वैनगॉर्ड के हिन्दी प्रष्ठों पर
उन्नीस सौ उन्हत्तर-सत्तर के दिन थे। हाईस्कूल के इम्तहान से फारिग होकर मैं कविताएँ लिखता और छपवाने के लिए शहर के छोटे-छोटे अखबारों के दफ्तरों के चर लगाता हुआ घूमता रहता था। उन दिनों शहर में कुल जमा चार-छ: अखबार थे। दो-दो, चार-चार पेज के छोटे-छोटे। यदि इनमें से किसी अखबार के खाली रह गए कोने में मेरी कविता छाप दी जाती तो मैं लम्बे समय तक तितलियों के पंखों पर बैठ कर फूलों पर तैरता। तब जमीन बहुत छोटी और आसमान बहुत करीब लगता था। कमीज की जेब में कविता डालकर साईकल पर उड़ते हुए धूप, बारिश और सर्दी की परवाह किए बिना जब मैं किसी अखबार के दफ्तर में पहुँचता था तो सामने बैठा सम्पादक अचानक बहुत कद्दावर हो जाता था। वो मेरी कविता के साथ लगभग वही व्यवहार करता था जो किसी रद्दी कागज के टुकड़े के साथ किया जा सकता है। मैं हताश हो जाता पर हिम्मत नहीं हारता था। दरअसल, उन दिनों दैनिक अखबार तो एक दो ही थे- बाकी सब साप्ताहिक अखबार थे। पर पता नहीं क्यों इन छोटे-छोटे अखबारों को हाथ में लेते ही भूरे-मटमैले कागजों पर छपी काली इबारतों का जादू मुझे जकड़ लेता था और मैं सम्मोहित सा उनमें समा जाता।
यही वो दिन थे जब मुझे किसी ने "वैनगॉर्ड" के बारे में बतलाया था। आधा हिन्दी और आधा अंग्रेजी का अखबार। सप्ताह में निकलने वाले इस अखबार के पहले दो पेज अंगे्रजी में और आखिरी दो पेज हिन्दी के हुआ करते थे। अलबत्ता पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को बटोरे गए विज्ञापनों से इसकी मोटाई कुछ बढ़ जाती थी और ये हमारे लिए एक बेहद खुशी का अवसर होता। इससे जहाँ एक ओर रचना छपने की सम्भावना बढ़ती वहीं दूसरी ओर विशेषांक में छपने का गौरव भी हासिल होता था। इतने छोटे आकार, नगण्य सम्भावनाओं और सीमाओं के बावजूद भी यदि वैनगॉर्ड के हिन्दी प्रष्ठों के छपकर आने की प्रतीक्षा की जाती थी तो उसके पीछे महज एक शख्स की ताकत थी और वे थे सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ "कवि जी"। हैरानी तो ये कि यह प्रतीक्षा महज देहरादून में ही नहीं देहरादून से बाहर भी होती थी।
मशीनों की घड़घड़ाहट में
वो गर्मियों की चिलचिलाती धूप वाली एक सुनसान सी दोपहर थी जब मैं वैनगॉर्ड के दफ्तर में पहली बार पहुँचा था। पता नहीं उन दिनों सचमुच ये शहर कुछ ज्यादा बड़ा था या फिर किशोर मन के आलस्य के कारण करनपुर से कनाट प्लेस की दूरी, खासी लम्बी महसूस होती थी। जल्दी पहुँचने की कोशिश में मैने साईकिल तेज चलाई थी और अब हांफता हुआ मैं वैनगार्ड के दफ्तर के उस कोने में खड़ा था, जहाँ एक मेज के तीन तरफ कुर्सियाँ लगाकर बैठने का सिलसिला बनाया गया था। इसी के पीछे छापे खाने की चलती हुई मशीनों की घड़घड़ाहट थी, नम अंधेरे में फैली हुई कागज और स्याही की महक थी और काम कर रहे लोगों की टूट-टूट कर आती आवाजों का अबूझ शोर था।
