Tuesday, March 10, 2009

किसका हक है - एक्स या वाई

कविता, कहानी और आलोचना से पटे पड़े समकालीन हिन्दी साहित्य के बीच अन्य विधाएं कहीं खो सी गई हैं।व्यंग्य तो नदारद सा ही है। हां, इधर कुछ पहल होती हुई सी दिख रही है। उसी को आगे बढ़ाते हुए प्रस्तुत हैव्यंग्यकार अशोक आनन्द की ताजा रचना। अशोक आनन्द देहरादून में रहते हैं। वर्ष 2004 में उनकी व्यंग्य रचनाओं को संग्रह खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान प्रकाशित हुआ है।

अशोक आनन्द
धन्य हो प्रभु!


कहा जाता है, कि नारखाने में तूती की आवाज का कोई महत्व नहीं होता, लेकिन जब से मुझे यह "विस्फोटक" शुभ-समाचार प्राप्त हुआ है, कि आज के इस महाप्रदूषित माहौल में आप परम-लोकप्रिय तथा चरम-सुरिंक्षत कमीशन तक को ठुकरा कर "सूखी तनख्वाह ही सबकुछ है" की मधुर-रागिनी में मदमस्त रहते हैं, तब से ही मेरे मन-मस्तिष्क में आपके "त्याग-राग" की तूती हलचल मचा रही है और मेरा ईमान मुझे "पुश" कर रहा है कि मुझ जैसे बाल-बराबर को भी आपकी ताल के साथ ताल मिलानी चाहिए और यदि मैं आपके यशोगान में महाकाव्य न भी लिख पाऊँ, तो--तो कुछ पन्ने रंगने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
वैसे, मौटे तौर पर, आम लोगों की घातक-धारणा यह है, कि रिश्वत और कमी्शन में जमीन-आसमान का सा अन्तर होता है। उन अक्ल के अंधों के अनुसार, रि्श्वत लेना किसी गलत काम में सहयोग देने, किसी मज़बूर को निचोड़ने अथवा मिस्टर "एक्स" के हक को श्रीमान "वाई" को दिलवाने के षड्यंत्र में शामिल होने जैसा महापाप होता है, जबकि कमी्शन ग्रहण करना तो एक शुद्व-सात्विक प्रक्रिया है, क्योंकि कमीशन स्वीकारने के दौरान न तो किसी फाईल को ठंडे बस्ते के अंधेरे से निकाल कर रौ्शनी में लाया जाता है, जिससे उसका पुर्नजन्म हो सके, न ही किसी बदनसीब को सताया-तड़पाया-रूलाया जाता है और न ही किसी प्रकार की हेरा-फेरी का दामन थामा जाता है। इस नाते, कमी्शन को अपनी अंटी के हवाले करते समय, किसी भी अपराध-बोध को नहीं पालना चाहिए और इसे कुर्सी का प्रसाद अथवा पद-वि्शेष का "हक" समझकर डकार लेना चाहिए या हस्ताक्षर रूपी चिड़िया बिठाने का 101 प्रतिशत वैध नजराना समझ कर, ईमान की घुट्टी में मिलाकर बेखटके पी जाना चाहिए।
इसी क्रम में, उनका "गणित" यह कहता है, कि रिश्वत को तो पहले इशारों-इशारों में और फिर नंगे शब्दों के साथ "एडवाँस" में माँगना पड़ता है, जबकि कमीशन गान प्रदान करने वाला, अपने पूरे होशो हवास में, होम-मिनिस्ट्री से बाकायदा नो ऑब्जेक्शन सर्टीफिकेट लेकर, रिवाज और दस्तूर के मुताबिक, लकीर का फकीर बना, निर्विघ्न कार्य-समाप्ति के पश्चात, कॉलगेट-स्माइल के साथ, चन्द दमड़े अर्पित करने पर आमादा रहता है, तो--तो इस "सूफियाना-भेंट" को स्वीकार न करने की गुँजायश ही कहाँ बचती है ? (और, उस पर तुर्रा यह, कि कमी्शन उर्फ "ऑफिस-एक्सपेंसेज" का उज्जवल-धवल लिफाफा थामने वाले आप इकलौते मेहरबान-कदरदान नहीं होते, वरन् आप तो नीचे से ऊपर तक फैली अमरबेल रूपी जंजीर की एक छुटकी कड़ी मात्र होते हैं और आपकी हाँ या न का कोई खास महत्व नहीं होता)
जाहिर है-उक्त वर्णित शब्दो के आधार पर आज अधिकाँश विभूतियाँ कमी्शन के पक्ष में ही अपना कीमती वोट अर्पित करती हैं और उससे किनारा करके इस चींटी रूपी बेईमानी को चोट पहुँचाने का दुस्साहस बिरले ही कर पाते हैं। ऐसे में, जब मैं आपको इस दूसरी पंक्ति में शान से खड़ा पाता हूँ, तो बरबस मेरे हाथ सलामी के लिए उठ जाते हैं।
यूं, रिश्वत हो या कमी्शन, कुछ महानुभावों की दिलचस्प धारणा यह होती है, कि यदि ऊपरी अन्धी-कमाई का कुछ हिस्सा नेक कार्यों में खर्च कर दिया जाये, तो--तो फिर इस लोक ही क्या, परलोक के लिहाज से भी, किसी प्रकार का "टेंशन" पालने की कोई जरूरत नहीं रह जाती। यह अलग बात है, कि शायद ऐसे ही शरीफ-बदमाशों की शान में एक शायर फर्मा चुके हैं:-
तामीरें हैं, खैरातें है, तीरथ-हज भी होते हैं।
ये दौलत वाले दामन से, यूँ खून के धब्बे धोते है।

