Saturday, July 31, 2010

देखते हैं क्या प्राब्लम है आपकी

टेलीफोन डिपार्टमेंट के निगमी करण के बावजूद बी एस एन एल एक सार्वजनिक सेवा ही है। निजीकरण की प्रक्रिया को एकतरफा बढ़ावा देती सरकारी नीतियों के चलते वह कब तक सरकार बनी रहेगी यह प्रश्न न सिर्फ बी एस एन एल के लिए है बल्कि उन बहुत से क्षेत्रों के सामने भी खड़ा है जो अभी सार्वजनिक सेवा के रुप में सरकारी मशीनरी द्वारा ही संचालित है। बी एस एन एल का सबक दूसरे विभागों को भी निजी हाथों में सौंपने का एक पाठ हो सकता है।
जानकार सूत्रों के मुताबिक बी एस एन एल का संचालन दो विभिन्नस्तरीय सेवाओं के जरिये सम्पन्न हो रहा है। एकतरफ है ग्रुप सी और डी के कर्मचारी जिनके पास निगमीकरण की प्रक्रिया के आरम्भिक चरण में ही खुद को निगम की सेवा शर्तों के मुताबिक नौकरी में बने रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा। वहीं दूसरी ओर हैं ग्रुप ए अधिकारी जो अभी तक सरकारी सेवाओं के अधीन कार्यरत हैं और निजी संस्थान के तर्क को आए दिन मजबूती प्रदान करने के लिए कार्यरत है। बी एस एन एल की सेवाओं से परेशान उपभोक्ता से बात करने का या तो उनके पास वक्त नहीं या वे उपलब्ध ही नहीं। गलती से सम्पर्क हो भी जाए तो कोई ठोस कदम उठाने की बजाय टालू तरीका- ""देखते हैं क्या प्राब्लम है आपकी।"" यदि जवाब अप्रत्याशित मिले, ''मुझसे क्यों बात कर रहे है ?"" तो आश्चर्य न करें। 27 जुलाई 2010 का वह एक ऐसा ही दिन था जब महीनों महीनों से लगातार खराब चल रहे ब्राड-बैण्ड और टेलीफोन के सम्बंध में देहरादून बी एस एन एल के जी एम से अपनी समस्या को रखने की प्रार्थना करने पर डिवीजनल इंजिनियर श्री सी एम सक्सेना का ऑफिस फोन न। 0135-2720080 एवं व्यक्तिगत मोबाइल नम्बर उपभोक्ता को मुहैया कराया गया। ऑफिस का फोन तो कितनी ही फोन कॉलों के बाद भी अबोला ही बना रहा और व्यक्तिगत नम्बर जो यूं तो स्वीच ऑफ जैसे संदेशों की आवाज देता या फिर पूरी पूरी कॉल जाने के बाद भी शायद स्क्रीन पर किसी अनजाने नम्बर की आवाज को सुनने को उत्सुक न था। हां 29 जुलाई की दोपहर अनजाने नम्बर पर हुई कृपा पर उपभोक्ता द्वारा अपनी समस्या बताने के बाद ही ''मुझसे क्यों बात कर रहे है ?"" के साथ दूसरी ओर से आती आवाज ने पीड़ित उपभोक्ता को छटपटा कर रह जाने को मजबूर कर दिया। फोन खराब हो और कईयों-कईयों दिनों तक खराब ही रह रहा हो और ऊपर से किसी जिम्मेदार अधिकारी तक अपनी समस्या बताने पर टका सा जवाब मिले तो क्या किया जा सकता है। धैर्य बनाये रख सके तो और ऊपर के अधिकारी से बात करने के अलावा कोई दूसरा उपाय नहीं। ऊपर का अधिकारी कौन? कोई डी जी एम या सीधे जी एम ही न। लेकिन अफसोस जब भी सम्पर्क करना चाहो सिर्फ सुनने को मिलता है, साहब तो अभी हैं नहीं, क्या काम है ? परेशान आदमी के लिए यह भी एक राहत की ही आवाज हो सकती है। पर हफ्तों हफ्तों तक एक ही बात को दोहराते हुए और बार-बार खराब टेलीफोन के नम्बर को बताते हुए कोई कब तक धैर्य रख सकता है। पर यकीन जानिए कि यदि आप उखड़ने लगें तो तुरन्त बहुत ही आत्मीय सी आवाज में एक नया नम्बर मुहैया करा दिया जाएगा कि यह फलाने-फलाने का है आप इनसे बात कर लीजिए, आपका नम्बर हमने भी नोट कर लिया है उन्हें बता देगें। यदि खुद यकीन करना चाहे और बेहद आत्मीय सी लगती आवाज सुनना चाहें तो बात करके देख लीजिए देहरादून जी एम सेक्रेटिएट के नम्बर पर 0135-2727374 या 0135-2625600। पर यकीन जानिए न तो समस्या सुलझेगी और न ही आप जी एम से बात कर पाएंगे। क्योंकि यदि आप सहृदय हैं तो उस क्षण उस आवाज पर, जो जी एम सेक्रेटिएट से आ रही होगी, जरा भी संदेह न कर पाएंगे और मान ही लेगें कि जी एम मौजूद नहीं है। तो क्या जी एम बी एस एन एल, देहरादून कभी अपने ऑफिस में होते ही नहीं। ''नहीं नहीं यह इत्तिफाक है, आप आध घंटे बाद मालूम कर लीजिए।"  गनीमत हो कि कहीं आप हर आध घंटे में फोन न करने लगें--- और एक दिन, दो दिन---पांच दिन या महीना ही बीत जाए पर आपके लिए इत्तिफाक इत्तिफाक ही बना रहे।      