"किससे मिलना है?" छापे खाने वाले बड़े दालाना नुमा कमरे से बाहर आते हुए एक आदमी ने मुझसे पूछा। सामने खड़ा सांवला सा आदमी पतला-दुबला और मझोले कद का था। सिर के ज्यादातर बाल उड़ चुके थे अलबत्ता मूँछों की जगह बालों की एक पतली सी लकीर खिंची हुई थी। पैंट से बाहर निकली हुई कमीज की जेब में एक पैन फंसा हुआ था और कलाई पर चमड़े के स्टैप से कसी हुई घड़ी।
""कवि जी से।'' मैंने झिझकते हुए कहा
"क्या काम है?" उन्होंने फिर पूछा
"कविता देनी है।"
"लाओ।" मैने झिझकते हुए कविता पकड़ा दी। समझ नहीं पाया कि ये आदमी कौन है। कविता पढ़ कर लौटाते हुए बोले
"कभी प्यार किया है।"
मैं शरमा गया। उन दिनों सोलह-सत्तरह साल का लड़का और कर भी क्या सकता था।
"पहले प्यार करो-फिर आना।" वो हंसे
तो यही थे सुखवीर विश्वकर्मा उर्फ कवि जी जो उस समय मेरी कल्पना में किसी भी तरह खरे नहीं उतरे थे। दरअसल वो एक ऐसा दौर था जब किसी कवि की बात करते ही दीमाग में पंत और निराला के अक्स उभर आते थे कुलीन और सम्भ्रांत। पैंट और कमीज में भी कोई बड़ा कवि हो सकता है- उस समय मेरे लिए ये सोचना भी कठिन था और फिर कवि जी तो बिल्कुल अलग, एक साधारण मनुष्य दिखाई दे रहे थे- कवि नहीं।
छापे खाने से अजीबो-गरीब कागजों पर खुद कर आए काले-गीले अक्षरों को काट-पीट कर प्रूफ रीडिंग करते हुए, सिग्रेट या बीड़ी का धुआँ उगलते हुए और मद्रास होटल की कड़क-काली चाय पीते हुए बीच-बीच में कवि जी कविता के बारे में जो कुछ भी समझाते थे- वो मेरे जैसे किच्चोर के लिए खुल जा सिम-सिम से कम नहीं था। मैं कविता लिख कर ले जाता तो कवि जी उसके भाव, बिम्ब और शब्दों पर मुझसे बात करते। गीत लिखकर ले जाता तो मात्रा और मीटर के बारे में समझाते। कवि जी ये सब बहुत मनोयोग से किया करते थे- बिल्कुल उसी तरह जैसे एक पीढ़ी, अपनी विरासत दूसरी पीढ़ी को बहुत चाव और हिफाजत के साथ सौंपती है। साहित्य के क्षेत्र में यही मेरी पहली पाठशाला थी।
देहरादून में साहित्य की पाठ्शाला
मैं ही नहीं धीरेन्द्र अस्थाना, नवीन नौटियाल, अवधेश, सूरज, देशबंधु और दिनेश थपलियाल जैसे कई दूसरे युवा लेखकों के लिए वैनगार्ड उस समय किसी तीर्थ की तरह था। सब अपनी रचनाएँ लाते और कवि जी को पढ़ाते। देहरादून के लगभग सभी लेखक-कवि कमोबेश "वैनगॉर्ड" में आया ही करते थे और वहाँ घंटों बैठा करते थे। अप्रतिम गीतकार वीर कुमार 'अधीर" और कहानी के क्षेत्र में मुझे अंगुली पकड़कर चलाने वाले आदरणीय सुभाद्गा पंत से भी मेरी पहली मुलाकात यहीं पर हुई थी। ये वैनगार्ड के मालिक जितेन्द्र नाथ जी की उदारता ही थी कि उन्होंने कभी भी इस आवाजाही और अड्डेबाजी पर रोक-टोक नहीं की। ये वो दिन थे जब कवि जी का किसी कविता की तारीफ कर देना- किसी के लिए भी कवि हो जाने का प्रमाण-पत्र हुआ करता था।
