Tuesday, November 28, 2017

धर्म मनुष्य की पहचान क्यों हो ?

फोटो- गजेन्‍द्र बहुगुणा

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

यद्यपि लेखन में कविता आपकी मुख्‍य विधा थी। आपका समूचा स्‍वर भी उसी में सधा। लेकिन हिंदी में दलित साहित्‍य की जो धारा प्रस्‍फूटित हो चुकी थी उसके प्रवाह को जारी रखना और उसे हर तरह से समृद्ध करने की जिम्मेदारी भी आपके ऊपर थी। दलित चेतना के स्वर में लिखने वाले चंद लोग ही उस वक्‍त तक सक्रिय थे। आयुध कारखाने ओ एल एफ, जिसमें आप कार्यरत थे, बहुत से नये लोग भर्ती हुए थे। उन नये लोगों में बहुत से ऊर्जावान दलित साथी थे जिन्‍होंने एक संस्‍था बनायी थी- अस्मिता अध्‍ययन केन्‍द्र। सामाजिक गतिविधियों के साथ साथ संस्‍था में अमबेकरवादी साहित्‍य का अध्‍ययन भी किया जाता था। आपके संगसाथ की वजह से मेरी भी उपस्थिति यथोचित बनी रहती थी। एक बार रविदास जयंती के अवसर पर एक विचार गोष्‍ठी के साथ शाम को कविता पाठ का भी आयोजन रखने का विचार आपने रखा। उस वक्‍त ही आपने मुश्किलों को सांझा किया था कि कविता गोष्‍ठी में किन कवियों को बुलाया जाए जो दलित चेतना से लिख रहे है। कँवल भारती और तीन चार अन्‍य कवि आमंत्रित हुए। मेरा किसी से भी पूर्व परिचय नहीं था। इसलिए आज ठीक से याद भी नहीं कर पा रहा कि अन्‍यों में कौन कौन थे। संभवत: सूरजपाल चौहान रहे हों, लेकिन मैं बहुत आश्‍वस्‍त होकर नहीं कह सकता। हां सूरजपाल चौहान जी से मेरी मुलाकात उस वक्‍त हुई थी जब आप और मैं एक रात नोएडा स्थित उनके घर पर रुके थे।

ऐसी परिस्थितियों के साथ दलित साहित्‍य की धारा बहना शुरु कर चुकी थी। आप इस बात को अच्‍छे से समझ रहे थे। तभी तो कविता के साथ-साथ कहानी, आत्‍मकथा और नाटक तक ही नहीं रुके। ‘’दलित साहित्‍य का सौन्‍दर्य शास्‍त्र’’ गढ़ने के लिए प्रयासरत हुए। इतिहास के भीतर झांकना चाहते रहे। भारतीय समाज को जाति में बांटने वाले धर्म की पोल पट्टी खोल देना चाहते रहे। उसके लिए  ‘’सफाई देवता’’ लिखी। दलितों की पहचान को हिंदू धर्म से विलगाने वाले तथ्‍यों को खोजना चाहते रहे। दलित विचारक कांचा इल्‍लेया की पुस्‍तक Why I am not a Hindu किताब का अनुवाद तो आपने सन 2000 के बाद किया। ठीक से याद नहीं, संभवत: 2004-05। हां, इतना याद है उस वक्‍त आप जबलपुर से स्‍थानांतरित होकर देहरादून वापिस आ चुके थे। लेकिन, ‘जूठन’ में, जिसका प्रकाशन 1997 में हुआ, आप लिख ही चुके थे, ‘’नहीं, मैं ईसाई नहीं हुआ हूं।
’’लेकिन मन में एक उबाल-सा उठता था जो कहना चाहता था, मैं हिंदू भी तो नहीं हूं। यदि हिंदू होता तो हिंदू मुझसे इतनी घृणा, इतना भेद-भाव क्‍यों करते ? बात-बात पर जातीय-बोध की हीनता से मुझे क्‍यों भरते? मन में यह भी आता था कि अच्‍छा इन्‍सान बनने के लिए जरूरी क्‍यों हो कि वह हिुदू ही हो...हिंदू की क्रूरता बचपन से देखी है, सहन की है। जातीय श्रेष्‍ठता-भाव अभिमान बनकर कमजोर को ही क्‍यों मारता है ? क्‍यों दलितों के प्रति हिंदू इतना निर्मम और क्रूर है ? ‘’

