Tuesday, May 1, 2018

बाजार में जुलूस


मई दिवस के अवसर पर उपन्यास फांस का एक अंश 


आईसक्रीम के मौसमी काम में कोई बरकत नहीं, यह सोचकर ही वह फिर से सब्जी की रेहड़ी लगाने लगा था। लेकिन मोहल्ले-मोहल्ले घूमने की बजाय अब उसने बाजार के बीच ही एक  ठिया तलाश कर वहीं रेहड़ी को जमाने तय कर लिया था। पर वह क्या जानता था कि जिस काम को बहुत टिकाऊ और हमेशा जारी रहने वाला समझ रहा है, समय उसे वैसा रहने न देगा ? बाजार के दुकानदारों को रेहड़ी वालों की कमाई चुभने लगेगी और वे ही दुश्मन बन कर खड़े हो जाएंगे और बाजार को अपनी बपौती मान रहे दुकानदारों के क्षुब्ध होने पर रेहड़ी वालों के लिए अपने कारोबार को जारी रखना ही मुश्किल हो जाएगा ? पुरूषोत्तम तो हर वक्त अपनी किस्मत को ही कोसता। उसने तो मान लिया था कि जिस भी धंधे में हाथ डाला नहीं कि वही चौपट हो जाता है। 
मुश्किल से जुटाए पैसों से तैयार करवाई गई रेहड़ी हमेशा-हमेशा के लिए गली के नुक्कड़ में धूप-बारिश और सर्दियों में पड़ने वाले पाले से सड़ने और जर्जर होने के लिए छोड़ देनी पड़ी। बल्कि वही क्यों उस जैसे ही दूसरे, जो बाजार के बीच अपने रेहड़ी पर लदे सामानों के साथ आवाज लगा रहे होते थे, धंधे से हाथ धोने को मजबूर हो गए। फल और सब्जी वाले ही नहीं रेहड़ी पर कच्छा-बनियान और नाड़े बेचने वाले, चूड़ी कंगन या फिर लौंग इलायची और दूसरे मसाले बेचने वालों को भी ठिकाना तलाशना आसान न रह गया था। वे सभी दुकानदारों की आंखों की किरकिरी होने लगे। पूरे बाजार के बीच आवाज मारते हुए वे फेरी लगाते। ग्राहकों के पुकारने पर रुक जाते और माल बेचने लगते। रेहड़ी जिस दुकान के सामने लगी होती, गल्ले से बाहर को झांकते हुआ दुकानदार रेहड़ी वाले को हड़कान लगाता।

- अबे बाप की जगह है क्या...चल...चल आगे निकल।

दुकानदार को अनसुना करते हुए रेहड़ी वाला ग्राहक से उलझा रहता। बाजार में छा रही मंदी के मारे दुकानदार रेहड़ी-ठेली वालों को ही कहर-बरपा करने वाले के रूप में देख रहे होते। बिक्री का गिरता ग्राफ उनकी परेशानियों को बढ़ा रहो होता और चौकड़ियों में बतियाते हुए वे रेहड़ी-ठेली वालों को गलिया रहे होते। हर वक्त ऐसी ही बातों में उलझे रहते। अखबारों में छप रही खबरें उनको परेशान किए रहती। अपने-अपने तरह से हर कोई स्थिति का आकलन करता। कभी कोई राजनेताओं को गाली देता तो कभी सरकार को कोसता। तभी कोई दूसरा, जो कहीं गहरे तक उस पार्टी को अपना समझता, जिसकी सरकार होती, अपना एतराज दर्ज करता। बहस तीखी होने लगती। आंखों ही आंखों में अपनी-अपनी पार्टियों के हिसाब से उनके समूह, स्थितियों के पक्ष और विपक्ष में तर्क रखने लगते। बहसों के परिणाम थे कि जब चुनाव होते तो सरकार पलट जाती। जीतने वाली पर्टियों के दुकानदार मिठाई बांटते, जश्न मनाते। लेकिन कुछ ही समय बाद, सरकार के द्वारा लिए गए फैसलों को जब ज्यों को त्यों पाते तो फिर से किलसने लगते। फिर वही बहस-मुबाहिसें चालू होती। पर समस्या से निजात पाने का कोई रास्ता उन्हें न सूझता। दुकानदारों को लगने लगा था कि लोग सामान तो खरीद रहे हैं पर दुकानों से नहीं बल्कि रेहड़ी ठेली वालों से। दुकान के समाने खड़े हुआ वह रेहड़ी वाला उन्हें दुश्मन लगने लगता, जो बेशक ग्राहक से हील-हुज्जत करता लेकिन माल बेच पाने में सफल हो जाता। रेहड़ी ठेली वालों की हँसी  ठिठोली दुकानदारों को चिढ़ाने वाली लगने लगी थी। डॉक्टर होगया को चिढ़ा-चिढ़ा कर खिलखिलाने वाले रेहड़ी-ठेली वालों के तमाशे उन्हें बुरे लगने लगे। हलवाई ने दुकान के बाहर कच्छे बनियान बेचने वाले से साफ-साफ कह दिया, 
- कल से अपना ठीकाना कहीं और ढूंढ ले, ... कोई शरीफ घर की औरत जिस वक्त यहाँ...थड़े पर खड़ी हो कर लड्डू या बर्फी तुलवा रही होती है, उसी वक्त तेरा ब्रा और पेन्टी दिखाना जरूरी है ? 
कच्छे बनियान वाले की हकलाती जुबान से कुछ फूटने को भी होता तो हलवाई उसे चुप करा देता,
-...जा...जा साले ... अपनी लुगाई को खड़ा कर लियो और उसके फिट करके दिखाईयो ... देखिये बीबी जी कैसा फिट आया है।

