Saturday, April 18, 2009

हजारों दुख की बात होगी अगर औरतें मर्दों की तरह लिखने लगें

सामान्य भौतिक परिस्थितियां- एक ही काम को करते रहने की उक्ताहट, दुनिया जहान के कलह-झगड़े, ऐसी ही तमाम कठिनाईयां, जो कहीं कहीं भीतर ही भीतर किसी को भी छीज रही होती हैं औरशरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को भी समाप्त कर रही होती हैं, जीवन में उत्साह और विश्वास की अनुकूल स्थितियों के विरुद्ध गहरे संत्रास और निराशा को जन्म देती हैं। स्त्री जीवन की ऐसी तमाम कठिनाईयों को और ज्यादा बढ़ाती हुई और उन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल बनाती हुई संसार की उपेक्षाओं का दंश अल्पना मिश्र की रचनाओं की मूल कथा रहा है।
नफरत, विक्षोभ, निराशा, कड़ुवाहट जैसे भावों को एकल रूप में प्रस्तुत कर, रचनात्मक ऊर्जा व्यय करने की बजाय अल्पना ने ऐसे सभी भावों को गहन संवेदनाओं में गूंथ कर ऐसा कोलाज तैयार किया है जिसमें आत्म समर्पण की हद तक भरा त्याग और विरोध की विद्रोहात्मक मन:स्थितियों की पर्तों में उलझी हुई ढेरों स्थितियां जब काव्यात्मक सी लगती उनकी कहानियों की भाषा में प्रकट होती है तो गहरे अर्थों से भरी होती हैं। कई बार कहानी के तय मानदण्डों में कैद समझ की सीमायें उन अर्थों तक पहुंचने में चूकने लगती है जिसके लिए वे रची गयीं हैं। कहा जा सकता है कि उनकी कहानियों में छुपे उस अन्तर्निहित कथ्य, जो इनकी बुनावट में जटिल हो गया सा लगता है, को पकड़ने के लिए पाठक को एकाग्रचित होकर उन्हें पढना लाजिमी हो जाता है। विशुद्ध पितृसत्तात्मक समाज के घने कुहरे के बीच वो सब कुछ कह जाना जो स्त्रियों की व्यथा को सहानुभूति की तरह नहीं बल्कि आत्मसम्मान के साथ रख पाये और उस पर नफरत और घ्रणा के भावों की छाया भी पड़े, कहने के लिए जिस ईमानदारी और प्रतिभा की जरुरत होनी चाहिए, अल्पना की कहानियां उसकी गवाह हैं।
अल्पना की कहानियों में स्त्रीपन का लैंगिक प्रभाव ज्यादा स्पष्ट होकर उभरा है। कलछुल पर टंगी पृथ्वी की कल्पना और जीवन के संदर्भों में उसकी अभिव्यक्ति किसी पुरुष मानसिकता के लिए संभव है क्या ? शायद नहीं। ऐसे बिम्ब ओर प्रतिकों को रचते हुए शायद उसे भी चूल्हे चौके में उलझी उसी स्त्री का सहारा लेना पड़ेगा जिसके श्रम को अभी तक प्रभावी मर्दाना मानसिकता ने निरर्थक और बिना मूल्यों का माना है। यहां स्त्री और कथा साहित्य पर वर्जीनिया वुल्फ़ के विचारों का सहारा लेकर कहा जा सकता है कि यह हजारों दुख की बात होगी अगर औरतें मर्दों की तरह लिखने लगें, या मर्दों की तरह रहने लगें, क्योंकि संसार की विशालता और विविधता को देखते हुए अगर दो लिंग भी नाकाफी हैं तो फिर केवल एक लिंग से कैसे काम चलेगा ? क्या शिक्षा का यह कर्तव्य नहीं होता कि समानताएं पैदा करने की बजाय विभिन्नताओं को पैदा करे और मजबूत बनाए? स्त्री के जीवन में छाये अंधकार जो उसके श्रम की निरर्थकता के कारण हैं, आखिर कैसे उसे अपने इतिहास से टकराने और समाजसे जुड़ने में मद्द करेगें। क्या एक स्त्री के जीवन का इतिहास उसके आये दिन की गतिविधियों से अलग हो सकता है ? क्या कोई स्त्री यह बता सकती है कि वो यादगार हल्वा, जिसका स्वाद आपकी जीभ पर आज भी टिका है, उसने किस दिन बनाया था। बर्तनों की वो चमक जिसे देखकर तुम भ्रमित हुए थे कि शायद कलई किये जा चुके हैं, किस दिन साफ किये गये। इतमिनान के क्षणों में भी एक मर्द की शान को चार चांद लगाते वस्त्रो पर की गयी इस्तरी कीतारीख को याद रख जा सकता है क्या ? अपने स्त्रीपन के किन दिनों में दूसरों द्वारा अपवित्र मान लिये जाने पर ही नहीं उस स्थिति में लगातार काम पर खटने की मजबूरी से पैदा होती उक्ताहट वाला दिन कौन सा रहा होगा ? ऐसी ही गतिविधियों में लगी स्त्री के जीवन में यह गतिविधियां क्या इतिहास का हिस्सा हुई हैं कभी ? एक स्त्री के पास ऐसे किसी भी दिन को याद कर लेने की फुर्सत नहीं और ही उसे याद करने की जरुरत। शायद किसी भी मर्द मानसिकता केपास ऐसे कामों में कला या सृजनात्मकता को खोज लेने की दृष्टिसंभव नहीं। इसे तो कोई स्त्री मस्तिष्क ही संभव कर सकता है। अल्पना की कहानियों में स्त्री लैंगिकता का यह पक्ष खूबसूरत ढंग से उभरता दिखायी देता है।

भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा अल्पना मिश्र को आज वर्ष 2008 का हिन्दी का युवा लेखक सम्मान प्रदान किया गया। तीन अन्य युवाओं को भी अन्य भाषाओं के लिए पुरस्कृत किया गया। निर्मला पुतुल को संथाली भाषा के लिए,एस. श्रीराम को तमिल और मधुमित बावा को पंजाबी भाषा के लिए।
वरिष्ठ साहित्यकार और पहल के संपादक ज्ञानरंजन को हिंदी साहित्य में अमूल्य योगदान देने के लिए वर्ष 2008 के साधना सम्मान से सम्मानित किया गया। ज्ञानरंजन के अलावा तमिल साहित्य के लिए वेरामुत्थु, उड़िया साहित्य के लिए रामचंद्र बेहरा और पंजाबी साहित्य के लिए डा. महेन्द्र कौर गिल को भी सम्मानित किया गया।
उंडिया के चर्चित कवि रमाकान्त रथ कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे।
सम्मान समारोह के अवसर पर दिए गया अल्पना मिश्र का वक्तव्य प्रस्तुत है-