वैसे, छोटी ही नहीं, मोटी बुद्वि वाले भी, मन ही मन यह महसूस करते ही हैं, कि कमीशन रूपी मांसल-मारक "फुलझड़ी", सरकारी खजाने के हरम से ही अगवा करके लाई जाती है और उसके उपभोग-सहवास को बलात्कार और दे्शद्रोह की ही संज्ञा दी जा सकती है। इसी कारण, ऐसे प्रत्येक दलाल की अंतरात्मा उसे कचोटती रहती है अथवा अपना विरोध प्रगट करती रहती है, लेकिन वह नशेड़ी उस कमबख्त को "शटअप" कह कर उसकी बोलती बंद करता रहता है।
पता नहीं, आप किस आधार पर, कमी्शन-कुतिया को दुत्कार रहे हैं। न जाने
क्यों मुझे यह भी विश्वास है, कि आप जैसे संभ्रात-सज्जन का "बगुला-भगत" से कोई नाता नहीं है और न ही "नौ सौ चूहे खा कर हज को जाने वाली बिल्ली" से आपका कोई लेना-देना है और आप इस तथ्य से भी भली-भाँति अवगत है, कि उच्चपद के लिए कमीशन का प्रति्शत अधिकतम होता है, किन्तु खतरा निम्रतम रहता है, क्योंकि कोई काँड हो जाने पर, बड़ा अधिकारी तो पतली गली से साफ बच निकलता है और दण्ड की गाज, किसी छोटे-मोटे कर्मचारी पर ही गिरती है। सम्भव है, आप कमी्शन-जाम से इस कारण कन्नी काट रहे हों, कि कमी्शन-जुगाली की लत पड़ जाये, तो वृहद-वि्शाल तोप-खरीद से लेकर, छुटके से "कफन-बाक्स" की खरीद तक में कमीद्गान खाना पूर्णतया जायज लगने लगता है।
आज, जब मैं अपने को, ऐसे-ऐसे सफेदपो्श लुटेरो याने कमीशन खोरों में घिरा पाता हूँ, जो सचरित्रता और "संतोषधन" का ढिंढोरा पीटते नहीं थकते और "मुँह में राम, बगल में छुरी" का शर्मनाक उदाहरण होने के बावजूद, अपने चमचमाते मुखौटे के कारण इतराते-मदमाते फिरते हैं, तो--तो उन्हें हूट करने के साथ-साथ शूट करने का मन हो उठता है। बुजदिली्वश, मैं ऐसा कुछ नहीं कर पाता और शब्दों की मरहम से अपनी खाज-खुजली मिटाने की कोशिश करता रहता हूँ तथा कमी्शन ओढ़ने-बिछाने वालों को "श्लोक" सुनाने के साथ, आप सरीखे "विल-पॉवर" के धनी महामानव के चरणों में अपनी श्रद्वा के फूल अर्पित करता रहता हूँ।
सच! आज के इस संक्रमण-काल में आप जैसे दुस्साहसी विद्रोहियों की बहुत जरूरत है, जो कमीद्गान का झंड़ा बुलन्द करने वालों के खिलाफ अपने ईमान का डंडा उठा सके।
श्रीमन! आज घर आती लक्ष्मी को लात मारना बेहद मुश्किल होता जा रहा है-भले ही वह सरकारी खजाने में सेंध लगाकर लाई जा रही हो, चाहे दीन-हीन, विवश-मजबूर दे्शवासियों के मुँह के इकलौते निवाले को नीलाम करने से प्राप्त हो रही हो और एक चतुर्थ-श्रेणी कर्मचारी से लेकर राजपत्रित अधिकारी तक, बल्कि उससे भी ऊँची कुर्सी पर विराजने वाले महान महानुभाव भी, चन्द दमड़ों की कमी्शन की एवज मे, अपनी हया और अपने आत्मसम्मान की डुगडुगी पिटवाने में अपनी शान समझते हैं। ऐसे में, आप जैसे उच्चाधिकारी द्वारा, कमी्शन-विरोधी रवैया अपनाना, वास्तव में आठवें आश्चर्य की सी चमत्कारपूर्ण ईमान की मीनार खड़ी करने जैसा भगीरथ-प्रयास दीखता है और आपके इस इकलौते कारनामे के कारण ही यह नाचीज आपको तीन शब्दों का भारत-रत्न सरीखा व्यक्तिगत-तमगा प्रदान करना चाहता है-"धन्य हो प्रभु!

