Monday, March 23, 2009

इस शहर में कभी हरजीत ऒर अवधेश रहते थे

ब्लाग को जब शुरू किया, मालूम नहीं था कि सही में इसके मायने क्या है ? धीरे-धीरे अन्य मित्रों के ब्लोगों को देखते और जानते-समझते हुए तय करते चले गए कि एक पत्रिका की तरह भी इसे चलाया जा सकता है। जैसे तैसे लगभग एक वर्ष का समय बिता दिया। इस बीच बहुतकुछ जानने समझने का मौका मिला। मालूम नहीं कि पत्रिका का स्वरूप दे भी पाए या नहीं।
पत्रिका की तरह ही क्यों चलाया जाए?
इसके पीछे यह विचार भी काम कर रहा था, जो अक्सर अपने देहरादून के लिखने पढने वाले सभी साथियों के भीतर रहा कि देहरादून से कोई पत्रिका निकलनी चाहिए पर पत्रिका को निकालने के लिए जुटाए जाने वाले धन को इक्टठा करने में जिस तरह के समझोते करने होते हैं उस तरह का मानस कोई भी नहीं रखता था। आर्थिक मदद के लिए कहां और किसके पास जाएंगे- बस यही सोच कर हमेशा चुप्पी बनी रही और ऎसी स्थितियों के चलते जिसे तोड पाना तो कभी संभव हुआ और ही हो पाने की संभावना है। यह अलग बात है कि इधर पत्रिका निकालना तो एक पेशा भी हुआ है।
तो पत्रिका का स्वरूप बना रहे इसकी कोशिश जारी है। इस एक साल में यदि कुछ कर पाए हैं तो कह सकते हैं कि देहरादून के साहित्यिक, सामाजिक माहौल को पकडने की एक कोशिश जरूर की है और इसमें बहुत से साथियों का सहयोग भी मिला है। खास तौर पर मदन शर्मा, सुरेश उनियाल, जितेन ठाकुर और भाई नवीन नैथानी का। जिन्होंने अपने संस्मरणात्मक आलेखों से इसे एक हद तक संभव बनाया है। तो आज फ़िर से प्रस्तुत है ऎसा ही एक संस्मरण।