मेरे साहित्य में मेरा समय और समाज

- अल्पना मिश्र

सबसे पहले मैं भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता को और इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल को धन्यवाद देती हूं कि उन्होंने मुझे इस पुरस्कार के योग्य समझा। वह भी ऐसे समय में, जब साहित्य का परिदृश्य पुरस्कारों के बाजार जैसा दिखाई पड़ रहा है। जिस तरह की होड़ मची है, जोड़ तोड़ के जो किस्से सुनने में आ रहे हैं और स्वार्थों की टकराहट में साहित्यिक आपाधापी और घमासान का जो दृश्य आये दिन दिख रहा है, वह हमारे आज के असहनीय और हिंसक होते समाज का ही प्रतिबिम्ब है। ऐसे में यदि कुछ लोग व संस्थाएं, निष्ठा और ईमानदारी बचाए हुए काम कर रही हैं तो इस आशा और विश्वास को बल मिलता है कि सही के पक्षधर लोग, विवेक और न्याय बचे हुए हैं। यह भी कि आज जो लिखा जा रहा है, उसे पढ़ा और परखा भी जा रहा है।
आप सबने यह सम्मान देकर मेरे सिर पर जिम्मेदारी की जो दुधारी तलवार टांग दी है, उसका अहसास भी मुझे हो रहा है। मेरी जितनी समझ है, उसके मुताबिक मेरी पूरी कोशिश होती है कि अपने समय और समाज को ईमानदारी, निर्भयता और गंभीरता से अपने लेखन में व्यक्त कर सकूं और अपने जीवन में भी सामाजिक सरोकारों के प्रति अधिक सक्रिय हो सकूं, क्योंकि जितना जरूरी है जिम्मेदारी का अहसास, उतना ही जरूरी है उसके निर्वहन का साहस। और लेखक के लिए अभिव्यक्ति के साहस से बड़ा कोई अस्त्र नहीं।
जब मैं इस लेख को लिखने बैठी तो मेरे मन में बार बार यह आ रहा था कि पहले प्रेशर कुकर धोकर आलू उबाल लेती, तब लिखने बैठती तो अच्छा रहता। लेकिन आलू उबाल लेने के बाद लगातार दूसरे काम उससे जुड़ते चले जाते और लिखना, कई बार की तरह इस बार भी स्थगित हो जाता।
मैं जानती हूं कि इस छोटी सी गैरजरूरी लगने वाली बात से जो मैंने अपने लेख की शुरूआत की है तो यह बौद्धिक वर्ग को बहुत अटपटा लग सकता है। लेकिन सच यही है। यह छोटी सी बात यह बताती है कि स्त्री के दिमाग को किस हद तक अनुकूलित किया गया है। पढ़ने, लिखने, विवेक और समझ के साथ स्त्री को पहले अपने आप से लड़ना पड़ता है, अपने ही दिमाग के उस अनुकूलन से, जिसे भारतीय स्त्री की लुभावनी छवि के भीतर चौबीसों घंटे के अथक परिश्रम में बॉध दिया गया है और जिसमें जरा सी कमी रह जाने पर स्त्री अपने ही भीतर की ग्लानि से त्रस्त हो जाए। कहने का तात्पर्य यह नहीं है कि खाना बनाना एक अनावश्यक काम है। साफ सुथरा भोजन पकाना और संतुलित भोजन खाना सबके लिए जरूरी है, पर यह किसी एक की अनवरत जिम्मेदारी नहीं है। यह सबकी सहभागी जिम्मेदारी है। समय ऐसा है कि यहॉ घर बाहर कहीं भी, किसी भी समय एक बच्ची से लेकर बूढ़ी स्त्री तक को बेइज्जत किया जा सकता है, फिर उसके बनाए भोजन का अपमान करना कितना आसान होगा! घर के भीतर वैसे भी नियंत्रण के तरीके बाहर से कम हिंसक नहीं हैं। तमाम राजनैतिक, सामाजिक उथल पुथल के बावजूद यह आज भी हो रहा है। यहॉ लेनिन का वाक्य याद आ रहा है कि - "महिलाओं को मुक्त करने के सारे कानूनों के बावजूद वह एक घरेलू गुलाम बनी हुई है, क्योंकि घर का छोटा छोटा काम उसे दबाता है, मूर्ख बनाता है और बेइज्जत करता है। उसे रसोई और नर्सरी से बॉधता है और वह अपने श्रम को ---छोटे छोटे, दिमाग खराब करने वाले, बेतुके और दबाने वाली घरेलू चाकरी पर बर्बाद करती है।"
इसलिए इस पर विचार करना जरूरी लगता है कि स्त्री के लिए लेखन सबसे आखिरी में क्यों आ पाता है और आलू उबालने की चिंता सबसे पहले? आलू उबालना भूल जाने से होने वाली गड़बड़ियों की चिंता भी सबसे पहले? ऐसा क्यों?
क्या लिखना छूट जाने से गड़बड़ नहीं होगी?
हम, जो कुछ कहना, बताना चाहते हैं।
हम, जो दुनिया बदलने का स्वप्न देखते हैं।
हम, जो न्यायपरक दुनिया की बात करते हैं।
व्यवहारिक रूप में हमारा ही ये काम प्राथमिकता में क्यों नहीं आ पाता?
सोचना यह भी है कि घर के ये सारे काम, जो परम्परागत रूप से स्त्री के हिस्से माने जाते हैं, उन पर स्त्री का वास्तविक अधिकार कितना है? यह शुरू से रहा है कि ये घरेलू काम भी, जैसे ही अर्थिक लाभ के साथ जुड़ते हैं, उन पर पुरूषों का एकाधिकार हो जाता है। स्त्री बाहर कर दी जाती है। जिस सिलाई, कढ़ाई, भोजन पकाने, कपड़े धोने आदि काम को स्त्री का काम माना गया और जिसमें उसके श्रम और दिमाग को लगातार झोंका गया, वे स्त्री के लिए लाभ का सा्रेत, आर्थिक आजादी के आधार नहीं बन पाए। लेडीज टेलर, हलवाई, लांड्री आदि पर बाहर, पुरूषों का कब्जा रहा। यह कैसी विरोधाभासी स्थिति है कि जो पुरूष अपने कपड़े अपनी पत्नी से धुलवाता है, वही बाहर आजीविका के नाम पर दूसरों के कपड़े बिना किसी संकोच के धोने को तैयार है! इस सामंती सोच के विध्वंस के बिना ही आज की बदली परिस्थितियों ने और मुश्किलें खड़ी की हैं, जिनका विध्वंसकारी प्रभाव स्त्री और समाज के कमजोर तबके पर सबसे ज्यादा पड़ा है।
यहॉ एंगेल्स को याद किया जा सकता है कि "उद्यमों में समूचे महिला समुदाय का प्रवेश महिला मुक्ति की पहली बुनियाद है।"