‘जूठन’ में ही आपने अनुभवों के हवाले से दलित समाज के उन देवी देवताओं का जिक्र किया है जिसके आधार पर आपने रखना चाहा है कि दलित समाज हिंदू धर्म का हिस्‍सा नहीं रहा है। ‘’कहने को तो बस्‍ती के सभी लोग हिंदू थे, लेकिन किसी हिंदू देवी-देवता की पूजा नहीं करते थे। जन्‍माष्‍टमी पर कृष्‍ण जी नहीं, जहारपीर की पूजा होती थी या फिर ‘पौन’ पूजे जाते थे। वे भी अष्‍टमी को नहीं, ‘नवमी’ के ब्रह्ममुहर्त में।
‘’इसी प्रकार दीपावली पर लक्ष्‍मी का पूजन नहीं, माई मदारन के नाम पर सूअर का बच्‍चा चढ़ाया जाता है या फिर कड़ाही की जाती है। कड़ाही यानी हलवा-पूरी का भोग लगाया जाता है।‘’

दरअसल हिंदू धर्म ही नहीं, कोई दूसरा धर्म भी आपको रुचता नहीं था। अम्‍बेडकरवादी चेतना के बावजूद आपने बौद्ध होना भी तो नहीं स्‍वीकारा था। उम्‍मीद से आपके पास आने वाले उन नव बौद्धों को कई बार निराश ही होना पड़ा जब आपने उनके आग्रह को स्‍वीकारने का कोई संकेत भी उन्‍हें कभी नहीं दिया। बहुत करीबी बातचीत में आपने ही एक बार बताया था, ‘’ये सज्‍जन, जो अभी तुम्‍हारे आने से पहले ही निकले, चाहते हैं कि मैं बौद्ध हो जाऊं।‘’ बावजूद बुद्ध के प्रति प्रेम और आदर के आपके चेहरे पर दिए गये प्रस्‍ताव को दृढ़ता से नकारने के भाव थे। बौद्ध होना आपको स्‍वीकार्य नहीं था। हिंदू आप थे नहीं। सच तो यह है कि मनुष्‍य की पहचान धर्म से हो, आपकी समझदारी में यह विचार ही खराब था। 

स्‍मृति

Saturday, November 25, 2017

वह बौद्धिक साहस और चेतना के साथ सतत लेखन

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

आपमें यदि बौद्धिक साहस और एक चेतना के साथ सतत लिखने का माददा न होता तो कहा नहीं जा सकता कि वंचितों की आवाज बनकर लिखी जा रही रचनाओं के स्‍वर को दलित साहित्‍य की संज्ञा से पहचाने जाने में अभी कितना वक्‍त लगता। पत्रकार मोहनदास नैमिशराय की आत्‍मकथा, ‘अपने-अपने पिंजरे’ तो छप ही चुकी थी। लेकिन उसे दलित साहित्‍य  की रचना तो उस समय नहीं माना गया था। आपकी लगातार की जिदद भरी कोशिशों ने ही उस वातावरण का निर्माण करने में अहम भूमिका निभाई कि जिस ‘सदियों के संताप’ को छापते हुए भी उसे दलित साहित्‍य की रचना न कह पाने की हमारी कमजोरियां उसे दलित कविताओं की पुस्‍तक के रूप में स्‍थापित कर गई। हमारी कमजोरियों का कारण वह वातावरण भी तो था जो आलोचना के गैर पेशेवराना मिजाज के कारण नामगिनाऊ था। और उस नाम गिनाऊ आलोचना में आपकी कोई जगह ही न थी। फिर एक अकेले व्‍यक्ति में इतना साहस कहां से पैदा हो जाता कि पहली ही किताब को दलित साहित्‍य कह पाए। कोई संगठन होता, कोई बड़ा आंदोलन चल रहा होता तो निश्चित ही वैसा लिख देने का साहस हम बटोर ही लेते।