Monday, March 9, 2009

अब न आएंगे हम बाज खुद से ये वायदा किया है

अन्तर्राष्ट्रीय विश्व महिला दिवस के अवसर पर गांधी पार्क देहरादून मे सामाजिक राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संगठनों ने संयुक्त रूप से एक पोस्टर प्रदर्शनी एवं सभा का आयोजन किया। क्रालोस, सं0म0स0, पछास, उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी, उत्तराखण्ड महिला मंच,कई राजनैतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं साहित्यकारों ने इस अवसर पर सक्रिय भागीदारी निभाई।
आठ मार्च पूरी दुनिया की संघर्षशील जुझारू महिलाओं के लिए एक यादगार दिन है। आठ मार्च के मुक्तिकामी संघर्ष, जो महिला कामगारों द्वारा अपने काम के घंटों को 16 से घटाकर 10 किए जाने की लड़ाई थी और जिसने गुजरे 10 सालों में घटित तमाम क्रातियों, आजादी के आंदोलनों तथा प्रत्येक छोटे बड़े संघर्षों के लिए दुनिया की महिलाओं को जो प्रेरणा दी, उसके एतिहासिक परिप्रेक्ष को केंद्र में रखते हुए सामाजिक कार्यकर्ता शकुंतला ने अपनी बात संक्षेप में रखी।
कथाकार डा0 अल्पना मिश्र ने आर्थिक आजादी के सवाल को वर्तमान समय में स्त्री मुक्ति के संघर्ष का एक पड़ाव, के रूप में विशेष तौर पर चिन्हित किया और सम्पत्ति पर स्त्रियों के अधिकार को एक मुद्दे के रूप में रखा।

गीत संगीत और साहित्यिक रचनाओं के साथ महिला कामगारों के जीवनानुभवों का यह आयोजन अपने ही तरह का अनूठा आयोजन था जिसमें जहां एक ओर एक मजदूर महिला सरजहां सुनिता ने अपने जीवन की कठोर सच्चाइयों को बेबाकी से रखा वहीं दुसरी ओर जौनसार जनजातीय क्षेत्र में सामाजिक रूप् से सक्रिय शांति वर्मा ने एक जौनसारी गीत गाया। एम के पी पी जी कालेज की छात्रा मनीषा ने कथाकार दीपक शर्मा की कहानी "चमड़े का अहाता" का पाठ किया एवं स्वाति ने पवन करण की कविता "स्त्री सुबोधनी" का पाठ किया।एम के पी पी जी कालेज की एक अन्य छात्रा शिक्षा सेमवााल ने समाज में स्त्रियों की वर्तमान अवस्था पर समाजशात्रिय ढंग से बात रखी। पर्वतीय जनकल्याण समिति की हेमलता ने-
मनमानी करेंगे हम आज खुद से ये वायदा किया है ।
अब न आएंगे हम बाज खुद से ये वायदा किया है

गीत गाया।
उत्तराखण्ड महिला मंच की सामाजिक कार्यकर्ता कमला पंत जिन्होंने राज्य आंदोलन के दौर में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और लगातार सक्रिय हैं, ने अपने व्यवहारिक अनुभवों से सभा को संबोधित किया।

रंगकर्मी श्रीश डोभाल, पछास के छात्र नितिन और भोपाल ने भी अपनी बात रखी। दृष्टि नाट्य संस्था के राजीव कोठारी ने एक जनगीत गाया।
सभा का संचालन वरिष्ठ कवियित्री कृष्णा खुराना ने किया।


युवा रचनाकार प्रेरणा पांडे एवं जयंती द्वारा इस अवसर पर पढ़ी गई कविताएं यहां प्रस्तुत है-
प्रेरणा पांडे

लड़की
एक

मां, तुमने मुझे
गुड़िया न दी होती जो
मैं यही नहीं होती
न खेला होता घर घरौंदा

होता मेरा भी मन
तितली, हवा या एक परिंदा

तुमने सिखाया मुझे
इच्छाओं के सहस्त्रनाग का
फन पकड़ना
टूटे मन तो चुपचाप
आंसू बोना-
क्या ऐसा ही होता है
किसी लड़की का लड़की होना ?


दो

मैं खुश हूं कि मेरी एक बेटी है
मैं नहीं दूंगी उसको गुड़िया
सिखाउंगी उसे लड़ना-भिड़ना
समय से दो-दो हाथ करना

बनाएगी घरौंदे वह आसमान में
सिखाउंगी उसे
इच्छाओं के पर से उड़ना

पिता से, परिवार से
समाज से भिड़ जाने का
मैं दूंगी उसे हौसला
लड़की बनकर दिखाने का।




जयंती

औरत होने का दर्द

आज
जब जाना है मैंने तुम्हें
लिख रही हूं कविता
औरत होने का दर्द
भोग रही हूं वही पीड़ा
शताब्दी दर शताब्दी
हमारी ही शक्ल में
भोगी गई होगी जो

तुम्हारी जिज्ञासाएं
आज भी खोज रही हैं
अपना अर्थ
चल रहा है द्वंद
भीतर तुम्हारे
तुम जो बार-बार बदल देती हो कपड़े
न्ाहीं बदल पाती अपने आप को
सौंप आती हर रात
अपनी देह
नोंचने के लिए
फिर थके बदन गिरती हो
निढाल होकर
एक एक कर
गिनती हो अपनी खरोंचो को
अपने कीचड़ में उगा देती हो
एक बीज
और देती हो उसे एक शक्ल
अपनी ही तरह