वे तरूणाई और उन्माद भरे दिन थे इसलिए हमें परदे के पीछे का सच दिखलाई नहीं देता था। पर आज सोचता हूँ तो कवि जी के जीवट का कायल हो जाता हूं। एक छोटे से छापे खाने में लगभग प्रूफ रीडर जैसी नौकरी करते हुए घर परिवार चलाना और दुनियादारी निभाना कोई सरल कार्य नहीं था। पर मैंने शायद ही कभी कवि जी को हताश देखा हो। वो जिससे भी मिलते जीवंतता के साथ मिलते। अपनी भारी आवाज को ऊँचा करके आगंतुक का स्वागत करते, बिठाते, चाय पिलाते और कभी-कभी तो मद्रास होटल का साम्बर-बढ़ा भी खिलाते थे अगर देखने को प्रूफ नहीं होते तो इतना बतियाते कि घड़ी कितना घड़िया चुकी है इसका होश न उन्हें रहता न सामने वाले को। हाँ! अलबत्ता शाम को वो कभी भी मुझे अपने साथ नहीं रखते थे। ये समय उनके पीने-पिलाने का होता था। अपने लम्बे साथ में मुझे ऐसा एक भी दिन याद नहीं आता जब उन्होंने मुझसे द्राराब की फरमाईश की है।
कवि जी के पास कलम का जो हुनर था वो उसी के सहारे अपने को इस दुनिया के भंवर से निकालने की कोशिश में लगे रहे। आर्थिक निश्चिंतता की कोशिश में ही उन्होंने पहले अपना एक अखबार निकाला था जब वो नहीं चला तो हरिद्वार में एक दूसरे अखबार में नौकरी कर ली। पर वहाँ से भी उन्हें वापिस आना पड़ा। सचमुच ये वैनगार्ड के स्वामी जितेन्द्र नाथ ही थे कि उन्होंने उज्जवल भविष्य की तलाश में जाते कवि जी को न तो जाने से रोका और न ही असफल होकर लौटने पर उन्हें दर-ब-दर होने दिया।
दूरदर्शन पर देहरादून का पहला कवि
उन दिनों की प्रतिनिधि पत्रिकाओं कादम्बिनी, माया और मनोरमा के साथ ही पंजाब केसरी और ट्रिब्यून योजना आदि में भी कवि जी की रचनाएँ छपा करती थीं। अगर मैं गलत नहीं हूँ तो कवि जी ही दूरदर्शन दिल्ली पर काव्य पाठ करने वाले देहरादून के पहले कवि थे। कवि जी जिस दिन आकाशवाणी से भुगतान लेकर लौटते या फिर किसी पत्रिका से पैसे आते उनकी वो शाम एक शहंशाह की शाम होती। कुछ लोग अपने आप जुट जाते थे और कुछ को संदेश भेज कर बुलाया जाता। फिर कवि जी इस "उल्लू की पट्ठी" दुनियो को फैंक दिए गए सिग्रेट की तरह बार-बार पैरों से मसलते और तब तक मसलते रहते जब तक कि उन्हें इसके कस-बल निकलने का यकीन न हो जाता। वो न तो अपनी कमियों पर परदा डालते थे और न ही अपनी खुशियाँ छुपाते थे। पर अपनी परेशानियों का जिक्र कम ही किया करते थे। दुर्घटना में अपनी एक बेटी की मृत्यु के बाद तो जेसे वो टूट से गए थे और लम्बे समय तक सामान्य नहीं हो पाए थे। पर उन्होंने तब भी किसी की हमदर्दी पाने के लिए अपनी आवाज की खनक को डूबने नहीं दिया था अलबत्ता बेटी का जिक्र आते ही वो कई बार फफक कर रो पड़ते थे।