आपको ध्‍यान होगा कि पुस्‍तक छपने के बाद नेहरू युवक केन्‍द्र, ई सी रोड़, देहरादून के उस प्रांगण में जहां लीचियों के पेड़ झूमते थे, सिर्फ स्‍थानीय रचनाकारों की उपस्थिति में ही आयोजित हुई ‘फिलहाल’ की गोष्‍ठी में पुस्‍तक का लोकापर्ण और चर्चा हुई थी। अवधेश कौशल जी की वजह से नेहरू युवक केन्‍द्र दून के रंगकर्मियों के सर्वसुलभ जगह थी। उनका अड्डा थी। इस नाते हमारे गोष्‍ठी के लिए वह सर्वसुलभ ही थी। वरना गोष्‍ठी करने को भी तो कोई जगह हमारे पास नहीं थी। घरूवा गोष्‍ठी के रूप में सदियों के संताप के छप जाने का कोई मतलब नहीं था।

यूं उसे लोकार्पण भी तो नहीं कहा जा सकता। पुस्‍तक लोकार्पण  कैसे होता है, इसका भी तो हमें अनुभव कहां था। बस मित्र इक्‍टठे हुए, आने कविताएं पढ़ी और उन पर चर्चा हुई। पुस्‍तक पर सम्‍पूर्ण रूप से कोई बात नहीं हुई। हां, इतना जरूर हुआ कि उसके बाद पुस्‍तक को बेचना हमने शुरू कर दिया। शुरूआती दिनों तक तो वह अनाम ही रही, फिर जब आपकी कविताएं पहली बार ‘हस’ मासिक में छपी और हिंदी की दुनिया में उन्‍हें दलित साहित्‍य के रूप में पहचाना जाने लगा तो कितने ही पत्र पुस्‍तक की मांग के संबंध में आने लगे। यहां तक कि उनमें से कई पत्र तो इस तरह के होते थे जो ‘फिलहाल प्रकाशन’ को एक लगातार का प्रकाशन मानने की गलतफहमी में पूरा कैटलॉग भेजने की बात लिखते थे। सीमित प्रतियों को बेच लेने के बाद हम उन बहुत से पाठकों को पुस्‍तकें भेज सकने में असमर्थ थे। हमारा अंदाज भी कोई पेशेवराना नहीं था कि उन पत्रों के जवाब ही देते। वे बिना जवाबी खत होने लगे। यद्यपि यह जरूर हुआ कि बहुत जिददी लोगों को पुस्‍तक की कुछ फोटो कॉपी उस वक्‍त मुफ्त भेजी गयी। वह हमारे देहरादून में फोटोकॉपी मशीन के आ जाने का शुरूआती समय था।      

हिंदी में दलित साहित्‍य की अनुगूंज को जगाने का श्रेय बेशक ‘हंस’ और उसके सम्‍पादक राजेन्‍द्र यादव को दिया जाता रहे, पर आपके बौद्धिक साहस और सतत चेतना की जिदद के साथ आपके लिखने को दरकिनार नहीं किया जा सकता। वह भी तब, जबकि हिंदी साहित्‍य की मुख्‍यधारा की पत्रिकाओं में छपने से आपकी रचनाएं वंचित रहती जा रहा थी। आप तो वहां भी दलित की तरह ही ‘दलित’ पत्रिकाओं में ही छप रहे थे। कुछ नाम याद आते है, मुगेर, बिहार से निकलने वाली मरगिल्‍ली सी पत्रिका ‘पंछी’, राजस्‍थान से निकलने वाली ‘मरूगंधा’, देहरादून से निकलने वाला द्विभाषीय दैनिक ‘वैनगार्ड’, देहरादून से हस्‍तलिखित पत्रिका ‘अंक’, कविात फोल्‍डर ‘संकेत’ और फिलहाल’, घोषित रूप से मासिक लेकिन कभी कभी अनियमित हो होकर छपने वाली ‘नयी परिस्थितियां’, नागपुर से निकलने वाला मराठी साप्‍ताहिक ‘नागसेन’। बेशक हिंदी में आलोचना का कोई पेशेवराना रूप आज भी नहीं तो भी हिंदी साहित्‍य के इतिहास पर जब भी कुछ लिखा जाएगा तो आपाको जम्‍प करके निकल जाना किसी के लिए भी मुश्किल ही होगा। हिंदी में आलोचना का पेशेवराना रूप होता तो ऐसा हो नहीं सकता था कि शुद्ध साहित्‍य और पाप्‍लुर पर चलने वाली बहसें आज इतना शोर मचाती। या फिर फेसबुक पर छपने वाली रचनाओं को बिना पढ़े ही सिरे से खारिज करने वाली आवाजें ही ज्‍यादा गंभीर मानी जाती। पेशेवर आलोचक उनकी भी पड़ताल पेशेवराना ढंग से करते और आलोचना का कोई वस्‍तुनिष्‍ठ रूप उभरता। या यूं भी कि किसी एक आलोचक के बस चंद लेखक ही प्रिय नहीं होते, वह उन पर भी नाम गिनाऊं तरह से पुनारवृत्ति भरे आलेख भर नहीं लिखता, बल्कि उन पुस्‍तकों और लेखकों को भी खोजता जो बहुत नामालुम सी पत्रिकाओं में छपते और किसी अनजाने शहर के बांशिंदे होते। यहां चूंकि मैं अभी ऐसे उन बहुत से अनाम रह गई रचनाओं और रचनाकारों के बारे में बात नहीं करना चाहता। यहां तो सिर्फ आपकी ही बात करूंगा। क्‍योंकि, आप भी जानते हैं अच्‍छे से स्‍थापित हो जाने के बाद ही आपकी रचनाओं पर लिखा और सुना गया। जबकि, उन रचनाओं की त्‍वरा तो हमेशा ही एक जैसी रही। अपने लिखे जाने के वक्‍त भी और छप जाने के वक्‍त भी।

