यात्रा श्रृंखला की येे कुछ कविताएं जांसकर के उस भू-भाग पर केन्द्रित हैं, जिसके बारे में कल ही अपने आत्मीय रंजीत ठाकुर जी से मालूम हुआ कि दो दिन पहले ही वे सिंकुला दर्रे के रास्ते जांसकर होकर लौटे हैं। मेरे लिए वह कम आश्चर्य की बात नहीं थी कि यात्रा उन्होंने वाहन से की। मेरा देखा हुआ सिंकुला तो जोखिम भरे रास्तों वाला दर्रा रहा। गोम्बो रांगजन पर्वत की तस्वीर उन्होंने ही लगायी थी। उसी पर्वत की एक दूसरी तस्वीर जो यात्रा के मेरे साथियों के साथ सुरक्षित है, 1997 की है।
उसी तस्वीर के साथ प्रस्तुत हैं वे कविताएं जो 1997 से 2005 तक की चार बार की गई पैदल यात्राओं के अनुभव से उपजी थी। सोचा था कभी एक साथ ही प्रकाशित हों।
देखो सखी, देखो-देखो।
छुमिग मारपो
रजस्वला स्त्री की
देह से बह आये रक्त का नाम है
उर्वरता से बेसुध पड़े पहाड़
ढकी हुई बर्फीली चाटियों के
बहुत नीचे तक खिसक आये
ग्लेश्यिरों से भरे हैं
जीवन की संभावनाओं को सँजोये
पाद में गुद-गुदी कर
सरक जाती हैं,
इठलाती, बलखाती कितनी ही
जलधाराएँ
बदन पर जमी
मैल को रगड़ देने के लिए
मजबूर करते हैं पहाड़
छुमिग नाकपो
का काला जल
देह की मैल में रल कर
पछार खाता बहता चला जाता है
तटों पर छूट जाती है रेत
लौट नहीं पाता दूधियापन
कितना रोना रोएँ
गले मिलकर साथ बढ़ती जल-धाराएँ
निर्मोही, कैसे तो ठुकराता
है
हवाओं के बौखों से
कैसे तो उठ आयी हैं दर्प की मेहराबें
देखो-देखो, देखो सखी, देखो तो।
कितना चिन्हा अचिन्हा रह गया
कितना चिह्ना अचिह्ना रह गया
लौट-लौटकर आऊँगा
फिर-फिर जाँसकर
सिंकुला की चढ़ाई पर
मनाली स्कूल से घर लौटते
कारगियाक गाँव के बच्चे के निशान
घोड़ों के पाँव की छाप से मिट नहीं पायेंगे
थाप्ले, तांग्जे और इचर
गाँव के
बच्चों की किलकारियाँ
पिता के कँधों को झुलाती रहेंगी
अगली बार जब आऊँगा
तुम्हारे मुँह में झाग बनकर चिपके
डिमू के दूध की गँध से ही
पहचान लूँगा तुम्हें, तुम्हारे गाँव से
गहरे गर्त में उतरते बर्फ के नाले पर
तेजी से भाग निकलने को आतुर रहते हैं
जहाँ घोड़े वाले,
तुम्हारे साथ फिसल-पट्टी का खेल खेलूँगा
चड़कताल पड़ती धूप में पिघलती बर्फ पर
कैसे तो बेखौफ तुम
फिसलते हुए उतर जाते हो गहरी खाई में
सीखना ही चाहूँगा
हाँ वहीं, वो ही जगह है
जाँसकरी दोस्तों
जहाँ डर गये थे उतरने से हम
ढूँढते हुए कोई आसान-सा पथ, जो था ही नहीं,
भटक गये थे बर्फीले विस्तार में
जानते हो, उस वक्त कितने
शुष्क हो गये थे हमारे गले
शायद सूखी हवाओं ने
ऊपरी त्वचा ही नहीं, बल्कि
अंतड़ियों पर भी
छोड़ दिये थे अपने निशान
हम चिह्न ही नहीं पाये थे वो रास्ता
तुम्हारे पदचिह्न की छाप से
जो सीधे-सीधे हमें लाकोंग तक पहुँचा देता
कैसे तो जैसे तैसे उतरे थे
काँपते, डरते और
गहरे-गहरे
बर्फ में डूबते हुए।
सलामत रहे दुनिया
मेरे कान
वेगवान नदी की
उछाल मारती धारा को सुन रहे हैं
मेरी आँखें
सूखे पहाड़ों पर तृण की तरह
उग आई हरियाली को मचल रही है
घुटनों के जोर पर
ऊँचाई दर ऊँचाई चढ़ते हुए
मेरे फेफड़े लगातार उस वायु को
सोखते जा रहे हैं,
जिसके स्वच्छ रहने की संभावना
विकास का सतरंगी माडल खत्म किए दे रहा है
