ब्लाग को जब शुरू किया, मालूम नहीं था कि सही में इसके मायने क्या है ? धीरे-धीरे अन्य मित्रों के ब्लोगों को देखते और जानते-समझते हुए तय करते चले गए कि एक पत्रिका की तरह भी इसे चलाया जा सकता है। जैसे तैसे लगभग एक वर्ष का समय बिता दिया। इस बीच बहुतकुछ जानने समझने का मौका मिला। मालूम नहीं कि पत्रिका का स्वरूप दे भी पाए या नहीं।
पत्रिका की तरह ही क्यों चलाया जाए?
इसके पीछे यह विचार भी काम कर रहा था, जो अक्सर अपने देहरादून के लिखने पढने वाले सभी साथियों के भीतर रहा कि देहरादून से कोई पत्रिका निकलनी चाहिए पर पत्रिका को निकालने के लिए जुटाए जाने वाले धन को इक्टठा करने में जिस तरह के समझोते करने होते हैं उस तरह का मानस कोई भी नहीं रखता था। आर्थिक मदद के लिए कहां और किसके पास जाएंगे- बस यही सोच कर हमेशा चुप्पी बनी रही और ऎसी स्थितियों के चलते जिसे तोड पाना न तो कभी संभव हुआ और न ही हो पाने की संभावना है। यह अलग बात है कि इधर पत्रिका निकालना तो एक पेशा भी हुआ है।
तो पत्रिका का स्वरूप बना रहे इसकी कोशिश जारी है। इस एक साल में यदि कुछ कर पाए हैं तो कह सकते हैं कि देहरादून के साहित्यिक, सामाजिक माहौल को पकडने की एक कोशिश जरूर की है और इसमें बहुत से साथियों का सहयोग भी मिला है। खास तौर पर मदन शर्मा, सुरेश उनियाल, जितेन ठाकुर और भाई नवीन नैथानी का। जिन्होंने अपने संस्मरणात्मक आलेखों से इसे एक हद तक संभव बनाया है। तो आज फ़िर से प्रस्तुत है ऎसा ही एक संस्मरण।
नवीन नैथानी
राजेश सकलानी ने एक रोज कहा था कि उसकी बहुत इच्छा है कि देहरादून को याद करते हुए इस पंक्ति का उपयोग किया जाये-
इस शहर में कभी अवधेश ऒर हरजीत रहते थे दरअसल ,यह पूरी श्रंखला देहरादून पर ही केन्द्रित है.कोशिश है कि इस बहाने देहरादून की कुछ छवियां एक जगह पर आ सकें. यह भी कि एक व्यक्ति के बीच से शहर किस तरह गुजरता है? एक शहर को हम कैसे देख सकते हैं?दो ही तरीके हैं. पहला ऒर शायद आसान तरीका है कि हम शहर के बाशिन्दों को याद करें.बाशिन्दों से शहर है.अलबत्ता कुछ शहर हम जानते हैं- उनके नाम जानते हैं,उनमें रहने वालों को नहीं जानते.राजेश सकलानी की ही एक कविता है जिसमें कुछ शहरों के नाम आये हैं. होशंगाबाद है, इन्दॊर है ऒर शायद एक आध शहर ऒर हैं.कुछ शहरों को हम इतिहास की वजह से जानते हैं.
(इतिहास ऒर शहर की काव्यात्मक पराकाष्ठा श्रीकान्त वर्मा के मगध में देखी जा सकती है ) कुछ शहर जो अब सिर्फ़ इतिहास में मिलते हैं , हमें अपने नाम के साथ आकर्षित करते हैं .उनका आकर्षण उनके नाम में होता है या फ़िर उन भग्नावशेषों में जो सदियों से उनकी छाती पर सवार होकर उनके नाम का सब सत्व अपने आस-पास की आबो-हवा में खेंच लेते हैं .वे इतिहास के शहर होते हैं ऒर वर्तमान को शायद वे एक दयनीय दृष्टि से देखते होंगे.उस दृष्टि में थोडी़ सी दया, थोडा़ सा उपहास ,जरा सी करूणा ऒर किंचित यातना का भाव छिपा रहता है.आप किसी ऐसे शहर की कल्पना कीजिए जहां लोग नहीं खण्डहर रहते हैं ऒर बेहद भीड़ उनके आस-पास दिखायी पड़्ती है-अतीत के अनदेखे वैभव से आक्रान्त लोग एक भागते ऒर हांफते समय के बीच थोडा़ सुकून तलाश करते हुए नजर आते हैं.ये इतिहास के शहर हैं.इन शहरों में लोग नहीं रहते,इनमें सैलानी आते हैं.यहां चुल्हे नहीं जलते,यहां खाना बिकता है.