स्‍मृति

Friday, November 24, 2017

न्यू नतम लागत मूल्य और सदियों का संताप



कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

आपको ध्यान होगा, ऋषिकेश से एक कविता संग्रह प्राकाशित हुआ था। ‘उत्‍तर हिमानी’ नाम से प्रकाशित उस संग्रह में उत्‍तराखण्‍ड के अन्‍य कवियों की कविताएं भी थी। पार्थ सारथी डबराल के संपादक थे। 
‘सदियों की संताप’ आपकी कविता पुस्‍तक तो 1989 में प्रकाशित हुई। तब तक हम दोनों ने भी ‘उत्‍तर हिमानी’ के लिए कविताएं भेज दी थी। आपकी डायरी में सबसे अन्तिम कविता ‘तब तुम क्‍या करोगे’ ही थी उस वक्‍त। आपकी डायरी को पूरा पढ़ने के बाद डायरी की वह अंतिम कविता मेरे भीतर बहुत दिनों तक गूंजती रही थी।
पारंपरिक छापे की प्रक्रिया से छपने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिल्‍हाल की टीम’ फिल्‍हाल के तीन अंक निकाल चुकी थी और इस नाते प्रकाशन के जोड़ घटाव से एक हद तक परिचित हो चुकी थी। उस अनुभव के नाते ही एक रोज शाम को अम्‍मा-अब्‍बा को खाना पहुंचाने जाते वक्त हम (मैं और आप) जब उस कविता संग्रह की बात कर रहे थे जिसमें सहयोग राशि के साथ हम दोनों की कविताएं छप रही थी (‘उत्‍तर हिमानी’) तो मैंने कहा था कि अब आपकी भी कविता पुस्‍तक छप जानी चाहिए। मेरी बात पर आपने मायूसी के साथ जवाब दिया था, ‘’
‘’कौन छापेगा किताब।
‘’हम खुद छाप सकते हैं न।‘’
‘’कैसे ?’’
‘’जैसे फिलहाल छापते हैं। 6 फोल्‍ड में मुश्किल से 300 रू खर्च होते हैं हमारे एक अंक छापने पर। यदि किताब मैं 50.60 पेज हों और हम उसकी 400-500 प्रतियां छापें तो किताब का खर्च मुश्किल से 1000-1200 रू ही आएगा। उसको भी हम किताब बेच कर निकाल लेगें।‘’
फिल्‍हाल की छपाई में मोटा कागज इस्‍तेमाल होता था, जिसका दाम सामान्‍य कागज से कहीं ज्‍यादा था। ‘युगवाणी’ पर पेज की 30 रू लेता था। चालीस से पचास रू के भीतर कवर में छपने वाले चित्र का ब्‍लाक बन जाता था और लगभग 60-70 रू में कागज की 120-130 सीट आ जाती थी। एक सीट से दो प्रति तैयार हो जाती थी। किताब को छापे जाने के पीछे मेरा तर्क था कि नब्‍बे का दशक बीत रहा है, लगातार की उपेक्षा के चलते आप क्‍यों नब्‍बे के बाद के दशक में गिने जाएं। उस वक्‍त थोड़ी बहुत आलोचनाएं पढ़ते हुए मैं इस बात को जानने लगा था कि आलोचना में दशक के रचनाकारों के जिक्र होते हैं। हालांकि सच बात तो यह हिन्‍दी कविताओं की आलोचना में कहीं यह आज तक दर्ज नहीं आप कौन से दशक के कवि हैं। ‘लांग नाइंटीज’ के विशेषणों वाली आलोचना भी आपके कवि होने को दर्ज नहीं कर पाई जबकि आप मूलत: कवि ही थे। परिस्थितिजन्‍यता में या कविता में शुद्धातावादियों के बोलबाले ने आपको कहानीकारों के खाते में ही डाले रखा।