बर्तन वाले ने बाहर को टंगे बर्तनों से बार-बार टकराती रेहड़ी की तिरपाल को जोर से खींचते हुए उस गजक-रेवड़ी और चूरन-कड़ाका बेचने वाले को ऐसा झिड़का कि इन्ट्रवल के समय स्कूल के बच्चों का धक्का-मुक्क्ी करने का आनन्द ही छिन गया। पहले से तय किराये को बढ़ा देने की चुनौति वह स्वीकार न कर पाया। कितने ही दूसरे रेहड़ी वाले अपनी गरज के चलते ज्यादा किराया देने को मजबूर होने लगे लेकिन जिनके लिए पहले से दुगने किराये को झेलना संभव न हो रहा था, अपने जमे-जमाये ठिये से हाथ धोने लगे। यह सोचकर कि कहीं और ठिया लगा लेंगे, ठिए उखाड़ने लगे। पुरूषोत्तम के लिए कपड़े वाले की दुकान के आगे खड़े होकर टमाटर, गोभी या भिंडी की आवाज लगाना संभव न रह गया। किराये के अलावा वह तो पहले ही रोज की मुफ्त सब्जी के अतिरिक्त बोझ से दबा था। कपड़े वाले का मन जब भी नींबू-पानी पीने का हो जाता तो पुरूषोत्तम महाराज न सिर्फ नींबू काटकर रस निचोड़ने को मजबूर होते बल्कि कई बार मन ही मन किलसते हुए दौड़े जा रहे किलोमीटर दूर-प्याऊ तक, पानी लेने। नींबू-पानी की अतिरिक्त खेप सुबह दुकान में भर कर रखे गए पानी को खत्म कर देती। लेकिन कपड़े वाले की निगाह में तो सिर्फ ठिये के किराये के रूपये ही मौजूद रहते। दूसरे दुकानदारों ने किराया बढ़ा दिया है, कई बार के राग अलापने के बाद एक दिन वह भी अपनी पर आ गया। 
पुरूषोत्तम ने बढ़ा हुआ किराया देने की बजाय कपड़े वाले से किनारा करना ही उचित समझा। अगले दिन रेहड़ी कपड़े वाले की दुकान के आगे लगाने की बजाय कहीं और लगाने का तय कर लिया। लेकिन कोई ऐसी जगह जहाँ ठिया जमाना संभव हो, उसे पूरे दिन इधर-उधर फिरते हुए भी नसीब न हुई। जहाँ भी खड़ा होने को होता कि दुकानदार की झिड़क सुनाई देने लगती। बल्कि कई बार तो ऐसा भी हुआ कि किसी ग्राहक को माल बेचने के लिए उसे रेहड़ी को खड़ा करना ही पड़ा। लेकिन जिस भी दुकान के आगे रुकना हुआ, दुकानदार झल्लाते हुए ऐसे बाहर निकला कि मानो अभी रेहड़ी ही पलट देगा। उस वक्त तो पुरूषोत्तम के गुस्से का ठिकाना न रहा दुकानदार की मजाल कि आगे बढ़े और छेड़े रेहड़ी का माल! लेकिन दिन भर की इस फिरड़ा-फिरड़ी के बाद भी बिक्री पिछले दिनों की अपेक्षा कम ही रही थी। दुकानदारों से लड़ाई रोज का किस्सा होने लगी। बाजार के बीच इधर से उधर फेरी लगाते हुए पुलिस वालों से तो हर कोई बचता फिरता। दूसरे रेहड़ी वालों की तरह अब पुरूषोत्तम के पास भी अपना कोई ठिकाना न था और न ही उसकी कोई संभावना ही दिखाई दे रही थी। बाजार के बीचों बीच फेरी लगाते रेहड़ी वाले माल बेचने की कोशिश में कभी किसी दोपहिया वाहन वाले की गाली सुनते तो कभी पैदल गुजर रहे राहगीर के रेहड़ी पर टकरा जाने पर ऐसी जलालत के शिकार होते कि गुस्सा उनके भीतर भी उठ रहा होता। रेहड़ी चलाने के लिए एक तरह का कानूनी लाइसेंस जो पुलिस वालों की जेब गरम करने के बाद ही मिलता, पूरी तरह से सुरक्षित नहीं कहा जा सकता था। दुकानदारों की चिक-चिक ग्राहक को ही भागने को मजबूर कर देती। झगड़ा कभी भी हो जाता। दुकानदारों की ‘चट्टानी’ एकता थप्पड़, मुक्कों और धक्के का सबब हो रही होती और पुलिस के सिपाही का डंडा हिचकोले खा रही रेहड़ी के भी नट-बोल्ट को हिला दे रहा होता। उस वक्त तो कोई भी रेहड़ीवाला अपने को पूरी तरह से असहाय ही पाता। 
दुकानदार एक हो जाते और मरने-मारने पर उतारू होते। रेहड़ी वाले एक-दूसरे को पिटते देख, अपने साथी की तरफदारी की हिम्मत भी न कर पाते। हर एक को लगता कि शायद उसकी खामोशी कल से उसका ठिया हो जाए। जबकि दुकानदारों का कोप भाजन हर एक को होना पड़ रहा था। चाहे वह कच्छा-बनियान बेचने वाला हो चाहे आम-पापड़, अचार और मुरब्बे बेचने वाला। मूंगफली बेचने वाला हो, चाहे पानी-बतासे, टिक्की और चाट, या फिर फल, सब्जी या कोई भी दूसरा सामान। लेकिन रेहड़ी वालों के बीच जातिगत भेदभाव जैसी गहरी खाई अपने बेचे जाने वालों सामानों की विशिष्टता के कारण मौजूद होती। सामानों की विभिन्न किस्मों ने उनके भीतर विशिष्टताबोध का ऐसा संसार रचा हुआ था कि कच्छे-बनियान वाला फल वाले को अपने से कमतर समझता। यहाँ तक कि फल वाला सब्जी वाले को अपने से कमतर मानता। श्रेष्ठताबोध में डूबे वे एक दूसरे से कोई मतलब ही न रखते और एक-एक कर पिटने को मजबूर होते। उनके गुस्से का संगठित स्वरूप उभरना संभव ही न था। बाजार के भीतर रोजाना मौजूद रहते हुए भी वे एक दूसरे से उतने ही अनजान होते जैसे बाजार में आए दिन पहुँचने वाले ग्राहकों से। कोई किसी दूसरे की फटी में टांग अड़ाने को तत्पर न था। सिर्फ सब्जी और फल वालों के बीच ही विशिष्टता बोध की वह दीवार थोड़ा कम मजबूत होन की वजह एकदम स्पष्ट थी कि मंडी में एक ही जगह से माल उठाने और एक ही तरह की स्थितियों में आढ़तियों की चालाकियों से निपटने के चलते वे कुछ सामानताएं महसूस करते थे। गुस्से को संगठित रूप दे पाने में इसीलिए उनकी भूमिका एक हद तक महत्वपूर्ण भी हो सकती थी। सड़े टमाटर, पके हुए केले या दूसरे खराब हो चुके फल और सब्जी उनके हथियार हो गए। उन्होंने रात के अंधेरे