उन दिनों देहरादून में कवि गोष्ठियों का प्रचलन था। लगभग हर माह किसी न किसी के यहाँ एक बड़ी कवि गोष्ठी होती। स्व0 श्री राम शर्मा प्रेम, कवि जी, श्रीमन जी इन गोष्ठियों की शोभा हुआ करते थे। और भी बहुत से कवि थे जिनका मुझे इस समय स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि आदरणीय विपिन बिहारी सुमन और रतन सिंह जौनसारी के गीतों की धूम थी। जिस गोष्ठी में ये दोनों न होते वो गोष्ठी फीकी ही रह जाती। सुमन जी के वासंती गीतों की मोहक छटा और जौनसारी जी की प्रयोगधर्मिता- गोष्ठियों के प्राण थे। ये एक प्रकार से बेहतर लिखने की मूक प्रतिद्वंदिता का दौर था। रामावतार त्यागी और रमानाथ अवस्थी से अगली पीढ़ी के ऐसे बहुत से गीतकारों को मैं जानता हूँ जिन्होंने अपने एक-दो लोकप्रिय गीतों के सहारे पूरी आयु बिता दी- उनकी बाकी रचनाएँ कभी प्रभावित नहीं कर पाईं। पर बहुत आदर के साथ मैं स्व0 रमेश रंजक और रतन सिंह जौनसारी का नाम लेना चाहूँगा जिन्होंने अपनी हर रचना में नया प्रयोग किया और सफल रहे।
गोष्ठियों का शहर
बहरहाल, ऐसी ही एक गोष्ठी में मैं पहली बार कवि जी के साथ ही गया था। कविता पढ़ने की उत्तेजना और गोष्ठी के रोमांच ने मुझे उद्वेलित किया हुआ था। किसी ने नया मकान बनाया था उसी के उपलक्ष्य में गोष्ठी का आयोजन किया गया था। मकान में अभी बिजली भी नहीं लगी थी इसलिए मोमबत्तियों की रौशनी में गोष्ठी हुई थी। मैंने भी किसी गोष्ठी में पहली बार अपनी कोई रचना पढ़ी थी। निच्च्चय ही कविता ऐसी नहीं होगी कि उस पर दाद दी जा सके इसीलिए सारे कमरे में सन्नाटा छाया रहा था पर कवि जी "वाह वाह" कर रहे थे। मेरा मानना है कि कवि जी के इसी प्रोत्साहन ने मुझे लेखन से जोड़े रखा और आगे बढ़ाया।
साहित्य की दलित धारा
कवि जी ने कई बार लम्बी बीमारियां भोगीं। कुछ अपने शौक के कारण और कुछ प्राकृति कारणों से। परंतु उनमें अदम्य जीजिविषा थी। वो जब भी लौट कर अपनी कुर्सी पर बैठे- पूरी ठसक के साथ बैठे। न उन्होंने हमदर्दी चाही- न जुटाई। कवि जी न तो अपनी कमजोरियों को छुपाते थे और न ही उन पर नियंत्रण पाने की कोशिश ही करते थे। जैसा हूँ- खुश हूँ वाले अंदाज में उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया। कवि जी अपने मित्रों की उपलब्धियों से भी उतना ही खुश होते थे जितना अपनी किसी उपलब्धि से। वो हर मिलने वाले से अपने मित्रों की चर्चा बड़े चाव और गर्व से किया करते थे। वो अक्सर श्याम सिंह 'शशि", शेरजंग गर्ग, विभाकर जी, अश्व घोष, विजय किशोर मानव और धनंजय सिंह की चर्चा बहुत स्नेह और अपनत्व से करते। इन सबके लेखन पर वो ऐसा ही गर्व करते थे जैसा कोई अपने लेखन पर कर सकता है। उन्हें गर्व था कि ये सब उनके मित्र हैं। स्व0 कौशिक जी को अपना गुरु मानते थे और बातचीत में भी उन्हें इसी सम्मान के साथ सम्बोधित भी करते थे। हिन्दी साहित्य में जिन दिनों दलित चेतना की कोई सुगबुगाहट भी नहीं थी कवि जी ने शम्बूक-बध जैसी कविता लिख कर अपने चिंतन का परिचय दिया था।