न जाने वह कौन सा क्षण था, अम्मा-अब्बा को खाने पहुंचाने के बाद जब हम वापिस घर लौटे, आपने अपनी डायरी निकाली। अल्‍टी–पल्‍टी कुछ सोचा-विचार किया और मासूमियत भरी दृढ़ता से कहा, ‘’लो ले जाओ डायरी।‘’
डायरी को हाथ में थामते हुए एक बड़ी जिम्‍मेदारी के अहसास ने मुझे घेर लिया। आपसे विदा लेकर मैं घर चला आया। कविताओं को पढ़ा और जमाने को जाति की दासता में जकड़ने वाली ब्राहमणवादी प्रवृत्तियों से उलझता रहा। उस वक्‍त तक हिंदी में दलित साहित्‍य नहीं आया था। जब मैंने कुछ कविताओं के साथ एक पुस्तिकानुमा किताब को शीर्षक ‘’सदियों का संताप’’ के साथ आपके सामने रखा तो आपने मेरी इस अनुनय को भी स्‍वीकार लिया कि छपाई में जो अनुमानित खर्च्‍ रू 1300 के करीब आएगा, बतौर उधार दे देंगे। पुस्तिका की 200  प्रति छाप कर बेच लेने की मंशा के साथ उसका मूल्‍य रू 7 निर्धारित किया गया। यह संतोष की बात है कि लगभग 150 प्रतियां  बेची जा सकी और लगाये गए धन की वापसी न्‍यनतम मूल्‍य रख कर हासिल की जा सकी। याद कीजिए उस कविता पुस्‍तक का कवर भाई रतीनाथ योगेश्‍वर ने किया था, वह भी तब जबकि अवधेश कुमार जैसे बड़े आर्टिस्‍ट हमारे बीच थे। अवधेश कुमार की बजाय कवर पर रतीनाथ के हाथों की छाप कैसे अंकित हुई, उस कथा को बाद में कहूंगा। अभी तो इतना ही कि सदियों के संताप का जब आपके स्‍टार हो जाने के बादए कई सालों बाद उसका पुन:प्रकाशन एक अन्‍य प्रकाशक ने किया और कवर को लगभग ज्‍यों का त्‍यों एक दूसरे आर्टिस्‍ट के नाम से छाप दिया तो आपने इस पर कोई एतराज जाहिर नहीं किया, क्‍यों ? यहां तक कि एक रोज कभी यूंही आपने कहा था कि सदियों के संताप का यदि कोई पुन:प्रकाशन करता है तो मैं उसमें अपने उन अनुभवों को भूमिका के रूप में लिखूं जो पुस्‍तक के पहले प्रकाशन में हुए। लेकिन आपने जब उस पुन: प्रकाशित पुस्‍तक की प्रति मुझे भेंट की तो उसे अलटने पलटने के बाद मैंने एकाएक कहा था, वाह। पर दूसरे ही क्षण कवर पर कलाकार का बदला हुआ नाम देखकर आपकी निगाहों में ताकते हुए कहा था, ये क्‍या तो आप निगाह बचाते हुए जाने क्‍यों खामोश हो गए थे।