नवीन नैथानी



राजेश सकलानी ने एक रोज कहा था कि उसकी बहुत इच्छा है कि देहरादून को याद करते हुए इस पंक्ति का उपयोग किया जाये-
इस शहर में कभी अवधेश ऒर हरजीत रहते थे दरअसल ,यह पूरी श्रंखला देहरादून पर ही केन्द्रित है.कोशिश है कि इस बहाने देहरादून की कुछ छवियां एक जगह पर आ सकें. यह भी कि एक व्यक्ति के बीच से शहर किस तरह गुजरता है? एक शहर को हम कैसे देख सकते हैं?दो ही तरीके हैं. पहला ऒर शायद आसान तरीका है कि हम शहर के बाशिन्दों को याद करें.बाशिन्दों से शहर है.अलबत्ता कुछ शहर हम जानते हैं- उनके नाम जानते हैं,उनमें रहने वालों को नहीं जानते.राजेश सकलानी की ही एक कविता है जिसमें कुछ शहरों के नाम आये हैं. होशंगाबाद है, इन्दॊर है ऒर शायद एक आध शहर ऒर हैं.कुछ शहरों को हम इतिहास की वजह से जानते हैं.
(इतिहास ऒर शहर की काव्यात्मक पराकाष्ठा श्रीकान्त वर्मा के मगध में देखी जा सकती है ) कुछ शहर जो अब सिर्फ़ इतिहास में मिलते हैं , हमें अपने नाम के साथ आकर्षित करते हैं .उनका आकर्षण उनके नाम में होता है या फ़िर उन भग्नावशेषों में जो सदियों से उनकी छाती पर सवार होकर उनके नाम का सब सत्व अपने आस-पास की आबो-हवा में खेंच लेते हैं .वे इतिहास के शहर होते हैं ऒर वर्तमान को शायद वे एक दयनीय दृष्टि से देखते होंगे.उस दृष्टि में थोडी़ सी दया, थोडा़ सा उपहास ,जरा सी करूणा ऒर किंचित यातना का भाव छिपा रहता है.आप किसी ऐसे शहर की कल्पना कीजिए जहां लोग नहीं खण्डहर रहते हैं ऒर बेहद भीड़ उनके आस-पास दिखायी पड़्ती है-अतीत के अनदेखे वैभव से आक्रान्त लोग एक भागते ऒर हांफते समय के बीच थोडा़ सुकून तलाश करते हुए नजर आते हैं.ये इतिहास के शहर हैं.इन शहरों में लोग नहीं रहते,इनमें सैलानी आते हैं.यहां चुल्हे नहीं जलते,यहां खाना बिकता है.
कुछ शहरों को हम उनकी चमक - दमक के कारण जानते हैं.ये प्रायः उद्योगों के घर होते हैं.उद्योग धीरे-धीरे शहर के बाहर की तरफ सरकने लगते हैं. शहर कुछ ऒर ही किस्म की आबो- हवा में सांस लेने लगता है.शहर के आस - पास की हरियाली कुछ - कुछ कम होते हुए बिल्कुल नहीं के स्तर पर पहुंच जाती है.शहर के बीचो - बीच लकदक घास का मैदान हो सकता है,हरियाली मिल सकती है- आदमी नहीं मिलता.वह शहर की फैलती हुई परिधी पर सिकुड़ते हुए फैलता जाता है.
कुछ शहर हम उनके बाशिन्दों की वजह से जानते हैं.मुझे याद आता है एक बार मैं ट्रेन से शायद लखनऊ जा रहा था.शाहजहां पुर से गुजरते हुए ध्यान आया ,"अरे! यह तो हृदयेश का शहर है.!"
सुबह का वक्त था पर उजास अभी नहीं हुआ था. कोई मुझे जागता हुआ नहीं मिला.ट्रेन शाहजहांपुर से आगे निकल गयी तो यही लगता रहा कि अभी अभी हृदयेश के शहर से होकर गुजर गया हूं , बस उनसे मिलना रह गया. आज तक उनसे नहीं मिला हूं पर लगता है उन्हें बहुत करीब से जानता हूं क्योंकि उनके शहर शाहजहांपुर से होकर गुजर चुका हूं.
अदब से जुडे़ बहुत से लोग देहरादून को अवधेश ऒर हरजीत के शहर के रूप में जानते हैं.अवधेश ऒर हरजीत का देहरादून वह नहीं है जो दिखाई देता है. वह देहरादून थोडा़ सा कुहासे में ढका है - सूरज ढलने के आस - पास जागना शुरू करता है , दिये की बाती जलने पर अंगडा़ई लेता है ऒर जब घरों में बत्तियां गुल हो जाती हैं तो शहर स्ट्रीट लाइट की रोशनी में बतकही करता है... कभी थोडा़ फुसफुसाते हुए, कभी लम्बी खामोशी में ऒर कभी किसी नयी धुन में जिसे सिर्फ देहरादून में ही रह जाना है.
वे धुनें प्रायः उन गीतों की होती थीं जिन्हें अभी गाया जाना था . वहां सुर होते थे ऒर लय हवाऒं में कहीं आस-पास उतरा रही होती. यह तो जरा शब्दों की कुछ आपसी कहा-सुनी ही थी जो वे गाये नहीं गये. कभी उन धुनों में कोई पुराना नग़्मा अपनी हदों के बाहर जाने को अकुला रहा होता. कभी एक सार्वभॊमिक ऒर सार्वकालिक गीत की प्रतीक्षा होती जहां मनुष्य होने की करूणा को धीरे-धीरे प्रकृति के समक्ष एक चुनॊती बन कर खडा़ हो जाना था.
शहर ये धुनें सुनता था - कभी बगल से गुजरते यात्री के कानों से जिन्हें बहुत जल्दी घर पहुंचते ही रजाई की तपिश याद आ रही होती . कभी रास्ता भूल चुके किसी बाशिन्दे की उम्मीदों में वहां घर का रास्ता याद आने लगता.कभी - कभी ये धुनें कोई चॊकीदार सुन लेता.

