Monday, November 10, 2008

भूली बिसरी भाषा

हाल में प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट बताती है कि हर महीने दुनिया से दो भाषायें विलुप्त हो रही हैं।।। अभी कुल करीब 7000 भाषाओं का पता है। इस संदर्भ में कुछ अच्छी कविताएं लिखी गयीं हैं।।। नेट पर अंग्रेजी में उपलब्ध, उनमें से कुछ, कविताओं के हिन्दी अनुवाद यादवेन्द्र जी ने किए हैं। प्रस्तुत हैं उनमें से कुछ कविताएं-


गवाह
डब्ल्यू एस मेरविन (यू एस ए)

मैं बताना चाहता हूं
कि पहले कैसे दिखते थे ये वन
पर इसके लिए
जो भाषा मुझे बोलनी पड़ेगी
अब तो उसे भूल गए हैं सब लोग।


भूली बिसरी भाषा

डब्ल्यू एस मेरविन (यू एस ए)


वाक्यों को पीछे छोड़ सांस आगे बढ़ जाती है
जो अब नहीं लौटेगी कभी दुबारा
फिर भी बड़े बूढ़े उन बातों का सम्मान करते ही हैं
जिन्हें कह देने की इच्छा उनके मन में साल दर साल घुमडती रही है निरंतर।

वे अब यह भी भांप गए हैं कि
लोग उन विस्मृत वस्तुओं का शायद ही यकीन करेंगे।
और उन बचे कुचे शब्दों से जुड़ी तमाम वस्तुएं
बाती लेकर ढूंढे तो भी मिलेंगी कहां ?

जैसे किसी अभिशप्त व्ृाक्ष से सट कर कोहरे में खड़े होने की संज्ञा
या मैं के लिए क्रिया।।।
बच्चे उन मुहावरों का अब कभी नहीं दुहरा पायेंगे
जिन्हे दिन रात घडी घडी बोलते बतियाते गुजर गये उनके मां बाप।

जाने किसने उन्हें घुट्टी पिला दी
कि हर बात को नये ढंग से कहने में ही बेहतरी है आज के दौर में
और ये कि इसी तरह मिलेगी उन्हें तारीफ और शोहरत
सुदूर देशों में।।।
जिन्हें कुछ पता ही नहीं हमारी चीजों के बारे में
उनसे भला कह ही क्या पायेंगे हम ऐसे में।

दरअसल हमें गलत और काला समझती है
नये आकाओं की शातिर निगाहें
कुछ समझ नहीं आता
दिनभर क्या क्या बकता रहता है उनका रेडियो।

जब कभी दरवाजे पर होती है कोई आहट
सामने खड़े मिलता है कोई न कोई अचिन्हा
सब जगह, कोनो अतरों में
जहां तैरेते होते थे हजार चीजों के नाम
अब पसर गयी है झूठ की काली सी चादर

कोई भी तो नहीं है यहां
जिसने अपनी आंखो देखा हो घट रहा कुछ
न ही आता है याद किसी को खास कुछ
इस जगह शब्द धीरे धीरे बदल रहे हैं अपना रंग रूप्ा

यहीं तो होंगे किसी कोने में पड़े हुए विलुप्त करार दिये हुए पंख
और यहीं तो कहीं होगी हमारी खूब जानी पहचानी हुई वो बरसात।


भूली बिसरी भाषा

शेल सिलवरस्टिन (यू एस ए)


कोई जमाना ऐसा भी था जब मैं बोल लेता था भाषा फूलों की
कोई जमाना ऐसा भी था जब मैं समझ लेता था लकड़ी उमें दुबक कर बैठे कीट का भी
बोला एक-एक शब्द
कोई जमाना ऐसा भी था जब गौरयों की बतकही सुनकर
चुपकर मुस्करा लिया करता था मैं
और बिस्तर पर जहां तहां बैठी मक्खी से भी
दिल्लगी कर लिया करता था

एक बार ऐसा भी याद है जब
मैंने झिंगूरों के एक एक सवाल के गिन गिन कर बकायदा जवाब दिये थे
जी जान से शामिल भी हो गया था।

कोई जमान ऐसा भी था
जब मैं बोल लिया करता था भाषा फूलों की।।।।

पर ये सब बदलाव हो कैसे गया।।।
ऐसे सब कुछ यूं लुप्त कैसे हो गया ??????