में पूरे बाजार की सड़क पर उनको बिखरा दिया।
दुकानदारों के प्रतिरोध में रेहड़ी-ठेली वालों का प्रयोग बहुत सफल न हो पाया। सड़ती हुई फलों और सब्जियों की गंध ऐसी थी कि बाजार के भीतर होने का मतलब उल्टी का एक तेज झटका। नाक को दबाए दुकानदार दुकानों को खोल कर बाजार को बाजार का रूप देते रहे और खरीदार, एक सुई के लिए भी जिनकी निर्भरता बाजार पर ही होती, नाक को रूमाल, दुपट्टे या किसी भी कपड़े से ढकते हुए बाजार में घुसने को मजबूर थे। सड़ांध का तेज भभका रेहड़ी-ठेली वालों के प्रति उनके भीतर गुस्सा भरने लगा। रेहड़ी-ठेली वाले एकदम अलग-थलग से पड़ने लगे। नितांत अकेले। डॉक्टर होगया, जो रेहड़ी-ठेली वालों और दुकानदारों के बीच बंटती खाई के ही विरुद्ध था, हर तरफ से मार झेल रहे रेहड़ी-ठेली वालों के साथ फिर भी खड़ा रहा दुकानदारों को वह सनकी डॉक्टर उस वक्त तो और भी सनकी नजर आया जब वह रेहड़ी-ठेली वालों को इकट्ठा करने लगा। तुफैल जो हर वक्त डॉक्टर को चिढ़ाता रहता था, हर एक को डॉक्टर की दुकान पर इकट्ठा होने की सूचना देता रहा लोग पूछते,

- क्यों ?...किसलिए ?

वह नटखट अपने ही अंदाज में होता। 

- होगया ... हो ही गया आज तो! 

डॉक्टर की नेकदिली और अपने प्रति लगाव को रेहड़ी-ठेली वाले अच्छे से महसूस करते थे। डॉक्टर बुलाए और वे न आएं, ऐसा कैसे संभव था ? मरीज अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे और डॉक्टर उनसे प्रार्थनारत था कि आज का दिन उसे मौहलत दे दें बस। बेशक गम्भीर रूप से अस्वस्थों के प्रति वह स्वंय बेचैनी से भरा था और जहाँ तक संभव था उपचार में जुटा था। भीड़ बढ़ती चली जा रही थी। दुकानदारों के लिए कौतुहल का विषय था। वे इतना तो जान रहे थे कि डॉक्टर ने ही रेहड़ी-ठेली वालों को इकट्ठा किया है पर किसलिए, यह नहीं जानते थे। कंधे पर झोला टांग नाड़े बेचने वाला, धूप-बत्ती और अगरबत्ती बेचने वाला और दूसरी तरह के सामान बेचने वालों के अलावा हुजूम में ज्यादातर सब्जी और फल की रेहड़ी लगाने वाले ही थे। डॉक्टर के आदेश पर वे सभी, बिना हिचके, कहीं भी चलने को तैयार हो सकते थे। 
तुफैल की चुहल जारी थी। दुकानदार दूर से ही मजा लूट रहे थे। उनकी फब्तियों का अंदाज बिल्कुल बदला हुआ था। डॉक्टर जवाब न देना ही उचित समझता रहा दुकानदारों की फब्तियों में चुहल नहीं, नफरत से भरी चिढ़ाने वाली कार्रवाई का गाद साफ झलक रहा था। वह तो प्यार से छेड़ने पर ही जवाब दे सकता था। खुद चिढ़ जाने और चिढ़ाने वालों से तो उसने कभी नाता ही न रखा।
अपने व्यवसाय की विशिष्टता और जीवन में कभी ऐसे हुजूम के बीच शामिल न हुआ डॉक्टर कैसे जान सकता था कि एकत्रित भीड़ से क्या कहे ? 

- तुफैल...मेरे बच्चे... सब आ गए क्या ? ... अबे वो तरबूज वाला नहीं दिख रहा 

- हम इधर  डॉक्टर साहिब।

उस छोकरे को डॉक्टर तब ही से तरबूज वाला पुकारता था जब वह उससे पहली बार मिला था। उलट गई तरबूज की रेहड़ी की वो यादें उसे हमेशा तरबूज वाले के प्रति अतिशय रूप से विनम्र बना देती थी। तरबूज वाला भी डॉक्टर के प्रति गहरी श्रद्धा रखने लगा था। 

- ठीक है...ऐसा करते हैं हम एक जुलूस की शक्ल में चलते हैं...घूमेंगे...पूरे बाजार में। 

- ठीक है डॉक्टर साहब...! ठीक है डॉक्टर साहिब।

ढेरों आवाजों ने समर्थन किया था। वे सभी उत्साह से भरे थे। डॉक्टर उनसे भी कहीं ज्यादा। 

- मकदूम !

डॉक्टर ने झल्ली वाले को आवाज दी। झल्ली को उठाए ही वह हुजूम के बीच खड़ा था। मण्डी जाने की बजाय डॉक्टर की दुकान पर इक्ट्ठे हो गए सब्जी और फल वालों की वजह से वह भी खाली था। वरना सुबह का वक्त हो और मकदूम यूंही झल्ली उठाए घूमे भला ! अभी केले ढोने में जुटा है तो दूसरी ओर से प्याज वाले की आवाज सुनाई दे रही, 

- अबे जल्द धर आ इसे...प्याज की बोरी तुली पड़ी है यहाँ। 

डॉक्टर की आवाज सुन, भीड़ के बीच से ही, झल्ली उठाए मकदूम डॉटर की ओर को बढ़ा। गर्व से उसका सीना तना हुआ था। डॉक्टर के इस तरह भीड़ के बीच पुकारने से वह खुद को विशिष्ट समझने लगा। मकदूम उन गिने-चुने में से एक था, डॉक्टर जिन्हें नाम से भी जानता था। 

- मकदूम तू अपनी झल्ली लेकर ही चलना...आगे आगे ... औरों के पास तो ऐसा कुछ है नहीं जो जुलूस, जुलूस की तरह दिखे। 

- मैं नारे लगाऊं डॉक्टर साब।

तुफैल के मुँह से अपने लिए होगया की बजाय डॉक्टर साहब सुनना डॉक्टर को कुछ अजीब-सा लगा लेकिन उसमें एक सच्चाई थी। अपने प्रति तुफैल के प्यार को वह महसूस कर पा रहा था। 

- हाँ भाई लोगों नारे लगाने वाला तो ‘होगया’ ... ये तुफैल का बच्चा लगाएगा। 

खुद का ही मजाक बनाता डॉक्टर उनके सामने था। उसके कहने का अंदाज इतना खूबसूरत था कि हँसी का फव्वारा छूट गया। तुफैल तो मारे शर्म के पानी-पानी हो गया। 

- हाँ...मैं तो होगया ... किसी और को तो नहीं होना है बे!