Tuesday, July 27, 2010

एक रात, एक पात्र और पांच कहानियां(२)

इस कडी की तीन कहानियां पिछली पोस्ट में थीं। शेष आज


कत्ल
एक मकान के पास वह रुक गया.इसमें दोस्त रहता है,उसने दरवाजा खटखटाया.
"कौन है?"
"मैं"
"मैं कौन?"
"तुम्हारा दोस्त."उसने टूटती आवाज में कहा."
"वह नहीं आया."भीतर से आवाज आयी.
"अच्छा!मैंने उसे कत्ल कर दिया"उसने दरवाजे पर लात जमायी


दोस्त

वह शहर के अंधेरे में उजली सड़कों पर भटक रहा है.अस्पताल पीछे छूट गया,जनाना अस्पताल से आती चीख की आवाजें पीछे छूट गयीं.गश्त में निकले पुलिस के सिपाहियों ने उसे अनदेखा किया.उसे थाने जाना चाहिये.
"थाना किधर है?"वह सिपाहियों के सामने खड़ा हो गया.
"उधर"एक सिपाही ने उस तरफ़ संकेत किया जहां आग जल रही थी.वह उधर बढ़ गया.
वहां आग जल रही है और लोग बैठे हैं.
"तुम लोग कौन हो?"उसने पूछा.
"हम तुम्हारे दोस्त हैं"
"दोस्त! तुम्हारे घर कहां हैं?"
"हमारे घर नहीं हैं"
"सुबह उठ कर कहां जाओगे?"उसका संशय दूर नहीं हुआ.
"सूरज की रोशनी में किसी को घर की जरूरत नहीं रहती"

Monday, July 26, 2010

एक रात, एक पात्र और पांच कहानियां(१)

( कोई पन्द्र्ह वर्ष पूर्व ये लघुकथायें लिखी गयी थीं और फिर कागजों के ढेर में गुम हो गयीं।अब यहां दो किस्तों में इस ब्लोग के पाठकों के लिये प्रस्तुत हैं-नवीन कुमार नैथानी)

अकेला
वह सड़क पर अकेला था.उसे याद नहीं आ रहा था कि वह अकेला क्यों है.याद करने की कोशिश में उसे मस्तिष्क को खोजना होगा जब्कि उसे देह को संभालने में दिक्कत हो रही है.वह आगे बढा और उसे लग कि आगे बढना मुश्किल है.वह पीछे हटा और उसे लगा कि पीछे हटना मुश्किल है.वह वहीं बैठ गया - डिवाइडर के ऊपर.बैठते ही उसे लगा कि लेट जाये . वह लेट गया और सो गया.
उस पल बहुत से लोग सडक से गुजर रहे थे.रात में भी इतनी रोशनी थी कि लोग उसे देख सकते थे.लोगओं ने देखा और सोच लिया-एक आदमी मर गया.