"कहां से आये हो?"
"घर से"
"कहां जाना है?"
"घर"
"घर कहां है?"
"बगल में."
ऒर शहर चुप हो जाता.हरजीत ऒर अवधेश के देहरादून पर आगे बात करेंगे. फिलहाल अवधेश के गीत की कुछ पंक्तियां(देहरादून के बाहर बहुत कम लोग जानते हैं कि अवधेश ने गीत लिखे हैं ऒर उनमें भी बहुत कम लोगों ने अवधेश के कण्ठ से उन्हें सुना है)

है अंधेरा यहां ऒर अंधेरा वहां ,फिर भी ढूंढूंगा मैं रॊशनी के निशां
है धुंए में शहर या शहर मे धुआं, आप कहते जिसे रॊशनी के निशां


Wednesday, March 18, 2009

बोलना सही समय पर सही बात का

पिछले दिनों कवि लालटू की कविता पड़ी थी- कहां ?
याद नहीं। पंक्तियां याद हैं-

मैं हाजिर जवाब नहीं हूं
इसीलिए नहीं कह पाया किसी महानायक को
सही सही, सही वक्त पर कि उसकी महानता में
कहीं से अंधेरे की बू आती है
मैं ताजिन्दगी सोचता रहा
कि बहुत जरुरी थी
सही वक्त पर सही बात कहनी।

यह कविता मुझे शिरीष के हाल ही में प्रकाशित कविता संग्रह प्रथ्वी पर एक जगह में बोलना शीर्षक से शामिल कविता को पढ़ते हुए याद रही हैं। दोनों ही कविताओं के बारे में ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहता सिर्फ इतना ही कि हिन्दी कविता के दो अलग-अलग पीढ़ियों के कवियों की बेचैनी क्या मात्र उनके मनोगत कारण हैं ? या दौर ही ऐसा है जों बार-बार खुद को ही सचेत रहने को मजबूर कर रहा है।


शिरीष कुमार मौर्य
बोलना



अपने समय के सबसे चुप्पा लोगों से
बोल रहा हूं मैं

मेरी आवाज़ मेरी रही-सही ताकत है
मेरा बचा-खुचा साहस है
मेरा बोलना

और अपनी इस ताकत और साहस के साथ मैं बोल रहा हूं
सुनाई दे रही है मेरी आवाज़

सुन लें वे जिन्हें सुनाई देता है
समझ आता है जिन्हें वे समझ लें अच्छी तरह
कि बोलना
और बोलना सही समय पर सही बात का
बेहद ज़रूरी है

ऐसे में चुप रहेंगे सिर्फ वे जो बिल्कुल ही आत्महीन हैं
या फिर जिनकी
कोई अमूर्त-सी मज़बूरी है।

Tuesday, March 17, 2009

कविता संग्रह से

सोचो थोड़ी देर

आखिर कब तक
सरकारों का बदल जाना
मौसम के बदल जाने की तरह
नहीं रहेगा याद

कब तक यही कहते रहेंगे
इस बार गर्मी बड़ी तीखी है
बारिस भी हुई इस बार ज्यादा
और ठंड भी पड़ी पहले से अधिक

कब तक


बेशक
सट्टे बाजार के इर्द-गिर्द
घूमते हुए हम
पूंजीवाद का विराध करते रहे

बेशक
हथियारों की ईजाद में संलग्न
दुनिया को बेखौफ देखने की
सोचते रहे

बेशक
प्रेम में हारते हुए हम
बच्चों को प्रेम करने को
कहते रहे

पर जंगल से दूर रह कर
जंगल राज पर
कब तक मारते रहेंगे ठप्पे ?