स्वंय को सामान्य दिखाने के लिए उसकी खिसियानी सी आवाज में होगया का अर्थ इतनी स्पष्टता के साथ उभरा कि अवरोह की ओर खिसक रही सामूहिक हँसी  का वह स्वर पंचम में पहुँच गया। 

- ठीक है फिर ... तुफैल नारे लगाएगा सब उसका जवाब देंगे।

डॉक्टर का गम्भीर स्वर उभरा और हँसी  ठिठोली का वातावरण एक गम्भीर कार्रवाई में बदलने लगा। मई दिवस की परम्परागत रैलियों का दृश्य हर एक का देखा भाला था। पर उस जुलूस को देखकर उनकी हँसी के गोले छूटने लगते थे। बाबू साहब से दिखते लोगों का इस तरह नारे लगाते हुए जाना उन्हें लुत्फ देता था और हास्यास्पद भी लगता जब वे जानते कि ये अपने को मजदूर मान रहे हैं। बड़ी संख्या में सरकारी कर्मचारियों के उस जुलूस को वे मजदूरों के जुलूस के रूप में देख ही न पा रहे होते थे। लेकिन उनके नारों की आवाजों में वे अपने मन के भीतर उठते भावों की अभिव्यक्ति तो महसूस करते ही थे। जुलूस में नारा लग रहा होता- इंकलाब ! जवाब में तुफैल भी चिल्लाता-जिंदाबाद!! भीड़ के बीच भी उसकी आवाज ऐसे गूँजती थी कि नारे का जवाब दे रहे जुलूस के लोग भी चौंकते थे और उस नटखट कामगार के प्रति एक आत्मीय मुस्कराहट उनके चेहरों पर बिखर जाती। 
संघर्ष और एकता का कोई ठोस अनुभव न होने के बावजूद भी डॉक्टर जानता था कि समस्या की जड़ बाजार के दुकानदारों और रेहड़ी वालों के बीच आपसी मन-मुटाव में नहीं है। इकट्ठे हुए साथियों और दुकानदारों से इस बात को वह कई बार कहता भी रहा हर उस मौके पर जब भी कोई दुकानदार किसी रेहड़ी वाले को अपनी दुकान के सामने खड़े होकर सामान बेचने पर उससे लताड़ता तो डॉक्टर हस्तक्षेप किए बिना न रह पाता। बेशक दुनदारों को उस वक्त कोई ढंग की बात समझा पाना संभव न होता पर डॉक्टर के बीच में पड़ जाने से कितने ही झगड़े, मारपीट की पराकाष्ठा को पहुँचने से पहले रुक जाते। रेहड़ी ठेली वालों के साथ होते हुए भी वह बाजार के उन दुकानदारों के विरुद्ध कतई नहीं था, जो उसकी इस कार्रवाई पर भी, फब्तियां कस रहे थे। समझदारी के इस बिन्दु से ही डॉक्टर ने इकट्ठा भीड़ को संबोधित किया और जो नारा दिया उसका जवाब जब गूंजा तो दुकानदार पहले तो चौंके पर फिर उसे डॉक्टर की खब्त समझ, अपने में मशगूल हो गए। तुफैल ऊंची आवाज में दोहरा रहा था-

- व्यापारी एकता - जिन्दाबाद!

- रेहड़ी-ठेली दुकानदार एकता - जिन्दाबाद!

तुफैल की आवाज को जवाब जिन्दाबाद! जिन्दबाद! के नारों से गूंज रहा था। 

नारे लगाते हुए जुलूस बाजार के बीच से गुजरने लगा। बाजार के बीच रेहड़ी-ठेली वालों का रेला सा बह रहा था। दुकानदार चौंकते हुए अपनी दुकानों से बाहर झांकने लगे। डॉक्टर होगया की ‘खब्त’ को उसके नारों की शक्ल में सुनने का प्रभाव चाहे जो रहा हो पर जुलूस का विरोध करने की हिम्मत किसी की न हुई। उन पुलिस वालों की भी नहीं, जो मरियल से दिखते इन रेहड़ी वालों को जब चाहे धमका लेते और जिनसे डरते हुए रेहड़ी वाले इधर से उधर दुबकने की कोशिश करते। बाजार के बीच आवाजाही कुछ थम सी गई थी। सड़क के बीच घूम रहे लोग दुकानों के थड़े पर खड़े होकर अनिच्छा से उस नजारे को देख रहे थे, जिसमें वे रहड़ी वाले भी शमिल होते गए जो अपने सामानों की विशिष्टता के चलते अपने को सब्जी और फल वालों की तरह का रेहड़ी वाला मानने को तैयार नहीं थे।

