(अवधेश कुमार की
यह लघुकथा लगभग तीस वर्ष पूर्व लिखी गयी थी. आज के समय में इसकी प्रासंगिकता ध्यान
खींचती है)
दिल्ली
उबले हुए अंडे
की तरअह ठोस और मृत,गदराया हुआ और मूल्यवान यह शहर मिर्च और नमकदानियों के साथ हर किसी
मेज पर सजा हुआ, हर समय उपलब्ध.
यह शहर अपने
से थोड़ा खिसका हुआ शहर है-झनझनाता हुआ एक शहर से चिपका दूसरा से चिपका तीसरा से चिपका
चौथा.कैमरा हिल जाने से जैसे तस्वीर में कई एक जैसी तस्वीरें पैदा हो जायें.
यह शहर हमारे चारों तरफ छिलके के खोल की तरह
शामिल हमारी परछाईयों को हमारे शरीरों से नोंचकर उतार फेंकने की कोशिश में तिलमिलाता
है और निराशा और भय से चेहरे की जर्दी काली पड़ जाती है.
पूरे देश पर छाने
की कोशिश में निरन्तर मग्न और पीड़ित यह शहर फूटे हुए अंडों के मलबे के ढेर में धँसा
हुआ करवट तक लेने में असमर्थ है.
आमीन.