यह कविताएं मेरे हाल में ही प्रकाशित कविता संग्रह सबसे ठीक नदी का रास्ता में शामिल हैं।

Monday, March 16, 2009

सत्यनारायण पटेल का कहानी पाठ

उदयपुर
"कहां है आदमी, यहां तो सब कीड़े-मकोड़े है। इनकी औलादें भी ऐसी ही होंगी। कभी नहीं, कभी पनही नहीं पहनेंगे। जिनगीभर उबाणे पगे पटेलों की जी हुजूरी करेंगे।" गांवों में जातीय और आर्थिक शोषण के यथार्थ का जीवन्त चित्र प्रस्तुत करने वाली कहानी "पनही" पढ़ते चर्चित युवा कथाकार सत्यनारायण पटेल ने अंत में कथा नायक के इस कथन से समाहार किया 'अब मेरा मुंह वया देख रहे हो, जाओ टापरे जो कुछ हो-लाठी, हंसिया लेकर तैयार रहो, पटेलों के छोरे आते ही होंगे और हां, उबाणे पगे मत आजो कोई।" पटेल की इस कहानी का अंत प्रबल जन प्रतिरोध की अभिव्यक्ति से हुआ है जो अब कैसी भी धौंस को बर्दाश्त नहीं करेगा।

जनार्दनराय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय के जनपद विभाग द्वारा आयोजित इस कहानी पाठ के पश्चात हुई चर्चा में वरिष्ठ कवि नन्द चतुर्वेदी ने कहा कि "पनही" एक शक्तिशाली कहानी है जो दबे हुए व्यक्ति को वाणी दे सकने वाली चेतना का उदघाटन करती है। उन्होंने कहा कि इधर का कहानीकार मध्यम वर्ग की चालाकियों से भरा नजर आ रहा है। ऐसे में पटेल की कहानियॉ आश्वस्ति देने वाली हैं कि कई तरह के पटेलों से लड़ रहे लोगों के स्वर देने की सामर्थ्य अभी मौजूद है। नंद बाबू ने ग्लोबलाइजेशन के नये खतरों में स्थानीयता की रक्षा को बड़ी चुनौती बताया। वरिष्ठ उपन्यासकार राजेन्द्र मोहन भटनागर ने पटेल को बधाई दी कि उन्होंने गांव को अपने रचनाकर्म की विषय वस्तु बनाया। उन्होंने कहा कि "पनही" की सफलता इस बात में है कि यह श्रोताओं को शहर से निकालकर ठेठ गांव में ले जाती है। सुखाड़िया विश्वविद्यालय के अंगे्रजी विभाग के प्रो.आशुतोष मोहन ने इसे छोटे कैनवास के बावजूद सघन कथा बताया जो अपने भीतर औपन्यासिक गुंजाइश रखती है। उन्होंने नायिका पीराक के चित्रण में आई ऐन्द्रिकता को विरल अनुभव बताते हुए कहानी में छिपे अनेक संकेतों की भी व्याख्या की। उर्दू कथाकार डॉ.सर्वतुन्निसा खान ने कहा कि समकालीन कथा लेखन की एकरसता में जीवन के बहुविध रंगों की छटा गायब हो रही है ऐसे में गांव की कहानी आना खुशगवार है। खान ने कहानी की भाषा को देशज अनुभवों की समृद्ध उपज बताया। राजस्थान विद्यापीठ के सहआचार्य डॉ। मलय पानेरी ने कहा कि सामंतवाद का पहिया स्वत: जाम नहीं होगा अपितु उसके लिए संघर्ष करना होगा। डॉ। पानेरी ने कहानी को ग्रामीण निम्न वर्गीय जीवन का यथार्थ बताया। "बनास" के संपादक डॉ. पल्लव ने देशज कथा रूप और शोषण की उदाम चेष्टा को सत्यनारायण पटेल की कहानियों की मुख्य विशेषता बताया।
इससे पहले जनपद विभाग के निदेशक पुरुषोतम शर्मा ने अतिथियों का स्वागत किया और जनपद विभाग की गतिविधियों की जानकारी दी। वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी रामचन्द्र नन्दवाना ने दलित उत्पीड़न के प्रतिरोध के अपने अनुभव सुनाए। अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ समालोचक प्रो. नवल किशोर ने कहा कि भूमंडलीकरण की चकाचौंध में साहित्य में ही जगह बची है जो पूरन और पीराक जैसे दबे कुचले लोगों की बात कर सके। उन्होंने कहा कि अच्छे लेखक की पहचान यह है कि वह बदलते समय को पकडे और उसे सार्थक कला रूप दे। उन्होंने सत्यनारायण पटेल की कहानियों को इस चेतना से सम्पन्न बताते हुए कहा कि छोटी छोटी अस्मिताओं के नाम पर बंटने से ज्यादा जरूरी है कि हम बड़ी लड़ाई के लिए तैयार हों। आयोजन में लोककलाविद् डॉ। महेन्द्र भाणावत, डॉ. एल.आर. पटेल, विभा रश्मि, दुर्गेश नन्दवाना, भंवर सेठ, हिम्मत सेठ, अर्जुन मंत्री, लक्ष्मीलाल देवड़ा, गणेश लाल बण्डेला सहित बड़ी संख्या में युवा पाठक उपस्थित थे।
अंत में विद्यापीठ के सांस्कृतिक सचिव डॉ। लक्ष्मीनारायण नन्दवाना ने आभार व्यक्त किया।