Wednesday, April 25, 2018

वह इतना सुलभ नहीं

सुनता हूं सैन्नी अशेष मनाली में रहते हैं। अफसोस कि मेरी कभी उनसे मुलाकात नहीं हुर्इ। कितनी ही बार रोहतांग के पार मेरा जाना हुआ, अशेष को खोजा, पर वे न जाने किन कंदराओं में छुपे बैठे रहे। अपने कवि मित्र अजेय से भी उनका पता ठिकाना जानना चाहा, पर वे मुस्कराते ही रहे और एक रहस्य बुनते रहे। दरअसल सैन्नीे अशेष को मैं उनके लिखे से जानने लगा था। वर्षों पहले ‘समयांतर’ में उनको पढ़ा था। दिलचस्पक यात्रा वृतांत था वह, अभी इतना ही याद है उसमें विकासनगर, देहरादून का कोई ऐसा संदर्भ आया था कि लेखक मानो विकासनगर, देहरादून में रहता हो। देहरादून के नजदीक पहाड़ों पर घुमक्कड़ी करने वाला ऐसा कोई दिलचस्पव व्यक्ति रहता हो जो लिखता भी मस्त हो, आखिर खुद होकर उससे सम्पमर्क करने को मैं उतावला क्यों न होता। समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट जी को फोन करके दिलचस्पस यात्रा वृतांत के लेखक का फोन नम्बर मांगा और फोन घड़घड़ा दिया। बस वही फोन की क्षणिक मुलाकात रही। जिसने आज तक मिलने की प्यास को जगाया हुआ है। बस फेसबुक में ही उन्हें मिल पाना होता है। यूं भी उस वक्त जब मैंने दारचा होकर जंसकर के चक्कर लगाने वाला होता था, उस दौरान सैन्नी अशेष ऐसे सुलभ भी तो नहीं थे। यकीन नहीं तो अजेय से पूछ लिया जाए। पर अजेय शायद इस पर भी कोई टिप्पणी आज भी न करे, हां मुस्करा तो देंगे ही।

अभी पढ़े सैन्नी अशेष की एक दिलचस्प रिपोर्ट उनके ही इस अंदाज के साथ - इस पोस्ट को सब पचा ही लें, ऐसा किसी पर मेरा प्रेशर न माना जाए। मेरी सह-अनुभूति उन लोगों से है जिन्हें आती तो है पर भीतर जाकर न्यूटन के सिद्धांत को अंगूठा दिखाकर विचित्र ग्रेविटेशन में स्थगित हो जाती है और तो भी पैसे देने पड़ जाते हैं।


उस दबंग लड़की को देखकर मैं ठिठक गया.
वह नवविवाहिता लग रही थी. मेरे ही पहाड़ की थी, मगर उसकी सजधज मनाली में आने वाली हनीमूनिया 'मुनिया' जैसी थी। वह किसी से लड़ रही थी.
मनाली के मॉल पर आसपास तीन सुलभ शौचालय मिलाकर पांचेक टॉयलेट हैं। आपको अगर आ ही जाए और टरकाए न बने तो किसी भी एक में दो मिनट में पहुँच कर हाजत को रफ़ादफ़ा कर सकते हैं। घंटा भर वहां ध्यान भी करते रहें तो बाहर से कोई दस्तक नहीं देगा। मनाली में शौच-शिविर का अपना परमानन्द है। मॉल से सटे होटलों और रेस्तराओं की कतारों में तो टॉयलटों की भरमार ही है, क्योंकि अधिकाँश भारतीय परिवार यहां खाने-पीने और निकालने ही आते हैं। दिन में एक बार तो मर्यादा पुरुषोत्तमों को भी निबटना ही होता है सोने का हिरण या सोने की लंका का रावण मार कर!

"मैं उस चीज़ के पैसे क्यों दूं, जो मैंने की ही नहीं?" वह सरेआम चिल्ला रही थी।

यही सुनकर मैं ठिठका था और उस पर कुर्बान हो गया था।

किसी सार्वजनिक, मगर ख़ूबसूरत शौचालय के बाहर आजतक मैंने इतना खुशबूदार सवाल किसी पुरुष के मुंह से तो दूर, किसी हिज़हाइनेस हिज़ड़े तक के मुंह से निकलता नहीं सुना था.

सुलभिया जवान घबरा गया था, क्योंकि सामने टहलते पूरी दुनिया के सैलानी मेरे पीछे ठिठकने लगे थे. मॉल यों भी मनाली का अंतर्राष्ट्रीय विचरण-स्थल है.

सुलभ-जवान ने झिझकते-शर्माते हुए कहा :
"मैम, मुझे क्या पता आपने क्या किया? हम तो पांच रुपए ही लेते हैं."

लड़की गरजी :
"तुम लोग पहले हमें तोल लिया करो और वापसी में फिर तोल लिया करो कि हमने भीतर जाकर क्या किया?"

मैंने मौके का फ़ायदा उठाकर लड़के से कहा :
"मुझसे तो तुम कुछ भी नहीं लेते?"
"आप मर्द हैं। मर्दों के लिए यूरिनल की अलग जगह है."

अब लड़की चिल्लाई :
"हमारे लिए अलग-अलग जगह क्यों नहीं है?"
"यह आप सरकार से पूछो।"

अचानक भीतर से एक युवक बाहर आया और उस लड़की से धीरे से बोला :
"क्यों तमाशा बना रही हो? चलो."

वह शायद उसका नवविवाहित था।

सुलभ युवक मुझसे बोला :
"एक ने पेशाब किया होगा, एक ने पॉटी ... दोनों में से किसी ने पैसे नहीं दिए।"

तो भी लड़की की बात अपनी जगह बिलकुल सही थी.
मनाली में सुलभिये पर्यटक स्त्रियों से अक्सर दस रुपए लेते भी देखे जाते हैं। 
वह भी दो मिनट आने-जाने के !

वह भी तब, जब मनाली में अधिकाँश स्त्री-पुरुष सैलानी एक जैसे नज़र आते हैं। अर्धनारीश्वर या अर्धनरेश्वरी !

क्या शौच मीटर नहीं लगाए जा सकते?
ज़्यादा करने या ज़्यादा बैठने वालों से ज़्यादा फीस लेकर कम समय में कम निकासी करने वालों को राहत दी जा सकती है।

उस ह(ग)नीमूनिया मुनिया का धन्यवाद्।


Monday, April 23, 2018

भविष्य के समाज के बारे में

अप्रैल मई 1918 में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने एक छोटी सी किताब लिखी थी बाईसवीं सदी - जैसे गांधी जी ने 1909 में "हिंद स्वराज" लिखी थी - अपने बाहरी स्वरुप में दोनों किताबें दुबली पतली हैं पर विचार के धरातल पर दोनों भारतीय समाज का मील का पत्थर मानी जा सकती हैं। जहाँ गांधी गाँव को धुरी में रख कर विकेन्द्रीकृत अर्थव्यवस्था की सैंद्धांतिक बात करते हैं वहीँ 25 वर्षीय राहुल जी कथा शैली में 206 साल बाद के ( यानि सन 2124 ) समाजवादी विचारों को मूर्त रूप देने वाले ऐसे भारतीय समाज का खाका खींचते हैं जो वैसे तो युटोपिया जैसा लगता है पर नव स्वतंत्र देश का एक व्यावहारिक वैचारिक घोषणापत्र माना जाता है - राहुल जी जैसे स्वतंत्रता सेनानी से उम्मीद भी ऐसी ही की जाती थी। 