Thursday, March 5, 2009

गंदी बस्तियों के बच्चे

राजेश सकलानी

जैसे नालियॉं होती हैं वैसे ही गंदी बस्तियॉं भी होती हैं। नालियों की तरफ देखा नहीं जाना चाहिए। वे तकलीफ देती हैं। वे हमारे कारनामों को प्रकट करती है। उस गन्दगी में हम खुद ही बह रहे होते है। वे हमारी नाकामयाबी और हरामीपन को प्रकट करती हैं। हमें उन नालियों में अपनी असफलता दिखलाई देती है। यद्यपिः हम चाहते हैं कि नालियॉं हों किन्तु हम सफाई का ध्यान नहीं देना चाहते। यह हमारी परम्परा है। तथाकथित गौरवशाली परम्परा। मैली बस्तियॉं भी ऐसी ही होती है। रहना तो दूर, हम उनकी तरफ देखना भी नहीं चाहते हैं। वे हमारी सामाजिक रिश्तों की याद दिलाती है। हम हैं कि उनसे बचना चाहते है। हम चाहते हैं, मैली बस्तियॉं खत्म हो जाएं। वहां पर सुन्दर इमारतें बन जाएं, लेकिन वहां के निवासियों के लिए हम कोई कल्पना नहीं करते। हमें यह गतिहीनता भी परम्परा से ही मिली है। मनष्यता के लिए जन्मजात प्रेम का थोड़ा-सा अंश भी हमारे भीतर नष्ट प्राय: हो जाता है। क्योंकि सबको बदलने का संकल्प हमें हमारी राजनीति और सामाजिकता और धर्म नहीं देता। वह एक रूग्ण किस्म की घ्रणा में बदल जाता है। इसीलिए हम गन्दी बस्तियों को आशंका और असुविधा की तरह देखते हैं।
लेकिन पूंजीवादी, बाजारवादी मस्तिष्क इस घृणा दृश्य से भी मुनाफा ढूंढ निकालता है और मनु्ष्य की नियती को बदलने के आदर्श को कला से बहि्षकृत कर छलावे को निर्मित करता है और गुलामी के लिए हमारे बचे-खुचे संकल्प को ध्वस्त करने की को्शिश करता है। बाजार ऐसे ही उत्पादों से पेटा पड़ा है। विराट फलक पर बेहतरीन संगीत, सिनेमा, तस्वीरें, रैपर, डिब्बे आदि उपभोक्ताओं के लिए बनाए जा रहे है। नए दृ्श्यों और कथानकों की खोज में पूंजीवादी कैमरा मैली बस्तियों की मनुष्योचित ऊर्जा और जिजिविषा कों अन्यथा अचि्ह्नित जगहों पर पहुंच रहा है और जनता को मूर्ख बना कर तालियां और धन लूट रहा है। मैली बस्तियों के बाशिन्दों को कुत्तों में बदल डालता है। उनकी कला में खिलवाड़ यह है कि करोडों कुत्तों में कोई एक धनवान शोर में बदल जाएगा। विडम्बना यह है कि इस कला में दुनिया के बेहतरीन दिमागों का इस्तेमाल हो जाता है। वास्तव में इन दिमागों के मालिक खूंखार कुत्ते हैं जिनके गले में व्यवस्था का शानदार पट्टा लगा है और वे चेन से बंधे हुए हैं।
'स्लमडाग मिलेनियर" फिल्म को मिले आठ ऑस्कर पुरस्कारों में भारतीयों की अहम् भूमिका है किन्तु फिर भी गर्व करने का मौका नहीं बनता है। वैचारिक रूप से यह फिल्म दुनिया के ढांचे को बदलने से कतई इन्कार करती है। हॉं जरूर विचार आता है कि 'मां तुझे सलाम" और 'जय हो" को सशक्त तरीके से हम तक पहुंचाने वाले गायक, संगीतकार ए आर रहमान को इन गीतों के जरिए सामाजिक, राजनैतिक और कलापूर्ण हस्तक्षेप के लिए याद किया जाना चाहिए। साम्प्रदायिक द्वे्षी इसे ध्यान से सुनें।

Monday, March 2, 2009

तुम कहां के बाशिंदे हो

देहरादून के लिए य़ह खबर है कि मुम्बई में रहने वाला देहरादूनिया सूरज प्रकाश ६ मार्च को अपने शहर देहरादून में पहुंच रहा है। खबर इसलिए कि एक लम्बे अरसे बाद, वर्ष २००५ के बाद, जब पिछले दिनों वे देहरादून आ रहे थे तो एक आकस्मिकता की लपेट में देहरादून आने की बजाय उन्हें दिल्ली ही रूक जाना पडा और देहरादून में उनके आने की सूचना प्राप्त हुए मित्र बेचैनी से उनकी राह तकते रहे। अपनी जीवटता के दम पर सूरज ने उस कठीन समय का मुकाबला किया है।
कथाकार नवीन नैथानी उसी देहरादून के बाशिंदो का जिक्र करते हुए, जिसका बाशिंदा हमारा मित्र सूरज भी है, अपने लेखन के उन शुरूआती दिनों को जिक्र फ़िर से बिलकुल अलग अनुभवों के साथ कर रहे हैं। देहारादून के चरित्र को व्याख्यायित करने की नवीन यह कोशिश प्रशंसनिय है, जो आगे भी जारी रहनी है।