पिट्ठू का भार उठाते हुए
जिस्म की ताकत का भरोसा दिला रहे हैं कँधें
सूखी हवाओं के थपेड़ों को
झुलसते हुए भी झेलती जा रही है मेरी त्वचा
संगीत चेहरे पर ऐसे ही हो रहा है दर्ज
अपनी लड़खड़ाहट भरी पहचान छोड़ते हुए
सलामत रहे दुनिया
सलामत रहे अंग प्रत्यंग के साथ
गुजरते हुए कोई भी राहगीर।
मेरे घोड़े
जाँसकर सुमदो के गड़-गड़ से होकर
मैं हाँकता चला जाता हूँ
अपने घोड़े सिंकुला की ओर
पीठ पर लदे टैन्ट, राशन और तेल के भार
झुका देते हैं कमर
छल-छला जाता है पेट में इक्कट्ठा द्रव,
किसी बड़े से पत्थर के ऊपर अगला पाँव रखते
जब उठता है पिछला तो
फस्स के साथ बह आता है बाहर
मेरी सीटी की लम्बी सटकार पर
पंक्तिबद्ध बढ़ जाते हैं मेरे घोड़े
गड़-गड़ के बीच झाँकता पौधा
मचल रहा होता उनके भीतर,
मुँह मारने से पहले ही
मेरी सीटी की फटकार पर
झुकते झुकते भी ऊपर उठ जाती है गर्दन
अये, हाऊ क्यूट
व्हेरी ओबीडियन्ट गाई,
हाथ झुलाते हुए चल रहे
पार्टी के सदस्य की आवाज
गुदगुदा जाती है मुझे
मेरे घोड़ों की चाल भी
होती है उस वक्त मस्त।
नदी पर झूला पुल
झूला पुल से गुजरते हुए
निगाह पहुँच ही जाती है बहाव तक
खतरे के अनजानेपन से गुजरते हैं घोड़े
एक छोर से दूसरे छोर तक थमा है पुल जिन रस्सियों पर
पकड़ने की कोशिश बेहद खतरनाक है
निगाहों में डोलता है नदी का बहाव
घोड़ों ने जो देख लिया नीचे
तो कैसे समझाऊँगा,
सिर्फ सामने देखो दोस्त
पुल तो स्थिर है, पर बहाव
पर टिकी आँखें उड़ा रहीं उसे।
डूबने डूबने को होते हुए
डूबते हुए भी घोड़े
तैरने का अभ्यास करते हैं
नदी भी होती है अपने बहाव में
अभ्यास करती हुई - और तेज
और तेज बहने का
दृश्य वाकई लुभावना है
तालियाँ पीटते हैं पार्टी के लोग जब
जैसे तैसे तो पार लग
शरीर को झिंझोड़ कर
झटक रहे होते हैं
बदन पर लिपट गया
पिघलती बर्फ का गीला पन
हडि्डयों के भीतर सरक गई ठंड
लाख झटकने के बाद भी
गिरती ही नहीं
जैसे नहीं गिरा होता पीठ पर लदा सामान
बहाव के बीच डगमगाते हुए भी
कितनी बार उतरना होगा अभी और
बहते हुए दरिया में
पन्द्रह साल तो हो ही चुकी है उम्र अब।
जैसे गुजरे घोड़े
नीचे बहते पानी को मत देखो यात्री
झूलने लगेगा पुल
चर खा जाओगे
झूलती हुई रस्सियों को तो पकड़ने की
बिल्कुल भी गलती न करना ऐसे में
वे वहाँ पर होंगी नहीं, न ही हाथ आएंगी
सीधे, एकदम सामने देखो
वैसे ही
जैसे निर्विकार भाव से देखते हुए
घोड़े गुजर गए।
बर्फीला उजाड़
हरियाली को चट कर चुकी
सूखी बर्फानी हवाएँ क्या बाताएंगी-
यूँ तो भीगी बरसात का मौसम है ये,
गद्दियों के माथे की सिकुड़न को पढ़ लो,
ऊँची उठती हुई पहाड़ी पर
रोज-रोज आगे बढ़ जा रही भेडें को ताकने में
कितनी मिच-मिचाहट है।
तृण-तृण घास
ऊँचाइयों के खौफ से नहीं
पानी की प्यास के चलते
उतर आए हैं जेदाक्स नीचे
तृण-तृण घास की खातिर
भेड़ और घोड़े तीखी होती जा रही
चढ़ाई तक चढ़ते जा रहे हैं,
जैसे उल्के लटके हों अब
कदम-भर के फासले पर है आकाश ।
गुजरेंगे तो जान पाएंगे
जानने की जितनी भी जगह हैं
हैं सफेद, बर्फ-सी उजास
अँधेरे कोनों में महाकाल है
घास बर्फीली सफेदी के साथ नहीं