कुछ शहरों को हम उनकी चमक - दमक के कारण जानते हैं.ये प्रायः उद्योगों के घर होते हैं.उद्योग धीरे-धीरे शहर के बाहर की तरफ सरकने लगते हैं. शहर कुछ ऒर ही किस्म की आबो- हवा में सांस लेने लगता है.शहर के आस - पास की हरियाली कुछ - कुछ कम होते हुए बिल्कुल नहीं के स्तर पर पहुंच जाती है.शहर के बीचो - बीच लकदक घास का मैदान हो सकता है,हरियाली मिल सकती है- आदमी नहीं मिलता.वह शहर की फैलती हुई परिधी पर सिकुड़ते हुए फैलता जाता है.
कुछ शहर हम उनके बाशिन्दों की वजह से जानते हैं.मुझे याद आता है एक बार मैं ट्रेन से शायद लखनऊ जा रहा था.शाहजहां पुर से गुजरते हुए ध्यान आया ,"अरे! यह तो हृदयेश का शहर है.!"सुबह का वक्त था पर उजास अभी नहीं हुआ था. कोई मुझे जागता हुआ नहीं मिला.ट्रेन शाहजहांपुर से आगे निकल गयी तो यही लगता रहा कि अभी अभी हृदयेश के शहर से होकर गुजर गया हूं , बस उनसे मिलना रह गया. आज तक उनसे नहीं मिला हूं पर लगता है उन्हें बहुत करीब से जानता हूं क्योंकि उनके शहर शाहजहांपुर से होकर गुजर चुका हूं.
अदब से जुडे़ बहुत से लोग देहरादून को अवधेश ऒर हरजीत के शहर के रूप में जानते हैं.अवधेश ऒर हरजीत का देहरादून वह नहीं है जो दिखाई देता है. वह देहरादून थोडा़ सा कुहासे में ढका है - सूरज ढलने के आस - पास जागना शुरू करता है , दिये की बाती जलने पर अंगडा़ई लेता है ऒर जब घरों में बत्तियां गुल हो जाती हैं तो शहर स्ट्रीट लाइट की रोशनी में बतकही करता है... कभी थोडा़ फुसफुसाते हुए, कभी लम्बी खामोशी में ऒर कभी किसी नयी धुन में जिसे सिर्फ देहरादून में ही रह जाना है.
वे धुनें प्रायः उन गीतों की होती थीं जिन्हें अभी गाया जाना था . वहां सुर होते थे ऒर लय हवाऒं में कहीं आस-पास उतरा रही होती. यह तो जरा शब्दों की कुछ आपसी कहा-सुनी ही थी जो वे गाये नहीं गये. कभी उन धुनों में कोई पुराना नग़्मा अपनी हदों के बाहर जाने को अकुला रहा होता. कभी एक सार्वभॊमिक ऒर सार्वकालिक गीत की प्रतीक्षा होती जहां मनुष्य होने की करूणा को धीरे-धीरे प्रकृति के समक्ष एक चुनॊती बन कर खडा़ हो जाना था.
शहर ये धुनें सुनता था - कभी बगल से गुजरते यात्री के कानों से जिन्हें बहुत जल्दी घर पहुंचते ही रजाई की तपिश याद आ रही होती . कभी रास्ता भूल चुके किसी बाशिन्दे की उम्मीदों में वहां घर का रास्ता याद आने लगता.कभी - कभी ये धुनें कोई चॊकीदार सुन लेता.
"कहां से आये हो?"
"घर से"
"कहां जाना है?"
"घर"
"घर कहां है?"
"बगल में."
ऒर शहर चुप हो जाता.हरजीत ऒर अवधेश के देहरादून पर आगे बात करेंगे. फिलहाल अवधेश के गीत की कुछ पंक्तियां(देहरादून के बाहर बहुत कम लोग जानते हैं कि अवधेश ने गीत लिखे हैं ऒर उनमें भी बहुत कम लोगों ने अवधेश के कण्ठ से उन्हें सुना है)
है अंधेरा यहां ऒर अंधेरा वहां ,फिर भी ढूंढूंगा मैं रॊशनी के निशां
है धुंए में शहर या शहर मे धुआं, आप कहते जिसे रॊशनी के निशां