आज की स्थिति यह है कि मुक्त बाजार तंत्र ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। इस मुक्त बाजार से उपजे सामाजिक, आर्थिक दबाव की मार सबसे अधिक स्त्रियों और समाज के इसी कमजोर तबके पर पड़ी है। कुछ वर्ष पहले तक तीसरी दुनिया की स्त्रियॉ इस बड़े बाजार को श्रम शक्ति के रूप में उपलब्ध नहीं थीं। वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था में शामिल जरूर थीं, पर न तो उन्हें किसान के रूप में मान्यता प्राप्त हुई और न ही घरेलू उत्पाद के उद्यम को बढ़ावा मिला, बल्कि उल्टा हुआ, बाजार तंत्र ने छोटे घरेलू उत्पाद्य के उद्यम और उनकी संभावनाएं समाप्त कीं। उसने स्त्रियों के श्रम की सही कीमत दिए बिना, उन्हें सस्ता श्रम की आसान उपलब्धता में बदल जाने की परिस्थितियॉ सृजित कीं। बहुराष्ट्रीय निगमों द्वारा तैयार की गयी फैक्ट्रियों में मजदूरी कर रही स्त्रियों को न तो ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार है और न ही स्वास्थ्य, सुरक्षा व अन्य जरूरी सुविधाएं हासिल हैं। इस तरह के असंगठित श्रम में वे अपने हक की लड़ाई भी नहीं लड़ पातीं। यही हाल मजदूरों का भी है। इसके साथ पारिवारिक तनावों और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार होना भी स्त्री के साथ जुड़ जाता है और पुरूषों के साथ जुड़ती है कुंठा, जिसकी मार अंतत: स्त्री को ही झेलनी होती है।
अब चूंकि परिवार के भीतर पुरानी परिस्थितियॉ बनी हुई हैं और बाहर का परिदृश्य बदल गया है। ऐसे में जिन कुछ स्त्रियों ने शिक्षा, आर्थिक स्वालम्बन से कुछ जगह बनाई है, या कह लें कि थोडा समृद्ध और ताकतवर दिखाई पड़ती हैं, वहॉ भी सिर्फ दिखने वाला भ्रमात्मक सच है। उनकी स्थिति इतनी विकट है कि वे पहले से कहीं ज्यादा अकेली हुई हैं और वर्गीय अलगाव की शिकार भी। इन स्थितियों ने उनके लड़ने की ताकत कम की है। उनकी व्यापक एकता, जो बन सकती थी, उसे कमजोर किया है। बाजार ने ऐसी स्त्रियों के लिए जो आर्थिक आजादी के क्षेत्र खोले हैं, वे भी सेवाक्षेत्र ही हैं। चाहे वह एयर होस्टेस हों, बी पी ओ कर्मचारी, दुकानों पर सेल्स का काम या किसी कम्पनी के प्रबन्धन में सहयोग सम्बंधी रोजगार। यह सभी किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी को अपनी सेवाएं देना ही है और सेवाक्षेत्र इतना टिकाउ नहीं है। क्योंकि आजादी तो उत्पादन पर निर्भर है। जब सेवा क्षेत्र टिकाउ नहीं है, तो यह दिखने वाली आर्थिक स्वतंत्रता टिकाउ कैसे हो सकती है?
साम्रज्यवाद ने मुक्त बाजार के नाम पर तीसरी दुनिया के देशों पर एकतरफा कब्जा किया है। उसकी नीयत साफ नहीं है और उसका उद्देश्य संसाधनों पर कब्जा जमाना और अपना मुनाफा है, तीसरी दुनिया के देशों में गरीबी और बेरोजगारी दूर करना नहीं। ऐसा पहले भी रहा है, पर तब औपनिवेशिक व्यवस्था साफ दिखाई पड़ती थी। दूसरे का शासन दिखता था। उसे स्थानीय आदमी समझ पाता था, पर आज वह दिखता हुआ नहीं है। वह बहुत व्यापक और छिपे हुए रूप में है। इस बड़े बाजार ने रोजगार की संभावनाओं के नाम पर सेवाक्षेत्रों का विस्तार किया है। उत्पादन न होने की स्थिति मे ये सेवा क्षेत्र समाप्त हो जायेंगे। आज इसी आधार पर दुनिया की बड़ी मंडी में लाखों लोग बेरोजगार हुए हैं। उसमें स्त्री भी बेरोजगार हुई है।
कुल मिला कर उत्पादन में हिस्सेदारी के बिना मुकम्मल आर्थिक स्वतंत्रता हासिल नहीं की जा सकती।
आज जरूर अमेरिका द्वारा बनाए गए पूंजी के साम्राज्य में आर्थिक मंदी का दौर आया है, पर इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि पूंजीवाद चरमरा गया है। अभी हाल में सम्पन्न हुआ योरोपीय देशों का जी 20 सम्मेलन तो ऑख खोलने वाला है। इस सम्मेलन का ब्रिटिश नागरिकों द्वारा विरोध किया गया। अमेरिका के प्रति नागरिकों का प्रत्यक्ष विरोध और जनता व शासक वर्ग के बीच का फासला खुल कर दिखाई पड़ा। परंतु साम्राज्यवादी ताकतों ने लगभग पूरे विश्व में आजमाई जा रही दमन की राजनीति के सहारे जनता के इस छोटे से विरोध की आवाज दबा दी। इस सम्मेलन में जो उपाय खोजे गए, उन पर गौर करें। जी 20 सम्मेलन में भाग लेने वाले देश इस आर्थिक मंदी से निपटने के लिए सम्मिलित रूप से अरबों, खरबों का धन लगायेंगे। प्रश्न यह है कि यह धन किसका है? बाहर विरोध करती जनता का! जनता की पूंजी कारपोरेट सेक्टर को सौंप देना कैसा उपाय है? अमेरिका तो ऐसे संकट में पहले ही जनता के खून पसीने की कमाई टैक्सों के रूप में लगा चुका है। और जरा अपने देश को देखिए - किस प्रेम के चलते भारत इस सबके बीच अंतरराष्ट्रीय बैंकों यानी आई एम एफ, विश्व बैंक और ऐशियाई विकास बैंक के नाम पर बीस अरब डालर यानी लगभग एक लाख करोड़ रूपए दे आता है? यह दान का पैसा किसका है? और भारत के प्रधानमंत्री को बिना किसी सार्वजनिक सम्मति, सूचना या जानकारी दिए बगैर ऐसा निर्णय करने का अधिकार कैसे है?
अमेरिकी राजनीति के शिकार, विकास के भ्रम में परेशानहाल तीसरी दुनिया के देच्चों पर भी आप नजर डाल सकते हैं।
आज प्रतिरोध की शक्ति की जितनी ज्यादा जरूरत है, उतना ही आम आदमी जीवन की जटिलताओं में उलझ कर इस सोच से निष्क्रिय होने लगा है। जन आन्दोलनों की गति धीमी हुई है। बाजार की चकाचौंध, प्रभुत्व और कठिन जीवन की थकान, उलझाव, समयाभाव व शो्षण की बारीक होती चालों ने भ्रमात्मक प्रगति के नाम पर बेहतर दुनिया के स्वप्न की धार कम कर दिया है। इस भयावह समय को अभ्यास की सुप्तावस्था में ही सहन किया जा सकता है।
स्वप्न और आकांक्षा का गुम जाना खतरनाक स्थितियों की ओर संकेत करते हैं। इसे ही पाश ''सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना---" कहते हैं। यह व्यवस्था आम जन के लिए किस हद तक निष्ठुर और अमानवीय है। इसी के बीच स्त्री भी है, जिसकी पुरानी परिस्थितियॉ तो हैं ही, आज की परिस्थितियों ने रहा सहा भी उससे छीना है। औद्योगिक विकास ने उसका समाज उससे छीन कर उसे अकेला और अलगावग्रस्त बनाया है। यह अलग बात है कि इस जूझने में कौन कितना बचा रह जाता है?