नवीन नैथानी

देहरादून की फितरत का पता इसके बाशिन्दों से लगता है. वे जव शहर से बाहर जाते हैं तो शहर को भूल नहीं पाते. पता नहीं, दूसरे शहरों में रहने वाले लेखक अपने शहर को किस तरह से देख्रते हैं.सुरेश उनियाल , मनमोहन चड्ढा ऒर सूरज प्रकाश देहरादून से बाहर रहते हैं लेकिन लगता नहीं कि वे देहरादून में नहीं रहते . हां, पिछली किस्त में मैंने सिद्धेशजी का जिक्र किया था. उस त्रयी के अन्य महानुभावों पर बात करना एक तरह से शहर के उन दिनों को फिर से जीने की तरह है.
कविजी (सुखबीर विश्वकर्मा ) वेनगार्ड में काम करते थे- वे उस अखबार में हिन्दी संपादक थे. वह एक विलक्षण अखबार था.द्विभाषी. अंग्रेजी ऒर हिन्दी में. तीन पन्ने अंग्रेजी में होते थे ऒर एक पन्ना हिन्दी में .हिन्दी का पन्ना पूरी तरह साहित्यिक होता था. अक्सर कवितायें छपती थीं.साहित्यकारों के साक्षात्कार होते ऒर गोष्ठियों की रपट होती.कविजी हिन्दी पन्ने के तो घोषित सम्पादक थे ही, अंग्रेजी की सामग्री भी जुटाते थे-अधिकतर STATESMAN की कतरने वे रामप्रसादजी को पकडा़ देते.रामप्रसाद एक माहिर कम्पोजिटर थे.लैटर-प्रेस के वे दिन बहुत जादुई लगते हैं.सीसे के ढले हुए अक्षर,स्याही की गन्ध ऒर ट्रेडल-मशीन की आवाज!शाम की नीम-रोशनी में पढे़ जाने का इन्तजार करता हुआ ताजा छपा पन्ना रामप्रसाद के हाथों में होता.कविजी प्रूफ फ़ाईनल करें तो फ़र्मा छपे ऒर रामप्रसाद घर जायें.रामप्रसाद में असीम धैर्य था.सब कविजी की आदतों के साथ होना जानते थे-खासतॊर पर तब, जब उनके पास साहित्यकार बैठे हों.
अखबार के मालिक जीत साहब अपना पोर्टेबल टाइप राइटर लिये शाम चार बजे के आसपास वेन गार्ड के दफ्तर में आते थे .कोई खास रपट टाइप करते ऒर संपादकीय लिख कर कविजी के हवाले कर देते . हमने उन्हें ज्यादा देर वेन गार्ड के दफ्तर में नहीं देखा. कविजी प्रूफ देखते, खबरें दुरूस्त करते ऒर शहर की सरगोशियों को कान दिये रहते. वे वेनगार्ड के दफ्तर में बैठे-बैठे शहर की साहित्यिक - सांस्कॄतिक गतिविधियों की खबर रखते थे. एक जमाने में वेन गार्ड लेखकों की एक किस्म की नर्सरी के रूप में जाना जाता था. मैंने पुराने लोगों से सुना है कि वहां अच्छा खासा जमावडा़ हुआ करता था. हां, अवधेश के साथ कई मर्तबा शाम की बैठक में शामिल होने का मॊका जरूर मिला.
वेनगार्ड में संभवतः विजय गॊड़ ने ओमप्रकाश वाल्मीकि का साक्षात्कार लिया था जो हिन्दी में दलित-विमर्श से बहुत पहले की घटना है.उन्हीं दिनों की बात है-रतिनाथ योगेश्वर ऒर जय प्रकाश ’नवेन्दु’ ने देहरादून के युवा कवियों की कविताओं का संग्रह निकाला ’इन दिनों’ नाम से. उस संग्रह की समीक्षा खाकसार ने की ऒर कविजी की प्रशंसा में कुछ टिप्प्णी की थी जिसका भाव कुछ युं था कि कविजी ने बेहद ठण्डेपन के साथ अपनी बात कही है.काफी दिनों के बाद कविजी से शाम के वक्त घंण्टाघर में अचानक भेंट हो गय़ी. उन्होंने नाराजगी जाहिर की-सुखबीर विश्व्कर्मा ठण्डा कवि है!तुमने मुझे ठण्डा कवि कैसे बता दिया.
हिन्दी में दलित विमर्श की गूंज देहरादून से ही उठी - यह एक तथ्य के रुप में रखा जा सकता है। 'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह है, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठ्क आज भी उस कविता संग्रह पर छपे उस पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की एक बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिन्दी साहित्य के केन्द्र में दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ, तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनाऐं जैसी बाद में दलित चेतना कीसंवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिन्दी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय था। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली का वध करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। - कागज का नक्शाभर नहीं है देहरा दून

उनके पास पत्रिकाएं बहुत आती थीं. तमाम जगह वे छ्पे ऒर गर्व से इस बात को कहा करते थे कि वे जितनी जगह छ्पे हैं, उतनी जगह कोई दूसरा कवि नहीं छपा होगा.उनके पास मिलने वालों की अक्सर भीड़ लगी रहती थी.शुरु-शुरु में मुझे ताज्जुब होता था कि अवधेश कवि जी के पास बैठ कैसे जाता है! उनके दफ्तर के सामने कनाट प्लेस का ठेका था (देहरादून में एक कनाट प्लेस भी है).तो मैं इसके पीछे ठेके की मॊजूदगी कोसबसे बड़ा कारण समझता था. य्ह एक कारण था पर सबसे बड़ा कारण नहीं था. कविजी के व्यक्तित्व में एक सहजता थी. निर्भीकता भी-अपनी बात पर अड़ गये तो फिर आप उन्हें समझा नहीं पायेंगे.एक बार से.रा.यात्री उनके कब्जे में पड़ गये. यह १९९०में मई-जून की कोई शाम थी. अवधेश मेरे साथ था.हरजीत संभवतः नहीं था.किसी बात पर कविजी उलझ पडे़.यात्रीजी ने हाथ जोड़ लिये. यात्रीजी का एक वाक्य मुझे अक्सर याद आ जाता है-ऐसा नशा-खाऊ आदमी मैंने नहीं देखा.
खैर, कविजी नशा-खाऊ तो नहीं थे. बाद के वर्षों में एक तरह की कुण्ठा उनमें घर कर गयी थी. वे अपना कविता संग्रह राष्ट्रपति को भेंट करने जब दिल्ली गये तो मेहमानों की फेहरिस्त में अवधेश का नाम जुड़्वाना नहीं भूले. अवधेश दिल्ली गया कि नहीं ,यह मुझे ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा.
कविजी के व्यक्तित्व के बहुत से पहलू मुझे जितेन ठाकुर से पता चले. जितेन अपने साहित्यिक सफर की शुरूआती वर्जिश में वेनगार्ड के पास काफी टहला किये.
मृत्यु-पर्यंत कविजी कवि - कर्म में लिप्त रहे.हरिद्वार में कवि-सम्मेलन था. लॊटते हुए जीप पलट गयी. हरजीत गम्भीर रूप से घायल हुआ. कविजी दुर्घटना -स्थल पर ही हत-प्राण रह गये.