गणेशलाल मीणा
152, टैगोर नगर, हिरण मगरी, से। 4, उदयपुर-313 002

हम उदयपुर के युवा रचनाकार पल्लव जी के आभारी हैं जिनके मार्फ़त यह रिपोर्ट हम तक पहुंची और साथ हीआभारी हैं गणेशलाल मीणा जी के जिन्होंने इसे तैयार किया।

Sunday, March 15, 2009

अभी तो ठीक से याद नहीं

होली बीत चुकी है। यूंही दर्ज कर लिया गया दृश्य आंखों में घूम रहा है। यूं तो बचपन की होली का ध्यान है जब गाने बजाने वालों की टोलियां घर-घर जाकर होली गाती थी। हमारे इलाके में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के ढेरों लोग रहते थे जो लगभग महीने भर पहले से ही शाम के वक्त ढोल मजीरा लेकर होली गाते थे। बोल कुछ इस तरह थे -
इकवर खेलै कुंवर कन्हैया, इकवर राधा होरी हो
सदा अन्नदही रहयौ द्वारा, मोहन होरी खेलै हो।
या

कहै के हाथे कनक पिचकारी,, कहै के हाथे गौरी की चुनरी होह्णह्णह्ण


अभी तो ठीक से याद भी नहीं, सुने हुए को भी नहीं तो 28-30 वर्ष हो गए

इधर हमारी परीक्षाओं की तैयारी चल रही होती थी और उधर वे होलियारे हमें अपनी लोकधुन गुन-गुना लेने को उकसा रहे होते थे।
इस बार हू--हू तो नहीं, पर हां वैसा ही, लेकिन बिना साज बाज का नजारा था- कालोनी के तमाम जौनसारी लड़के जिस मस्ती में होली गा रहे थे और नाच रहे थे, देखकर मन मचल उठा। गाने के बोल को तो समझा नहीं जा सका पर उस लय को तो महसूसा ही जा सकता था जो इन आधुनिक पीढ़ी के जौनसारी युवाओं को मस्त किए थी। अपनी भाषा और लोकगीत के प्रति उनका अनुराग घरों के भीतर बैठे लागों को भी पहले बैलकनी से झांकने के लिए और फिर रंग लेकर नीचे उतर आने को उकसा रहा था। बेशक कोई पूर्व तैयारी के बिना यह हुजूम गा रहा था पर उनके गीत और नृत्य में एक खास तरह का उछाल था। लीजिए आप भी देखिए और सुनिए-