आलू उबालने की चिंता से लेकर, आलू के बाजार चिप्स आदि आदि से होते हुए जी 20 सम्मेलन तक का जो पूरा परिदृच्च्य है, उसी के बीच से स्त्री जीवन के सामाजिक सरोकारों को भी देखा जाना चाहिए। पूरे समाज पर बात किये बिना अकेले स्त्री जीवन पर बात नहीं की जा सकती। उसकी समस्याओं को आज के समय के भीतर, बाजार, व्यवस्था, राजनीति या जीवन के किसी भी पहलू से काट कर नहीं समझा जा सकता।
कई गुना जिम्मेदारी के बोझ से दबी स्त्री फिर भी च्चिक्षा और आर्थिक स्वालम्बन के लिए जद्दोजहद करती हुई मुक्ति के बारे में सोचने का साहस करती है। परिवार में दिन रात होने वाली छोटी छोटी बातें, घटनाएं, स्त्री जीवन को नियंत्रित करने के हथकंडे उसे कितना असामान्य और दिमागी तौर पर किस तरह विक्षिप्त बनाते हैं। इसे देखने , समझने की कोशिश भी जरूरी है। प्राय: उच्च शिक्षित परिवारों तक में स्त्री को निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं मिली है। यहॉ तक कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी उसके हिस्से नहीं है। यह सच कितनी स्त्रियॉ खुल का स्वीकार करने का साहस कर सकती हैं कि आज भी परिवार के भीतर तर्क, बहस करने पर सिर काट लिए जाने की धमकीभरी परम्परा हमारी भारतीय संस्कृति के रूप में गर्व के साथ उपस्थित है। उपर से यह समय, जो स्वतंत्रता के नाम पर उच्छृंखलता को बढ़ावा देता है। घुमा फिरा कर स्त्री को उसी राह ले जाता है, जिससे मुक्त होने की सारी को्शिश है। स्वतंत्रता की समझ के लिए विवेक बुद्धि की जरूरत है, उच्छृंखल हो जाने की नहीं।
यह दु:खद घटना आपको बताना चाहती हूं कि अपनी 'मिड डे मील" कहानी पूरी करने के बाद यह खबर मुझे मिली कि उत्तर प्रदे्श में किसी गॉव के ग्राम प्रधान ने स्कूल के हेड मास्टर की गला दबा कर हत्या इसलिए कर दी कि वह स्कूल में 'मिड डे मील" के पैसों के लिए विद्यार्थियों की उपस्थिति सौ प्रतिशत दिखाने को तैयार नहीं था और शायद पैसों की बंदरबाट के लिए भी नहीं। इस जिद की कीमत उसकी जान हो सकती है। सरकारी अस्पतालों का हाल दयनीय है और चमकते हुए प्राइवेट अस्पताल आम आदमी की जेब के बाहर की चीज हैं। जीवन की अत्यंत आवश्यक सामूहिक आवश्यकताओं के प्रति हमारी सरकारों का रवैया ऐसा ही है। हर सार्वजनिक आवश्यकताओं की चीजों का प्राइवेटाइजेशन। यह निजीकरण की व्यवस्था यद्धपि विकल्प के रूप् में है, पर यह इतनी आक्रामक है और प्राय: विकल्प की बजाय सिर्फ और सिर्फ वही बची रहती है, जिसकी चपेट में आम आदमी पैसों से लुट कर बेकार सिद्ध किया जाता है।
यही हाल शिक्षा जगत का है। व्यावसायिक शिक्षा के नाम पर जो कुछ आम आदमी के हित में था,उसे उपलब्ध था, वह उससे छीन कर निजी हाथों में सौंप दिया गया है। सरकारी कॉलेजों में टीचर्स ट्रेनिंग कोर्स खोलने की बजाय निजी संस्थानों को ये कोर्स बॉटे गए हैं और अब ये इतने मॅहगे हैं कि आम आदमी की पॅहुच से बाहर हो चुके हैं। लड़कियों के लिए ये एक महत्वपूर्ण कोर्स हुआ करते थे, खर्च की दृष्टि से भी और आर्थिक संबल चुनने की दृष्टि से भी। उनका बड़ा नुकसान हुआ है। नुकसान छात्रों का भी हुआ है। जीविका के माध्यम की एक बड़ी तैयारी को पैसों के खेल में बदल दिया गया है। अन्य व्यावसायिक पाठ्यक्रम तो वैसे भी बड़े मॅहगे हैं।
एक तरफ सांस्कृतिक संकट के हाहाकार के बावजूद तमाम सांस्कृतिक अवधारणाएं चूर हुई हैं और सोवियत संघ के विघटन के बाद पूंजीवाद ने तीव्र उभार पाया है। आर्थिक उदारीकरण की नीति के साथ पूंजी के वर्चस्व का विकराल स्वरूप और विकास का भ्रमात्मक दृश्य सामने है। इस दिखने वाले आर्थिक विकास के पीछे बेरोजगारी, भुखमरी, अन्याय, अत्याचार, जल, जंगल, जमीन से बेदखली, सार्वजनिक हितों की अनदेखी और सार्वजनिक उपयोग के निजीकरण पर बल, आतंकी गतिविधियों से लेकर प्रगति के प्रतीकों के लिए भयावह विस्थापन तक भयानक तरीके से उपलब्ध हुआ है।
पूंजीवादी वर्चस्व से नियंत्रित इस समय ने जीवन को उपर से भ्रमात्मक और भीतर अधिक जटिल, अधिक मुच्च्किल बनाया है। हिंसा का आनंदीकरण इसी समय की देन है। दूसरी तरफ इस समय ने इतिहास, परम्परा, मूल्यों और अस्मिता का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए भी विवश किया है। इस पुनर्मूल्यांकन की जरूरत ने साहित्य का परिदृ्श्य भी बदला है। वह पहले से अधिक मुखर हुआ है। उसकी तकनीक भी पहले से बदली है। आज के कथा साहित्य ने तो कविता की तकनीक के प्रयोग के साथ साथ गद्य के लगभग सभी रूपों को समाहित कर लिया है। समय के इस निरन्तर फिसलते भ्रमात्मक यथार्थ को पकड़ने की कोशिश कर रहे आज के साहित्य को पुराने औजारों से नहीं मापा जा सकता।
साम्राज्यवादी ताकतों का असली चेहरा और पूंजीवाद के प्रबलतम दु्ष्परिणाम के निशान बहुत साफ आम आदमी की जिंदगी में दिखाई पड़ते हैं। इस तरह सारी चकाचौंध के पीछे के ये सच, जिन्हें बेदखल मान लिया जाता है, उपस्थित होते हैं और इन्हें देखने, समझने और दिखाने की बेहद जरूरत है। आज के समय में सबसे बड़ी बेदखल कर दी गयी चीज इंसानियत है।
मेरे दौर के साहित्य में इसी समय और समाज को रचनाकारों ने अलग अलग तरह से पकड़ने की कोशिश की है। एक जिम्मेदार लेखक समाज, व्यवस्था, राजनीति, धर्म, विश्व की गतिविधियों आदि आदि कारक तत्वों को नजरअंदाज करके कैसे लिख सकता है? अब यह जो समय और समाज है, वह मेरे साहित्य में कितना अभिव्यक्त हो पाया है, इसका मूल्यांकन पाठक ही बेहतर कर सकता है, फिर भी मैने यहॉ कोशिश की है कि अपने लेखन में प्रकट किए गए अपने मंतव्य को आपके सामने स्प्ष्ट कर सकूं।
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Friday, April 17, 2009