स्‍मृति

Monday, November 20, 2017

हिन्दी में दलित कविता की आहट

कवि, कथाकार एवं विचारक ओमप्रकाश वाल्मीकि की स्मृति

हमारा वर्तमान देवत्‍व को प्राप्‍त हो चुके लोगों की ही स्‍मृतियों को सर्वोपरि मानने वाला है। उसके पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, उन कारणों को ढूंढने के लिए तो सामाजिक-मनोवैज्ञानिक शोध ही रास्‍ता हो सकते हैं। अपने सीमित अनुभव से मैं एक कारण को खोज पाया हूं- हमारी पृष्‍ठभूमि एक महत्‍वपूर्ण कारक होती है। ‘पिछड़ी’ पृष्‍ठभूमि से आगे बढ़ चुका हमारा वर्तमान हमेशा आशंकित रहता है कि कहीं सामने वाला मुझे फिर से उस ‘पिछड़ेपन’ में धकेल देने को तैयार तो नहीं और उसकी बातों के जवाब में हम अक्‍सर आक्रामक रुख अपना लेते हैं। मैं किसी दूसरे की बात नहीं कहता, अपनी ही बताता हूं, कारखाने में बहुत छोटे स्‍तर से नौकरी शुरू की। आपके लिए यह समझना मुश्किल नहीं कि उस स्‍तर पर काम करने वाले कारीगर के प्रति कारखाने के ऑफिसर ही नहीं सुपरवाइजरी स्टाफ तक का व्‍यवहार कैसा होता है। आप भी उस रास्‍ते ही आगे बढ़े, जिस पर मेरा वर्तमान गतिशील है। ट्रेड एप्रैटिंस करने के बाद एक दिन ड्राफ्टसमैन हुए, बाद में ड्राफ्टसमैन का पद कार्यवेक्षक में समाहित हुआ तो कार्यवेक्षक कहलाए और इस तरह से सीढ़ी दर सीढ़ी पदोनन्तियों के बाद एक अधिकारी के तौर अपनी सामाजिक स्थिति का वह वर्तमान हासिल करते रहे जो आपको सामाजिक रूप से एक हद तक सम्‍मानजनक बनाता रहा। आपकी पृष्‍ठभूमि में तो सामाजिक सम्‍मान का सबसे क्रूरतम चक्र भी पीछा करने वाला रहा। आपने यदि हमेशा देवत्‍व को प्राप्‍त हो गए लोगों को ही अपनी प्रेरणा के रूप में दर्ज किया तो मैं इसमें आपको वैसा दोष नहीं देना चाहता जैसा अक्‍सर निजी बातचीतों में लोग देते रहे। आपके बारे में दुर्भवाना रखने वाले या अन्‍यथा भी आपकी आलोचना करने वाले जानते हैं कि उनकी ‘हां’ में ‘हां’ मिलाने के मध्‍यवर्गीय व्‍यवहार से मुक्‍त रहते हुए ही मैंने जब-तब उनकी मुखालिफत की है। साथ ही आपकी पृष्‍ठभूमि के पक्ष को ठीक से रखने की कोशिश की है, जिसके कारण एक व्‍यक्ति का वर्तमान व्‍यवहार निर्भर करता है। यद्यपि यह बात तो मुझे भी सालती रही कि आपने कभी भी अपनी प्रेरणा में ‘कवि जी’ यानी ‘वैनगार्ड’ के संपादक सुखबीर विश्‍वकर्मा का जिक्र तक  नहीं किया। ‘कवि जी’ से मुझे तो आपने ही परिचित कराया था। बल्कि कहूं