Friday, February 27, 2009

उपन्यास से बाहर जाकर

कबाडखाना में आज नवीन जोशी के उपन्यास दावानल की चर्चा कुछ यू है-

नवीन दा बड़े सहृदय व्यक्ति हैं और उनका एक उपन्यास 'दावानल' सामयिक प्रकाशन से २००६ में छपकर आया था। बीसवीं सदी के सन अस्सी के दशक में छिड़े चिपको आन्दोलन को इस उपन्यास की पृष्ठभूमि बनाया गया है. बहुत सारे आत्मकथात्मक तत्व भी इस कृति में पिरोये गए हैं. कुमाऊंनी ग्रामीण परिवेश और पलायन को अभिशप्त निर्धन कुमाऊंनी समाज के युवाओं की कई छोटी-बड़ी कहानियां इस उपन्यास की सतह के ऐन नीचे सांस लेती रहती हैं. - अशोक पाण्डे


प्रस्तुत है दावानल पर एक समीक्षात्मक टिप्पणी जो इससे पूर्व शब्दयोग पत्रिका में प्रकाशित हुई है। -




राष्ट्रीयता की पहचान के आंदोलन- उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन की मांग की अवश्यम्भाविता के वे कौन से कारण थे जिन्होंने उत्तराखण्ड के जनमानस को सड़को पर उतर आने के लिए मजबूर किया, यदि इस की ठीक-ठीक पहचान की जाये तो जल, जंगल जमीन पर टिकी भू-भाग की अर्थव्यवस्था पर कालान्तर से होते आये आक्रमणों को जानकर ही समझा जा सकता है। 1815 में ब्रिटिश हुकूमत के काबीज हो जाने के बाद साम्राज्यवादी लूट के जिन मंसूबों ने वन अधिनियम को जन्म दिया, उन्हीं के परिणाम स्वरूप पहाड़ों से पलायन का सिलसिला चालू हुआ। ब्रिटिश हुकूमत के जन विरोधि रवैये ने सांस्कृतिक, सामाजिक और भोगोलिक रूप से भिन्न समूहों की पहचान का बलात हरण करने का कुचक्र रचा। पारम्परिक उद्योग, रोजगार और समूह विशेष की जीवन शैली को तहस नहस कर आत्मनिर्भरता को इस हद तक खत्म कर दिया गया कि गुलामी के जाल से मुक्ति का स्वपन बुनने वाले भी निरंकुश तंत्र को ही ताकत पहुचाने के लिए मजबूर हुए। ईमानदारी का तोहफा शरीर पर फौजी वर्दी को लाद कर मिलता रहा- सत्ता की चौकसी के प्रबंध के लिए जिसकी बेहद जरुरत थी।
कथाकार नवीन जोशी का उपन्यास 'दावानल" यूं तो उत्तराखण्ड में हुए चिपको आंदोलन को अपना विषय बनाता है पर पहाड़ी जनमानस के अपनी जमीन से पलायन की कथा को कहते हुए वह जिन स्थितियों का वर्णन करता है उनको पढ़कर उत्तराखण्ड राज्य आदोलन की पृष्ठभूमि को भी समझने में मद्द मिलती है। इतिहास की निर्ममता ने उत्तराखण्ड के पानी और उसकी जवानी को पलायन करने के लिए मजबूर किया है। नवीन जोशी इस तथ्य को खूबसूरत अंदाज में अपने उपन्यास में रखने में सफल हुए हैं। पुष्कर उपन्यास का मुख्य पात्र है। तिवारी जी का पुत्र। तिवारी जी जो जीवन यापन के संघ्ार्ष में लखनऊ पहुंचे हैं और अपनी ही तरह के दूसरे पहाड़ी लोगों की एक बस्ती में रहते है। पुष्कर को वे पढ़ाना चाहते हैं और इसी वास्ते उसे भी अपने साथ लखनऊ ले आये है। नहर दफ्तर के दो आहातों का वह इलाका जहां बाईस र्क्वाटरों में सिर्फ पहाड़ के ही लोग रहते हैं। जैसे-तैसे पहाड़ की पहाड़ सरीखी स्थितियों से भागकर अंग्रेज साहबों के यहां पहुंचकर साहबों-मेमसाहबों की सेवा करते-करते वयस्क होने पर सरकारी सेवाओं की अहर्ता प्राप्त कर सकते हैं। सरकारी सेवा में जाने से पहले जो अपनी इस शर्त से बंधें हैं कि अपने जैसे ही किसी अन्य पहाड़ी-ईमानदार नवयुवक को कोठी की सेवा में रख दें। जो कि उनके लिए मुश्किल भी नहीं होता। बल्कि पहाड़ से भागकर उनके पास पहुंचे हुए किसी नवयुवक को रोजगार पर चिपका देने का एक सुयोग ही होता। नहीं तो परिवार में कितने ही लोग ऐसे होते जिन्हें कठीन चढ़ाईयों भरे जीवन से बाहर निकालकर सरकारी नौकर बना सकने का बेहतरीन मौका हाथ लग रहा होता।