यह विदाई का नहीं साथ चलने का वक्त है

यादवेन्द्र जी से हमारे पाठक अच्छे से परिचित हैं। विज्ञान के अध्येता यादवेन्द्र जी के काम के उस अनूठेपन, जिसमें मानव मूल्यों को बचाए रखने की उनकी चिताएं बार बार प्रकट हुई हैं, को भी पाठकों ने अच्छे से पहचाना हैं। यादवेन्द्र जी की यह खूबी भी है कि वे ढूंढ कर ऐसे साहित्य के अनुवाद से हिन्दी पाठक जगत को अवगत करानेके लिए पूरी प्रतिबद्धता के साथ जुटे हैं। फिलिस्तिनी कवि ताहा मुहम्मद अली को भी वे इसी के चलते खोज पाएं हैं।उनके द्वारा किए गए ताहा मुहम्मद की कई कविताओं के अनुवाद हमें प्राप्त हुए हैं। यहां उनके द्वारा भेजा गया ताहा मुहम्मद का संक्षिप्त परिचय और दो कविताएं प्रस्तुत हैं। अन्य कविताएं भी प्रकाशित हों तब तक के लिए कुछ प्रतीक्षा तो करनी ही होगी। सफर में बने रहें तो जल्द ही उन्हें भी पढ़ पाएंगे।

1931 में गलिली इलाके के सफ्फूरिया गांव में ताहा मुहम्मद अली का एक साधारण किसान परिवार में जन्म हुआ, और प्राइमरी स्तर कुल जमा 3 या 4 साल की पढ़ाई हुई। 1948 में इजरायल बना तो जबरन बड़े पैमानेंपर कब्जा करने का अभियान चलाया गया, अनेक गांव नेस्तेनाबूद कर दिए गए और हजारों स्थानीय फिलीस्तिनी परिवारों को सदा के लिए उनकी जमीन से बेदखल कर दिया गया---ताहा का परिवार भी उनमें से एक था। कुछ साल लेबनान में रहने के बाद यह परिवार नजारेथ (जो उनके गांव से कुछ दूर बसा हुआ एक इजरायली शहर है ) गए और यहीं का होकर रह गया। ताहा ने जीविका के लिए अंडे और छिट-पुट सामान बेचे और अब एक दुकान चलाते हैं। इसी दुकान में स्थानिय कवियों और लेखकों का जमावड़ा भी होता है। दिन भर दुकान चलाने के बाद ताहा रात में महान अरबी ग्रंथों का और साथ-साथ विश्व के महान ग्रंथों को अध्ययन करते रहें हैं। उनका पहला काव्य संकलन 42 साल की उम्र में छपा, और अब तक 5 काव्य संकलन और एक कथा संकलन छपा है। अपने अन्य समकालीन फिलिस्तिनी कवियों --- महमूद दरवेश और सामिह अल कासिम की तरह ताहा प्रतिरोध की कविताएं नहीं लिखते, बल्कि उनकी कविताओं का मूल स्वर विस्थापन और उजड़ जाने की व्यथा है। कोई ताज्जुब नहीं कि उनकी कविताओं और जीवन को दुनिया के सामने लाने का श्रैय पीटर कोल और उनकी पत्नी (दोनों यहूदी हैं) को है।





ताहा मुहम्मद अली

ढंग से विदाई भी नहीं

हम तो रोए नहीं बिल्कुल
विदा होते हुए
क्योंकि न तो थी हमारे पास फुर्सत
और न ही थे आंसू -
ढंग से हमारी विदाई भी नहीं हुई।

दूर जा रहे थे हम
पर हमें इल्म नहीं था
कि हमारा यह बिछुड़ना है सदा के लिए-
फिर कहां से बहती ऐसे में
हमारे आंसुओं की धार ?

बिछोह की वह पूरी रात थी और हम जगे नहीं रहे
(और न बेहोशी में सो ही गए)
जिस रात हम बिछुड़ रहे थे सदा-सदा के लिए।

उस रात
न तो अंधेरा था
न थी रोशनी
और न निखरा चांद ही।

उस रात
हमसे बिछुड़ गया हमारा सितारा-
चिराग ने किया हमारे सामने स्वांग
रतजगे का-
ऐसे में सजाते कहां से
अभियान
जागरण का ?

हो सकता है

पिछली रात
सपने में
देखा मैंने खुद को मरते हुए।

मौत खड़ी थी बिल्कुल सामने मेरे
आंखों से आंखें मिलाए
बड़ी शिद्दत से महसूस किया मैंने
कि सपने के अंदर ही है यह मौत।

सच तो यही है-
मुझे मालूम नहीं था पहले
कि मौत अपनी
अनगिनत सीढ़ियों से
बहकर उतर आएगी इतनी तरलता से:
जैसे धवल, गुनगुनी
प्रशस्त और मोहक काहिली
या सुस्ती की उनींदी कर देने वाली अनुभूति।

आम बोल चाल में कहें
तो इसमें क्लेश नहीं था
न ही था कोई भय;
हो सकता है
मौत को लेकर
हमारे भय के अतिरेक की जड़ें
जीवन लालसा के उद्वेग में
धंसी हुई हों गहरी-
ळो सकता है
कि हो ऐसा ही।

पर मेरी मौत में
एक अनसुलझा पेंच है
जिसके बारे में विस्तार से
अफसोस कि मैं बता नहीं पाऊंगा-
कि सहसा उठती है सिहरन पूरे बदन में
जब बोध होता है पक्का
अपने मरने का-
कि अब अगले ही पल अन्तर्धान हो जाएंगे
हमारे प्रियजन
कि हम नहीं देख पाएंगे उन्हें अब कभी भी
या कि सोच भी न पाएंगे
अब कभी उनके बारे में।