अनुवादक: यादवेन्द्र

Saturday, November 8, 2008

हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी को विनम्र श्रद्धांजली

हिन्दी की वरिष्ठ कथाकार श्रीमती कुसुम चतुर्वेदी का लम्बी बिमारी के बाद 26 अक्टूबर 2008 को अखिल भारतीयआयुर्विज्ञान संस्थान में निधन हो गया। गत रविवार 2 नवम्बर 2008 को संवेदना की बैठक में देहरादून के रचनाकारों ने अपनी प्रिय लेखिका को याद करते हुए उन्हें विनम्र श्रद्धांजली दी। तकनीकी खराबियों के चलते रिपोर्ट समय से दे पाने का हमें खेद है।
जुलाई 2008 में प्रकाशित डॉ कुसुम चतुर्वेदी की कहानियों की पुस्तक मेला उठने से पहले में सम्मिलित कहानी उत्तरार्द्ध का पाठ इस अवसर पर किया गया और साथ ही उनकी रचनाओं का मूल्यांकन भी हुआ। उनकी रचनाओं में मनोवैज्ञानिक समझ और मनुष्य के आपसी संबंधों की सृजनात्मक पड़ताल के ब्योरे को चिन्हित करते हुए कवि राजेश सकलानी ने उनकी कहानी तीसरा यात्री और पड़ाव को इस संदर्भ में विशेषरुप से उललेख किया।
उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, एस।पी सेमवाल, अशोक आनन्द, जितेन्द्र शर्मा, राजेश पाल, गुरुदीप खुराना, कृषणा खुराना, दिनेश चंद्र जोशी, जितेन ठाकुर, जयन्ती सिजवाली, अनिल शास्त्री आदि रचनाकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ता जगदीश बाबला, डी सी मधववाल, राजन कपूर, शकुन्तला, लक्ष्मीभट्ट और डॉ कुसुम चतुर्वेदी की पुत्री
नीरजा चतुर्वेदी के साथ-साथ उनके परिवार के सदस्य बी बी चतुर्वेदी आदि मौजूद थे।

Friday, October 31, 2008

मिलो दोस्त, जल्दी मिलो

"यदि मुझसे पूछा जाए कि आज की कविता में क्या देखा जाना चाहिए तो मैं कहूंगा कि आदमी के अस्तित्व और उसके सामने खड़े सारे संकटों को लेकर चिंता और प्रतिबद्धता, मानव होने के रोमांचक मामले में गहरी दिलचस्पी, जीवन और रिश्तों के अनंत वैविध्य के प्रति उत्सुकता और इस सब को अपनी भाषा और शैली में कह पाने की क्षमता। अवधेश कुमार की ये कविताएं इन सारी शर्तों को पूरा-पूरा निभाती हों यह तो जरुरी है और संभव- किन्तु इसमें संदेह नहीं कि इन कविताओं में इन शर्तों का पूरा-पूरा अहसास है"


1980 में प्रकाशित अवधेश कुमार के कविता संग्रह जिप्सी लड़की की भूमिका में कवि एवं अलोचक विष्णु खरे ने अवधेश कुमार की कविताओं में भविष्य की जो संभावना देखी थी वे अकारण नहीं थी। लेकिन दुर्भाग्य है कि अपने आगे के दौर में लिखे गये को अवधेश सुरक्षित न रख पाए और असमय ही हमारे बीच से विदा हो गए। विभिन्न अंतरालों में पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाओं को खोजना कोई आसान काम भी नहीं। फिर उन पत्रिकाओं की उपलब्धता कहां-कहां संभव हो सकती है, इस बारे में भी कोई ठोस सूचना उपलब्ध नहीं।
कविता-कोश के अनिल जन विजय जी का लम्बे समय से आग्रह रहा कि कवि अवधेश कुमार की कविताओं को खोजकर उपलब्ध करा पांऊ। लिहाजा अवधे्श कुमार की कविता पुस्तक जिप्सी लड़की से कुछ कविताएं यहां प्रस्तुत है। इन कविताओं का चयन हमारे साथी राजेश सकलानी ने किया।


अवधेश कुमार


मिलो दोस्त, जल्दी मिलो



सुबह--एक हल्की-सी चीख की तरह
बहुत पीली और उदास धरती की करवट में
पूरब की तरफ एक जमुहाई की तरह
मनहूस दिन की शुरुआत में खिल पड़ी ।


