिन्दी कथा साहित्य का एक पक्ष है जिसे शिल्प की , भाषा की तमाम उत्कृष्टताओं के बावजूद वैचारिक विचलन ही कहा जायेगा।
च्रित्रों की बौद्धिकता को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाने की प्रवृत्ति भी रही है, 'शेखर-एक जीवनी" में साफ-साफ देखी जा सकती है। जो अपनी बौद्धिकता से लबरेज है। व्यक्ति की आंतरिकता को तात्विक ढंग से विश्लेषित तो किया जाता है, लेकिन द्वंद्व का यह खेल दार्शनिकता घेरे में बांधकर मानवीय अवधारणाओं को अमूर्तता प्रदान करता है।
इन तमाम विरोधाभासों के बीच कुछ ऐसे उपन्यास भी आये हैं, जो भारतीय ग्रामीण जीवन अल्पसंख्यक समुदाय की उन आंतरिक सच्चाईयों से परिचय कराते हैं, जिन्होंने जीवन की तमाम सम्भावनाओं, विश्वासों, मान्यताओं को जकड़ कर रखा हुआ था। श्री लाल शुक्ल का 'राग दरबारी" , राही मासूम रज़ा का 'आधा गांव" , रेणु का 'मैला आंचल" , ये तीनों ऐसे उपन्यास हैं , जो हिन्दी कथा-साहित्य को समय सापेक्ष ही नहीं बनाते बल्कि समाज की विषमताओं से भी टकराते हैं।
हिन्दी कहानी यदि अपने वर्तमान से बचकर, उसकी जटिलताओं को बाहय रूप में ही पकड़ती है, तो वह अपनी ज़िम्मेदारी से विमुख होती हैं। कहानी की सार्थकता भी इसी में है कि वह भविष्य के लिए अपनी भूमिका तय करे। अपने समाने खड़ी चुनौतियों और खतरों का समाना करे।
कहानी में समाज और चरित्र अधिक स्पष्ट और ठोस रूप में रेखांकित होते हैं। इसीलिए उसका उत्तरदायित्व भी ज्यादा गहरा होता है। उसकी आंतरिक चिंताऐं भी ज्यादा घनीभूत होनी चाहिये।
दुनिया के कथा-साहित्य पर एक दृष्टि डालें तो दक्षिण अमेरिका के कथा-साहित्य में गार्सिया मार्क्वेज, रिचर्ड राईट ने भविष्य निर्माण किया है, और कथा-साहित्य को गरिमा देकर भविष्य की महत्वपूर्ण विधा की विश्वसनीयता उसकी द्वंद्वात्मकता के कारण बनती है। जब हम भविष्य की बात करते हैं तो हमारे सामने वर्तमान ही होता है।
वर्तमान को जब साहित्य से जोड़कर देखते हैं तो एक शब्द बार-बार सामने आता है, जिसे सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक संदर्भों में 'मुख्यधारा" कहते हैं। मुख्यधारा का साहित्य, समाज की मुख्यधारा, राजनीति की मुख्यधारा या फिर राष्ट्र की मुख्यधारा, जो भी इस धारा से बाहर रहा उसे जबरन इस धारा में लाने के प्रयास हुए। मुख्यधारा यानि वर्चस्व की धारा। तो न हमारे वर्तमान को दिशा देती है, न भविष्य को। कुछ मुठ्ठी भर लोग जो सत्ता केन्द्रित वर्चस्व थामें हुए है। यह उनकी धारा है, जो न दूसरों को समझना चाहती है, न जानना। अपने ही निर्मित प्रभामण्डल में जीती है और परिधि में गोल-गोल चर काटती है। इस मुख्यधारा ने यथास्थिति बनाये रखने में अहम भूमिका निभायी है। जब भी भारतीय जीवन में कोई संकट आया, या कोई उथल-पुथल हुई, कोई सामाजिक, राजनीतिक परिवर्तन की सम्भावनायें बनी, तब-तब इस मुख्यधारा ने चुप्पी साध ली या फिर दर्शन, आध्यात्मिक या प्रकृति प्रेम या फिर धार्मिक नायको के यशोगान आदि में डूबे रहे या समय आने का इंतज़ार करना, चीजों को पकाने का इंतज़ार करना ही ज्यादा रहा। जबकि मुख्यधारा से बाहर छिटके लोगों ने ज्यादा तत्परता दिखायी। वे ज्यादा जागरुक और उत्तरदायित्व के साथ वर्तमान के निष्कर्षों के साथ भविष्य की सीमायें निर्धारित करने में जुटे रहे। उनका कथा सहित्य इस बात की जद्दोजहद करता है, न कि जड़ता की।
भविष्य का निर्माण वर्तमान से जुड़कर होता है, उससे तटस्थ रह कर नहीं। कथा-सात्यि के भविष्य पर चिन्ता करते समय वर्तमान और उससे जुड़े सरोकारों, सम्वेदनों पर विचार करना निहायत ही ज़रुरी है। कथा-साहित्य का भविष्य इसी तथ्य पर निर्भर करता है कि वह वर्तमान के संघर्षों में कितनी हिस्सेदारी निभाता है।