अनुवाद- यादवेन्द्र

Wednesday, April 15, 2009

उड़ान से पहले

कृष्णा खुराना वरिष्ठ कवियत्री हैं। देहरादून में रहती हैं। अपने युवा काल के उस दौर में जब देहरादून का साहित्य जगत कथाकार शशिप्रभा शास्त्री, कुसुम चतुर्वेदी जैसी महिला रचनाकारों से गुंजायमान था, वे कविता लिख रही थीं। स्वभाव में अपनत्व और खुलेपन के बावजूद प्रकाशन का संकोचपन उनमें उस वक्त भी रहा। फिर सामाजिक गतिविधियों में अपनी बढ़ती सक्रियताओं के चलते एक रचनाकार के रूप में भी प्रकट हो जाने को वे छुपाए रहीं। अपने रचनाकार की पहचान को एक पाठक की पहचान में ही बदलकर भी वे पिछले लगभग 30 वर्षों से चली रही देहरादून की साहित्य संस्था संवेदना और दूसरी साहित्यिक, सांस्कृतिक गतिविधियों में अपनी जीवन्त उपस्थिति के रूप में रहीं। उनके निकट के मित्र जानते हैं कि कविताएं तो वे लगातार ही लिखती रहीं। उनकी रचनाओं के उसी पुलिंद से, जो संग्रह के रूप में बंध जाने की स्थितियों के बीच डोल रहा है, प्रस्तुत हैं उनकी दो कविताएं।

कृष्णा खुराना

उड़ान से पहले

नयी उड़ान भरने को आतुर
तुम्हारे ताज़े पंख फ़डफडा रहे हैं!
तुम्हारी आंखो में अनगिनत
जिज्ञासाओं के बेचैन प्रश्न
मुझे देख रहे हैं एकटक
झिलमिलाते सितारों की तरह!

तुम्हारी तनी हुई ग्रीवा
दौड़ लगाने को आतुर
युवा अश्व से विकल तुम्हारे पैर
नयी-नयी दूरियां नापने को
निकल जाना चाहते हैं फ़ौरन!

तुम बहुत व्याकुलता से
इतंजार कर रहे हो मेरे उत्तर का!
उलझन की कंटीली झाड़ियों में
अटक गयी हूँ मैं!
कैसे बोलू पूरा सच या पूरा झूठ
दोनो ही आशिव हैं तुम्हारे लिये!

जीवन के आकाश में
नहीं हैं केवल सुख के बादल,
विच्च्वास के महकते फूल ही
नहीं हैं हर तरफ!
नुकीले पंजों वाले खूनी बाज़ भी हैं राहों में!

हरे मैदान जितने दीखते हैं
उतने समतल, निरापद हैं नहीं
तुम्हारी चाल को निगल सकते हैं
तुम्हे विकलांग कर सकते हैं
अदेखा खड्ड और खाईयां
झपट सकते हैं कहीं भी
कोने में छिपे इन्सानी जानवर!

लेकिन कैसे कहूं ये सत्य
जो उड़ने से, दौड़ने से पहले ही
भयग्रस्त कर देगा तुम्हे!

तुम्हारी दिपदिपाती आंखो के स्वपन तोड़ना नहीं चाहती
तुम्हे दहशत से भरना नहीं चाहती मैं!
बस इतना ही कहती हूं
बच कर रहना, स्वार्थ
अन्याय और शोषण की
कंटीली झाड़ियो से।

पाप पुण्य, आस्था अनास्था से परे
प्यार की किरणें जगमगाती हैं
हर अंधेरे को चीरती
धारण करना इन किरणों को
कवच की तरह!

मुझसे मत पूछो जीवन के सत्य को
दूसरों से सुना सत्य अपनी नहीं होता,
अपना सत्य स्वयं ही खोजना होता है।
खोज लोगे तुम भी गिरते संभलते
अपने समय के अपने सत्य को एक दिन!


झील

पर्वत की बाहों में बंध गयी है झील
हरे-हरे रंगो में रंग गयी है झील।
घने-घने पेड़ो की गर्म-गर्म सांसो से
इस तट से उस तट तक सिहर रही झील!

नीली-पीली नावें हैं, रंगे-रंगे लोग
किस-किस का बोझा उठाती है झील!

सुबह-सुबह सोना है, सांस ढले नीलम है
रातों को स्याह खुले गेसू है झील!

सूरज का ताप पिये, बूदों की चोट सहे
लहर-लहर हंसती है, रोती है झील!

एक नयन शबनम है, एक नयन धूप
हलचल में जीती है औरत है झील!

दिया-दिया रोच्चन है, तल-तल अंधेरा
इनका भी, उनका भी दर्पण है झील!

Monday, April 13, 2009

एक कप काफी पांच पानी




देहरादून १३ अप्रैल २००९
दिल्ली में मोहन सिंह पैलेस का कॉफी हाऊस अड्डा था कथाकार विष्णु प्रभाकर जी का। विष्णु जी और भीष्म साहनी वहीं बैठते थे। कवि लीलाधर जगूड़ी की स्मृतियों में विष्णु प्रभाकर के उस कॉफी हाऊस में बैठे होने का दृश्य उतर गया।

कथाकार विष्णु प्रभाकर को विनम्र श्रद्धाजंली देते हुए देहरादून की साहित्यिक संस्था संवेदना की गोष्ठी में जब उनके अवदान को याद को याद किया गया था तो जो किस्सा कवि लीलाधर जगूड़ी की जुबान से सुना उसका तर्जुमा करके भी रख पाना संभव नहीं हो रहा है।
जगूड़ी कह रहे थे -
दिल्ली का वह कॉफी हाऊस था ही ऐसी जगह जहां जुटने वाले साहित्यकारों के बीच आपसी रिश्तों में एक ऐसा अनोखा जुड़ाव था कि विष्णु प्रभाकर उसकी एक कड़ी हुआ करते। वे किसी भी टेबल पर हो सकते थे। एक ऐसी टेबल पर भी जहां उसी वक्त पहुंचा हुआ कोई कॉफी पीने की अपनी हुड़क को इसलिए नहीं दबाता था कि सबको पिलाने के लिए उसके पास प्ार्याप्त पैसे नहीं है। टेबल पर उसके समेत यदि छै लोग हों तो एक कप कॉफी और पांच गिलास पानी मंगाते हुए उसे हिचकना नहीं पड़ता था। वहीं कॉफी हाऊस के पानी को पी-पीकर उस दौर के युवा और आज के वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी और प्रभाति नौटियाल सरीखे उनके अभिन्न मित्र उस समय तक, जब तक कि किसी एक दिन का प्ार्याप्त भोजन जुटा पाना उनके लिए संभव नहीं हुआ था, अपने शरीर में उसी पानी की ऊर्जा को संचित करते थे। बाद में जब उन तीनों ही मित्रों का जे.एन.यू. में दाखिला हो गया हो गया और रहने ठहरने के साथ-साथ खाने का जुगाड़ भी तो पहले दिन छक कर खाना खा लेने के बाद वे तीनों ही बीमार पड़ गए। मोहन सिंह पैलेस, कॉफी हाऊस के अड्डे वालों को जब पता लगा कि बहुत दिनों से खाना न खा पाने के बाद ठीक से मिल गए खाने ने उन तीन युवाओं की तबियत बिगाड़ दी तो हंसी ठठों से कॉफी हाऊस गूंजने लगा। विष्णु प्रभाकर और भीष्म साहनी की हंसी के बुलबुले भी उठने लगे।
शब्दयोग के संपादक, कथाकार सुभाष पंत ने विष्णु प्रभाकर के रचनाकर्म पर विस्तार से बात करते हुए इस बात पर चिन्ता जाहिर की कि हिन्दी आलोचना की खेमेबाजी ने उनके रचनाकर्म पर कोई विशेष ध्यान न दिया।
वरिष्ठ कवियत्री कृष्णा खुराना ने शरत चंद की जीवनी आवारा मसिहा को विष्णु जी के रचनाकर्म का बेजोड़ काम कहा।
विष्णु प्रभाकर की कहानी धरती अब भी घूम रही है का पाठ इस मौके पर किया गया। गोष्ठी में डॉ जितेन्द भारती, गुरुदीप खुराना, नितिन, प्रेम साहिल आदि भी उपस्थित थे।