हरेपन की चित्तीदार पहाड़ियाँ हैं
दूर से देखो तो ढकी हुई है
चित्तियाँ
कुछ कम दूर से देखने पर
बिखरी हुई भेड़े नजर आती हैं
गदि्दयों से पूछो तो बता देंगे -
उस तरफ तो भेड़े हो ही नहीं सकती सहाब
वे तो कठोर चट्टाने हैं
वो हरियाता हुआ मँजर
जली हुई चट्टानों से है
जो इतनी दूर से ऐसे ही दिखता है
भेड़ जाँसकरी थोड़े ही है जो झाँसे में आ जाएँ
चारागाह पहचान लेती हैं
पहाड़ी के पार भी,
जिसे इस तरफ से तो देखा ही नहीं जा सकता
गुजरेंगे तो जान पाएंगे
वे उसी ओर बढ़ी हैं।
आश्वस्ति
बहुत थक गए हो यात्री
आओ विश्राम करो
ठहर जाओ आज की रात हमारे ही डेरे पर
मौसम साफ नहीं है
छुमिग नाकपो तक भी आ सकता है गल
पर चिन्ता न करो
ठहर जाओ आज की रात हमारे डेरे पर
वैसे भी हम तो अगले दो माह तक
यहीं हैं अपने माल के साथ।
हमारा जीवन
अये, सी दैट पीक,
वट्स नेम ?
गोम्बोरांगजन है साब,
महाकल का वास
टणा-मणा की आवाज गूँजती है उस पर
वट्स कूँजता ?
वायस सर वायस
ओ के
टिमटिमाती है रोशनी कभी-कभी रात को,
यूँ तो मैंने देखा नहीं पर
बलती तो है ही
व्हू फ्लेम द लाईट...हा, हा,
हा ?
हँसे नहीं सर
महाकाल नाराज हो सकता है
आपका तो कुछ नहीं
हम तो महाकाल के ही भरोसे हैं पर।
भीगे हुए कपड़े
दरिया में न उतरे तो क्यों जी भीगेंगे ?
जब भीगेंगे ही नहीं तो
बदलेंगे भी क्यों फिर
और फिर बदलने को भी इतने तो नहीं
आपका तो आना-जाना रहता है कहीं-कहीं
ठौर ठिकाना अपना तो है बस यहीं
फिर क्या करेगें कई-कई जोड़ों का
यूँ भी है तो नहीं
अभी पिछली पार्टी आयी थी जो
उसके मुखिया ने ही दिया था ये, जो पहना हुआ
आप भी तो भेंट करेंगे ही न सर
तब देखिए बदलूँगा ही खिल-खिलाते हुए
आपके पास तो
इससे भी ज्यादा खिल-खिलाते हुए और हैं
बदल लीजिये इन्हें
वैसे भी भीगने से तो दिख ही रहे धूसर से।
यह कैसा गिरिभाल
सिंकुला की चढ़ाई पर निकलते हैं जाँसकरी
मनाली पहुँचना है
नमक, चीनी, कपड़ा-लत्ता
बोरी-राशन भर कर
लौटते हैं कुल्लू दारचा वाली बस से
मनाली की इस भागम-भाग में
बदन पसीने से चिप-चिपाने लगते हैं
मनाली की गरम हवाऐं काटने लगती है
घर का रास्ता रोके खड़ी
रोहतांग की चढ़ाई बहुत चिढ़ाती है
कम्बख्त...
कितना तो दूर हो जाता है मनाली बाजार
लाहौल वाले भी
जाँसकरियों के स्वर में ही बोलते हैं।
रुक ही जाओ
आप जितना चलेंगे आज
हमें तो उतना चलना ही है
कहें तो थम्जै फलांग पहुँच जाऊँ ?
पर पैलामू पर ठहरना ही ठीक होगा साब
घोड़ों को भी आराम चाहिए
और घास भी
एक दिन में दारचा से चलकर जाँसकर-सुमदो
पहुँच तो सकते हैं,
गर गड़-गड़ के बीच होकर बहता पानी न बढ़ा हो
शाम तक तो बढ़ ही जाता है दरिया का बहाव
सुबह-सुबह ही पार कर सकते हैं
फिर घास भी तो है नहीं उधर
थम्जै फलांग दो घंटे से कम तो क्या ही होगा साब।
कैद स्वच्छंदता
ऐसा नहीं है कि ऊँचाइयों पर चढ़ने का
शऊर नहीं
कितने ही उजाड़ और वीराने में
बीता देती हैं जिन्दगी
जाँसकर की स्त्रियाँ
ऊँचाई-दर-ऊंचाइयों के पार
फिरचेन लॉ की चढ़ाई को चढ़कर
डोक्सा तक पहुँचते हैं
तांग्जे गाँव के बच्चे अपनी माँओ के साथ
लेह रोड़ दूर है बहुत,
खम्बराब दरिया के भी पार
डोक्सा से कैसे तो देखेगीं
?