कथा-साहित्य में वर्तमान की मात्र छाया या संकेत, या प्रतीक ही काफी नहीं है, उसकी सम्वेदना संघर्ष, जिजीविषा, उसकी वेदना का आकलन जरुरी लगता है। इसलिए मुख्यधारा के तथाकथित कथा-साहित्य को अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, स्त्रियों, दलितों, कमज़ोर पिछड़े, दबे-कुचले लोगों की और ध्यान देना होगा उन्हें मुख्यधारा के दिशाहीन भुलावे में खींच कर लाने के विमर्श की जगह, उन्हें समझने-जानने के विमर्श को तरज़ीह देने की आवश्यकता है। क्योंकि वे ही इस देश की अस्मिता की लड़ाई लड़ हैं। इस लड़ाई में मुख्यधारा को उनके साथ जुड़ना होगा। तभी हिन्दी कथा-साहित्य का भविष्य ठोस रूप में और अधिक सुदृढ़ होगा।
आज हिन्दी प्रांतों में कहीं भी कोई ऐसा आंदोलन दिखाई नहीं पड़ता जो मानवीय गरिमा को बचाये रखने की चिंता कर रहा हो। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद, आतंकवाद, अमेरिकावाद, बाज़ारवाद के विरुद्ध खड़ा हो। जो यह विश्वास जगाये कि सामाजिक जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाने की कोई जद्दोजहद जारी है। हमारी आस्थायें, मूल्य किस रूप में और कैसे एक बेहतर इन्सान बनने में हमारी मद्द कर सकती है, इस तरह की चिंतायें नयी कहानी के दौर में भी उठीं थी। जब भोगा हुआ यथार्थ, अनुभव की प्रामाणिकता जैसे मुहावरे बहुत जोर शोर से उठे थे। आज दलित साहित्य भी कुछ इसी तरह की चिंताओं के साथ बदलाव की कामना करता है, और अतीत को वर्तमान के साथ जोड़कर एक रास्ता चुनने की प्रक्रिया से गुजर रहा है। कुछ आलोचक दलित साहित्य पर आरोप लगाते हैं कि बीती बातों का रोना रोते रहना ही साहित्य नहीं है। आज कहां है जातिवाद, उत्पीड़न शोषण, लेकिन ये आरोप लगाते समय वे भूल जाते हैं कि 'मील का पत्थर" बनी हिन्दी कृतियां अतीत पर ही रची गयी हैं। वर्तमान की सच्चाई को वे शिल्प के आवरण में ढंक कर रास्ता बदल लेते हैं। बौद्धिक विवरण, आध्यात्मिक, दार्शनिक नुक्ते उनकी मद्द नहीं करते।
इन स्थितियों में हिन्दी कथा-साहित्य को आत्म्श्लाघा से बाहर आकर आत्म्विश्लेष्ण की जरूरत है, ताकि भविष्य की ओर जाते-जाते कही अन्धेरे काल्खन्ड मे ही तो चक्कर नही काट रहे है. वर्तमान से पलायन और कलात्मक शिल्प, समकालीनता के साथ बौदधिक विमर्श हिन्दी कथा-साहित्य के भविष्य के निर्माण में कितनी मद्द कर पायेगें, इस पर विचार भी ज़रुरी लगता है। वरना कथा-साहित्य की भी वही स्थिति होगी - 'अंधा बांचे बहरा सुने" ।
(हिन्दी दलित धारा के रचनाकार ओम प्रकाश वाल्मीकि ने यह आलेख उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान एवं कथाक्रम, लखनऊ द्वारा आयेजित संगोष्ठी - हिन्दी कथा-साहित्य, दिनांक 11 फरवरी 2008, में प्रस्तुत किया था। आज हिन्दी की दलित धारा समकालीन रचना जगत को न सिर्फ अपनी रचनाओं से बल्कि आलोचना से भी समृद्ध कर रही है। यह आलेख उसकी एक बानगी है। अस्मितादर्श साहित्य सम्मेलन 2008, जो कि 11 अप्रैल 2008 को चंद्रपुर, महाराष्ट्र में होने जा रहा है, ओम प्रकाश वाल्मीकि वहां आमंत्रित है और कार्यक्रम की अध्यक्षता करेगें। इसी कड़ी में उनका अध्यक्षीय भाषण 11 अप्रैल को हमारे ब्लाग पर आप देख पायेगें।)
ब्लाग पर
अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखने वाली वे रचनायें जिनका प्रथम प्रकाशन इसी ब्लाग पर हो रहा है, अब से उनके लेबल में ब्लाग पर अंकित होगा। तकनीक की सीमित जानकारी के चलते पहले प्रस्तुत की जा चुकी रचनाओं पर ऐसा करना संभव नहीं रहा। पूर्व में प्रस्तुत ऐसी रचनाओं के शीर्षक यहां दिये जा रहे हैं - मजबूत घेरे की सघनता के विरुद्ध बेघर हा जाने की कथा, क्वाण्टम भौतिकी एवं सृजन की संभावना, परितोष चक्रवर्ती का कथा संग्रह: कोई नाम न दो, विजय गौड की लघु-कथा .