दुर्भाग्य से इस किताब को हिंदी समाज ने वैसा महत्त्व नहीं दिया जिसकी दरकार थी - दरअसल यह राजनैतिक , साहित्यिक और वैज्ञानिक तीनों मानदंडों पर कसी जाने वाली कृति है पर अंग्रेजी के चश्मे का अभ्यस्त बौद्धिक वर्ग जॉर्ज ऑरवेल की किताब 'नाइंटीन एट्टी फ़ोर' पर तो घंटों बोल लेगा, उससे ज्यादा समीचीन इस हिंदी कृति का नाम नहीं जानता होगा।

1987 में मैसूर में संपन्न इंडियन सोशल साइंस कांग्रेस के महत्वपूर्ण वार्षिक सम्मेलन के विज्ञान सत्र में देश के बड़े वैज्ञानिकों की उपस्थिति में सीएसआरआई- सीबीआरआई, रूड़की के पूर्व मुख्‍य वैज्ञानिक यादवेन्‍द्र ने वैज्ञानिक प्रगति को केंद्र में रख कर नाइंटीन एट्टी फ़ोर और बाईसवीं सदी का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया था जिसने बड़े वैज्ञानिक समुदाय को अचरज में ही नहीं डाला बल्कि गर्व से ओतप्रोत भी किया। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि पश्चिमी समाज नाइंटीन एट्टी फ़ोर की अधिकांश वैज्ञानिक भविष्यवाणियों के सही साबित होने की बात पर फूला नहीं समा रहा था पर भारतीय समाज अपनी महत्वपूर्ण कृति को नजरअंदाज कर के संतुष्ट था। इस युगांतकारी कृति के सौ साल पूरे करने पर एक संक्षिप्त टिप्पणी यहाँ साथियों की जानकारी के लिए प्रस्तुत है। 


यादवेन्द्र

भविष्य के समाज के बारे में मानव समाज हमेशा से जिज्ञासु रहा है और दुनिया के हर भाग में अपने अपने ढंग से मनीषियों ने भविष्य के समाज का खाका प्रस्तुत किया है।ऐसी वैचारिक ढाँचा प्रस्तुत करने वाली कृतियों में सबसे ज्यादा चर्चा संभवतः 1948  में लिखे   जॉर्ज ऑरवेल (संयोग है कि वे भी भारत में ही जन्मे ) के उपन्यास "नाइन्टीन एट्टी फ़ोर" की हुई है जो समाजवादी आदर्शों का  कट्टर विरोधी माना जाने वाला वैचारिक घोषणापत्र है। कई समीक्षक "नाइन्टीन एट्टी फ़ोर" को एक वैघानिक उपन्यास मानते हैं और यह साबित करने की कोशिश करते रहे हैं कि 1984 आते आते इस उपन्यास की सारी  वैज्ञानिक भविष्यवाणियाँ सही हो जायेंगी - बार बार उपन्यास में वर्णित 137 भविष्वाणियों की चर्चा की जाती है और उनमें से अधिकांश के सही साबित होने का उत्सव मनाया जाता है। ऑरवेल के घोर नकारात्मक दृष्टिकोण के विपरीत राहुल सांकृत्यायन ने भविष्य के प्रति उत्कट आशावादी रुख अख़्तियार किया। यहाँ सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राहुल जी ने यह सब तब लिखा जब भारत पर अंग्रेजी राज का शिकंजा बहुत कसा हुआ था - इतिहास गवाह है कि पहली बार असहयोग आंदोलन किताब लिखे जाने के तीन चार साल बाद छेड़ा गया और पूर्ण स्वराज्य की माँग तो कांग्रेस ने बहुत बाद में उठायी। इन दो घटनाओं ने भारतीय जनमानस को स्वतंत्रता की कल्पना करने के लिए वास्तव में तैयार किया था पर राहुल जी उनसे भी सालों पहले न सिर्फ़ स्वतंत्र भारत बल्कि सम्पूर्ण भूमंडल की एक राष्ट्र के रूप में कल्पना कर चुके थे - यह क्रांतिकारी सोच की पराकाष्ठा थी और जनोन्मुख वैज्ञानिक तरक्की के ध्वजवाहक की भूमिका में संस्कृत और बौद्ध दर्शन के महापंडित राहुल सांकृत्यायन थे।दुनिया की किसी भाषा में ऐसे उदाहरण नहीं मिलेंगे। दुर्भाग्य से राहुल जी की इस किताब को न साहित्य में और न ही विज्ञान लेखन में अपेक्षित महत्त्व दिया गया - लम्बे समय से यह किताब उपलब्ध भी नहीं है। किसी भारतीय अध्येता  ने गम्भीरता  पूर्वक कभी यह प्रयास भी नहीं किया कि राहुल जी द्वारा 'बाईसवीं सदी' में वर्णित भविष्यवाणियों के साकार होने की बात उपयुक्त मंच पर उठाये और दर्ज कराये। 

'बाईसवीं सदी' ऊपरी तौर पर 2124 ईसवी के  विश्व का विवरण देती है पर इस किताब में राहुल जी तत्कालीन भारत देश का विस्तृत विवरण  प्रस्तुत करते हैं। 
कथानायक 260 वर्ष की वय में भी अत्यंत सक्रिय और चैतन्य है।1940 में भारत को स्वराज्य मिल गया और 2040 में भूमंडल राष्ट्र अस्तित्व में आया - विश्व सरकार का मुख्यालय ब्राज़ील में है और एक भारतीय राष्ट्रपति के पद पर आसीन है - जापानी प्रधानमंत्री,रूसी शिक्षामंत्री और अमेरिकी स्वास्थ्यमंत्री है...सेनामंत्री या सेनापति नाम का पद दुनिया में कहीं नहीं है क्योंकि युद्ध इतिहास की पोथियों में सिमट कर रह गया है ।2124 में पृथ्वी पर 86 करोड़ लोग वास करते हैं जिसमें से भारतीयों की संख्या 35 करोड़ है।अफ्रीका तकनीकी उपायों से हरा भरा बना दिया गया है और आधा यूरोप वहाँ जाकर बस गया है।प्रजनन नियंत्रित करना वैसे ही शासन के हाथ में है जैसे बिजली का स्विच ऑन ऑफ़ करना... और तीन संतानों का आदर्श प्रचलित है।दिल्ली की आबादी 50 हजार पर स्थिर कर दी गयी है।कार्यालयों के लिए बहुमंजिला भवनों का निर्माण किया जाता है - पटना में ऐसे एक पचास मंजिला भवन का जिक्र किताब में है जिसमें चढ़ने उतरने के लिए सीढ़ियों का नहीं झूला डोल (लिफ़्ट) का प्रयोग किया जाता है। दफ़्तरों में प्रतिदिन चार घंटे और सप्ताह में पाँच दिन काम करने का नियम है - बाकी के बीस घंटे सोने ,पढ़ने ,नृत्य गान ,सत्संग ,विद्यावसन ,परोपकार,चिंतन ,साहित्य सेवा जैसे कामों के लिए उपलब्ध हैं। 