कि देहरादून के लिखने पढ़ने वालों की बिरादरी का हिस्‍सा मैं आपके साथ ही हुआ। वह लघु पत्रिकाओं का दौर था, अतुल शर्मा, नवीन नैथानी, राजेश सकलानी, विश्‍वनाथ आदि और भी कई साथी मिलकर एक हस्‍त लिखित पत्रिका निकाल रहे थे। पतिका का नाम था ‘अंक’। ‘अंक’ का पहला अंक निकल चुका था। दूसरे अंक की तैयारी थी, प्रका‍शन के बाद उसका विमोचन हम लोगों ने सहस्‍त्रधारा में किया था। ‘कवि जी’ को उस रोज मैंने पहली बार देखा था। राजेश सेमवाल जी से भी वहीं पहली बार मुलाकात हुई थी। आपने ही बताया था देहरादून में नयी कविता के माहौल को बनाने वाले सुखबीर विश्‍वकर्मा अकेले शख्‍स रहे। आपके साथ ही मैं न जाने कितनी बार वैनगार्ड गया। मेरे ही सामने आपने नयी लिखी हुई कितनी ही कविताएं वैनगार्ड में छपने को दी। जरूरी हुआ तो ‘कवि जी’ की सलाह पर कविता में आवश्‍यक रद्दोबदल भी कीं। ‘कवि जी’ आपको बेहद प्‍यार करते थे। आप भी उनकी प्रति अथाह स्‍नेह और श्रद्धा से भरे रहे। हिन्‍दी में दलित साहित्‍य नाम की कोई संज्ञा उस वक्‍त नहीं थी। ‘कवि जी’ की कविताओं की मार्फत ही मैं दलित धारा की रचनाओं के कन्‍टेंट को समझ रहा था। आप उनकी व्‍याख्‍या करते थे और मैं सीखने समझने की कोशिश करता था। वरना आपकी कविताओं में जो गुस्‍सा और बदलाव की छटपटाहट मैं देखता था, उससे दलित कविता को समझना मुश्किल हो रहा था। उस समय लिखी जा रही जनवादी और प्रगतिशील कविता से उनका स्‍वर मुझे भिन्‍न नहीं दिखता था। ‘कवि जी’ की कविता का आक्रोश मिथकीय पात्रों को संबोधित होते हुए रहता था। आप ही बताते थे कि मराठी दलित कविता मिथकीय पात्रों की तार्किक व्‍याख्‍याओं से भरी हैं। मराठी कविताएं मैंने पढ़ी नहीं थी। शायद ही ‘कवि जी’ ने भी पढ़ी हों। यह उस समय की बात जब न तो आपने ‘अम्‍मा की झाड़ू’ (शीर्षक शायद मैं भूल न‍हीं कर रहा तो)  लिखी थी, न ‘तब तुम क्‍या करोगे’ लिखी थी और न ही तब तक आपकी कविताओं की वह पुस्तिका प्रकाशित हुई थी, जिसके प्रकाशन की जिम्‍मेदारी देहरादून से प्रकाशित होने वाले कविता फोल्‍डर ‘फिलहाल’ ने उठायी थी। हां, ‘ठाकुर का कुंआ’ उस वक्‍त आपकी सबसे धारदार कविता थी। लेकिन हिन्‍दी कविता की जगर मगर दुनिया और उसके आलोचक तब तक न तो उस कविता से परिचित थे न ही जानते थे कि किसी ओमप्रकाश वाल्‍मीकि नाम के बहुत नामलूम से कवि की कविता ‘ठाकुर का कुंआ’ हिन्‍दी में दलित कविता की आहट पैदा कर चुकी है।