मोटर-गाड़ी तो कोई सुना गया शब्द है
किसी चीज का नाम
जैसे सुना है - मनाली एक शहर है
जहाँ के बाजार से मर्द खरीद लाते हैं
कपड़ा, लत्ता, राशन
डोक्सा में याक की पीठ पर सवारी करती
जाँसकरी स्त्री को देख
चौरु, याक, सुषमो,
गरु, गिरमो
को
देखने आने वाले
स्वच्छंदता की तस्वीर को कैद करने का उतावलापन
संभाल नहीं पाते
तन जाते हैं कैमरे।
मत करो बहाना
जौ, गेहूँ की बालियाँ
जितनी भी हैं
छँग हैं
बदरँग पहाड़ियों को रँग देती है
रंगत उनकी झीनी-झीनी
झीना, जैसे बुना हुआ
कपड़ा
उससे भी झीना क्या हो सकता है ?
नशा छँग का झीना-झीना होता है
सूखेपन की बर्फानी हवाओं के बावजूद
जड़े सोख लेती हैं धरती से सत
सत्तू हो जाता है
ठंड में लिपटा दाना-दाना
बड़ी मुश्किलों से होता है पैदा
सत्तू है बड़ा पुराना
खा लो खा लो
मत करो बहाना।
फिसलन भर चमक
डिब्बाबंद, पैकेटों के
रंगबिरंगेपन में छोड़ दिये गए उच्छिष्ट को
जितना भी जलाओ
राख के रंग में भी न दिखेंगे
तो राख तो होंगे ही क्या
हवाओं में घुलते अंश के साथ
खड़ी होती जा रही टीले दर टीले ऊँचाई
संजोती रहेगी फिसलन भर चमक
मुनाफे की लोलुप निगाहें
फैलाने लगे भ्रम कि सदियों से यूँही
धातु के ठोसपन का नाम है ग्लेशियर
तो आश्चर्य क्या।
यात्रा में होने जैसा
यात्रा पर निकलने से पहले
सब कुछ तय कर लेते हैं
कहाँ, कहाँ जाना है, क्या-क्या देखना है
मिलना है किस-किस से
रुकना है कितने दिन कहाँ पर
और, और आगे बढ़ जाना
कितना खाना, खाना है
कितने कपड़ों की जरूरत होगी
हर दिन के हिसाब से
धो-पोंछ कर पहनने के बाद भी
आपात स्थिति यदि कोई आ जाए तो
निपटने के लिए
इतना मेरा देखा-देखा है
उनका देखा इससे भी ज्यादा है
यात्रा पर निकलने से पहले वे तो
कुछ भी नहीं सोचते
बस तैयार मिलता है सब कुछ वैसा-वैसा
मानो यात्रा में हों ही नहीं घर पर ही हों
उनका देखना तो मुझ जैसे के देखने से
बहुत-बहुत अलग है
पूछो तो कहेंगे ही नहीं यात्रा में हैं
बस बिजनेश के सिलसिले में
या कोई-कोई सरकारी यात्रा पर हैं,
मुंबई, चैन्ने, दिल्ली,
कलकत्ता
कभी-कभी तो अरब भी
अमेरिका, ब्रिटेन में तो है
ही घर
खुद का ही समझो, बच्चे हैं तो
आना-जाना लगा ही रहता है
यात्रा में तो होते ही नहीं वे
यात्रा में होने जैसा भी होता नहीं
कुछ उनके पास
न गठरी न ठठरी
गठरी और ठठरी से लदे फंदे
यात्रा करने वालों पर तो,
जिनकी उपस्थिति उछलता शोर होती है,
न जाने किन-किन की निगाहें हैं
गठरी में ढोते रेहड़ी, खोमचा,
रिक्शा
या टैक्सी में बैठे हुए ड्राइवर की सीट पर
वे मान ही लेते हैं कि उनका नाम
बस ओये टैक्सी है
मेरा देखा-देखा तो बस इतना है
सलाम उनको जो इससे ज्यादा देखते हैं।
छुमिग नाकपो - जगह का नाम, सिंकुला का बेस
चौरु, याक,
सुषमो, गरु,
गिरमो - जाँसकरी पालतू जानवर