प्रशासन की जिम्मेदारी है कि बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक को सत्रह वर्ष की शिक्षा निःशुल्क दे -तीन वर्ष के बच्चे को तीन वर्ष की अवधि के लिए बालोद्यान में दाख़िल किया जाता है ,इसके बाद छह वर्ष से लेकर चौदह वर्ष तक का बाल्य पाठ्यक्रम शुरु होता है। चौदह से बीस वर्ष की उम्र तक युवा पाठ्यक्रम चलता है। तीस चालीस गाँवों पर एक विद्यालय होता है जहाँ पंद्रह हजार तक विद्यार्थी पढ़ते हैं। पूरे भारत देश की भाषा नगरी लिपि में लिखी जाने वाली भारती  है। तकनीकी प्रगति का आलम यह है कि मनमाफ़िक वृष्टि करना मनुष्य के हाथ में है इसीलिए अफ्रीका का सहारा रेगिस्तान समुद्र और हरी भरी खुशहाल बस्ती में बदल गया है - यूरोप और एशिया से बड़ी आबादी वहाँ जाकर बस गयी है ..... शिक्षा दीक्षा में बराबरी होने से लोगों के रूप रंग में भी पहले जैसा अंतर् नहीं रहा।भारत के राजस्थान में भी हरियाली  साम्राज्य हो गया है। सम्पूर्ण भूमि को समतल कर दिया गया है और नहरों नालियों का जाल इस तरह बिछाया गया है कि धरती से बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा सदा के लिए विदा हो गयी है। मंगल और बुध ग्रह के ल वासियों के साथ पृथ्वीवासियों के सामान्य संचार संबंध हैं .... विशेष बात यह है कि मंगलवासियों ने जनसंख्या वृद्धि न सिर्फ़ रोकी है बल्कि आवश्यकतानुसार कम करनी शुरू कर दी है। 

गाय से पीने के लिए दूध का उत्पादन किया जाता है - इनका प्रजनन इस तरह नियंत्रित कर लिया गया है कि साँढ़ों की जरूरत पड़ने पर ही नर बछड़े पैदा किये जाते हैं। मक्खन और घी के लिए भैंसें पाली जाती हैं - वे औसतन  एक मन के आसपास दूध देती हैं।बंदर ,कुत्ते ,बिल्ली ,सुअर ,हाथी ,हिंसक जंगली जंतुओं का पूरी तरह से खात्मा कर दिया गया है। 

खेती के लिए पचास पचास बीघे की क्यारियाँ हैं। मोटे  अनाजों की खेती बंद कर अच्छे महीन और सुगंधित धान की ही खेती की जाती है। उन्नत किस्म के फलों की खेती होती है - बड़े आकार ,ज्यादा रस और स्वाद और बीज विहीन प्रजातियाँ उगाई जाती हैं। तम्बाकू ,बीड़ी ,सिगरेट ,चाय ,कॉफी ,कहवा ,शराब ,गाँजा ,भाँग , अफ़ीम ,पान जैसी नशीली वस्तुओं का उत्पादन पूरी तरह से बंद कर दिया गया है - बीड़ी सिगरेट के उन्मूलन के साथ दियासलाई का दिखना भी बंद हो गया है। 

सारा यांत्रिक काम बिजली से किया जाता है पर धुँए  के चलते कोयले  से बिजली उत्पादन बंद कर दिया गया है और इसके लिए पानी का उपयोग किया जाता है। जहाँ तक रेलगाड़ी का सवाल है ये पहियों के घर्षण से पैदा होने वाली बिजली से चलती हैं। इंजन का  आकार हवा के धक्के को कम करने के लिए नोंकदार रखा जाता है। पूरी रेल में साफ़सुथरी और आरामदेह एक ही श्रेणी होती है जिसमें पुस्तकालय ,भोजनालय और बेतार के तार पर आधारित संचार प्रणाली होती है। रेलों पर चढ़ने के लिए टिकट नहीं लगता सो टीटी नाम के  कर्मचारी का अस्तित्व नहीं है। सिक्कों का प्रचलन नहीं है। पुरुष हों या स्त्री सब एक सा परिधान पहनते हैं। हाँ , प्रत्येक व्यक्ति के पास एक फाउंटेन पेन और रोजनामचा ( डायरी ) जरूर रहता है। 

सबके रहने के लिए एक सामान आवास हैं - भवन ,सड़कें और कार्यालय सबके नक़्शे पूरे देश में एक समान हैं।आवास तीन कमरों के होते हैं - एक बैठक ,दूसरा सोने का और तीसरा स्नान करने के लिए जिसमें ठंडे और गरम पानी के नल लगे हुए हैं। शौचालयों में नल घुमा देने से बड़ी तेज धार से पानी (आज का फ्लश )आता है। भोजन करने के लिए सामुदायिक कक्ष  होते हैं जिनमें एकसाथ पाँच हजार तक लोग एकसाथ बैठ जाते हैं। खाना बनाने से लेकर बर्तन साफ़ करने तक का सारा काम मशीन से होता है। बिजली के तार के सहारे तैरती तश्तरियाँ खाने की मेज तक पहुँचती हैं - बिजली का उपयोग होने से कहीं भी कालिख या धुँआ नहीं दिखता। जलपान और भोजन का समय पूरे भूमंडल पर नियत है जिसकी सूचना गोले दाग कर दी जाती है - इसी चलते लोग घड़ी नहीं पहनते। पुरुष और स्त्रियाँ साथ साथ बैठ कर भोजन करते हैं। 

यही है राहुल जी की बाईसवीं सदी की आशावादी और सकारात्मक खुशहाली का राज।  

Wednesday, April 11, 2018

जब धरती पर जगह पड़ जाती है कम

ऐसा क्यों होता है कि एक स्त्री को हर वक्त अपने स्त्री होने को साबित करना पड़े ? क्या दुनिया भर के समाजों में स्त्री की स्थिति उतनी ही एक जैसी है, जितनी भारतीय समाज में ?