मैं गरीब, मेरी जेब गरीब पर इरादे गरम
लू के थपेड़ों से झुलसती हुई आंखों में
दावानल की तरह सुलगती उम्मीद ।


गुमशुदा होकर इस शहर की भीड़ को
ठेंगा दिखाते हुए न जाने कितने नौजवान
क्ब कहां चढ़े बसों में ओर कहां उतरे
जाकर : यह कोई नहीं जानता ।


कल मेरे पास कुछ पैसे होंगे
बसों में भीड़ कम होगी
संसद की छुट्टी रहेगी
सप्ताह भर के हादसों का निपटारा
हो चुकेगा सुबह-सुबह
अखबारों की भगोड़ी पीठ पर लिखा हुआ ।


सड़कें खाली होने की हद तक बहुत कम
भरी होंगी : पूरी तरह भरी होगी दोपहर
जलाती हुई इस शहर का कलेजा ।


और किस-किस का कलेजा नहीं जलाती हुई ।
यह दोपहर आदमी को नाकामयाब करने की
हद तक डराती हुई उसके शरीर के चारों तरफ ।

मिलो दोस्त, जल्दी मिलो
मैं गरीब, तुम गरीब
पर हमारे इरादे गरम ।




फोन




नौमंजिला इमारत चढ़ने में लगता है समय
जितना कि नौमंजिला कविता लिखने में नहीं लगता ।

नौ मंजिल चढ़कर मिला मैं जिस आदमी से
उससे मिला था मैं जमीन पर अपने बच्चपन में ।
वहीं पर उससे दोस्ती हुई थी।

इतनी दूर-
और नौ मंजिल ऊपर
नहीं मिल पाता जब मैं उस दोस्त से : वह मुझे
जब बहुत दिनों बाद मिलता है
तो पूछता है कि
क्यों नहीं कर लिया मैंने उसको फोन ?



बच्चा


बच्चा अपने आपसे कम से कम क्या मांग सकता है ?

एक चांद
एक शेर
किसी परीकथा में अपनी हिस्सेदारी
या आपका जूता !


आप उसे ज्यादा से ज्यादा क्या दे सकते हैं ?


आप उसे दे सकते हैं केवल एक चीज -
अपना जूता : बाकी तीन
चीजें आप किताब के हवाले कर देते हैं ।


कि फर वह बच्चा जिन्दगी भर सोचता रह जाता है
कि अपना पैर किस्में डाले
उस किताब में या आपके जूते में !

Sunday, October 5, 2008

संवेदना देहरादून, मासिक गोष्ठी-अक्टूबर २००८

और तभी जब वह उनके घेरे में सिर झुकाए चल रहा था एक लोकल आई और प्लेटफार्म पर भीड़ का रेला फैलगया। वह पस्त होने के बावजूद चौकन्ना था और वे अपने शिकार को दबोच लेने की लापरवाही की मस्ती में थे।उसने मौके का फायदा उठाया और उन्हें चकमा देकर भीड़ में गायब हो गया। वह छुपते-छुपाते पिछले गेट पर पहुंचा और पुलिस की शरण के लिए सड़को और लेनों में दौड़ने लगा। अगर यह दौड़ सुल्तानपुर के उसके फूहड़ गांवकी होती तो उसके साथ हमदर्दी में पूरा नहीं तो कमस्कम आधा गांव उसके साथ दौड़ रहा होता। मगर वह मुंबई की सड़कों पर दौड़ रहा था जहां सारी दौड़े वांछित और जन समर्थित हैं, चाहे वे हत्या करने के लिए हों अथवा हत्या से बचने के लिए---

शहर ने दौड़ में कोई दखल नहीं दिखाया। गलती शहर से नहीं, उससे हुई। वही उलटी दिशा में दौड़यह हैरानी की बात थी कि सड़कों की पैंतीस साल की पहचान पलक झपकते ही गायब हो गई थी। वह दौड़ रहा था। जैसे अन्जानी जगह दौड़ रहा हो। उसने विकटोरिया टर्मीनस को भी नहीं पहाचाना जिसकी दुनियाभर में एक मुकम्मिल पहचानहै। उसकी निगाह सिर्फ पुलिस चौकी ढूंढ रही थी।
आखिर उसने बेतहाशा दौड़ते हुए पुलिस चौकी ढूंढ ही ली।
"हजारों कबूतरों और समुद्र की उछाल खाती लहरों में। लहरों ने तुम्हें भिगोया। कबूतर तुम्हारे कंधों और आहलाद में फैली हथेलियों पर बैठे। शहर ने तुम्हारे आगमन का ऐसे उत्सव रचा था। तुमने भी इस शहर की शुभकामनाओं के लिए कबूतर उड़ाए थे--- और फिर पच्चीस साल बाद जब यह हमारी आत्मा में बस गया--- तो---" आगे के लफ्ज ठोस धातु के टुकड़ो में बदलकर महावीर के गले में फंस गए।