Wednesday, April 8, 2009

इस शहर मे कभी अवधेश ऒर हरजीत रहते थे(२)

बहुत छोटी जगहों से गुजरती बहुत सी जल धारायें आपको मिल जायेंगी जिनका नाम जानने को आप उत्सुक होते हैं. आस-पास किसी को खोजते हैं: कोई है जो इस वेगवती जल-राशि की संञा से मुझे परिचित करायेगा! अक्सर कोई मिलता नहीं है और जब कोई मिलता है तो प्यास नहीं बुझती!


नवीन नैथानी

मेरी तरह जो तूने अगर देखना हो सब
मेरी तरह ही खुद को बदलने की बात कर

हरजीत का यह शे’र उसके मिजाज को तो बताता ही है बल्कि देहरादून की फ़ितरत को भी बहुत कुछ बयान करता है.दोहराव के लिये मित्रों से क्षमा मांगते हुए कहना पड़ रहा है कि कमबख्त यह शहर ही कुछ ऎसा है , कि इसकी कानाफूसियों में लोगों की कमज़र्फियों , बदकारियों , मक्कारियों ऒर गुनाहों की फुसफुसाहटें जगह नहीं पातीं बल्कि वहां आगत रचनाओं की संभावनायें टटोली जाती हैं.

यहां मैं उन लम्हों को आपके साथ बांटना चाहूंगा जहां अवधेश ऒर हरजीत शहर का अनुसंधान करते थे. कुछ शामों का जिक्र होगा, कुछ उनींदी सुबहों के बयां होंगे,चन्द दुपहरों की तपिश में सुलगते हुए मॊन का निःशब्द पाठ होगा.मित्रों के बीच घटित होती हुई स्वप्न सी किसी दुनिया की रचना-प्रक्रिया का अहेतुक साक्षात्कार होगा, ऒर हां! मानव-मन को जानने समझने कोई व्याकुल छटपटाह्ट होगी.

देहरादून से मसूरी जाते हुए तब राजपुर से गुजरना ही होता था.प्रसिद्ध शायर दीवान सिंह ’मफ़्तून’ पर लिखे लाजवाब संस्मरण में मदन शर्मा राजपुर का जिक्र इस ब्लोग में पहले भी कर चुके हैं. योगेंद्र आहूजा भी राजपुर की बाल्कनी को यहीं याद कर चुके हैं. अब मसूरी जाते हुए राजपुर जाना जरूरी नहीं रह गया है. पहले ही रास्ता कट जाता है. यह जगह डाइवर्जन कहलाती है. यह नाम मुझे बहुत प्रतीकात्मक लगताहै. इस जगह से लोग बहुत तेजी से गुजर जाते हैं - मसूरी की तरफ. जिनमें तेजी नहीं होती वे राजपुर की तरफ चले जाते हैं. आजकल एक दूसरा शब्द भी प्रचलन में आ गया है-बाईपास. इस शब्द में किसी जगह से कतरा कर निकल जाने का भाव है. डाइवर्जन में आपके पास चुनाव की स्वतंत्रता होती है.
इस डाइवर्जन पर एक बार शेखर जोशी मिल गये थे-अनायास.यह १९८९ या ९० की बात है. मेरे साथ अवधेश ऒर हरजीत थे. हम राजपुर से लॊट रहे थे-पैदल. वे मेरे साहित्याचार के शुरुआती दिन थे-उन दिनों में प्रथम प्रेम की सी मादकता , उल्लास ऒर पागलपन सब एक-दूसरे में गड्ड-मड्ड हुए जाते थे. वह शायद जून या सितंबर की कोई शाम थी.यह देहरादून में ही संभव है कि आप जून ऒर सितंबर की शाम में फ़र्क महसूस नहीं कर सकें. जून में भी अक्सर इस तरह का मॊसम हो जाता कि आप टिप-टोप में बैठे हैं( यह उन दिनों का मशहूर साहित्यिक अड्डा था, इस रेस्त्रां के मालिक श्री प्रदीप गुप्ता बडे़ शान्त भाव से लेखकों को झेलने का माद्दा रखते हैं. अब नये वक्त की मज़बूरियां उस जगह पर नये उत्पाद खपा रही हैं . इस पर कभी विस्तार से बातें होंगी.) तो अचानक बादल चले आये!
"राजपुर का मॊसम हो गया"हरजीत कह जाता ऒर लोग समझ जाते कि अब हम तीन आदमी चुपचाप वहां से खिसक लेंगे. राजेश सकलानी के अन्दर अद्भुत प्रेक्षण -क्षमता है. उन क्षणों के बारे में राजेश ने मुझसे कई बार आंखों के ईशारे के बारे में कहा है. तीन जोडी़ आंखें आपस में ईशारे करती हुईं ; चेहरे पर कोई जुम्बिश नहीं, थोडी़ पलकें झुकीं , जरा पुतलियां हिलीं और कार्य-क्रम तय हो गया.
सितंबर में तो वैसे भी बादल रहते हैं.तो यह ठीक- ठीक याद नहीं पड़ रहा कि वह बादल कौन से थे ? हां, डाइवर्जन पर शेखर जोशी का मिलना याद है. डाइवर्जन के पास एक ठेले पर हम भुट्टा खोज रहे थे-शायद वह सितंबर की ही शाम थी कि सामने से शेखर जोशी हमारे पास चले आये. इससे पूर्व मैं उनसे IIT कानपुर मे मिला था- गिरिराजजी ने वहां एक कार्य-क्रम करवाया था. IIT समवाय और रचनात्मक लेखन केंद्र के बैनर तले. यह संगमन श्रंखला की शुरुआत से पहले की बात है. वहां एक सत्र की अघ्यक्षता शेखर जोशी
और राजेंद्र यादव कर रहे थे और आपका खाबिन्द वहां जोश में बहुत कुछ कह गया था जिसकी ध्वनी कुछ यूं निकलती थी कि संपादकों को साहित्य के प्रवाह में बाधा नहीं डालनी चाहिये. विचार-धारा के नाम पर चल रही बहसों पर भी कुछ सवाल उठाये थे. संदर्भ उन दिनों चल रही बहस "सेक्स और जनवाद" का था. तो डाइवर्जन में हम जब भुट्टा ढूंढ रहे थे अचानक शेखर जोशी सामने दिखायी दिये. मैं उन्हें पहचान नहीं पाया. एक नये लेखक के लिये यह बात कल्पनातीत थी कि इतने बडे़ कथाकार बीच सड़क पर इस आत्मीयता से मिल सकते हैं. हरजीत ऒर अवधेश भी उनसे पहले नहीं मिले थे. शेखर जोशी उन दिनों अक्सर देहरादून आते जाते रहते थे. उस शाम उनसे बहुत देर तक बातें होती रहीं. अवधेश अक्सर इस तरह के अवसरों पर नहीं बोलता था और मेरे लिये तो बस शेखर जोशी के साथ होना ही बहुत था.हरजीत ही ज्यादातर बातें करता रहा. घण्टाघर के पास लोकल बस -स्टैण्ड में हमने जोशी जी को विदा किया.
यहां डाइवर्जन से घण्टाघर तक का सफ़र किस तरह तय किया गया, यह बात महत्वपूर्ण है. हमने शायद बस ली थी फिर आधे रास्ते में उतर लिये थे.बारिश से बचने की कु्छ कोशिशें थीं
और शहर की तारीफ में कहे गये हरजीत के कुछ शे’र थे.यह याद नहीं कि हरजीत ने उस शाम क्या सुनाया था लेकिन राजपुर की ऊंचाईयों से देहरादून का जिक्र वह अक्सर करता था-
नक़्शे सा बिछ गया है, हमारा नगर यहां
आंखें ये ढूंढती हैं, कहीं अपना घर मिले