प्यास
प्यास के साथ वह उठा . सूखे गले के साथ कुछ दूर चला.तब उसने पाया कि वह सडक पर है.सामने सार्वजनिक जल की टंकी होनी चाहिये जिससे चौबीस घंटे पानी रिसता है.टंकी मिली,पानी मिला-रिसता हुआ. उसने अपने हाथ टंकी की दीवार से लगायेऔर होंठ गीले किये.बहुत देर तक वह अपनी प्यास से लडाता रहा.नीचे जमीन पर बहुत पानी था और जमीन में काई जम गयी थी.
उसका पैर जमीन पर फिसला और वह गिर पडा

घर
अंधेरी रत में वह धीमे-धीमे उठा.देह पर चोट थी .इसे संभालने के लिये उसे मस्तिष्क का साथ चाहिये.मस्तिष्क ने साथ दिया और उसे याद आया-बिछडने से पह्ले वह दोस्तों से घिरा था!
"अच्छा दोस्त!मुझे घर जाना है"
"अच्छा यार फिर मिलेंगे.घर पहुंचने के लिये बहुत देर हो गयी."
"अच्छा बन्धु!चलते हैं"
"अच्छा रहा यार,तुम कहां जाओगे?"
वह मुस्कराता रहा.दोस्त एक-एक कर घर चले गये.
"अच्छा है" वह बड़बडाया,"उनके पास घर तो है"

Sunday, July 18, 2010

उत्तराखंड में जंगल के परदेसी दुश्मन को न्योता

नैनीताल  के चाफी नामक स्थान में उगाई जा रही है खतरनाक  खरपबार यूरोपियन ब्लैक बेरी लैंटाना जैसी हमलावर प्रजाति है ब्लैक बेरी, आस्ट्रेलिया को भी इस झाड़ी ने कर रखा है परेशान

अरविंद शेखर
पूरा देश लैंटाना, गाजर घास जैसी जंगल की दुश्मन झाडि़यों से पहले से परेशान है, पर इन सभी चिंताओं को दरकिनार कर निर्यात और किसानों की आय बढ़ाने के ख्वाब के साथ उत्तराखंड में जंगल के एक नए परदेसी दुश्मन को न्योता दे दिया गया है। स्टेट इन्फ्रास्ट्रक्चर एंड इंडस्टि्रयल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ऑफ उत्तराखंड लिमिटेड (सिडकुल) के पीपीपी मोड में चलने वाले एक फ्लोरिकल्चर पार्क में यूरोपियन ब्लैक बेरी को उगाया जा रहा है। लैंटाना की तरह की इस हमलावर प्रजाति की व्यावसायिक खेती की तैयारी चल रही है। योजना 200 से 400 स्थानीय किसानों को ब्लैक बेरी की पौध वितरित करने की है, ताकि वे यूरोपियन ब्लैक बेरी के पौधे अपने खेतों की मेढ़ों में उगा सकें। यूरोपियन ब्लैक बेरी ऐसी हमलावर विदेशी प्रजाति है जिसके प्रकोप से आस्ट्रेलिया जैसा देश परेशान है और इससे छुटकारा पाने के लिए तरह-तरह की योजनाएं चला रहा है। 1835 के आस-पास आस्ट्रेलिया पहुंची ब्लैक बेरी वहां के 88 लाख हेक्टेयर क्षेत्र यानी तस्मानिया से भी बड़े क्षेत्र पर प्रभुत्व स्थापित कर चुकी है। यह वहां की स्थानीय प्रजातियों का सफाया कर चुकी है। इसकी वजह से जंगलों के पेड़ कमजोर हो गए और उनसे मिलने वाली लकड़ी कम हो गई। 1998 की एक रिपोर्ट के मुताबिक आस्ट्रेलिया को जहां ब्लैकबेरी से छह लाख आस्ट्रेलियाई डॉलर का लाभ होता था, वहीं इसके मैनेजमैंट पर 421 लाख आस्ट्रेलियाई डॉलर खर्च हो जाते थे। 70 के दशक में ही आस्ट्रेलिया जैविक तरीकों से इसकी रोकथाम के उपाय खोज सका, मगर वे भी आज तक बहुत कामयाब नहीं हो पाए हैं। दून स्थित वन अनुसंधान संस्थान एफआरआई के वनस्पति प्रभाग के प्रमुख डॉ. सुभाष नौटियाल का कहना है कि यूरोपियन ब्लैक बेरी दो डिग्री से 30 डिग्री तापमान पर ही होती है। ठंडे पहाड़ी इलाके इसके लिए बहुत मुफीद हैं। ऐसे में यह पर्वतीय वनस्पति तंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। मजेदार बात यह है कि नैनीताल जिले में मुक्तेश्वर के पास चाफी नामक स्थान पर इंडो-डच संयुक्त प्रोजेक्ट के फ्लोरिकल्चर पार्क के निदेशक एवं कृषि विशेषज्ञ सुधीर चड्ढा बताते हैं कि प्रदेश में यूरोपियन ब्लैक बेरी उत्पादन की व्यापक संभावनाएं हैं। उत्तराखंड में ब्लैकबेरी यूरोप से दो माह पहले उगाई जा सकती है। ब्लैकबेरी को उत्तराखंड में उन दिनों उगाया जा सकता है, जब यूरोप में भारी बर्फबारी होती है। उस अवधि में ब्लैकबेरी फ्रीज करके यूरोपवासियों को निर्यात की जा सकती है। किसान भी इसे उगाकर अपनी आय में बढ़ोतरी कर सकते हैं।