यह वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की उस कहानी का हिस्सा है जो अभी अपने मुक्कमल स्वरुप को पाने की कार्रवाईयों से गुजर रही है। कथाकार सुभाष पंत की लिखी जा रही ताजा कहानी के अभी तक तैयार उस ड्राफ्ट का एक अंश जिसे संवेदना की मासिक गोष्ठी में आज शाम 5 अक्टूबर को पढ़ा गया। अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ लिखी गई यह एक ऐसी कहानी है जिसमें घटनाओं का ताना बाना हाल के घटनाक्रमों को समेटता हुआ सा है। कहानी को गोष्ठी में उपस्थित अन्य रचनाकार साथियों एवं पाठकों द्वारा पसंद किया गया। विस्तृत विवेचना में कुछ सुझाव भी आये जिन्हें कथाकार सुभाष पंत अपने विवेक से यदि जरुरी समझेगें तो कहानी में शामिल करेगें। कथाकार सुभाष पंत की इस ताजा कहानी का शीर्षक है - अन्नाभाई का सलाम। इससे पूर्व डॉ विद्या सिंह ने भी एक कहानी पढ़ी।
दो अन्य कहानियां समय आभाव के कारण पढ़े जाने से वंचित रह गई। जिसमें डॉ जितेन्द्र भारती और कथाकार मदन शर्मा की कहानियां है। नवम्बर माह की गोष्ठी में उनके पाठ संभव होगें।

उपस्थितों में मुख्यरुप से कथाकार सुभाष पंत, मदन शर्मा, जितेन्द्र भारती,, प्रेम साहिल, एस.पी. सेमवाल सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला, पत्रकार भास्कर उप्रेती, कीर्ति सुन्दरियाल, पूजा सुनीता आदि मौजूद थे।

Saturday, October 4, 2008

प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा

दिनेश चन्द्र जोशी कथाकार हैं, कवि हैं और व्यंग्य लिखते हैं। पिछले ही वर्ष उनका एक कथा संग्रह राजयोग प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है उनकी ताजा कविता जो हाल की घटनाओं को समेटे हुए है।


आकाशवाणी नजीबाबाद
दिनेश चन्द्र जोशी


संदेह के घेरे में थे जिन दिनों बहुत सारे मुसलमान
आये रोज पकड़े जा रहे थे विस्फोटों में संलिप्त आतंकी,
आजमगढ़ खास निशाने पर था,
आजमगढ़ से बार बार जुड़ रहे थे आतंकियों के तार
ऐन उन्हीं दिनों मैं घूम रहा था नजीबाबाद में,
नजर आ रहे थे वहां मुसलमान ही मुसलमान, बाजार, गली
सड़कों पर दीख रहीं थी बुर्के वाली औरतें
दुकानों, ठेलियों, रेहड़ियों, इक्कों, तांगों पर थे गोल टोपी
पहने, दाड़ी वाले मुसलमान,
अब्बू,चच्चा,मियां,लईक, कल्लू ,गफ्फार,सलमान
भोले भाले अपने काम में रमे हुए इंसान,
अफजल खां रोड की गली में किरियाने की दुकानों से
आ रही थी खुसबू, हींग,जीरा,मिर्च मशाले हल्दी,छुहारे बदाम की
इसी गली से खरीदा पतीसा,
प्रसिद्ध है नजीबाबाद का पतीसा,सुना था यारों के मुह से,
तासीर लगी नजीबाबाद की
सचमुच पतीसे की तरह मीठी और करारी
'नहीं, नहीं बन सकता नजीबाबाद की अफजल खां रोड से
कोई भी आतंकी', आवाज आई मन के कोने से साफ साफ
नजीबाबाद जैसे सैकड़ों कस्बे हैं देश में,
रहते हैं जंहा लाखों मुसलमान
आजमगढ़ भी उनमें से एक है
आजमगढ़ में लगाओ आकाशवाणी नजीबाबाद
पकड़ेगा रेडियो, जरूर पकड़ेगा।