नहर कालोनी की सरहद ने पुष्कर को सहारा दिया। जहां रहते हुए ही उसने जीवन का ककहरा सीखा है और दुनिया की रंगीनी को जानने के लिए पिता की साईकिल के कैरियर पर फंसी रहने वाली रंगीन पन्नों की मैगजीन में आंखें गढ़ायी। पहाड़ी जीवन पर पड़ने वाली मुसीबतों की बर्फ जिनमें उल्लास बिखेर रही होती- बस यहीं से दरकने लगता है वह पहाड़ जो पुष्कर के भीतर बैठा है और वह इस छद्म को उधाड़ देना चाहता है। पहाड़ की वास्तविकता से पुष्कर का नाता- लकड़ी, घास और पानी का भारी बोझ उठाने वाली मां, बहनों और चाची बुआओं के संसार के साथ है। पत्रिकाओं में छपने वाली तस्वीरें उसको आन्नदित नहीं, बेचैन करती हैं। अपने भीतर दबी-बैठी तस्वीरों और पत्रिकाओं की तस्वीरों में साम्य नहीं दिखता। अपने आस-पास की तस्वीरों में भी उसे ढाबों में बर्तन मांजने वाले पहाड़ी छोकरों से ही साक्षात्कार करना होता है। पहाड़ में रह रही मां के पास, स्कूल की छुटि्टयों में या यदा-कदा परेशानियों से घिरे होने पर प्राप्त होने वाले बुलावों पर, उसे पहाड़ पहुंचना ही होता। पिता चाहते हुए भी जा नहीं सकते। काम का हरजा जीवन की गाड़ी के पहियों को खींचने में रुकावट डाल देता।
पढ़ लिख जाने के कारण चेतना के विकास में संवेदनाओं का संसार और ज्यादा घनेपन के साथ उसे जिस ओर को ले जाता है वह अखबारों की दुनिया है। वह लेख लिखता है- इस नैतिक ईमानदारी के साथ कि पत्रिकाओं में छप रही पहाड़ों कर रंगीन तस्वीरों के छद्म को तोड़ सके।
कहा जा सकता है कि मानसिक बुनावट में ठहरा पहाड़ीपन पुष्कर को उन तस्वीरों को साफ कर देने के लिए प्रेरित करने लगता है और उत्तराखण्ड के पहाड़ों के भीतर घट रही घटनाओं से वहां के वातारण में फैल रही हलचलों को वह समाचारों के रुप में दर्ज करना चाहता है। इस पहल के साथ ही उत्तराखण्ड में जारी 'चिपको आंदोलन" में वह हिस्सेदारी करने लगता है। आंदोलन के कार्यकर्ताओं से सम्पर्क और पहाड़ के बुद्धिजीवियों की निकटता में पूरे उत्तराखण्ड के जनजीवन से उसका सम्पर्क बनने लगता है। हर दस वर्ष के अंतराल पर होने वाला यात्रा अभियान- अस्कोट आराकोट यात्रा जिसकी शुरुआत 1974 में हुई, दिनमान पत्रिका मे उसकी रिपोर्ट पड़कर वह उस यात्रा में भी हिस्सेदारी करने लगता है और उसके माध्यम से पहाड़ो को पैदल नापते हुए जनजीवन को जानना शुरु करता है। उस समय के आंदेलनकारी संगठन "संघर्ष वाहिनी" के साथियों के साथ जीवन के खुशहाली के सपनों को सकार करने के लिए जुट जाता है। उपन्यास का यह मुख्य हिस्सा ही दावानल की मूल कथा है।
उपन्यास में संघर्ष वाहिनी के आंदोलन में शिरकत करने वाले उत्तराखण्ड के रचनात्मक जगत की उम्मीदों भरी तस्वीरें स्पष्ट तौर पर रखता है। कुछ नाम जो उभरकर आते हैं उनमें घनश्याम सैलानी, गिर्दा, शेरदा अनपढ़ की रचनाओं का विश्वसनीय पाठ भी कथा को विस्तार देता है। हुड़के और ढोल-दमाऊ के स्वर सुनायी देते हैं। जिनके बीच पुष्कर अपनी व्यक्तिगत परेशानियों से उबरकर समष्टिगत भावना के साथ आगे बढ़ने लगता है। संसाधनों पर कब्जा करने वाली ताकतों की मुखालफत करना उसका ध्येय हो जाता है। 'आज हिमालय जागेगा, क्रूर कुल्हाड़ा भागेगा।, जंगल निलाम नहीं होंगे, पेड़ नही हम कटेंगे।' जैसे नारे उसे उत्तेजित करते हैं। लेकिन सत्ता का षड़यंत्र जीवन को बचानें की मुहिम में जंगलों के नृशंस कत्लेआम की मुखालफत के स्वर को पर्यावरण को बचाने के आंदोलन में बदल देता है। यह स्थितियां पुष्कर को बेचैन करने लगती हैं। ऐसे में पिता की मौत भी उसे भीतर से तोड़ देती है। आंदोलन का बिखर जाना या भटक जाना ही पुष्कर की त्रासदी है। जिससे वह क्षुब्ध हो जाता है। लेकिन एक मासूम किस्म की भावुकता है जो पुष्कर के चरित्र में एक दृढ़ राजनितिक कार्यकर्ता की छवी को स्थापित