'सदियों का संताप" दलित रचनाकार ओमप्रकाश वाल्मीकि का पहला कविता संग्रह हैं, जिसकी खोज में दलित साहित्य का पाठक आज भी उस दर्ज पते को खड़खड़ाता है जो इसी देहरादून की बेहद मरियल सी गली में कहीं हैं। हिंदी साहित्य के केन्द्र में तो दलित विमर्श जब स्वीकार्य हुआ तब तक कवि जी (सुखबीर विश्वकर्मा) वैसी ही न जाने कितनी ही रचनायें, जो बाद में दलित चेतना की संवाहक हुई, लिखते-लिखते ही विदा हो गये। मिथ और इतिहास के वे प्रश्न जिनसे हिंदी दलित चेतना का आरम्भिक दौर टकराता रहा उनकी रचनाओं का मुख्य विषय रहा। अग्नि परीक्षा के लिए अभिशप्त सीता की कराह वेदना बनकर उनकी रचनाओं में बिखरती रही। पेड़ के पीछे छुप कर बाली पर वार करने वाला राम उनकी रचनाओं में शर्मसार होता रहा। कागज का नक्शा भर नहीं है देहरादून -विजय गौड
नौकरी की सीमाओं, आर्थिक विषमताओं और खराब होती सेहत से
जूझते हुए भी वो अंत तक अर्न्तमन से कवि बने रहे।
उन्होंने क्या लिखा, कितना लिखा और उनके लिखे हुए का आज के दौर में
क्या महत्व है- ये एक अलग मूल्यांकन की बाते है। परंतु उन्होंने जो लिखा
मन से लिखा, निरंतर लिखा और और जब तक जिए लिखते ही रहे।
हरिद्वार के एक कवि सम्मेलन से लौटते हुए, सड़क दुर्घटना में मौत के बाद ही
उनकी अंगुलियों से कलम अलग हो पाई थी।
अपनी नौकरी की पहली तनख्वाह मिलने पर जब मैं उनके पास गया और
पूछा कि मैं उन्हें क्या दूँ- तो उन्होंने कहा था
"मेरा चश्मा टूटा गया है- कोई सस्ता सा फ्रेम बनवा दो।"
शोध पूरा करने के बाद जब मैंने कविता लिखने की चेष्टा की थी तो मैंने पाया
कि मैं कविता से बहुत दूर जा चुका हूँ। कवि जी को मेरा कविता लिखना
छोड़ने का दुख था। पर मेरे कहानियाँ लिखने और आगे बढ़ने से भी
वो बहुत खुश थे और गर्व अनुभव करते थे। इस बात को वो अपने मित्रों से कहते भी थे।
आज जब भी मैं कवि जी को याद करता हूँ तो मुझे रतन सिंह जौनसारी के गीत की ये पंक्तियाँ याद आती हैं-
मेरे सुख का बिस्तर फटा पुराना है,
जिसे ओढ़ता हूँ वो चादर मैली है,
घृणा करो या प्यार करो परवाह नहीं
ये मेरे जीने की अपनी शैली है।
सच! कवि जी ने तो जैसे इन पंक्तियों में अपने जीवन का अक्स ही ढूंढ लिया था।
2 comments:
आत्मीय संस्मरण है। बधाई।
सीधी साधी जिंदगी को आपने रूमानी अंदाज मे लिखा है ,ओर दिलचस्प भी .....आख़िर मे कही कुछ गडबडी है स्पष्ट नही पढ़ा जा रहा है ...कृपया सुधार ले.....
Post a Comment