“यह लैंटाना, गाजर घास की तरह विदेशी हमलावर प्रजाति है। इसलिए इसे कड़े नियंत्रण में ही उगाया जाना चाहिए। अगर इसे अनियंत्रित तरीके से उगाया गया तो यह भविष्य में बड़ी समस्या बन सकती है।’’ - डॉ. प्रफुल्ल सोनी (प्रमुख, पर्यावरण एवं पारिस्थिकीय तंत्र प्रभाग, एफआरआई

दूनघाटी पर परदेसी वनस्पतियों का कब्जा
37.61 प्रतिशत प्रजातियां अमेरिकी मूल की ,जबकि 11.46 फीसदी चीनी, 10.77 प्रतिशत अफ्रीकी, 8.02 फीसदी आस्ट्रेलियाई, 5.27 प्रतिशत यूरोपीय, 5.04 प्रतिशत मध्य सागरीय, 3.66 फीसदी जापानी और 2.75 फीसदी वेस्टइंडीज से आई किस्में
इनकी वजह से कई प्रजातियां गायब होने की कगार पर , लैंटाना ने तो राजाजी नेशनल पार्क के 48 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया, गाजर घास आपको जंगल क्या सड़कों के किनारे भी आसानी से फैलती नजर आ सकती है

प्रदेश की राजधानी देहरादून के जंगलों पर परदेसी हमलावरों ने कब्जा जमा लिया है। जी हां, दून घाटी के जंगलों पर अब विदेशी वनस्पति प्रजातियों का कब्जा है। यह परिणाम है दून स्थित देश के जाने माने संस्थान वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के एक अध्ययन के।
वाडिया इंस्टीटूयूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी के इस अध्ययन के मुताबिक दून घाटी में 308 विदेशी पेड़ प्रजातियों और 128 परदेसी झाड़ियों और खरपतवारों का कब्जा है। रोचक तथ्य यह है कि इसमें से 37.61 प्रतिशत प्रजातियां अमेरिकी मूल की है जबकि 11.46 फीसदी चीनी, 10.77 प्रतिशत अफ्रीकी, 8.02 फीसदी आस्ट्रेलियाई, 5.27 प्रतिशत यूरोपीय, 5.04 प्रतिशत मध्य सागरीय, 3.66 फीसदी जापानी और 2.75 वेस्टइंडीज से आई किस्में हैं। इटली के टोरिनो विश्वविद्यालय से पर्वतीय पर्यावरण और जलवायु जैव विविधता में स्नातकोत्तर कोर्स करने वाले देश के पहले वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी का कहना है कि परदेसी प्रजातियों ने भले ही खुद को दून घाटी के वातावरण के अनुरूप ढाल लिया हो मगर ये स्थानीय प्रजातियों के लिए कतई ठीक नहींक्योंकि लैंटाना, गाजर घास, पॉपुलर, यूकिलिप्टस जैसी हमलावर ये प्रजातियां दून घाटी के जंगलों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ रही है। इतना ही नहीं, इनकी वजह से कई प्रजातियां गायब होने की कगार पर हैं लैंटाना ने तो राजाजी नेशनल पार्क के 48 फीसदी हिस्से पर कब्जा जमा लिया है। गाजर घास आपको जंगल क्या सड़कों के किनारे भी आसानी से फैलती नजर आ सकती है। यह अच्छी बात है कि केंद्र सरकार के नेशनल मिशन फॉर ग्रीन इंडिया में जंगलों की हमलावर परदेसी प्रजातियों के नियंत्रण और उन्मूलन पर खास ध्यान दिया गया है। 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत भी पिछले वित्तीय वर्ष के बजट में इसके लिए 30 करोड़ रुपये आवंटित किए गए लेकिन अब जब राज्य मिशन फॉर ग्रीन इंडिया के तहत अपने राज्य का एक्शन प्लान बनाएगा तब उसे इन हमलावर विदेशी प्रजातियों के विस्तार को रोकने और उनका उन्मूलन करने पर विशेष ध्यान देना होगा, नहीं तो जैव विविधता के सभी प्रयास बेकार हो जाएंगे। डॉ. नेगी का कहना है कि वन व उद्यान विभाग को दून घाटी में फैल रही इन विदेशी हमलावर प्रजातियों के बारे में गंभीरता से सोचना होगा और उनके उन्मूलन के लिए एक्शन प्लान बनाना होगा। अन्यथा एक दिन दून घाटी की स्थानीय जैव विविधता खत्म हो जाएगी।