नहीं होने देती। यही इस रचना की कमजोरी भी मुझे दिखायी दे रही है। उपन्यास आंदोलन के बिखराव के कारणों पर बहुत ही सतही ढंग से टिप्पणी करता है और पूरे प्रकरण के लिए मात्र कुछ एक दो लोगों को ही चिन्हित करता है जो पर्यावरण की उस अवधारणा जो विश्व पूंजी के हितों में ठीक बैठती है, के साथ साम्य बैठाते हुए लगातार ख्याति प्राप्त करने चले जाते हैं। यहां यह सवाल उठता है कि यदि ऐसा कुछ घट रहा था तो आंदोलन की वह धारा जो इस तरह के प्रपंच के खिलाफ थी वह उस दौर में प्रकट क्यों नहीं होती और ऐसे लोगों पर उसी दौर में चोट क्यों नहीं करतीं ?
उपन्यास से बाहर जाकर उस दौर के इतिहास पर यदि टिप्पणी की जाये तो सवाल उठता है कि क्या कहीं ऐसा तो नहीं कि आंदोलन की धारा के अन्दर ही तो वह एनजीओ किस्म की मानसिकता नहीं थी जिसके कारण जनता के सवालों पर उठा चिपको आंदोलन पर्यावरण के आंदोलन में तब्दील हो गया ? इस सवाल पर बिना भावुक हुए गम्भिरता से विचार होना चाहिए था। उपन्यास के पात्र सलीम के माध्यम से एक छोटी कोशिश हुई तो दिखती है, पर मासूम किस्म की भावुकता, जिसकी जकड़ में रचनाकार भी नजर आता है, उपन्यास को उस ओर बढ़ने से रोकती है। और सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष पर ही चोट करती दिखायी देती है। बाबा जीवनलाल और रामप्रसाद उपन्यास के ऐसे ही पात्र है जो अंताराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करते हैं। आखिर ये पात्र कौन है ? वे पात्र जिनके प्रति रचनाकार सकारत्मक दृष्टिकोण रखता है, अपनी वास्तविक पहचान के साथ उपन्यास में मौजूद है जबकि उपन्यास में अपनी नकारात्मक उपस्थिति के साथ मौजूद पात्रों की पहचान को उतने ही स्पष्ट रूप्ा में रखने का परहेज रचनाकार के सीमित दृष्टिकोण को ही दिखाता है और उपन्यास के पात्र पुष्कर की तरह के कमजोर व्यक्तित्व को ही गढ़ता है। यही वजह है कि एक राजनीतिक आंदोलन के उभार और उसके विफल होने या कार्यपद्धतियों में आते गये भटकाव के कारणों पर लिखने के लिए जिस सचेत दृष्टि की जरुरत होनी चाहिए, 'दावालन" में उसका अभाव खटकता है। एक आंदोलन के बिखराव को चंद लोगों के मत्थे मढ़कर न तो किसी आंदोलन का सही विश्लेषण संभव है और न ही किसी बढ़ी रचना को रचा जाना। यदि उपन्यास का उद्देश्य इतना ही सीमित है तो यह उपन्यास के महत्व को कम ही करता है। मुझे लगता है इस पर ध्यान दिया जाना चाहिए था।
चिपको आंदोलन और संघ्ार्ष वाहिनी के उभार और एक समय के बाद उसमें आये बिखराव के कारणों की पड़ताल मासूम किस्म की भावुकता से संभव ही नहीं। एनजीओ किस्म की वह मानसिकता जिसकी चपेट में संघ्ार्ष वाहिनी का आंदोलन प्ार्यावरण को बचाये के लिए स्वाहा होता गया, उसकी पड़ताल के लिए भावुक किस्म की मानसिकता से बचा जाना चाहिए और निर्मम तरह से उसकी चीर फाड़ की जानी चाहिए। आंदोलन के सामान्तर फैलती गयी मानसिकता एक ऐतिहासिक सच है जिस पर सार्थक चोट की जरुरत है, उपन्यास उससे परहेज करता दिखायी देता है। वरना कुछ लोगों का कैरिकेचर बनाकर कथा को न बुना गया होता। यह सवाल इस लिए भी उठता है, क्योंकि जहां उपन्यास में गिर्दा, घनश्याम सैलानी, गुणानंद पथिक आदि पात्र अपनी वास्तविक पहचान के साथ दिखायी देते हैं वहीं बाबा जीवन लाल और रामप्रसाद के बारे में कयास लगाने के लिए संकेत छोड़ दिये गये हैं। यहां उन कल्पित पात्रों की राजनीति से सहमति नहीं बल्कि इसलिए यह बात कही जा रही है कि उपन्यास का उद्देश्य इसी कारण बहुत सीमित हो गया है जबकि उत्तराखण्ड के राजनैतिक आंदोलन के एक ऐतिहससिक दौर को पकड़ने की जो कोशिश इसमें हुई है उस आधर पर यह एक महत्वपूर्ण कृति है।
-विजय गौड़