राजपुर के ऊपर -शहन शाही आश्रम नाम की जगह है. उस जगह तक पहुंचने से पहले मुझे उसका नाम आकर्षित करता था. इस नाम में एक जादू है. शुरू -शुरू में मुझे शहन शाही की शाही धज नहीं दिखायी पड़ती थी बल्कि एक शहनाई मैं वहां सुना करता था. तो जब पहली बार शहनशाही आश्रम देखा तो अच्छा नहीं लगा. मुझे वह एक वीरान जगह दिखायी पडी़ थी. वह हरजीत और अवधेश से मुलाकात से कुछ वर्ष पूर्व की बात है. तब मैं लोकल बस में बैठ जाता था और आखिरी पडा़व का टिकट लेकर कुछ नयी जगहों के बीच से गुजर जाता था. उन दिनों लोकल बस बहुत कम जगहों के लिये जाती थीं और बहुत कम संख्या में. लिहाजा , उसी बस से वापस लौटना मेरी मजबूरी होती थी.यह वक्त काटने का शगल तो नहीं था पर अनदेखी जगहों को जानने की भूख जरूर थी.इस जानने की शुरूआत जगहों के नाम से ही होती थी.
उन जगहों के नामों मे अद्भुत आकर्षण होता है. देखने या जानने - बूझने से पहले ही एक छवि बस जाती है.
(कुछ नाम जो इस वक्त याद आ रहे हैं,लगे हाथ उन्हें भी दर्ज करता चलूं; हर्षिल-गंगोत्री
और उत्तरकाशी के बीच एक जगह. मंडल-गोपेश्वर से आगे चौपता जाते हुए एक प्यारी सी ठांव. अल्मोडा से कौसानी जाते हुए एक जगह आती है: रन-मन . बहुत छोटी जगहों से गुजरती बहुत सी जल धारायें आपको मिल जायेंगी जिनका नाम जानने को आप उत्सुक होते हैं. आस-पास किसी को खोजते हैं: कोई है जो इस वेगवती जल-राशि की संञा से मुझे परिचित करायेगा! अक्सर कोई मिलता नहीं है और जब कोई मिलता है तो प्यास नहीं बुझती! यह तो अनाम है. जाति-बोधक संञा से काम चला लिया गया है.
"अरे! यह गधेरा है"
"कौन सा गधेरा ?"
"मच्छी-ताल का गधेरा."
"मच्छी-ताल कहां है?"
"आप जहां खडे़ हैं,जरा बांई बाजू की तरफ देखिये. एक रास्ता ऊपर चढ रहा है. वहीं है मच्छी - ताल"
गधेरे का अपना नाम नहीं है.अपनी पहचान नहीं है. प्यास बुझती नहीं. ऐसे में मिल जाता है कोई रेडा़ खाला. एक बरसाती कुनदिका! जब भरकर आती है तो बडी़ चट्टानें टूट - टूट जाती हैं, वहां पिसे हुए पत्थरों का पाट है- रेडा़ फ़कत. रेडा़ खाला.
कभी- कभी कोई खूबसूरत नाम भी मिल जाता है. गंगा की सहायक नदियों में मिलने वाली बहुत सी जलधाराओं के नाम जानने की बडी़ ईच्छा हरजीत के मन में थी. जब मैं ग्वालदम के पास तलवाडी़ रहा तो पिण्डर का सौन्दर्य मुझे बहुत आकर्षित करता रहा. वहां थराली के पास प्राणमति नाम की एक नदी पिंडर में जा मिलती है.)
हम तो शहनशाही की बात कर रहे थे! हरजीत के साथ मैंने शहनशाही आश्रम के आस-पास साल के वृक्षों का जादू जाना.
"यह जीवन जादू हुआ जाता है!"

यह अवधेश की एक कविता की पंक्ति है. इस जादू को हमने जिया. शुरुआत टिप-टाप से हुई थी. वह एक बादल भरी दुपहरी थी.बादल अचानक चले आये थे-ठेठ देहरादूनी मिजाज की तरह! हरजीत की आंखें चमक उठीं.
"राजपुर का मौसम बन गया है" हम तीनों चुपके से सरक लिये. सिटी-बस में बैठे
और राजपुर पहुंच कर सामान हासिल किया. उस दिन हरजीत का झोला साथ नहीं था! (यह होता नहीं था. कोई आठ वर्ष मैंने हरजीत के साथ गुजारे हैं, इतने बरसों में कोई दो या तीन मौके आये होंगे जब वह बिना थैले के निकला होगा. उस थैले में क्या नहीं होता था!)
अब गिलास की समस्या आयी. हम साल - वन में थे ऒर बादल बरस रहे थे.
मित्रों! अवधेश ऒर हरजीत के साथ उस दुपहरी को शाम में तब्दील किया साल के पत्तों ने. हमने पत्तों का दोना बनाया, थोडा़ आबे-हयात मिलाया ऒर साल वृक्षों की छतनार शाखों से टपकती बूंदों की अंजुरियां दोने में छलका दीं. इस मामले में हरजीत पूरा उस्ताद था. अब किस्से को जरा आराम कर लेने दीजिए.तब तक हरजीत का यह शे’र साथ लिये जायें
ये शामे-मैकशी भी शामों में शाम है इक
नासेह,शेख,वाहिद,जाहिद हैं हम-प्याला