उस वक्‍त आपके मार्फत जिन दो व्‍यक्तियों को मैं जानता था, उसमें एक कवि जी रहे और दूसरे उस समय भारत सरकार के प्रकाशन संस्‍थान के मुखिया श्‍याम सिंह ‘शशि’। श्‍याम सिंह ‘शशि’ जी से मेरी कभी प्रत्‍यक्ष मुलाकात नहीं रही। लेकिन आपके मुंह से अनेक बार उनका नाम सुनते रहने के कारण एक मेरे भीतर उनकी एक आत्‍मीय छवि बनी रही।
#स्‍मृति

Friday, November 17, 2017

चल निगोड़े

मेरी उम्र चालीस के पास पहुंच रही थी उस वक्‍त। आपको ख्‍याल नहीं था। चंदा भाभी को भी ख्‍याल नहीं रहा होगा। मुझे याद नहीं भाभी ने न जाने क्‍या मजाक किया था, आपकी मुस्‍कराहट याद है बस, और याद है वह जवाब जो मैंने उस वक्‍त दिया था। चंदा भाभी नहीं जानती थी कि मैंने वैसा जवाब क्‍यों दिया। आप समझ गए थे पर। आपके चेहरे की मुस्‍कराहट बुझ गयी थी। कही गयी बात को सुनते हुए बोलने वाले के भीतर चल रही प्रक्रिया को जानने का आपमें खूब सलीका था। रंगकर्मी जो थे आप। एक रंगकर्मी की पहचान ही है यह कि वह न सिर्फ अपनी ‘एक्जिट’ और ‘एंट्री’ से अपने पात्र का परिचय दे दे बल्कि अपने पात्र को तैयार करते हुए ऐसे कितने ही लोगों के चलने बोलने, देखने, सुनने, मुस्‍कराने, रुठने जैसे भावों का अध्‍ययन करे। आप जानते थे कि मेरे और आपके बीच वह लम्‍बे समय का अंतरंग साथ कुछ कम हुआ है। ऐसा आपको इसलिए भी लग सकता था कि आपके जबलपुर स्‍थानांतरित हो जाने के बाद हमारा हर वक्‍त का साथ नहीं रहा था। जबकि असल वजह इतनी भर नहीं थी, आप अब पहले वाले आमेप्रकाश वाल्‍मीकि नहीं रहे थे, हिन्‍दी के ‘सुपर स्‍टार’ लेखक हो चुके थे। अपने इर्द गिर्द एक घेरा खड़ा कर लेने वाले लेखक के रूप में जाने जाने लगे थे। अब आपको लौटती हुई रचनाओं के साथ किलसते हुए देखने वाला कोई नहीं हो सकता था। बल्कि आज यहां का बुलावा तो कल वहां के बुलावे पर आपको हर दिन कहीं न कहीं लेक्‍चर देने जाने के जाते हुए देखने पर हतप्रभ होने वाले लोग ही थे। मेरा संबंध तो उस वाल्‍मीकि से नहीं था। मैं तो उस वाल्‍मीकि को जानता था जो मेरा आत्‍मीय ही नहीं, सबसे करीबी मित्र और बड़ा भाई था। अपनी उस फितरत का क्‍या करूं जो महानता को प्राप्‍त हो गये लोगों के साथ मुझे तटस्‍थ रहने को मजबूर कर देती है। तब भी हल्‍के फुल्‍के और थोड़ा मजाकिया लहजे में ही मैंने चंदा भाभी की बात का जवाब दिया था, 
‘’देखो अब मुझे अठारह साल का किशोर न समझो भाभी। आप लोगों से भी ज्‍यादा उम्र हो गई मेरी।‘’

भाभी मेरी बात पर चौंकी थी। चौंके तो आप भी थे। क्‍योंकि वास्‍तविकता तो यही है कि उम्र तो हर व्‍यक्ति समय के सापेक्ष ही बढ़ती है। दरअसल उस वक्‍त मेरे मन एकाएक ख्‍याल उठा था कि हम जब करीब आए थे आपकी उम्र कितनी रही होगी। आपको याद होगा कि कुछ ही देर पहले आपने बताया था कि बस दो साल रह गए रिटायरमेंट के। उस वक्‍त हम मार्च 2009 के अप्रैल की धूप ही तो सेंक रहे थे आपके आवास की बॉलकनी में बैठकर। अपनी बात को स्‍पष्‍ट करते हुए मैंने कहा था, 
‘’अच्‍छा बताओ भाभी जब हम पहली बार मिले थे आपकी उम्र कितनी थी ?’’ 
वे समय का अनुमान लगाते हुए कुछ गिनती सी करने लगीं थीं। आपके मन में भी कोई ख्‍याल तो आया ही होगा। वे जब तक जवाब तक पहुंचती, मैंने उनका रास्‍ता आसान कर देना चाहा था, 
‘’मैं बताता हूं, 37 या 38 के आस-पास ही रही होगी।‘’ 
वे खामोशी से मुझे सुनती रहीं। आप भी। मेरा बोलना जारी था, 
‘’तब बताइये, आज मैं चालीस पूरे करने की ओर हूं... तो हुआ नहीं क्‍या आपसे बड़ा?’’ 
भाभी बहुत जोर से हंसी थी और एक धौल जमाते हुए उन्‍होंने सिर्फ इतना ही कहा था, 
‘’चल निगोड़े’’ 
आपके चेहरे पर बहुत धूमिल सी  मुस्‍कराहट ठहर गई थी। वैसे आप भी जानते होंगे रंगमंच मेरा भी क्षेत्र रहा और मैंने चेहरे की मुद्रा के बावजूद मुस्‍कराहट को मुस्‍कराहट की तरह नहीं पकड़ा था।    

#स्‍मृति