Wednesday, July 14, 2010

इस से पहले भी यहाँ (नवम्बर २००८ के पोस्ट १० में) शेल सिल्वरस्टीन की भाषाओँ के विलुप्त होते जाने पर एक मार्मिक  कविता  प्रस्तुत की जा चुकी है...मेरी समझ में आम बोल चाल की भाषा में और बेहद मामूली विषयों पर लिखने वाले वे अमेरिका के एक बड़े कवि हैं.यहाँ उनकी तीन छोटी कवितायेँ फिर से प्रस्तुत हैं: 




शेल सिल्वरस्टीन  की कवितायेँ
   आवाज
तुम्हारे अन्दर बसी हुई है एक आवाज
पूरे दिन दबी जुबान दुहराती हुई...
...मुझे लगता है मेरे लिए यह ठीक है...
...मैं जानता हूँ ये गलत है...
कोई टीचर,ज्ञानी,माँ बाप 
दोस्त या सयाना ही क्यों न हो
तय नहीं कर सकता
क्या है सही तुम्हारे लिए...
बस तुम कान लगा कर सुनो
क्या कह रही है आवाज 
 तुम्हारे अन्दर बसी हुई है जो..


कोई तो होगा 
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को
उनकी चौंध धुंधली पड़ गयी है आजकल
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को
चीलों,फाख्तों और सागर के ऊपर मंडराने वाले परिंदों के लिए
उलाहने लिए आए हैं सब के सब
कि घिस पिट गए हैं और 
बदरंग हो गए हैं तारे...
सब को चाहिए नए नवेले तारे
पर हम इनको लायें कहाँ से?
इसलिए ढूँढो चीथड़े लत्ते
और दुरुस्त कर लो पालिश कि बोतलें ...
कोई तो होगा जिसे रगड़ रगड़ के
चमकाना होगा तारों को..
कितना??
कितनी पिचकन दिख रही है जर्जर दरवाजे पर
निर्भर करता है कितनी जोर से धक्का मार के इसको तुम बंद करते रहे हो...
कितनी परतें निकल सकतीं हैं  एक ब्रेड में
निर्भर करता है कितनी बारीकी से  काट रहे हो तुम...
कितनी अच्छाई समा सकती है एक दिन के गर्भ में
निर्भर करता है कितने अच्छे ढंग से इसको जीते हो तुम...
कितना प्यार भरा हो सकता है एक दोस्त के अन्दर
निर्भर करता है तुम आतुर हो कितने खुद इसे लुटाने के लिए ...  
         शेल सिल्वरस्टीन (१९३२-१९९९) अमेरिका के प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट,नाटककार,गायक,गीत लेखक  तो थे ही ,सबसे बढ़ कर दुनिया भर के बच्चों के प्यारे कवि थे.बाल कविताओं की उनकी डेढ़ करोड़ पुस्तकें बिक चुकी हैं...दर्जनों किताबें तो उनके जीवन कल में प्रकाशित हुई ही,अगले साल उनकी अ-प्रकाशित कविताओं की नयी पुस्तक धूम धाम से छपने जा रही है.आम तौर पर इंटरविउ देने से बचने वाले शेल ने एक बार कहा था कि उनमे ऐसा कुछ नहीं था जिस से लड़कियां आकर्षित हों,इस लिए वे बड़े उदास और सब से कटे कटे रहते थे.बाकी और कामों में नाकाम रहने के बाद मैंने चित्र बनाना और कवितायेँ लिखना शुरू किया...बस फिर तो लड़कियों के बीच मैं खूब लोकप्रिय होता गया.थोड़े समय के लिए वे सेना में भरती हुए.१९६३ में उनकी बाल कविताओं की पहली किताब छपी,इसके बाद तो उन्होंने पीछे मुड़ के नहीं देखा.उनकी बेहद प्रसिद्ध किताब है द गिविंग ट्री जिसका नायक एक वृक्ष है..एक उदास बच्चे को खुश करने के लिए इस वृक्ष ने एक एक कर के अपनी छाया,पत्तियां,फल,टहनियां और अंत में तना तक निछावर कर दिया..इस किताब ने शेल के जीवन में निर्णायक भूमिका निभाई.
     यहाँ प्रस्तुत हैं उनकी लोकप्रिय कविताओं में से तीन कवितायेँ...चयन और प्रस्तुति: यादवेन्द्र