गीता दूबे की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसे सवालों का उठना स्वाभाविक है। भारतीय समाज में स्त्री की स्थितियों को लेकर लिखी गई उनकी कविताओं का सच इस बात की ताकीद करता है कि धरती पर उनके होने को कम कर देने की साजिश तरह-तरह से रची जाती रही है। हर क्षण भय और आतंक के माहौल में वे न जाने कितनी अमानवीयताओं को झेलते हुए जीने को मजबूर हैं। परम्‍पराओं के बंधनों में ही एक स्‍त्री को अपनी मानवीयता का गिरवी रख देना हो जाता है। पिंजरे में कैद चिडि़या की तरह जीना होता है। लेकिन उनका यह स्वर निराशा की उपज नहीं बल्कि जतन से हौंसला बांधने की हिमायत करता हुआ है।

वर्तमान में गीता दूबे आलोचना की दुनिया में सक्रिय हैं। सतत रचनारत हैं। उनकी कविताओं से यह ब्लाग अपने को समृद्ध कर पा रहा है। 

 विगौ

गीता दूबे
9883224359

स्त्री होना


डर- डर कर जीना होता है
सीना होता है गहरे जख्मों को
परम्‍पराओं के बंधन में बंधे हुए 
हर पल अपनी कैफियत देना ह़ोता है।

खुद के दर्द दिल में छुपाकर
होठों पर मुस्‍कान बिछाकर
औरों को सुनना होता है।
 
तकलीफों की आग में
लहराकर परचम आधुनिकता का
रुढ़ियों की चक्की में पिसना होता है ,
आंखों के गीले  कोरों–सा
हौले-हौले  सीझना होता है।

वय हो जरूरी नहीं,
चौंसठ कलाओं में दक्ष होकर
सजी-संवरी देह होना होता है

स्त्री होना
विषैले सांपों की संगत को
तनी हुई रस्सी समझकर चलना होता है।


चिड़ियां


क्‍या चिड़ियां होती हैं लड़कियां ?
फुदकती फिरती हैं जो
घर-आंगन, टोले -मोहल्ले में
जिनके कलरव से चहकता है घर

लड़कियों का हंसना-बोलना तो
सुहाता नहीं ज्‍यादा देर 
वे तो मुस्‍कराते हुए भी
होती हैं पिंजरे की कैद में जीवन भर।

चिड़ियों की तरह ही बेघरबार हो जाती हैं
जो लड़कियां
शिकारियों के जाल से बच नहीं पाती हैं।
बड़े जतन से बांधती हैं घोंसला,
तिनके -तिनके जोड़ती हैं हौंसला।
 चाहती हैं बनाना
 एक  खूबसूरत  आशियाना
पर  उजाड़  दी  जाती हैं।
आंधियों के वार से
हो जाती हैं तार- तार।
तब गेंद बन जाती हैं लड़कियां
सुख और सुकून की तलाश में
दर -दर टप्पे खाती हैं।

हां लड़कियां सचमुच चिडि़यां होती हैं
हिम्मत नहीं हारती
उम्मीदों और अरमानों की डोर थामे
झूलती रहती हैं
परंपरा और आधुनिकता के बीच।
ढेरों सपने देखती हैं,
खूब  पेंगे भरती हैं।
कभी- कभी तो छू  ही लेती हैं आकाश की ऊंचाइयां।

उसे त्रासदी ही कहना ठीक
जब धरती पर जगह पड़ जाती है कम
या जब वे ही थक जाती हैं झूलते -झूलते
हांफने लगती हैं पींगे भरते -भरते
उसी क्षण तो डोरी को फंदा बना
झूल जाती हैं
उड़ जाती हैं अनंत आकाश में
छोड़ जाती हैं प्रश्न,
आखिर क्यों
चिडि़यां ही हो सकती ड़कियां, इंसान नहीं ?



रंग

  
तुम्हारे पास हैं बहुत से रंग हैं
दोस्ती, प्यार, इकरार
उम्मीदों और खुशियों के।
सपनों का तो रंग -बिरंगा
चंदोवा ही तान दिया है तुमने।
निश्छल मुस्कान का भी तो ,
एक और रंग है तुम्हारे पास ।
ओ मेरे अनोखे रंगरेज,

रंग दिया है तुमने
मेरी बेनूर दुनिया को
अपने तिलस्मी रंगों के जादू से।

मेरे पास बस एक ही रंग है
समर्पण का।
आओ, रंग दूं तुम्हें।
मौसम भी है और दस्तूर भी।
इस रंग बदलती दुनिया में
आओ, सुरक्षित रख दें हम,
अपने- अपने रंगों को
एक दूसरे के पास।
ताकि बचे रहें ये रंग
और बची रहे यह कायनात भी,
बदरंग होने से।


 प्यार

दोनों ओर खड़े हैं पहाड़
पसारे अपनी बांहें
बुलाते हैं पास
भरने को अंकवार।
दौड़ती हूं भर दम
पर थक-सी जाती हूं
लड़खड़ा जाते हैं पांव ,
उखड़ -उखड़ जाती है सांस।
ओ मेरे प्यारे पहाड़
एक विनती है, सुनोगे,
थोड़ा सा उतर आओ नीचे
बढ़ा दो मेरी हिम्मत,
लगा लो मुझको गले
थोड़ा सा बढ़ आई मैं
आओ
जरा सा उतर आओ तुम भी
यही तो है दोस्ती,
यही तो है प्यार।
मानते हो ना,
ओ मेरे मीत विशाल।
आओ, मिलकर लिखें हम
प्रकृति और मानव के प्रेम का
अनोखा इतिहास।